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________________ Shi Mahavir Jain Aradhana Kendra दश मता धिकारे ॥१४२॥ Patty www.kobahrth.org. रोष तिहां बोध न दिशे, बोध विना नहि मोक्षरे ॥ तुट्योरे ॥ ३ ॥ कुमतिने तमे मुकोरे भाई, हुरे जिम जलनि खाइरे; बुडतो बुडाडे छे तमने, आचारंग सखाइरे ॥ तुठयोरे० ॥ ४ ॥ आगम लोपीने तप करे मुनिवर, वर्ष पुर्व क्रोडरे; एक दिवस आणाधारिनि, ते पण नावे जोडेरे ॥ तुट्यो रे० ॥ ५ ॥ श्रुत प्रमाणे समाचारि दिठि, साकरथी अति मीठीरे; विजयप्रभ सूरिनि वाणी, संघले लोके दीठीरे ॥ तुव्योरे ॥ ६ | श्रीमहावीरनी महेर थइ जब, कुमत मत मुकि टालीरे; नयविजय सुपसायथी जशने, आज थइ दिवालीरे ॥ तुट्योरे ॥ ७ ॥ कलश - त्रिशला ते नंदन त्रिजग वंदन, वर्धमान जिनेश्वरो मे शुध पामी अंतरजामी, वीनव्यो अलवे सरो ॥ १ ॥ शकल सुख करता दुःकृत हरता, जगत तारण जग गुरु; युग भवन संयम पौषमासे, शुक्ल सप्तमी सुख करु ॥ २ ॥ तपगच्छ राजा सुजश ताजा, श्रीविजयप्रभ दिनकर समो; नय विजय सुपसाय वाचक, जशविजय शिर नमो ॥ ३ ॥ “इति श्री दशमता धिकारे वर्द्धमान जिन स्तवनम् सम्पूर्णम्” For Pitvale And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वर्धमान स्तवनम् ॥१४२॥
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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