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ShiMahaveJainrachanaKendra
Acharya Sh Kaisagers
Gyanmandi
पंचक० स्तवन
SARI
शांतिना-मार्गे दिओ दान रसाल; एणिपरे संघ साजन साथे, माल आणी दिओ गुरू हाथे ॥ १७ ॥ गुरुथना. राय ठवे तिहां वास, श्रावक मन अति उल्लास; जेणे माला कंठ ठवीजे, मणीमय भूषण तस
दीसे ॥१८॥ अंग पूजा प्रभावना कीजे, व्रत धारी पहिरावीजे; पाठा पुस्तक रुमाल, गुरु भक्ति करी सुविशाल ॥ १९ ॥ हवे शक्रस्तव उपधान, पांत्रीश दीवस तस मान; उपवास ते साढा ओगणीश, वायणा त्रण अतिहि जगीश ॥ २० ॥ हवे अठावीशुं जेह, उपधान लोगस्सनुं तेह; साढा पन्नर उपवास, वायणा त्रण लील विलास ॥ २१॥ एणिपरे छ ए उपधान, श्रावय श्राविका शुभधान; वही.सफल करो अवतार, संसार तणो लहीपार ॥ २२ ॥ कलश-श्री वीरजिन उपधान | विधिएम, भविक जीव हिते हेते कहि; महानिशिथ सिद्धांत माहें, सुलभ बोधि सदहे ॥ २३ ॥ आराधीए उपधान वहिने, च्यार भेदे धर्मए; दान शील तप भाव भक्ते, पामीए शीव शर्मए ॥२४॥ अघट्ट घाट शरीर होये, घाट माहें आवे घणो; खमासमण मुहपति शर्व क्रिया, जाणे विधि श्रावक तणो ॥ २५॥ उपधाननां गुण कहुं केतां, कहेता न आवे पार ए; होय सफल श्रावक,
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