SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुरुरायारे॥तसपदपकज श्री विनय विजयवर, खेमविजयपं गुण गायारे त्रिभु० मोहमाहा॥८॥कलशश्रीशांति जिनवर तेज दीनकर मोह विदारण भयहरं, सोलमा स्वामि मुक्ति गामि कल्याणक एह सुखकरूं। बहु भक्तियुक्तं एकचितें आराधो भवि सुंदरु, सदगुरु, संगें विनयरंगे खेमवीजय नीतजयकरुं ॥१॥ इतिश्री पंचमं निर्वाण कल्याणकं संपूर्णम् ॥ SOCRAKASHANKARACT “अथ श्री पंचकारण गर्भित श्री वीरजिन स्तवनम्" दहा-सिद्धारथ, सुत वंदीए, जगदीपक जिन राज; वस्तु तत्त्व सवि जाणिएं, जस आगम थी आज ॥१॥ स्याद्वाद थी संपजें, सकल वस्तु विख्यात; सप्तभंग रचना विना, बंधन में से बात P॥२॥ वाद वदे नय जूजूआ, आप आपणे ठाम, पूरण वस्तु विचारतां, कोइन आवे काम ॥३॥ अंध परुपें पह गज, ग्रहि अवयव एकेक; दृष्टि वंत लहें पूर्णगज, अवयव मिली अनेक ॥४॥संगति सकल नयें करी, जुगति जुग शुद्ध बोध; धन जिन शासन जग जयुं, जिहां नहीं किस्यों विरोध॥५॥ For Pale And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy