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________________ ShiMahayeJainrachanaKendra www.kobathrtm.org Achat na m ed DROICALCASEREORIES पंच कल्याणक वासरे, महोत्सव करे सुरराजोरे ॥ समकीत गुनी जनवीकसें, करसें आतम काजोरे॥ ॥ मो० ॥ १३ ॥ जंघा चारण वीद्या धरु, नरवर सुरवर रमणारे ॥ विद्याचारण मुनिवर आवे, टाले, नमीभव गमणारे॥ मो० ॥ १४ ॥ केइ प्राणी समकित लहें, श्री जिन भक्तिनिशानीरे ॥ विदिशी गीरीनां च्यार छे, सोल छे तस राजध्यानिरे ॥ मो० ॥ १५॥ सुंदर जीनवर धाम छे, सोहम इशा* ननी देवी रे ॥ अट्ठाइ महोत्सव तिहां करे, दशदिग्ग पालादि सेवी रे ॥ मो० ॥ १६॥ नंदीश्वर |3/ द्वीपनो बहु, विस्तार छे सयाणी रे ॥ जिवाभिगम ठाणांगमां, जोइकरो शुद्धनांणिरे ॥ मो० ॥१७॥ | दुहा-शांति जिनेश्वर गाइएं, ध्याइयें तत्त्वस्वरुप ॥ परमाणंद पद पाइये, अव्यय सुख अनुप ॥१॥ ॥ ढाल ॥४॥राय बोलावे राणिने हेत आणी रे ॥ ए देशी ॥ निज निज सूर सभाए गया, रूचीवंताजी ॥ डाबडा मांहें तस मूके बुद्धिवंताजी ॥ पूष्प चंदन दाढा पूजे, रू० ॥ अवसर हरी नवि चूके ॥ बू० ॥१॥ धूर सोहम देवलोय छे, रू०॥ बत्तीस लक्ष वीमांन बू०॥सत्तावन्न कोडी उपरे रू० सठलक्ष बिंब सुजाण ॥२॥ ईशान देवलोयें बीजे रू०॥ अडवीस लक्ष प्रासाद बु०॥ लक्ष शां. ३ For Pale And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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