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दश मता
धिकारे
॥१४२॥
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रोष तिहां बोध न दिशे, बोध विना नहि मोक्षरे ॥ तुट्योरे ॥ ३ ॥ कुमतिने तमे मुकोरे भाई, हुरे जिम जलनि खाइरे; बुडतो बुडाडे छे तमने, आचारंग सखाइरे ॥ तुठयोरे० ॥ ४ ॥ आगम लोपीने तप करे मुनिवर, वर्ष पुर्व क्रोडरे; एक दिवस आणाधारिनि, ते पण नावे जोडेरे ॥ तुट्यो रे० ॥ ५ ॥ श्रुत प्रमाणे समाचारि दिठि, साकरथी अति मीठीरे; विजयप्रभ सूरिनि वाणी, संघले लोके दीठीरे ॥ तुव्योरे ॥ ६ | श्रीमहावीरनी महेर थइ जब, कुमत मत मुकि टालीरे; नयविजय सुपसायथी जशने, आज थइ दिवालीरे ॥ तुट्योरे ॥ ७ ॥
कलश - त्रिशला ते नंदन त्रिजग वंदन, वर्धमान जिनेश्वरो मे शुध पामी अंतरजामी, वीनव्यो अलवे सरो ॥ १ ॥ शकल सुख करता दुःकृत हरता, जगत तारण जग गुरु; युग भवन संयम पौषमासे, शुक्ल सप्तमी सुख करु ॥ २ ॥ तपगच्छ राजा सुजश ताजा, श्रीविजयप्रभ दिनकर समो; नय विजय सुपसाय वाचक, जशविजय शिर नमो ॥ ३ ॥
“इति श्री दशमता धिकारे वर्द्धमान जिन स्तवनम् सम्पूर्णम्”
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वर्धमान
स्तवनम्
॥१४२॥