SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 321
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shanna Kendre Acharya Sh Kailasagersuri Gyanmandi चैत्यप रिपाटी स्तवनम् अर्बुदाच कोरणी, नव नवी भाति करावीरे; रुपा सोना सम ते थई, आरासज वहर हरावीरे ॥ चैत्य ॥७॥ लउत्पत्ति |चिहुं दिसि फरती देहरी, एक एकथी रुडीरे; मंडपे मंडपे पूतली, नाचंता खलके चूडी रे॥ चैत्य ॥१५६॥ ॥ ८॥ स्तंभ सकलनी कोरणी, स्वर्ग मृत्यु नवि दीठीरे; सुणता दीठां सुख उपजे, अमृत सम लागे मीठीरे ॥ चैत्य ॥९॥ मूल नायक तिहां स्थापीआ, पीतल में आदि जिणंदरे, विमल मंत्रीश्वर जग जयो, बोले नरवर इंद्ररे ॥ चैत्य ॥ १० ॥ हस्तिशाला आगलि भली, विस्तर भूमि अपा ररे; असवार विमल मंत्री थया, प्रणमें जगदाधारोरे ॥ चैत्य ॥ ११॥ कोडि अढार सोना तणी, उपरे छपन्न लाखोरे; प्रतिमा देहरा कोरणी, ध्वजा दंड ये शाखोरे ॥ चैत्य ॥ १२॥ । दुहा-हवे जगदीश्वर पूजसो, लेई चंपक फुल; अगर धुप उखेवसो, जेहनो नही जग मूल 3॥१॥ बोघरीओ सुलतान वलि, करे जिन मूर्ति भंग; स्तंभ स्तंभनी प्रतली, टाली टाले रंग ॥२॥ विजडसाह एक वाणीयो, श्रावक समकित धार; मूर्ति स्थापे आदरे, भवे भवे सुख दातार ॥३॥ ढाल-४-चोथीं ॥ वीजडसाह नो जस वारु, करे जिन वन भवन औंधारु; ॥१५॥ For Pale And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy