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शांतिना
थना.
॥ ६५ ॥
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॥ " अथ श्री ज्ञान पञ्चमि स्तवनम् ॥
ढाल — ॥ १ ॥ ली ॥ फागनी ॥ प्रणमी श्रीगुरु पदकज, ज्ञाननी प्राप्ति उपाय: पंचमी तप महिम कहुं, सुणजो भवि समुदाय ॥ त्रिगडे बेठा मीठा, गिरुआ वीर जिणंद; दिए उपदेश अनेकधा, निसुणे सुरनर वृंद ॥ १ ॥ ज्ञान लोचन सुविलासे, लोकालोक प्रकाशे; भत्ति मुक्ति दातार छे, ज्ञान परम सुख वास; ज्ञान विना पशु कहीए, लहीए कांइ न भेद; ज्ञान दीपक सम ज्ञांनी, सर्वा राधक | भेद ॥ २ ॥ देश आराधक क्रिया, ज्ञान विनाते अंध; ज्ञान सहित जे क्रिया, ते सोनुंने सुगंध; दक्षिणा वर्त्तक संखह, दुधे भरीओ तेह; ज्ञानी श्वासो श्वासमां, कठिन कर्म करे छेह ॥ ३ ॥ ज्ञान सहित कृत क्रिया, ते तरिया भव सिंधु महा निशिथमां अक्षर, पंचमी ज्ञान प्रबंध; भगवती प्रमुख आगम मांहिं, ज्ञान तणां बहुमान; पहेलुं ज्ञानजो अनुभवे, क्रिया तास प्रधान ॥ ४ ॥
ढाल ॥ २ ॥ जी ॥ साहेलडीनी ॥ देश ॥ पंचमी तप विधि सांभळो साहेलडी रे, जिम पांमो भवपार | तो; जिन गणधर मुनि उपदिशे साहेलडीरे०, भवियण ने हित कार तो ॥५॥ मृगशीर्ष माहा फागुण भला
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पंच क० स्तवन.
॥ ६५ ॥