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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मंधर खामी www.kobarth.org. न मिले तस मुज धात ॥ ३ ॥ जाणुं जे आवुं तुझ क हे, विषम वाट पंथ दूर; डुंगरने दरीया घर्णा, विचे नदी वहे पूर ॥ ४ ॥ ते माटे इहांकिण रही, जे जे करूं विलाप; ते तुमे प्रभुजी सांभलो, अवगुण करज्यो माफ ॥ ५ ॥ ढाल – १ ली ॥ पवयण देवी चित्त धरीजी ॥ ए देशी । भरत क्षेत्रनां मानवी रे, ज्ञानी विणा मुझाय; ते माटे तुमने घणुं रे, प्रभुजी मनमें उच्छाह रे ॥ स्वामी आवोने इण खेत्र; तुम दरिशण जो देखीये रे, तो निर्मल थाये माहरां नेत्र रे ॥ स्वा० ॥ ए आंकणी ॥ १ ॥ धर्मीनी हांसी करे रे, पक्ष विदुनो सिदाय; लोभ घणो जग व्यापीओ रे, तिणे साधुं नवि थाय रे ॥ स्वा० ॥ २ ॥ गाडरीओ परिवार मिल्यो रे, घणा करे ते थाय; परिक्षावंत थोडा हुवे रे, सरधानो विश्वास रे ॥ स्वा० ॥ ३ ॥ सामाचारी जूजूई रे, सहु कहे माहरो धर्म; खोटं खरं किम जाणिए रे, एकुण भांजे भर्म रे ॥ स्वा० ॥ ४ ॥ ढाल - २ जी ॥ राग रामग्री ॥ अथवा मारु ॥ जगत गुरु हीरजी रे ॥ ए देशी ॥ ज्यारेने वीरजी विच Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Pitvate And Personal Use Only स्तवनम्
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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