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________________ ShiMahayeJainrachanaKendra Acharya Sh Kailasageri Gyanmandi श्रीरोहि- णी तपर्नु स्तवनम् ॥१२४॥ सिंहसेन नरेसर सार; कनकप्रभा राणी तणोरे, दुर्गंधी अनीष्ट कुमाररे-दुर्गंधी०॥६॥ पद्म प्रभुने पूछतारे, जिन जंपे पूर्व भव तास; बार योजन नागपूरथीरे,एक शील्ला निलगिरि पासरे-एक०॥७॥ ते उपर मुनि ध्यानथीरे, न लहे आहेडी शिकार; गोचरी गत शिल्ला तलेरे, कोप्यो धरे अग्नि अपाररे-कोप्यो०॥ ८॥ शिल्ला तपी रह्यां उपरेरे, मुनि आहार करी काउस्सग्ग;क्षपक श्रेणी थइ केवलीरे, |तरक्षण पाम्या अपवर्गरे-तत्क्षण ॥९॥ आहेडी कुष्टि थइरे, गयो सातमि नरक मोझार; मच्छ मघा अहि पांचमीरे, सिंहचोथी चित्रक अवताररे-सिंह० ॥ १०॥ त्रीजी बीलाडो बीजीएंरे, घुक प्रथम नरक दुःखजाल; दुःखनां भव भमी ते थयोरे, एक शेठ घरे पशु पालरे-एक० ॥११॥ धर्म लही दवमां बल्योरे, निद्राए इदय नवकार; श्री शुभ वीरनां ध्यानथीरे, तुज पुत्र पणे अवताररे-तुज०॥ १२ ॥ __ ढाल-४-थी ॥मारी अंबानां वडला हेठ ॥ ए देशी ॥ निसुणी दुर्गध कुमार जातीस्मरण पाम २, पद्मप्रभु चरणे शीष-नामी उपाय ते पूछतोरे; प्रभु वयणे उजमणे युक्त-रोहिणीनो तप सेवी-1 ॥१२४॥ For Patie And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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