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________________ Acharya Sh Kailasageri Gyanmandi अर्बुदाच मुनिवर कोडि ॥ रंगीले ॥ सेव॒जय गिरि सम जाणीये ॥ प्रणमो वे कर जोडि ॥ रंगीले ॥ हवे॥३॥ चैत्यपलउत्पत्तिा सिद्धाचल सम अबूंद कह्यो । सिद्धक्षेत्र शुभ नाम ॥ रंगीले ॥ ए तिर्थ सम को नही ॥ मना रिपाटी सोहन अभिराम ॥ रंगीले ॥ हवे ॥ ४॥ दशद्रष्टांते दोहिल्यो ॥ मनुश्य जन्म में लाध ॥ रंगीले ॥ स्तवनम् आर्य क्षेत्र जैन धर्मनो ॥ मार्ग जगमा अगाध ॥ रंगीले ॥ हवे ॥५॥ पंचेंद्री पूरा लह्या ॥ धर्म श्रवण सुख राशि ॥ रंगीले ॥ सदहणा साची लही ॥ देव धर्म गुरु पासे ॥ रंगीले ॥ हवे ॥६॥ हवे संभालं आपणा ॥ गति आगतिना फेर ॥ रंगीले ॥ निगोद नरकमां हूं भम्यो । कर्म कठिन घोर ॥ रंगीले ॥ हवे ॥७॥ नरक मांहि दुःख अनुभव्यां ॥ कहेतां नावे पार ॥ रंगीले ॥ ते दुःख सघला तुं प्रभु ॥ जाणे जग किरतार ॥ रंगीले ॥ हवे ॥८॥ तिर्यंच भव अति अनुभव्या॥ बिना विवेक विचार॥रंगीले॥ अज्ञान पणे जाण्यो नहीं॥ जैन धर्म सुख दातार ॥ रंगीले॥ हवे॥९॥देव तणा सुख अनुभव्यां ॥ कहेतां नावे पार ॥ रंगीले ॥ क्षीण पुण्य तिहाथी च्यवी ॥ आव्यो मनुष्य मोजार ॥रंगीले॥ हवे॥१०॥ तट पामी जिन धर्म लही॥च्यार परमांग समेत ॥रंगीले ॥ भव भव 4%9545*ॐ* % % % For Pale And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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