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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra शांतिना थना. ॥ ३८ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रभुनुं चरीत्र उल्लासे; जे सांभलशे प्रभु गुण तेहनुं, समकीत निर्मल थाशे रे - सां० ॥३॥ ए आंकणी जंबूद्वीपे दक्षिण भरतें, माहण कुंड ग्रामें; ऋषभदत्त ब्राह्मण तस नारी, देवानंदा नाम रे - सां० ॥४॥ आशाढ शुदी छड़ें प्रभुजी, पुप्फोत्तरथी चवीयां; उत्तरा फाल्गुनी योगें आव्यो, तस कुखे अवतरीयारे - सां० ॥५॥ तेणी रयणी सादेवानंदा, सुपन गजादिक निरखें रे; प्रभातें सुंणी कंत ऋषभदत्त, हीयडा मांहें हरखे रे - सां० ॥ ६ ॥ भाखे भोग अर्थ सुख होशें, होश्ये पुत्र सुजांण; ते निसुंणी सा. देवानंदा, किधुं वचन प्रमांण रे - सां० ॥ ७ ॥ भोग भलां भोगवतां वीचरे, एहवे अचरीज होवें शतकृत जीव सुरेसर हरख्यों, अवधिएं प्रभुने जोवें रे - सां० ॥ ८ ॥ करी वंदनने इंदो सन्मुख, सात आठ पग आवें; शक्रस्तव विधि सहीत भणीनें, सींहासण सोहावेरे-सां० ॥ ९ ॥ संशय प डीयो एम विमासें, जिन चक्री हरी रांम; तुच्छ दलीद्र मांहण कुल नांवे, उग्र भोगवीण धांम रे सां० ॥ १० ॥ अंतीम जिन माहण कुल आव्यां, एह अछेरुं कहीएंः उत्सर्पिणी अवसर्पिणी अनंती, जातें एहवुं लहीये रे - सां० ॥ ११ ॥ इणी अवसर्पिणी दश अछेरां, थयां ते कहीए एह; गर्भ हरण For Pitvale And Personal Use Only पंच क० स्तवन. ॥ ३८ ॥
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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