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________________ ShriMahavirain AartmenaKendra www.kobathrtm.org Acharya Sh Kailasagar Gyanmandi पंच स्तवन. शांतिना थना. ॥ ३३ ॥ कह्यां दोष अमारडा, निज दोष कमाइ; पर०॥१॥ए आंकणी॥पाप कर्म कीधां घणां, बहु जिव विणास्यां; पिडा न जांणी परतणी, कुडां मुख भास्यां; पर०॥२॥ चोर्या में धन पारकां, सेवी परनारी; आरंभ काम किया घणां, परीग्रहनो नहीं पार; पर०॥३॥ निशि भोजन किधां घणां, बहुं जीव संहार; अभक्ष्य अथाणां आचर्या, पातिकनो नहीं पार; पर०॥४॥मात पिता गुरु ओलव्यां, कियां क्रोध अपार; मांन माया लोभ मन धाँ, मतीहिन गमार; पर०॥ ५॥ | ढाल-पांचमी-श्रावण शुद दिन पंचमीए ॥ ए देशी ॥ एम कही सरवे वेदनाए, वलीय उदीरें । तेहितो; शिला कंटाला वजतणांए, तिहां पछाडे साहितो॥१॥ तिवरसें तातो तरूए, मुखमांहे | मामें तामतो; अग्नी वर्णे करे पूतलीए, आलिंगन दे जांमतो ॥२॥ सयल वदन कीडा भरेए, जीभ करें संत खंडतो; ए फल मिशि भोजन तणांए, जाणे पाप अखंड तो ॥३॥ उनो अति आंकरोए, आणे ए तातो नीरतो; ते घाले तस आंखमाए, कानें भरें कथीरतो ॥ ४॥ काल अधीक बिहामणां ए, हूंडक जे संठाण तो; दिसे दिन दयामणाए, वली निरधारा प्राणतो ॥५॥ ॥३३॥ For Pale And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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