SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 375
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra संयमश्रेणीनुं स्तवनम् ॥१८३॥ www.kobahrth.org भावार्थ:-श्री वीर स्वामीना पंचम गणधर अने पहेलां पटोधर श्रीसुधर्मस्वामीथी आठपाट लगी निग्रंथ बिरुद धारी १ नवमेपाटे सूरीमंत्र कोटीवार जय्या माटे कोटिक बिरुद धारी २ पनरमे पाटे चंद्रसूरी चंद्रवत् संघलुं सौम्यथाय तेमाटे श्रीजो चंद्रगच्छ कहेवाणो ३ सोलमे पाटे सामंत भद्राचार्य घणा निर्मम थयां वनवासे रह्यां माटे वनवासी बिरुद ४ छत्रीशमे पाटे सर्व देवसूरि थया. वडतले आचार्य पद दीधुं. अने तेना साधु वडशाखा परिवारे तथा तेमनी साची ग्रहणशिक्षा आसेवनाशिक्षा धारी अर्थात् पं० श्री सत्यविजयगणि गच्छ नायकनी आज्ञामागी क्रीया उद्धारकीधो. श्रीआनंदघनजीनी संघाते वनवासे रही अनेक तप कीधां. अनुक्रमे वृद्धाववस्थाजाणी अणहीलपुर पाटणम रहेतां धर्मोपदेश देतां देतां शिष्य थयां पं० श्री कर्पूरविजय पं० श्री कुशल विजय ए वे थयां तेमां पं० श्रीकर्पूरविजयगणि अर्हत् प्रतिमा प्रतिष्ठादि अनेक धर्मकार्य करी प्रभावकथया. देश-नगर पुर पाटण विहार करतां करतां पं० श्रीवृद्धि विजय गणिपं० खिमा विजयगणि ए वे शिष्य थयां. तेमांहि पं० श्री खीमा विजय गणि शिष्य. For Pitvale And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ सहित ॥१८३॥
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy