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सोमंधरविनंति
॥१०४॥
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| सेवाकार खवास; मीथ्या राजा जीहां होये जी, त्रसना लोभ विलास ॥ कृपानिधि ॥ १४ ॥ जिन मत वितथ प्ररूपणा जी, किधि स्वार्थ बुद्ध; जांड्य पनाना जोरथी जी, न रहि कोइ शुद्धि ॥ कृपा निधि ॥ १५ ॥ हिंसादीक अदत्त श्युंजी, सेव्यां विविध कुशील; ममता परिग्रह मेलवी जी, किधां भवना लील ॥ कृपानिधि ॥ १६ ॥ अक्रिय साधे जे क्रीया जी, ते नावे तिल मात; मद अज्ञान टले जेह थी जी, ते नहिं नाणानि वात ॥ कृपानिधि ॥ १७ ॥ दरिशण पण फरस्यां घणां जी, उदर भरणने काज; पण तुम तत्व प्रतित श्युं जी, नधरुं दरशण नाण ॥ कृपानिधि ॥ १८ ॥ सुविहित गुरु बुद्धि लोकने जी, हुं बंदारे आप; आचरणा नहिं तेहवी जी, ए मोटो संताप ॥ कृपानिधि ॥ १९ ॥ मिथ्या देव प्रशरीया जी, किधी तेहनीरे सेव; अह च्छंदाना वयणनी जी, नटलि मुजने देव ॥ कृपानिधि ॥ २० ॥ कोरे चित्त 'चूना परे जी, धर्म कथा मे किध; आप वंचि पर वंचिया जी, एको काज न सीद्ध ॥ कृपानिधि ॥ २१ ॥ रातो रमणी देखीने जी, जीम अण नांख्योरे सांढ; भांड भवाइयानि परे जी, धर्म देखाडुं मांड ॥ कृपानिधि ॥ २२ ॥ क्रोध दावानल प्रबलथी जी, उगे न समता वेल; मान महिधर आगले जी, नचले गुण
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रूप स्तवनम्
॥१०४॥