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________________ ShriMahavirain AartmenaKendra www.kobathrtm.org Acharya kaila n mandi AC श्रीरोहिणी तपनुं * ॥१२३॥ * * * विस्मय पामे, वासुपूज्य शिस वन ठामे; आव्या रूप सोवन कुंभ नामा, शुभवीर करे परणामा ॥ स्तवनम् पनोता० गुरु०॥ १३॥ | ढाल-२-जी ॥ चोपाइनी॥आसो सुदि सातम सुविचार, ओली मांडी स्त्रीभरतार ॥ ए देशी॥ चउ नाणी नृप प्रणमी पाय, निज राणीनुं प्रश्न कराय; आ भव दुःख नवि जाणे एह, ए उपर मुज अधिको नेह ॥ १॥ मुनि कहे इणे नगरे धनवंतो, धनमित्र नामा शेठज हतो; दुर्गधा तस बेटी थइ, कुबजा कुरूपा दुर्भग भइ ॥२॥ यौवन वय धन देतां सही, दुर्भग पण कोइ परणे नहीं; नृप हणतां | कै तव सिखेण, राणी परणावि सा तेण ॥ ३ ॥ नाठो ते दुर्गधज लही, दान दीयंती सायर रही; ज्ञानीने परभव पूछती, मुनी कहे रैवत गिरि तट हती ॥ ४॥ पृथिवी पाल नृप सिद्धीमति, नारी नृप वनमां क्रीडती; राय कहे देखी गुणवंता, तपसी मुनि गोचरी ए जता ॥ ५॥ दान दीयो घर पाछां ॥१२३॥ वली, तुं क्रिडारस रिसेंबली; मुर्खपणे करि बल ते हिये, कडवू तुंबडं मुनिने दीये ॥६॥ पारj - करतां प्राणज गयां, सुरलोके मुनि देवज थयां; अशुभ कर्म बांधे सा नारी, जाणी नृप काढे पुर बार * C ACAPRICORECA-% *** * * For Pale And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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