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________________ SM Mahavam A kende www.kobateh.org. Acha Sh Kailasagar Gyanmandi शांतिनाथ स्तवनम् श्रीचतु उपशांत मोह गुणठाण, जिहां मोह उपसमावे सुजाण; तिहां यथाख्यात चारित्र प्रकाश, वली पांमी देश गुण- तेहनो होय नाश ॥ ७४ ॥ पंच ज्ञानावरणी पंच अंतराय, दर्शणा; वरणी च्यार कहेवाय; उंच गोत्र स्थान ||जस नाम ए सोल विण जेह, बांधे एक श्याता वेदनी वली तेहः ॥ ७५॥ उदय प्रकृति ओगणसाठ कही, इम जाणो इग्यारमे गुणठाणे सही; हवे बारमुं क्षीणमोह गुणठाण, जिहां आवे यथाख्यात चारित्र प्रधान ॥ ७६ ॥ सर्व घनघाती कर्म खपावे तिहां, बांधे एक स्याता वेदनी वली जिहां; उदय प्रकृति तिहां पंचावन कही, हवे एहनि स्थिति कहुं गहगही ॥ ७७॥ छट्ठाथी बारमा गुणठाणा लगिजोय, उत्कृष्टी स्थिति अंतर मुहुर्त होय; जो एकटुं रहे छटुं सातमुं गुणठाण, तो देशे उणुं पूर्व कोडि प्रमाण; ॥ ७८॥ काल धर्म इग्यार गुणठाणे जोय, चारमे तेरमे त्रीजे न होय; जाय केडे साखादन समकित मिथ्यात्व, ए प्रमाण जिन मतमें विख्यात ॥ ७९ ॥ एणीपरे कह्यां ए गुणठाणा बार, सुणो हवे तेरमानुं कहुं निरधार; जेहना गुण कहेतां नावे पार, जो सुरगुरु करे मुखें उच्चार ॥८॥ १ साथे। For Pale And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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