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________________ ShriMahavirain AartmenaKendra Achan Kailas Gyamandi स्तवन, शांतिना-कुठस मूल समेटिनु; संभूति गुरु तिणे भेट्यो ॥४०॥ सहस वरस तिहां चारित्र पाली, लेइ दीक्षा थना. आतम अजुआली; तपकरी काया गाली ॥४१॥ एक दिन गाय धसी सीयाली, पडिओ भूमि ॥५४॥ सस भाइ भाली; तेहश्युं बल संभाली ॥ ४२ ॥ गारवेंरीस चढि वीकराली, सिंग धरी आकाशे छाली; तसबल शंका टाली ॥ ४३ ॥ तिहां अणसणे निआणुं की , तप वेची बल मांगी लीधुं; उर्द्ध पीया' कीधुं ॥ ४४ ॥ सत्तरमें भवें शुक्रे सुरवर च्यवी, अवतरीओ तिहां पोतनपुर; प्रजापती, मृगावती कुयर ॥ ४५ ॥ चोराशी लाख वरषानुं आयु, सात सुपन सुचित जायो; त्रिपृष्ट वासुदेव गायो॥ ४६॥ ओगणीशमें भवे सातमी नरकें, तेत्रीश सागर आयु अभंगी, भोगवियुं तनु संगे ४७॥ विसमें भवे सिंह हिंसा करतो, एकवीसमें चोथी नरक फिरंतो; विचे भव घणां भमंतो ॥ ४८॥ बाविशमें भवि सरल स्वभावी, सुख भोगवतां यश गवरावी; पुण्ये शुभ मतिआवी ॥ ४९॥ वीशमें भवे मूकापुरीए, धनंजयधारणीनां कुखे; नर अवतरीओ सुखें ॥५०॥ तिहां चक्रवतिनी पदवी साधी, पोटिलाचार्यशुं शुभ मति वाधी; शुभ तप किरिया साधी ॥ ५१॥ कोड वरस | Xks+%2595%2525-5 ॥५४॥ For Pale And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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