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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org. शांतिना थना. रे; नरके करतां बहु रीवरे; ए छठ तप करतां थकां सही नरक निवारे जीव रे ॥ सूण गौतम गणधराः ॥ ए आंकणी ॥ २३ ॥ नरके विषे कोडि दसलाख सही, जीव लहे तिहां अति 'दुःख ते दुःख अट्ठम तप हुंते, दूर करे पामे सूख रे ॥ सूण० ॥ २४ ॥ छेदन भेदन नारकी, कोडा ॥ ८० ॥ - कोडि वर्षो रे; कुगति कर्म ने परिहरे, दशम एतो फल होय रे ॥ सूण ॥ २५ ॥ नित्य फासू जल पीवतां, कोडाकोडि वरसनां पाप रे; दूर करे क्षण एकमें, जीव निरमल होय निरधार रे ॥ सूण० ॥ २६ ॥ ए तो वलिय विशेषें फल को, पंचमि करतां उपवास रे; ते तो पामे ज्ञान पांचे भलां, करतां त्रिभुवन उजाश रे ॥ सूण ॥ २७ ॥ चौदश तप विधिशुं करे, चौदह पूर्वि होय धार रे; इग्यारस एकादशी, करतां लहीए शीव सार रे ॥ सूण० ॥ २८ ॥ अष्टमि तप आराधतां, जीव न फरे इण संसाररे; इम अनेक फल तप तणां, कहेतां वली नावे पार रे ॥ सूण० | ॥ २९ ॥ मन वचनें काया ए करी, तप करे जे नरनार रे; अनंत भवना रे पापथी, छुटे तेह निरधार रे ॥ सूण० ॥ ३० ॥ तप हुंती पापी तर्या, निस्तरीया अर्जुन मालि रे; तप हुंती एक दिन Acharya Shn Kailassagarsuri Gyanmandir For Pivate And Personal Use Only पंच क० स्तवन. ॥ ८० ॥
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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