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________________ Shi Mahavir Jain Aradhana Kendra अर्बुदाचलउत्पत्ति शां. २७ www.kobatirth.org. लूणग वसही जिन वंदु, भवनां पाप निकंदुं ॥१॥ नेमीश्वर जग जयवंत, लूणग वसही भगवंत; मंत्रीश्वर श्री वस्तुपाल, बीजो बांधव श्री तेजपाल ॥ २ ॥ धन खरचें अति उदार, साढीबारह कोडि विस्तार; जिन भवन उत्तुंग सुरंग, कोरणी अति सूक्ष्म सुचंग ॥ ३ ॥ वर्ष सहस आयु जो होय, कहेतां पार न पावे कोई; हस्तिशाला तिहां अति सोहे, परीया सात बेग मन मोहे ॥ ४ ॥ वस्तुपाले पुण्य भंडार, भरीया भवे भवे सुखकार; गिरनार समान ए कहीये, वांदी अविचल पदवी लहीये ॥ ५ ॥ हवे पेथडसाह पुण्यवंत, करे चैत्य उद्धार गुणवंत; धन मनने भावे वावे, सुरनर जोवा तिहां आवे ॥ ६ ॥ हवे गुर्जर ज्ञाति गुण भारी, भीमसाह वडो व्यवहारी; त्रीजो उद्धार करावे, प्रासाद जिन जोवा आवे ॥ ७ ॥ पीतलमय श्री जिन आदि, नारी गावें वादो वादि; हवे कुंभ राणानी रीति, लीधुं कुंभल मेरु घरी प्रीति ॥ ८ ॥ चौमुख जग सघलो जाणे, मूल नायक सकल वखाणे, संघपति मंडग नाम, रचें देहरी सुंदर ठाम ॥ ९ ॥ मंडग वसही श्री पास, पूजता पहोचें आस चौमुख पूतलीसु विचित्र, च्यार मंडप वांदो मित्र ॥ १० ॥ ओरडी सघली जिन देव, पूजी वांदी For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चैत्यपरिपाटी स्तवनम्
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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