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________________ Shi Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीसंवत्सरी ॥ ८९ ॥ www.kobatirth.org सूरिंद सुविहित मुगट गुणमणी आगरा; उवझाय श्री नय वीजय सीस्ये धुणिया सयल जिनेश्वरा, दिओमुज महोदय वास विद्या विजय संपद सुखकरा ॥ ४६ ॥ " इति श्री नय विजयजी शीष्य न्याय विशाद यशो विजयो पाध्याय रचित् कल्याणक स्तवनम् ” "अथ श्री संवत्सरी दाननुं स्तवन" ॥ ढाल — ठरे जिहां समकित ते स्थानक, तेहनां षड्विध कहीये रे ॥ ए देशी ॥ श्री वरदायनां चरण नमीने, वली प्रणमि गुरू पायारे; सयल तिर्थंकर दानज देवे, ते कहुं हर्ष सवायारे ॥ श्री० ॥ ए आंकणी ॥ १ ॥ सुणजो दान संवच्छरी महिमा, जेहथि समकित लहीये रे; त्रीजगने वश करवा ए दान, मोटो मंत्राक्षर कहीयेरे ॥ श्री ॥ २ ॥ देव लोकांतिक तिर्थंकरने, कयजवणि समे आवीरे; तव तिर्थंकर दानज समये, वर्षी पडहो वजडावेरे ॥ श्री० ॥ ३ ॥ जे जिन ते निजतात सहित सुल, नामनी मुद्रा करावेरे; ते एक मुंद्राये सीरतिनी, माने कोस भरावेरे ॥ श्री ॥ ४ ॥ एक For Pitvate And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दाननुं स्तवन. ॥ ८९ ॥
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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