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________________ Shn Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobarth.org. ढाल - छठ्ठी-सुणो प्राणीरे सामायक प्रतसार ॥ ए देशी ॥ इणिपरें बहु वेदन सही, चिंत चेत्तो रे, वसतां नरक मोझार - चि० ज्ञानीविन जांणे न कोइ चि०, कहेतां नावे पार - चि० ॥ १ ॥ दश दृष्टांते दोहिलो, चि०, लाभ्यो नरभव सार-चि०; पाम्यों एलें म हारिज्यो- चि०; करज्यों एह विचार - चि० ॥२॥ शुद्धो संयम आदरो - चि०, टालो विषय विकार - चि०; पांचे इंद्रीय वश करो - चि०, जिम होवें छुटक बार- चि० ॥३॥ निंद्रा विकथा परिहरो - चि०, आराधो श्री जिनधर्म - चि०; समकित रत्न हृदयें धरो - चि०, भांजो मिथ्या भ्रम - चि० ॥ ४ ॥ वीर जिणंद पसाउलें - चि०, अहिपुर नगर मोंझार - चि०; स्तवन रच्यो रलीयामणो - चि०, परम कृपाल उदार - चि० ॥ ५ ॥ 66 ' इति श्रीनिगोद स्तवनं संपूर्णम् ” 66 'अथ श्री त्रिभुवन स्तवनम् ” Acharya Shn Kailassagarsuri Gyanmandir दुहा - परम पुरुष परमातमा, प्रणमुं पास जिणंद; केवल कमल्ला वल्लहो, चिदानंद सुखकंद ॥ १ ॥ ऋषभानन चंद्रानन, वारिषेण वर्द्धमांन; नाम च्यारें शाश्वतां जपतां वाचें वान ॥ २ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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