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________________ Shn Mahavir Jain Aradhana Kendra सोमंधरविनंति ॥१०४॥ www.kobatirth.org. | सेवाकार खवास; मीथ्या राजा जीहां होये जी, त्रसना लोभ विलास ॥ कृपानिधि ॥ १४ ॥ जिन मत वितथ प्ररूपणा जी, किधि स्वार्थ बुद्ध; जांड्य पनाना जोरथी जी, न रहि कोइ शुद्धि ॥ कृपा निधि ॥ १५ ॥ हिंसादीक अदत्त श्युंजी, सेव्यां विविध कुशील; ममता परिग्रह मेलवी जी, किधां भवना लील ॥ कृपानिधि ॥ १६ ॥ अक्रिय साधे जे क्रीया जी, ते नावे तिल मात; मद अज्ञान टले जेह थी जी, ते नहिं नाणानि वात ॥ कृपानिधि ॥ १७ ॥ दरिशण पण फरस्यां घणां जी, उदर भरणने काज; पण तुम तत्व प्रतित श्युं जी, नधरुं दरशण नाण ॥ कृपानिधि ॥ १८ ॥ सुविहित गुरु बुद्धि लोकने जी, हुं बंदारे आप; आचरणा नहिं तेहवी जी, ए मोटो संताप ॥ कृपानिधि ॥ १९ ॥ मिथ्या देव प्रशरीया जी, किधी तेहनीरे सेव; अह च्छंदाना वयणनी जी, नटलि मुजने देव ॥ कृपानिधि ॥ २० ॥ कोरे चित्त 'चूना परे जी, धर्म कथा मे किध; आप वंचि पर वंचिया जी, एको काज न सीद्ध ॥ कृपानिधि ॥ २१ ॥ रातो रमणी देखीने जी, जीम अण नांख्योरे सांढ; भांड भवाइयानि परे जी, धर्म देखाडुं मांड ॥ कृपानिधि ॥ २२ ॥ क्रोध दावानल प्रबलथी जी, उगे न समता वेल; मान महिधर आगले जी, नचले गुण For Pitvale And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रूप स्तवनम् ॥१०४॥
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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