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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सौभाग्य पंचमी ॥१५९॥ www.kobarth.org. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ढाल - ७ - सातमी ॥ बापडली रे जीभडली तुं कांइये न बोले मितुं ॥ ए देशी ॥ कहे वरदत्त सक्ति नही मुजमां ॥ तेहवी तप करवानी ॥ मुजथी थाय उचीत ते दाखो ॥ तव बोल्या गुरु ज्ञानीरे ॥ आराधो हीत जाणी प्राणी- पंचमी उज्जल पक्षनी ॥ भाव सहीत आराधन करता ॥ नीसाणी शिव सुखनीरे ॥ आराधो हीत० ॥ ए आंकणी ॥ १ ॥ पेहेली भाषी जे विस्तारें ॥ ते विधि कुंवरे कीधी ॥ नृप राणी आदि पूरी जननें ॥ गुरुए हीत करी दीघीरे ॥ आराधो हीत० ॥ २ ॥ भूपादिक निज निज घर पोहता ॥ पंचमी तप अभ्यासें ॥ वरदत्तनां तपनां महीमाथी ॥ रोग | देहनां नासेरे ॥ आराधो हीत० ॥ ३ ॥ दत्त सहस एक कन्या परण्यो | स्वयंवर मंडप साजें ॥ | अजीत्तसेंन तस राज्य देइने ॥ ल्ये संयम सुख काजेरे ॥ आराधो हीत० ॥ ४ ॥ वरदत्त राज्य घणा दीन पाली | पंचमी तप आराधे ॥ भुक्तभोग सुत राज्ये स्थापी ॥ अवसर दीक्षा साधेरे ॥ आराधो हीत० ॥ ५ ॥ ए हवें पंचमी तप महीमांथी ॥ गुणमंजरीने अंगे ॥ रोग हता ते नाठा रे ॥ रुप हुओ नव रंगरे ॥ आराधो हीत० ॥ ६ ॥ ते श्रावक जीनचंद्रे परणी ॥ तातें बहु धन ॥ For Pitvale And Personal Use Only स्तवनम् ॥१५९॥
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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