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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org. Acharya Shn Kailassagarsuri Gyanmandir थना. ॥ ३९ ॥ शांतिना- २ तिहां चउदे अलंकर्यां ॥ ४ ॥ हाथी वृषभ सीहँ लक्ष्मी मालां सुंदरु, शशी रँवि ध्वज कुंभं पद्मं | सरोवरं सागरुं; देववीमानें रयण पूज्य अग्नी विमले हवे, देखी त्रिशला मातके पीउनें विनवें ॥ ५ ॥ | हरखे राय सुपन पाठक तेडावीयां, राजभोग सुत फल सुंणीनें वधावीयां; त्रीशला राणी विधिश्युं गर्भ सुखें हें, मायतणे हीत हेतके प्रभु निश्चल रहे ॥ ६ ॥ मायधरे दुःख जोर वीलाप घणां करें, कहें में कीधां पाप अघोर भवांत रें; गर्भ हरयो मुज केणें हवें कीम पामिएं, दुःखनुं कारण जांणी वीचारयुं स्वामी एं ॥ ७ ॥ अहो अहो मोह वीटंबण जांणी जगतमां, अणदीठे दुःख एवडं उपन्युं पलकमें; ताम अभिग्रह धरयो प्रभुंजी ए ते कहुं, मातपीता जीवंतां संजम नवी ग्रहुं ॥ ८ ॥ करुणां आणी अंग हलाव्युं जीन पती, बोली त्रीशला मात हीए घणुं हरखंती; अहो मुज जाग्यां भाग्य गर्भ मुज सलसल्यों, सेव्यो श्रीजिन धर्मके सुर तरु जीम फल्यों ॥ ९ ॥ सखी कहे सीखांमण सामण सांभलो, हलुए हलुएं बोल हसी रंगे चल्यों; अॅम वीधीशुं विचरंता दोहलां पुरतां, नव महीनां ने साढा सात दीवस थतां ॥ १० ॥ चैत्र शुदी तेरस नक्षत्र उत्तरां, योगे जन्म्यां वीर के For Private And Personal Use Only पंच क० स्तवन. ॥ ३९ ॥
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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