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________________ चैत्यप रिपाटी स्तवनम् अर्बुदाच- क सेव; इणिपरे तिहां जिनवर वांद्या, निज चित्त सकल आनंया ॥ ११॥ हवे खमणावसही लउत्पत्ति दीठी, जिणवर सो लागी मीठी; तिहां श्री जिन महिमा निवास, पूरे पूजक जन मन आस ॥१२॥ ॥१५७॥ | दहा-विमल वसहीयें आदिजिन, लूणगवसही नेमि; करस्यों पूजा भावस्यु, आणी मनमा प्रेम ॥१॥ तीम गवसही आदिजिन, पास जिणेसर भाव; चौमुख पूजा वंदना, करता भवजल नाव ॥२॥ सघले ठामे जिनवरु, पूजी प्रणमी शुद्धि; खमणा वसही जोइसों, आणी निरमल बुद्धि ॥३॥ | ढाल-५-पांचमी ॥ तुज साथे नही बोलु रुषभजी ॥ ए देशी ॥ हवें कुंभाराणानी वातो, सांभलज्यो चित्त देईजी; कुंभ राणे सांध्या सगला, सुजस भलो जग लेईजी ॥१॥ चैत्य परिवाडि आबू गिरिनी, कहेतां मन उल्हासजी; सांभलतां सुख संपत्ति थाये, सफल फलि सह आसजी ॥२॥ कुंभो राणो आबु उपरि, आवे करवा वासजी; विषम ठेका' जाणी सुंदर, गढ मंडावे उल्हासजी ॥३॥ नाम अचलगढ तेहनों दीधो, वारु पोलि कुठारजी; नागोरी घडीयालू वाजे, वावि सरोवर राजेजी ॥४॥ अनेक ठाम आराम अनोपम, वीसामा जल ठामजी; जिहां CONCECTS-25AGACAR ॥१५७॥ For And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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