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________________ Shi Mahavir Jain Aradhana Kendra कल्याकनुं www.kobahrth.org. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ए अमिय मय मेह, आल उपरि मह अतिघणुं ए ॥ ३५ ॥ वणिओ ए जय जिण नाह, समोसरणठि | अलग वर; श्रीगुरु ए सोम सुंदर सूरि, गुणे गोयम अवर; नित्य नित्य ए इसो विचार; भविअण | जिण आगल कहेए; सेवेए जेह गुरुपाय, रिद्धि अणंती ते लहेए ॥ ३६ ॥ " इति श्री समवसरण स्तवनम् समाप्त मिति" "अथ श्री कल्याणकनुं स्तवन" ॥ दुहा ॥ सकल समीहित पूरवा, साची सुरतरु वेलि; पातिक पंक पखालवा, वर धाराधर रेलि ॥ १ ॥ भविराजी राजी रवि, सुर प्रति कृति गुण ज्ञान; जयकारी जिन मंडली, मन समरुं एक ध्यान ॥ २ ॥ श्री श्रुतदेवि दीपिका, दीपे प्रबल प्रकाश; मुजमन मंदिर रही करो, जाड्य तिमिर | भर नाश ॥ ३ ॥ चउवीसे जिनवर तणां, कल्याणक दिन नाम; भावधरी भणशुं भविक, सुख स्मरणनुं ठाम ॥ ४ ॥ आगा में पुनिम मासमें, मेली गणन अभ्यास; लोकरीति लेज्यो इहां, अमा वासि ए मास ॥ ५ ॥ For Private And Personal Use Only स्तवन.
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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