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सौभाग्य पंचमी
॥१४८॥
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आसातनां, तेह कर्मनें जोगे; रोगे व्यापी बाला हो राजि०; कांति सुगुरू कहे हेजना, उदयें आवे दावे; कीधा कर्म रसाला हो राजि ॥ १३ ॥
ढाल - ४ - चोथी ॥ जीरे मारे जाग्यो कुंमर जाम ॥ तव देखे दोलत मीली ॥ जीरेजी ॥ ए देशी ॥ जीरे मारे ॥ गुणमंजरी सुंणी एम ॥ जाति स्मरण तिहां लही ॥ जीरेजी ॥ जीरे मारे | मारे ॥ नीज भव देखे जाम ॥ तव मुर्छा आवी वही ॥ जीरेजी ॥ १ ॥ जीरे० ॥ मुर्छा टली लघुं चेत ॥ गुरुनें कहे आदर भरी ॥ जीरेजी ॥ जीरे० धन्य सुगुरु तुम ज्ञान ॥ वात पूर्व भवनी खरी ॥ जीरेजी ॥ २ ॥ जीरे० पूछें गुरुनें सेठ ॥ रोग जास्ये कीम एहनां ॥ जीरेजी ॥ जीरे० गुरु कहे न रहे रोग ॥ करता नाण आराधनां ॥ जीरेजी ॥ ३ ॥ जीरे० करीयें तप उपवास ॥ अजुआली पंचमि दिने ॥ जीरेजी ॥ जीरे० स्वस्तीक भरीयें खास ॥ पुस्तक पाटे स्थापीयें ॥ जीरेजी ॥ ४ ॥ जीरे० ॥ पंच वाटिनो दीप ॥ करी आगल ढोइयें ॥ जीरेजी ॥ जीरे० पंच वर्ष पंच मास ॥ ए तप कीधो जोइयें ॥ जीरेजी ॥ ५ ॥ जीरे० मास मास असमर्थ ॥ नरनें जो नावे वर्गे ॥ जीरेजी
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स्तवनम्
॥१४८॥