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________________ Shi Mahavir Jain Aradhana Kendis श्रीज्ञानपंचमी ॥१६९॥ 344% www.kobatirth.org. नाण; पंचमी गतिनें ते देयेरे, जो आराधे शुभ ध्याने; त्रुटक- आराधें शुभ ध्यानें नियमां, पंच वर्ष पंच | मासनी सीमा; चोथ भक्त उपवास करीनें, देहरे देव गुरु वांदीनें ॥ जिननेमी ॥६॥ ढाल पूर्वली - वैशाख ज्येष्ट आषाढमां रे, मृगसिर माहनें फाग; उचरियें गुरु आगले रे, पंचमी धरी मनराग; त्रुटकपंचमी धरी मनरागे किजे, पंचवाट घृत दीप भरिजे; स्वस्तिक पंच फलादि धरीजे, मुख आगल | पुस्तक स्थापीजे ॥ जिननेमी ॥ ७ ॥ ढाल पूर्वली - त्रण काल देव वांदिये रे, पडिकमणां बे वार; ब्रह्मचर्य धरि बेसीये रे, आरंभ सकल नीवार; त्रुटक- आरंभ सकल नीवारी पोसो, पूर्व उत्तर सामा बेसो; नमो नाणस्स हजार बे जपीये, तो तप तेजें त्रीभोवन तपीयें ॥ जिननेमी ॥ ८ ॥ ढाल पूर्वली - पोथी पुजो ज्ञाननी रे, प्रभावना श्रीकार; नाण मंडावी पेसीयें रे, सक्ति तणे सुविचार; त्रुटक- सक्ति तणें सुविचारे जोई, पंच वर्ष पंच मासज होई; उजमणुं करी तप आराधें, जलथी | कमल ज्युं तेजें वाधे ॥ जिननेमी ॥ ९ ॥ ढाल पूर्वली - प्रतिमा भरावो जिन तणीरे, पंच तिथें सुविशाल; ज्ञान लखावीनें दीयोरे, पाग पंच रुमाल; त्रुटक- पाठा पंच रुमाल नें काबी, लेखण For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्तवनम् ॥१६१॥
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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