SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ShiMahayeJainrachanaKendra Acham Ka B andit शांतिना- आरंभनो त्याग; अन्य दिने तुमे कीधो, सहेजे पण व्रत भंग; तिणे ए कर्म बंधाणुं, सांभल तुं ए-पंच का थना. |कंत ॥ २ ॥ सांभली ते सह कुटुंब स्यु, पाले बत निरमाय; बीज प्रमुख आराधे, सविशेषे सुखदायः स्तवन॥ ७६॥ |ग्राहक पण बहुआवे अर्थे, थावे लाभ अपार; विश्वासी बहु लोकथी, थयो कोटि शिरदार ॥ ३ ॥ निज कुल शोषक वाणिओ, जाणि आजगत प्रसिद्ध; तिणे जइ रायने वाणिये, इणी परे चुगली कीध; इणे कोटि निधि लाधो, ते स्वामिनो होय; नरपति पूछे शेठने, वात कहो सहु कोय ॥४॥ शेठ कहे सुणो नरपति, माहरे छे पच्चक्खाण; स्थूल मृषावाद ने वली, स्थूल अदत्ता दान; गुरु पासे व्रत आदर्यु, ते पालुं निरमाय; पिशुन वणिक कहे स्वामि ए, धर्म धूतारो थाय ॥ ५॥ तस वचने करी तेहना, द्रव्य तणो अप्पहार; करीने भूपति राखे, पुत्र सहित निज द्वार ॥राजद्वारे रह्यो चिंतवे, आजमें लयं कष्ट; पण आज पंचमी तिथी तिणे, लाभ होय कोइ लष्ट॥ ६॥ प्रातः समे नृपति देखे, खाली है| निज भंडार; शेठघरे मणी रत्न सुवर्ण, भाँ श्री श्रीकार; आवी वधामणी रायने ते, ते बेडंनी सम-IM॥ ७६ ॥ काल; शेठ तेडी कहे नरपति, वात सुणो इण ताल ॥७॥ For Pavle And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy