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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीचतुदश गुण स्थान ॥१३६॥ 35432 www.kobatirth.org. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ढाल - ८ - मी ॥ राग मेवांडु ॥ पद्म प्रभुजि जइ अलगा रह्या ॥ अथवा ॥ भोली डारे हंसा विषय न राचीए ॥ ए देशी ॥ सुगुण सनेहारे जिनजी तुं जयो, सोहे तेरमें गुणठाण; शुक्लध्याने रेलयलीन थइ, तिहां पाम्या केवल नाण सुगुण० सनेहारे जिनजी तुं जयो || ए आंकणी ॥ ८१ ॥ अनंत ज्ञान दरिशण चारित्र लही, पाम्या अनंत बल तेज; तुझ दरिसण देखीने भविकने सही, उपजे अतिघणुं हेज; सुगुण० ॥ ८२ ॥ दोष अढारे रे गया मूलथी, सोहे अतिशय चोत्रीश; योजन गामिनी रे वाणी खिरे, जेहना गुणनो पार न दीश सुगुण० ॥ ८३ ॥ लोकालोक प्रका शक तुं प्रभु, रूपी अरूपि जांणेरे जेह; केवलझानीरे जे होवे सही, सोहे ए गुणठाणेरे तेह | सुगुण० ॥ ८४ ॥ सता पंचाशीरे रही च्छारशी, उदय प्रकृति बेंतालीश होय; समयिक बंधीरे स्याता रही, नावे जे सुख तोलेरे कोय ॥ सुगुण० ॥ ८५ ॥ आठ वर्ष ऊणीरे पूर्व कोडीनी, कहि उत्कृष्टिरे स्थिति रे एम; अंतरर्मुहुरन्तनीरे जघन्य स्थिति कही, मध्यम स्थीति कहेवाय केम | सुगुण० ॥ ८६ ॥ कहुं अयो १ रज जेवी । For Pivate And Personal Use Only शांति नाथ स्तवनम् ॥१३६॥
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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