SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 335
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Sanna Kendre Acharya Shalagayanmandi २ संयमश्रेणीनुं स्तवनम् ॥१६३॥ HESENTENC4%A5 तीर्थकर जिनराय के० समस्त केवलीओमा राजा समान छे ॥ गुणनां समुद्र गुणरुप रत्ननी उत्पत्ति | अर्थ स्थान तेमज वर्तमान शासननां अधिपति एवा वीर भगवान् छे ॥ वली उपसर्ग-परिसह आवे सहित अडग रह्यां माटे मेरु पर्वतनी पेठे धीर छे ॥ एटले वंदनात्मक स्तवनात्मक अने वस्तुनिर्देशात्मक एत्रण प्रकारना नमस्कार छे तेम आगाथाथी त्रिविध नमस्कारमाथी स्तवनात्मक इष्ट समुचित नमस्कार कयों ॥१॥ ___गाथा-अनुक्रमे संयम फरसतोजी, पाम्यो क्षायक भाव; संयम श्रेणि फूलडेजी, पुजुं पद निष्पाव० गुणो दधि० मेरु० ॥२॥ भावार्थः-अनुक्रमें-उत्तरोत्तर प्रधान संयम स्थानक फरसतोथको यदुक्तं-दशाश्रुतस्कंधे "तस्सणं भगवंतस्स अनुत्तरेणं नाणेणं अनुत्तरेणं देशणेणं अनुत्तरेणं चरित्तेण अनुत्तरेणं आलएणं अणुत्तरेणं| P॥१६३॥ साविहारेणं अनुत्तरेणं वीरिएणं अनुत्तरेणं अजवेणं अनत्तरेण मविणे” इत्यादिक मोहनीय कर्भनो क्षयकरी उत्कृष्टुं संयम स्थान रुप खीणमोह गुणस्थानने पाम्या पहवा श्री वर्द्धमान स्वामीनां संयम For Prve And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy