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________________ ShiMahayeJainrachanaKendra www.kobateh.org. Achan Kailas Gyamandi SSSSS-%डर कीजीये जेह कंदर्प प्रमुखे करी,दोष ते बीय परमाद संज्ञा धरी; कूदतां गरबनां होय हिंसा जिहां, दर्पइण नाम करि दोष तीजो तिहां ॥४॥ विणसता जीवने गिनर नकरे निको, चोथो आकुटिया दोष उपजें जिको; अनुक्रमे च्यारए अधिक एक एकथी, दोष धर प्रायचित्त लहे विवेकथी ॥५॥ . ढाल-॥२॥ अन्य दिवस कोइ मागध आयो ॥ ए देशी ॥ पाटी पोथी कवली नवकारवाली जोय, ज्ञाननां उपगरण तणी आशातन कीधी होय; जघन्यथी पुरिमढ एकासगुं-आंबिल उपवास, अनुक्रमे एह आलोयण सुगुरु बतावे तास ॥६॥एं जो खंडित थाये अथवा किहांइ गमाए, तोवलि | नवा कराया दोष सह मिट जाए; स्थापना अणपडि लेह्या पुरिमट्ठनो तप धार, पडता एकासण ते गमतां चोथ विचार ॥ ७॥ दर्शननां अतिचार तिहां पुरिमढ्ढ जघन्य, एकासण आंबिल अट्ठम चिहुँ भेदे मन्न; आशातन गुरु देवनी साहमीशुं अप्रीति, जघन्य एकासणथी आलोयण चढती रीति ॥८॥ अनंतकाय आरंभ विनाश्यां चोथ प्रसिद्ध, बि ति चउरिंद्री वसायां एकासणाथी वृद्ध; बहु बि चरिंद्रिय हण्यां बि ति चउ उपवास, संकल्पादि चिहुं विधि दुगुणा दुगुण प्रकाश. ॥ ९ ॥ उद्देही 81%AE%A9-ARANAS For Pale And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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