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________________ ShriMahavirain AartmenaKendra www.kobathrtm.org Acharya Shm KailassagarsuriGyanmandir शांतिना- थना. तात जी; अहो उत्तम कुल माहरु, हुंपण त्रिजग विख्यात जी, अहोउ०॥ एआंकणी ॥ २३ ॥ अहो : पंचक. उत्तम कुल माहरु, अहो मुज अव तारजी; नीच गोत्र तिहां बाधीउं, जुओ जुओ कर्म प्रचार जी, स्तवन. अहोउ० ॥ २४ ॥ आभरतें पोतनपुरी, त्रिपृष्ट हरि अवतार जी; महाविदेह क्षेत्र मुकापुरी, चक्री प्रियमित्र नाम जी ॥ २५ ॥ अहोउ० ॥ चरिम तीर्थंकर थायश्यु, होशें त्रिगढ ओसार जी; सुर| नर सेवा सारशे, धन्य धन्य मुज अवतार जी० अहोउ० ॥ २६ ॥ रे महिमा तुं एणीपरें, एक दिने रोग अतीव जी; मुनिजन सार को नवि करे, शिष्य वांछे निज जीव जी० अहोउ०॥ २७॥ कपिल नामें कोइ आवीओ, प्रतिबोधि निज वाणि जी; साधु समीपें दीक्षा धरूं, धर्म छे तेणे ठाणे जी; अहोउ०॥ २८॥ साधु समीपें मोकलें, नविजाएं तेह अयोगी जी; चिंतवे इम मरीचि निज मनें, दीसे छे मुज योग्य जी; अहोउ० ॥ २९ ॥ तवते वलतुं बोलीओ, तुम्ह वादेश्युं होय जी; भो भो धर्म ते इंहांअ छे, उत्सूत्र भाख्युं सोय जी; अहोउ० ॥ ३० ॥ तेणें संसार वधारीओ, सागर कोडा ॥५३॥ कोडि जी; लाख चोराशि पूरव तणुं, आयु त्रीजें भवें जोडि जी; अहोउ. ॥३१॥ चोथें भवे खर्ग For Pale And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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