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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सीमंधर - स्वाजी www.kobatirth.org. कीरति अति घणु रे, अनुकंपा लवलेश; अभय सुपात्र अल्प हुआ रे, एहवो भरतमा देशरे ॥ इंहां किणे ॥ ४ ॥ ढाल - ४ थी - राग परजिओ ॥ गुणिह विसाला मंगलीक माला ॥ ए देशी ॥ श्रीमन्धर तु माहरो साहिब, हुं सेवक तुम दास रे; भमी भमी भव हुं करि थाक्यो, हवे आपो शिवपुर वास रे ॥ श्रीमन्धर | ॥ ए आंकणी ॥१॥ इण वाटे वटे मारगु नावे, नावे कासीद कोय रे; कागल को साथै पहोंचा, हुं मोह्यो | तस मोह रे ॥ श्रीमन्धर ॥२॥ चार कषाय घटे मुज व्याप्या, हुं रातो इंद्रीय रस रे; मदन पणो क्यारे को व्यापे, मन नावे माहरु वश रे ॥ श्रीमन्धर ॥ ३ ॥ तृष्णानु दुःख न होत मुजने, होत संतोषनं ध्यान रे; तो हुं ध्यान धरत प्रभु ताहरो, स्थिर करी राखत माहरुं मन्न रे ॥ श्रीमन्धर ॥४॥ निबिड परिणामे गांठ्यो बांध्यो, तो किम छूटुं खाम रे; ते तो हुं नर तुममां छे प्रभुजी, आवो अमारे कामरे ॥ श्रीमन्धर॥५ ढाल - ५ मी - अरिहंत पद ध्यातो थको ॥ ए देशी ॥ श्रीमन्धर जिन इम कहे, पूछे तिहांना लोक रे; भरत क्षेत्रनी वारता; सांमले सुरनर थोक रे ॥ श्रीमन्धर ॥ ए आंकणी ॥ १ ॥ त्रीजोने आरो For Pitvale And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्तवनम्
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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