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________________ ShiMahaveJainrachanaKendra www.kobateh.org Acharya Sh Kailasagersuri Gyanmandi थना. शांतिना- जे पंचमी आराहे, एहनी परे ते सुखिआ थाय; छेवटे सिद्धिवधु वरेए; वरदत्त गुणमंजरि गया रोग, पंच क. 13 पुण्य पसाये पूरा भोग; पाम्युं ज्ञान तेणे परगडु ए ॥ २४॥ ढाल-॥३॥ कनक कमल पगलां ठवे स्तवन ए॥ ए देशी ॥ पंचमि तप जगमा वडु ए, जाणी करो भविलोक; होये सुख संपदाए; मेंरु महीधर जग वडु ए, तिम ए तप जग माहि; उच्छाहे आदरोए ॥ २५ ॥ रिद्धि वृद्धि बहु संपदा ए, आपदा दूरे जाय; थाय शिवपुर धणी ए; मनमान्या भोग ते लहे ए, न दीसे इक दीन कलेस; को सहु नमे तेहनें | |ए ॥२६॥ बुद्धि हुए तेहनी दीपती ए, जीपती सुरगुरु तेजके; हेज सहू धरे ए; ज्ञान हुवे तेहनें परगडुए, 21 अतिवडो ते संसार के मारे न परभवे ए;॥२७॥एतप महिमा अति घणो ए; नेमि जिन कहियुं आय; सुणी सहु हरखे आवेए; उजमणा विधीअती घणी ए, कीजे बहु विध प्रमाणके; गुरुने पूछी करी ए॥२८॥ ___ कलश-उच्छांह आणी लाभ जाणी सुगुरु वाणी मन धरो, ए ज्ञान पंचमी ज्ञाननी विधि ज्ञान दूषण परिहरो; ए तप करता सुख लह्यां बहु करशे ते लहशे वली, आगम वांणी ए मन जाणी करुं प्राणी मनरुली ॥ २९ ॥ ए तपह कीजे लाभ लीजे वंदिजे तप गच्छ धणी, प्रत्यक्ष गौतम XXASASAK***** ॐARSAGAR ॥६८॥ For Pale And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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