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________________ ना आणी, खरचे धन बहु रासीजी ॥ १४ ॥ अर्बुद गिरि प्रासाद मंडावे, मेरु शिखर सम भावेजी; चैत्यपलउत्पत्ति है पीतलमय तिहां बिंब भरावे, च्यार बिंब चित्त आवेजी ॥ १५॥ आगे पण ए घरें तम्हारे, धरण रिपाटी विहार मंडाव्योजी; धन धन सहसा संघवी श्रावक, चौमुखे इंडो चढाव्योजी ॥ १६ ॥ स्तवनम् ॥१५॥ दहा-चैत्य प्रवाडि गढमां करी, ओरी आस गढ पास; श्री जिनवर पूजों आदरे, पूरे मननी आस ॥ १॥ साह उजल पासादि हवे, पूजों श्री अरिहंत; सालि ग्राममा वांदसो, भव भंजन 8 भगवंत ॥ २॥ विमल वसही आदिजिन, नमसो धरि आनंद; परम पद दातार जिन, चिदानंद सुखकंद ॥३॥ | ढाल-६-थी॥ रंगीले॥ ए देशी॥ हवे जिनवर आगल कहुं ॥ आपवीत अवदात ॥ रंगीले ॥ कहेतां कर्मनी निर्जरा ॥ भवबंधन भय जात ॥रंगीले ॥ हवे जिनवर आगल कहुं । ए आंकणी ॥१॥अतीत चउवीसी एणे ठामें ॥ अर्बुदगिरि शुभ ठाम ॥रंगीले ॥ मुनि कोडि १ ॥१५॥ बहु परिवस्या ॥ ल्ये अणसण सुख धाम ॥ रंगीले ॥ हवे ॥२॥ सिद्धक्षेत्र ए जाणीए ॥ सीधा 545*5****** **** For Pale And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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