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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra दश मता धिकारे www.kobatirth.org. | विजय देव पुजे समकीतिजी, जिवा भगवइ जोय ॥ भवि० ॥ २ ॥ तुगीया श्रावक जीन भणिजी, द्रव्य भावे पुजे त्रण काल; अन्य देव पुजे नहि समकीतिजी, जोने तुं हृदय निहाल ॥ भवि० ॥ ३ ॥ राय पसेणीरे श्रुत्रमांजी, पुजा सत्तर प्रकार; जिन पडिमा जिन सारखिजी, उपंग उवाइ ए धार ॥ भवि० ॥ ४ ॥ जंघाने विद्या चारणाजी, नवमा अंगमां ताम; नंदिसरे जाय कहो स्या भणीजी, शुं छेरे तिहां ने काम ॥ भवि० ॥ ५ ॥ छठ्ठारे अंगमां प्रतिमाजी, द्रुपादि बहुल प्रकार; पुजे छे किम ते देखो नहिजी, वैकूल हिणो गमार ॥ भवि० ॥ ६॥ दया दया मुखथी पोकारताजी, देखे नहि आगम प्रमाण; जल मांहीथीरे काढे साधुनेजी, साधवि गागमा जाण ॥ भवि० ॥ ७ ॥ शुद्ध श्रद्धा कहो किम रहेजी, जेहने बहुल संसार; शुद्ध श्रद्धा विना किम होवेजी, श्रुजस भवनोरे पार ॥ भवि०॥८॥ ढाल - ४ – चोथी ॥ कालिने पिलि वादली ॥ ए देशी ॥ संवत पंन्नर चोसठेरे लाला, कडुए काले कीधः गुरु तत्व उथापतारे लाला, खोइ अनुभव रिद्धि ॥ जोज्यो भवि पंचमा कालनो स्वभाव० ॥ प्राणियो चितलाय ॥ ए आंकणी ॥ १ ॥ पांचे भरते पांचमेरे लाला, काले सरिखा कीध; तो For Pitvale And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वर्धमान स्तवनम्
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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