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________________ ShiMahaveJainrachanaKendra Kailasagersuri Gyanmandi श्रीचतु ** ६ मध्यम श्रावक कहीए तेहने, जे उच्चरे व्रत बाररे; करि उभय काल सामायिक चोखेचित्ते, चउ परवी शांतिदश गुणपोसह निरधाररे ॥ व्रत०॥५२॥ वहि अनुक्रमे इग्यार प्रतिमा, सहे परीसह जे थायरे; देव दानव नाथ स्थान जेहने न शके चलावी, ते उत्कृष्टो श्रावक कहेवायरे ॥ व्रत० ॥ ५३ ॥ आणंद कामदेव चुलणी, स्तवन पिया, इत्यादिक श्रावक जेहरे; श्री वीर वखाणे गोयम आगल, द्रढ धर्मी कह्या तेहरे ॥ व्रत०॥ ॥१३४॥ ॥ ५४॥ मनुष्यगति आयु अनूपूर्वी एहनी, क्रोध अप्रत्याख्यानी च्याररे; उदारिक शरीर एहना । अंगोपांग, वन ऋषभनाराच विचार रे ॥ व्रत०॥ ५५॥ ए दश काढतां बांधे सडसठ, एहने उदये सत्तासी जोयरे; पूर्वकोडि आठ वर्षे उणी, एनी उत्कृष्टी स्थिति होयरे ॥बत०॥५६॥ ढाल-६-ट्ठी॥ जननी मन आशा घणी ॥ ए देशी ॥ संयम मारग आदरं, चढि छठे गुणठाण, जिहां उदय नही च्यारनो, क्रोधादि प्रत्याख्यान ॥ संयम मारग आदरुं०॥ए आंकणी ॥ ५७॥ | ॥१३४॥ जिहां उदय होय पंच प्रमादनो, निद्रा विषय कषाय; धर्म राग विकथा कहि, तेणे प्रमादी कहे| १ प्रतिक्रमण । SASK* For Pale And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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