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________________ ShriMahavirain AartmenaKendra www.kobateh.org. Acharya Sh Kailasager Gamandi स्तवनम् सौभाग्य पंचमी ॥१४॥ रे ॥ ज्ञान वीराधन स्वाद अछे वीष पान- रे ॥ ए आंकणी ॥२॥ ढाल पूर्वली-अक्षर तस मुख नवी चढेरे, पाकें घडे जीम कंठ; गुरु उद्यम अहिले हुओ रे, रहीयो केवल बंठ ॥ ३॥ त्रुटक–रहीयो । थाकी समजण नावी, गुरु कहे लाभ अलाभ एभावी; तरुण पणे हवे थयो ते कोढी, वेयण वाधी आडी डोढी ॥ जी पंडीत जी जीरे ॥४॥ ढालपूर्वली-एहवे ते पूरमा वसेरे, सिंहदास एक सेठ सात कोडि कंचन धणीरे, जीनमत भावित देव ॥५॥त्रुटक-जीनमत भावित ते घर घरणी, कर्परतिलका पति मन हरणी; गुणमंजरी तस पुत्री मुंगी, वीष महा मुख रोगे गुंगी ॥ जी पंडीत जी जी रे ॥६॥ ढाल पूर्वली-सोल वर्षनी ते थइरे, वर न वरे कोइ तास; मात पीतादीक ते दुखेंरे, दुःख्यां चीत्त उदास ॥७॥ त्रुटक–दुःख्या बेहु करे तिहां चिंता, एहवे देश नयर, विहरंतो; वीजयसेन सूरी चउनाणी, आव्या ते पूर गुरु गुण खांणी ॥ जी पंडीत जी जी रे ॥८॥ ढालपूर्वली-पुत्र सहीत पूरनो धणीरे, सपरीवार सिंहदास; लोक सकल नगरी तणारे, गुरु पद वांदे उल्लास ॥९॥ त्रुटक-गुरु वांदी बेठा मुख आगे, देशना में गुरु भाव वैरागे; ज्ञान आरा REC E%A5-%AOG ॥१४६॥ For Pale And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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