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________________ SM Mahavam A na Kendra San ka mandi 5- अ संयमश्रेणीनुं स्तवनम् 5- सहित KAAR ख्यानीया चार ४ एवं आठ प्रकृति खपावे त्रीजे भागे नपुसक वेद चोथे भागे स्त्रीवेद ततः पंचमें भागे हास्यषट्क छठे भागे पुंवेद सातमे भागे संज्वलन क्रोध अष्टमे भागे संज्वलनमान नवमे भागे संज्वलनमाया, एटले नवमे गुणठाणे २० वीश खपावे दशमे गुणठाणे लोभ शुक्ल ध्याननो पृथक्त्व वितर्क सविचार रूप प्रथम पायो ते रूप अनले करी सकल मोहनीय भस्मसात् करे पछी क्षीण |मोह गुणठाणो चढे क्षायिक चारित्रवान् थाय तिहां एक "त्ववितर्क, अविचार रूप शुक्लध्याननो बीजोपायो अनुभविने द्विचरम समय निद्रा दुग खपावी चरम समये ज्ञानावरणीय पांच ५दर्शनावरणीय |चार ४ अंतराय पांच ५ एवं चौद १४ प्रकृतिने क्षये अनंत चतुष्टयी विभूषित सिद्धिवधु योग्य थाय छे” इति ॥श्री सिद्धसेन दिवाकरकृत प्रवचन सारोद्धारनी वृत्तिमांहे षट् स्थानकनी यंत्र स्थापना दीठी ते क्षमाए उपलक्षित दशविध धर्म तेणे करी विशेषे जयवंता जिन कहेतां श्रुतकेवली अवधि जिन मनः पर्यव जिन एवा सुधर्मा स्वामी तेनां वयण कहेता वर्तमान आगम तेहथी उत्तम साधु-साध्वीने फरसन रूपें तथा उत्तम श्रावक-श्राविकाने श्रद्धा रूप संयम श्रेणी चित्तमा पेठी एटले पंडित RECRECक र For Pale And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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