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शांतिनाथना.
॥ २० ॥
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राग - आशाउरी ॥ ढाल ॥ ४ ॥ काहान बजावे वांसली ॥ ए देशी ॥ मनः पर्याप्ति आहारे नहीं, परम अवधि ज्ञान; पुलाक लब्धी आहारक तनु, क्षपक श्रेणि निधान ॥ २६ ॥ उपशम श्रेणि जिन कल्पश्युं, संयम त्रणे जाय; केवलज्ञान नमुं रहे, तब मोक्ष पलाय ॥ २७ ॥ वीर कहे वरस मुज पछी, बिचउं तरि थाय; प्रभव स्वामी त्रीजें पाटे, पर लोके जाय ॥ २८ ॥ शय्यंभव सूरि मुनिवरुं, जे चोथे पाटे; वीरथी वर्ष अट्टाणुंए, लहि शुभ गतिवाटि ॥ २९ ॥ वीरथी वर्ष गयां गणुं, एकसो अड ताल; यशोभद्र सुर लोकमां तव देतां फाल ॥ ३० ॥ छट्टि पाटें संभूति विजय, हुआ पंडित जाण; वीरथी एकसो सीत्तरे, वरसे निर्वाण ॥ ३१ ॥ दूहा - तव पूरव ओछां थशे, सुण गौतम कहे वीर; भद्रबाहू लगें तेह छे, जेहमां अर्थ गंभीर ॥ ३२ ॥
ढाल ॥ ५ ॥ सींह तणी परि एकलो ॥ ए देशी ॥ वरस बसें चउदे वली रे, निह्नव त्रीजो रे होय; आषाढा चार्य तणोरे, शिष्य कह्यो वली सोयरे, गौतम सांभलो ॥ ए आंकणी ॥ ३३ ॥ निह्नव सोय टले सही, पामे समकित सार; विसें पनर वरसें वली, स्थूलिभद्र सूरनो अवतारोरे, गौ० ॥ ३४ ॥
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पंच क० स्तवन.
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