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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 62 www.kobarth.org. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकवीस सहस वरसनो जाणो, नहिं नगरी नहिं गाम हो, गौ० ॥ ६७ ॥ गर्भ धरे षटू वरसनी नारी, बिलवासी मछ खाय; छेहेले कालेय एक हाथनी होशे, सोल वरसनुं आय हो, गौ० ॥ ६८ ॥ दुहा— आगल वली उत्सर्पिणि, तिहां षट् आरा जोय; पहिलो छट्टो सारिखो, दुसम दुसमा सोय ॥६९॥ ढाल – ॥ ११ ॥ चांद्रायण नी ॥ ए देशी ॥ आगल बीजो आरो सारो, त्यारें मेघ हशे वलि च्यारो; पुष्करावृत क्षीर अमृत अपाधारो, चोथो वरसें घृत नीरधारो ॥ ७० ॥ फलश्ये वन वसश्यें बहु गामो, आगलि सात कुलगर तामो; दुसम सुसम तृतीय अभिरामो, त्रेविश जिननो तिहां ठामो ॥ ७१ ॥ नव नारद चक्री इग्यारो, नव बलदेव हशें तिहां सारो; वासुदेव नव तेणीवारो, नव प्रति वासुदेवज अपारो ॥ ७२ ॥ सुसम दुसम चोथो मांहि, एक जिनवर एक चक्री त्यांहि; अंते युगल हशे बहु ज्यांहि, आउ पल्योपम भद्रक प्राहि ॥ ७३ ॥ आगल सुसम पंचमो आरो, युगल देह वे गाउ धारो; छठो सुसम सुसमा संभारु, युगल देह त्रण गाउ विचारुं ॥ ७४ ॥ पूछ्यां वचन कह्यां वली वीरे, चित्तमां धरीयां गौतम धीरे; भणतां सुणतां सुखह हशे, रिद्धी रमणी घर भरी विरे ॥७५॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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