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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीरोहिणी तपनुं www.kobatirth.org. ॥ ७ ॥ कुष्ट रोग दिन साते मरी, गइ छट्ठी नरके दुःख भरी; तिरिय भवे अंतरता लेइ, मरीने सात नरकमां गइ ॥ ८ ॥ नागिण करभीने कूतरी, उंदर धीरोली जलो शुकरी; काकी चंडालण भव लही, नवकार मंत्र तिहां सद्दही ॥ ९ ॥ मरीने शेठनी पुत्री भइ, शेष कर्मे दुर्गंधा थइ; सांभली जाति स्मरण लहे, श्री शुभवीर वचन सदहें ॥ १० ॥ ढाल - ३ - जी ॥ गजरा मारुजी चाल्यां चाकरी रे ॥ ए देशी ॥ दुर्गंधा कहे साधूने रे, दुःख भोग वियां अतिरेक करुणा करिने दाखीयेरे, जिम जाए पाप अनेकरे - जिम० ॥ १ ॥ मुनी कहे रोहिणी तप करोरे, सात वर्ष उपर सात मास; रोहिणी नक्षत्रने दिनेरे, गुरु मुख करिए उपवासरे - गुरु० ॥२॥ तपथी अशोक नृपनी प्रियारे, थइ भोगवि भोग विलास; वासुपूज्य जिन तीर्थे रे, तमे पामश्यो | मोक्ष निवासरे - तमे० ॥ ३ ॥ उजमणे पूरण तपेरे, वासुपूज्यनी पडिमा भराय; चैत्ये अशोक तरु तलेरे, अशोक रोहिणी चितरायरे - अशो० ॥ ४ ॥ साहमी वत्सल पधराविनेरे, गुरु वस्त्र सिद्धांत लखाय; कुमर सुगंध तणी परेरे, दुःख कर्म सकल क्षय जायरे - दुःख० ॥ ५ ॥ साधु कहे सिंह पुरमारे, For Pitvate And Personal Use Only a Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्तवनम्
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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