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[४१/१] श्रीओघनिर्युक्तिः (मूल) सूत्रम्
नमो नमो निम्मलदंसणस्स
पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित- सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः
“ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं वृत्ति:
[मूल-निर्युक्तिः
+ भाष्यं + द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः]
[आद्य संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ]
(किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह )
पुनः संकलनकर्ता→ मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.)
23/04/2015, गुरुवार, २०७१ वैशाख सुद ५
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मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- ४१/१] मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति" मूल एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं -1 .” “नियुक्ति: -1 + भाष्यं -] + प्रक्षेपं -" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र
MARATARRARIATARWANAANANANAANAANAANAANANORY
॥अहम् ॥ दूभद्रबाहुस्वामिविरचितनियुक्तिश्रीमत्पूर्वाचार्यविरचितभाष्ययुता त्तिशोधकनिर्वृतिकुलभूषणश्रीमद्रोणाचार्यसूत्रितवृत्तिभूषिता
||-||
श्रीमती-ओघनियुक्तिः
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RETARIANRANANAINAND
दीप
अनुक्रम
प्रसेधिका-राजनगरीयविद्याशालाज्ञानकोशात् शाह-जयसिंहभाइ हठीसिंहप्रभृतिवितीर्णद्रव्यसहायेन
शाह-वेणीचन्द्र सुरचन्द्रद्वारा श्रीआगमोदयसमितिः
मुद्रित-मोहमय्यां निर्णयसागरमुद्रालये रा० रा० रामचन्द्र येसू शेडगे द्वारा वीरसंवत् २४४५. विकमसंवत् १९७५.
क्राइष्ट १९१९.
पण्य-३-०HUMMMMMMMMMMMMMMMRUUNUURUUM
प्रतयः१०००
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ओघनियुक्ति सूत्रस्य मूल “टाइटल पेज"
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मूलाका ८१२+३२२+३१
मूलांक:
०००१
१००७
११४३
विषय:
मंगलं, प्रस्तावना-गाथा:
उपधिप्रमाण-द्वारम्
आलोचना द्वारम्
पृष्ठांक
००४
४१७
४५२
ओघनियुक्ति मूल- सूत्रस्य विषयानुक्रम
मूलांक:
००२१
१११५
११४७
विषय:
प्रतिलेखना- द्वारम्
अनावर्तनवर्जन द्वारम् विशोधि-द्वारम्
पृष्ठांक:
०२७
४४७
४५३
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दीप- अनुक्रमाः ११६५
विषय:
मूलांक :
०५४७ पिण्ड-द्वारम्
११४० | प्रतिसेवना-द्वारम् उपसंहार-गाथा:
११६३
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - ४१/१] मूल सूत्र -[ २/१] “ओघनिर्युक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
पृष्ठांक
२५८
४५२
४५७
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[ओघनियुक्ति- मूलं एवं वृत्तिः] इस प्रकाशन की विकास-गाथा
यह प्रत सबसे पहले "श्री ओघनियुक्तिः ” के नामसे सन १९१९ (विक्रम संवत १९७५) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादकमहोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | हमने जब “आगमसुत्ताणि" (सटीक) नामसे ४५ आगम-सटीकं का प्रकाशन करवाया तब हमारे संपादन कार्यमे इसी प्रत का सहारा लेकर हमने भी "ओघनियुक्ति-सटीकं" का पुन: संपादन एवं प्रकाशन किया है | जो "आगमसुत्ताणि" (सटीक) के २६ वे भागमे मुद्रित हुआ है, और इन्टरनेट पर भी “आगमसुत्ताणि (सटीक) ४१/१ के रुपमे है। जीसे हमारे द्वारा प्रकाशित 'डीवीडी' मे भी स्थान दिया है।
* हमारा ये प्रयास क्यों? : आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर मूलसूत्र-नियुक्ति-भाष्य आदि के नंबर लिख दिए, ताकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा सूत्र, नियुक्ति, भाष्य आदि चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके |
बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का नियुक्ति/भाष्य/प्रक्षेप का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा आदि के नंबर अलग-अलग होने से हमने उसे अलग-अलग दिए है और उसके लिए ||-|| ऐसी दो लाइन खींची या 'गाथा' आदि शब्द लिख दिया है | अनेक स्थानोमे पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट्स भी दी है |
अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसिको मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है।
........मुनि दीपरत्नसागर.
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [-1 → “नियुक्ति: [-] + भाष्यं ।-] + प्रक्षेपं -" .. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||-||
॥ अहम् ॥ अनूनश्रुतकेवलिश्रीमद्भद्रबाहुस्वामिमिश्रुद्धृता अखण्डपाण्डित्ययुतश्रीद्रोणाचार्यकृतविवृतियुता
श्रीओपनियुक्तिः
SHRS55655557
दीप अनुक्रम
नमो अरहताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उबज्झायाणं, णमो लोए सबसाहणं,
एसो पंचनमुक्कारो, सवपावप्पणासणो। मंगलाणं च सवेसि, पढमं हवइ मंगलं ॥१॥ अर्हन यस्त्रिभुवनराजपूजितेभ्यः, सिद्धेभ्यः सितघनकर्मबन्धनेभ्यः । आचार्यश्रुतधरसर्वसंयतेभ्यः, सिद्ध्यर्थी सततमहं नमस्करोमि ॥१॥ प्रक्रान्तोऽयमावश्यकानुयोगः, तत्र च सामायिकाध्ययनमनुवर्तते, तस्य च चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति महापुरस्येव, तद्यथा-उपक्रमः निक्षेपः अनुगमः नय इति, एतेषां चाध्ययनादौ उपन्यासे इत्थं च क्रमोपन्यासे प्रयोजनमभिहितम् , तत्रोपक्रमनिक्षेपाचुक्ती, अधुनाऽनुगमावसरः, स च द्विधा-निर्युक्त्यनुगमः सूत्रानुगमश्च, तत्र नियुत्यनुगमस्त्रेधा-निक्षेपोपोद्घातसूत्रस्पर्शनियुक्त्यनुगमभेदात् , तत्र निक्षेपनियुक्त्यनुगमोऽनुगतो वक्ष्यमाणश्च,उपोद्घातनिर्यु-13
... नमस्कार महामंगलं एवं प्रस्तावना
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१] .→ “नियुक्ति: [-] + भाष्यं [-] + प्रक्षेपं [१-३] . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
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प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१||
श्रीओघनियुक्तिः द्रोणीया वृत्तिः
॥१
॥
त्यनुगमस्वाभ्यां द्वाभ्यां द्वारगाथाभ्यामनुगन्तव्यः-"उद्देसे निइसे य" इत्यादि । अस्य च द्वारगाथाद्वयस्य समुदाया- प्रस्तावना र्थोऽभिहितः, अधुनाऽवयवार्थोऽनुवर्तते, तत्रापि कालद्वारावयवार्थः, तत्प्रतिपादनार्थं चेदं प्रतिद्वारगाथासूत्रमुपन्यस्तम्“देवे अद्ध अहाउय उवकम" इत्यादि, अस्यापि समुदायाथों व्याख्यातः, साम्प्रतमवयवार्थः, तत्राप्युपक्रमकालाभिधा-3 नार्थमिदं गाथासूत्रमाह-दुपिहोवकमकालो सामायारी अहाउयं चेव । सामायारी तिबिहा ओहे दसहा पयविभागे । ॥१॥" तत्रोपक्रम इति कः शब्दार्थः?, उपक्रमणं उपक्रमः, उपशब्दः सामीप्ये 'क्रमु पादविक्षेपे' उपेति सामीप्येन क्रमणं । उपक्रमः-दूरस्थस्य समीपापादनमित्यर्थः, तत्रोपक्रमो द्विधा-सामाचार्युपक्रमकालः यथायुष्कोपक्रमकालश्च, तत्र सामाचार्युपक्रमकालत्रिविधा-ओघसामाचार्युपक्रमकालः दशधासामाचार्युपक्रमकालः पदविभागसामाचार्युपक्रमकालश्च, तत्रौघसामाचारी-ओपनियुक्तिः, दशधासामाचारी 'इच्छामिच्छेत्यादि, पदविभागसामाचारी कल्पव्यवहारः। तत्रीर्घसामा|चारी पदविभागसामाचारी च नवमपूर्वान्तवर्ति यत् तृतीयं सामाचारीवस्त्वस्ति तत्रापि विंशतितमात्माभृतात् साध्वनुनहार्थं भद्रबाहुस्वामिना नियूंढा, दशधासामाचारी पुनरुत्तराध्ययनेभ्यो निर्मूढा 'इच्छामिच्छे स्यादिका, तत्रैतदुपक्रमणविंशतिवर्षपर्यायस्य दृष्टिवादो दीयते नारतः, इयं तु प्रथमदिवस एव दीयते, प्रभूतदिवसलभ्या सती स्वल्पदिवसलभ्या |
दीप अनुक्रम [१-3]
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2
॥
१
॥
निग्गमे सेत्तकाल पुरिसे य । कारण पचय रुपमण नए समोयारणाऽणुमए ॥१॥ िकहविहं कस्स काहिं केस कहं केचिरं हवा कालं । कद संतर कामविरहि भवागरिस फासण निरुती ॥२॥ (आव० पत्रे १०४ गाधे १४०-101) आव० नि० पन्ने २५७ गाथा ६६०)
Murary on
अत्र त्रय: प्रक्षेप-गाथा: वर्तते, एका गाथा अत्र दृश्यते, शेषे द्वे गाथे मया पूज्यपाद सागरानन्दसूरिजी संपादित “आगममंजुषा"या: उद्धरितं. ते द्वे . गाथे मत्संपादित "आगमसुत्ताणि-मूलं" एवं "आगमसुत्ताणि-सटीक" पुस्तक-द्वये मुद्रितं वर्तते ।
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) मूलं [४] → “नियुक्ति: [१-२] + भाष्यं -1 + प्रक्षेपं [१-३]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१||
कृतेत्यर्थः, एवं पदविभागसामाचारी दशधासामाचार्यपीति । तत्रौघसामाचारी तावदभिधीयते, अस्याश्च महार्थत्वात् कथ-2 चिच्छास्त्रान्तरत्वाच्चादावेवाचार्यों मङ्गलार्थ संबन्धादित्रयप्रतिपादनार्थं च गाथाद्वयमाह
अरहते वंदित्ता च उदसपुषी तहेव दसपुची । एकारसंगमुत्तत्वधारए सबसाहू य॥१॥
ओहेण उ निजुर्ति बुच्छंचरणकरणाणुओगाओ। अप्पक्खरं महत्थं अणुग्गहत्थं सुविहियाणाशाजुयली। el अत्राह-किमर्थं शास्त्रारम्भे मङ्गलं क्रियते । इति, उच्यते, विघ्नविनायकोपशमनार्थ, तथा चोक्तम्-"श्रेयांसि बहुवि-12
मानि, भवन्ति" इत्यादि, श्रेयोभूता चेयमतो मङ्गलं कर्तव्यं, तच्च नामादिभेदेन चतुर्धा, तत्र नामस्थापने सुज्ञाने, द्रव्यमङ्गलं दध्यादि, तच्चानेकान्तिकमनात्यन्तिकं च, भावमङ्गलमहंदादिनमस्कारः, तच्चैकान्तिकमात्यन्तिकं च । तदनेन संव-| न्धेनायातस्यास्य व्याख्या क्रियते-सा च लक्षणान्विता नालक्षणेति, लक्षणं च संहितादि, “संहिता च पदं चैव” इत्यादि, तत्रास्खलितपदोच्चारणं संहिता, सा चेयम्-'अरहते वंदित्ता' इत्यादिका । अधुना पदानि प्रतन्यन्ते-अर्हतो वन्दित्वा चतुर्दशपूर्विणः तथैव दशपूर्विणः । एकादशाङ्गसूत्रार्थधारकान् सर्वसाधूंश्च । एतावन्ति पदान्याद्यगाथासूत्रे, द्वितीयगाथा-1 सूत्रपदान्युच्यन्ते-ओपेन तु नियुक्तिं वक्ष्ये चरणकरणानुयोगात् अल्पाक्षरां महााम् अनुग्रहार्थं सुविहितानाम् , एतावन्ति पदानि । अधुना पदार्थः–'अरहते' इत्यादि, अशोकाद्यष्टमहाप्रातिहादिरूपां पूजामहन्तीत्यर्हन्तः तान् अर्हतः, 'वंदित्तात इति 'वदि अभिवादनस्तुत्योः' स्तुत्वेत्यर्थः, समानकर्तृकयोः पूर्वकाले क्त्वाप्रत्ययो भवतीति वन्दित्वा, किम् ?-'ओघनियुक्तिं वक्ष्ये' इति द्वितीयगाथाक्रियया सह योगः, किमर्हत एव वन्दित्वा ?, नेत्याह-'चतुर्दशपूर्विणश्च चतुर्दश
दीप अनुक्रम
४)
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A
nitaram.org
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५] → “नियुक्ति: [१-२] + भाष्यं -1 + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
श्रीओघ- नियुक्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२||
द्रोणीया वृत्तिः
पूर्वाणि विद्यन्ते येषां ते चतुर्दशपूर्विणस्तांश्च, वन्दित्वेति सर्वत्र क्रिया मीलनीया, किं तानेव !, नेत्याह-'तथैव दशपूर्वि-दी मङ्गलादि णश्च' 'तथेति आगमोक्तेन प्रकारेण एवेति क्रमनियमप्रतिपादनार्थः अनेनैव क्रमेण दशपूर्विण इति, दश पूर्वाणि विद्यन्ते | नि.१-२ येषां ते दशपूर्विणः, न केवलं तानेव, 'एकादशाङ्गसूत्रार्थधारकान् एकादश च तान्यङ्गानि च एकादशाङ्गानि एकादशाझानां सूत्राी एकादशाङ्गसूत्राथौं तौ धारयन्ति ये तान् एकादशाङ्गसूत्रार्थधारकान् । 'सर्वसाधूंच' इति सर्व साधयन्तीति सर्वसाधवः अथवा सर्वे च ते साधवश्च सर्वसाधवः तान् सर्वसाधूश्च वन्दित्वा, चशब्दः समुच्चये, अथवाऽनुक्तसमुच्चये, यच्च | समुच्चितं तत्प्रतिपादयिष्यामः । पदविग्रहस्तु यानि समासभाजि पदानि तेषां प्रतिपादितः । अधुना चालनाया अवसरः सा प्रतिपाद्यते, एवं व्याख्याते सत्याह पर:-सर्वमेवेदं गाथासूत्र न घटते, कथम् , इह 'ओपनियुक्तिं वक्ष्ये' इति प्रतिज्ञा, |सा च प्रथममेव नमस्कारसूत्रे न संपादिता, यदुत नमस्कारोऽपि संक्षेपेणैवाभिधातव्यः, न चासौ संक्षेपेण प्रतिपादितः, अपि वहन्नमस्कार एव केवलः संक्षेपनमस्कारो भवति, स एव कर्तव्यो, न चतुर्दशपूर्वधरादिनमस्कारः, अथ क्रियते, एवं 18/ तर्हि एकैकस्या व्यक्तेनमस्कारः कर्तव्यः, किं दशपूर्व्यादिनमस्कारेणेति, चतुर्दशपूर्विनमस्कारेणैव शेषाणां नमस्कारो भविष्यतीति, अथ भेदेन क्रियते एवं तर्हि त्रयोदशपूर्वधरादीनामेकैकपूर्वहान्या तावत्कर्तव्यो यावत्पूबैंकदेशधराणामिति, अत्रोच्यते, यदित्थं चोचं क्रियते तदविज्ञायैव परमार्थं, कथम् ?, यदुक्तं तावत् संक्षेपग्रन्थोऽयं तदत्र नमस्कारोऽपि संक्षेपेण|8 कर्तव्य इति, अत्र तावत्प्रतिविधीयते-येनैव संक्षेपग्रन्थोऽयं तेनैव लक्षणेनेत्थं नमस्कारः कृतः, तथाहि-सामान्येनाहता नमस्कारोऽभिहितःन विशेषेण एकैकस्य तीर्थकरस्य, तथा भगवतामुपकारित्वान्नमस्कारः क्रियते, येऽप्यमी चतुर्दशपूर्व-1
दीप अनुक्रम
ACACAX
SAREaratRana
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) मूलं [५] → “नियुक्ति: [१-२] + भाष्यं -1 + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
84%
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र
45-4-%
||२||
धरास्तेऽप्युपकारका एव, कथमिति चेत्, अर्थद्वारेण तीर्थकरा उपकारकाः, सूत्रतस्तु चतुर्दशपूर्वधरा गणधराः, यत उक्तम्"अर्थ भासइ अरहा सुत्तं गंथति गणहरा निउणा ।" इत्यादि, अत उपकारकास्त इति, अथवा द्विधोपकारः-व्यवहितोऽव्यवहितश्च, तत्र भगवन्तोऽर्हन्तः व्यवहितोपकारकत्वेन व्यवस्थिताः, चतुर्दशपूर्वधरास्त्वस्थानन्तरोपकारकत्वेन, अतश्चतुर्दशपूर्वधरनमस्कारः कृतः, सर्वाश्चतुर्दशपूर्वधरव्यक्तय आगृहीता अनेन नमस्कारेणेति, यच्चोक्तम्-चतुर्दशपूर्विनम-14 |स्कारेणव शेषाणां दशपूर्व्यादीनां नमस्कारो भविष्यति किं दशादिनमस्कारेणेति ?, अथ भेदेन क्रियते एवं तर्हि त्रयो-I दशपूर्वधरादीनामेकैकपूर्वहान्या तावत्कर्तव्यो यावत्पूर्वैकदेशधराणामिति, एतदष्यसाधु,कथम्?, यतो दशपूर्वधरा अपि शासनस्योपकारका उपाङ्गादीनां संग्रहण्युपरचनेन हेतुना, अथवाऽस्यामवसर्पिण्यां चतुर्दशपूर्व्यनन्तरं दशपूर्वधराएव संजाता-14 नत्रयोदशपूर्वधरा द्वादशपूर्वधरा एकादशपूर्वधरा वा इत्यस्यार्थस्य प्रतिपादनार्थ चतुर्दशपूर्वधरानन्तरं दशपूर्विनमस्कारोऽभि
हितः, अथवाऽन्यत्प्रयोजनम्-अर्थतस्तीर्थकरप्रणीतं सूत्रतो गणधरोपनिवर्द्ध चतुर्दशपूर्वधरोपनिबर्द्ध दशपूर्वधरोपनिबद्धं प्रत्येः है कबुद्धोपनिबद्धं च प्रमाणभूतं सूत्रं भवतीत्यस्य प्रतिपादनार्थ दशपूर्विनमस्कारः कृतः, तथा चोक्तम्-"अर्हत्प्रोक्तं गणधर
हब्धं प्रत्येकबुद्धहब्धं च । स्थघिरग्रथितं च तथा प्रमाणभूतं त्रिधा सूत्रम् ॥ १॥” इति, 'अथवाऽन्यत्प्रयोजनम्-चतुर्दशपूर्विणो दशपूर्षिणश्च नियमेनैव सम्यग्दृष्टय इति प्रदर्शनार्थं तन्नमस्कारः, अथवा यदुक्तं त्रयोदशपूर्वधरादीनामेकैकहान्या तावन्नमस्कारो वाच्यो यावदेकदेशपूर्वधराणामिति, सैष हानिरित्धमुक्ता यदुत प्रभूतहान्या हानिर्वाच्या, सा च त्र्यन्तरे
१ अर्थ भाषतेऽईन सूत्र प्रमन्त्रि गणधरा निपुर्ण ।
दीप अनुक्रम
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५] → “नियुक्ति: [१-२] + भाष्यं -1 + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
मङ्गलादि नि.१-२
प्रत गाथांक नि/भा/प्र
श्रीओघ- नियुक्तिः द्रोणीया वृत्तिः
||२||
प्रतिपादिता भवति, अतः पूर्वत्रयमुल्लञ्चय दशपूर्विणां ग्रहणम् , एवं नवादिष्वपि योज्यम् , एवं व्याख्याते सत्याह परःगुणाधिकस्य वन्दनं. कर्तव्यं, न त्वधमस्य, यत उक्तम्-"गुणाहिए बंदणयं" भद्रबाहुस्वामिनश्चतुर्दशपूर्वधरत्वात् दशपूर्वधरादीनां च न्यूनत्वात्तरिकं तेषां नमस्कारमसौ करोति? इति, अत्रोच्यते, गुणाधिका एव ते, अव्यवच्छित्तिगुणाधिक्यात्, अतो न दोष इति । एवं व्याख्याते सत्याह पर:-एकादशाङ्गसूत्रार्थधारकाणां किमर्थं क्रियते ? इति, उच्यते, इह चरणकरणात्मिका ओघनियुक्तिः, एकादशाङ्गसूत्रार्थधारिणश्च चरणकरणवन्त एव, एकादशानामङ्गानां चरणकरणानुयोगस्वात् , उपयोगित्वेनांशेन तेषां नमस्कार इति । साधूनां किमर्थमिति चेत्, ते तु चरणकरणनिष्पादकाः, तदर्थ चायं सर्व एव प्रयास इति । अथवाऽन्यथा ब्याख्यायते इदं गाथासूत्रम्-अनेन गाथासूत्रेण पञ्चनमस्कारः प्रतिपाद्यते, न च पश्चन-18 मस्कारालघुतरोऽन्योऽस्ति नमस्कार इत्यतो भद्रबाहुस्वामिना स एव कृत इति, कथम् !, 'अरहंते वैदित्ता' इत्यनेनाहन्नमस्कारः, 'चउदसपुबी तहेव दसपुबी एक्कारसंगसुत्तत्थधारए' इत्यनेनाचार्योपाध्यायनमस्कारः, यतः सूत्रप्रदा उपाध्याया अर्थप्रदा आचार्या इति । एवं व्याख्याते सत्याह-एवं तर्हि 'अर्थसूत्रधारकान्' इत्येव वक्तव्यम्, आचार्योपाध्यायपदयोरेवं क्रमेण व्यवस्थितत्वात् , तत्कथमेतत् । इति, अत्रोच्यते, नावश्यमाचार्योपाध्यायैर्भिर्भवितव्यम्, अपि तु कचिदसावेव सूत्र शिष्येभ्यः प्रयच्छत्यसावेव चार्थमतः 'सूत्रार्थधारकान्' इत्येवमुपन्यस्तम् । 'सर्वसाधूंच' इत्यनेन तु साधुनमस्कारः। प्रतिपादितः । सर्वशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, ततोऽयमों भवति-सर्वानहतः, एवं चतुर्दशपूर्वधरादीनामपि मीलनीयं,
गुणाधिके वन्दनकं ।
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दीप अनुक्रम
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||R||
दीप
अनुक्रम
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“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २/१ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [५] • →
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
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“निर्युक्तिः [१२] + भाष्यं [-] + प्रक्षेपं [३...]" F आगमसूत्र - [४१/१], मूल सूत्र -[२/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
चशब्दात्सिद्धनमस्कारः । एवं व्याख्याते सत्याह- किमर्थं सिद्धनमस्कारः पचादभिधीयते ?, अपि त्वर्हन्नमस्कारानन्तरं वाच्य इति, अत्रोच्यते, यानि ह्यर्हदादीनि पदानि तेषां सर्वेषामेव सिद्धाः फलभूताः, अतः फलप्रतिपादनार्थं पश्चादुपन्यास इति, अथवाऽन्नमस्कारेणैव सिद्धनमस्कारोऽप्यभिहितः, कारणे कार्योपचारमङ्गीकृत्य, सिद्धत्वस्य कारणभूतत्वादतामित्यलं प्रसङ्गेनेति ॥ १ ॥ अधुना कृतमङ्गलः सन् संबन्धाभिधेयप्रयोजनत्रयमदर्शनार्थ द्वितीयं गाथासूत्रमाह- 'ओहेण उ' इति, ओघः संक्षेपः समासः सामान्यमित्ये कोऽर्थः तेन ओपेन निर्युक्तिं वक्ष्ये इति योगः, तदनेन गाधाखण्डकेन संबन्धः प्रतिपादितः क्रियाऽऽनन्तर्यलक्षणः, तथा च व्यासक्रियायाः समासक्रिया अनन्तरभूता वर्तते, अतः क्रियाऽऽनन्तर्यलक्षणः संबन्धः, एवं कार्यकारणलक्षणोऽपि द्रष्टव्यः - कार्यम् - ओघनिर्युक्तत्यर्थपरिज्ञानमनुष्ठानं च कारणं तु वचनरूपापन्ना ओघनिर्युक्तिरेव, एवं च साध्यसाधनादयोऽपि द्रष्टव्या इति । तुशब्दो विशेषणे, किं विशिनष्टि ? - ओघेन वक्ष्ये, तुशब्दास्किश्चिद्विस्तरतोऽपि "छप्पुरिमं” इत्यादि, निर्युक्तिं वक्ष्य इति-नि:- आधिक्ये योजनं युक्तिः, सूत्रार्थयोर्योगो नित्यव्यवस्थित एवास्ते वाच्यवाचकतयेत्यर्थः, अधिका योजना निर्युक्तिरुच्यते, नियता निश्चिता वा योजनेति, ततश्च निर्युक्तियुक्तिरित्येवं वक्तव्ये एकस्य युक्तिशब्दस्य लोपं कृत्वा एवमुपन्यासः, यथोष्ट्रमुखी कन्येति । 'वोच्छे' इति वक्ष्ये' अभिधास्य इति यदुक्तं भवति, कुतो वक्ष्ये ? इत्यत आह- 'चरणकरणानुयोगात् चर्यत इति चरणं वक्ष्यमाणलक्षणं व्रतादि क्रियत इति करणं-पिण्डविशुद्धयादि, चरणं च करणं च चरणकरणे तयोरनुयोगश्चरणकरणानुयोगः, अनुयोजनमनुयोगः अनुकूलो वा योगोऽनुयोगः, अथवाऽणु-सूत्रं महान् अर्थः ततो महतोऽर्थस्याणुना सूत्रेण योगोऽनुयोगः, तस्माच्चरणकरणानुयोगात्
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५] → “नियुक्ति: [१-२] + भाष्यं -1 + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
मङ्गलादि
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२||
0-60-५
श्रीओघ- नियुक्तिं वक्ष्ये, चरणकरणात्मिकामेवेति गम्यते, यथा मृदो घट करोति मृदात्मकमेव, तद्वदनापीति। अथवा चरणं च तत्करणं नियुक्तिः
च २ तस्यानुयोगस्तस्माचरणकरणानुयोगात् नियुक्तिं वक्ष्य इति, तदनेनावयवेनाभिधेयमुक्तं, चरणकरणनियुक्तिरभिधेयेति । द्रोणीया
किंस्वरूपां नियुक्ति वक्ष्ये' इत्यत आह-'अल्पाक्षरां' अल्पान्यक्षराणि यस्यां साऽल्पाक्षरा तामल्पाक्षराम्, अथवा क्रिया-1 वृत्तिः
विशेषणमेतत् , कथं वक्ष्ये । इत्यत आह–'अल्पाक्षर' स्तोकाक्षरं वक्ष्ये, न प्रभूताक्षरमित्यर्थः । किमल्पाक्षरमेव ?, नेत्याह॥४॥ 'महत्थं' महार्थं वक्ष्ये, अथवा महानों यस्याः सा महार्था तां महार्थी वक्ष्ये, तदनेनाभिधेयविशेषणं प्रतिपादितं भवति ।
'अल्पाक्षरां महार्थी' इत्यनेन चतुर्भङ्गिका प्रतिपादिता भवति, एकमल्पाक्षरं प्रभूतार्थं भवति १, तथा अन्यत् प्रभूताक्षरम-|
पार्थ २, तथा प्रभूताक्षरं प्रभूतार्थ ३, अल्पाक्षरमल्यार्थे ४ चेति । किंनिमित्तं वक्ष्ये ? इत्यत आह-'अनुग्रहार्थ' अनुग्रसह-उपकारोऽभिधीयते, अर्थशन्दः प्रयोजनवचनः, तत उपकारप्रयोजनं वक्ष्ये, तदनेन प्रयोजनं प्रतिपादितं द्रष्टव्यम् ।
केषां वक्ष्ये । इत्यत आह-सुविहितानां शोभनं विहितम्-अनुष्ठानं येषामिति ते सुविहिताः-साधवस्तेषां सुविहितानामनुग्रहार्थमोपनियुक्किं वक्ष्य इति योगः । तदनेन गाथासूत्रेण परोपन्यस्ता हेतवो निराकृता भवन्ति । के च हेतवः', निःसंघम्धत्वादय इति । यश्चार्य क्त्वाप्रत्यय उपन्यस्तस्तेन नित्यानित्यकान्तवादयोरसारता प्रतिपादिता भवति, कथम् ।-न नित्यवादे क्त्वाप्रत्ययो युज्यते न वाऽनित्यवादे, किं तु नित्यानित्यवाद एवायं घटत इति, नित्यवादे तावन्न घटते, एक कृत्वा ह्यपरकरणं क्रमः, क्त्वाप्रत्ययश्च विशिष्टपूर्वार्थोऽभिधीयते, 'समानकर्तृकयोः पूर्वकाले क्त्वें' (पा० ३-४-२१) ति वचनात् , नित्यवादे चामच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावं वस्तु, तच्च किं तावत् पूर्वस्वभावत्यागेन द्वितीयां क्रियां करोति
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६] → “नियुक्ति: [१-२] + भाष्यं [१] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१||
आहोस्वित्पूर्वस्वभावात्यागेनेति वाच्यम् ?, यदि पूर्वस्वभावत्यागेन ततोऽनित्यत्वप्रसङ्गा, अतादवस्थ्यमनित्यतां ब्रूमः, अथ पूर्वस्वभावात्यागेन, एवं तर्हि न कदाचिदपि तेन द्वितीया क्रिया कर्तव्येति, एवं प्रतिपादितेऽनित्यतावाद्याह-अत एवा-13 स्माकं दर्शने क्त्वाप्रत्ययो घटत इति, एतदप्यचारु, यस्य क्षणिकं वस्तु तस्य कथं क्त्वाप्रत्ययो युज्यते ?, उत्पत्त्यनन्तरं ध्वंसात्, कथमेक एष कर्ता क्रियाद्वयं करोति', येन हि प्राक्तनी क्रिया निष्पादिता सोऽन्य एव, योऽपि चोत्तरां क्रियां करोति सोऽपि चान्य एव, तत एकान्तानित्यवादेऽपि न घटते क्त्वाप्रत्यय इति । अयं तावत्समुदायार्थः, अधुना भाष्य-1 कृदेकैकमवयवं व्याख्यानयति-तत्र 'तत्त्वभेदपर्यायाख्येति पर्यायतो व्याख्यां कुर्वन्निदं गाथासूत्रमाह
आहे पिंड समासे संखेवे चेव होंति एगट्ठा । निजुत्तत्ति य अत्था जं बद्धा तेण निजुत्ती ॥१॥(भा०) | ओघः पिण्डो भवतीति योगः, पिण्डनं पिण्डः, संघातरूप इत्यर्थः, 'समासे' इति समसनं समासः, 'असु क्षेपणे' सम्एकीभावेनासनं क्षेपणमित्यर्थः, तथा च समासेन सर्व एव विशेषा गृह्यन्ते, ओघः समासो भवतीति योगः, एवं भवतीति । क्रिया सर्वत्र मीलनीया । 'संखेवे' इति संक्षेपणं संक्षेपः सम्-एकीभावेन प्रेरणमित्यर्थः, चशब्द उक्तसमुच्चये, कदाचिदनुतसमुच्चये, एवंशब्दः प्रकारवाचकः, एवमेतेषामपि पिण्डादीनां ये पर्यायास्ते मीलनीया इति । नियुक्तिपदव्याख्यानार्थमाह-नित्तत्ति य' इत्यादि, निः-आधिक्ये योजनं युक्तिः, आधिक्येन युक्ता नियुक्ताः अर्यन्त इत्यर्थाः गम्यन्त * इत्यर्थः, ततो निर्युक्ता इति चाऽर्था यद् यस्माद्बद्धास्तेन नियुक्तिरभिधीयते । अथवाऽन्यथा-निश्चयेन युक्ता नियुक्तिरिति
चार्थाः यद्बद्धास्तेन नियुक्तिरभिधीयते, इत्ययं गाथार्थः । एकाधिकप्रतिपादनेन च एकान्तभेदाभेदवादी व्युदस्येते, नैका
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'ओघ' एवं 'पिण्ड' शब्दस्य व्याख्या
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(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६] .” “नियुक्ति: [२...] + भाष्यं [१] + प्रक्षेपं [३... . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१||
दीप अनुक्रम
श्रीओप- न्तभेदपक्षे एकार्थिकानि युज्यन्ते, कथम् ?, यस्य ह्येकान्तेनैव सर्वे भावाः सर्वथा भिन्ना वर्तन्ते तस्य हि यथा घटशब्दात्पट- चरणसनियुक्तिःशब्दो भिन्नः एवं कुटशब्दोऽपि भिन्न एव तत्कथं घटशब्दस्य कुटशब्द एकाधिको युज्यते , एकार्थिकत्वं हि कथचिनेदेप्ततिः द्रोणीयाx
भवतीति, एवमेकान्ताभेदवादिनोऽपि न युज्यन्ते एकार्थिकानि, कथम् ?, यस्य ह्यभेदेन सर्वे भावा व्यवस्थितास्तस्य यथा भा. २ वृत्तिः ।
घटशब्दस्य घटशब्दोऽभिन्न एकार्थिको न भवति एवं कुटादयोऽपि न युज्यन्ते, अभिन्नत्वात् , इत्यलं चसूर्येति ॥१॥ अधुना चरणपदव्याख्यानार्थमिदं गाथासूत्रमाह|वये समणधम्म संजम वेयावच्चं च बंभगुतीओ । नाणाईतियं त कोहनिरंगहाई चरणमेयं ॥२॥ (भा०) | व्याख्या-भवतीति क्रियाऽनुवर्तते, प्रतादि चरणं भवतीति योगः, व्रतानि-प्राणातिपातादिनिवृत्तिरूपाणि 'समणधम्म'त्ति श्रमणाः-साधवो धारयतीति धर्मः श्रमणानां धर्म:-क्षान्त्यादिकश्चरणं भवतीति सर्वत्र मीलनीयम् । 'संजमे ति सम्एकीभावेन यमः संयमः, उपरम इत्यर्थः, स च प्रेक्षोत्प्रेक्षादिरूपः सप्तदशप्रकारः 'वेयावर्च' इति व्यावृत्तस्य भावो वैयावृत्त्य, आचार्यादिभेदाशप्रकार, चशब्दः समुच्चये, किं समुच्चिनोति ?, विनयश्च, 'बंभगुत्तीओ'त्ति ब्रह्म इति-प्रक्षचर्य तस्य गुप्तयो ब्रह्मचर्यगुप्तयः, चर्यशब्दलोपादेवमुपन्यासः कृतः, ताश्च वसत्यादिका नव ब्रह्मचर्यगुप्तया, 'नाणाइतिय'ति
ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानम्-आभिनिवोधिकादि तदादिर्यस्य ज्ञानादित्रयस्य तत् ज्ञानादि, आदिशब्दात् सम्यग्दर्शनचारित्रपरिKग्रहः, ज्ञानादि च तत्रिकं च ज्ञानादित्रिकम् , 'तब' इति तापयतीति तपो-द्वादशमकारमनशनादि कोहनिग्गहाई' इति है। Wi'क्रुध कोपे' क्रोधनं क्रोधः, निग्रहणं निग्रहः, क्रोधस्य निग्रहः क्रोधनिग्रहः स आदिर्यस्य मानादिनिग्रहकदम्बकस्य तत्को-12
ला
॥
५
॥
SAMEmirathinaal
A
mraryana
'चरण' पदस्य व्याख्या
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||2||
दीप
अनुक्रम
[७]
Jan Educator
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
→
मूलं [७]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
“निर्युक्तिः [२] + भाष्यं [२] + प्रक्षेपं [३...]" ० आगमसूत्र - [ ४१/१] मूल सूत्र - २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
धनिग्रहादि चरणमेतत् । एवं व्याख्याते सत्याह परः - ननु प्रतान्तर्गतत्वाद् गुप्तयो न पृथक् कर्तव्याः, अथ परिकरभूताचतुर्थव्रतस्य ब्रह्मचर्यगुप्तयोऽभिधीयन्ते, एवं तहकैकस्य व्रतस्य परिकरभूता भावना अपि वाच्याः, न च ज्ञानादित्रयस्य ग्रहणं कर्तव्यं, अपि तु ज्ञानसम्यग्दर्शनयोरेवोपन्यासः कर्तव्य इति, चारित्रस्य त्रतग्रहणेनैव ग्रहणात्, तथा श्रमणधर्मप्रहणेन संयमग्रहणं तपोग्रहणं चातिरिच्यते, संयमतपसी वोद्धत्य श्रमणधर्मस्योपन्यासः कर्तव्यः, तथा तपोग्रहणे च सति वैयावृत्यस्योपन्यासो वृथा, चशब्दसमुच्चितस्य च विनयस्य, वैयावृत्त्यत्रिनययोस्तपोऽन्तर्गतत्वात्, तथा क्षान्त्यादिधर्मप्रहणे च सति क्रोधादिनिग्रहग्रहणमनर्थकं तदियं सर्वेव गाथा प्रलूनविशीर्णेति तत्कथमेतत् १ इति, अत्रोच्यते, अविज्ञायैव परमार्थमेवं चोद्यते, यदुक्तं व्रतग्रहणे ब्रह्मगुप्तिज्ञानादित्रयोपन्यासो न कर्तव्यः तत्तावत्परिहियते यदेतद्व्रतचारित्रं स एकांशो वर्तते चारित्रस्य, सामायिकादि च चारित्रं चतुर्विधमगृहीतमास्ते तग्रहणार्थं ज्ञानादित्रयमुपन्यस्तं, व्रतग्रहणे ब्रह्मचर्यगु तयो यदभिधीयन्ते तद्ब्रह्मचर्यस्य निरपवादत्वं दर्शयति, तथा चोक्तम्- “नवि किंचिवि पडिसिद्धं नाणुन्नायं च जिणवरिंदेहिं । मुत्तुं मेहुणभावं न विणा तं रागदोसेहिं ॥ १ ॥" अथवा पूर्वपश्चिमतीर्थकर तीर्थयोर्भेदेनैतत् महाव्रतं भवति, अस्यार्थस्य प्रतिपादनार्थं भेदेनोपन्यासः कृत इति, यच्चोक्तं श्रमणधर्मग्रहणे संयमतपसोर्न ग्रहणं कर्तव्यम्, श्रमणधर्मग्रहणेनैव गृहीतत्वात्तयोः, तदप्यसाधु, संयमतपसोः प्रधानमोक्षाङ्गत्वात् कथं प्रधानत्वम् ? इति चेत् अपूर्वकर्माश्रवसंचरहेतुः संयमो वर्तते, पूर्वगृहीतकर्मक्षयहेतुश्च तपः, ततः प्रधानत्वमनयोः, अतो गृहीतयोरप्यनयोर्भेदेनोपन्यासः कृतः, दृष्ट
१ नापि किञ्चिदपि प्रतिषिद्धं नानुज्ञातं च जिनवरेन्द्रः । मुक्त्तवा मैथुनभावं न बिना तद् रागद्वेषाभ्याम् ॥ ॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७] → “नियुक्ति: [२...] + भाष्यं [२] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
करणसप्ततिः भा.
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१||
दीप अनुक्रम
श्रीओप- चार्य न्यायो यथा-ब्राह्मणा आयाता वशिष्ठोऽप्यायातः, अत्र हि ब्राह्मणग्रहणेन वशिष्ठस्यापि ग्रहणं कृतमेव, तथाऽपि नियुक्तिः प्राधान्यात्तस्य भेदेनोपन्यासः क्रियत इति, तथा यच्चोक्त-तपोग्रहणे वैयावृत्त्यविनययोर्न ग्रहणं कर्तव्यं, तदप्यचारु, बैया-1 द्रोणीया वृत्त्यविनययोर्यधा स्वपरोपकारकत्वात्प्राधान्यं नैवमनशनादीनां तपोभेदानामिति, यत्रोक्त-श्रमणधर्मग्रहणे क्रोधादिनिवृत्तिः
ग्रहस्य नोपन्यासः कर्त्तव्यः, तदप्यचारु, इह द्विरूपः क्रोधः-उदयगत उदीरणावलिकागतश्च, तत्रोदयगतनिग्रहः क्रोधशनिग्रहः, एवं मानादिप्वपि वाच्य, यस्तु उदीरणाबलिकाप्राप्तस्तस्योदय एव न कर्तव्यः क्षान्त्यादिभिहेंतुभिरिति, अथवा
त्रिविधं वस्तु-ग्राह्य हेयमुपेक्षणीयं च, तत्र क्षान्त्यादयो ग्राह्याः, क्रोधादयो हेयाः, अतो निग्रहीतव्यास्त इत्येवमर्थमिस्थमुपन्यस्ता इति स्यात्साधु सर्वमेवैतद्गाथासूत्रमिति । अधुना करणावयवप्रतिपादनार्थमिदं गाथासूत्रमाह-- पिंड विसोही समिई भावण पडिमा य इंदियनिरोहो। पडिले हैंणगुत्तीओ अभिरंगेहा चेव करणं तु ॥३॥(भा०) 12 । अस्या व्याख्या-पिंड'त्ति पिण्डन पिण्डस्तस्य विविधम्-अनेकैः प्रकारः शुद्धिः आधाकर्मादिपरिहारप्रकारैः पिण्डवि-13 शुद्धिः, सा किम् ?, करणं भवतीति योगः, 'समिति'त्ति सम्यगितिः-सम्यग्गमनं प्राणातिपातवर्जनेनेत्यर्थः, जातावेकवचनं, ताश्चेयोसमित्यादयः समितयः, 'भावण'त्ति भाब्यन्त इति भावना:-अनित्यत्वादिकाः 'पडिम'त्ति प्रतिमाः-अभिप्रहप्रकारा मासाद्या द्वादश भिक्षुप्रतिमाः, चशब्दाभद्रादयश्च प्रतिमा गृह्यन्ते, 'इंदियनिरोहो त्ति इन्द्रियाणि-स्पर्शनादीनि ते निरोधः, आत्मीयेष्टानिष्टविषयरागद्वेषाभाव इत्यर्थः, 'पडिलेहण' इति प्रतिलेखनं प्रतिलेखना 'लिख अक्षर विन्यासे' अस्य प्रतिपूर्वस्य ल्युडन्तस्यानादेशे टापि च विहिते प्रतिलेखनेति भवति, एतदुक्तं भवति-अक्षरानुसारेण प्रतिनिरीक्षणमनु
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'करण' पदस्य व्याख्या
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८] → “नियुक्ति: [२...] + भाष्यं [३] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र
||३||
दधानं च यत्सा प्रतिलेखना, सा च चोलपट्टादेरुपकरणस्येति 'गुत्तीओं'त्ति गोपनानि गुप्तयो-मनोवाकायरूपास्तिस्रः।
'अभिग्गह'त्ति अभिग्रहा द्रव्यादिभिरनेकप्रकाराः, चशब्दो वसत्यादिसमुच्चयार्थः, एवकारः क्रमप्रतिपादनार्थः, 'करणं तु'त्ति क्रियत इति करणं, मोक्षार्थिभिः साधुभिनिष्पाद्यत इत्यर्थः, तुशब्दो विशेषणे, मूलगुणसद्भावे करणत्वमस्य, नान्यथेति ।। आह-ननु समितिग्रहणेनैव पिण्डविशुद्धगृहीतत्वान्न पिण्डविशुद्धिग्रहणं कर्तव्यं, यत एषणासमिती सर्वैषणा गृहीता, पिण्डविशुद्धिरप्येषणैव, तत्किं भेदेनोपन्यासः १ इति, अत्रोच्यते, पिण्डव्यतिरेकेणाप्येषणा विद्यते वसत्यादिरूपा तस्या ग्रहणं भविष्यति, तत्र पिण्डविशुद्धेस्तु भेदेनोपन्यासः कारणे ग्रहणं कर्तव्यं नाकारणे इत्यस्यार्थस्य प्रतिपादनार्थः, अथवाऽऽहा-18 रमन्तरेण न शक्यते पिण्डविशुख्यादि करणं सर्वमेव कर्तुमतो भेदेनोपन्यास इति । अत्राह-चरणकरणयोः कः प्रतिविशेषः ? इति, अत्रोच्यते, नित्यानुष्ठानं चरणं, यनु प्रयोजन आपन्ने क्रियते तत्करणमिति, तथा च व्रतादि सर्वकालमेव चर्यते न पुनर्वतशून्यः कश्चित्काल इति, पिण्डविशुद्ध्यादि तु प्रयोजने आपन्ने क्रियत इति । एवं व्याख्याते सत्याह परः-४ "ओहेण उ निजुत्तिं वुच्छं चरणकरणाणुओगस्स" इत्येवं वक्तव्यं, तस्किमर्थं पष्ठचुल्लङ्घनं कृत्वा पञ्चम्यभिधीयते, इत्यस्थार्थस्य प्रतिपादनार्थमिदं गाथासूत्रमाहचोदगवयणं छट्ठी संबंधे कीस न हवइ विभत्ती?। तो पंचमी उ भणिया, किमथि अन्नेऽवि अणुओगा ॥४॥(भा०) ___ व्याख्या-'चोदग'त्ति चोदकवचनं, किंभूतम् ?, तदाह-षष्ठी संबन्धे किमिति न भवति विभक्तिः, संबन्धन संवन्धस्तस्मिन् संबन्धे षष्ठी किमिति न भवति ?, एतदुक्तं भवति-चरणकरणानुयोगसंबन्धिनीमोपनियुक्तिं वक्ष्य इति वाच्यं, तदुल्लानं
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९] → “नियुक्ति: [२...] + भाष्यं [४] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
नियुक्तिीत्यर्थ, एवं
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४||
वृत्तिः
दीप अनुक्रम
श्रीओष- कृत्वा पञ्चम्युच्यते तत्र प्रयोजनं वाच्यं, अथ न किश्चित्प्रयोजनं ततः पञ्चमी भणिता किं केन कारणेन ?, निष्प्रयोजनैवे
त्यर्थः, एवं चोदिते सत्याहाचार्यः-अस्त्यत्र प्रयोजनं षष्ठयुलहनं कृत्वा यत् पञ्चम्युपन्यस्ता, किम् ? इत्यत आह-'अत्थिा द्रोणीया
अण्णेऽवि अणुओगा सन्ति-विद्यन्ते अन्येऽप्यनुयोगाः, अस्यार्थस्य प्रतिपादनार्थमेवमुपन्यासः कृत इति । पुनरप्याह-यद्यन्येऽ-3 दाप्यनुयोगाः सन्ति पञ्चम्याः किमायातम् । इति, अत्रोच्यते, अस्थाचार्यस्येयं शैली-यदुभयत्र कचित्तत्र षष्ठयाः सप्तम्या वा निर्देशं करोति, तथा च-"आवस्सगस्स दसकालियस्स तह उत्तरज्झमायारे (आव०नि०पत्रे ६१ गाथे ८४-८५)
इत्येवमादि । अत्र तु शैली त्यक्त्वा पञ्चम्या निर्देशं कुर्वन्नाचार्य एतत् ज्ञापयति-सन्त्यन्येऽप्यनुयोगा इति, तदत्राहं चरण६ करणानुयोगाद्वक्ष्ये नान्यानुयोगेभ्य इति । तथा षष्ठी द्विविधा दृष्टा-भेदषष्ठी अभेदषष्ठी च, तत्र भेदषष्ठी यथा-देवदत्तस्य
गृहम् , अभेदषष्ठी यथा-तैलस्य धारा शिलापुत्रकस्य शरीरकमिति, तद्यदि षष्ठ्या उपन्यासः क्रियते ततो न ज्ञायते-किं चरणकरणानुयोगस्य भिन्नामोपनियुक्तिं वक्ष्ये यथा देवदत्तस्य गृहमिति, अथाहोश्विदभिन्नां वक्ष्ये यथा तैलस्य धारेति,
तस्य सम्मोहस्य निवृत्त्यर्थं पञ्चम्या उपन्यासः कृत इति । एवं व्याख्याते सत्यपरस्त्वाह-अस्तीत्येकवचनमनुयोगा बहवश्च 15 द्रा तत्कथं बहुत्वं प्रतिपादयति ?, उच्यते, अस्तीति तिडक्तप्रतिरूपकमव्ययम् , अध्ययं च "सदृशं त्रिषु लिङ्गेषु, सर्वासु च विभ-|॥७॥
क्तिषु । वचनेषु च सर्वेषु, यन्न व्येति तदव्ययम् ॥१॥" ततो बहुत्वं प्रतिपादयत्येवेत्यदोषः । अथवा व्यवहितः संबन्धोस्तिशब्दस्य, कथम् ?, इदं चोदकवचनम्-षष्ठी संबन्धे किमिति न भवति विभक्तिः, आचार्य आह-अस्ति षष्ठी विभक्तिः
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
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दीप
अनुक्रम [१०]
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [१०]
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“निर्युक्तिः [२...] + भाष्यं [५] + प्रक्षेपं [३...]"
८० आगमसूत्र - [४१/१], मूल सूत्र -[२/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
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पुनरप्याह-यद्यस्ति ततः पञ्चमी भणिता किम् ?, आचार्य आह-अन्येऽप्यनुयोगाश्ञ्चत्वारः, अतः षष्ठी विद्यमानाऽपि नोक्तेति, भावना पूर्ववत् । अन्येऽप्यनुयोगाः सन्तीत्युक्तं, न च ज्ञायन्ते कियन्तोऽपि ते १ इत्यतः प्रतिपादयन्नाहचत्तारि उ अणुभगा चरणे धम्मगणियाणुओगे य। दवियणुजोगे य तहा अहकर्म ते महिडीया ॥ ५ ॥ ( भा० )
व्याख्या—चत्वार इति संख्यावचनः शब्दः अनुकूला अनुरूपा वा योगा अनुयोगाः, तुशब्द एवकारार्थः, चत्वार एव, अन्ये तु तुशब्दं विशेषणार्थं व्याख्यानयन्ति, किं विशेषयन्तीति चत्वारोऽनुयोगाः, तुशब्दाद्वौ च पृथक्त्वा पृथक्त्वभेदात्, कथं चत्वारोऽनुयोगाः १ इत्याह-'चरणे धम्मगणियाणुओगे य' चर्यत इति चरणं, तद्विषयोऽनुयोगश्चरणानुयोगस्तस्मिन् चरणानुयोगे, अत्र चोत्तरपदलोपादित्यमुपन्यासः, अन्यथा चरणकरणानुयोगे इत्येवं वक्तव्यं, चैकादशाङ्गरूपः, 'धम्मे' इति धारयतीति धर्मः, दुर्गतौ पतन्तं सत्वमिति, तस्मिन् धर्मे-धर्मविषये द्वितीयोऽनुयोगो भवति, स चोत्तराध्ययमप्रकीर्णकरूपः, 'गणियाणुओगे य' इति गणितं तस्यानुयोगो गणितानुयोगः तस्मिन् गणितानुयोगे-गणितानुयोगविषये तृतीयो भवति, स च सूर्यप्रज्ञत्यादिरूपः, चशब्दः प्रत्येकमनुयोगपदसमुच्चायकः, 'दवियणुओगे त्ति द्रवतीति द्रव्यं तस्यानुयोगो द्रव्यानुयोगः - सदसत्पर्यालोचनारूपः, स च दृष्टिवादः चशब्दादनार्षः सम्मत्यादिरूपश्च तथेति क्रमप्रतिपादकः, आगमोक्तेन प्रकारेण 'यथाक्रमं' यथापरिपाव्येति, चरणकरणानुयोगाद्या महर्द्धिकाः' प्रधाना इति यदुक्तं भवति एवं व्याख्याते सत्याह परः- 'चरणे धम्मगणियाणुओगे य दवियणुओगे यत्ति यद्येतेषां भेदेनोपन्यासः क्रियते तत्किमर्थं चत्वारः ? इत्युच्यते, विशिष्टपदोपन्यासादेवायमर्थोऽवगम्यत इति, तथा चरणपदं भिन्नया विभक्तत्या किमर्थमुपन्यस्तं ?,
अनुयोगस्य चत्वारः भेदानाम् कथनं एवं वैशिष्ठ्यं
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||५||
दीप
अनुक्रम
[१०]
श्रीओघ
निर्युक्तिः द्रोणीया वृत्तिः
॥ ८ ॥
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [१०]
●→
“निर्युक्तिः [२...] + भाष्यं [५] + प्रक्षेपं [ ३...]"
८०
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
आगमसूत्र - [४१/१], मूल सूत्र -[२/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
धर्मगणितानुयोगौ तु एकयैव विभक्त्या, पुनर्द्रव्यानुयोगो भिन्नया विभक्त्येति, तथाऽनुयोगशब्दश्चैक एवोपन्यसनीयः, किमर्थ द्रव्यानुयोग इति भेदेनोपन्यस्त इति ?, अत्रोच्यते, यत्तावदुक्तं चतुर्ग्रहणं न कर्तव्यं, विशिष्टपदोपन्यासात्, तदसत् यतो न विशिष्टसङ्ख्यावगमो भवति विशिष्टपदोपन्यासेऽपि कुतः ?, चरणधर्मगणितद्रव्यपदानि सन्ति, अन्यान्यपि सन्तीति संशयो मा भूत्कस्यचिदित्यतश्चतुर्ग्रहणं क्रियत इति, तथा यच्चोक्तं भिन्नया विभक्त्या चरणपदं केन कारणेनोपन्यस्तम् ?, तत्रैतत्प्रयोजनं, चरणकरणानुयोग एवात्राधिकृतः, प्राधान्यख्यापनार्थे भिन्नया विभक्त्या उपन्यास इति, तथा धर्मगणितानुयोगी एकविभक्त्योपन्यस्ती, अत्र तु क्रमेऽप्रधानावेताविति, तथा द्रव्यानुयोगे भिन्नविभक्त्युपन्यासे प्रयोजनं, अयं हि एकैकानुयोगे मीलनीयः, न पुनलौकिकशास्त्रवद्युक्तिभिर्न विचारणीय इति, तथाऽनुयोगशब्दद्वयोपन्यासे प्रयोजनमुच्यते यत्त्रयाणां पदानामन्तेऽनुयोगपदमुपन्यस्तं तदपृथक्त्वानुयोगप्रतिपादनार्थ, यच्च द्रव्यानुयोग इति तत्पृथक्त्वानुयोगप्रतिपादनार्थमिति । एवं व्याख्याते सत्याह परः - इह गाथासूत्रपर्यन्त इदमुक्तं- 'यथाक्रमं ते महर्द्धिका' इति, एवं तर्हि चरणकरणानुयोगस्य लघुत्वं, तत्किमर्थं तस्य निर्युक्तिः क्रियते ?, अपि तु द्रव्यानुयोगस्य युज्यते कर्तु सर्वेषामेव प्रधानत्वात् एवं चोदकेनाक्षेपे कृते सत्युच्यते
| सविसयवलवत्तं पुण जुज्जइ तहविअ महिद्विअं चरणं । चारित्तरक्खणट्ठा जेणिअरे तिन्नि अणुओगा ॥ ६ ॥ (भा०) स्वश्वासौ विषयश्च स्वविषयस्तस्मिन् स्वविषये बलवत्त्वं पुनर्युज्यते-घटते, एतदुक्तं भवति - आत्मीयात्मीयविषये सर्व एव बलवन्तो वर्तन्त इति, एवं व्याख्याते सत्यपरस्त्वाह-यद्येवं सर्वेषामेव नियुक्तिकरणं प्राप्तं, आत्मीयात्मीयविषये सर्वेषामेव
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चरणानुयो गमहत्ता भा. ५-१०
॥ ८ ॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [११] .→ “नियुक्ति: [२...] + भाष्यं [६] + प्रक्षेपं [३...] . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
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गाथांक नि/भा/प्र ||६||
बलवत्त्वात् , तथाऽपि चरणकरणानुयोगस्य न कर्तव्येति, एवं चोदकेनाशङ्किते सत्याह गुरु:-'तहवि अ महिहि चरण'18 'तथापि एवमपि स्वविषयबलवत्त्वेऽपि सति महर्द्धिक चरणमेव, शेषानुयोगानां चरणकरणानुयोगार्थमेवोपादानात्, पूर्वोत्पन्नसंरक्षणार्थमपूर्वप्रतिपत्त्यर्थं च शेषानुयोगा अस्यैव वृत्तिभूताः, यथा हि कर्पूरवनखण्डरक्षार्थ वृत्तिरुपादीयते, तत्र हि कर्पूरवनखण्ड प्रधान न पुनवृत्तिः, एवमत्रापि चारित्ररक्षणार्थ शेषानुयोगानामुपन्यासात् , तथा चाह-'चारित्तरक्खणडा जेणियरे तिन्नि अणुओगा' चयरिक्तीकरणाचारित्रं तस्य रक्षणं तदर्थ चारित्ररक्षणार्थ येन कारणेन 'इतरे' इति धर्मानुयोगादयस्खयोऽनुयोगा इति । एवं व्याख्याते सत्याह-कथं चारित्ररक्षणमिति चेत्तदाह
चरणपडिवत्तिहडं धम्मकहा कालदिक्खमाईआ। दविए दसणसुद्धी दसणसुद्धस्स चरणं तु॥७॥ (भा०) हा चर्यत इति चरणं-प्रतादि तस्य प्रतिपत्तिश्चरणप्रतिपत्तिः चरणप्रतिपत्तेः हेतुः कारणं निमित्तमिति पर्यायाः, किम् ? त तदाह-'धर्मकथा' दुर्गती प्रपतन्तं सत्त्वसवातं धारयतीति धर्मस्तस्य कथा-कथनं धर्मकथा चरणप्रतिपत्तेहेतुर्धर्मकथा, तथाहि
आक्षेपण्यादिधर्मकथाऽऽक्षिप्ताः सन्तो भव्यप्राणिनश्चारित्रमवाप्नुवन्ति, 'कालदिक्खमाईय'त्ति कलनं कालः कलासमूहो वा कालस्तस्मिन् काले दीक्षादया-दीक्षण दीक्षा-प्रवज्याप्रदानम् आदिशब्दादुपस्थापनादिपरिग्रहः, तथा च शोभनतिधिनक्ष-18 त्रमुहूत्र्तयोगादी प्रव्रज्याप्रदान कर्त्तव्यम् , अतः कालानुयोगोऽप्यस्यैव परिकरभूत इति, 'दविएति द्रव्ये द्रव्यानुयोगे, किं भवति ?, इत्यत आह-दर्शनशुद्धिः' दर्शनं-सम्यग्दर्शनमभिधीयते तस्य शुद्धिः-निर्मलता दर्शनशुद्धिः, एतदुक्कं भवतिद्रव्यानुयोगे सति दर्शनशुद्धिर्भवति, युक्तिभिर्यथाऽवस्थितार्थपरिच्छेदात् , तदत्र चरणमपि युक्त्यनुगतमेव ग्रहीतव्यं, न ||
दीप अनुक्रम [११]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१२] .→ “नियुक्ति: [R...] + भाष्यं [७] + प्रक्षेपं [३...]" " मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||७||
वृत्तिः
॥
९
॥
दीप अनुक्रम
श्रीओघ-18/पुनरागमादेव केवलादिति । आह-दर्शमशुथैव किम् !, तदाह-दर्शनशुद्धस्य' दर्शनं शुद्धं यस्यासौ दर्शनशुद्धस्तस्य 'चरण' चरणानुयो नियुक्ति चारित्रं भवतीत्यर्थः, तुशब्दो विशेषणे, चारित्रशुद्धस्य दर्शन मिति ॥ अथवा प्रकारान्तरेण चरणकरणानुयोगस्यैव प्राधान्यं ।
गमहत्ता द्रोणीया
भा. ५-१० प्रतिपाद्यते आदिभूतस्यापीति, तच्च दृष्टान्तबलेनाचलं भवति नान्यथेत्यतो दृष्टान्तद्वारेणाहजह रण्णो विसएसुं वयरे कणगे अ रयय लोहे आचत्तारि आगरा खलु चउण्ह पुत्ताण ते दिन्ना ॥८॥(भा०ार
'यथे'त्युदाहारणोपन्यासे राज्ञो विषयेषु जनपदेषु 'वज्र' इति वज्राकरो भवति, वज्राणि-रत्नानि तेषामाकरः-खानि-5 सार्वजाकरः । 'चिन्ता लोहागरिए'त्ति इत्यतः सिंहावलोकितन्यायेनाकरग्रहणं संबध्यते, एतेन कारणेन 'होति जत्ति इत्यस्मान-1 द वति क्रिया सर्वत्र मीलनीयेति । 'कनक' सुवर्णं तस्याकरो भवति द्वितीयः, 'रजत रूप्यं तद्विषयस्तृतीय आकरो भवति,
चशब्दः समुच्चये, अनेकभेदभिन्न रूप्याकरं समुच्चिनोति, 'लोहे यत्ति लोहमयस्तस्मिन् लोहे-लोहविषयश्चतुर्थ आकरो
भवति, चशन्दो मृदुकठिनमध्यलोहभेदसमुच्चायकः, 'चत्वारः' इति सक्ष्याः, आक्रियन्त एतेष्वित्याकराः, तथा च मर्याददयाऽभिविधिना वा क्रियन्ते वज्रादीनि तेष्विति, खलुशब्दो विशेषणे, किं विशिनष्टि -सविषयाः सहस्त्यादयश्च ते पुत्रेभ्यो
दत्ताः, चतुर्णी 'पुत्राणां' सुताना 'ते' इत्याकरा 'दत्ताः विभक्ता इत्यर्थः ।। अधुना प्रदानोत्तरकालं यत्तेषां संजातं तदुच्यते|चिंता लोहागरिए पडिसेहं सो उ कुणह लोहस्स । वयराईहि अगहणं करिति लोहस्स तिन्नियरे ॥९॥(भा०)||॥९॥
लोहाकरोऽस्थास्तीति लोहाकरिकस्तस्मिन् लोहाकरिके चिन्ता भवति, राज्ञा परिभूतोऽहं येन ममाप्रधान आकरो दत्तः,
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१४] .→ "नियुक्ति: [२...] + भाष्यं [९] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||९||
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एवं चिन्तायां सत्यां सुबुख्यभिधानेन मन्त्रिणाऽभिहिता-देव ! मा चिन्तां कुरु, भवदीय एव प्रधान आकरो, न शेषा[8 आकरा इति, कुत एतदवसीयते ?, यदि भवत्संबन्धी लोहाकरो भवति तदानीं शेषाकरप्रवृत्तिः, इतरथा लोहोपकरणामावान्न प्रवृत्तिरिति, ततोऽनिर्वाह कारयतु कतिचिद्दिनानि यावदुषक्षयं प्रतिपद्यते तेषूपकरणजातं, ततः सुमहार्घमपि ते लोह ग्रहीष्यन्तीत्यत आह-'पडिसेह' इत्यादि, प्रतिषेधो-धारणा तं प्रतिषेधं करोत्यसौ लोहं प्रतीतमेव तस्य लोहस्य, तुशब्दो| विशेषणे, न केवलमनिर्वाहं करोत्यपूर्वोत्पादनिरोधं च, ततश्चैवं कृते शेषाकरेषूपस्कराः क्षयं प्रतिपन्नाः, ततस्ते वज्रादिभिग्रहणं कुर्वन्ति इतरे वज्राकरिकादयः, चशब्दान्न केवलं वज्रादिभिर्हस्त्यादिभिश्च, अत्र कथानकं स्पष्टत्वान्न लिखितम् | अयं दृष्टान्तः, साम्प्रतं दार्शन्तिकयोजना क्रियते यथाऽसौ लोहाकर आधारभूतः शेषाकराणां, तत्प्रवृत्ती शेषाणामपि प्रवृत्तेः, एवमत्रापि चरणकरणानुयोगे सति शेषानुयोगसद्भावः, तथाहि-चरणे व्यवस्थितः शेषानुयोगग्रहणे समर्थो भवति, नान्यथेति ॥ अस्यार्थस्य प्रतिपादनार्थं गाथासूत्रमाहएवं चरणमि ठिओ कर गहणं विही इयरेसिं । एएण कारणेणं हवइ उ चरणं महहीअं ॥१०॥ (भा०) __'एवं'मित्युपनयग्रन्थः 'चरणमिति चर्यत इति चरणं तस्मिन् व्यवस्थितः करोति विधिना ग्रहणमितरेषाम् , इतरेषामिति | द्रव्यानुयोगादीनां, तदनेन कारणेन भवति चरणं महर्द्धिकम् । तुशब्दादन्येषां च गुणानां सभों भवतीति ॥ अधुना 'अल्पाक्षरां महार्था मिति यदुक्तं तद्व्याख्यानायाह
दीप अनुक्रम [१४]
RELIEatur
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) मूलं [१६] → “नियुक्ति: [२...] + भाष्यं [११] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
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प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||११||
श्रीओषनियुक्तिः द्रोणीया वृत्तिः
१०॥
4% 85%25%
अप्पक्खरं महत्थं १ महक्खरऽप्पत्य २ दोसुऽवि महत्थं ३।
अल्पाक्षरदोसुऽवि अप्पं च ४ तहा भणि सत्थं चउविगप्पं ॥ ११ ॥ (भा.)
त्वादिभेदाः अत्र चतुर्भगिका-अल्पान्यक्षराणि यस्मिन् तदल्पाक्षरं, स्तोकाक्षरमित्यर्थः, 'महत्थं' इति महानों यस्मिन् महार्थ प्रभू- भा.११-१२ तार्थमित्यर्थः, तत्रैकं शास्त्रमल्याक्षरं भवति महार्थं च प्रथमो भङ्गः १, अथान्यत् किंभूतं भवति ?-'महक्खरमप्पत्थर महाक्षरं, प्रभूताक्षरमिति हृदयं, अल्पार्थ, स्वल्पार्थमिति हृदयं, द्वितीयो भङ्गः २, तथाऽन्यत् किंभूतं भवति ?-'दोसुवि महत्थं' द्वयोरपीति अक्षरार्थयोः, श्रुतत्वादक्षरार्थोभयं परिगृह्यते, एतदुक्तं भवति-प्रभूताक्षरं प्रभूतार्थं च तृतीयो भङ्गः ३, तथाऽन्यत् किंभूतं भवति ? इत्याह-'दोसुवि अप्पं च तहा' द्वयोरप्यल्पमक्षरार्थयोः, एतदुक्तं भवति-अल्पाक्षरं अल्पार्थ चेति ४ । 'तथे ति तेनागमोक्तप्रकारेण 'भणित' उक्तं शास्त्रं 'चतुर्विकल्प' चतुर्विधमित्यर्थः ॥ अधुना चतुर्णामपि भङ्गका-टू नामुदाहरणदर्शनार्थमिदं गाथासूत्रमाह|सामायारी ओहे नायज्झयणा य दिडिवाओ य । लोइअकप्पासाई अणुकमा कारगा चउरो॥१२॥(भा०)
ओघसामाचारी प्रथमभङ्गके उदाहरणं भवति, पूर्वापरनिपातादेवमुपन्यासः कृतः १, ज्ञाताध्ययनानि षष्ठाने प्रथमश्रुतस्कन्धे तेषु कथानकान्युच्यन्ते ततः प्रभूताक्षरत्वमल्पार्थत्वं चेति द्वितीयभङ्गके ज्ञाताध्ययनान्युदाहरणं, चशब्दादन्यच्च यदस्यां कोटी व्यवस्थित २, दृष्टिवादश्च तृतीयभङ्गक उदाहरणं, यतोऽसौ प्रभूताक्षरः प्रभूतार्थश्च, चशब्दात्तदेकदेशोऽपि ३, चतुर्थभकोदाहरणप्रतिपादनार्थमाह-'लोइयकप्पासादी' इति लौकिक चतुर्थभने उदाहरणं, किंभूतम् ?-कापासादि, आदि-४
दीप अनुक्रम
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१७] → “नियुक्ति: [२...] + भाष्यं [१२] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१२||
शब्दाग्छिवचन्द्रादिग्रहः, 'अणुकम'त्ति अनुक्रमादिति अनुक्रमेणैव-परिपाट्या, तृतीयार्थे पञ्चमी, 'कारकाणि' कुर्वन्तीति कारकाणि-उदाहरणान्युच्यन्ते, चत्वारीति यथासंख्येनैवेति ॥ 'अनुग्रहार्थं सुविहितानाम्' इति यदुक्तं तद्व्याख्यानायो-13 दाहरणगाथावालाईणणुकंपा संखडिकरणमि होअगारीणं । ओमे य चीयभत्तं रण्णा दिन्नं जणवयस्स ॥ १३ ॥ (भा०)
एवं मित्युपन्यासाद्यथेति गम्यते, ततोऽयमों भवति-यथा ह्यगारिणामनुकम्पा भवति बालादीनामुपरि संख६ डिकरणे, एवं स्थविरैः साधूनामनुकम्पार्थमुपदिष्टौघनियुक्तिरिति संवन्धः । अधुनाऽक्षरगमनिका बालाः शिशवोऽभिधी
यन्ते, ते आदिर्येषाम् । आदिशब्दात्कर्मकरादिपरिग्रहः, तेषां बालादीनामुपर्यनुकम्पा दयेत्यर्थः, 'संखडिकरणे' संखड्यन्ते | प्राणिनो यस्यां सा संखडिः, अनेकसत्त्वब्यापत्तिहेतुरित्यर्थः, कृतिः करणं संखड्याः करणं संखडिकरणं तस्मिन् संखडिकरणे यथाऽनुकम्पा भवति, केषाम् ? इत्याह-'अगारिणां' अगारं विद्यते येषां तेऽगारिणस्तेषामगारिणां, तथाहि-योजनं प्रहर
बयोद्देशे भवति तस्मिन् यदि पालादीनां प्रथमालिका न दीयते ततोऽतिबुभुक्षाकान्तानां केषाश्चिन्मूर्छागमनं भवति काकेचित्पुनः कमोदि कर्तुं न शक्नुवन्ति ततोऽनुकम्पार्धं प्रथमालिकाद्यसौ गृहपतिः प्रयच्छति, अस्यैव दर्शनार्थ दृष्टान्तान्तहरमाह-'ओम' इत्यादि, अवर्म-दुर्भिक्षं तस्मिन्नवमे बीजानि-शाल्यादीनि भक्तम्-अन्नं बीजानि च भक्तं च बीजभक्तमेमकवद्भावः 'राज्ञा' नरपतिना दत्तं, कस्य तदाह-जनपदस्य ॥.. ISI कस्यचिद्राज्ञो विषये दुर्भिक्षं प्रभूतवार्षिक संजातं, ततस्तेन दुर्भिक्षेण सर्वमेव धान्य क्षयं नीत, लोकश्च विषण्णः, तस्मिन्न
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(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१८] → “नियुक्ति: [R...] + भाष्यं [१३] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१३||
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श्रीओप- वसरे राज्ञा चिन्तितम् सर्वमेव राज्यं मम जनपदायतं, यदि जनपदो भवति ततः कोष्ठागारादीनां प्रभवः, जनपदाभावे तु नियुक्तिः
अनुकम्पासर्वाभावः, ततस्तत्संरक्षणार्थं वीजनिमित्तं भक्तनिमित्तं च कोष्ठागारादिधान्यं ददामीति, एषमनुचिन्त्य दापितं तस्य जनपदस्य, थो निद्रोणीया खोकश्च स्वस्थः संजातः, पुनर्द्विगुणं त्रिगुणं च प्रेषितं राज्ञ इति ॥ अयं दृष्टान्तः, अधुना दार्शन्तिकप्रतिपादनार्थमाह-181
भा१३-१४ 10 एवं थेरेहिं हमा अपावमाणाण पयविभागं तु । साहणणुकंपट्ठा उपश्टा ओहनिलुसी ॥ १४ ॥ (भा०) ॥११॥ 'एव'मित्युपनयग्रन्थः, यथा गृहपतिना बालादीनामनुकम्पार्थे भक्तं दत्तं, राज्ञा च बीजभक्तमनुग्रहार्थमेव दर्त, एवं
स्थविरैरोपनियुक्तिः साधूनामनुग्रहार्थं नियूटेति, स्थविरा:-भद्रबाहुस्वामिनस्तैः, 'आत्मनि गुरुषु च बहुवचन मिति बहुव-3,
चनेन निर्देशः कृतः, 'इमा' इति इयं वक्ष्यमाणलक्षणा प्रतिलेखनादिरूपा । किमर्थं नियंढा , तदाह-'अपावमाणाण द इत्यादि, 'अप्रामुवता' अनासादयता, किमप्रामुवतामित्याह-पदविभाग' वर्तमानकालापेक्षया कल्परूपं, चिरन्तनकालापे
क्षया तु दृष्टिवादब्यवस्थितपदविभागसामाचारीमित्यर्थः । तुशब्दाद्दशधासामाचारी चाप्रामुवता, केषामनुकम्पार्थ नियूढा,
तदाह-'साधूनां' ज्ञानादिरूपाभिः पौरुषेयीभिर्मोक्ष साधयन्तीति साधवस्तेषां साधूनां, किम् ?-'अनुकम्पार्थ' अनुकम्पा कृपा टदया इत्येकोऽर्थः तथा अर्थ:-प्रयोजन, 'उपदिष्टा' कथिता 'ओपनियुक्तिः' सामान्यार्थप्रतिपादिकेत्यर्थः ॥ आह-अथ |
केयमोपनियुक्तिः या स्थविरैः प्रतिपादिता , तत्प्रतिपादनायाहहापडिलेहण१च पिंहरतवहिपमाणअणाययणवजापडिसेवण५मालोअणजह य विसोहीअमुविहियाणं ॥२॥k॥१९॥ HI एवं संवन्धे कृते सत्याह पर:-ननु पूर्वमभिहितम् , अहंतो वन्दित्वोपनियुक्तिं वक्ष्ये, तत्किमर्थं वन्दनादिक्रियामकृत्वै-12
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ओघनिर्युकते: विषयाणां निरूपणं
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२०] . "नियुक्ति : [R.R] + भाष्यं [१४] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१४||
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दीप अनुक्रम
Hौधनियुक्ति प्रतिपादयति इति, अत्रोच्यते, अविज्ञायैव परमार्थं भवतैतच्चोयते, इह हि वन्दनादिक्रिया प्रतिपादितैवासा
धारणनामोद्घटनादेव, तथाहि-अशोकाद्यष्टमहाप्रातिहार्यादिरूपा पूजामहन्तीत्यईन्तः, तदनेनैव स्तवोऽभिहितः, एवं चतुदशपूर्वधरादिष्वपि योजनीयं, अलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः-'पडिलेहणं' इति, 'लिख अक्षरविन्यासे' प्रतिलेखनं प्रतिलेखना तां वक्ष्याम इति, एतदुक्तं भवति-आगमानुसारेण या निरूपणा क्षेत्रादेः सा प्रतिलेखनेति । चशब्दात्पतिलेखक प्रतिलेखनीयं च वक्ष्ये । अथवाऽनेकाकारां प्रतिलेखनां च वक्ष्ये, उपाधिभेदात् । "पिंड'ति पिण्डनं पिण्डः-सङ्घातरूपस्त पिण्ड, वक्ष्य इति प्रत्येक मीलनीय, भिक्षाशोधिमित्यर्थः । 'उपधिप्रमाणं' इति उपदधातीत्युपधिः, उप-सामीप्येन संयम धारयति पोषयति चेत्यर्थः, स च पानादिरूपस्तस्य प्रमाणं, तच्च गणनाप्रमाणे प्रमाणप्रमाण च । 'अणाययणवज' इति नायतनमनायतनं तद्वयं-त्याध्यमित्येतच्च वक्ष्ये, अथवाऽनायतनवय॑मायतनं, तदायतनं वक्ष्ये, तञ्चानायतनं स्त्रीपशुपण्डकसंसक्तं यद्वर्तते, तद्विपरीतमायतनं । 'पडिसेवणं' इति प्रतीपा सेवना प्रतिसेवना, एतदुक्तं भवति-संयमानुष्ठानात्मतीपमसंयमानुष्ठानं तदासेवना ताम् । 'आलोयण' इति आलोचनमालोचना अपराधमर्यादया लोचनं-दर्शनमाचार्यादेरालोचनेत्यभिधीयते, किमालोचनामेव ?, नेत्याह-'जह य' इत्यादि, 'यथा' येन प्रकारेण 'विशोधिः' विशेषेण शोधिर्विशोधिः, एतदुक्तं भवति-शिष्येणालोचितेऽपराधे सति तद्योग्यं यत्प्रायश्चित्तप्रदानं सा विशोधिरभिधीयते, तां विशोधि । केषां संवन्धिनीं विशोधि , तदाह-सुविहितानां शोभनं विहितम्-अनुष्ठानं येषां ते सुविहितास्तेषां संवन्धिनी यथा | विशोधिस्तथा वक्ष्ये, चशब्दः समुच्चये, किं समुचिनोति ?-कारणप्रतिसेवने अकारणप्रतिसेवने च यथा शोधिस्तथा वक्ष्य
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Santaram
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अत्र मूल संपादने किचित स्खलनत्वात् नियुक्तिक्रम २ द्विवारान् लिखितं, तत् कारणात् मया शिर्षक-स्थाने '२.R' इति लिखितम्
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२०] .→ “नियुक्ति : R.R] + भाष्यं [१४...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
KAR
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१४||
श्रीओष- इति । अत्राह-अथैषां द्वाराणामित्थं क्रमोपन्यासे किं प्रयोजनमिति, अत्रोच्यते, यत्प्रतिलेखनाद्वारस्य पूर्वमुपन्यासः कृत- प्रतिलेखनियुक्तिः स्तत्रैतत्प्रयोजन-सर्वैव क्रिया प्रतिलेखनापूर्विका कर्तब्येत्यस्यार्थस्य प्रतिपादनार्थं पूर्व प्रतिलेखनाद्वारमुपन्यस्तं, प्रतिलेख- नादीनि ७ द्रोणीयानोत्तरकालं ग्रहणं भवति अतः पिण्डस्योपन्यासः, अशेषदोषविशुद्धः पिण्डो ग्राह्य इति, तदनन्तरमुपधिद्वारस्योपन्यासःद्वा . नि.२ वृत्तिः सक्रियते, किमर्थमिति चेत्, स हि पिण्डो न पात्रबन्धादिकमन्तरेण ग्रहीतुं शक्यते अत उपधिप्रमाणं तदनन्तरमभिधीयते,
स मतल पाच गृहीतः पिण्ड उपधिश्च न वसतिमन्तरेणोपभोकुं शक्यते, अतः 'अनायतनवर्य' इत्यस्य द्वारस्योपन्यासः क्रियते, प्रति-II
हालेखनां कुर्वतः पिण्डग्रहणमुपधिप्रमाणं अनायतनवर्जनं चेच्छतः कदाचिवचित्कश्चिदतिचारो भवतीत्यतोऽतिचारद्वार। क्रियते, स चातिचारोऽवश्यमालोचनीयो भावशुद्ध्यर्थमत आलोचनाद्वारमभिधीयते, आलोचनोत्तरकालं प्रायश्चित्तं तद्योग्य यतो दीयतेऽतो विशुद्धिद्वारस्योपन्यासः क्रियत इत्यलमतिविस्तरेण ॥२॥ अधुनैकैकं द्वारं 'ब्याचष्टे, तत्र पर्यायतः प्रतिलेखनाद्वारव्याख्यानायाह
आभोगमग्गण गवेसणा य ईहा अपोह पडिलेहा । पेक्खणनिरिक्खणावि अ आलोयपलोयणेगट्ठा ॥३॥
आभोगनमाभोगः, 'भुज पालनाभ्यवहारयोः' मर्यादयाऽभिविधिना वा भोगन-पालनमाभोगः प्रतिलेखना भवति, मार्गणं मागंणा 'मृग अन्वेषणे' अशेषसत्त्वापीडया यदन्वेषणं सा मार्गणेत्युच्यते, गवेषणं गवेषणा 'गवेष मार्गणे' अवशेषदोषरहि-1४॥ १२ ॥ तवस्तुमागणं गवेषणेत्युच्यते, ईहनमीहा 'ईह चेष्टायां शुद्धवस्त्वन्वेषणरूपा चेष्टेहेत्युच्यते, सा च प्रतिलेखना भवति, अपोहनमपोहः अपोहा-पृथग्भाव उच्यते, तथा चक्षुषा निरूप्य यदि तत्र सत्त्वसम्भवो भवति तत उद्धारं करोति सत्त्वानां
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प्रतिलेखनाया: पर्याय-शब्दानाम् कथन-पूर्वकं तत् द्वारस्य वर्णनं
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२१] → “नियुक्ति: [३] + भाष्यं [१४...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र
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||३||
हा अन्यालाभे सति, स चापोहः प्रतिलेखना भवति, प्रतिलेखनं प्रतिलेखना, प्रति प्रत्यागमानुसारेण निरूपणमित्यर्थः, साच
प्रतिलेखना । प्रेक्षणं प्रेक्षणा, प्रकणेक्षणं दर्शनं प्रेक्षणेत्युच्यते, सा च प्रतिलेखना । निरीक्षण निरीक्षणा, नि:-आधिक्ये Kईक्ष दर्शने' अधिकं दर्शनं निरीक्षणेत्युच्यते, अपिशब्दादन्योपसर्गयोगे चैकार्थिकसंभवो यथा-उपेक्षणेति, चशब्दादाभोगादादीनां च शब्दानां ये पर्यायशब्दास्तेऽपि प्रतिलेखनाद्वारस्य पर्यायशब्दाः । आलोकनमालोकः, मर्यादयाऽभिविधिना वा
लोकनमित्यर्थः । प्रलोकनं प्रलोकना, प्रकर्षणालोकनमित्यर्थः । 'एगहा इति एकाथिकान्यमूनि अनन्तरोद्दिष्टानि भवन्ति । पुल्लिङ्गता च प्राकृतलक्षणवशाद्भवत्येव, यथा-जसो तवो सल्लो, नपुंसकलिङ्गा अपि शब्दाः पुंल्लिङ्गाः प्रयुज्यन्ते एवमत्रा-18 पीति व्याख्याते सत्याह परः-प्रतिलेखनं नपुंसकं, अत्र तु कानिचिन्नपुंसकानि कानिचित्स्त्रीलिङ्गानि कानिचित्पुंलिङ्गानि, तत्र नपुंसकस्य नपुंसकान्येव वाच्यानि तत्कथमिति, अत्रोच्यते, एक तावत्प्राकृतशैलीमङ्गीकृत्य नपुंसकस्यापि स्त्रीलिङ्गपुंल्लिा पर्यायाभिधानमदुष्टं, तथाऽन्यत्प्रयोजन, संस्कृतेऽप्येकस्यैव शब्दस्य त्रयमपि भवति, यथा तटस्तटी तटमिति, तदत्र। भिन्नलिङ्गाः शब्दाः केन कारणेन पर्यायशन्दा न भवन्तीति ॥ आह-प्रतिलेखनाग्रहणेन किं सैव केवला गृह्यते? किमन्यदपि, अन्यदपि किं तत् ?, 'पडिलेहो य' इत्यादि, अथवा का पुनरत्र प्ररूपणा ' इति तदर्थं अधीति
पडिलेहओ य पडिलेहणा य पहिले हियवयं चेव । कुंभाइसु जह तियं परूवणा एवमिहयंपि ॥४॥ प्रतिलिसतीति प्रतिलेखका-प्रवचनानुसारेण स्थानादिनिरीक्षकः साधुरित्यर्थः, चशब्दः सकारणादिस्वगतभेदानां समु-1 वायकः, प्रतिलेखन प्रतिलेखना “दुबिहा खलु पडिलेहा" इत्यादिना अन्थेन वक्ष्यमाणलक्षणा, चशब्दो भेदसूचका,
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२२] → “नियुक्ति: [४] + भाष्यं [१४...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४||
जोध- प्रतिलेख्यत इति प्रतिलेखितव्यं "ठाणे उवकरणे" इत्यादिना वक्ष्यमाणं, चशब्दः पूर्ववत्, एवकारोऽवधारणे, नातत्रिकाद- प्रतिलेखनियुक्तिः तिरिक्तमस्ति । आह-कथं पुनः प्रतिलेखकप्रतिलेखितव्ययोरनुक्तयोर्महणमिति !, दण्डमध्यग्रहणन्यायात्, अथवा ग्रन्थेनै-18 नाद्वारे प्रद्रोणीया वोच्यते-'कुंभादीसु' कुम्भो-घटः, आदिशब्दात्कुटपटशकटग्रहः 'यथा' येन प्रकारेण 'त्रिक त्रितयं, त्रीणीत्यर्थः, प्ररूप- तिलेखकः वृत्तिः ॥णानि प्ररूपणाः 'एवं ति तथा तेन प्रकारेण, 'इहेति प्रतिलेखनायां, अपिशब्दः साधर्म्यदृष्टान्तप्रतिपादनार्थः, यथा कर्ता
नि०४-५
६-७ कुलालः करणं मृत्पिण्डदण्डादि कार्य कुटः, परस्परापेक्षतया नैकमेकेनापि विनेति, तथा प्रतिलेखना क्रिया, सा च 8 ॥१३॥
कर्तारं प्रतिलेखकमपेक्षते, प्रतिलेखितव्याभावे चोभयोरभावस्तस्मात्रीण्येतानि-प्रतिलेखकः प्रतिलेखना प्रतिलेखितव्यं चेति ॥ इह च 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायमङ्गीकृत्य प्रतिलेखक आद्यः कर्तृत्वात्प्रधानश्चेत्यतस्तद्व्याख्यानार्थमाह-पडिदारगाहा एगो व अणेगो वा, दुविहा पडिलेहगा समासेणं । ते दुबिहा नायषा निकारणिआ य कारणिआ॥५॥ सुगमा, नवरं 'निकारणिआ य' इति चशब्दाद्गच्छंस्तिष्ठविशेषणे चात्र द्रष्टव्ये ॥ सकारणाकारणनिर्णयार्थमाह
असिवाई कारणिआ निक्कारणिआ य चकधूभाई । तत्थेगं कारणिों वोच्छं ठप्पा उ तिन्नियरे ॥६॥ सुगमा, नवरं-'तत्थेग' इति 'तत्र' तेष्वेकानेकसकारणगच्छन्तिष्ठन्प्रतिलेखकेषु य एका सकारणो गच्छन् तं वक्ष्ये।। तावत्तिष्ठन्तु त्रयः-सकारणानेकनिष्कारणैकानेकभेदाः, तुशब्दात्स्थानस्थितश्च, 'इतरे' अन्य इत्यर्थः॥ कियन्ति पुनस्तान्यशिवादीनि ? येष्वसाधेकाकी भवतीत्याह
असिवे ओमोयरिए रायभए खुहिअ उत्तमढे अफिडिअगिलाणाइसए देवया चेव आयरिए ॥७॥
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॥१३
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२५] → “नियुक्ति: [७] + भाष्यं [१४...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||७||
न शिवमशिव-देवतादिजनितो ज्वराद्युपद्रवः, अवमोदरिक-दुर्भिक्षं, राज्ञों भयं राजभय, क्षुभितं क्षोभः, संत्रास | || ४ इत्यर्थः, उत्तमार्थः-अनशनं 'फिडित' इति भ्रष्टो मार्गात् 'ग्लानो' मन्दः, अतिशयः-अतिशययुक्तः, देवताचार्यों प्रतीती,
अयं तापदक्षरार्थः । भावार्थस्य भाष्यकार एकैकं द्वारमङ्गीकृत्य प्रतिपादकः। 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायादत्रायद्वारमा-| श्रित्य यो विधिरसावभिधीयते-इहाशिवमेकाकित्वस्य हेतुत्वे वर्तते, तस्मात्तथा कर्तव्यं यथा तन्न भवत्येव । केन पुनः प्रकारेण तन्न भवतीति चेत्स उच्यते
संवफछरवारसरण होही असिवति ते (तह) तओ णिति ।
मुत्तत्थं कुवंता अइसयमाईहिं नाऊणं ॥१५॥ (भा०) व्याख्या-संवत्सराणां द्वादशकं, दश च द्वौ च द्वादश, तेन भविष्यत्यशिवमिति ज्ञात्वा 'त' इति ( तइत्ति) तदैव 'तत' इति तस्मात्क्षेत्रात् णिति' निर्गच्छन्ति, सूत्रपौरुषीमर्थपौरुषी च 'कुर्वन्तः' निष्पादयन्तोऽन्यदेशमभविष्यदशिवं विश्वस्ताः संक्रामन्ति । कथं पुनर्जायते!-अतिशय आदिर्येषां तेऽतिशयादयो ज्ञानहेतवस्तैः ॥ अतिशयादि प्रतिपादयन्नाह
अइसेस देवया वा निमित्तगहण सयं व सीसो वा।
परिहाणि जाव पत्तं निग्गमणि गिलाणपडिबंधो॥१६॥ (भा०) अतिशयः-अवध्यादिस्तदभावे क्षपकादिगुणाकृष्टा देवता कथयति, अहवा आयरिएणं सुत्तत्थेसु णिम्माएण सयमेव 1 अथवा आचार्येण सूत्रार्थयोनिमातेन (कान) खयमेव
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CREADOS
SHARERIEainmANara
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२६] → “नियुक्ति: [७...] + भाष्यं [१६] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१६||
श्रीओघनियुक्तिः द्रोणीया वृत्तिः
॥१४॥
निमित्तं घेत्तवं, अहवा सीसो गहणधारणासंपन्नो निविकारी जो सो गेहाविजइ, जया आयरिओ वुहो भवइ तया अवि- पतिलेख गारिस्स सीसस्स देह, जाहे सो ण होजा ताहे अण्णो कोइ पुच्छिज्जइ, ताहे वारसहिं निमांतवं, अह वारसएहिं ण णाय नाद्वारेताहे एकारसहिं जाच जाहे एकेणवि ण णार्य होजा ताहि छहिं मासेहिं सुर्य ताहे निग्गच्छन्तु, अहवा न चेव णायं असिवं| अशिवादि। जायं ताहे निग्गच्छतु । अक्षरव्याख्या-अतिशयनमतिशया-प्रत्यक्षं ज्ञानमवधिमनःपर्यायकेवलाख्य, तेन ज्ञात्वा, देवताभा .१५-१८ वा कथयति, भविष्यत्यशिवमिति, निमित्तम्-अनागतार्थपरिज्ञानहेतुर्ग्रन्थस्तस्य ग्रहणं स्वयमेव करोत्याचार्यः शिष्यो वा योग्यो ग्राह्यते निमित्तं, 'परिहाणि जाव पत्तंति द्वादशकेन यदा न ज्ञातं तदा एकादशकेनेत्येकैकहान्या परिहाणिरिति,
यावत्प्राप्तमिति तावत् स्थिताः कथश्चिद्यावत्माप्तम्-आगतमशिवं, तत्र किमिति?, निर्गमनं निर्गमः कार्यः सर्वैरिति । कथं ती| है शिवमाश्रित्यैकाकित्वमिति चेत्तदाह-'गिलाणपडिबंधों' ग्लानो-मन्दस्तयैवाशिवकारिण्या देवतया कृतः पूर्वभूतो वा, तेन
प्रतिबन्धः-न निर्गमः सर्वेषां ॥ तस्याश्चाशिवकारिण्याः स्वरूपप्रतिपादनायाहसंजयगिहितदुभय भद्दिआ य तह तदुभयस्सवि अपंता।चउवजणवीसु उवस्सए य तिपरंपराभतं ॥१७॥ (भा०) असिवे सदसं वत्थं लोहं लोणं च तह य विगईओ। एयाई वज्जिज्जा चउचजणयंति जं भणिों ॥१८॥ (भा०)
निमित्तं ग्रहीतव्यं, मथना शिष्यो ग्रहणधारणासंपनो निर्विकारी यः सः ग्राशते, सदा आचार्यों वृद्धो भवति तदाऽविकारिणे शिष्याय ददाति ॥१४॥ कायदा सन भवेत्तदा मम्पः कश्चित् पृच्छपते, तदा सभ्योऽर्वाग् निर्गन्तव्य, भय हावशम्पो न शातं तदैकादशम्यो थावरेकम्मादपि न शातं भवेतदा
षड्भ्यो मासेभ्यः श्रुतं तदा निर्गच्छन्तु, अथवा नैव शातमशिवं जातं (तदि) दैव निर्गच्छन्तु.
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२९] → “नियुक्ति: [७...] + भाष्यं [१८] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१८||
| संयताः माधवस्तेषां भद्रिका न गृहिणामिति प्रथमो भङ्गः, गृहिणां भद्रिका न संयतानामिति द्वितीयः, तथोभयभ-1
द्रिकेति तृतीयः, उभयप्रान्तेति' चतुर्थः । सा पुण चउप्पयारा संजयभदिगा गिहत्थपंता १ मिहत्थभद्दिगा संजयफ्तार उभहै यता ३ उभयभहिआ ४। कहं पुण संजयभद्दिगा होज्जा', गिहत्थे उद्दवेइ, संजए भणति-निरुवसग्गा अच्छह, ताहेवि गंतवं,
कोहा जाणति पमत्ता पलोएज्जा वा गेण्हेज्जा वा, गिहिभद्दिगा संजयपंता संजए चेव पढम गेण्हति जहा एते महातवस्सी एते चेव पढम पेल्लेयबा, एतेसु णिजिएसु अवसेसा णिजिआ चेव भवंति, एत्थं जा होउ सा होउ निर्गतर्ष, जाहे न | निग्गया केणइ वाघाएण, को बाधाओ ?, पुर्व गिलाणो वा होज्जा, ताए या उद्दाइआए कोइ संजओ गहितो होजा, पंथा वा न बहंति, ताहे तत्थ जयणाए अच्छियर्थ, का जयणा?, इमाणि चत्तारि परिहरिअवाणि-विगई दसविहावि लोणं लोहं च सदस वत्थं च, जाणि अ कुलाणि असिवेण गहिआणि तेसु आहाराईणि न गेण्हंति, जाहे सवाणिवि गहियाणि होजा
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दीप अनुक्रम [२९]]
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तथोभयद्रिका नेति चतुर्थः, उभयप्रान्ता मनिका अशोभनेत्यर्थः प्रकार सा पुनातुकारा-संचतभनिका गृहस्थमाता 1 गृहस्थभद्रिका संयतप्रास्ता १ अभयप्रान्ता ३ उभयभद्रिका । कथं पुनः संयत्तमनिका भवेत् 1, गृहस्थानुपद्रवति, संवतान् भणति-निरुपसर्गासिष्ठत, तदापि गन्तव्यं, कोधात् | जानाति (को जानातिन) प्रमचान् प्रलोकवेत् गृहीयावा, गृहिमनिका संयतप्रान्ता संपतानेव प्रथमं गृहाति बधैते महातपस्विनः एत एव प्रथमं प्रेर| णीयाः, एतेषु निर्जितेषु अवशेषा निर्जिता एव भवन्ति, मन्त्र वा भवतु सा भवतु निर्गन्तव्यं, यदान निर्गताः केनचियाघातेन, को ब्यापातः १, पूर्व ग्लानो | वा भवेत, तया चोपदोश्या कश्चित्संयतो गृहीतो भयेन, पन्यानो वा न वहन्ति, सदा तत्र वतनया सातव्यं, का यतचाइमानि चावारि परिधर्वम्यागिविकृतिर्दशाविधाऽपि कवर्ण लोहं च सदशं वर्षपबानि च कुलानि अशिग्न गृहीतानि तेष्वाहारादीनिन गृहन्ति, यदा सर्वाण्यपि गृहीतानि भवन्ति
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“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) मूलं [२९] → “नियुक्ति: [७...] + भाष्यं [१८] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१८||
श्रीओघ- ताहे दि दिडीए ण पाडिति, ओमत्थिआ गेण्हंति, दिडीइ संकमइ ॥ 'चउवजणति चतुर्णा वर्जना-परिहारश्चतुर्वर्जना प्रतिलेखनियुक्तिः विकृत्यादीना, चतुर्यु वा वर्जना क्षेत्रस्प-संयतभद्रिका गृहिप्रान्ता इत्यादिषु भङ्गकेषु, 'वीसु उवस्सए यत्ति ग्लानविधिः
| नाद्वारे द्रोणीया विष्वग्-भेदेनोपाश्रयः-आश्रयः कर्तव्य इत्यर्थः । जो संजतो असिषेण गहिओ होज्जा, तस्स दूरहियस्स भत्तं तिपरंपरेण वृत्तिः दिजइ । 'तिपरंपराभत्त'ति, त्रयाणां परम्परा त्रिपरम्परा, भक्तं-आहारः, तद् एको गृह्णाति द्वितीयश्चानयति तृतीयोऽव-18
भा. १९ ॥१५॥
दशया ददातीत्यर्थः । अवधूतम्-अवज्ञात, जैहा अवधूता नासति ॥ ग्लानोद्वर्तनादिविधिप्रदर्शनायाह
श्या ददातीत्यथः। अवधूतम्-अवज्ञान उच्चत्तणनिल्लेवण बीहंते अणभिओगऽभीरू य । अगहिअकुलेसु भत्तं गहिए दिहि परिहरिजा ॥१९॥ (भा०)
उद्वर्तनं-उर्दू वर्तनं यदसावुद्वय॑ते, निर्लेपनं यदसौ निर्लेपः क्रियते, उपलक्षणं चैतत् , तस्य सकाशे न स्थातव्यं दिवा-3 रात्री वा । अथ कीदृशेन साधुना कर्तव्यमित्याह 'बीहंते अणभिभोग'त्ति विभ्यत्यनभियोगः, विभ्यतीति भयं गच्छति, भीरावित्यर्थः, नाभियोगोऽनभियोगः, यो भीरुः स तत्र न नियोक्तव्यः । कस्तर्हि करोति , आह-अभीरू य' अभीरुश्च न भीरुरभीरुः, स तत्र स्वयं करोति नियुज्यते वा, चशब्दो बस्त्रान्तरितादिप्रयलमदर्शनार्थः, अगृहीतेषु कुलेषु अशिवेनेह भक्तं ग्राहय, तदभावे दृष्टिं-दृष्टिसंपातपरिहारः । आह-चतुर्वर्जनेत्युक्तं तत्र भङ्गका अपि गृह्यन्त इति ।।दा जोऽपि तं उपत्तेइ वा परियत्तेइ वा सो हत्थस्स अंतरे वत्थं दाऊण ताहे उबत्तेति वा परियत्तेइ वा । उपत्तेऊण हत्थे
सदा हर्षि टीन पातति, अपाटमसका (पच्छमा) गृहन्ति, रष्टेः संकामते । ९या संपतोऽशिवेन गृहीतो भवेत् तम्मै दूरस्थिताय त्रिपरम्परकेण|2 xभक दीयते । ३ वधाऽवज्ञात्रा नश्यति । योऽपि तमुवयति वा परिवर्तवति वा स हस्तस्यान्तरे वनं दत्वा तमुहर्तयति वा परिवत्तयति वा । उहवं हसौ
दीप अनुक्रम [२९]]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३०] → “नियुक्ति: [७...] + भाष्यं [१९] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
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मट्टिआए धोवइ, जो य बीहिज्जा सो तत्थायरिएण न भणियबो जहा अजो तुम वसाहित्ति । जो धम्मसद्धिओ साहू सोदा अप्पणा चेव भणइ-अहं वसामि । प्रतिबन्धस्थाने सति कर्त्तव्यान्तरप्रदर्शनायाहपुवाभिग्गहबुही विवेग संभोइएसु निक्खिवणं । तेऽविअ पडिबंधठिआ इयरेसु बला सगारदुर्ग ॥२०॥ (भा०) | पूर्वमिति-शिवकाले येऽभिग्रहा:-तपःप्रभृतयस्तेषां वृद्धिः कार्या, चतुर्थाभिग्रहः षष्ठं करोति, मृते तस्मिन् को विधिरित्याह-'विवेग' विवेचन विवेकः, 'विचिर पृथग्भावे' परित्याग इतियावत्, कस्यासाविति तदुपकरणस्य, अमृते तस्मिन् गमनावसरे च प्राप्ते किं कर्त्तव्यमित्याह-संभोइएसु निक्खिवणं' अशेषसमानसामाचारिकेषु विमुच्य गम्यते, ते तत्राशिवे कथं स्थिता इत्याह-'तेऽवि अपडिबंधठिआ' न तेषां गमनावसरः कुतश्चित्प्रतिबन्धात्, तदभावे किं कर्त्तव्यमित्याह 'इतरेसुत्ति असम्भोगिकेष्वित्यर्थः, तदभावे देवकुलिकेषु, अनिच्छत्सु बलात्कारेण, तदभावे कुत इत्याह-सगारदुअंद सह अगारेण वर्त्तत इति सागारो गृहस्थ इत्यर्थः, तयोर्द्वयं, तावेव द्वावित्यर्थः । को पुनस्ताविति ?-व्रत्यप्रती वा सम्यग्दृष्टी, तदभावे शय्यातरः, यथाभद्रकमिथ्यादृष्टिः । सो य गिलाणो यदि अस्थि अण्णा वसही तहिं ठविजइ, असईए अताए चेव वसहीए एगपासे चिलिमिली किज्जा, बार दुहा किजइ, जेण गिलाणो निक्खमति वा पविसति वा तेण अण्णे साहुणो
तिफया प्रक्षायति । वन विभ्यति स तवाचायण म भणितव्यः, यथाऽऽयं ! स्वं बसेति । यो धर्मअद्धिकः साधुः स आत्मनैव भणति-अहं सामि।। रस च बलानो यदि भस्त्यन्या वसतिस्तन स्थाप्यते, असत्यां च तस्यामेव वसतावेकपा चितिमिलिः क्रियते, हारधिा कियते, बेन लामो निष्कामति वा प्रविशति पा तेनान्ये साधवो
दीप अनुक्रम [३०]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३१] → “नियुक्ति: [७...] + भाष्यं [२०] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२०||
श्रीओघ-राण निग्गच्छंति, पडिआरगवजं, ताव य तहिं अच्छंति जाब सत्थो न लब्भइ ताव जोगबुहिं करेंति, जो नमोकार करितओप्रतिलेख
सो पोरिसिं करेति, एवं पहुंति, जइ पउणो सो साहू जो गहिओ ताहे वच्चंति, अह कालं करेइ ताहे जं तस्स उवगरणं|8 नाद्वारे द्रोणीया
तं सवं छड्डिजइ, ते छड्डित्ता ताहे वञ्चंति, अह सो न चेव मुत्तो ताहे अण्णेसिं संभोइआणं सकज्जपडिबंधडिआणं मूले है। अशिवादिः वृत्तिः
सानिक्खिप्पड़, जाहे संभोइआ न होजा ताहे अण्णसंभोइयाणं, जाहे तेऽवि न होजा ताहे पासत्थोसन्नकुसीलाईणं, तेसिं| भा.२०-२१ ॥१६॥
बलावि ओवेडिजइ, तेसिं देवकुलाणि भुजंति, सारूविअसिद्धपुत्वाणं, तेसिं असति सावगार्ण उवणिक्खिप्पति, पच्छा| सेज्जायरेसु आहाभद्दगेसु वा एवं ठविजइ, ताहे वच्चंति ॥ यदि पुनरसी मुच्यमान आक्रोशति ततः किं कर्त्तव्यमित्याहकृयंते अम्भस्थण समस्थभिक्खुस्स णिच्छ तदिवस।जद विंदघाइभेओ तिदुवेगो जाव लाउवमा ॥ २१॥ (भा० । 'कूज अव्यक्ते शब्द' कूजयति-अव्यक्तशब्दं कुर्वाणे किं कार्यमित्याह-'अन्भस्थण समत्थभिक्खुस्स' समर्थः-शक्तोऽभ्य-13 हार्यते, त्वं तिष्ठ यावद्वयं निर्गच्छाम इति, निर्गतेषु वक्तव्यम्-इच्छतु भवान् अहमपि गच्छामि, यदीच्छति क्षिप्रं निर्गमः।
न निर्गचान्ति, प्रतीचारकवज, तावश्च तत्र तिष्ठन्ति यावासाों न लम्यते तावयोगवृद्धिं कुर्वन्ति, यो नमस्कारख कारकः स पौरुषीं करोति, एवं जयन्ति, यदि प्रगुणः स साधुयों गृहीतस्तदा बजन्ति, भय कार्य करोति तदा बत्तस्योपकरणं तत्सर्व त्यज्यते, ते तदा त्यतया ब्रजन्ति, अब स नैव मुक्तसादा ॥१६॥ अन्येषां सांभोगिकागो स्वकार्य तिबन्धस्थितानां मूले निक्षिप्यते, बड़ा सांभोगिका न भवेवुस्तदाऽन्यसांभोगिकाना, पदा तेऽपि न भवेयुस्तदा पार्थस्था वसनकुशीलादीनां तेषां बलादपि निक्षिप्यते, तेषां देवकुलानि भुबन्ते, सारूपिकसिपुत्राणां, तेषामति बावषाणामुपनिक्षिप्यते, पश्चात् शब्यातरेषु यथाभद्रकेषु वैवं स्थाप्यते, वदा व्रजन्ति ।
दीप अनुक्रम [३१]
GARLSHAK
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
॥२९॥
दीप
अनुक्रम
[३२]
" ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र-२ / १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः)
"निर्युक्तिः [...] आयं [२१] + प्रक्षेपं [३]...]
०
आगमसूत्र - [४१/१], मूल सूत्र -[२/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
मूलं [३२]
●
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
-
| अथासौ धर्मनिरपेक्षतया नेच्छति ततः किमित्याह-'अणिच्छ तद्दिवर्स' अनिच्छति तस्मिंस्तस्य साधोर्गमनं तद्दिवसं स्थित्वा छिद्रं लब्ध्वा नष्टव्यं तैश्च किं संहतैर्गन्तव्यमाहोश्विदन्यथेत्याह- 'जइ विंदघाइभेओ तिदुएगो जाव' यद्यसौ वृन्दघातिनी ततो द्विधा भेदः, तथाऽपि न तिष्ठति त्रिधा, त्रयस्त्रयो द्वौ द्वौ एकैको यावत्तथा न घातयति । कः पुनरत्र दृष्टान्त इत्याह-'जहा अलाउवमा अलातम्-उल्मुकमुपमानं दृष्टान्तस्तेनोपमा, यथा हि तानि संहतानि ज्वलन्ति नान्यथा, एवं तेऽपि संहता हन्यन्ते नान्यधेति, तदर्थं भेदः, एवमशिवादेकाकी भवति । यदि सो कूवति ताहे एको भष्णति-जो (जइ) समत्थो तुमं ताहे छिदं नाऊण बितिअदिवसे एज्जासि, तस्स पुण मज्जाया- ते विसज्जेयथा, मा मम को मरंतु, जाहे सोडवि मिलिओ ताहे सवे एगतो वच्च॑ति, जाहे तेसिं एगतो वच्चंताणं कोइ विघाओ हुज्जा, एस बिंदधाई, जत्थ बहुगा तत्थ पडति, दिहंतो कट्ठसंघाओ पलितो, सो दुहा कओ पच्छा एक्केकं दारुगं न जलति, एवं तेऽवि जइ गहिआ ताहे दुहा कज्जंति, एवं तिहा, जाव तिष्णि तिष्णि जणा, एगो पडिस्सयवालो संघाडओ हिंडइ, अह तहवि. न मुयति ताहे दो दो होंति, अह दोवि जणा न मुयइ ताहे एगागी भवति, तेसिं उवगरणं ण उवहम्मति, एवं ता एकलओ दिठ्ठो असिवेण ॥ केन पुनरुपायेनैकत्वविशेषणजुष्टा नष्टाः सन्त एकत्र प्रदेशे संहियन्ते ? इत्याह-
१ यदि स जति तदा एको भण्यते यदि समर्थवं सदा शिरा द्वितीयदिवसे आयायाः, तस्य पुनर्मर्यादा ते विसर्जयितव्याः, मा मम कार्याय मार्बु, यदा सोऽपि मीलितस्तदा सर्वे एकतो यजन्ति यदा तेषामेकतो व्रजतां व्याघातो भवेत् एष वृन्दधावी यत्र बहवस्तत्र पतति दृष्टान्तः काष्ठसंघात प्रदीप्तः स द्विधाकृतः पञ्चादेकैकं दारु न ज्वलति एवं तेऽपि यदि गृहीताखदा द्विधा क्रियन्ते, एवं त्रिधा यावत्रयस्त्रयो जनाः, एकः प्रतिश्रयाला संघाटको हिण्डते, अघ तथापि न मुञ्चति तदा द्वी द्वापि भवतः, अथ द्वापि जनो न मुञ्चति तदैकाकिनों भवन्ति तेषामुपकरणं नोपम्यते, एवं तावदेकाकी दृष्टोऽशिवेन ।
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३३] → “नियुक्ति: [७...] + भाष्यं [२२] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२२||
पतिलेखनाद्वारे शिवादिः भा. २२
श्रीओष
संगारो रायणिए आलोयणपुवपत्तपच्छा वा । सोममुहिकालरत्तच्छणतरें एक दो विसए ॥२२॥ (भा०) नियुक्तिः
संगार:-संकेतः पृथग्भावकाले कर्तव्यः, यथाऽमुकप्रदेशे सर्वैः संहन्तव्यमित्युपायः, तं च प्रदेश प्राप्तानां को विधिरि- द्रोणीया
स्याह-'राइणिए आलोयणपुचपत्तपच्छा वा' रलाधिकस्य-गीतार्थस्य पूर्वप्राप्तस्य पश्चात्प्राप्तस्य वाऽऽलोचना देया, तदभावे
लघोरपि गीतार्थस्य दातव्या, कियत्पुनः क्षेत्रमतिक्रमणीयमित्याह-सोममुही'त्यादि, अशिवकारिण्या विशेषणानि, सौम्य ॥१७॥ मुखं यस्याः सा तथा, कथमुपद्रवकारिण्याः सौम्यमुखीत्वम् ?, अनन्तरविषयं प्रत्युपद्रवाकरणात् , कृष्णमुखी द्वितीयेऽपि
न मुञ्चति, रक्ताक्षी तृतीयेऽपि न मुञ्चति, यथासङ्ख्यमनन्तर एव स्थीयते सौम्यमुख्याम्, 'एक' इति एकमन्तरे कृत्वा तृतीये दस्थीयते कृष्णमुख्या, 'दो' इति द्वावन्तरे कृत्वा चतुर्थे स्थीयते रक्ताक्ष्यां, तेसिं संगारो दिण्णेलतो भवति, यथा अमुगत्थ
मेलाइयवं, जाहे मिलीणो भवति ताहे तत्थ जो राइणिओ पुर्वपत्तो वा पच्छापत्तो वा तस्स आलोयणा दायबा, अह | ४ागीयस्थो ओमो ताहे तस्स आलोइजइ, सा पुण तिविठ्ठा उद्दाइआ-सोममुखी कालमुखी रत्तच्छी य, जा सा सोममुखी|
तीसे एकं विसयं गम्भइ, कालमुहीए एगो विसओ अंतरिजइ, रत्तच्छीए दो विसए अंतरेऊण चउत्थे विसए ठाति । असिवे ति दारं संमत्तं ॥ अशिवेन यथैकाकी भवति तथा व्याख्यात, साम्प्रतं “ओमोयरिए” इति यदुक्तं तव्याख्यानायाह
तेभ्यः संकेतो दत्तो भवति यथा अमुकत्र मील यितव्यं, यदा मीलितो भवति सदा तत्र यो राशिकः पूर्वप्राप्तो वा पानासो वा ती आलोचना | दातव्या, मध गीतार्थोऽयमसदा (अपि) से आलोचयेत, सा पुननिविधा उपहोत्री (उपहाचिका)-सीम्यमुखी कृष्णमुखी रक्ताक्षी च, या सा सीम्य- गुखी तस्थामेको विषयो गम्पते, कृष्णमुरथामेको विषयोऽतरवते, रक्तायां ह्री विषयो अन्तरयित्वा चतुर्थे विपये तिष्ठन्ति । अशिवमिति द्वार समाप्त ।
दीप अनुक्रम [३३]
॥ १७ ॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३४] → “नियुक्ति: [७...] + भाष्यं [२३] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
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प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२३||
एमेव उ ओमम्मि भेओ उ अलंभि गोणिदिलुतो। 'एवमेवेति अनेनैव प्रकारेणावमद्वारमपि व्याख्येयं, यथाऽशिवद्वारं व्याख्यातं, यो विधिरशिवद्वारे सोऽत्रापीत्यर्थः, तुशब्दो बहुसादृश्यप्रतिपादनार्थः, अवमे-दुर्भिक्षे, अपिशब्दः सादृश्यसंभावने, तदुच्यते-"संवच्छरवारसपण होहिति
ओमंति ते तओ निति" इत्यादि, भेदन-भेद:-एकैकता, तुशब्द एवकारार्थः, कस्मिन् पुनरसौ भवतीत्याह-अलाभे भवति, अप्राप्तावाहारस्येत्यर्थः, यदेको लभते तद्वावपि, द्वौ वा दृष्ट्वा न किञ्चिद्ददाति, एकैक एच लभते इत्यवमादेरेकाकिता। अत्र दृष्टान्तमाह-'गोणिदिळतो' गोदृष्टान्तः, यथा संहतानां गवां स्वल्पे तृणोदके न तृप्तिः, पृथग्भूतानां स्यात्, तथेहा-2 पीति ॥ ओमोयरियाएवि एसेव कमो, बारसहिं संवच्छरेहिं आरचं जाहे पारं न पावंति ताहे गणभेयं करेइ, नाणत्-गिलाणो न तहा परिहरिजइ। एत्थ गोणिदिईतो काययो, अल्पं गोब्राह्मणं नन्दति, एवं ओमेणवि एगागिओ दिहो। दार ॥ साम्प्रतं राजभयद्वारप्रतिपादनायाह
रायभयं च चउडा चरिमदुगे होइ गणभेओ ॥ २३ ॥ (भा०) राज्ञो भयं राजभयं, चशब्द एवमेवेत्यस्यानुकर्षणार्थः "संवच्छर बारस” इत्यादि, कियन्तः पुनस्तस्य भेदा इत्याह|चतुर्धा, सङ्ख्यायाः प्रकारवचने धा, चतुष्पकारमित्यर्थः, के पुनस्ते इति ?, मा त्वरिष्ठा अनन्तरमेबोच्यन्ते, किं चतुर्वपि
अवमौदर्यताथामपि एच एव क्रमः, द्वादशम्पो वर्षय भारभ्य यदा पारं न प्रामुवन्ति तदा गणभेदं करोति, भानावं-लानो न तथा परिहिवते, अब गोटष्टान्तः कर्तव्यः । गोब्राह्मणी अरूपी नन्दतः, एवमधमेनाप्येकाकी दृष्टः ।
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३४] → “नियुक्ति: [७...] + भाष्यं [२३] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२३||
॥१८॥
श्रीओघ- भेदेषु ?, नेत्याह-चरिमदुए' इत्यादि, 'चरिमें पश्चिमे द्वये 'भवति' जायते 'गणभेदा' गच्छपृथग्भावः, एकैक इत्यर्थः। श्मतिलेख'रायदुहमवि तहेव वारससंवच्छरेहिं होहिंति' । भेदचतुष्टयस्वरूपदर्शनायाह
नाद्वारे द्रोणीयानिविसउत्तिय पढमो विइओ मा देह भत्तपाणं तु । तइओ उवगरणहरोजीवचरित्तस्स वा भेओ॥२४॥(भा०) अशिवादिः वृत्ति.
। सुगमा, णपर-जीयत्ति जीवितभेदकारी चतुर्थो भेदश्चारित्रभेदकारी वा चतुर्थो राजा, उपकरणहारिजीवितचारित्रहा- मा०२५२४ शारिणोर्गणभेदः कार्य इति । 'तं चउबिहं निधिसओत्ति य पढमो बिइओ मा देह भत्तपाणं तु । तइओ उवगरणहरो |
जीवचरित्तस्स या भेओ ॥ आह-कथं पुनः साधूनां त्यक्तापराधानां राजभयं भवति !, “यस्य हस्तौ च पादौ च, जिह्वाग्रं| चि सुयन्त्रितम् । इन्द्रियाणि च गुप्तानि, तस्य राजा करोति किम् ॥१॥" सत्यमेतत् किं तर्हि - अहिमर अणिदरिसणबुग्गाहणया तहा अणायारे।अवहरणदिक्खणाए आणालोए व कुपिज्जा ॥२५॥(भा०)
अंतेउरप्पधेसो चायनिमित्तं च सो पउसेवा। व्याख्या-'अभिमराः' अभिमुखमाकार्य मारयन्ति नियन्ते वेत्यभिमराः, कुतश्चित्कोपाद्राजकुलं प्रविश्यापरं व्यापादयन्तीति, साधूनां किमायातमिति चेत्, उच्यते, अन्यथा प्रवेशमलभमानैः कैश्चित्साधुवेषेण प्रविश्य तत्कृतं, ततश्च निर्विवेकित्वात्स राजा साधुभ्यः कुप्येत्, कुप्येदिति चैतक्रियापदं प्रतिपदं योजनीयं, अभव्यत्वात् , अनिष्टान्-अप्रशस्तान | मन्यमानो दर्शनं नेच्छति, प्रस्थानादौ च दृष्टा इति कुप्येत् । 'व्युगाहणता' विशब्दः कुत्सायामुत्-प्राबल्येन केनचित्प्रत्य-16 नीकेन ब्युदाहितः, यथैते तवानिष्टं ध्यायन्तीति कुप्येत् । लोकं प्रत्यनाचारं समुद्देशादीन् दृष्ट्वा कुप्येत्, अपहरणं कृत्वा
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३७] → “नियुक्ति: [७...] + भाष्यं [२६] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
पर
गाथांक नि/भा/प्र ||२६||
तत्प्रतिबद्धो दीक्षित इति कुष्यते , आज्ञालोपे वा काचिदाज्ञा लोपिता-न कृता ततश्च कुष्येत् 1, अन्तःपुरे प्रवेशं कृत्वा | केनचिलिङ्गधारिणा विकर्म कृतं ततः प्रद्वेष यायात् , वादिना वा केनचिद्भिक्षुणा परिभूत इति, ततो निमित्तात् स इतिराजा प्रद्विष्यति प्रदुष्येद्वा । द्वारम् । तं पुण रायदुई कहं होज्जा ?, केणति लिंगत्थेणमंतेउरमवरद्धं होजा । अहवा जहा वा वादिणा वादे "तस्स पंडियमाणस्स बुद्धिलस्स दुरप्पणो । मुझे पाएण अकम्म वाई वाउरिवागओ ॥शा" एवं राय दुई|
भविजा, निषिसए भत्तपाणपडिसेहे उवगरणहरे अ एत्थ गच्छेण चेव वचंति, जत्थ जीवचरित्तभेओ तत्थ एगाणिओ है होजा । दारं ॥ क्षुभितद्वारं व्याचिख्यासुराह
खुभिए मालुज्जेणी पलायणं जो जओ तुरिअं॥ २६॥ (भा०) BI क्षोभे एकाकी भवति, क्षोभा-आकस्मिका संत्रासः, तत्र 'मालुजेणि' ति माला अरहस्य पतिता, उज्जयनी नगरी.IN
उज्जयिन्यां बहुशो मालवा आगत्यागत्य मानुषादीन हरन्ति, अन्यदा तत्र कूपेऽरघट्टमाला पतिता, तत्र केनचिदुक्तमाला पतिता, अन्येन सहसा प्रतिपन्नं मालवाः पतिताः, ततः संक्षोभः, तत्र किं भवति !, आह-पलायणं जो जो तुरिया 'पलायन' नाशनं यः कश्चिद्यत्र व्यवस्थितस्तच्छुतवान् स तत एव नष्ट इति । 'मालुजेणि' त्ति दृष्टान्तसूचकं वचनम्।
तत् पुना राजशिष्ट कथं भवेत् , केनचित् लिखनासापुरमपराद्धं भवेत् , अथवा पथा वा धादिना बादे-तसा पवितमभ्यस युद्धिमत्ताभिमाचिनो दुरात्मनः । मूर्धानं पादेनाक्रम्य वादी वायुरिवागतः ॥१॥ एवं राजद्विष्टो भय, निर्विषये भक्तपानप्रतिषेधे उपकरणहरे चान्न गप नैव मजम्ति, यत्र जीवचारित्रभेदस्तकाकी भचेन् । द्वार।
दीप अनुक्रम [३७]]
औ.
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एकाकित्व एवं तस्य कारणानि
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३७] → “नियुक्ति: [७...] + भाष्यं [२६] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
श्रीओघ- नियुक्तिः
एकाकित्वे कारणानि
द्रोणीया
भा.२६-२७
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२६||
वृत्तिः
खुभिए वा एगागी होजा, जहा उज्जेणीए अरहट्टमाला पडिआ, लोगो सवो पलाओ मालवा पडियत्ति, एरिसे खुभिए एगागी होजा, जो जओ सो तओणासति । दारं ।। अधुनायदुक्तं राजभयद्वारे, 'वायनिमित्तं च से पउस्सेजत्ति तद्व्याचिख्यासुराहतस्स पंडियमाणस्स, बुद्विलस्स बुरप्पणो । मुद्धं पाएण अक्कम्म, वाई चाउरिवागओ ॥ २७॥ (भा) | आह चोदकः-शोभनं स्थानं तद् व्याख्यायाः, ननु क्षुभितद्वारेणान्तरितत्वात्कोऽयं प्रकारः ? इति, अत्रोच्यते, नियुतिग्रन्थवशाददोषः । यतोऽत्रैकगाथया "अंतेउरे" इत्यादिकया राजभयक्षुभितद्वारे उक्ते ततस्तत्रानवसरत्वादिहैव युक्ता व्याख्या, 'तस्येति 'तस्य राज्ञो भयहेतोः, कथंभूतस्य ?-'पण्डितमानिनः' पण्डितमन्यस्य पण्डितमात्मानं मन्यते स एवं-10 मन्यो, ज्ञानलबदुर्विदग्धत्वात् , बुद्धिं लातीति बुद्धिलो बुद्धिलस्य 'दुरात्मनः' मिथ्यादृष्टित्वादभद्रत्वाच्छासनप्रत्यनीक-18 त्वात्स तथा तस्य, किमित्याह-'मूर्धानं' उत्तमाङ्ग पादेनाक्रम्य 'वादी' वादलब्धिसंपन्नः साधुर्वायुरिवागतः-अभीष्टं स्थान प्राप्त इत्यक्षरार्थः, समुदायार्थस्तु-स राजा पण्डितमन्यतया दर्शनं निन्दति, तद्वादी वा कश्चित् , तत्र च साधुर्वादी, तेन सभां प्रविश्य न्यायेन पराजितः, तथाऽपि न साधुकारं ददाति प्रभुत्वात्तथाऽपि निन्दति, पुनश्वासी साधुर्वादी विद्यादि-14 बलेन सभामध्ये तस्य शिरसि पादं कृत्वाऽदशनीभूतः, ततश्चासौ परं परिभवं मन्यमानः प्रकर्षेण द्वेषं यायात्, इति श्लोकार्थः ॥ उत्तमार्थद्वारप्रतिपादनायाह
पक्षोभे वैकाकी भवेत् , यथा रागिन्यां अरहावटोमाला पतिता, कोकः सर्वः पलायित:-मालवाः पतिता इति, ईदशे क्षोभे एकाकी भवेत, यो पत्र स ततो नश्यति ।
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३९] → “नियुक्ति: [७...] + भाष्यं [२८] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२८||
ARRA
निजवग्गरस सगासं असई एगाणिओ व गच्छिना।
सुत्तस्थपुच्छगो वा गच्छे अहवाऽवि पडिअरिङ ॥२८॥ (भा.) निर्यापयति-आराधयति निर्यामकः-आराधकस्तस्य 'सकाश' मूलम् असति-द्वितीयाभावे एकाक्यपि कालं कर्तुकामो। गच्छेत् , सूत्रार्थपृच्छको वा गच्छेत् । उत्तमार्थस्थितस्यैकाक्यपि मा भूब्यवच्छेदः 'अहवावि पडियरि' अथवाऽपि 'प्रति-| &चरितुं' प्रतिचरणाकरणार्थम् , 'उत्तमढे वा सो साहू उत्तमह पडिवज्जिउकामो, आयरियसगासे य नथि निजमओ, ताहे|
अन्नत्थ वच्चेजा, तो ससंघाडओ वच्चउ, असति ताहे एगो एगाणिओ बच्चेजा, अहवा उत्तिमहपडिवण्णओ साहू सुओ.18| तस्स सुत्तत्थतदुभयाणि अपुबाणि, इमस्स अ संकिआणि, अण्णस्स य नस्थि, ताहे तत्थ पडिपुच्छगनिमित्तं बच्चेजा।। अथवा उत्तिमपडिअरएहिं गम्मति । फिडिअद्वारं व्याचिख्यासुराह
फिडिओ व परिरएणं मंदगई वाचि जाव न मिलेजा। "फिडिए' त्ति एते पंथेण वच्चंति, तत्थ कोइ पंधाओ उत्तिण्णो, अण्णेण बच्चेजा, अहवा थेरो, तस्स य अंतरा गड्डा डोंगरा वा, जे समत्था ते उज्जुएण वचंति, जो असमत्थो सो परिरएण-भमाडेण वच्चइ, ततो जाव ताणं न मिलइ ताव
१ उत्तमा चा, स साधुरुतमार्थ प्रतिपत्तुकामः, भाचार्यसकाशे च नास्ति निर्यामकः, तदाउम्पन्न बजेत, तदा ससंघाटको नजतु, असति तदेक एकाकी कावेत. अभवोसमापसः साधुः श्रुतः, तस्य सूत्रार्थतनुभवान्यपूर्वाणि, अस्य च शङ्कितानि, पम्पस्य च न सन्ति, तदा सत्र प्रतिपृच्छानिमित्तं ब्रजेत,
मनिचारगम्यते । २ स्फिटित इति, एके पथि नजन्ति, तत्र कश्चित् पथ उत्तीर्णः, अन्येन बजेत, अयवा स्थविरः, तस्य च अन्तराले गती पता वा, ये समाते अजुकेन नजन्ति, योऽसमर्थः स परिरषेण-श्रमणेन प्रजाति, रातो यावतेषां न मीलति ताव
दीप अनुक्रम [३९]
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||२९||
दीप
अनुक्रम
[४०]
श्री ओोषनिर्युक्तिः द्रोणीया वृत्तिः
॥ २० ॥
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २/१ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [४०] ● →
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
८०
"निर्युक्तिः [७] + भाष्यं [ २९ ] + प्रक्षेपं [ ३... ] " आगमसूत्र - [४१/१], मूल सूत्र -[२/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
एगागी होजा ॥ इदानीं गाथार्थ:-'फिडितः' प्रभ्रष्टः, गच्छतामेव सर्वेषां पथिद्वयप्रदर्शनात्संजातमोहोऽन्येनैव पथा प्रयात. स्तत एकाकी भवति । 'परिरएणं वा' परिरयो- गिर्यादेः परिहरणं तेन वा एकाकी कश्चिदसहिष्णुर्मन्दगतिर्वा कश्चित्साधुः यावन्न मिलति तावदेकाकी भवति । उक्तं फिडितद्वारम्, इदानीं ग्लानद्वारमुच्यते
सोऊणं व गिलाणं ओसहकले असई एगो ॥ २९ ॥ ( भा० )
गिलाणनिमित्तेण एगागी हुज्जा, तस्स ओसहं था आणियवं । असइ संघाडयस्स ताहे एगागी वचिज्जा, अहवा गिलाणो सुओ ताहे सवेहिं गंतवं । अहप्पणो आयरिआ थेरा ताहे तेसिं पासे अच्छियवं, ताहे संघाडयस्स असइ एगागी वश्चिज्जा । इदानीमक्षरगमनिका श्रुत्वाऽन्यत्र ग्लानं सङ्घाटकाभावे एकाकी व्रजति, यदिवा स्वगच्छ एव ग्लानः कश्चित्, तदर्थमौषधादीनामानयनार्थं व्रजत्येकाकी द्वितीयाभावे सति ॥ उक्तं ग्लानद्वारम् इदानीमतिशयिद्वारम् -
अइसेसिओ सेहं असई एगाणिअं पठावेजा ।
कोई अतिसयसंपण्णो सो जाणइ, जहा एयस्स सेहस्स सयणिज्जा आगया, ताहे सो भणति एवं सेहं अवणेह, जइ न
१ देकाकी भवेत् । २ महाननिमित्तेन एकाकी भवेद, तस्थौषधं या आत असति संघाटकस्य सदैकाकी प्रजेद, अथवा खानः तदा सधैतवं अथात्मन आचार्याः स्थविरासदा तेषां पार्थे स्थातव्यं तदा संघाटकस्यासति एकाकी प्रजेत् । ३ कक्षित् अतिशयसंपन जानाति सः यथैतस्य शक्षक वजना आगताः, तदा स भगति एनं शैक्षमपनयत, न यद्यपनयत + एगामिभोऽवि गच्छे प्र० पयडेजा ( वृ० ) ।
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एकाकित्वे कारणानि
भा. २८
२९-३०
॥ २० ॥
Agry
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
||३०||
दीप
अनुक्रम [४१]
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र-२ / १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [४१] ●
→
"निर्युक्तिः [...] आयं [३०] + प्रक्षेपं [३]...]
८०
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४१/१], मूल सूत्र -[२/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
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अवणेह ताहे एस ण करेति पवज्जं ततो सो असइ संघाडयस्स एगाणिओवि पडविज्जइ ॥ इदानीमक्षरार्थः- अतिशयी वा कश्चिदभिनवप्रव्रजितं द्वितीयेऽसत्येकाकिनमपि प्रवर्त्तयेत् । उक्तमतिशयिद्वारम् इदानीं देवताद्वारम्देवr कलिंगरुवणा पारणए खीररुहिरं च ॥ ३० ॥ ( भा० )
7
ईह कलिंगेसु जणवएसु कंचणपुरं नगरं, तत्थायरिआ बहुस्सुआ पहाणागमा बहुसिस्सपरिवारा, ते अण्णया सिस्साण सुत्थे दाऊण सन्नाभूमिं वच्चेति, तस्स य गच्छंतस्स पंथे महति महालतो रुक्खो, तस्स हेढा देवया महिलारूवं विउबित्ता कलुणकलुणाई रोवति, सा तेण दिट्ठा, एवं बितिअदिवसेवि, तओ आयरियस्स संका जाया-अहो ? कीस इमा एवं रोवइ ? त्ति, ताहे ओबत्तिऊण पुच्छिआ किं पुण धम्मसीले रुयसि १, सा भणइ-भगवं ! किं मम थेवं रोइयवं १, आयरिओ भाइ-किं कहं वा ?, सा भणइ अहमेयस्स कंचणपुरस्स देवया, एवं च अइरा सर्व महाजलप्पवाहेण पलाविज्जिहिति तेण रुआमि त्ति, एते य साहुणो एत्थ सज्झायंति, ते अ अन्नत्थ गमिस्संतित्ति अओ रुआमि, आयरिएण भणिअं कहं पुण एवं जाणि
१ तदैव न करोति प्रवज्यां ततः सोऽसति संघाटका एकाक्वपि प्रस्थाप्यते । २ इह कलिङ्गेषु जनपदेषु काञ्चनपुरं नगरं तत्राचार्या बहुश्रुताः प्रधानागमा बहुशिष्यपरिवाराः, तेऽभ्यदा शिष्येभ्यः सूत्रार्थी दत्वा सब्ज्ञाभूमिं ब्रजन्ति, तस्य च गच्छतः पथि महाविमहान् वृक्षः, तस्याचो देवता महिलारूपं विकु करुणकरुणानि रोदिति सा तेन दृष्टा एवं द्वितीयदिवसेऽपि तत आचार्यस्य शङ्कर जाता भहो ? कुत इयमेवं रोदिति ? इति सदा अपवर्त्य पृष्टाकिं पुनर्धम्र्मशीले! रोदिषि ?, सा भणति भगवन् ! किं मम स्तोकं रोदितव्यम् ?, भाषायाँ भणति किं कथं वा ? सा भणति अहमेतस्य काञ्चनपुरस्य देवता, एतचाचिरात् सर्वं महाजलमयेन प्रलाविध्यते तेन रोदिमि इति एते च साधवोऽद्र स्वाध्यायन्ति ते पाम्यन्त्र गमिष्यन्तीति अतो रोदिमि आचार्येण भणितं कथं पुनरेतत् शायते ?,
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४१] .→ “नियुक्ति: [७...] + भाष्यं [३०] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३०||
श्रीओष- नियुक्तिः द्रोणीया बृत्तिः
॥२१॥
जा, सां भणति जओ तुझं खमओ पारणए दुद्धं लभिस्सइ, तं से रुहिरं भविस्सइत्ति, जइ एवं होजा तो पत्तिएजह |
एकाकित्वे तच घेत्तृण सबसाहणं पाएसु धेवं थेवं देजाह, जत्थ देसे तं सहावं जाहिति तस्थ ण जलप्पवाहो पभवेस्सइत्ति मुणि-IAL
कारणानि जह ति, ततो एवंति आयरिएण पडिवन्नं, ताहे बितिअदिवसे तहेब लद्धं तहा संजायं, ततो आयरिएहिं सबेसि मत्तए
भा.३०-३१ पत्ते पत्तेअंत दिन्नं, तो जहासत्तीए पलायति, जत्थ तं पंडुरं जायं तत्थ मिलिआ। एवं एगागी होज्जा । उक्तं देवताद्वारम् ,अथाचार्यद्वारंचरिमाए संदिट्टो ओगाहेऊण मत्सए गंठी । इहरा कयउस्सग्गो परिच्छ आमंतिआ सगणं ॥३१॥ (भा०)
चरमा-चतुर्थपौरुषी तस्यां 'संदिष्टः' उक्तः यदुत-त्वयाऽमुकत्र गन्तव्यं, स चाभिग्रहिकः साधुः, ततश्चासावेवमाचार्यणोक्तः किं करोति-सकलमुपकरणं पत्रकपडलादि वोद्वाहयति, मात्रकं च तेन गच्छता ग्राह्य, अतस्तस्मिन् ग्रन्धि ददाति, मा भूयः, प्रत्युपेक्षणीयं स्यात् , एवमसावाभिग्रहिका संयन्त्र्य तिष्ठतीति । 'इहर' त्ति आभिमहिकाभावे विकालबेलायां गमनप्रयोजनमापतितं ततः ‘कृतोत्सर्गः कृतावश्यकः किं करोतीत्याह-परीक्षार्थमिति-पश्यामः कोऽत्र मद्वचनानन्तरं प्रवर्तते को बा न प्रवर्तते इति स्वगणमामन्त्रयति, ते च प्रतिक्रमणानन्तरं तत्रैवान्तमुहूर्तमात्रकालमासते, कदाचिदा-131
सा मणति-यतो युष्मा शुलकः पारणले दुग्धं कमाते, तत् तस्य रुधिरं भविष्यतीति, ययेवं भवेत् तदा प्रतीयाः, तब गृहीत्वा सर्वसाधूनां पानेषु तोकं सोकं दधाः, यत्र देशे तत् खभावं यास्थति तत्र न जलप्रवाहः प्रभविष्यतीति जानीया इति, तत एवमिति आचार्येण प्रतिपक, तदा द्वितीयदिवसे तधेय लब्धं तथा संजातं, तत भावाः सर्वेषां मात्रके प्रत्येकी २ तहत, ततो यथाशक्ति पलायन्ते, यत्र तत् पाण्डुरं जातं सत्र मीलिताः, एवमेकाकी भवेत् ।
दीप अनुक्रम [४१]
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
||39||
दीप
अनुक्रम [४२]
Education
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २/१ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [४२] ● →
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
"निर्युक्तिः [७] + भाष्यं [३१] + प्रक्षेपं [ ३... ] " ८० आगमसूत्र - [४१/१], मूल सूत्र -[२/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
| चार्याः खल्वपूर्वी सामाचारी प्ररूपयेयुः, अपूर्व चार्थपदं तत्रस्थांश्च तानामन्त्रयन्त्यसौ-भो भिक्षवः ! अमुकं मे गमनकार्यमुपस्थितं, तत्र-गच्छे को णु सबैseऽणुग्गहो कारणाणि दीचिंता ।
अओ एत्थ समत्यो अणुग्गहो उभयकिकम्मं ॥ ३२ ॥ ( भा० )
कतमः साधुस्तत्र च गमनक्षमः १, तत्राचार्यवाक् श्रवणानन्तरं सर्वेऽपि साधव एवं ब्रुवन्ति-अहं गच्छाम्यहं गच्छामीत्यनुग्रहोऽयमस्माकं । तत्राचार्यो वैयावृत्त्यकरयोगवाहिदुर्बलादीनि कारणानि ' दीपयित्वा' स्वयं प्रदश्येदं भणति-अमु कोऽत्र कार्ये 'समर्थ' क्षमः, ततश्च योऽसावाचार्येणोक्तः अयं क्षम इति स भणति अनुग्रहो मेऽयं, ततः को विधिः १, ततः स जिगमिषुः साधुराचार्यस्य चैत्यसाधुवन्दनां करोति, यदि पर्यायेण लघुस्ततः शेषाणामपि चैत्यसाधूनां वन्दनां करोति, अथवाऽसौ गन्ता साधू नाधिकस्ततस्ते साधवस्तस्य चैत्यसाधुवन्दनां विदधाति एतदुभयकृतिकर्म-वन्दनं । ततः स गन्ता साधुः किं करोति जिगमिषुः सन् :
'विहारविधिः' तस्य भाष्यकृत् वर्णनं
पोरिसिकरणं अह्वावि अकरणं दोचऽपुच्छणे दोसा । सरण सुय साहु सन्ती अंतो यहि अन्नभावेणं ॥ ८ ॥
सौ सूर्योद्गमे यास्यति ततः प्रादोषिकां सूत्रपौरुषीं करोति, अथवा रात्रिशेषे यास्यति प्रयोजनवशात् ततः सूत्रपौरुषीमकृत्वैव स्वपिति, एतत्पौरुषीकरणमकरणं चेति । पुनरपि च तेन गच्छताऽऽचार्यः प्रच्छनीयः प्रत्यूषसि - यास्याम्यह
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) मूलं [४] → “नियुक्ति: [८] + भाष्यं [३२] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
श्रीओघ-16
प्रत
नियुक्तिः द्रोणीया वृत्तिः
१०
गाथांक नि/भा/प्र ||३२||
॥२२॥
[मिति, अथ न पृच्छत्यतः 'दोच्चमुच्छणे दोस' ति द्वितीयवारामपृच्छति दोषाः-वक्ष्यमाणाः, के च ते! इत्याह-'सरण विहारविगाहद्धं, स्मरणमाचार्यस्यैव संजातं, एवंविधमन्यथा व्यवस्थित कार्यमन्यथा कथंचित्संदिष्टं, 'सुय' त्ति श्रुतमाचार्यैर्यथा|धि:भा.३२ ते तत्राचार्या न विद्यन्ते यन्निमित्तं चासौ प्रेष्यते, तद्वा कार्य तत्र नास्ति, 'साहुत्ति अथवा विकाले साधुः कश्चित्तस्मा- नि.८-९स्थानादागतस्तेन कथितं यथा स आचार्यस्तत्र नास्तीति, 'सण्णि त्ति अथवा सञी-श्रावक आयातस्तेनाख्यातं, 'अंतों त्ति अभ्यन्तरतः, कस्य ?, प्रतिश्रयस्य, केनचिदुल्लपितं, यथा-अस्माकमप्येवंविधाः साधव आसन् , ते च ततो गता मृता वा, 'बहिं त्ति बाह्यतः प्रतिश्रयस्य श्रुतमन्यस्मै कथ्यमानं केनचित् , 'अन्नभावेणं ति योऽसौ गन्ता सोऽन्यभावः उन्नि-14 कमितुकामः, एतच्चाचार्याय तत्सबाट केनाख्यातं, ततश्चासौध्रियते केनचियाजेन ॥ यदि पुनरसी गन्ता न प्रबोध यायात्ततः-15 बोहण अप्पडिबुद्धे गुरुवंदण घट्टणा अपडिबुद्धे । निचलणिसण्णझाई दढ चिट्टे चलं पुच्छे ॥९॥
अचेतयति सति तस्मिन् गन्तरि बोधनं गीतार्थः करोति ॥ ततः साधुरुत्थायाचार्याभ्यासमेति, गत्वा च यद्याचार्यों विबु-10 |द्धस्ततोऽसौ गुरवे वन्दनं करोति, अथाद्यापि स्वपिति ततः संघटना चाचार्यपादयोः शिरसा घट्टना-चलनं क्रियते, अथासी प्रतिबुद्ध एव किन्तु निश्चलो निषण्णः-उपविष्टो ध्यायतीति, ततस्तमेवंभूतं निश्चलं निषण्णभ्यायिनं दृष्ट्वा किं कर्तव्यमित्याह'चिडे' स्थातव्यं, तेन गुरुध्यानव्याघातेन महाहानिसंभवात, 'चलं पुच्छेत्ति अथ चलोऽसी ततः प्रष्टव्यः-भगवन् ! स
॥२२॥ |एषोऽहं गच्छामीति । ततश्चासावाचार्येण संदिष्टः-इदमेवं त्वया कर्त्तव्यमिति ब्रजति, स चेदानीं गन्तुं प्रवृत्त इत्येतदेवाह| अप्पाहि अणुन्नाओ स सहाओ नीइ जा पहायति । उवओगं आसपणे करेइ गामस्स सो उभए ॥१०॥
दीप अनुक्रम [४४]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४६] .. "नियुक्ति: [१०] + भाष्यं [३२...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१०||
सन्दिष्टः प्राग पश्चादनुज्ञातो वेति ततो गच्छति, कथम् !-ससहायः, कियन्तं कालं यावत्ससहायो व्रजति - यावत्प्रभात' जातसूर्योदय इत्यर्थः, ससहायश्च प्रभातं यावद्बजति श्वापदादिभयात् , एवमसौ साधुव्रजन ग्रामसमीपं प्राप्तः सन् किं करोतीत्याह-उपयोगं करोति, किंविषयम् -उभयविषयं, मूत्रपुरीषपरित्याग इत्यर्थः, कस्मादेवं चेत् ग्रामसन्निधान एव | * स्थण्डिलसद्भावाद् गवादिसंस्थानात् ॥ अथ रात्री गच्छतः कैश्चिदपायः संभाव्येत ततः प्रभातं यावत्स्थातव्यं, तथा चाह
हिमतेणसावयभया दारा पिहिया पहं अयाणतो।
अच्छइ जाव पभायं वासियभत्तं च से वसभा ॥११॥ हिम-शीतं स्तेनाः-चौराः श्वापदानि-सिंहादीनि, एतद्भयात्प्रभातं यावदास्ते, यदि पुरस्थ द्वाराणि पिहितानि ग्रामस्य फलहकं पधानं वाऽजानं स्तिष्ठति यावत्प्रभातमिति । एवं च प्रभातं यावस्थिते गन्तरि 'वासिकभकं' दोषानं 'से' तस्य 'वसभा' गीतार्था आनयन्ति । अथ केभ्यस्तदानीयते -
ठवणकुल संखडीए अणहिंडते सिणेह पयवज्ज । भत्तहिअस्स गमणं अपरिणए गाउयं वहह ॥१२॥ स्थापनाकुलेभ्यः तथा 'संखडीए' ति सामयिकी भाषा भोजनप्रकरणार्थे तस्य वा, के पुनस्तदानयन्त्यत आह-'अणहिंडते' ये भिक्षा न पर्यटितवन्तः, कस्मात्पुनस्ते भक्तमानयन्ति !, उच्यते, तेषामहिण्डकानां गृहस्था गौरवेण प्रयच्छन्ति, कीदृशं पुनस्तैर्भकमानयनीयम् -'सिणेहपयवर्जति स्नेहेन-घृतादिना पयसा-क्षीरेण(वर्जित)भक्तं गृहन्ति, न तैलं ग्राह्यम
दीप अनुक्रम [४६]
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४८]
“नियुक्ति: [१२] + भाष्यं [३२...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१२||
श्रीओघ- मङ्गलत्वात् , न घृतं परितापहेतुत्वात् , न दुग्धं भेदकत्वात् काञ्जिकविरोधित्वाच्च, काञ्जिकपायपायित्वाच्च संयतानां, किं विहारविनियुक्तिः पुनस्ते गृह्णन्ति !-दधिसत्तुकादि, तदसौ भुक्त्वा ब्रजति, तथा चाह-भत्तडिअस्स गमण भुक्तवतस्ततो गमनं भवति, धिःनि. द्रोणीया| अथ न तस्य भक्तपरिणतिर्जातेत्यतोऽपरिणते भक्ते सति गव्यूतिमात्र यावन्मार्ग वहति । कोशद्वयं गब्यूतिः॥3I
४११-१२वृत्तिःला इदानीं तस्य गच्छतो विधिरुच्यते॥२३॥
| अत्थंडिलसंकमणे चलवक्खित्तणुवउत्तमागरिए । पडिपक्खेसु उ भयणा इयरेण विलंबणा लोगं ॥१३॥ | स्थण्डिलादस्थण्डिलं च संक्रामता साधुना पादौ रजोहरणेन प्रमार्जनीयाविति विधिः, मा भूत सचित्तवृधिव्या अचित्त-121 पृथिव्या व्यापत्तिः, स्यात्तथा च पादयोरसौ रजोहरणेन प्रमार्जनं करोति, अथ कश्चित्सागारिकः पथि व्रजतश्चलो भवति व्याक्षिप्तोऽनुपयुक्तश्चेति, तत्र चलो-गन्तुं पथि प्रवृत्तः, व्याक्षिप्तो-हलकुलिशवृक्षच्छेदादिव्यग्रः, अनुपयुक्तः-साधु प्रत्यदत्तावधानः, यदैवंविधः सागारिको भवति तदा रजोहरणेन प्रमृज्य पादौ याति । 'पडिपक्खेसु उ' इति विसदृशाः पक्षाः प्रतिपक्षाः, असदृशा इत्यर्थः, तेषु प्रतिपक्षेषु 'भजना' विकल्पना कर्सन्या, एतदुक्तं भवति-केषुचित्प्रतिपक्षेषु प्रमार्जन क्रियते केषुचित्तु नैव, तुशब्दो विशेषणार्थः, किं विशेषयक्तिी, प्रतिपक्षेष्वेव समुदायरूपेषु भजना कर्तव्या, न वेकैकस्मिन् भङ्ग इति, यदा तु सागारिकः स्थिरोऽव्याक्षिप्त उपयुक्तश्च साधु प्रति भवति तदा 'इतरेणं'ति इतरशब्देन रजोहरणनिषद्योच्यते तया पादौ प्रमाष्टि, न रजोहरणेन, "विलंबण' ति तां च निषद्या हस्तेन विलम्बमानां नयति, न तच्छरीरसं-15 स्पर्शनं करोति, कियती भुवं यावदित्याह-'आलोयणत्ति आलोकनमालोको यावत्तदृष्टिप्रसर इत्यर्थः, अथवा 'इतरेणं ति है
दीप अनुक्रम [४८]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४९] → “नियुक्ति: [१३] + भाष्यं [३२...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१३||
* केनचिदौपग्रहिकेन कार्यासिकेन और्णिकेन वा चीरेण, शेष प्राग्वत् , पश्चात्तं गोपयति । अथवा 'इतरेण विलंबणालोय'ति
प्राक् तावदेकाकिनो विधिरक्तः, यदा तु इतरेण-इतरशब्देन सार्थो गृह्यते, तेनेतरेण-सार्थेन सह प्रबजता स्थाण्डिल्याचास्था-12 xण्डिल्य संकामता किंकर्तव्य सार्थपुरतः? इत्याह-विलम्बने ति विलम्बना कार्या, मन्दगतिना सता स्थण्डिलस्थेन तावत्प्रतिपाल-18
नीय, कियन्तं कालं प्रतिपालनीय यावदालोकन-दर्शनं तस्य सार्थस्य, अदर्शनीभूते तुप्साटान्तरिते सार्थे पादयोः प्रमार्जनं कृत्वा बजतीत्ययं विधिः । उक्तो गाथाऽक्षरार्थः, इदानीमष्टभङ्गिका प्ररूप्यते, सा चेयम्-चलो बक्खित्तो अणुवउत्तो य सागारिओ, एत्थ पमजणं, तस्यानुपयुक्तत्वादप्रमार्जनेऽसामाचारीप्रसङ्गात् १, चलवक्खित्तु उवउत्तु एत्थ नस्थि पमजणं सागारियत्तणओ| २, च० अव० अणु एत्थवि पमजणं ३, चल० अव० उव० एत्थवि णत्थि पमजणं ४, अच० व० अणु० एत्थ पमजणं ५, अच०व० उ० णत्थि पमजणं ६, अच० अव० अणु० अस्थि पमजणं ७, अच० अव० उ० एत्थ नत्थि पमजणं ८। तस्थ पढमभंगे नियमेण पमजणा, सत्तसु भयणा ॥ एतदुक्तं भवति-केषुचित्प्रमाजनं केषुचिदप्रमार्जना, स्थापना त्वियम्
स इदानीं साधुार्गमजानानः पृच्छति, तत्र को विधिरित्याहचलो ज्याक्षिप्तोऽनुपयुक्तम सागारिकः, अत्र प्रमार्जनं । चलो ब्याक्षिप्त उपयुक्ता, अत्र मास्ति प्रभार्जन, सागारिकत्वात् २, पलोवाक्षिप्तोऽनुपयुक्तः अत्रापि प्रमार्जनं ३, चलोडम्याक्षिप्त उपयुक्तः, अत्रापि नाति प्रमार्जन , अचलो प्याक्षिप्तोऽनुपयुक्तः, अत्र प्रमार्जनं १, भचलो ब्याक्षिप्त उपयुक्तः, नास्ति, |ममार्जनं १, अचलोभ्याक्षिप्तोऽनुपयुक्तः, भस्ति प्रमार्जनं ७, अचलोऽम्पाक्षिप्त उपयुक्तः, अन्न नास्ति प्रमानं बातन्त्र प्रथमभको नियमेन प्रमार्जन सप्तसु भजना।
दीप अनुक्रम [४९]]
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“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५०] . "नियुक्ति: [१४] + भाष्यं [३२...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र
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दीप अनुक्रम [५०]
श्रीओघ-दापुच्छाए तिपिण तिआ छक्के पढ़म जयणा तिपंचविहा । आउम्मि दुविहतिविहा तिविहा सेसेसु काएसु॥१४॥ विहारविनियुक्तिः पृच्छायां सत्यां 'तिष्णि तियति त्रयस्त्रिका भवन्ति, तत्र पुरुषः खी नपुंसकं च, तत्रैतेपामेकैकस्त्रिप्रकार: बालस्त- धिः नि. द्रोणीया रुणो वृद्धश्चेति, एवमेते त्रयस्त्रिकाः, नवेत्यर्थः, तथा तेनैव साधुना गच्छता 'छके पढमजयणा' इति पते पृथिव्यादि-181१४-१५ वृत्ति
लक्षणे यतना कर्त्तव्या, तत्र 'पढमजयणा तिपंचविहात्ति प्रथमो यः पृथ्वीकायः तस्य यतना त्रिपंचविधा, तत्र ॥२४॥
त्रिविधा सचित्तस्य अचित्तस्य मिश्रस्य च पंचविधा पृथिवीकाययतना कृष्णनीलरक्तपीतशुक्लस्येति, अथवा त्रिपञ्च18 विधेति-वयः पथका पञ्चकदशप्रकारेत्यर्थः, तथाहि-सच्चित्तः पृथिवीकायः शुक्लादिः पञ्चधा, एवमचित्तो मिश्रश्च,
तधाऽष्काये 'दुविहा [ जहा जयणा ] तिविहा य' तत्र द्विधा अन्तरिक्षाकाययतना भौमाप्काययतना च, त्रिविधा |
तु सञ्चित्ताकाययतना, अञ्चित्ता मिश्रा०, त्रिविधा तु शेषेषु कायेषु-तेजोवायुवनस्पतित्रसाख्येषु यतना, कथं ?, सच्चिसत्तादि, महाद्वारगाथायाः समुदायार्थः । अधाद्यद्वारावयवार्थं पुनस्तदेवाह
पुरिसो इत्थिनपुंसग एकेको थेर मज्झिमो तरुणो । साहम्मि अन्नधम्मिअगिहत्थदुगअप्पणो तइओ ॥१५॥
XI||२४॥ .यदुक्तं अनन्तरगाथायां 'पुच्छाए'त्ति पृच्छायां त्रितयं संभवति, तदा पुरुषः खी नपुंसक वेति, यदुक्तं वयखिकाः तद्द-11 दशयन्नाह-एकैका स्थविरो मध्यमस्तरुण इत्ययं नवभेदः । स चैकैको नवविधोऽपि कदाचित्साधर्मिकः स्यात्कदाचित्तु नव
[विधोऽप्यन्यधार्मिकः स्यादित्याह-समाने धर्मे वर्तत इति साधर्मिकः-श्रावकः श्राविका नपुंसक श्रावकं च, अन्यधार्मिको
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अथ मार्गपृच्छा-विधि: वर्ण्यते
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१] . "नियुक्ति: [१५] + भाष्यं [३२...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१५||
मिथ्यादृष्टिः । कियन्तः पुनस्तेन गच्छता पन्धानं प्रष्टव्याः इत्यत आह-गिहत्थदुग'त्ति, साधर्मिकगृहस्थवर्य पृष्ठमी, अन्यधार्मिकगृहस्थद्वयं वा । 'अप्पणा तिन ति आत्मना तृतीयो युक्त्याऽन्वेषणं विदधाति, एष तावत्सामान्योपन्यासः, अथ प्रथमं यः प्रष्टव्यः स उच्यते-तत्र यदि साधर्मिकद्वयमस्ति ततस्तदेवोत्सर्गेण पृच्छचते, तस्य प्रत्ययिकत्वात्, अथ नास्ति ततः
साहम्मिअपुरिसासह मज्झिमपुरिसं अणुण्णविअ पुच्छे ।
सेसेसु होति दोसा सविसेसा संजईवग्गे ॥ १६ ॥ साधर्मिकपुरुषव्याभावेऽन्यधार्मिकमध्यमपुरुषद्वयं पृच्छनीयं, कथम् ?-'अणुण्णविअ' अनुज्ञां कृत्वा धर्मलाभपुरस्सर, ततः प्रियपूर्वकं पृच्छति, अन्यधार्मिकमध्यमग्रहणं विह साधर्मिकविपक्षत्वादवसीयत एव, 'सेसेसुत्ति अन्यधार्मिकमध्यमपुरुषद्वयव्यतिरिक्तेषु अष्टसु भेदेषु दोषा भवन्ति पृच्छतस्त एव दोषाः सविशेषाः-समधिकाः संयतीवर्गे-संयतीवर्ग-18 विषये पृच्छतः सतः । के च ते दोषा इत्याह
घेरो पहन पाणह वालों पर्वचे न याणई वावि। पंडिस्थिमजासंका इयरें न याणति संकाय ॥१७॥ स्थविरा-वृद्धः स मार्ग न जानाति, भ्रष्टस्मृतित्वात्, बालस्तु प्रपञ्चयति केलीकिलत्वात् न वा जानाति, क्षुल्लकत्वाद्, बालस्त्वत्र अष्टवर्षादारभ्य यावत्पञ्चविंशतिक इति, असावपि बाल इव बालः, अपरिणतत्वेन रागान्धत्वात्, मध्यमवयःपण्डकमध्यवयःस्त्रीपृच्छायां शङ्कोपजायते नूनमस्य ताभ्यां कश्चिदर्थोऽस्ति, 'इयरे न याति' इतरशब्देन स्वपिन
दीप अनुक्रम
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“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१३] . "नियुक्ति: [१७] + भाष्यं [३२...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
श्रीओष- नियुक्तिः
मार्गपृच्छा शनि.१६-२०
द्रोणीया
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१७||
वृत्तिः
दीप अनुक्रम [५३]
सक बालनपुंसक स्थविरस्त्री बाला स्त्री वाऽभिगृह्यते, एते मार्गानभिज्ञाः शङ्का च स्यात्, क तर्हि व्यवस्थितेन पृच्छनीयमित्याह
पासहिओ य पुच्छेज वंदमाणं अवंदमाणं वा । अणुवइऊण व पुच्छे तुहिक मा य पुच्छिज्जा ॥१८॥ 'पार्थस्थितः' समीपे व्यवस्थितः पृच्छेत् , किंविशिष्टं तं पृच्छेत् ?-वन्दनं कुर्वाणमकुर्वाणं वा, अथासौ समीपमतिक्रम्य यात्येव ततः 'अणुवइऊण च' अनुप्रजनं कृत्वा कतिचित्पदानि गत्वा प्रष्टव्यः, अथासी पृच्छचमानोऽपि न किश्चिद्वक्ति तूष्णीं ब्रजति, ततो नैव पृच्छनीय इति ।।
पंथन्भासे य ठिओ गोवाई मा य दूरि पुच्छिज्जा । संकाईया दोसा विराहणा होइ दुविहा उ ॥१९॥ | तथा पन्थान्यासे-समीपे स्थितः कश्चिद्गोपालादिः, आदिशब्दात्कर्षकपरिग्रहः, स च पृच्छनीयः, मा च दूरे ब्यवस्थितं गोपालादि पृच्छेत् , शंकादिदोषसद्भावात् , नूनमस्य द्रविणमस्ति बलीवादि(कंवा)शृङ्गिणं करोतीत्येवमादयः।दूरे च गच्छतो द्विविधा विराधना-आत्मसंयमविषया, आद्या कण्टकादिभिरितराऽनाक्रान्तपृथिव्याद्याक्रमणेन ॥ यदा तु पुनरन्यधार्मिको मध्यमवयाः पुरुषो नास्ति यः पन्थानं पृच्छचते तदा कः प्रष्टव्य इत्याह____ असई मज्झिम थेरो दुवस्सुई भद्दओ य जो तरुणो। एमेव इत्थिवग्गे नपुंसवग्गे य संजोगा ।। २०॥
असति मध्यमपुरुषे स्थविरः पन्धानं पृच्छनीयः, किंविशिष्टः ?-दृढस्मृतिः, अथ स्थविरो न भवति ततस्तरुणः प्रष्टव्यः, कीदृशः?-यः स्वभावेनैव भद्रकः । स्त्रीवर्गेऽप्येवमेव पृच्छा कर्त्तव्या, एतदुक्तं भवति-प्रथमं मध्यमवयाः खीमार्ग प्रष्टव्या
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॥ २५॥
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“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१६] . "नियुक्ति: [२१] + भाष्यं [३२...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२१||
तदभावे स्थविरा रदस्मृतिः, अथ स्थविरा न भवति ततस्तरुणी प्रष्टव्या, तदभावे भद्रिका तरुणी, एवं मध्यमवयो नपंसके, तस्याभावे स्थविरनपुंसक दृढस्मृति, तदभावे बालनपुंसकं भद्रकम् । आह च-'नपुसंकवर्गे च संयोगाः' नपुंसकवर्गे-नपुंसकसमुदाये एवमेव संयोगा ज्ञातव्याः । यथैतेऽनन्तरमुक्काः न केवलमेतावन्त एव संयोगाः किन्त्वन्येऽपि बहवः सन्ति, आह चएत्थं पुण संजोगा होति अणेगा विहाणसंगुणिआ। पुरिसित्थिनपुंसेसु मज्झिम तह थेर तरुणेसुं ॥२१॥
अत्र पुनः-पृच्छापक्रमे संयोगा भवन्त्यनेके, कथं ?-'विहाणसंगुणिय'त्ति विधानेन-भेदप्रकारेण संगुणिताः, चारणिकया | अनेकशी भिन्ना इत्यर्थः, क च ते भवन्ति ?-'पुरिसित्थिनपुंसेसुं' पुरुषस्त्रीनपुंसकेषु, किंविशिष्टेषु ?-मध्यमस्थविरतरुणभेदभिन्नेषु, उक्तो गाथाऽक्षरार्थः, । इदानीं भङ्गकाः प्रदर्यन्ते, तत्थ साहम्मिअचारणिआए ताव-दो मझिमवया साह(म्मिअपुरिसा पुच्छेज एस एको उ १, तदभावे दो धेरे साहम्मिए चेव पुच्छिज्जा २, तदभावे दो तरुणे साहम्मिए चेव एस तइओत्ति ३, । तदभावे दो साहम्मिणीओ मज्झिमिअमहिलातो ४, तत्तो दो थेरीओ साहम्मिणीओ चेव पंचमो|
एसो ५, तत्तो साहम्मिणीओ च्चिअ दो तरुणीओ छट्टो सो ६, तदभावे दो साहम्मिआ उ मज्झिमनपुंसया पुच्छे ७, तत्तो दिदो साहम्मिअधेरणपुंसाओ अहमओ८, दो साहम्मिअतरुणे नपुंसया चेव ते उ पुच्छेज्जा ९, अहवा मज्झिमपुरिसो थेरो
उ दुचेव साहम्मी १०, मज्झिमपुरिसो साहम्मिओ तरुणसाहम्मिओ उ पुच्छिजद ११, मज्झिमपुरिसो साहम्मिओ मज्झि-1 ममहिला साहम्मिा १२, मझिमपुरिसो साहम्मिओ थेरी य साहम्मिणी १३, मज्झिमपुरिसो साहम्मिओ तरुणी य साह-13
दीप अनुक्रम [१७]
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“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१७] . "नियुक्ति: [२१] + भाष्यं [३२...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२१||
श्रीओघ- म्मिणी १४, मझिमपुरिसो साहम्मिओ मज्झिमसाहम्मिअनपुंसो अ १५, मज्झिमपुरिसो साहम्मिओ थेरसाहम्मिनपुंसो मार्गपृच्छा नियुक्तिः १६, मझिमपुरिसो साहम्मिओ तरुणनपुंसयसाहम्मिओय १७,अहवा थेरपुरिसो साहम्मिओ तरुणसाहम्मिओ अ १८. नि. २० द्रोणीया हाथेरपुरिससाहम्मिओ मज्झिममहिला साहम्मिणी १९, थेरपुरिसो साहम्मिओ थेरी साहम्मिणी अ २०, थेरपुरिसो साहम्मिओ
तिरुणी साहम्मिणी य २१, धेरपुरिसो साहम्मिओ मज्झिमनपुंसओ साहम्मिओ य २२, थेरपुरिसो साहम्मिओ शेर॥२६॥
नपुंसो साहम्मिओ अ २३, थेरपुरिसो साहम्मिओ तरुणनपुंसओ य २४ तरुणपुरिसो साहम्मिओ मज्झिममहिला साह-ID
मिमणी अ २५, तरुणपुरिसो साहम्मिओ थेरसाहम्मिणी अ २६, तरुणपुरिसो साहम्मिओ तरुणी साहम्मिणी 18 ४२७, तरुणपुरिसो साहम्मिओ मज्झिमनपुंसयसाहम्मिओ अ २८, तरुणपुरिसो साहम्मियो थेरनपुंसयसाहम्मिओ है अ२९, तरुणपुरिससाहम्मिओ तरुणनपुंसयसाहम्मिओ अ ३०, मज्झिममहिला साहम्मिणी थेरीसाहम्मिणी अ ३१, मज्झिममहिला साहम्मिणी अ तरुणीसाहम्मिणी अ ३२, मज्झिममहिला साहम्भिणी मझिमनपुंसवसाहम्मिओ व ३३, मझिममहिला साहम्मिणी थेरनपुंसओ साहम्मिओ उ ३४, मज्झिममहिला साहम्मिणी तरुणनपुंसयसाहम्मिमो अ३५, धेरी साहम्मिणी तरुणी थेर साहम्मिणी २६, थेरी साहम्भिणी नपुंसयसाहम्मिओ अ ३७, घेरी साहम्मिणी मज्झिमनपुंसय-12
साहम्मिओ उ २८, थेरी साहम्मिणी तरुणनपुंसय साहम्मिओ उ ३९, तरुणिसाहम्मिणी मनिशमनपुंसवसाहम्मिो ४०.3 ॥२६॥ तिरुणी साहम्मिणी थेरनपुंसयसाहम्मिओ उ४१, तरुणी साहम्मिणी तरुणनपुंसयसाहम्मिओ व ४२ तरुणी साहमिमणी
मझिमो नपुंसयसाहम्मिमो प ४३, थेरनपुंसय साहम्मिओ तरुणनपुंसय साहम्मिओ अ ४४, एते ताव साहम्मिन-1
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दीप अनुक्रम [१७]
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“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१७] - "नियुक्ति: [२१] + भाष्यं [३२...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
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गाथांक नि/भा/प्र ||२१||
दीप अनुक्रम [१७]
चारणिआए लद्धा॥ इदानी अन्नधम्मचारणिआए एवं सिज्झइ-अण्णधम्मिआ दो मज्झिमपुरिसा पुषिजति एसेको १४
अन्नधम्मिआ दो थेरपुरिसा २, अण्णधम्मिआ दो तरुणपुरिसा ३, अण्णधम्मिआउ दो मज्झिममहिला ४, अण्णधम्मिआ है। थिरीउ दो ५, अण्णधम्मिअ तरुणी दो ६, अण्णधम्मिअ मज्झिमनपुंसया दो ७, अण्णधम्मिल थेरनपुंसया दो ८, अण्णधम्मिअ तरुणनपुंसया दो ९, अण्णधम्मिअमज्झिमपुरिसो अण्णधम्मिअथेरपुरिसो य १०, अण्णधम्मियमज्झिमपुरिसो ४ अण्णधम्मिअतरुणपुरिसो य ११, अण्णधम्मिअमज्झिमपुरिसो अ अण्णधम्मिअमज्झिममहिला अ १२, अण्णधम्मिअमज्झिमपुरिसो अ अण्णधम्मिअथेरी य १३, अण्णधम्मिअमज्झिमपुरिसो अण्णधम्मितरुणी अ१४, अण्णधम्मिअमज्झिमपुरिसो अण्णधम्मिअमज्झिमनपुंसओ अ १५, अण्णधम्मिअमज्झिमपुरिसो अण्णधम्मिअथेरनपुंसगो य १६, अण्णधम्मिअमग्झिमपु-18 रिसो अण्णधम्मिअतरुणनपुंसगो अ१७, अण्णधम्मिअधेर पुरिसो अण्णधम्मिअतरुणपुरिसो अ१८, अण्णधम्मिअथेरपुरिसो
अण्णधम्मिअमज्झिममहिला य १९, अण्णधम्मिअथेरपुरिसो अण्णधम्मिअथेरी अ २०, अण्णधम्मिअथेरपुरिसो अण्णधम्मि18 अतरुणी अ २१, अण्णधम्मिअथेरपुरिसो अण्णधम्मिअमझिमनपुंसओ अ २२, अण्णधम्मिअथेरपुरिसो अण्णधम्मियथेरन-1
पुंसगो व २३, अण्णधम्मिअथेरपुरिसो अण्णधम्मिअतरुणनपुंसगो य २४, अण्णधम्मिअतरुणपुरिसो अण्णधम्मिभमज्झिमम-16 हिला व २५, अण्णधम्मिअतरुणपुरिसो अण्णधम्मिअथेरी य २६, अण्णधम्मिअतरुणपुरिसो अण्णधम्मितरुणी अ २७ अण्णधम्मितरुणपुरिसो अण्णधम्मिअमज्झिमनपुंसगो अ२८, अण्णधम्मितरुणपुरिसो अन्नधम्मिअथेरनपुंसगोज २९, अ-131 ण्णधम्मियतरुणपुरिसो अण्णधम्मिअतरुण नपुंसगो अ ३०, अण्णधम्मिअमज्झिममहिला अण्णधम्मिअधेरी अ३१, अण्णध
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“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१७] - "नियुक्ति: [२१] + भाष्यं [३२...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२१||
श्रीओघ- नियुक्तिः वृत्तिः
॥२७॥
म्मिअमझिममहिला अण्णधम्मिअतरुणी अ३२, अण्णधम्मिअमज्झिममहिला मज्झिमनपुंसगो अ ३३, अण्णधम्मिअमझिम-3 मार्गपृच्छा महिला अण्णधम्मिअथेरनपुंसगो य ३४, अन्नधम्मिअमज्झिममहिला अन्नधम्मितरुणनपुंसगो अ ३५, अण्णधम्मिअथेरी अण्णधम्मिअतरुणी य ३६, अण्णधम्मिअथेरी अण्णधम्मिअधेरनपुंसगो य ३७, अन्नधम्मिअथेरी अन्नधम्मिअमज्झिमनपुंसगो य ३८, अण्णधम्मियथेरी अण्णधम्मियतरुणनपुंसगो अ ३९, अन्नधम्मिअतरुणी अन्नधम्मियमज्झिमनपुंसगो अ४०, अन्नधम्मिअतरुणी अन्नधम्मिअथेरनपुंसगो य ४१, अन्नधम्मिअतरुणी अन्नधम्मिअतरुणनपुंसगो य ४२ अन्नधम्मिअतरुणी अन्नधम्मिअमझिमनपुंसगो अ ४३, अन्नधम्मिअमझिमनपुंसओ अन्नधम्मिअथेरीनपुंसगो अ ४४ अण्णधम्मिअमझिमनपुंसगो अण्णधम्मिअतरुणनपुंसओ अ ४५, अण्णधम्मिअधेरनपुंसओ अन्नधम्मिअतरुणनपुंसगो अ४६, एते अन्नधम्मिअचारणियाए लद्धा । ते स य नऊई । इदाणिं साहम्मिल अन्नधम्मिअ उभयचारणिआ किज्जइ-साहम्मिअमज्झिमपुरिसो अन्नधम्मियमज्झिमपुरिसो य पुच्छिजइ १, साहम्मिअमज्झिमपुरिसो अण्णधम्मियथेरपुरिसो य २, साहम्मि-11 अमज्झिमपुरिसो अण्णधम्मिअतरुणो अ३, साहम्मिअमझिमपुरिसो अण्णधम्मिअ मन्झिममहिला अ४, साहम्मिअम-| झिमपुरिसो अण्णधम्मिअथेरी अ५, साहम्मिअमज्झिमपुरिसो अण्णधम्मिअतरुणी अ६, साहम्मिअमज्झिमपुरिसो अण्णधम्मिअमज्झिमनपुंसगो य ७, साहम्मिअमज्झिमपुरिसो अण्णधम्मिअथेरनपुंसगो अ८, साहम्मिअमज्झिमपुरिसो अण्ण-11 धम्मिअतरुणनपुंसगो य ९, एते नव साहम्मियमज्झिमपुरिसममुचमाणेहिं लद्धा ॥ साहम्मिअथेरपुरिसो अण्णधम्मिअम-| झिमपुरिसो अ१, साहम्मिअथेरपुरिसो अण्णधम्मिअथेरपुरिसो चेव २, साहम्मिअथेरपुरिसो अण्णधम्मिअतरुणो अ३,८
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“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१७] - "नियुक्ति: [२१] + भाष्यं [३२...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
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दीप अनुक्रम [५७]]
-09-2-95-4-964-96+964-%82-
साहम्मिअथेरपुरिसो अण्णधम्मिअमज्झिममहिला अ४, साहम्मिअ थेरपुरिसो अन्नधम्मिअमहिलथेरी अ५, साहम्मिअथे-18 रपुरिसो अण्णधम्मितरुणी अ६, साहम्मिअथेरपुरिसो अणधम्मिअमज्झिमनपुंसगो अ७, साहम्मिअथेरपुरिसो अण्णध[म्मियनपुंसगथेरो अ८, साहम्मिअथेरपुरिसो अण्णधम्मिअतरुणनपुंसगोअ९, एते नव साहम्मिअथेरपुरिसममुंचमाणेहिं लद्धा साहम्मितरुणपुरिसो अण्णधम्मिअमज्झिमपुरिसो य', साहम्मिअतरुणपुरिसो अण्णधम्मियथेरपुरिसो अ२, साहम्मियतरुणपुरिसो अण्णधम्मिअतरुणपुरिसो अ ३, साहम्मियतरुणपुरिसो अण्णधम्मिअमझिममहिला अ४, साहम्मिअतरुणपुरिसो अण्णधम्मिअरमहिला य ५, साहम्मितरुणपुरिसो अण्णधम्मियतरुणी अ६, साहम्मियतरुणपुरिसो अण्णधम्मि-17 अमज्झिमनसगो अ७, साहम्मिअतरुणपुरिसो अन्नधम्मिअतरुणनपुंसगो अ८, साहम्मिअतरुणपुरिसो अण्णधम्मिअथेरन-18|| पुंसगो अ९, एतेवि नव साहम्मिअतरुणममुंचमाणेहिं लद्धा ॥ साहम्मिअमज्झिममहिला अण्णधम्मिअमज्झिमपुरिसो अ१, साहम्मिअमज्झिममहिला अण्णधम्मिअथेरपुरिसो अ२, साहम्मियमग्झिममहिला अण्णधम्मिअतरुणपुरिसो अ३, साहम्मिअमज्झिममहिला अन्नधम्मिअमज्झिममहिला अ४, साहम्मिअमज्झिममहिला अण्णधम्मिअथेरमहिला अ५, साहम्मि-| अमज्झिममहेला अण्णधम्मिअतरुणमहिला अ६, साहम्मिअमज्झिममहिला अण्णधम्मिअमझिमनपुंसगो अ ७, साहम्मिअमज्झिममहिला अण्णधम्मिअधेरनपुंसगो अ८, साहम्मिअमज्झिममहिला अण्णधम्मितरुणनपुंसगो अ९, एते नव साहम्मिअमझिममहिलाए लद्धा ॥ साहम्मिआ थेरी अण्णधम्मिअमज्झिमपुरिसो अ १, साहम्मिअथेरी अण्णधम्मिअथेरपु-1 रिसो अ२, साहम्मिअधेरी अण्णधम्मिअतरुणपुरिसो य ३, साहम्मियधेरी अण्णधम्मिअमझिममहिला अ४, साहम्मि
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
॥२१॥
दीप
अनुक्रम
[५७]
श्री ओघनिर्युक्तिः द्रोणीया
वृत्तिः
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २/१ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [ ५७ ]
→
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
८०
“निर्युक्तिः [२१] + भाष्यं [३२] + प्रक्षेपं [३...]" आगमसूत्र [४१/१], मूल सूत्र -[२/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
॥ २८ ॥
अथेरी अण्णधम्मिअथेरी अ ५, साहम्मिअधेरी अण्णधम्मिअतरुणी अ ६, साहम्मिअधेरी अण्णधम्मिअमज्झिमनपुंसगो अ ७ साहम्मियथेरी अन्नधम्मिअथेरनपुंसगो अ ८, साहम्मिअथेरी 'अण्णधम्मिअतरुणनपुंसगों अ ९, एते साहम्मियथेरीए अमुंचमाणीए लद्धा || साहम्मिअतरुणी अण्णधम्मिअमज्झिमपुरिसो य १, साहम्मिअतरुणी अण्णधम्मिअधेरपुरिसो अ २, साहम्मिअतरुणी अण्णधम्मियतरुणपुरिसो य ३, साहम्मियतरुणी अण्णधम्मिअमज्झिमम - ४ हिला य ४, साहम्मिअतरुणी अण्णधम्मिअधेरी अ ५ साहम्मिअतरुणी अण्णधम्मिअतरुणी अ ६ साहम्मिअतरुणी | अन्नधम्मिअमज्झिमनपुंसगो अ ७, साहम्मिअतरुणी अन्नधम्मिअथेरनपुंसगो अ ८ साहम्मिअतरुणी अनधम्मिअतरुणनपुंसगो अ ९ एते नव साहम्मिअतरुणीए अमुंचमाणेण उद्धा | साहम्मिअमज्झिमनपुंसगो अन्नधम्मिअम - ज्झिमपुरिसो अ १, साहम्मिअमज्झिमनपुंसगो अन्नधम्मिअधेरपुरिसो अ २, साहम्मिअमज्झिमनपुंसगो अन्नधम्मि अतरुणपुरिसो अ ३, साहम्मिअमज्झिमनपुंसओ अन्नधम्मियमज्झिममहिला य ४, साहम्मि अमज्झिमनपुंसओ अन्नधम्मि अधेरी अ ५, साहम्मिअमज्झिमनपुंसओ अन्नधम्मियतरुणी अ ६, साहम्मियमज्झिमनपुंसओ अन्नधम्मियमज्झिमनपुंसओ अ ७, साहम्मिअमज्झिमनपुंसओ अन्नधम्मियथेरनपुंसओ अ ८, साहम्मिअमज्झिमनपुंसओ अन्नधम्मिअतरुणनपुंसओ अ ९, एते नव साहम्मिअमज्झिमन पुंसगेण अमुंचमाणेण लद्धा | साहम्मिअथेरनपुंसओ अण्णधम्मिअमज्झिमपुरिसो अ १, साहम्मिअथेरनपुंसगो अन्नधम्मिअथेरपुरिसो अ २, साहम्मि अथेरनपुंसगो अन्नधम्मिअतरुणपुरिसो अ ३, साहम्मिअथेरन पुंसगो अण्णधम्मिअमज्झिममहिला अ ४, साहम्मिअथेरनपुंसगो अन्नधम्मि अधेरी अ ५, साहम्मिअधेरनपुंसओ अण्णधम्मि
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मार्गेपृच्छा नि. २०
॥ २८ ॥
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
॥२९॥
दीप
अनुक्रम
[५७]
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २/१ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
→
मूलं [५७]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
८०
“निर्युक्तिः [२१] + भाष्यं [३२] + प्रक्षेपं [३...]" आगमसूत्र [४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
अतरुणी अ ६, साहम्मिअधेरनपुंसगो अण्णधम्मिअमज्झिमनपुंसगो अ ७, साहम्मिअथेरनपुंसगो अण्णधम्मिअधेरनपुंसगो अ ८, साहम्मिअथेरनपुंसगो अण्णधम्मिअतरुणनपुंसगो अ ९, एते नव साहम्मियधेरन पुंसगेण अमुंचमाणेण उद्धा ॥ | साहम्मिअतरुणनपुंसगो अण्णधम्मिअमज्झिमपुरिसो अ १, साहम्मिअतरुणनपुंसगो अण्णधम्मि अथेरपुरिसो अ २, साहम्मिअतरुणनपुंसगो अण्णधम्मिअतरुणपुरिसो अ ३, साहम्मिअतरुणनपुंसगो अण्णधम्मिअमज्झिममहिला अ ४, साहम्मिअतरुणनपुंसगो अण्णधम्मिअधेरी अ ५, साहम्मिअतरुणनपुंसगो अण्णधम्मिअतरुणी अ ६, साहम्मिअतरुणनपुंसगो अण्णधम्मिअमज्झिमन पुंसगो अ ७, साहम्मिअतरुणनपुंसगो अण्णधम्मिअथेरनपुंसगो अ ८, साहम्मिअतरुणनपुंसगो अण्णधम्मिअतरुणनपुंसगो अ ९, एते नव साहम्मिअतरुणनपुंसगेण अमुंचमाणेण लद्धा ॥ एते नव नवगा साहम्मिअअण्णधम्मि अचारणिआए होंति । एत्थ मिलिआ एक्कासीति । उक्तं पृच्छाद्वारम् । (अथ) "छके पढमजयणा" (यदुक्तं ) तां विवृण्वन्नाहतिविहो पुढविकाओ सचिन्तो मीसओ अ अचित्तो । एफेको पंचविहो अविन्सेणं तु गतई ॥ २२ ॥ त्रिविधः पृथिवीकायः - सच्चित्तो मिश्रोऽचित्तश्चेति, इदानीं स त्रिविधोऽप्येकैकः पञ्चप्रकारः, तत्र योऽसौ सचित्तः स कृष्णनीलरक्तपीतशुक्लभेदेन पञ्चधा, एवं मिश्राचित्तावपि तत्र कतरेण गन्तव्यमित्याह- 'अचित्तेणं तु गंतवं'ति, तत्र योऽसावचेतनस्तेन गन्तव्यमित्युत्सर्गविधिः, तत्र स एव पृथिवीकायः शुष्क आर्द्रश्च स्यात्, आह च-
सुकोल्ल उल्लगमणे विराहणा दुविह सिग्गखुप्पते । सुकोवि अ धूलीए ते दोसा भट्टिए गमणं ॥ २३ ॥ शुष्कः- चिक्खल आर्द्रश्चेति, तत्र द्वयोः शुष्काईयोः शुष्केन गन्तव्यं, किं कारणं १, यत आर्द्रगमने विराधना द्विधा
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मार्गे पृथ्वीकायः नि. २२-२३
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१९] . "नियुक्ति: [२३] + भाष्यं [३२...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
श्रीओघ
नियति
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२३||
द्रोणीया वृत्तिः
॥२९॥
दीप अनुक्रम [५९]
AAC945
भवति, आत्मसंयमयोः, तत्रात्मनो विराधना कण्टकादिवेधात् , इतरा तु त्रसादिपीडनात् । इदानीं विराधनाऽधिकदो-हकदमभेदाः पप्रदर्शनायाह-सिग्गखुपते 'सिग्गउत्ति श्रमो भवति, 'खुप्पंतेत्ति कर्दम एव निमज्जति, सति तत्र शुष्केन पथा गमन- भा. ३३ मभ्यनुज्ञातमासीत् , तेनापि न गन्तव्यं यद्यसी धूलीबहुलो भवति मार्गः, किं कारणं , यतो धूलीबहुलेनापि पथा गच्छतस्त: प्रत्यपायाएव दोषाः, के च ते, संयमविराधना आत्मविराधना च, तत्रात्मविराधना अक्ष्णोधूलिः प्रविशति, निमज्जन श्रान्तश्च दि नि.२४
भवति, उपकरणं मलिनीभवति, तत्र यापकरणक्षालन करोत्यसामाचारी, अथ न क्षालयति प्रवचनहीलना स्यात् , अत| ४ उच्यते 'भट्ठिए गमण ति, भ्राट्या गन्तव्य-रजोरहितया तु गन्तव्यमिति । इदानीं भाष्यकार आर्द्रस्य पृथिवीकायस्य है भेदान् दर्शयन्नाहतिविहोउ होइ उल्लो महुसित्थोपिंडओयचिखल्लो लसपहलित्त बंडअखुप्पिजइ जत्थ चिक्खिल्लो ३(भा०)।
यस्तावदाईः स त्रिविधः-'मधुसित्थो पिंडओ य चिक्खलो' एतेषां यथासक्येन स्वरूपमाह-लत्तपहलित्तउंदग खुप्यिजति जत्थ चिक्खालो' 'लत्त'त्ति अलत्तोऽलक्तकः पथः येन प्रदेशेनालक्तः कामिन्याः पात्यते तावन्मान यो लिम्पति कर्दमः स मधुसित्थकोऽभिधीयते, उंडकाः-पिण्डकास्तद्पो यो भवति, पादयोर्यः पिण्डरूपतया लगति स पिण्डक इत्यर्थः, यत्र तु निमजनं स्यात्स चिक्खाल इति । शुष्कमार्गश्च भाष्यकृता न व्याख्यातः, प्रसिद्धत्वानेदरहितत्वाचेति । अथ स|४| ॥२९॥ मार्गः शुष्कचिक्खल्लरूपोऽपि सप्रत्यपायो निष्यत्यपायश्चेति, ते चामी प्रत्यपायाः
पचवाया वालाइसावया तेणकंटगा मेच्छा । अर्कतमणकाते सपञ्चवाएयरे चेव ॥ २४॥
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
||२५||
दीप
अनुक्रम [६१]
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
→
मूलं [६१]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
“निर्युक्तिः [२५] + भाष्यं [३३] + प्रक्षेपं [३...]" ८० आगमसूत्र [४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
इह हि प्रत्यपाया नाम दोषाः, के ते?, व्यालादिश्वापदाः स्तेनाः कण्टका म्लेच्छा इति । तत्थ पढमं सुकेणं भडीए गम्मइ, सो दुविहो-अकंतो अणकंतों, अकंतेण गम्मइ, जोऽवि अकंतो सोवि दुविहो- सपच्चवाओ निपच्चवाओ य, पच्चवाया य तेणादओ भणिआ, णिप्पच्चवाएणं गम्मइ । अहवा अणकंता भट्ठी सपच्चवाया य होज्जा ताहे धूळी पंथेणं अकंतेण गम्मइ, अहव न होज्जा धूलीपंथो सपच्चवाओ य होजा ताहे उल्लेणं गम्मइ, सो अ तिविहो-मधुसित्थो पिंडओ चिक्खल्लो य, तत्थेकेको दुहा - अकंतो अणकंतो य, अकंतेण गम्मइ, प्रासुकत्वात्, सो दुविहो सपञ्चबाओ अपञ्चवाओ य, निपञ्चवाएणं गम्मइ, तस्स असइ अणकर्ण आत्मादिरक्षाहेतुत्वात् । एवं सर्वत्र निष्पत्यपायेन गन्तव्यम् । स्थापना 'अकंतो अपञ्चवाओ' 'अकंतमणकंतो सपच्चवातरं चेव' ति कहियं ॥ अत्र भ्रायाः खल्वभावे धूलीपथेन 5 यायात्, आह चतस्सासह धूलीए अकंत निपञ्चएण गंतवं । मीसगसचितेसुऽचि 55 एस गमो सुकउल्ला ॥ २५ ॥
'तस्याः ' भ्रायाः 'असति' अभावे सति धूलीपथेन गन्तव्यं, कीदृशेन ? - आक्रान्तेन निष्प्रत्यपायेन चेति । एष तावदचितपृथिवीकाय मार्गगमने विधिरुक्तः, तदभावे मिश्रेण पृथिवीकायेन गन्तव्यं, तत्राप्येष एवाधस्त्यो विधिश्यः, तदभावे सचित्तेन गन्तव्यं, तथा चाह- 'मीसगसच्चित्तेमुवि एस गमो मिश्रसचेतनेष्वपि पृथिवीकायेषु एष गमः -शुष्कार्द्रादिः । एतदुक्तं भवति - प्रथमं मिश्रशुष्केन गम्यते, तदभावे मिश्रार्द्रेण, तदभावे सचित्तशुष्केन, तदभावे सच्चित्तार्द्रेण । अथवा 'एस गमो त्ति " अकंताणकंतसपञ्चवाय भेयभिन्नो जोएयवो सवत्थ सपञ्चवाओ परिहरणीओ ति” एष विधिः । स इदानीं साधुः स्थण्डिलादस्थण्डिलं संक्रामन् कस्मिन् कस्मिन् काले केन प्रमार्जनं करोतीत्यत आह---
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६२] . "नियुक्ति: [२६] + भाष्यं [३३...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२६||
श्रीओघउदुबद्धे रयहरणं वासावासासु पायलेहणिआ।
गमनपनियुक्तिः बडउंबरे पिलंखू तस्स अलंभमि चिंचिणिआ॥२६॥
न्थाः पादद्रोणीया 6
'ऋतुबद्धे' शीतोष्णकाले 'रयहरणं'ति रजोहरणेन प्रमार्जनं कृत्वा प्रयाति । तथा 'वासावासामु पायलेहणिआ' वर्षासु-18 लेखनिका वृत्ति
यावर्षा वर्षाकाले वर्षति सति पादलेखनिकया प्रमार्जनं कर्त्तव्यं, सा च किंमयी भवत्यत उच्यते-'वडे' त्यादि, बटमयी | ॥३०॥
उदुम्बरमयी प्लक्षमयी, 'तस्यालाभे' प्लक्षस्थाप्राप्तौ चिश्चणिकामयी अम्बिलिकामयीति । सा च कियत्प्रमाणा भवतीत्याहबारसअंगुलदीहा अंगुलमेगं तु होइ विच्छिन्ना । घणमसिणनिघणावि अ पुरिसे पुरिसे य पत्तेअं ॥ २७ ॥ | द्वादशाङ्गुलानि दीर्घा भवति, येन मध्ये हस्तग्रहो भवति, विस्तारस्वेकमङ्गलं स्यात् । सा च 'घना' निबिडा कार्या, समसृणा निर्बणा च भवति । सा च किमेकैव भवति !, नेत्याह-पुरुषे पुरुषे च प्रत्येकम्-एकैकस्य पृथगसौ भवति ।
उभओ नहसंठाणा सञ्चित्ताचित्तकारणा मसिणा। ___ 'उभयो' पार्श्वयोः 'नखसंस्थाना' नखवत्तीक्ष्णा, किमर्थमसौ उभयपार्श्वयोस्तीक्ष्णा क्रियते, सचित्ताचित्तकारणात् , तस्या एकेन पार्थेन सचित्तपृथिवीकायः सल्लिख्यते, अन्येन पार्श्वनाचित्तपृथिवीकाय इति । किंविशिष्टा सा ?-'मसिण'त्ति, मसृणा क्रियते, नातितीक्ष्णा, यतो लिखत आत्मविराधनान भवति । पृथिवीकाययतनाद्वारं गतम् । अकायद्वारमाह-18 आउक्काओ दुविहो भोमो तह अंतलिक्खो य ॥२८॥
॥३०॥ अप्कायो द्विविधः-भौमोऽन्तरिक्षश्च । इदानीं प्रत्यासत्तिन्यायादन्तरिक्षस्तावदुच्यते
दीप अनुक्रम [६२]]
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६६] → “नियुक्ति: [२९] + भाष्यं [३३...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
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गाथांक नि/भा/प्र ||२९||
महिमावासं तह अंतरिक्खि दहृतं न निग्गच्छे। आसन्नाओं नियत्तह दूरगऔं घरं च रुक्खं वा ॥२९॥ | सोऽन्तरिक्षजो द्विविधः, महिका-धूमिकारूपोऽप्काया, 'वासंति वर्षारूपश्चाप्कायः, तमेवंप्रकारमुभयमपि दृष्ट्वाऽन्तरि
अर्ज न निर्गच्छेत् , अथ कथचिनिर्गतस्य सतो जातं महिकावर्ष तत आसन्नादिभूभागे निवर्तते, अथ दूरमध्वानं गतः ततः18 ताकिं करोति -'गृह' शून्य गृहं वृक्षं वा बहलमाश्रित्य तिष्ठति । अथ सभयप्रदेशे गतस्ततः किं कर्त्तव्यमित्याह
___ सभए वासत्ताणं अचुदए सुक्खरुक्व चडणं वा । नइकोप्परवरणेणं भोमे पडिपुच्छिआगमणं ॥ ३०॥ RI 'सभये' गृहादी स्तेनकादिभयोपेते 'वर्षात्राणं' वर्षाकल्प प्रावृत्त्य व्रजति, अथ 'अत्युदक' महान् वर्षः ततः किं करोति ?-शुष्कवृक्षारोहणं कर्त्तव्यम् । अथासौ सापायो नास्ति ततस्तरण्डं गृहीत्वा तरितुं जलं ब्रजति इत्युक्तोऽन्तरिक्षजः, इतरमाह-'नदी'त्यादि, यदा तु तस्य साधोर्गच्छतोऽपान्तराले नदी स्याद्वक्ररूपा ततस्तस्या नद्याः कूपरेण प्रजति, नदी | परिहत्येत्यर्थः । अथवा 'वरणेन' सेतुबन्धेन ब्रजति । एवं भीमे प्रतिपृच्छ-च पूर्वमेव कश्चित्पुरुष गमनं कर्त्तव्यम् । इदानीं यदुक्तं 'बरणेन गन्तव्य'मिति, स संक्रमो निरूप्यते, किंविशिष्टेन तेन गन्तव्यं ? कीदृशेन वा (न) गन्तव्यमित्यत आहI नेगगिपरंपरपारिसाडिसालंबवज्जिए सभए । पडिवक्खेण उ गमणं तजाइयरे व संडेवा ॥ ३१ ॥
'नेगगिपरंपरपारिसाडिसालेववज्जिए सभए पडिवस्खेण उगमणं तिन एकाङ्गी-अनेकानी-अनेकेष्टकादिनिर्मितः संक्रमः। 'परंपर' इति परम्परप्रतिष्ठः-न निर्व्यवधानप्रतिष्ठः, 'परिसाडी'ति गच्छतो यत्र धूल्यादि निपतति, 'सालंबवजिए'त्ति साल|म्बवर्जितः-सावष्टम्भलग्नरहित इत्यर्थः, सभयो यत्र व्यालादयः शुषिरेषु सन्ति, यद्येभिर्गुणयुक्तः संक्रमो भवति तदा न
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दीप अनुक्रम [६६]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६८] . "नियुक्ति: [३१] + भाष्यं [३३...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३१||
श्रीओघ- यातव्यं, कथं तहिं यातव्यं ?-'प्रतिपक्षण' उक्तस्य विपर्ययेण । तत्रानेकाङ्गिनः प्रतिपक्ष एकाङ्गी, परम्परस्यापरम्परकः,परिशाटि- विहारे मा. नियुक्तिः नोऽपरिशाटी, सालम्बवर्जितस्य सालम्बः, सभयस्य निर्भयः प्रतिपक्षः, एतेषु प्रतिपक्षेषु गमनं । भङ्गकाश्चात्र पदपश्चकनिष्वन्न- शुद्धिः द्रोणीया
त्वाद्द्वात्रिंशत् , तद्यथा-"अणेगंगिओ परंपरो परिसाडी सालंबवजितो सभउत्ति पढमो" एवं स्वबुझ्या रचनीयम् । स्थापना- नि.३०-३१ वृत्तिः
Issssssssssssssss| पाठान्तरं वा 'णेगंगिचलऽथिर'त्ति, शेष प्राग्वत् , तत्रानेकाङ्गी पूर्ववत् , 'चलधिर'त्ति ॥३१॥
Tissss Issis | Isss iss|| एतत्पदद्वयं, तथाहि-एकश्चलः संक्रमो भवति, अपरस्त्वस्थिरः, तत्रारूढे गन्तरि सति वंश-14 ssss SISIS | sss sisi वद्यः अन्दोलते स चलः, अस्थिरस्तु भूमावप्रतिष्ठितः, शेष प्राग्वत्, प्रतिपक्षा अपि प्राग्वदेव, plisss ISIS ISSI IISII SSISS SSIIS SSISI SSIN
केवलं चलस्याचला प्रतिपक्षः, अनन्दोलनशीलत्वात् , अस्थिरस्य तु स्थिरः, भुवि प्रतिष्ठित-1 |Issssssssm|त्वात् , एतेषु गमनं, एतानि च षट् पदानि, तद्यथा-'णेगंगि चलो अधिरे पारिसाडि सालंघवsuss smsssi SM | जिए सभए" एष प्रथमः, एवं चउसडी भंगा कायवा। अन्ये त्वेवं पठन्ति-"एगिचलथिरपा- Juiss 'ms msm रिसाडिसालंबवज्जिए सभए' एकाङ्गेन निवृत्त एकाङ्गी, चल:-प्रेशनशीला, अस्थिरः-अध-। वस्तादप्रतिष्ठितः, परिशाटी सालम्बवर्जितः सभयः, एभिः पद्भिः पदैश्चतुःषष्टिभङ्गाः, अस्यां यो मध्ये द्वात्रिंशत्तमो भगः स
एव परिगृह्यते, तद्रहणाच्च तुलामध्यग्रहणवदुभयान्तवर्तिनः संगृहीताः, 'पडिपक्खेण उ गमण ति, अस्य मध्यमस्य भङ्गदास्योपन्यस्तस्य यः प्रतिपक्ष एकान्तेन शुद्धश्चतुःषष्टितमस्तेन गन्तव्यं, अयमुत्सर्गविधिः, एतदभावे ये निर्भयाः संकीर्णभङ्गा
स्तैरपि गन्तव्यमेवेत्यपवादः । अथ संक्रमो नास्ति ततः को विधिः?, अत आह-तजाइयरे व संडेव'त्ति, सण्डेवकः
दीप अनुक्रम [६८]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६८] . "नियुक्ति : [३१] + भाष्यं [३३...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
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गाथांक नि/भा/प्र
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पाषाणादि, योऽन्यस्मिन् पाषाणादी पादनिक्षेपः स संडेवकः, स च द्विविधः-तज्जात इतरश्च, तत्र तज्जातः तस्यामेव भुवि यो जातः, इतरस्त्वन्यत आनीय तत्र निहितः, स एकैकत्रिविधः । तदेव त्रैविध्यं दर्शयन्नाह
चलमाणमणकले सभए परिहरिअ गच्छ इयरेणं । द्गसंघट्टणलेवो पमज्ज पाए अदूरमि ॥ ३२ ॥
तत्र योऽसौ तजातः स त्रिविधः-चलमानः अनाक्रान्तः सभयश्च, योऽप्यसावतज्जातः असावप्येवमेव त्रिविधः । ४ ततश्चैवं विधे सण्डेवके किं कर्तव्यमित्याह-'गच्छ' व्रज 'इतरेण ति योऽचलः आक्रान्तः असभयश्चेति, अनेन पदत्रयेणाष्टौ
भङ्गाः सूचिताः, तेषां चैषा स्थापना-ड चल-अनासक्तः । अथ संक्रमो नास्ति तत उदकमध्येनैव गन्तव्यं, तत्र
को विधिरित्याह-'दग'इत्यादि, 'दग-|ss संघट्टण मिति, उदकं जङ्घार्बप्रमाणं, 'लेवेति उदकमेव नाभिप्रमाण, तत्र ४ कथमवतरणीयमित्याह-पमज पाए | SIS| अदूरमि' पादौ प्रमृज्य, कियति भूमिभागे व्यवस्थित उदकस्येत्यत आह, अदूरे-आसन्ने तीर इत्यर्थः । ततश्च- तुर्दा जलम्
पाहाणे महुसित्ये वालुअ तह | कदमे य संजोगा । अर्कतमणकते सपञ्चचाएपरे चेव ॥ ३३ ॥
पाषाणजलं मधुसित्थुजलं वालुका-Jus | जलं कर्दमजलं चेति, तत्र पाषाणजलं-यत्पाषाणानामुपरि वहति, मधुसिस्थकजलं यद् अलक्तकमार्गावगाहिक-|m मस्योपरि वहति, वालुकाजलं तु यद्वालुकाया उपरि वहति, कर्दमजलं तु यद् धनकर्दमस्योपरि वहति, अत्र च पापाणजलादेराकान्तानाक्रान्तसप्रत्यपायनिष्प्रत्यपायैः सह संयोगा भवन्ति-भङ्गका इत्यर्थः । तत्थ पाहाणजलं अकंतं अणकतं च, ज तत्थ अकंतं तेणं गम्मति, जं तं अकंत सपञ्चवायं अपञ्चवायं च, अपच्चवा
SANSAR
दीप अनुक्रम [६८1
naturanorm
~66~
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||३३||
दीप
अनुक्रम [७०]
श्रीओषनियुक्तिः द्रोणीया
वृत्तिः
॥ ३२ ॥
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २/१ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
→
मूलं [ ७०]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
८०
“निर्युक्तिः [३३] + भाष्यं [३३] + प्रक्षेपं [३...]" आगमसूत्र [४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
एणं गम्मति, सपञ्चवायं पाहाणजलं होज्जा नवा होजा ताहे मधुसित्थजलेण गम्भइ, तत्थऽवि एसेव भेदो, तस्सासइ बालुआजलेण गम्मइ, तस्सवि एए चेव भेआ, कद्दमजलेऽवि एवमेव अकंतमणकंतसपञ्चवाएयरा, सवत्थ निप्पच्चवाएण गम्मइ । तथाहि एकैकस्मिंश्चतुर्विधे जले चतुर्भङ्गी, सा चेयम्-तत्थ ताव पाहाणजलं अतं अपञ्चवायं पढभो भंगो, एवमादि ४, एवं महुसित्थंपि ४ वालुयाजलंपि ४ कद्दमजलंपि ४ । अथ सङ्घट्टादिजललक्षणप्रणिनीपया भाष्यकृदाह---
जंघा संघो नाभी लेवो परेण लेवुवरिं । एगो जले चलेगो निप्पगले तीरमुस्सग्गो ॥ ३४ ॥ ( भा० ) जङ्घार्द्धमात्रप्रमाणं जलं सङ्घ उच्यते, नाभिप्रमाणं जलं लेप उच्यते, परेण नाभेर्जलं यत्तत्लेपोपरि उच्यते, इदानीं जङ्घार्द्धप्रमाणं जलमुत्तरतो यो विधिः स उच्यते - एकः पादो जले कर्त्तव्योऽन्यः स्थले- आकाशे, अथ तीरप्राप्तस्य विधिमाह - 'निष्प| गले त्ति एकः पादो जले द्वितीयश्च आकाशे निष्प्रगलन्नास्ते तत आश्यानः स्थले क्रियते पुनर्द्वितीयमपि पादं निष्प्रगलं | कृत्वा ततस्तीरे कायोत्सर्ग करोति ॥ अथ तज्जलं नाभिप्रमाणादि भवति निर्भयं च ततः का सामाचारीत्याहनिभएमारित्थी तु मग्गओ चोलपट्टमुस्सारे । सभए अत्थग्धे वा ओइण्णेसुं घणं पहुं ॥ ३४ ॥ निर्भये जले सत्यहरणशीलत्वात् न्यालादिरहितत्वाच्च अगाराणां स्त्रीणां च मार्गतः पृष्ठतो गच्छति, गच्छता च किं कर्त्तव्यं ?, चोलपट्टक उपर्युत्सारणीयः । सभये तु तस्मिन् अत्थग्धे वा 'उत्तिण्णेसु' अवतीर्णेषु कियत्स्वपि गृहिषु मध्येस्थितः प्रयाति 'घणं पट्ट'न्ति चोलपट्टकं च 'घनं' निविडं करोति यथा तोयेन नापश्यित इति ।
दगतीरे ता चिट्टे निप्पगलो जाब चोलपट्टो उ । सभए पलंबमाणं गच्छ कारण अफ़संतो ॥ ३५ ॥
For Parts Only
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विहारे माशुद्धिः
नि. ३३
भा. ३४ नि. ३४-३५
॥ ३२ ॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७४] → "नियुक्ति: [३५] + भाष्यं [३४] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||३५||
उत्तीर्णश्चोदकतीरे तावत्तिष्ठति यावन्निष्प्रगलो जातश्चोलपट्टकः, अधासौ प्रदेशः सभयस्ततः सभये प्रलम्बमानं चोल-8 पढ़कं गृहीत्वा प्रजति । कथम् -'कायेन' शरीरेणास्पृशन्, शरीरकृताप्कायविराधनाभयात् , यदा तु नद्यामवतरतो गृही सहायो नास्ति ततः किं कर्तव्यमित्याहअसइ गिहि नालियाए आणखेडं पुणोऽवि पहियरणं । एगाभोग पडिग्गह केई सवाणि न य पुरओ॥३६॥3 | गृहस्थाभावे नालिकया तन्नदीजलं 'आणखेड' परीक्ष्य गन्तव्यं, नालिका यात्मप्रमाणा चतुरङ्गुलाधिका यष्टिका तया || परीक्ष्य 'पुणोऽवि पडियरण'न्ति पुनः प्रतिनिवृत्त्य प्रतिचरणा-आगमनं करोति, आगत्य च 'एगाभोग'त्ति एकत्राभोगः, भाभोगः-उपकरणं 'एकत्ति एकत्र करोति, एकत्र बनातीत्यर्थः, 'पडिग्गह'त्ति पतबह च पृथगधोमुख धनपात्रकबन्धेन| बनाति, तं च हस्तेन गृह्णाति तरणार्धम् । केचित्त्वेवमाहुः-पतगह उपलक्षणं पात्रकाणां, ततश्च सर्वाण्येव पात्रकाणि अधोमुखानि धनेन चीरेण बध्यन्ते तरणार्थमिति । एस ताव सामण्णेण नदीए अत्यग्घाए गच्छंतस्स विही भणिओ, यदुत-एगाभोगपडिग्गह केई सवाणि'त्ति, नावाएवि आरुहंतस्स एसेव विही, किंतु नावाए चडतो 'न य पुरउत्ति नावाए पढमं|
नारुहइ-अग्गिमो न चडइ, प्रवर्तनाधिकरणदोषात्, भद्दगपंतदोसातो य, जइ भद्दओ तओ सउणंति मन्नमाणो आरु-15 महइ, अह पंतो तओ अवसउणति मण्णमाणो कोवं गेण्हति । तथा चसद्दओ मग्गओवि णारोहइ-निपच्छिमो नारुहइ. मा सा अद्धारुहंतस्सेव वञ्चिहिति णावा, अतो थेवेसु आरूढेमु गिहिसु आरुहइ॥
सागारं संवरणं ठाणतिरं परिहरिचनावाहे । ठाइ नमोकारपरो तीरे जयणा इमा होइ ॥ ३७॥
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दीप अनुक्रम [७४]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७५] . "नियुक्ति : [३७] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३७||
द्रोणीया
आरुहन्तो अ सो साहू सागारं संवरण-पच्चक्खाणं करेति , आरूढो य संतो ठाणतिरं परिहरि अणावाहे ठाइ, तत्थ नद्युत्तारश्रीओघ-ट
पुरओ न ठाइयचं, तत्थ किल णावादेवयाहिवासो, ण य मग्गओ, अवल्लगवाहणभयओ, न मज्झओ, मा नावाओ उदकं विधिः नियुक्तिः
उल्डिंचाविजिहिन्ति । कत्थ पुण ठाझ्यचं?, पासे, तत्थ य उपउत्तो चिहइ नमोकारपरो। एवं कुशलेन तीरपत्तस्स को विही, नि. ३६वृत्तिः
भन्नइ-तीरे जयणा इमा होति' वक्खमाणा| नवि पुरओ नवि मग्गओ मज्झे उस्सग्ग पण्णवीसाउ । दइउदयं तुबेसु अ एस विही होइ संतरणे ॥३८॥ ___ इदाणिं तीरपत्ताए नावाए उत्तरंतो न लोअअग्गिमो उत्तरति, पवत्तणाधिकरणादेव, नावि मग्गओ लोयस्स उत्तरति, झडत्ति पडिओ गच्छेजत्ति,(चल स्वभावत्वात् , अहवा सो पच्छा एको उत्तरंतो कयाइ धरेजा नाविएणं तरपणहा, तम्हारे थोवेसु उत्तिण्णेसु गिहिसु उत्तरति । तीरत्येण किं कायबंति !, भण्णइ-'उस्सग्गों' कायोत्सर्गः कर्त्तव्यः, तत्र च कियन्त उमट्टासाः इत्यत आह-पण्णवीसा'ति पञ्चविंशतिरुच्छासाश्चिन्तनीयाः । 'दइजति दतिउ चक्खल्लाउडुओ जेण तरि-IN
जइ 'तुंब' अलाउ, एएहिं नावाए अभावे संतरिजइ, जदि तरणजोग्ग पाणियति । 'एस विहि'त्ति दृतिकादिभिरुत्तीसार्णस्य एष एव विधिः 'संतरणे' प्लवने, यदुक्तं-'तीरे प्राप्तेनोत्सर्गः कार्य इति, अन्न चाप्काये मिश्राचित्तयतना न साक्षा-पटू टदुक्का, छमस्थेन तयोस्तत्त्वतो ज्ञातुमशक्यत्वात् , यश्च ज्ञास्यति स करिष्यत्येवेति, सच्चित्तस्य तूक्तैव । उक्तमकायद्वारम् | अथ तेजस्कायस्तत्राह-[द्वारगाथा ]॥ बोलीणे अणुलोमे पडिलोमऽसु ठाइ तणरहिए। असई य गतिणंतगउल्लण तलिगाइ डेवणया ॥ ३९॥
KALAM
दीप अनुक्रम [७५]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७७] . "नियुक्ति: [३९] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र
KASEX
||३९||
यदा हि तस्य साधोर्गच्छतो वनदवोऽनुकूलो भवति, यदभिमुखं साधुर्ब्रजति तदभिमुखमग्निरष्येतीत्यर्थः, ततस्तस्मिन् | वनदवे व्यतिक्रान्ते सति गन्तव्यं, यदा तु प्रतिलोमः--अभिमुखमायाति ततः 'अद्देसुति आर्तेषु प्रदेशेषु तिष्ठति येनासौ नाभिभवति, तृणरहिते वा, 'असति' अभावे तस्य 'कत्तिर्णतगउलणं'ति, कृत्तिः-चर्म तेनात्मानमावृत्य तिष्ठति, तदभावे 'णंतगजलणं' अणंतर्ग-कम्बलादिवत्रं तदाद्रीकृत्य पानकेन तेनात्मानमावृणोति, ततस्तिष्ठति, अथ गच्छतो बहुगुणं ततः 'तडिगादिडेवणय'त्ति उपानही परिधाय डेवन-लहनमग्नेः कृत्वा ब्रजति । तत्र यदा विध्याते तेजस्काये याति तदाऽचिततेजस्काययतना, यदा तूपानही परिधाय ब्रजति तदा सचित्तो मिश्रो वा तेजस्कायः, एषा त्रिप्रकारा यतना । उक्तं तेजस्कायद्वारम् , अथ वायुद्वार
जह अंतरिक्खमुदए नवरि निअंबे अ वणनिगुंजे घ । ठाणं सभए पाउण घणकप्पमलबमाणं तु ॥४०॥
यथा अन्तरिक्षोदके यतनोक्ता 'आसण्णाउ नियत्तति 'इत्यादिलक्षणा सेवेहापि दृश्या, 'नवरन्ति केवलमयं विशेषः, 'नितम्बे' पर्वतैकदेशे वननिकुञ्ज वा स्थातव्यम् , यद्यसौ प्रदेशः सभयस्ततः 'पाउण घणकप्पं घन-निश्छिद्रं कल्प-कम्बल्यादिरूपं प्रावृत्त्य गच्छति 'अलम्बमाणं तु'त्ति यथा कोणो न प्रलम्बते, प्रलम्बमानवायुविराधनात् । तत्र महावायौ गच्छतः कल्पप्रावृतशरीरस्य सचित्तयतना भवति, अप्रलम्बं कल्पं कुर्वतः अचेतनयतना, मिश्रयतना कल्पप्रावृतस्यैव भवति, यतः किंचि दकिों किंचिच्च न, श्यं त्रिविधा यतना ।। उक्तं वायुद्वारम् , अथ वनस्पतिद्वारमुच्यते
तिविही वणस्सई खरलु परिसऽणतो पिराथिरेकेको । संजोगा जह हेटा अफताई तहेव इहिं ॥४१॥
दीप अनुक्रम [७७]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७९] → “नियुक्ति: [४१] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४१||
श्रीओघ-18| त्रिविधो वनस्पतिः-अचित्तो मिश्रः सचित्तश्च, योऽसावचित्तः सः परित्तो अणतो य, परित्तो थिरो अधिरो अ, अण- अनिवन. नियुक्ति तोचि थिरो अथिरो अ, इदाणिं मीसो सो दुविहो-परित्तो अणंतो अ, परित्तो दुहा-थिरो अथिरो अ, अर्णतोऽवि दुविहो-1| यतना.
थिरो अथिरो अ, इदाणिं सचित्तो, सो दुहा-परित्तो अणंतो अ, परित्तो दुहा-थिरो अथिरो अ, अणंतो दुहा-थिरो| वृत्तिः
सानि. ३९अधिरो अ, एकेको अभेओ चउहा-अकंतो निपच्चवाओ अ१, अकंतो सपच्चवाओ अ २, अणकतो अपञ्चवाओ य ३, ॥३४॥ अणकतो सपञ्चवाओ अ ४ । तत्थ का जयणा ?, अचित्तेणं गम्मइ, तत्थवि परित्तेण, तेणवि थिरेण, तत्थवि अर्कतनि-13||
पिच्चवाएण, तदभावे अणकतेणं निपञ्चवाएणं, तदभावे अचित्तपरित्तेणं अथिरेणं गम्मइ, सोऽवि यदि अर्कतो निपच्चवाओ
अ तदभावे अणकतेण निपञ्चवाएण य, तदभावे अचित्ताणतेण थिरेण गम्मति, तत्ववि तेण अकंतेण निपञ्चवाएण य, सातदभावे अणकतनिपच्चवाएण, तदभावे अचित्ताणतेणं अधिरेण सो अ अतनिपञ्चवाओ य यदि होति, तदभावे अणक-11
तनिष्पचवाएणं, तदभाषे मीसेणं, एवमेव भंगा जाणियचा जहा अचित्ते, तदभावे सचित्तेणं गम्मइ, तत्थवि एसेव गम्मद ।। अथ गाथाऽक्षरघटना-त्रिविधो वनस्पतिः-सचित्तः अचित्तः मिश्रश्चेति, तबैकैको द्विधा-परीतोऽनन्तश्च, तत्र परीतः पृथक्शरीराणामेकद्वित्रिअसङ्ख्येयानां जीवानामाश्रयः, अनन्तस्तु अनन्तानामेकैकं शरीरं, स एकैकः स्थिरोऽस्थिरश्च, स्थिरो ॥३४॥ दृढसंहननः, इतरस्त्वस्थिरः । अत्र च संयोगाः कर्त्तव्याः, ते चाधस्ताद्यथोक्तास्तथैव दृश्याः, ते चानान्तनिष्पत्यपायआ
+ सो व अत्तनिप्पचयाओ जह होइ।
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दीप अनुक्रम ७ि९]
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१
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SAREnatin
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७९] . "नियुक्ति : [४१] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
ANSAR
गाथांक नि/भा/प्र ||४१||
कान्तसप्रत्यपायअनाक्रान्तनिष्पत्यपायअनाकान्तसप्रत्यपायरूपाः । स्थापना- ननु प कस्मादचित्तवनस्पतियतनोच्यते , तथाहि-सचेतनविषया यतनेति न्यायः, उच्यते, तत्राप्यस्ति कारणं, 15 | यद्यपि अचित्तस्तथापि कदाचित्के-13 पाश्चिद्वनस्पतीनामविनष्टा योनिः स्याद् गुडूचीमुनादीनां, तथाहि-गुडूची || शुष्काऽपि सती जलसेकात्तादात्म्य भजन्ती दृश्यते, एवं कलूटुकमुगादिरपि, अतो योनिरक्षणार्थमचेतनयतनाऽपि 5 न्यायवत्येवेति । अथवाऽचित्तवन-1 स्पतियतनया दयालुतामाह, अचेतनस्यैते भेदा न भवन्ति, किन्तु सचित्तमिश्रथोरेव योजनीयाः । उक्तं वनस्पतिद्वारम् , अधुना त्रसद्वारमाहतिविहा घेईदिया खलु थिरसंघयणेयरा पुणो दृविहा । अर्कताई य गमो जाब उ पंचिंदिआ नेआ ॥ ४२ ॥ 8 'त्रिविधाः' त्रिप्रकारा द्वीन्द्रियाः-सचित्तादिभेदात् , सचित्ताः सकलजीवप्रदेशवन्तः, अचित्तास्तु विपर्ययात्, मिश्रा-3 स्त्वेत एव करम्बीभूताः, पुनरेकैको द्विविधः, तथाहि-सचित्तो थिरसंघयणो अथिरसंघयणो अ, एवं अचित्तो मिस्सोवि, जो सो स्थिरसंघयणो तत्थ चउभंगी-अकंतोऽणकतो सपञ्चवाओ इयरो य, एवं अण्णेऽवि 'अकंतादीय'त्ति आक्रान्तादिर्ग-12
मको भङ्ग इति, अनेन चतुर्भङ्गिका सूचिता । एवमयं क्रमस्त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपश्चेन्द्रियाणां सचित्ताचित्तमिश्रादिर्योजतिनीय इति । एवं तावत्सजातीययतनोक्ता, इदानीं विजातीयेन सहाह
पुढविदएप पुढविए उदए पुढवितस वालकंटा य । पुढविवणस्सइकाए ते घेवउ पुढविए कमणं ॥४३॥ पुढवितसे तसरहिए निरंतरतसेसु पुढविए चेव । आउवणस्सइकाए वणेण नियमा वर्ण उदए ॥ ४४ ॥
दीप अनुक्रम ७ि९]
KALASSESSACROSSASA
REnatinalod
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८३] → “नियुक्ति: [४५] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
द्रोणीया
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४५||
श्रीओष- तेऊबाउविरुणा एवं सेसावि सघसंजोगा। नचा विराहणदुर्ग वनंतो जयसु उवउत्तो ॥ ४५ ॥
विहारे त्रस नियुक्ति
18 यतना संपृथिव्युदकयोः युगपद्गमनतया प्राप्तयोः सतोः कतरेण यातव्यमित्याह-पृथिव्या, उदके प्रसादिसद्भावात् , चशब्दा
तयुक्तकायवनस्पतिश्च, पृथिवीं त्यक्त्वैव । अथ पृथिवीवनस्पतिकाययोः सतोः किं कर्त्तव्यमित्याह-पृथिव्यैव गन्तव्यं, वनस्पती तद्दोष-31
यतना संभवात् ॥ पृथिवीनसयोः केन गन्तव्यं ?-बसरहितमार्गेण, एतदुक्तं भवति-विरलबसेषु तन्मध्येन, निरन्तरेषु तु पृथिव्या,I6I अप्कायवनस्पतिकाययोः सतोः केन यातव्यमित्याह-वनेन वनस्पतिकायेन, उदके नियमावनस्पतिसभावात् ।। तेजस्काय-1 वायुकायाभ्यां रहिता एवं शेषा अपि सर्वसंयोगाः अन्येऽपि ये नोक्तास्तेऽनुगन्तव्याः भङ्गकाः, सर्वथा विराधनाद्वयं ही
ज्ञात्वा-आत्मविराधना संयमविराधना च, एतद्यमपि वर्जयन् उपयुक्तो यतस्व-यतनां कुर्विति । इदानीं यदुक्तं-'एवं मसेसावि सबसंजोगा' इति ते भङ्गका दर्श्यन्ते, ते चामी-तत्थ पुढयिकाओ आजकाओ वणस्सइकाओ तसकाओ चेति|
चत्वारि पदानि काउं ततो दुगचारणियाए तिगचारणिआए चउकचारणियाए चारेयदा, सा य इमा चारणिआ-पुढविकाओ
आऊ य पढमो १, पुढवी वणस्मतीबीओ य २, पुढवी तसा य तइओ य ३, एवं पुढवीए तिन्नि लद्धा, आऊ दो लहइ,वणस्सईद है एकति ६, पुढवी आऊ वणस्सई १, पुढवी आऊ तसा २, पुढवी वणस्सइ तसा ३, आऊवणस्सइतसा ४, एए तिगचार
CI॥३५॥ |णियाए लद्धा, चउकचारणियाए उ एको चेव, सबेवि एकारस अचित्तेहिं पएहिं लद्धा, एवं मीसेसुषि ११ सचित्तेसुऽवि|8| ११, सषेऽवि तेत्तीस ३३ । उक्का पट्काययतना, आह-यदा पुनघिदुस्तटीन्यायनान्यतरविराधनामन्तरेण प्रवृत्तिरेव न घटां प्राञ्चति तदा किं कर्तव्यमित्याह
दीप अनुक्रम [८३]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८४] → “नियुक्ति : [४६] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||४६||
सवत्थ संजमं संजमाउ अप्पाणमेव रक्विजा । मुच्चइ अइवायाओ पुणो विसोही न पाविरई ॥ ४६॥
'सर्वत्र' सर्वेषु वस्तुषु, किम् ?-संयमरक्षा कार्या, तदभावेऽभिप्रेतार्थसिद्ध्यसिद्धेः, किमेष न्यायः १, नेत्याह-संयमादप्या९त्मानमेव रक्षेत्, आत्माभावेन तत्प्रवृत्त्यसिद्धेः, आत्मानमेव रक्षन् , जीवन्नित्यर्थः, 'मुच्यते भ्रश्यते तस्मादतिपातात्-हिंसादि
दोपात्, किं कारणम् !, उच्यते, अतिपातनात् यतः पुनर्विशुद्धिस्तपआदिना भविष्यति, अथ मन्यसे-पृथिव्याद्यतिपातोहात्तरकालं विशुद्धिर्भवति नाम, किन्तु हिंसायां वर्तमानः सः अविरतो लभ्यत इति 'एकवतभङ्गे सर्वत्रतभर' इति वच-13
नात्, तदेतनास्ति, यत आह-'न याविरई', किं कारणं ?,-तस्याशयशुद्धतया, विशुद्धपरिणामस्य च मोक्षहेतुत्वात् । यद्वा सर्वत्र संयम रक्षन्नतिपातान्मुच्यते-अतिपातो न भवति, किमयमेव न्यायः १, नेत्याह-संयमादात्मानमेव रक्षन, येन पुनरपि विशुद्धिर्भवति, न चातिपातेऽप्यविरतिरिति पूर्ववत् । किं कारणं संयमादप्यात्मा रक्षितव्यः', उच्यते, यतः
संजमहे देहो धारिजइ सो कओ उ तदभावे? | संजमफाइनिमित्तं देहपरिपालणा इट्ठा ।। ४७॥ इह हि 'संयमहेतुः' संयमनिमित्तं देहो धार्यते, स च-संयमः कुतः तदभावे' देहाभावे ? । यस्मादेतदेवं तस्मात् 'संयमस्फातिनिमित्तं, संयमवृद्ध्यर्थं देहपरिपालनमिष्टं-धर्मकायसंरक्षणमभ्युपगम्यते ॥ आह-लोकेनाविशिष्टमेतत्, तथाहिचिक्खल्लवालसावयसरेणुकंटयतणे बहुजले अ। लोगोऽवि नेच्छइ पहे को णु विसेसो भयंतस्स ? ॥४८॥
चिक्खल्लच्यालस्वापदसरेणुकण्टकतृणान् बहुजलांश्च सोपद्रवान् मार्गान-पथः लोकोऽपि नेच्छत्येव, अतः को नु विशेषो? लोकात्सकाशाद्भदन्तस्य येनैवमुच्यत इति ?, उच्यते
दीप अनुक्रम [८४]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८५] . "नियुक्ति : [४९] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
नि.४७-५२
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४९||
दीप अनुक्रम [८५]]
श्रीओध- जयणमजयणं च गिही सचित्तमीसे परित्तऽणते । नवि जाणंति न यासि अवहपइण्णा अह विसेसो ॥४९॥ संयमादानियुक्तिः I यतनामयतनां च गृहिणो न जानन्ति, क-सचित्तादौ, न च एतेषां गृहिणां 'अवधप्रतिज्ञा' वधनिवृत्तिा, अतत्म रक्षणं द्रोणीया एव विशेषः। वृत्तिः
अविअ जणो मरणभया परिस्समभाव ते विवजेइते पुण दयापरिणया मोक्खथमिसी परिहरंति ॥५०॥ ॥३६॥ कण्ठ्या ॥ "अपि च” इति अनेनाभ्युच्चयमाह, नवरं तेत्ति सापायान् पधः। इतश्च साधोः प्राणातिपातापत्तावपि गृहिणा
| सह वैधुर्यमित्याह
अविसिहमिवि जोगंमि वाहिरे होइ विहुरया इहरा । सुद्धस्स उ संपत्ती अफला जं देखिआ समए ॥५१॥ VI इह 'अविशिष्टेऽपि तुल्येऽपि 'योगे' प्राणातिपातादिव्यापारे 'बाह्ये बहिर्वतिनि भवति 'विधुरता' वैधुर्यं विसदृशता,
| इत्थं चैतदभ्युपगन्तव्यम् , इतरथा शुद्धस्य-साधोः 'संप्राप्तिः' प्राणातिपातापत्तिः 'अफला' निष्फला यतःप्रदर्शिता 'समये। दिसिद्धान्ते तद्विरुध्यते, तस्मादेतदेवमेवाभ्युपगन्तव्यं, बाह्यप्राणातिपातव्यापारः शुद्धस्य साधोर्न बन्धाय भवतीति । Pएफमिवि पाणिवहंमि देसि सुमहदंतरं समए । एमेव निजरफला परिणामवसा बहुविहीआ॥५२॥ हा 'एकस्मिन्नपि तुल्येऽपि प्राणिवधे 'दर्शितं' प्रतिपादितं सुमहदन्तरं, व?-समये सिद्धान्ते, तथाहि-यथा द्वी पुरुषी ४||
माणिवधप्रवृत्ती, तयोश्च न तुल्यो बन्धो, यस्तवातीवसंक्लिष्टपरिणतिः स सप्तम्यां पृथिव्यामुत्पद्यते, अपरस्तु नातिसक्किष्टप-| शरिणतिः स द्वितीयनरकादाविति । इयं तावद्विसदृशता बन्धमङ्गीकृत्य, इदानीं निर्जरामङ्गीकृत्य विसदृशतां दर्शयन्नाह
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९०] . "नियुक्ति: [१२] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२||
SAMRACANCISC-SATESCREE
एवमेव 'निर्जरा' फलविशेषा अपि परिणामवशाद् 'बहुविधा' बहुप्रकारा विशिष्टविशिष्टतरविशिष्टतमाः । एका प्राणिजा-1 तिमङ्गीकृत्यान्तरमुक्तम् , अधुना सकलव्यक्त्याश्रयमन्तरं प्रतिपिपादयिपुराहजे जत्तिआ अहेऊ भवस्स ते चेव तत्तिआ मुक्खे । गणणाईया लोगा दुहवि पुषणा भवे तुल्ला ॥५३॥ । ये हेतवो यावन्तो-यावन्मात्रा 'भवस्य' संसारस्य निमित्तं त एव नान्ये तावन्मात्रा एव मोक्षस्य हेतवो-निमित्तानि । कियन्मात्रास्ते अत आह-गणनाया अतीताः-सङ्ख्याया अतिक्रान्ताः, के?, लोकाः 'द्वयोरपि भवमोक्षयोः संबन्धिनां हेतूनामसङ्खयेया लोकाः 'पूर्णाः' भृताः, ते तु पूर्णा एकहेतुन्यूना अपि भवन्त्यत आह-तुल्याः, कथंभूताः?-क्रियाविशेषणं 'तुल्या' सदृशा इत्यर्थः । ननु तुल्यग्रहणमेव कस्मात्केवलं न कृतं ? येन पुनः पूर्णग्रहणं क्रियते, भण्णति पडिवयर्ण-तुल्लग्गहणेण | संवलिआणं संसारमोक्खहेऊणं लोका तुलत्ति कस्सति बुद्धी होजा तेण पुण्णग्गहणंपि कीरइ, दोण्हवि पुण्णत्ति जया जया | भरिअत्ति नेयवा, इयमत्र भावना-सर्व एव ये त्रैलोक्योदरविवरवर्तिनोभावा रागद्वेषमोहात्मनां पुंसां संसारहेतवो भवन्ति त एव रागादिरहितानां श्रद्धामतामज्ञानपरिहारेण मोक्षहेतवो भवन्तीति एवं तावत्प्रमाणमिदमुक्तम् , इदानीं येषाममी त्रैलोक्यापन्नाः पदार्था बन्धहेतवो भवन्ति न भवन्ति च येषां तदाह
इरिआवहमाईआ जे चेव हवंति कम्मबंधाय । अजयाणं ते चेव उ जयाण निवाणगमणाय ।। ५४॥ 'ईर गतिप्रेरणयोः' ईरणमीर्या पथि ईर्या ईर्यापथ-गमनागमनमित्यर्थः, ईर्यापथमादौ येषां ते ईर्यापथाद्याः, आदिशब्दादृष्टिवागादिव्यापारा गृह्यन्ते, ईर्यापधाद्या व्यापारा य एव भवन्ति 'कम्मबंधाय' कर्मबन्धनिमित्त-कर्मबन्धहेतवः, केषाम् ?
ACCASSACROCOCCAREE
दीप अनुक्रम [९०]
ओ०७ SHREtam
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९२] . "नियुक्ति: [१४] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५४||
श्रीओघ- नियुक्तिः वृत्तिः ॥३७॥
द्रोणीया
५४-५५
45525%
दीप अनुक्रम [९२]]
अयतानाम् अयक्षपराणां पुरुषाणां, त एव ईर्यापथाद्या व्यापारा 'यतानां यत्नवतां निर्वाणगमनाय मोक्षगमनाय भवन्ति ॥ भवमोक्षएवं तावत्साधोहस्थेन सह तुल्येऽपिच्यापारे विसहशतोक्का, इदानीं सजातीयमेव साधुमाश्रित्य विसहशतामादर्शयन्नाह- तुसाम्य एगंतेण निसेहो जोगेसु न देसिओ विही वावि । दलिअं पप्प निसेहो होज विही वा जहा रोगे ॥५५॥16
नि. ५३एकान्तेन निषेधः 'योगेषु' गमनादिव्यापारेषु 'न देशितः'नोपदिष्टः 'विधिळ' अनुज्ञा वा कचित्स्वाध्यायादी न दर्शिता, किन्तु 'दलिद्रव्यं वस्तु वा 'प्राप्य विज्ञाय निषेधो भवेत् , तस्यैव वां 'विधिर्भवेत्' अनुष्ठानं भवेदिति । अयमत्र भावः-क-12 स्यचित्साधोराचार्यादिप्रयोजनादिना सचित्तेऽपि पथि व्रजतो गमनमनुज्ञायते, कारणिकत्वात् , नाकारणिकस्य, दृष्टान्तमाह'जहा रोगेत्ति यथा 'रोगे' ज्वरादौ परिपाचनभोजनादेः प्रतिषेधः क्रियते, जीर्णज्वरे तु तस्यैव विधिरित्यतः साधूच्यतेवस्त्वन्तरमाश्रित्य विधिः प्रतिषेधो वा विधीयते । अथवाऽन्यथा व्याख्यायते-इहोक्तं-'अखिलाः पदार्था आत्मनः संसार-12 हेतवो मोक्षहेतवश्च ततश्च न केवलं त एव यान्यपि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि तान्यपि संसारमोक्षयोः कारणानीति, तथा चाह-'एगतेण निसेहो.' एकान्तेन निषेधः सम्यग्दर्शनादिदानेषु तत्प्रख्यापकशास्त्रोपदेशेषु न दर्शितो विधिर्वा न दर्शित इति संटङ्कः, किन्तु 'दलिकं प्राप्य' पात्रविशेष प्राप्य कदाचिद्दीयते कदाचिन्न, एतदुक्तं भवति-प्रशमादिगुणान्वि-18 ताय दीयमानानि मोक्षाय, विपर्यये भवाय, तदाशातनात् , यथा ज्वरादौ तरुणे सत्यपथ्यं पश्चानु पथ्यमपि तदेव ।। अथै-18 कमेव वस्त्वासेव्यमानं बन्धाय मोक्षाय च कथं भवति , तदाह
जंमि निसेविजते अइआरो होज कस्सइ कयाइ । तेणेव य तस्स पुणो कथाइ सोही हवेजाहि ॥५६ ।।
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4-5
REmiratna
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
॥५६||
दीप
अनुक्रम [४]
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [१४]
→
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
८०
“निर्युक्ति: [ ५६ ] + भाष्यं [ ३४... ] + प्रक्षेपं [३...]" आगमसूत्र [४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
'यस्मिन् ' वस्तुनि कोधादौ निषेव्यमाणे 'अतिचारः स्खलना भवति 'कस्यचित्' साधोः 'कदाचित्' कस्याश्चिदवस्थायां 'तेनैव' क्रोधादिना तस्यैव पुनः कदाचिच्छुद्धिरपि भवेत्, चण्डरुद्रसाधोरिख, तेन हि रुषा स्वशिष्यो दण्डकेन ताडितः, तं च रुधिरार्द्रं दृष्ट्वा पश्चात्तापवान् संवृत्तः चिन्तयति च धिग्मां यस्यैवंविधः क्रोधः इति विशुद्धपरिणामस्यापूर्वी करणं क्षपकश्रेणिः केवलोदयः संवृत्त इति ॥ बाह्यं व्यापारमङ्गीकृत्य विसदृशतोक्ता, अथ बाह्योऽपि व्यापारो यथा बन्धहेतुर्न
स्यात्तथाऽऽह-
अणुमित्तोऽवि न कस्सई बंधो परवत्थुपचओ भणिओ । तहवि अ जयंति जहणो परिणामविसोहिमिच्छता ॥ ५७ ॥
'अणुमात्रोऽपि ' स्वल्पोऽपि बन्धो न कस्यचित् 'परवस्तुप्रत्ययाद्' बाह्यवस्तुनिमित्तात्सकाशाद् 'भणितः' उक्तः, किन्त्वात्मपरिणामादेवेत्यभिप्रायः । आह-यद्येवं न तर्हि पृथिव्यादियतना कार्या, उच्यते, यद्यपि बाह्यवस्तुनिमित्तो बन्धो न भवति तथाऽपि यलं विदधति पृथिव्यादौ मुनयः परिणामविशुद्धिं 'इच्छन्तः' अभिलषन्तः, एतदुक्तं भवति-यदि पृथिव्यादिकाययतना न विधीयते ततो नैवेयं स्यात्, यस्तु हिंसायां वर्त्तते तस्य परिणाम एव न शुद्धः, इत्याह
जो पुण हिंसायपणे वहई तस्स नणु परीणामो । दुट्ठो न य तं लिंगं होइ विसुद्धस्स जोगस्स ॥ ५८ ॥ यस्तु पुनः 'हिंसायतनेषु व्यापत्तिधामसु वर्त्तते तस्य ननु परिणामो दुष्ट एव भवति, न च तद्धिंसास्थानवर्त्तित्वं 'लिङ्गं' चिह्नं भवति 'विशुद्धयोगस्य' मनोवाक्कायरूपस्य ॥
तम्हा सया विसुद्ध परिणामं इच्छया सुविहिरणं । हिंसायपणा सर्वे परिहरियवा पयसेणं ॥ ५९ ॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९७] → "नियुक्ति: [१९] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५९||
दीप अनुक्रम [९७]]
श्रीओघ-18 तस्मात् 'सदा' अजस्रं विशुद्ध परिणाममिच्छता सुविहितेन, किं कर्त्तव्यं ?-हिंसायतनानि सर्वाणि वर्जनीयानि || विधिनिषेनियुक्ति प्रयलतः ॥ तथा च
धयोरनेद्रोणीया चज्जेमित्ति परिणओ संपत्तीए विमुचई वेरा । अविहितोऽवि न मुच्चइ किलिट्ठभावोत्ति वा तस्स ।। ६०॥ 15 कान्तता वृत्तिः K वर्जयाम्यहं प्राणिवधादीन्येवंपरिणतः सन् संप्राप्तावपि, कस्य ?-अतिपातस्य-प्राणिप्राणविनाशस्येत्युपरिष्टात्संबन्धः,
नि.५७-६० तथाऽपि विमुच्यते 'वैरात्' कर्मसंबन्धात् । यस्तु पुनः क्लिष्टपरिणामः सोऽव्यापादयत्नपि न मुच्यते वैरात् ॥ तदेवं गच्छ-18
ग्रामप्रवेश ॥३८॥
नि, ६१ तस्तस्य षट्काययतनादिको विधिरुक्तः, स इदानीं गच्छन् ग्रामादौ प्रविशति, तत्र का सामाचारी , तदर्शनार्थमुपक्रमते-15
पढमविझ्या गिलाणे तइए सपणी चउत्थ साहम्मी । पंचमियंमि अ वसही छठे ठाणहिओ होइ ॥६१ ॥ ट प्रथमद्वारे द्वितीयद्वारे च 'गिलाणे'त्ति ग्लानविषया यतना वक्तव्या, तृतीये द्वारे संजी-श्रावको वक्तव्यः, चतुर्थे द्वारे साधर्मिकः-साधुर्वक्तव्यः, पञ्चमे द्वारे वसतिर्वक्तव्या, पष्ठे द्वारे वर्षाकालप्रतिघातात्स्थानस्थितो भवति । आह-तृतीयद्वारे षडाधिकारा भविष्यन्ति, तद्यथा-"वइअग्गामे संखडि सण्णी दाणे अभद्दे अ"त्ति, ततश्च किमिति संजिन एव केवलस्य 8 ग्रहणमकारि, उच्यते, संज्ञिनोऽतिरिक्तो विधिर्वक्ष्यमाणो भविष्यति अस्यार्थस्य ज्ञापनार्थं संज्ञिग्रहणमेवाकरोत् , अथवा तुलादण्डमध्यग्रहणन्यायेन मध्यग्रहणे शेषाण्यपि गृहीतान्येव द्रष्टव्यानि, आह-मध्यमेवैतन्न भवति, यतः पडमूनि द्वाराणि, उच्यन्ते, नैतदेवं, यतः सप्तमं चशब्दाक्षिप्त महानिनादेति द्वारं भविष्यति, संज़िग्रहणेन मध्यमेव गृहीतमितीयं द्वारगाथा ॥२८॥ नन्वस्यातित्वरिताचार्यकार्यप्रसृतत्वात्कोऽवसरोग्रामादिप्रवेशनेन?, उच्यते, तत्प्रवेशेऽधिकतरगुणदर्शनात्, तथा चाह
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SAREnatant
IRamayan
ग्रामप्रवेश विधि:
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
॥६२॥
दीप
अनुक्रम [१०० ]
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २/१ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [१०० ] • → मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
“निर्युक्तिः [६२] + भाष्यं [ ३४... ] + प्रक्षेपं [३...]" ८० आगमसूत्र - [४१/१] मूल सूत्र -[२/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
एहि अपारत्तगुणा दुन्नि य पुच्छा दुबे य साहम्मी । तत्येकेका दुबिहा चउहा जयणा दुहेकेका ॥ ६२ ॥ तस्य तत्र ग्राम प्रविशत 'ऐहिका:' इहलोकगुणा भक्तपानादयो भवन्ति, परत्रगुणाश्च ग्लानादिप्रतिजागरणादिकाः, प्रविशतश्च तस्य द्विधा पृच्छा भवति सा च विध्यविधिलक्षणा वक्ष्यमाणा । साधर्मिकाश्च द्विधा - साम्भोगका अन्यसाम्भोगिकाश्च तत्रैकैको द्विविधः, योऽसौ साम्भोगिकः स च द्विविधः कदाचिदेकः कदाचिदनेकः, एवमन्यसांभोगिकेऽपि वाच्यं, 'चउहा जयण'त्ति चतुर्विधा यतना, साम्भोगिकसंयतयतना साम्भोगिकसंयतीयतना च, अण्णसंभोइयसंजयजयणा अण्णसंभोइयसंयतीजयणा चेति । 'तत्थेकेका दुविह त्ति तत्रैकेको भेदो द्विविधः-साम्भोगिकसंयताः- कारणिका निष्कारणिकाश्च, णवरं (एवं) संभोइयसंजइओवि । एवं असंभोइअसंजयावि संजइओघि । अथवाऽन्यथा-'दुवे य साहम्मित्ति संभोइआ असंभोइआ चेति । 'तत्येकेका दुविह'त्ति जे ते संभोइआ ते संजया संजयइओ अ, एवमसंभोइयावि, 'चउहा जयण'त्ति चडविहा जयणा कायचा दवादि ४, 'दुहेकेकरत्ति सा एकैका द्रव्यादियतना द्वेधा-तत्थ दवओ पढमं फासुएण कीरइ, तदभावे अफासुएणवि, खेत्ततो अकयाकारिआसंकप्पिए गिहे ठाइयवं तदभावे उद्घाटनं गृहस्य कपाटादेरपि क्रियते कालतः प्रथमपौरुष्यां प्रासुकं दीयते, अथ तस्यां न लभ्यते ततः कृत्वाऽपि दीयते । भावतः प्रासुकद्रव्यं शरीरस्य समाधानमाधीयते, तदभावे त्वप्रासुकैरपि । इयं द्वारगाथा महती, तत्रैहिकगुणद्वारप्रतिपादनायाह-पडिदारगाहाइहलोइआ पविती पासणया तेसि संखडी सहो । परलोइआ गिलाणे चेहय वाई य पडिणीए ॥ ६३ ॥ 'इहलोइअ'त्ति द्वारपरामर्शः, प्रविष्टस्य तस्यायं गुणो भवति - यानभिसन्धाय प्रवृत्तस्तदीयां कदाचित्तत्र वार्त्ता लभते
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१०१] .. "नियुक्ति: [६३] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६३||
श्रीओघ- नियुक्तिः द्रोणीया वृत्तिः
॥३९॥
दीप अनुक्रम [१०१]
यथा ततो निर्गत्यैतेऽधुनाऽमुकत्र तिष्ठन्तीति, एतदुक्तं भवति-मासकल्पपरिसमाप्ती ते कदाचित्तत्रैवायाताः स्युः, ततश्चैतेषां ग्रामप्रवेशः साधूनां पश्यत्ता-संदर्शनं भवतीति तत्रैव कार्यपरिसमाप्तिः स्यात् , तथा कदाचित्तत्र संखडी भवति, ततश्च भक्तं गृहीत्वा नि.६२-६३ बजतः कालक्षेपो (न) भवति, शीघ्रं चाभीष्टं ग्राम प्रामोति, तत्र वा प्रविष्टस्य श्राद्धः-श्रावकः कश्चिद्भवति, तद्गृहात्पर्युषितभक्त
| पृच्छा मादाय ब्रजति । एते प्रविष्टस्यैहिका गुणाः, अथेतरे 'परलोइआइति द्वारपरामर्शः, 'गिलाण'त्ति कदाचित्तत्र प्रविष्ट इदं वान
नि.६४-६५ शृणुयात् यदुतात्र ग्लान आस्ते, ततश्च परिपालन कार्य, परिपालने च कर्थन पारलौकिका गुणा इति, 'जो गिलाणं पडियरइ से में पडिअरति, जो मं पडिअरइ सो गिलाणं पडियरतित्ति वचनप्रामाण्यात् , कदाचिद्वा तत्र चैत्यायतनं भवेत् तद्वन्दने * पुण्यावाप्तिः स्यात्, वादी वा तत्पराजयश्च, प्रत्यनीको वा साध्वादेस्तत्र स्यात् तदर्शनाच्चासावुपशमं यायात्, एवंलब्धिसं-15 पन्नत्वात् । उक्तमहिकपारलौकिकगुणद्वारम् , अथ पृच्छाद्वारं, तत्र विधिपृच्छा अविधिपृच्छा च, अविधिपृच्छाद्वारमाह
अविही पुच्छा अत्थित्य संजया नथि तत्थ समणीओ।समणीसुअता नत्थी संकाय किसोरवडवाए ॥१४॥ BI अविधिपृच्छेयं, यदुतास्त्यत्र संयताः, ततोऽसौ पृच्छय एतां विशेषविषयां पृच्छां श्रुत्वाऽऽह-नास्त्यत्र संयताः, तत्र |
च श्रमण्यो विद्यन्ते तेन च ता न कथिताः, विशेषप्रश्नाकरणात् , 'समणीसु यत्ति अथ श्रमणीः पृच्छति ततोऽसावाह-न सन्त्यत्र ताः, तत्र च श्रमणाः सन्तीति प्राग्वत् । शङ्का च श्रमणीपृच्छायां स्यात्, 'किशोरवडवान्यायात्' । सहेसु चरिअकामो संका चारी य होइ सहीसुं। चेइयघरं व नस्थिह तम्हा उ विहीइ पुच्छेजा ॥६५॥ अथ श्रावकान् पृच्छति ततः परो विकल्पयति-चरितुकामोऽयं-भक्षयितुकामः, अथ 'सहीसुत्ति श्राविकाविषयायां
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१०३] → “नियुक्ति: [६५] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
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4-90-
गाथांक नि/भा/प्र ||६||
5455
पृच्छायां शङ्का स्यात् , नूनमयं तदर्थी चरितुकामश्च । अथ चैत्यगृहमेव केवलं पृच्छति, ततस्तदभावे वर्गचतुष्टयभावे च 8 तत्प्रभवगुणहानिः स्यात् , तस्माद्विधिना पृच्छेत् । तत्प्रतिपादनायाह
गामदुवारम्भासे अगडसमीवे महाणमझे वा । पुच्छेज्ज सयं पक्खा विआलणे तस्स परिकहणा ॥६६॥ | ग्रामद्वारे-ग्रामस्य निष्काशप्रवेशे स्थित्वा पृच्छेत् , अथवा 'अब्भासेत्ति ग्रामाभ्यणे कूपसमीपे वा महाजनस्य समुदाये वा, के ?-स्वक पक्ष, किमत्रास्मत्पक्षोऽस्ति नेति !, यदि परोऽजानन् पृच्छति-को भवता स्वपक्षः इत्येवंविचारणे ततस्तस्याग्रे साधोः परिकथना स्थात्, पञ्चविधोऽस्मत्पक्ष:- चैत्यगृहादि । उक्तं पृच्छाद्वारम् । ततः पृच्छासमनन्तरं यदि चैत्य-12 x गृहमस्ति ततस्तस्मिन्नेव गन्तव्यं, तत्र च कथं गन्तव्यम् , उच्यते
निस्संकि थूभाइसु काउं गच्छेज चेइअघरं तु । पच्छा साहुसमी तेऽवि अ संभोइया तस्स ॥१७॥ | पुबद्धं, कंठं । अथ साहम्मिअद्वारमाह-पच्छा साहुसमीति चैत्यगृहानिर्गत्य पश्चात्साधुसमीपं याति, 'तेऽपि' साधवः साम्भोगिकाः 'तस्य' साधो, चशब्दादन्यसाम्भोगिका वा । तत्र यदि साम्भोगिकास्ततः का सामाचारी १, इत्याहनिक्खिविउं किइकम्मं दीवणऽणावाह पुच्छण सहाओगेलण्ण विसज्जणया अविसज्जवएस दावणया ॥१८॥ I 'निक्षिष्य' विमुच्य साधुहस्ते, किम् ?, उपकरण-पात्रकादि, ततः 'कृतिकर्म' बन्दनं करोति, ततश्च 'दीवणति आग- मनकार्याविर्भावनं करोति 'अणाबाहित्ति, अनाबाधा यूयम् ?, एवं पृष्टे सति तेऽष्याहुः-अनाबाधा वयमिति । 'पुच्छण'त्ति ततः साधुरेषमाह-भवद्दर्शनार्थमहं प्रविष्टो ग्राममिदानी व्रजामीत्येवं पृच्छति, ततस्तेऽपि साधवो यद्यस्ति सहायतं दत्वा
दीप अनुक्रम [१०३]
पनी
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१०६] .. "नियुक्ति: [६८] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र
||६८||
श्रीओघ- प्रेषयन्ति, अथ तत्र कश्चिद् ग्लानस्तत एवं ब्रवीति-अहमेनं ग्लानं परिचरामीति, ततस्तेऽप्यार-विद्यन्त एव परिचारकाः पृच्छा नियुक्ति एवमभिधाय 'विसजणन्ति तं साधु 'विसर्जयन्ति' प्रेषयन्ति वयमेव भलिष्याम इति । अथ न विसर्जयन्ति, एतच्च अवते-18 नि.६६ द्रोणीया सर्वमन्त्र ग्लानप्रायोग्यमौषधादि लभ्यते, किन्तु तत्संयोजनां न जानीमः, ततः स उपदेश ददाति-इदमौषधमनेन संयोज्य |
प्रवेश वृत्तिः
नि.६७ देयमिति, अथ त एवं बुवते-औषधान्येवान वयं न लभामहे ततः स साधुर्दापयत्यौपधानि, याचयति वा पाठान्तरं, एव-10
ग्लानवैया॥४०॥ मसाबौषधानि दापयित्वा नजति, अथ त एवमाहुः-औषधसंयोजनां न जानीमो न च लभामहे, तत एष साधुरीपधानि |
वृत्त्यं याचित्वा संयोज्य ग्लानाय दत्त्वा मनाक् प्रशान्ते ज्याधौ सति प्रजति । अथ त एचमाहुर्गच्छन्तं साधुम्
नि.६८-७० पुणरवि अपंखुभिजा अयाणगा मोस वा भणिज संचिक्खे। उभओऽवि अयाणंता वेळ पुच्छंति जयणाए ॥३९॥
पुनरप्ययं व्याधिः क्षोभ यायात्-प्रकुप्येत् , वयं च न जानीम उपशमयितुं, स च ग्लान एवं यात्-त्वया तिष्ठता अह-181 मचिरात्प्रगुणीभवामि, ततः 'संचिक्खेत्ति सतिष्ठति । अथोभावपि तावागन्तुकवास्तव्यौ न जानीतः क्रियां कर्तुं, तत। | उभावपि अजानन्ती वैद्य पृच्छता, कथं ?-'यतनया' अनन्तरगाथावक्ष्यमाणयेति । सा चैवम्
गमणे पमाण उवगरण सउण वाचार ठाण उवएसो। आणण गंधुदगाई उहमणुढे अजे दोसा ॥ ७० ॥ यदि ग्लानो गन्तुं पारयति तत उत्सर्गेण स एव नीयते, अथ न पारयति ततोऽन्ये साधवो वैद्यसकाशे गमनं कुर्वन्ति,
॥४०॥ कापमाणे'त्ति कियत्प्रमाणैर्गन्तव्यं, तत्रैकेन न गन्तव्यं यमदण्डपरिकल्पनात्, न द्वौ यमपुरुषपरिकल्पनात्, न चत्वारो
वाहीकपरिकल्पनात्, अतस्त्रिपञ्चसप्तभिर्गन्तव्यं, उक्त प्रमाण, 'उवगरणेत्ति शुक्लवासोभिर्यातव्यं, न कृष्णमलिनादिभिर्या
दीप अनुक्रम [१०६]
Saintairaton
'ग्लान-वैयावच्च' संबंधी सामाचारी
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१०८] - "नियुक्ति: [७०] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र
||७०||
तव्य, उक्तमुपकरण, 'सउण'त्ति शकुनेषु सत्सु गन्तव्यं, ते चामी 'नन्दीतूर मित्यादयः, अपशकुनेषु न गन्तव्यं, ते चैते| मइलकुचेलादयः, उक्तं शकुनद्वारं, 'वावार'त्ति यद्यसौ वैद्यो भुले एकल्लशाटको वा छिन्दन् किश्चिदास्ते भिन्दन्वा ततो न प्रष्टव्यः, अथ ग्लानस्यापि गण्डकादि छेत्तन्यं ततोऽस्मिन्नैव प्रष्टव्यः, उक्तो व्यापारः, 'ठाण'त्ति यद्युत्कुरुटिकादौ तुषराश्यादी स्थितस्ततो न प्रष्टव्यः, किं तर्हि १, शुचिप्रदेशे स्थित इति, उक्तं स्थानं, "उवएस'त्ति एवमसौ यतनया पृष्टो यमुपदेशं ददाति-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च सोऽवधारणीयः, तत्र द्रव्यतः शाल्योदनं पारिहट्ट च खीर क्षेत्रतो निर्वाता वसतिः कालतः पौरुष्यां देयं भावतो नास्थ प्रतिकूलव्यवहारिभिर्भाव्यं, उक्त उपदेशः, अथ स वैद्य एवं यात्-पश्यामि | तावत्तमिति, ततः स वैद्यस्तत्समीपमानीयते, न च ग्लानस्तत्र नेयः, किं कारणं ?, वैद्यसमीपे नीयमाने उत्क्षिप्ते लोकः कदाचिदेवं यात्-यथा नूनमयं मृत इत्यपशकुनः, मूर्छा वा भवेद्विपत्तिा धैद्यगृहे स्यादिति, आगच्छति च वैद्ये किं कर्त्तव्यं ?,15 गन्धोदकादिभिर्गन्धवासाः सन्निहिताः क्रियन्ते, तद्दानार्धमुदकमृत्तिकया विलेपनादि क्रियते । वैद्ये चागच्छति सूरिणा किं कर्त्तव्यमित्याह-'उडमणुढे अ जे दोसत्ति यद्यसावाचार्यो वैद्यस्यागतस्योत्तिष्ठति ततो लाघवदोषः, अश्रू नाभ्युद्गतिमादत्ते ततः स्तब्ध इतिकृत्वा कोपं गृहीत्वा प्रतिकूलः स्यात् , तस्मादेतद्दोषपरिजिहीर्षयाऽनागतमेवोत्थाय प्राङ्गणे परिष्वकमाणस्तिष्ठतीति । उक्तमुत्थितानुत्थितद्वारं, कियन्तं पुनः कालं तेन साधुना तस्य ग्लानस्य परिचरणं कर्तव्यमित्याह
पढमापियारजोगं नाउँ गच्छे बिइजए दिपणे । एमेव अण्णसंभोइयाण अण्णाइ वसहीए ॥ १॥ 'पढमत्ति यावत् प्रथमालिकां करोति तां चात्मनः स्वयमेवानयितुं समर्थः संवृत्तः, 'वियारजोग्ग'ति बहिभूमिगमनयोग्यो
दीप अनुक्रम [१०८]
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
॥७९॥
दीप
अनुक्रम
[१०९ ]
श्री ओघनिर्युक्तिः द्रोणीया वृत्तिः
॥ ४१ ॥
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २/१ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [ १०९ ] ● → मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
“निर्युक्तिः [७१] + भाष्यं [ ३४... ] + प्रक्षेपं [३...]" ८० आगमसूत्र [४१/१], मूल सूत्र -[२/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
जात इति, एवं ज्ञात्वा गच्छेत् कथं १, द्वितीये सहाये दत्ते सति, अथ नास्ति सहायस्तत एक एव ब्रजति । एष तावत्साम्भोगिकान् प्राप्य विधिरुक्तः, इदानीमसाम्भोगिकविधिमतिदिशन्नाह एवमेवान्यसाम्भोगिकग्लानस्य विधिः, किन्तु 'अण्णाए वसहीए सि अन्यस्यां वसतौ व्यवस्थितेन ग्लानपरिचरणाविधिः कार्यः, अयमपरो विशेषः - असाम्भोगिकसकाशं प्रविशता तदनाक्रान्ते भूप्रदेशे निक्षिप्योपकरणं ततः कृतिकर्मादि साम्भोगिकेष्विव सर्व कर्त्तव्यमिति, तदनाक्रान्तभूभागे चोपकरणं स्थापयति, मा भूच्छिक्षकाणां तत्सामाचारीदर्शनेऽन्यथाभावः स्यादिति । एवं तावत्साम्भोगिकबहुमध्यगतस्य ग्ठानस्य विधिः, अन्यसाम्भोगिक बहुमध्यगतस्याप्येष एव विधिर्दृश्यः । इदानीमेकैकस्य साम्भोगिकस्येतरस्य च विधिमाहएगागि गिलाणंमि उ सिट्टे किं कीरई ? न कीरई वावि। छगमुत्तकहणपाणमधुषणत्थर तस्स नियगं वा ॥ ७२ ॥
एवमसी गच्छन् ग्रामाभ्यासे कस्मादपि पुरुषादिदं शृणुयात् किं भवता ग्ठानप्रतिजागरणं क्रियते उत न ?, ततश्चैषमेकाकिनि ग्लाने 'शिष्टे' कथिते सति क्रियते न क्रियते? इत्युक्ते परेण सति साधुरप्याह- सुष्ठु क्रियते, पर आह-यद्येवं 'छगमुराकहणत्ति छगं पुरीषं मूत्रं प्रतीतं, ताभ्यां विलिप्त आस्ते, एवं कथिते सति स साधुर्षहिर्भूमेरेव 'पाणग' त्ति पानकं गृहीत्वा प्रविशति, प्रविष्टश्च 'धुवण'त्ति 'तस्य' ग्लानस्य धावनं करोति प्रक्षालनं विदधाति, उपधिश्च 'अत्थरण' सि आस्तरणं करोति 'तस्स'त्ति तदीयैरेव चीवरैः, अथ तस्यान्यानि न सन्ति ततः 'नियगं वत्ति निजैरेव चीवरैरास्तरणं करोतीति । तथा चाहसारवणं साहलय पागडघुवणे सुई समायारा । अइविंभले समाही सहुस्स आसासपडिअरणं ॥ ७३ ॥ सारवणं निष्क्रियं तस्मिन् निष्क्रिये ग्लाने कृते सति, अथवा 'सारवणे'त्ति संमार्जिते प्रतिश्रये ग्लानसंबन्धिनि सति
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वैयावृत्त्यं नि. ७१-७३
॥ ४१ ॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१११] .. "नियुक्ति: [७३] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||७३||
परः पृच्छति-तवायं केन संबन्धेन संबद्ध इति, साधुराह, कत्थई कहिंचि जाता, एवमादि, ततः पर आह-'साहलय'त्ति, सफलता धर्मस्य, यददृष्टेऽपि परमबन्धाविव क्रिया क्रियते, 'पायडधुवणे'त्ति प्रकटं ग्लानस्योपधेर्वा क्षालनं कर्त्तव्यं, प्रकट-15 क्षालने च लोक एवमाह, शुचिसमाचारा एते श्रमणा इति, अथासौ ग्लानोऽतिविह्वलः स्याद्-अतीव दुःखेन करालितः | स्यात्ततः 'समाहि'त्ति यथा प्रार्थितं भोजनादि दातव्यं येन स्वस्थचित्तो भवति, स्वस्थीभूतश्चाभिधीयते-यथाकालं कुरुवेति । अथासौ सहा-समर्थस्ततश्चाश्चास्यते-न भेतव्यं अहं त्वां प्रतिजागरामीति । ततश्च
सयमेव दिट्टपाढी करेद पुच्छह अयाणओ वेज । दीवण दवाईमि अ उबएसो जाव लंभो उ॥७४ ॥ यद्यसौ साधुः 'दृष्टपाठी' दृष्टः-उपलब्धश्चरकसुश्रुतादिर्येन स दृष्टपाठी, अथवा 'दिहात्ति वैद्यवदृष्टक्रियः क्रियाकुशलः, पाठीति सकलं वाहडादि पठति स एवंविधः स्वयमेव क्रियां करोति । अथासौ दृष्टपाठी न भवति ततः पृच्छति अज्ञः
सन् वैद्य, 'दीवण'त्ति वैद्यशाला गतः प्रकाशयति, यदुताह कारणेनैककः संजातः, अतो निमित्तं न ग्राह्य, 'दषादिमि यत्ति दाव्यादिचतुष्टयोपदेशे सति तत्र द्रव्यतः प्रासुकमप्रासुकं वा क्षेत्रतः क्रीतकडा अक्रीतकडा वा वसही, कालतः प्रथमपी-| | रुष्यामुपदिष्टं तस्यां च यदा प्रासुकं न लभ्यते तदाऽमासुकमपि क्रियते, भावतः समाधिः कर्तव्या प्रासुकामासुकैरिति ॥
कारणि हट्टपेसे गमणणुलोमेण नेण सह गच्छे । निकारणि खरंटण विइज संघाडए गमणं ॥७॥ ___ एवमसी ग्लानो यदि कारणिको भवति, ततः 'हह'त्ति दृढीभूतः 'पेसेत्ति प्रेषणीयः, अथ ग्लानस्याप्यनुकूलमेव गन्तव्यं भवति ततः 'गमणणुलोमेण' हेतुना तेन ग्लानेन सह गच्छेत् , उक्तः साम्भोगिकः ग्लान एका कारणिका, असाम्भोगिकः
दीप अनुक्रम [१११]
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||७५||
दीप
अनुक्रम [११३]
श्रीओषनियुक्ति: द्रोणीया
वृत्ति :
॥ ४२ ॥
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २/१ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [११३] ● → मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
“निर्युक्तिः [७५] + भाष्यं [ ३४... ] + प्रक्षेपं [३...]" ८० आगमसूत्र - [४१/१] मूल सूत्र -[२/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
ग्लाने कारणिक एकोऽप्येवमेव द्रष्टव्य इति । अथ निष्कारणिक एको ग्लान इति ततः 'निकारणिअ खरंटण'त्ति निष्कारणिकस्य ग्लानस्य खरण्टणा-प्रवचनोपदेशपूर्वकं परुषभणनमिति, खरण्टितश्च द्वितीय आत्मनः क्रियत इति । ततश्चैवं सङ्घाटके सति 'गमण'त्ति गमनं कर्त्तव्यमिति । साम्भोगिकासाम्भोगिकसंयत एकानेककारणिकनिष्कारणिकयतनोक्ता, | इदानीं साम्भोगिकासाम्भोगिकसंयतीनामेकानेककारणिकीनिष्कारणिक्यादीनां यतना प्रतिपाद्यते-अथ विधिपृच्छया पृष्टे सति तत्र संयत्यः स्युः, ततः को विधिः । इत्याह
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समणपबेसि निसीहिअ दुवारवजण अदिपरिकहणं । थेरीतरुणिविभासा निमंतऽणाबाहपुच्छा य ॥ ७६ ॥ श्रमणीप्रतिश्रयप्रवेशे सति वहिः स्थितेनैव निषेधिकी कर्त्तव्या वारत्रयं-द्वारे मध्ये प्रवेशे च प्रविष्टश्च तथा 'दुवारवजण' त्ति द्वारं प्रतिहत्य एकस्मिन् प्रदेशे तिष्ठति, अथ निषीधिकायां कृतायामपि स्वाध्यायव्यावृताभिर्न दृष्टस्ततः परिकथनं कर्त्तव्यं साधुरागत इति, ततः परिकथिते सति साध्वीभिर्निर्गन्तव्यं, तत्र को विधिः १, 'थेरीतरुणविभास'त्ति याऽसौ प्रवर्तिनी सा कदाचित्स्थविरा भवति कदाचिच्च तरुणी, ततो 'विभाषा' विकल्पना, तत्र यदि स्थविरी निर्गच्छति तत आत्मद्वितीयाऽऽत्मतृतीया वा, अथ तरुणी ततः स्थविरीभिस्तिसृभिश्चतसृभिश्च निर्गच्छति, ततस्तास्तमासनेन निमन्त्रयन्ति, उपवेशयति, सोऽप्युपविश्य पृच्छति न काचिद्भवतीनामाबाधेति ॥
सिसि सह पडिणीयनिग्गहं अहव अण्णर्हि पेसे । उवएसो दावण्या गेलन्ने वेज्जपुच्छा अ ॥ ७७ ॥ ततस्ताः कथयन्ति अस्त्याबाधा इति, एवं 'शिष्टे' कथिते सति यद्यसौ 'सङ्घः' समर्थस्ततः प्रत्यनीकनिग्रहं करोति, अथ
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वैयावृत्यं नि. ७४-७७
॥ ४२ ॥
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
॥७७॥
दीप
अनुक्रम
[११५]
भो०८
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २/१ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [११५] ● → मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
८०
"निर्युक्तिः [७७] + भाष्यं [ ३४... ] + प्रक्षेपं [३...]" आगमसूत्र [४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
निग्रहसमर्थो न भवति ततोऽन्यत्र प्रेषयति, अथ तत्र काचिद् ग्लाना तत उपदेशं ददाति, एवमेतदौषधादि दातव्यमस्याः । अथ तास्तन्न लभन्ते ततः 'दावण'त्ति असावेव दापयति, ग्लानत्वे सत्ययं विधिः । अथासौ स्वयं न जानाति औषधादि दातुं ततो वैद्यं पृच्छति ॥
तह चैव दीवण चक्करण अम्नत्थवसहि जा पदमा । तह चेवेगाणीए आगाढे चिलिमिली नवरं ॥ ७८ ॥ कथं वै पृच्छति ?, 'तथैव' प्राग्वत् 'दीवण'त्ति प्रकाशनं कारणिकोऽहमेकाकी नापशकुनबुद्ध्या ग्राह्यः, 'चउकएणं'ति वैद्येन द्रव्यादिचतुष्के कथिते सति यतना पूर्ववत्कर्त्तव्या, 'अण्णत्थवसहि'त्ति अन्यवसतिव्यवस्थितेन प्रतिजागरणं कर्त्तव्यं, कियन्तं कालं यावदत आह-'जा पढमा' यावत्प्रथमालिका नयनक्षमा संवृत्तेति ततो गच्छति । एवं तावद्वहूनां मध्ये एकस्या ग्लानविधिरुक्तः, इदानीमेकाकिन्या ग्लानविधिमतिदिशन्नाह 'तह चेवेगाणीए' 'तथैव' प्राग्वदेकाकिन्या ग्लानायाः प्रतिचरणविधिः, एतावांस्तु विशेषः यदुतागाढे अतीवापटुतायामेकस्मिन्नाश्रये 'चिलमिलि त्ति यवनिकाव्यवधानं कृत्वा नवरंकेवलं प्रतिचरणमसौ करोति ॥
निक्कारणिअं चमरण कारणिअं नेह अहव अप्पा हे। गमणित्थि मीससंबंधिवज्जए असइ एगागी ॥ ७९ ॥ यदि निष्कारणिकाऽसौ भवति ततः 'चमढण'त्ति प्रवचनोक्तेर्वचनैः खिंसनं करोति, अथासौ कारणिका ततस्तां स्वयमेव नयति, 'अहव अप्पाहे'त्ति अथवा तद्गुरोस्तत्प्रवर्त्तिन्या वा एवं संदिशति यथैतामात्मसकाशे कुरुत, स्वयं च नयतः को विधिरत आह-'गमणित्थिमीस संबंधिवज्जए असइ एगागी' गमणं कायवं इत्थीहिं सह, ताओवि जर संबंधिणीओ होंति,
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [११७] - "नियुक्ति: [७९] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||७९||
श्रीओघ- तदभावे मीसेहि-इत्यौपुरिसहिं संबंधीहिं सह गन्तवं, तदभावे असंबंधिणीहिं इत्थीहि, तदभावे पुरिसित्थिमीसेणं (अ)संबंधेणं, नियुक्तिः तदभावे संबंधिपुरिसेहि, तदभावे असंबंधिपुरिसेहि, तदभावे-असंबंधे वर्जिते असति अन्नस्स उवायस्स एगागिाणं णेति ||
हानि.७९-८० द्रोणीया
इदानी चतुर्डामप्युक्तयतनामुपसंजिहीर्घराहवृत्तिः
एगबहसमणुण्णाण वसहीए जो अ एगअमणुनो । अमणुन संजईण य अण्णहि एकं चिलिमिलीए ॥८॥ ॥४३॥
एतदुक्तं भवति-एगो समणुनो जे अ बहू समणुन्ना जो अएगो असमणुन्नो एयाणं एगाए चेव वसहीए पडियरणं कायवं, 'अमणुण्ण'त्ति जे अ बहू अमणुना संजया तेसिं ण एकाए बसहीए ठितेहिं पडियरणं कायबं 'संजईण यत्ति संजईण य संभोइयाणं अण्णसंभोइयाण य बहूर्ण अण्णाए वसहीए ठिओ पडियरद्द । 'एक ति एका पुनर्लानामाश्रित्य 'चिलिमिलीए। यवनिकाव्यवधानं कृत्वा एकस्यामेव वसती प्रतिजागरणं करोति । द्रव्यादियतना च सर्वत्रानुगता द्रष्टव्या । "एहिअपारत्तगुणा दोणि अ पुच्छा दुवे अ साहम्मी'त्यादि प्रतिद्वारगाथा व्याख्याता, तद्व्याख्यानाच्च व्याख्यातं पढमगिलाण दुवारं । अथ द्वितीयग्लानप्रतिपादनायाहविहिपुच्छाएँ पवेसो सपिणकुले चेइ पुच्छसाहम्मी । अन्नस्थ अत्थि इह ते गिलाणकज्जे अहिवहंति ॥ ८१॥ ता एवं तस्य ब्रजतः पूर्ववद्विधिपृच्छायां सत्यां परेणाख्यातं, यदुतास्ति श्रावकस्ततः 'पवेसो'त्ति प्रवेशं करोति, क्व-सन्जि*कुले 'चेइय'त्ति यदि तस्मिन् सज्ञिकुले चैत्यानि ततस्तद्वन्दनां करोति । ततः 'पुच्छत्ति पृच्छति तान् श्रावकान्-शोभना
यूर्य शीलवतैः १, 'हया पुच्छा साहम्मित्ति साधुस्तत्र प्रविष्टः पृच्छति-किमिह साधर्मिकाः सन्ति उतन, तत्राह
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [११९] - "नियुक्ति: [८१] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||८१||
श्रावक:-'अन्नस्थ अत्थि' अन्यत्र-आसन्नग्रामे विद्यन्ते, ते चेह 'ग्लानकार्ये ग्लाननिमित्तं 'अहिवडंति' आगच्छन्ति प्रायोग्यभक्तादिग्रहणार्थमिति । ततश्च स साधुस्तस्माद्ब्रजति, ब्रजन्तं वा साधुं भोजनादिनाऽऽमन्त्रयति श्रावकः-भगवन् ! प्रथमालिकामादाय व्रज ॥ एवं चाभिहितः स किं करोतीत्याह| सपि न घेत्तवं निमंतणे जं तर्हि गिलाणस्स । कारणि तस्स य तुज्झ य विउलं दवं तु पाउग्गं ।। ८२॥ I 'सर्व' अशेष प्रायोग्यमप्रायोग्यं वा न ग्राह्यं श्रावकनिमन्त्रणे सति, 'जं तहिं गिलाणस्सत्ति यस्मात्तत्र ग्लानस्य गृह्यते | x अतो न ग्राह्यम् , ततः श्रावकः पुनरप्याह-कारणि तस्स य तुज्झ य विउलं दर्ष तु पाजग्गं'ति, 'तस्य' ग्लानस्य 'कारणे|४ ग्लाननिमित्तं तव च कारणे तव निमित्त 'विपुलं' प्रभूतं द्रव्यं शाल्योदनादि प्रायोग्यमस्त्यतो गृह्यतामिति । ततश्चासौ श्रावकस्योपरोधेन गृहीत्वा ब्रजति । जाएँ दिसाएँ गिलाणो ताऍ दिसाएँ उ होइ पडियरणा। पुखभणि गिलाणो पंचण्हवि होइ जयणाए ॥८३॥ __यया दिशा ग्लानस्तिष्ठति तया दिशा 'पडिअरणत्ति प्रतिपालनां करोति साधूनां, अथवा 'पडिअरणत्ति निरूवर्ण-आलो-8 चनं तस्य श्रावकदानस्य करोति, तञ्च परीक्षणं ग्लानप्रतिचारकसाधुदर्शने सति भवति अत उक्त-यया दिशा ग्लानस्तया दिशा 'पडिअरणं ति पुवभणि 'गिलाणे'त्ति पूर्वभणितो ग्लानविषयो विधिद्रष्टव्यः साम्भोगिकासाम्भोगिकस्य ग्लानस्य, किमस्यैव प्रतिचरण कर्त्तव्यं ?, नेत्याह-पंचण्हवि होति जयणाए' पञ्चानामपि-पासत्थोसण्णकुसीलसंसत्तणितिआणं|
दीप अनुक्रम [११९]
GADBACKAGACASS
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१२१] → “नियुक्ति: [८३] + भाष्यं [३५] + प्रक्षेपं [३...]" .. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
S
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||८||
दीप अनुक्रम [१२१]
श्रीओष- यतनया-प्रासुकान्नपानेन कर्त्तव्यं प्रतिजागरणमिति, अपिशब्दान्निहवका देवकुलप्रतिपालकाश्च गृह्यन्ते । इयं नियुक्तिगाथा, वैयावृत्त्व नियुक्तिः एतां च भाष्यकृद्व्याख्यानयन्नाह
नि.८२-८३ तेसि पडिच्छण पुच्छण मुहुकयं अधि नस्थि वा लंभो।खग्गूडे विलोलणदाणमणिच्छे तहिं नयणं ॥३५॥ (भा)
वैयावृत्त्यवृत्तिः | 'तेसि पडिच्छण'त्ति तेषां ग्लानप्रतिजागरकसाधूनां प्रतिपालनां करोति, यया दिशा ते साधव आगच्छन्ति, 'पुच्छणत्ति
विधिःभा.
३५-३६ ॥ ततस्तान साधून दृष्ट्वा पृच्छति-एतन्ममामुकेन श्रावकेण दत्तं यदि ग्लानप्रायोग्य ततो गृह्यतामिति, एवमुक्ते तेऽप्याहुः 'सुद्धकय.
अत्थिति सुष्ठ कृतं श्रावकेण अस्ति ग्लानप्रायोग्यं तत्रान्यदपि त्वमेवेदं गृहाण, 'नस्थि बत्ति अथवा एवं भणन्ति-नास्ति | 2 तत्रेदं द्रव्यं किन्त्वन्यत्र लाभो भविष्यति, त्वमेव गृहाणेदम् । अथ ते 'खम्गूडित्ति निधर्मप्रायास्तत एवमाहुः "विडओ-18
लण'त्ति धाडिरेव निपतिता ततस्तद्रव्यं साधुः सकलं ददाति-समर्पयति, तेऽपि च रुपा नेच्छन्ति ग्रहीतुं, ततश्चासौ का'नयणति ग्लानसमीपे तस्य द्रव्यस्य नयनं करोति ॥ इदानीं यद्यसौ समर्थस्ततश्च गच्छत्येव, अधासमर्थस्ततः
पंतं असह करिता निवेयर्ण गहण अहव समणुना। खरगूड देहितं चिभ कमढग तस्सप्पणो पाए ॥३६॥ (भा०) दिन 'प्रान्त' नीरसमायं 'असहू' असमर्थः-क्षुत्पीडितः 'करेत्ता' अभ्यवहत्य ब्रजति । ततश्च तत्र प्राप्तः सन् निवेदनं करोत्या
|चार्याय, सोऽप्याचार्यों ग्लानार्थं 'गहण'त्ति ग्रहणं करोति, कस्य ?, द्रव्यस्य, अथवा 'समणुण्ण'त्ति तस्यैव साधोरनुज्ञां ॥४४॥ करोति, यदुत-भक्षयेदं, ग्लानस्यान्यदपि भविष्यति । अथासावाचार्यः 'खग्गूडो' शठमायो भवेत्तत इदं वक्ति-'देहि त18 |चि' त्वमेव ग्लानाय प्रयच्छ, किं ममानेन, एवं चोक्तस्तेनाचार्येण गत्वा ग्लानसमीपं 'कमढग तस्स'त्ति तदीयके कम
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१२२] → “नियुक्ति: [८३...] + भाष्यं [३६] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||३६||
CHECSCkCRACK
ढके ददाति, अथ तस्य तन्नास्ति, ततः 'अप्पणो पाए' आत्मीये पात्र एव ददाति, ततश्च पुनरप्याचार्यसमीपं ब्रजति, गत्वा इदं ब्रवीतिकिंकीरउ ? जाणसि अतरंति सदेत्ति वच्च तं भंते! निद्धम्मान करेंती करणमणालोइयसहाओ ॥३७॥ (भा०) 81 हे आचार्य ! ग्लानस्य किमन्यत्क्रियते ?, आचार्योऽप्याह-जं जाणसित्ति यजानासि तदेव कुरु, पुनश्चासौ ग्लानस
मीपं गच्छति, 'अतरतो'त्ति ग्लानोऽपि बक्ति-भगवन् ! शठास्ते य एवं त्वां खलीकुर्वन्ति, ब्रज भदन्त ! अस्ति में परिचाभरकाः, एवं चोक्के व्रजति । 'निम्मा न करेंती' अथासौ ग्लान एवमाह-यदुतैते निर्द्धर्मा मम न परिचेष्टां कुर्वन्ति, तत
चासौ साधुः 'करण'ति वैयावृत्य करोति, पुनश्चासौ साधुस्तं ग्लानसमीपमेवं ब्रवीति-'अणालोइय'त्ति अमीषां निर्माणां मध्येऽनालोचिताप्रतिक्रान्तं कथश्चिदेव त्वं नष्ट इति, अत एवमभिधाय तमात्मसहायं कृत्वा प्रयाति ॥ यदा तु पुनःउभओ निम्ममुं फासुपडोआर इयरपडिसेहो। परिमिअदाण विसजण सच्छंदोद्धंसणागमणं ।। ३८ ॥ (भा०) I 'उभो निखम्मेसु' इति यदा ग्लानः शेषसाधवश्च निर्धास्तदा कथं परिचरणां करोतीत्याह-'फासुपडोआर' प्रासुके-13 नानपानेन परिपालनं करोति 'इतर' इति अमासुकं तस्य निषेधः, तेन न क्रियां करोतीत्यर्थः । 'परिमिअदाण'त्ति परिमित-स्वल्पं ददाति येनासौ निविण्णः प्रेषयति, ततः 'विसज्जण'त्ति निर्विण्णः सन् विसर्जयति, गच्छंश्च स साधुः 'सच्छंदो
सण'त्ति सच्छन्दस्त्वमित्येवं 'उद्धंसनां' उडुलनाम्-आक्रोशं करोति, ततो 'गमण ति गच्छति । परियरणा वक्खाणिआ, |'पुषभणिों गिलाणे'त्ति एतदपि व्याख्यातम् । अथ 'पंचण्हवि होति जयणाए'त्ति, एतत्पदं व्याचिख्यासुराह
दीप अनुक्रम [१२२]
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||३९||
दीप
अनुक्रम [१२६]
श्रीओष
निर्युक्तिः
द्रोणीया
वृत्तिः
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २/१ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
“निर्युक्तिः [८३] + भाष्यं [३९] + प्रक्षेपं [३...]"
८०
आगमसूत्र [४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
एस गमो पंचण्हवि होइ निवारण गिलाणपडियरणे ।
फासुअकरणनिकायण कहण पडिक्कामणागमणं ॥ ३९ ॥ ( भा० )
॥ ४५ ॥
'एष गमः' एष परिचरणविधिः 'पंचण्हवि' पञ्चानामपि, केपामत आह- 'नियाईणं' आदिशब्दात् पासत्थोसणकुसी४ लसंसत्ताणं, 'गिलाणपडिअरणे'त्ति ग्लानप्रतिचरणे एष विधि:- 'फामुअकरण'त्ति यदुत प्रासुकेन भक्तादिना प्रतिचरणं कार्य, 'निकायण'त्ति निकाचनं करोति, यदुत दृढीभूतेन त्वया यदहं ब्रवीमि तत्कर्त्तव्यम्, 'कहण'त्ति धर्मकथाया, यद्वा * 'कहण'ति लोकस्य कथयति किमस्य प्रत्रजितस्य शक्यतेऽशुद्धेन कर्तुम् । 'पडिकामण'त्ति यद्यसौ ग्लानः प्रतिक्रामति तस्मात्स्थानान्निवर्त्तत इतियावत् ततः स्थानात् 'गमण'ति तं ग्लानं गृहीत्वा गमनं करोति ॥ अथ यदुक्तं 'पंचण्हवि होति जयणाए ति अत्रापिशब्द आस्ते तदर्थमादर्शयन्नाह
Jan Educator
मूलं [ १२६] ● →
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
संभावणेsविसो देउलिअखरंटयजयण उवएसो ।
अविसेस निण्हगाणवि न एस अम्हं तओ गमणं ॥ ४० ॥ भा० )
संभावनेऽपिशब्दः, किं संभावयति ?-'देउलिअ'त्ति देवकुलपरिपालका वेपमात्रधारिणस्तेऽपि ग्लानाः सन्तः परिचरणीयाः, 'खरंटण'त्ति तेषां देवकुलिकानां खिंसनां करोति, यदुत धर्मे उद्यर्म कुरुत, 'जयण'ति यतनया कर्त्तव्यं यथा संयमलाञ्छना न स्यात् । 'उवएसो'त्ति उपदेशं च क्रियाविषयं ददाति । 'अविसेस'त्ति, न यस्मिन् विषये साधुनिहावकविशेषो ज्ञायते तस्मिन् 'निण्हगाणंपि' निण्हावकानामपि यतनया परिचरणं करोति । अथ निह्वकग्लान एवं ब्रूयात् 'न
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वैयावृत्यविधिः भा. ३७-४०
॥ ४५ ॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१२७] → “नियुक्ति: [८३...] + भाष्यं [४०] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||४०||
एस अम्हं ति योऽयं प्राघूर्णक आयातो नैषोऽस्मज्जातीय इति ततो गमनं करोति स साधुरिति । अथासौ निण्हावका-18 *दिरेवमभिदध्यात्5 तारेहि जयणकरणे अमुगं आणेहकप्प जणपुरओ। नवि एरिसया समणा जणणाऍतओ अवधामणं ॥४१॥(भा०) | भगवस्तारय मामस्मान्मान्द्यात् ततः 'जयणकरणं'ति यतनया प्रतिचरणं करोति । अथासी निणयकग्लान एवं ध्यात्'अमुकं आणेहित्ति 'अमुकं' बीजपूरादि आनय, तत एवं वक्तव्यं-'अकप्प जणपुरओत्ति अकल्पनीयमेतदित्येवं जनपुरतः प्रत्याख्यापयति, एतच्च स साधुर्वक्ति-नवि एरिसगा समणा, एवं जनेन-लोकेन तयो दे ज्ञाते सति ततोऽसावपक्रामतिगच्छति तस्मात्स्थानात् । एवं प्रतिपादिते विधी चोदक आहचोअगवयणं आणा आयरिआणं तु फेडिआ तेणं । साहम्मिअकज यहुत्तया य सुचिरेणविन गच्छे ॥४२॥(भा०)
चोदकस्य वचनं चोदकवचनं, किं तदित्याह-आज्ञा आचार्याणां संबन्धिनी अपनीता-विनाशिता ततो यतः साधर्मि|ककार्यप्रभूततया सुचिरेणापि न गच्छेत्-न यायाद्विवक्षित स्थानमिति । अत आचार्य आहदतित्थगराणा चोयग ! विटुंतो भोइएण.नरवहणा । जत्तुग्गय भोइअदंडिए अ घरदार पुधकए ॥४३॥ (भा०)
तीर्थकराणामियमाज्ञा हे चोदक!-यदुत ग्लानप्रतिजागरण कर्त्तव्यं, “जो गिलाण"मित्यादिवचनात् , अत्र दृष्टान्तो* ग्रामभोगिकनरपतिसंबन्धी । जहा कोइ राया जत्ताए उजओ, तेण य आणतं, अमुकगामे पयाणयं देसामित्ति तत्थावासे 8 करेहित्ति, ताहे गतो गोहो, जस्सवि भोइअस्स सो गामो तेणवि कहि, ममवि करेह घरंति, ताहे गामेल्लया चिंतति
दीप अनुक्रम [१२७]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१३०] → “नियुक्ति: [८३...] + भाष्यं [४३] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
नियुक्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४३||
श्रीओघ- द्रोणीया वृत्तिः
ज्ञाप्राधान्य
॥४६॥
राया एगदिवस एहिति, ता किरणो सचित्रकोज्ज्वलसुन्दरगृहेण?, एवं तेहि रणो कायमाणं कयं,भोइअस्स उरम्म चाउ- वयावृत्त्यसालं निम्मविरं । राया आगतो पेच्छति कयवंदणमालादिशोभि भौइयगिह चाउस्सालं, ततोहितो पहावितो, ततो तेहिं 3 भणि-भगवंत! एस तुम्हमावासो, इमो तुझंति, ता कस्स एसो?, भोइयस्स, ततो रण्णा रुद्रेण भोइयस्स गामो हडो गामोवित दंडिओ।एथयि जहा भोइओ तहा आयरिआ,जहा नरवई तहा तित्थयरो, जहा कुटुंबी तहा साहू । अमुमेवार्थमाह-दृष्टान्तो ग्रामभोगिकनरपतिना यात्रोद्भहदारुणा (बोद्गते भोजिके दण्डिके च तृणेन दारुणा च)पूर्वकृतेन-पूर्वचिन्तितेन यत्कृतं गृहमिति।
४६ रण्णो तणघरकरणं सचित्तकम्मं तु गामसामिस्स । दोण्हपि दंडकरणं विवरीयऽपणेणुवणओ उ॥४४॥ (भा०)
राज्ञस्तृणगृहं कृतं सचित्रकर्म च ग्रामस्वामिनः, 'द्वयोरपि ग्रामेयग्रामस्वामिनोर्दण्डकरण-दण्डः कृतः। एवं तीर्थकराज्ञातिक्रमे द्वयोरप्याचार्यसाध्वोः संसारदण्ड इति । 'विवरीयऽण्णेणुवणओ'त्ति उक्ताद्योऽन्यः स विपरीतेनान्येनाख्यानके-15 नोपनयः कर्तव्यः । अण्णेहिं गामेलएहिं चिंतिअं-एअं भोइयस्स सुन्दरतरं कयल्लयं घरं, एवं व नरवइस्स होइ, गए| णरवइंमि भोइयस्स चेव होहित्ति, भोइयस्सवि तणकुडी कया, राया पत्तो दिहं भणति-कहं भो एगदिवसेण भवणं कयं !, ते भणंति-अम्हेहिं एवं कर्य, एवं दलियं भोइयस्स आणीय, तेण तुज्झ घरं कर्य, भोइयस्सवि तणकुडी कया, ताहे रण्णा तुडेण सो गामो अकरदाओ कओ, भोइओऽवि संपूइओ, अन्नो असे गामो दिण्णो । एवं तित्थयराणमाणं करतेण कया : चेव आयरिआणं । अथ प्रथमोपनयोपदर्शनायाहजह नरवइणो आणं अइकमंता पमायदोसेणं । पावंति बंधवहरोहजिमरणावसाणाई ॥ ४५। (भा०)
दीप अनुक्रम [१३०]
॥४६॥
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
||४६||
दीप
अनुक्रम [१३२]
Eturation
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २/१ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
→
मूलं [१३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
“निर्युक्तिः [ ८३...] + भाष्यं [ ४६ ] + प्रक्षेपं [ ३...]" ८० आगमसूत्र - [४१/१] मूल सूत्र -[२/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
तह जिणवराण आणं अइकमंता पमायदोसेणं । पार्वति दुग्गइपहे विणिवाय सहस्सकोडीओ ॥ ४६ ॥ ( भा० ) यथा नरपतेराज्ञामतिक्रामन्तः प्रमाददोषेण - अज्ञानदोषेण प्राप्नुवन्ति बन्धो निगडादिभिः वधः - कशादिताडनं रोधोगमनस्य व्याघातः छेदो हस्तादेः मरणावसानानि दुःखानि प्रामुचन्ति यथा
तथा जिनवराणामाज्ञामतिक्रामन्तः प्रमादः - अज्ञानं स एव दोषस्तेन प्रामुवन्ति दुर्गतिपथे विनिपातानां - दुःखानां सहस्रकोटीः । इदानीं द्वितीयोपनयोपदर्शनायाहतित्थगरवयणकरणे आयरिआणं कथं पए होइ। कुज्जा गिलाणगस्स उ पदमालि जाव बहिगमणं ॥ ४७ ॥ भा०) तीर्थकरसंबन्धिवचनकरणे- वचनानुष्ठाने आचार्याणां 'कृतं पर'त्ति 'प्रागेव' पूर्वमेव कृतं भवति । यस्मादेतदेवं तस्माकुर्याद् ग्लानस्य प्रतिजागरणं साधुः कियन्तं कालमत आह- 'पढमालिअ जाव बहिगमणं ति यावत्प्रथमालिकामानेतुं समर्थो जातः यावच्च वहिर्गमनक्षमो जात इति ॥ तथा
जड़ ता पा सत्थोसण्णकुसील निण्हवगाणंषि देसिअं करणं। चरणकरणालसाणं सम्भावपरंमुहाणं च ॥४८॥ (भा०) यदि तावत्पार्श्वथावसन्नकुशीलास्तेषां तथा सद्भावः- तत्त्वं सम्यग्दर्शनं ततः पराङ्मुखाः, के ते ?, निह्नावकास्तेषाम्, अथवा 'चरणकरणालसाणं' अत एव सद्भावपराङ्मुखानां केषां ? - सर्वेषामेव पार्श्वस्थावसन्नकुसीलनिहवकानां यदि ताव - त्कर्त्तव्यं प्रतिपादितं तत इतरेषां नितरामेव । एतदेवाह
किं पुण जयणाकरणुञ्जयाण दंतिंदिआण गुत्ताणं । संविग्गविहारीणं सवपयतेण काय ॥ ४९ ॥ ( भा० )
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१३६] .→ “नियुक्ति: [८४] + भाष्यं [४९] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
| भिक्षया
गाथांक नि/भा/प्र ||४९||
शाआधा किं पुन:-किमुत यतनाकरणे उद्यता:-उद्युक्तास्तेषां दान्तेन्द्रियाणां गुप्तानां मनोवाकायगुप्तिभिः संविनविहारिण-दसवैयानियुक्तिः द्रोणीया उद्यतविहारिणो मोक्षाभिलाषिण इत्यर्थः, तेषां सर्वप्रयलेन कार्यम् ? । किं पुनः कारणमेतावन्ति विशेषणानि क्रियन्ते ।
भा.४७-४९ वृत्तिः
एकस्यैव युज्यमानत्वात्तत्र, तथाहि-यद्येतावदुच्यते-यतनाकरणोधतानामिति, ततः कदाचिन्निलवका अपि यतनाकर-18 राणोचताः स्युः, अत आह-दान्तेन्द्रियाणां गुप्तानां चेति, तेऽपि च दान्तेन्द्रिया गुप्ताः कदाचिल्लाभादिनिमित्तं भवेयुरत
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व्याघात: ॥४७॥ उक्त-संविनविहारिणो ये, तेषामवश्यं कर्त्तव्यमिति । उक्तं ग्लानद्वारम् , अथ सम्झिद्वारं संबन्धयन्नाह
नि.८४-८५ एवं गेलनहा वाघाओ अहहयाणि भिक्खट्ठा । वहयग्गामे संखडि सनी दाणे अभहे अ ॥ ८॥ एवं ग्लानार्थ 'व्याघातो' गमनप्रतिबन्धस्तस्य स्यात् , 'अथे त्यानन्तर्ये, इदानी भिक्षार्थ गमनविघातो न कार्य इत्यध्याहारः, अथवाऽन्यथा-एवं तावत् ग्लानार्थ गमनव्याघात उक्तः, इदानी भिक्षार्थ यथाऽसौ स्यात्तथोपदयते-'वइयग्गामे || संखडि सन्नी दाणे य भद्दे'त्ति, ब्रज इति-गोकुले तस्मिन् भिक्षार्थं प्रविष्टस्य गमनविघातः स्यात्, ग्रामः-प्रसिद्धः संखडी-18 प्रकरणं सम्झी-श्रावकः 'दाणे'त्ति दानश्राद्धकः 'भद्दे अत्ति भद्रकः साधूनां, चशब्दान्महानिनादकुलानि । एतेषु प्रतिव|ध्यमानस्य यथा गमनविघातस्तथाऽऽह--
उत्त्तणमप्पत्तं च पडिफाछे खीरगहण पहगमणे । बोसिरणे छकाया धरणे मरणं दवविरोहो ॥ ८॥ स हि अनुकूल पन्धानमुत्सृज्य उद्वर्त्तते-यतो प्रजस्ततो याति, बजे च प्राप्तः सन् अप्राप्तां वेलां 'प्रतीक्षते' प्रतिपाल-6॥४७॥ यति, ततश्च 'खीरगहण'त्ति तत्र क्षीरग्रहणं करोति, क्षीराभ्यवहारमित्यर्थः, 'पहगमणत्ति पीते क्षीरे पधि गमनं करोति ।।
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१३८] - "नियुक्ति: [८५] + भाष्यं [४९...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
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प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||८||
पुनश्च तेनास्य भेदः कृतः, ततश्च 'वोसिरणं'ति मुहुर्मुहुः पुरीपोत्सर्ग विदधाति, तत्र च षटकायविराधना, तद्वेगधरणे च मरणं, 'दवविरोहोत्ति द्रवेण-काजिकेन सह विरोधो भवति, साधोः प्रायस्तत्संव्यवहारात्, यद्वा 'दवविरोहोत्ति द्रवम्-14 उदकं तेन निर्लेपनं करोति सागारिकपुरतः, अथ न करोत्युड्डाहः-प्रवचनहीला भवति, अथवा द्रवविरोधो विनाशो, यतस्तृषितः संस्तदेव पिबति । एवं प्रजे गच्छत आत्मविराधना प्रवचनोपघातश्च स्थात्, गमनविषातश्च नितरां स्यात् । उक्त ब्रजद्वारम् , अथ ग्रामद्वारम्
खद्धादाणिअगामे संखडि आइन्न खड गेलन्ने । सपणी दाणे भद्दे अप्पत्तमहानिनावेसु ।। ८६ ॥ खद्धादानिकग्रामः-समृद्धग्रामस्तस्मिनुद्वर्त्तनं करोति, अप्राप्तां वेलां च प्रतिपालयति, क्षीरग्रहणं करोति, तत्र च त एव दोषाः “वोसिरणे छकाया धरणे मरणं दवविरोहो" । उक्तं ग्रामद्वारम् , अथ संखडिद्वारं, तत्राह-'संखडि आइन्नगेलण्ण कृति संखडी प्रकरणं तदर्थमुद्वर्त्तते, अप्राप्तां च वेला प्रतिपालयति, तत्र च 'आइण्ण'त्ति आकीर्ण-संवाधनं स्त्रीस्पर्शादिदोषाः, है तथा 'खद्धगेलण'त्ति खद्ध-प्रभूतमुच्यते, ततश्च भूरिभक्षणे मान्धं स्यात् , त एव च दोषाः “वोसिरणे छक्काया धरणे मरणं है
दवविरोहो" । उक्त संखडिद्वारम् , अथ सज्ञिद्वारम्-'सन्निति सज्ञिनं श्रुत्वा उद्वर्त्तनं करोति, अप्राप्तां च बेला प्रतिपालयति, तत्र च त एव दोपा वोसिरणादयः । उक्तं सज्ञिद्वारम् , इदानी दानश्रावकद्वारं, तत्रापि “उवत्तणमप्पत्तं च |पडिच्छे"त्ति पूर्ववत्, ततश्चासौ दानश्रावकः प्रभूतं घृतं ददाति, तत्रापि त एव दोषा वोसिरणादयः । उक्तं दानद्वारम् । अथ भद्रकद्वार-भद्दग'त्ति कश्चित्स्वभावत एव साधुभद्रकः स्यात् तत्समीपगमनार्थमुद्वर्त्तनं करोति, अप्राप्तां च वेला|
दीप अनुक्रम [१३८]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१३९] - "नियुक्ति: [८६] + भाष्यं [४९...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||८६||
दीप अनुक्रम [१३९]
श्रीओप- प्रतिपालयति, ततश्चासौ लड्डुकादिप्रदानं करोति, त एव दोषाः । अथ महानिनादद्वारमाह-'अप्पत्तमहानिनाएसुत्ति महा- भिक्षया नियुक्तिः निनादेषु-शब्दितेषु कुलेषु-प्रख्यातेषु कुलेषु उद्वर्तनं कृत्वा 'अप्पत्त'ति अप्राप्तां वेला प्रतिपालयति, तेषु च स्निग्धमन्ने व्याघातः द्रोणीया४ालभ्यते, एवं च तत्रापि त एव दोषाः “वोसिरणे छक्काया" इत्यादयः । उक्तं चशब्दाक्षिप्तं महानिनादकुलद्वार, तथाऽनु-सान.८५८५ वृत्तिः कूलात्स्वमार्गाद(न)नुकूलेषु व्यवस्थितेषु व्रजादिषु अप्राप्तां वेलां भक्तार्थं प्रतिपालयतो गमनविघातदोष उक्तः, इदानीमनुकूल॥४८॥
मार्गव्यवस्थितेषु ब्रजादिषु भक्तार्थ प्रविष्टस्य यथा गमनविघातो भवति तथा प्रतिपादयन्नाहपापडच्छिखीर सतरं घयाह तकस्स गिहणे दीहं । गेहि विगिचणिअभया निसह सुवणे अपरिहाणी ।।८७॥ न पड्डुच्छिक्षीर-पारिहिट्टिक्षीरं तदन्विषन् शेषक्षीरं चागृहन् दीर्घा भिक्षाचर्या करोति, तथा 'सतरं ति सतरं दधि अन्वे
माणस्तररहितं चागृहन् दीर्घा भिक्षाचर्या करोति, धृतादि चान्विषन् , आदिशब्दानवनीतमोदकादि गृह्यते, तदन्विषन् । दीर्घा तां करोति, तक्रस्य वा ग्रहणे दीर्घा तां करोति । इदानी तत्क्षीरादि प्रचुरं लब्धं सत् 'गेहित्ति गृद्धः सन् प्रचुरं| भक्षयति, यद्वा 'विगिचणिअभया निसहति विगिञ्चनं-परित्यागस्तद्भयान्निसट्ठ-प्रचुर भक्षयति , ततश्च प्रचुरभक्षणे 'सुयणे अपरिहाणी' प्रदोष एवं स्वाध्यायमकृत्वैव स्वपिति, मुप्तस्य च 'परिहाणी' सूत्रार्थविस्मरणमित्यर्थः, चशब्दात् 'अह ।
जग्गति गेलन्नं"इत्येतद्वक्ष्यति तृतीयगाथायाम् । एवं तावदनुकूलमार्गव्यवस्थिते ब्रजे भक्तार्थं प्रविशतो गमनप्रतिघात त उक्तः, इदानीमनुकूलमार्गब्यवस्थिते ग्रामे भक्तार्थ प्रविष्टस्य यथा गमनविधातो भवति तथाहPI गामे परितलिअगमाइमग्गणे संखडी छणे विरूवा । सपणी दाणे भद्दे जेमणविगई गहण दीहं ॥ ८८.॥
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“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१४१] .. "नियुक्ति: [८८] + भाष्यं [४९...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||८८||
'ग्राम' इति द्वारपरामर्शः, ग्रामे प्रविष्टः सन् परितलितादिमार्गणं करोति, परितलितं-सुकुमालिकादि उच्यते, तदन्विपन् दीर्घा भिक्षाचौं करोति । उक्तमनुकूल ग्रामद्वारम् , इदानीमनुकूलसंखडीद्वारमुच्यते-'संखडी छण विरुव'त्ति संखडी-12 प्रकरणं, सा च 'क्षणे उत्सवे विविधरूपा भवति, एतदुक्तं भवति-गृहे गृहे घृतपूरादि लभ्यते, तदर्थं च दीर्घा भिक्षाचर्या | करोति । उक्तमनुकलसंखडीद्वारं, इदानीमनुकलव्यवस्थितसज्ञिद्वारमुच्यते-'सपिण'त्ति सज्ञिनः-श्रावका उच्यन्ते, तेषु मृष्टान्नार्थी दीर्घा भिक्षाचर्या करोति । उक्तमनुकूलसज्ञिद्वारम् , इदानीमनुकूलदानश्राद्धकद्वारमुच्यते-'दाणे'त्ति दानश्राद्धका उच्यन्ते, तेष्वनुकूलपथव्यवस्थितेषु प्रविष्टो मृष्टभोजनाथीं दीर्घा भिक्षाचर्या करोति । उक्तं दानश्राद्धकद्वारम् , इदानी भद्रकद्वारमुच्यते-भद्देत्ति अनुकूलपथव्यवस्थितेषु भद्रकेषु 'जेमणविगईगहण दीहत्ति मृष्टभोजनविकृतिग्रहणार्थ, दीर्घा भिक्षाचर्या करोतीति सर्वत्र योज्यमिति । तत्र प्रागिदमुक्तं-प्रचुरभक्षणात्स्वपतः सूत्रार्थपरिहानिर्भवति, अथ न स्वपिति 5 | ततः को दोष इत्यत आह___ अह जग्गइ गेलनं अस्संजयकरणजीववाघाओ । इच्छमणिच्छे मरणं गुरुआणा छडणे काया ॥८॥
अथ स्निग्धे आहारे भक्षिते जागरणं करोति, सूत्रार्थपौरुषीं करोतीत्यर्थः, ततश्च को दोष ? इत्यत आह-'गेलन्नं' ग्लानत्वं | भवति, ग्लानत्वे सति तस्य साधोर्यद्यसंयतः प्रतिजागरणं करोति इच्छति च ततः को दोषस्तदेत्यत आह-असंयतकरणे जीवव्याघातो भवति इच्छतः, अथ नेच्छति असंयतेन क्रिया क्रियमाणां ततः 'अणिच्छे मरण' अनिच्छतो मरणं भवति, न केवलमयमेव दोषः, 'गुरुआणा छडणे काया' गुरोराज्ञालोपः कृतो भवति, मृतस्य च छडणे-परित्यागे गृहस्थाः षटकाय-12
दीप अनुक्रम [१४१]
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१४२] .. "नियुक्ति: [८९] + भाष्यं [४९...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||८||
॥४९॥
दीप अनुक्रम [१४२]
श्रीओष- व्यापादनं कुर्वन्ति । यदा तु पुनस्तेषु व्रजादिषु तक्रौदनादिग्रहणं करोति तदा पूर्वोक्ता दोषाः परिहता भवन्ति । एतदेव दीर्घभिक्षानियुक्ति प्रतिपादयनाह
दोषाः नि. द्रोणीया
| तकोयणाण गहणे गिलाण आणाइया जदा होति । अप्पत्तं च पडिच्छे सोचा अहवा सयं ना ॥९॥ ९ तक्रादवृत्तिः
| तकीदनानां ग्रहणे सति ग्लानत्वदोष आज्ञाभङ्गदोषश्च, आदिशब्दात्पथि पलिमन्थदोषश्च, एते जढा इति-त्यक्ता भवन्ति। गुणासन इदानीं प्रतिषिद्धस्यापि कारणान्तरेणानुज्ञां दर्शयन्नाह-'अप्राप्तां च पडिच्छे' अप्राप्तामपि वेलां प्रतिपालयति, किमर्थ !,-INIK वक्ष्यमाणान दोषान् श्रुत्वा पथिकादेः सकाशात् , 'अहवा सयं नाउँ' स्वयमेव ज्ञात्वा, कान् ?-दूरव्यवस्थितप्रामादिदोषान् ,18
दीर्घभिक्षा
. अप्राप्तामपि वेला प्रतीक्षत इति । इदानी तानेव दोषान् प्रतिपादयन्नाह
दूरुट्टिा खुड्डलए नव भड अगणी अ पंत पडिणीए । अप्पत्तपडिच्छण पुच्छ पाहिं अंतो पविसिअचं ॥९१॥ 12 KI कदाचिदसौ ग्रामो दूरे भवति ततोऽआप्तामपि वेलां प्रतिपालयति, 'उडिउत्ति कदाचिदसौ ग्राम उत्थितः-उद्धसितो
भवति, कदाचिच्च 'खुड्डुलय'त्ति खल्पकुटीरकः, कदाचित् 'णव' इति अभिनववासितो भवति, तत्र पृथिवीकायः सचित्तो भवति, कदाचिच्च भटाक्रान्तोऽसौ भवति, कदाचित् 'अगणी यत्ति अग्निना दग्धो भवति, कदाचिच्च प्रान्तः-दरिद्रप्रायो भवति, कदाचिच्च प्रत्यनीकाक्रान्तो भवति, अत एभिः कारणैः 'अप्पत्तपडिच्छण'त्ति अप्राप्तामपि वेलां प्रतिपालयति,
M ॥४९॥ तेन च साधुना सज्ञिकुलं प्रविशता विधिपृच्छा पूर्ववत्कर्तव्या, एतदेवाह-'पुच्छत्ति, विधिपृच्छा पूर्ववत् । 'बाहिति चोदक एवमाह-बहिरेव स साधुस्तिष्ठति यावत्सज्ञिकुले वेला भवतीति, आचार्यस्त्वाह-'अंतो पविसियवं' इमं च गाथाड
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१४४] → “नियुक्ति: [९१] + भाष्यं [४९...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||९१||
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वयव भाष्यकारो व्याख्यानयिष्यतीति । इदानीं तत्र सज्ञिकुलेषु प्रविष्टः साधुः कारणमाश्रित्य दीर्घामपि भिक्षाची 8 यथा करोति तथा प्रतिपादयन्नाह
कक्खडखेत्तचुओ वा दुव्बल अन्डाण पविसमाणो वा । खीराइगहण दीहं बहुं च उवमा अपकडिल्ले ॥१२॥ ___ 'कक्खई' रूक्षादिगुणसमन्वितं यत्क्षेत्रं तस्माच्युतः-आयातः सन् , तथा दुर्बलो यदि भवति-वाध्यादिरोगाक्रान्तः, तथा पुरस्ताद्दीर्घमध्वानं प्रवेक्ष्यति यदि, तत एभिः कारणैः क्षीरादिग्रहणनिमित्तं दी| भिक्षाचर्या करोति, बहुं च क्षीरादि गृह्णाति येनास्य कार्यस्य समर्थों भवति । आह-बहुभक्षणात्कथं विसूचिकादिदोषो न भवति !, उच्यते, 'उवमा अयकडिले' उपमा-उपमानं अयो-लोहं तन्मयं यत्कडिल्लं तेन उपमा, एतदुक्तं भवति-यथा तप्तलोहकडिल्ले तोयादि क्षयमुपयाति एवमस्मिन् साधी रूक्षस्वभावे बपि धृतादि क्षयं यातीति । इदानीं य एव प्राग व्यावर्णिता दोषास्तानेव कारणान्तरमुद्दिश्य गुणवत्तया स्थापयन्नाहजे चेव पडिच्छणदीहखद्धसुवणेसु वणिआ दोसा । ते चेव सपडिवक्खा होति इहं कारणजाए ॥ ९३॥
य एव दोषा 'पडिच्छणे'ति प्रतिपालने 'दीहं'ति दीर्घायां भिक्षाचर्यायां 'खद्ध'त्ति प्रचुरभक्षणे 'सुवण'त्ति स्वापे, एतेषु स्थानान्तरेषु 'वर्णिताः' कथिता ये दोषास्त एव सप्रतिपक्षाः सविपर्ययाः गुणा इत्यर्थः, भवन्ति, 'इद' अस्मिन् 'कारणजाते कारणमाश्रित्य । इदानीं यदुक्तं नियुक्तिकृता-"पुच्छ बाहिं अंतो पविसिअब"ति, एतद् व्याख्यानयन भाष्यकार आहविहिपुच्छाए सपणी सो पविसे न बाहि संचिक्खे। उग्गमदोसभएणं चोयगवयणं बर्हि ठाउ ॥५०॥(भा०)
दीप अनुक्रम [१४४]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१४६] .→ “नियुक्ति: [९३] + भाष्यं [५०] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||९३||
श्रीओघनियुक्तिः द्रोणीया वृत्तिः ॥५०॥
कथा
दीप अनुक्रम [१४६]
'विधिपृश्छया' पूर्वाभिहितया 'सज्ञिनं' श्रावकं श्रुत्वा ततः प्रविशेत् , क ?-श्रावकगृहे, न च बहिः सतिष्ठेत् , किं कार-दाकारणे दीणम् ?-उद्गमदोषभयात् , मा भूत्तं साधुमुद्दिश्य कञ्चिदाहारं कुर्याद् असी सञ्जी। एवमुक्ते सत्याह चोदकः, किं तद् , इ-IALघभिक्षा त्याह-'बहिं ठाउ' बहिरेवासौ साधुर्भिक्षावेलां प्रतिपालयतु, मा भूत् प्राघूर्णक इतिकृत्वा श्रावक आहारपाकं करिष्यतीति । नि.९२-९३ एवमुक्ते सत्याचार्य आह
विधिपृच्छा
प्रवेशश्च सोचा दणं वा याहिठिअं उम्गमेगयर कुना । अप्पत्तपविट्टो पुण चोयग ! दई निवारेजा ॥५१॥ (भा०)
भा.५०श्रुत्वा तं साधु बहिवर्तिनमन्यस्मात्पुरुषादेः वयं वा दृष्ट्वा उद्गमादीनां दोषाणामेकतरं-अन्यतमं कुर्यात् । 'अप्पत्त'
| ५१ दोपत्ति अप्राप्तायां बेलायामेतच्छ्रावकः कुर्यात् , एष बहिस्तिष्ठतो दोषः, 'पविद्वो पुण चोयग!दहुँ निवारेज्जा' प्रविष्टः पुनरसी साधुः सज्ञिकुल हे चोयग ! 'दहुति दृष्ट्वा उद्गमादिदोष निवारयेत् । किन
नि. ९४ उग्गमदोसाईणं कहणा उप्पापणेसणाणं च । तत्थ उ नत्थी सुन्ने चाहिं सागार कालदुवे ॥१४॥ उनमदोषादीनां कथनं करोति उत्पादनादोपाणां एषणादोषाणां च कथनं करोति, ततश्च यदि शुद्ध भक्तं ततस्तत्रैव | | सम्झिरहे भोक्तव्यम, अथ तत्र नास्ति ततोऽन्यत्र गन्तव्यम् । एतदेवाह-'तत्थ उत्ति तत्रैव-श्रावकगृहे भुते, 'नस्थिति अथ तत्र नास्ति भोजनस्थानं ततः 'सुण्ण'त्ति शून्यगृहे याति, 'बाहिति अथ शून्यगृहे सागारिकर्भोक्तुं न शक्यते ततो। बाह्यतो ब्रजति, अथ तत्रापि 'सागार'त्ति सागारिकाः ततः 'कालदुवेत्ति कालद्वितयं ज्ञातव्यं, किं , स्वल्पो दिवस आस्ते आहोश्वित् महान् ?, यदि महांस्ततो दूरमपि स्थण्डिले गत्वा समुद्दिशति, अथ स्वल्पो दिवसस्ततोऽस्थण्डिल एव यतनया
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गाथांक
नि/भा/प्र
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दीप
अनुक्रम [१४९ ]
Jan Educator
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
→
मूलं [ १४९ ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
“निर्युक्तिः [ ९४] + भाष्यं [५१] + प्रक्षेपं [३...]" ८० आगमसूत्र [४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
समुद्दिशतीति । इयं तावन्निर्युक्तिगाथा, एतामेव भाष्यकारः प्रतिपदं व्याख्यानयति, तत्र चोबकाक्षेपपरिहारद्वारेण प्रवेशविधिरुक्तः, इदानीं बहिस्तिष्ठतोऽधिकतरदोषप्रतिपादनायाह
फेडेज व सह कालं संखडि घेतूण वा पए गच्छे । सुष्णघराइपलोअण चेइअ आलोयणाऽबाहं ॥ ५२॥ भा०) स हि तत्र बहिर्व्यवस्थितः किं कुर्यादत आह- 'फेडेज्ज व सह कालं' अपनयेत् 'सति'त्ति विद्यमानं भिक्षाकालम्, एतदुक्तं भवति ग्रामे प्रहरमात्र एव भिक्षावेला भवति, तत्र च व्यवस्थितः साधुस्तां भिक्षावेलामपनयति, 'संखडित्ति कदाचित्तत्रान्यस्मिन् दिवसे सङ्घडिरासीत्, तदुद्धरितं च पर्युषितभक्तं प्रत्यूषस्येव भक्षितं गृहस्थैरतोऽसौ साधुर्बहिर्व्यवस्थितस्तस्य भ्रष्ट इति, 'घेत्तृण वा पए गच्छेत्ति गृहीत्वा वा यत्तत्र राजं पक्कं वा तत्प्रागेव श्रावको गृहीत्वा ग्रामान्तरं गतः, ततश्चासौ साधुस्तस्य भ्रष्ट इति अत एतद्दोषभयात्प्रवेष्टव्यम् । प्रविशतश्च को विधिरित्यत आह-'सुण्णघरादिपलोयण' प्रविशश्वासौ साधुः शून्यगृहादिप्रलोकनं करोति, कदाचित्तत्र भुजिक्रियां करोति, प्रविष्टश्च श्रावकगृहे 'चेइय'त्ति चैत्यवन्दनं करोति 'आलोयण'त्ति आलोचनां श्रावकाय ददाति यदुताहमाचार्येण कारणवशादेकाकी प्रहित इति, 'अबाहित्ति न काचिद्वाधा शीलव्रतेषु भवतामित्येवं पृच्छति । तत्र च प्रविष्टो भिक्षादोषान् कथयन्नाह
| उग्गम एसणकहणं न किंचि करणिज अम्ह विहिदाणं । कस्सट्टा आरंभो तुज्झेसो ? पाहुणा डिंभा॥५३॥ भा०) मदोषाणाम् आधाकर्मादिदोषाणां कथनं एषणादोषाणां च कथनं, ततश्च आरम्भं दृष्ट्वा एतच्च ब्रवीति नास्मदर्थे किञ्चित्कर्त्तव्य आहारविधिः किन्त्वस्माकं विधिदानं क्रियते, तथा चोक्तं- “बिहिगहिअं विहिदिष्णं दोपि बहुष्फलं जहा होति" ।
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१५१] .. "नियुक्ति: [९४...] + भाष्यं [१३] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
ग्रामेप्रवे. शम्भा.५२
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५३||
॥५१॥
याति, एतदेवाह
श्रीओघ-1 अथ कदाचिच्छावको न कथयति तदा डिम्भरूपाणि पृच्छति, तानि ह्यज्ञत्वाद्यथाव्यवस्थितं कथयन्ति । किं पृच्छति, नियुक्तिः 'कस्सा आरंभो' कस्य निमित्तमयमारम्भः ?, इत्येवं साधुना पृष्टे सति डिम्भरूपाण्यपि कथयन्ति-'तुझेसो'त्ति त्वदर्थ- द्रोणीया| मयमारम्भः, यतः 'पाहुण'त्ति प्रापूर्णका यूयमिति, अथवा 'पाहुण'त्ति प्राघूर्णकानामर्थेऽयमारम्भो न तच, एवं 'डिंभ'त्ति वृत्तिः अर्भकरूपाणि कथयन्ति । अथ तत्रार्भकरूपाणि न सन्ति यानि पृच्छचन्ते ततः स्वयमेव केनचिश्याजेन रसवती यतो
रसवइपविसण पासण मिअममिअमुवक्खडे तहा गहणं । पञ्जत्ते तत्थेव उ उभएगयरे य ओयविए ॥५४॥(भा०) 8 रसवती-सूपकारशाला तस्यां प्रवेशनं करोति, प्रविष्टश्च पश्यत्ता-दर्शनं करोति, तत्र च 'मितममितं उवक्खडे'त्ति
कदाचिन्मितमुपस्कियते स्वल्पं, कदाचिदमितं उपस्क्रियते बहु,'तहा गहणं ति तत्र यदि मितं राद्धं ततः स्वल्पं गृह्णाति, अथ प्रचुरं राद्धं ततस्तदनुरूपमेव गृह्णाति । तत्र नियुक्तिगाथायाः संबन्धि पूर्वार्द्ध व्याख्यातं, कतमत् ? “जग्गमदोसाईणं
कहणं उप्पायणेसणाणं च" इति, इदानी मूलनियुक्तिकारगाथायां तस्यामेव यदुपन्यस्तं “तत्थ उ"त्ति तयाख्यानयनाह, दा'पजते तत्येव उ' यदि पर्याप्तं भक्तं लब्धं ततस्तस्मिन्नेव गृहे भुत इति । 'उभएगयरे च ओयविए'त्ति उभयं श्रावकः
श्राविका च 'ओयवि' खेदर्श उभय यदि भवति एगतरं च ओयविनं' अल्पसागारिका-श्रावक इत्यर्थः, श्राविका चा ओयविआ-अल्पसागारिकेत्यर्थः, ततो भुङ्ग इति । 'तत्व उत्ति अयमवयवो व्याख्यातः, इदानीं 'नत्यित्ति अवयवो व्याण्यायतेअसइ अपजत्ते वा मुण्णघराईण बाहि संसद्दे । लट्ठीइ दारघट्टण पविसण उस्सग्ग आसत्थे ॥५५॥ (भा०)
दीप अनुक्रम [१५१]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१५३] → “नियुक्ति: [९४...] + भाष्यं [१५] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||५||
असति तस्मिन्नुभये यदा श्रावकोऽल्पसागारिको नास्ति, नापि श्राविकाऽल्पसागारिका, श्राविकश्राविकयोरन्यतरो वा यदाऽल्पसागारिको नास्ति तदा अभावे सति 'अपज्जत्ते वत्ति यदा पर्याप्तं तस्मिन् श्रावकगृहे भक्तं न भवति लब्धं तदाऽन्यत्रापि भिक्षाटनं कृत्वा 'सुण्णघराईति शून्यगृहादिषु गम्यते भोजनार्थम् , आदिशब्दाद्देवकुलादिषु वा, तेषां च शून्यगृहादीनां बहिरेव व्यवस्थितः संशब्द-काशितादिरूपं करोति, कदाचित्तत्र कश्चित्सागारिको दुश्चारित्री भवेत् स च तेन शब्देन निर्गच्छति, अथैवमपि शब्दे कृते न निर्गच्छति ततो यथ्या द्वारे घट्टन-आहननं क्रियते, ततः प्रविशति, प्रविष्टश्च यदि | कञ्चिन्न पश्यति ततः 'उस्सरगति ईर्यापथनिमित्तं पञ्चविंशत्युच्छासप्रमाणं कायोत्सर्ग करोति, तथा च 'आसत्थे'त्ति मनागाश्वासितः सन् । ततश्चआलोअणमालोवो अदिट्टमिवि तहेव आलावो । किं उल्लावं न देसी ? अदिढ निस्संकि मुंजे ॥५६॥ (भाव)
'आलोकन' निरूपणं तत् करोति, अथ निरूपिते [कश्चिदृष्टः] 'आलावोत्ति, यदि कश्चिदृष्टस्तत आलपनं करोति, किमिह भवानागतः इति । 'अदिट्टमिवि तहेव आलायोंत्ति अदृष्टेऽपि सागारिके तथैवालपनं करोति, किमिह भवानायातः है इति । अथैवमप्युक्तो न कश्चित्तत्रोत्तरं ददाति तत इदमुच्यते-'किमुल्लावं न देसीति ?, तस्मादुल्लापं प्रतिवचनं प्रयच्छेति ।
अथैवमपि न कश्चित्तत्रोपलब्धस्ततः 'अदिडे'त्ति सर्वथा सागारिकेऽनुपलब्धे सति निःशङ्कितं भुत इति । अथ एभिरष्युपायैर्न प्रकटीभूतः सागारिकः पश्चात्तु प्रकटीभूतो भुगतः सतस्ततः,दिह असंभम पिंडो तुज्झवि य इमोत्ति साह वेउची। सोवि अगारो दोचा नीइ पिसाउत्ति काऊणं ॥५७॥(भा०)
SCAS+Ccccccc
दीप अनुक्रम [१५३]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१५५] → “नियुक्ति: [९४...] + भाष्यं [१७] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
स्थानासतिबहिर्भिक्षाविधिः भा.५६-५९
गाथांक नि/भा/प्र ||५७||
श्रीओघ-10 दृष्टे सागारिके सति 'असंभम त्ति असम्भ्रमो-न भयं कर्त्तव्यम् , असम्भ्रान्तेन च तेन साधुना 'पिण्डो तुज्झवि अइमों नियुक्तिः इत्ति स्वाहा भिक्षापिण्डं गृहीत्वा एवं करोति-अयं यमाय पिण्डः, अयं वरुणाय पिण्डः, अयं धनदाय पिण्डः, अयमिन्द्राय द्रोणीया |
पिण्डः, तुज्झवि अ इमोत्ति स्वाहा-तवाप्ययं पिण्डः स्वाहा 'वेउधित्ति विकृतं शरीरं करोति पिशाचगृहीत इव, एवंविध वृत्तिः
साधुं दृष्ट्वा सोऽप्यगारी 'दोच्चा' इति भयेन 'णीति' निर्गच्छति, मुणि पिसा)ऊ त्ति काऊणं' पिशाचोऽयमितिकृत्वा । एवं| ॥५२॥ तावदभ्यन्तरस्थसागारिकदर्शने भुञ्जानस्य विधिरुक्तः, यदा तु पुनर्बहिर्व्यवस्थित एव एभिः स्थानान्तरं पश्यति तदा को|
विधिः? इत्यत आह
तिघेण व मालेण च वाउपवेसेण अहव सढयाए । गमणं च कहण आगम दूरभासे विही इणमो॥५०॥(भा०) 11 यदा तु सागारिको बहिर्व्यवस्थित एव साधु तीब्रेण-छिद्रेण कुटिकापबद्धकेन कटकेन पश्यति, 'मालेण वत्ति|
माले-उपरितलच्यवस्थितो यदा कदाचिच्छठतया पश्यति, 'वाउपवेसण'त्ति, अथवा 'वायुप्रवेशेन' गवाक्षेण शठतया पश्यति, अथवेति विकल्पार्थः, एतेनान्येन वा प्रदेशेन 'शठतया' धूर्ततया पश्यति, दृष्ट्वा च गमनं च करोति स सागारिका, 'कहणं|ति गत्वा चान्येभ्यः कथयति-यदुतागच्छत पश्यत पत्रके भुञ्जानः साधुईष्ट इति, तत्र 'आगम'त्ति तेऽप्यागच्छन्ति, पश्यामः किमेतत्सत्यं न वेति, 'दूरभासे विही इणमो दूरादागच्छता अभ्यासाद्वाऽऽगच्छता 'विही इणमो' विधिः 'अयं वक्ष्यमाणलक्षणो भवति । कश्चासौ विधिरित्यत आहथोवं भुजइ बहुअं विगिंचई परमपत्तपरिगुणणं । पत्तेसु कहिं भिक्खं दिट्टमदिडे विभासा उ ।। ५९ ॥ (भा०)
दीप अनुक्रम [१५५]
॥ ५२ ॥
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
||५९ ||
दीप
अनुक्रम
[१५७]
Estiratur
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २/१ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
→
मूलं [१५७]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
८०
"निर्युक्तिः [ ९४] + भाष्यं [ ५९ ] + प्रक्षेपं [ ३...]" आगमसूत्र [४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
यदि ताast सागारिकास्ततः स साधुः 'थोवं भुंजति' स्तोकं भुङ्क्ते, बहुभक्तं 'विगिंचति' त्यजति गर्त्तादी- अल्पसागारिकं करोति भूलिना या आच्छादयति, अधाभ्यास एव सागारिकास्ततः 'थोवं भुंज' स्यन्यथा व्याख्यायते - स्तोकं भुङ्गे यावन्मात्रं मुखस्यान्तस्तिष्ठति तावन्मात्रमेव भुङ्क्ते, शेषं परित्यजतीति प्राग्वत्, 'पउमपत्त त्ति पद्मपत्रसदृशं निर्लेपनं पात्रे करोति 'परिगुणण 'त्ति स्वाध्यायं कुर्वस्तिष्ठतीति । एवं च व्यवस्थितस्य साधोस्ते सागारिकाः प्राप्ताः, ते च प्राप्ताः सन्त इदं पृच्छन्ति'कहिं भिक्खति त्वया भिक्षा कृतेति । तत्र 'दिमदिट्ठे विभासा उ' दृष्टेऽष्टे च 'विभाषा' विकल्पना कार्या, यदि दृष्ट भिक्षामटन तत इदं वक्ति-तत्रैव श्रावकादिगृहे भक्षयित्वा इहागत इति । अथ न दृष्टो भिक्षामस्ततः--- अहि किं वेला तेसि निबंधमि दायणे खिंसा । ओहामिओ उ बहुओ वण्णो अ पहाविओ तहि ॥ ६० ॥
अदृष्टे सतीदं वक्तव्यं किं वेला वर्त्तते भिक्षाटनस्य १, अथैवमप्युक्तानां पत्रकदर्शने निर्बन्धः ततो 'दाणत्ति दर्शयति पत्रकं, दृष्टे च पत्रके सति 'खिंसति' ते सागारिकास्तं बटुकं जुगुप्सन्ते धिक् त्वामसमीक्षितभाषिणमिति । ततः किं जातम् १'ओहामिओ उ बहुओं' अपभ्राजितो बटुकस्तिरस्कृत इत्यर्थः । वर्णश्व-यशः प्रख्यापितं तत्रेति-तस्मिन् भोजनविधी 'सुण्ण' इत्ययमवयवो व्याख्यातः, इदानीं 'बहिं सागार'त्ति अमुमवयवं व्याख्यानयन्नाह -
सुष्णघरासह वाहिं देवकुलाईसु होइ जयणा उ । तेगिच्छिघाउखोभो मरणं अणुकंपपडिअरणं ॥ ६१॥ (भा०) शून्यगृहस्यासति - अभावे 'बाहिं देवकुलाईस होति जयणा उ' ततो वहिर्देवकुलादी व्रजति, तत्रापि देवकुलादौ वनगह्वरादौ इयमेव यतना कर्त्तव्या 'वाहिं संसद लडीए दारघट्टण' इत्येवमादि सर्व कर्त्तव्यम् । अथ कथं वहिः सागारिकस
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१५९] → “नियुक्ति: [९४...] + भाष्यं [६१] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६१||
दीप अनुक्रम [१५९]
श्रीओघ- म्भवः ?, अत आह, 'तेगिच्छि'त्ति चिकित्सकः' वैद्यः स कदाचित्तस्य साधोभिक्षामटतः 'धातुखोभेत्ति धातुवैषम्यं दृष्ट्वा वहिभिक्षानियुक्तिः
इदं चिन्तयति-यद्यस्थामवस्थायामयं साधुर्भक्षणं करोति ततः 'मरणं'ति अवश्यमेव वियते, स वैद्यः 'अणुकंपत्ति अनुक- विधिः भा. द्रोणीयाम्पया 'पडियरणं'ति साधोरनुमार्गेण गत्वा निरूपणं करोति, यद्ययमिदानीमेव भक्षयिष्यति ततो निवारयिष्यामि वैद्यक-18|६० वैद्यः वृत्तिः शास्त्रपरीक्षणं वा कृतं भवति, एवमसी वैद्यस्तस्य साधोरनुमार्गेण गत्वा लीनस्तिष्ठति साधुरपि,
भा६१-६२ इरियाइ पटिकतो परिगुणणं संधिआ भि का गुणिआ ?। अम्हं एसुवएसो धम्मकहा दुविहपडिवत्ती ॥१२॥
अन्यग्राम
नयनं ईर्यापथिकाप्रतिक्रान्तः सन् 'परिगुणण'त्ति कियन्मात्रकमपि स्वाध्यायं करोति, अस्मिंश्च प्रस्तावे साधुः समधातुरेव संजातः,181
" भा. ६३ ततश्च वैद्योऽपि तं साधु समधातुं दृष्ट्वा इदं वक्ति-संहिता भेका गुणिया संहिता-चरकसुश्रुतरूपा का गुणिता?-अधीता,येन है |भवताऽऽगमनमात्रेणैव न भुझं। साधुरप्याह-'अम्हं एसुवएसों' अस्माकमयं सर्वज्ञोपदेशः, यदुत-स्वाध्यायं कृत्वा भुज्यत | इति । 'धम्मकहा दुविहपडिवत्ती' ततश्चासौ साधुर्धर्मकथां करोति, पश्चात्तस्य वैद्यस्य 'दुविहपडिवत्ति'त्ति कदाचित्संयतो भवेत् कदाचिच्छावक इति । इदानी बहिर्देवकुलादौ भुनानस्य विधिरुक्तः, यदा तु पुनर्देषकुलाद्यपि सागारिकैप्ति भवति तदाऽनुकूलमार्गव्यवस्थितं स्थण्डिल प्रति प्रयाति___थंडिल्लासइ चीरं निवायसंरक्षणाइ पंचेव । सेसं जा थंडिल्लं असईए अण्णगामंमि ॥ १३ ॥ (भा०) ।
'थंडिल्ल'त्ति स्थण्डिले गत्वा भुले, 'असतित्ति अथ स्थण्डिलं नास्ति क्षुधा च पीड्यते ततोऽस्थण्डिल एव 'चीरन्ति चीरभास्तीय पादयोरधस्ततश्च भुते, किमर्थं पुनस्तच्चीरमास्तीर्यते ? अत आह-निपातसंरक्षणाय' परिशाटिनिपातसंरक्षणार्थ,
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१६१] → “नियुक्ति: [९४...] + भाष्यं [६३] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र
||६३||
तया हि परिशाच्या निपतन्त्या पृथिवीकायादि विध्वस्यते इति । 'पंचेव'त्ति तत्र चीरोपरि अस्थण्डिलस्थः कियअक्षयति.
बीन् पश्च वा कवलान् । 'सेसं जा धंडिल' शेष-अपरं भक्तं तावन्नयति यावत्स्थण्डिलं प्राप्तम् । असईए'त्ति अपान्तराले ६ स्थण्डिलस्थासति 'अण्णगामंमि'त्ति अन्याम प्रयाति, तत्र च स्थण्डिले मुङ्ग इति । इदानीं यदुक्तं 'कालदुवेत्ति नियुक्तिकृता तझाष्यकृद् व्याख्यानयन्नाह
अपहुपते काले तं चेव दुगाउयं नइकामे । गोमुत्तिअदहाइसु मुंजइ अहवा पएसेसुं॥ १४॥ (भा०) ___ अथ तस्य भिक्षोर्गच्छतो योऽसावभिप्रेतो ग्रामः स क्रोशाये संजातः, तत्र च यदि कालः पर्याप्यते ततस्तद्भक्तं पूर्वगृ-| हीतं परित्यज्यान्यद्हाति, अथास्तमयकाल आसन्नस्ततः 'तं चेव त्ति तदेव पूर्वगृहीतं भक्त क्षेत्रातिक्रान्तमपि भुते, 'दुगाउ नइकामे'त्ति यदा तु कालः पर्याप्यते तदा तत्पूर्वगृहीतं भक्तं द्विगन्यूतात्परतो नातिकामयति-न नयति, गब्यूतद्वय एव तत्परित्यज्य याति, तत्र च गतः काले पर्याप्यमाणेऽन्यद् ग्रहीष्यतीति, यदा पुनस्तस्य साधोत्रजतः क्रोशद्वयव्यव-18 स्थितग्रामस्यारत आदित्योऽस्तमुपयाति न चान्तराले स्थण्डिलमस्ति तदा 'गोमुत्तिगदड्डादिसु भुजे' गोमूत्रदग्धेषु देशेषु भुञ्जीत, आदिशब्दात्सूकरोत्कीर्णभूप्रदेशादी भुत इति, 'अहवा पएसेसु'त्ति यदि गोमूत्रदग्धादिस्थानं न भवति ततो धमाधर्माकाशास्तिकायकल्पना तस्मिन् स्थाने कृत्वा भुते, एतदुक्तं भवति-धर्माधर्माकाशास्तिकायस्तिरोहितायां भुवि अर्द्ध-15 व्यवस्थितः, ततश्चानया यतनया सशूकता दर्शिता भवति । उक्तं सम्ज्ञिद्वारम् , इदानीं साधर्मिकद्वारप्रतिपादनायाहदिहमदिहा दुविहा नायगुणा चेव हुंति अन्नाया । अदिहावि अदुविहा सुअमसुअ पसस्थमपसस्था ।।९५॥3
ACCHANDAN
दीप अनुक्रम [१६१]
SAREaratund
murary.au
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
॥६४॥
दीप
अनुक्रम
[१६२ ]
श्री ओघनिर्युक्तिः द्रोणीया वृत्तिः
॥ ५४ ॥
Educator
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
→
मूलं [ १६२ ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
“निर्युक्तिः [९५] + भाष्यं [ ६४ ] + प्रक्षेपं [३...]" ८० आगमसूत्र [४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
साधर्मिका द्विविधाः दृष्टा अदृष्टाश्च, 'नायगुणा तह य चेव अण्णाया' ये ते दृष्टाः साधर्मिकास्ते द्विविधाः - कदाचिज्ज्ञातगुणा भवन्ति कदाचिदज्ञातगुणाः, 'अदिद्वावि अ दुबिहा' येऽप्यदृष्टाः साधर्मिकास्तेऽपि द्विविधा:-'सुय असुयन्ति श्रुतगुणा अश्रुतगुणाश्च । 'पसत्थापसत्य'त्ति ये ते ज्ञातगुणास्ते द्विविधाः - प्रशस्तज्ञातगुणा अप्रशस्तज्ञातगुणाश्च, येऽपि तेऽज्ञातगुणास्तेऽपि द्विविधाः - प्रशस्ताज्ञातगुणा अप्रशस्ताज्ञातगुणाश्चेति, येऽपि ते श्रुतगुणास्तेऽपि द्विविधाः - प्रशस्तश्रुतगुणा अप्रशस्त श्रुतगुणाश्च येऽपि तेऽश्रुतगुणास्तेऽपि द्विविधाः - प्रशस्ताश्रुतगुणा अप्रशस्ताश्रुतगुणाश्च । आह-ये दृष्टास्ते कथमज्ञातगुणा भवन्तीत्यत आह
दिट्ठा व समोसरणे न य नाथगुणा हवेज ते समणा । सुअगुण पसत्थ इयरे समणुनिअरे य सवेवि ॥ ९६ ॥
'दृष्टाः' उपलब्धाः सामान्यतो झटिति क ? - 'समवसरणे' स्नात्रादौ न च ज्ञातगुणास्ते भवेयुः श्रमणाः, 'सुयगुणपसत्थ इयरे त्ति इतरे इति अदृष्टानां परामर्शः, ते अदृष्टाः सुयगुणेति श्रुतगुणा अपि सन्तः पसत्यत्ति - प्रशस्त श्रुतगुणा गृह्यन्ते, तदनेन सुयगुण पसत्यत्ति भावितं, इयरेत्ति-इतरे इत्यद्दष्टानां परामर्शः ते अदृष्टाः श्रुतगुणा इत्ययमनन्तरगाथोपन्यस्तभङ्गकः एकः सूचित इति 'समणुन्नियरे य सवेऽवि' सर्वेऽपि चैते श्रुतादिगुणभेदभिन्नाः साधवः समनोज्ञाः इतरे च-असमनोज्ञा इति च, साम्भोगिका असाम्भोगिकाश्चेत्यर्थः । इदानीमेषां श्रमणानां सर्वेषां मध्ये ये शुद्धास्तेष्वेव संवसनं करोति नेतरेष्विति, अमुमेवार्थ प्रतिपादयन्नाह
जह सुद्धा संवासो होइ असुद्वाण दुविह पडिलेहा । अभिंतरवाहिरिआ दुविहा दवे अ भावे अ ॥ ९७ ॥
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अन्यग्रामनयनं
भा. ६४ | साधर्मिकाः
नि. ९५-९७
॥ ५४ ॥
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
॥९७||
दीप
अनुक्रम [१६५ ]
मो० १०
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [ १६५] • → मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
८०
"निर्युक्तिः [९७] + भाष्यं [६४...] + प्रक्षेपं [३...]" आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
यदि शुद्धाः संवासशुद्धाः, के अभिधीयन्ते १, प्रशस्त श्रुतगुणास्तथा प्रशस्ताज्ञातगुणाश्च तेष्वेवंविधेषु संवासं संवसनं करोति । 'होइ असुद्धाण दुविह पडिलेहा' भवत्यशुद्धानां द्विविधा प्रत्युपेक्षणा, तत्राशुद्धा अप्रशस्त श्रुतगुणास्तथाऽप्रशस्तज्ञातगुणा अशुद्धा अभिधीयन्ते तद्विषयं द्विविधं प्रत्युपेक्षणं भवति, कथम् १-'अम्भितरबाहिरिआ' एका अभ्यन्तरप्रत्युपेक्षणाऽभ्यन्तरेत्यर्थः, अपरा बाह्यप्रत्युपेक्षणा, 'दुबिहा दवे य भावे य' एकैका च प्रत्युपेक्षणा द्विविधा, 'देवे य भावे य' याऽसौ अभ्यन्तरा प्रत्युपेक्षणा सा द्रव्यतो भावतश्च भवति, याऽपि बाह्या प्रत्युपेक्षणा साऽपि द्रव्यतो भावतश्चेति द्विविधैव । इदानीं वाह्यां प्रत्युपेक्षणां द्रव्यतः प्रतिपादयन्नाह—
घातलिदंड पाय संलग्गिरी अणुवओगो । दिसि पवणगामसूरिअ वितहं उच्छोलणा दवे ॥ ९८ ॥
हादिति पृष्टा जासु दत्तफेनका, आदिशब्दात्सु मट्ठा तुप्पोडादयो गृह्यन्ते, 'तलिग त्ति सोपानत्का:- उपानदूढपादाः 'दंडग' त्ति चित्रलतादण्डकैर्गृहीतः 'पाउय' मिति प्रावृतं यथा संयत्यः प्रावृण्वन्ति कल्पं तथा तैः प्रावृतं 'संलग्गिरित्ति परस्परं हस्तावलगिकया व्रजन्ति, अथवा संलग्गिरीति युगलिता व्रजन्ति, 'अणुवओगो'त्ति अनुपयुक्ता व्रजन्ति, ईर्यायामनुपयुक्ताः, एवं बहिर्भुवं गच्छन्तः प्रत्युपेक्षिताः, इदानीं सन्ज्ञाभूमीप्राप्तान् संयतान् प्रत्युपेक्षते- 'दिसि'त्ति आगमोक्तदिग्विपर्यासेनोपविशन्ति, 'पवण'त्ति पवनस्य प्रतिकूलमुपवेष्टव्यं ते तु आनुकूल्येन पवनस्योपविशन्ति, 'गाम'त्ति ग्रामस्याभिमुखेनोपवेष्टव्यं ते तु पृष्ठं दत्त्वोपविशन्ति, 'सूरिय'त्ति सूर्यस्याभिमुखेनोपवेष्टव्यं ते तु पृष्ठे दत्त्वोपविशन्ति । एवमुकेन प्रकारेण वितथं कुर्वन्ति, 'उच्छोलण'त्ति पुरीपमुत्सृज्य प्रभूतेन पयसा क्षालनं कुर्वन्ति, 'दवे 'ति द्वारपरामर्शः, इयं
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१६६] .. "नियुक्ति: [९८] + भाष्यं [६४...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
साधुपरीक्षा ९९-१००
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||९८||
श्रीओष
तावद्वाह्या द्रव्यतः प्रत्युपेक्षणा । आह-अनन्तरमाथायां अभ्यन्तरायाः प्रत्युपेक्षणायाः प्रथममुपन्यासः कृतः, ततस्तामेव नियुक्ति व्याख्यातुं युक्तं न तु बाह्यामिति, उच्यते, प्रथमं तावद्वायैव प्रत्युपेक्षणा भवति पश्चादाभ्यन्तरा, अतो वायैव व्याख्या-1 द्रोणीया यते, आह-किमितीत्थमेव नोपन्यासः कृतः१, उच्यते, अभ्यन्तरप्रत्युपेक्षणायाः प्राधान्यख्यापनार्थमादाबुपन्यासः कृतः ।। वृत्तिः
एवं तावद्वारा प्रत्युपेक्षणा द्रव्यतोऽभिहिता, इदानीं वाह्या प्रत्युपेक्षणां भावतः प्रतिपादयमाह
विकहा हसिजग्गाइय भिन्नकहाचकवालछलिअकहा । माणुसतिरिआवाए दायणआयरणया भावे ॥१९॥ KI 'विकथा विरूपा कथा अथवा 'विकथा' स्त्रीभक्तचौरजनपदकथा तां कुर्वन्तो ब्रजन्ति, तथा हसन्त उद्गायन्तश्च ब्रजन्ति,
'भिन्नकह'त्ति मैथुनसंबद्धा राभसिका कथा तां कुर्वन्सो ब्रजन्ति, 'चकवाल'त्ति मण्डलवन्धेन स्थिता व्रजन्ति, 'छलिअकहत्ति षट्पज्ञकगाथा: पठन्तो गच्छन्ति, तथा 'माणुसतिरिआवाए'त्ति मानुषापाते तिर्यगापाते सम्झां व्युत्सृजन्ति, 'दायण'त्ति (दर्शनता) परस्परस्याङ्गुल्या किमपि दर्शयन्ति इयमेव आचरणता दर्शनताऽऽचरणता, भावेत्ति द्वारपरामर्शः, इयं बाह्यभावमङ्गीकृत्य प्रत्युपेक्षणा, एवं बाह्यप्रत्युपेक्षणयाशुद्धानपि साधून दृष्ट्वा प्रविशति, कदाचित्ते गुरोरनादेशेनैव एवं कुर्वन्ति । एतदेव प्रतिपादयन्नाहबाहिं जइवि असुद्धातहावि गंतूण गुरुपरिक्खा ।अहव विसुद्धा तहवि उ अंतोदुबिहा उ पडिलेहा॥१०॥ | बाह्यपत्युपेक्षणामङ्गीकृत्य यद्यष्यशुद्धास्तथाऽपि प्रविश्य गुरोः परीक्षा कर्तव्या, अथवा बाह्यप्रत्युपेक्षणया विशुद्धा एव भवंति तथाऽपि त्वन्तः-अभ्यन्सरतः अभ्यन्तरां प्रत्युपेक्षणामाश्रित्य द्विविधैव प्रत्युपेक्षणा भवति कर्त्तव्या-व्यतो भाव
दीप अनुक्रम [१६६]
॥ ५५॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१६८] - "नियुक्ति: [१००] + भाष्यं [६४...] + प्रक्षेपं [३...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१००||
SSSSSSSS
वश्व इदानीमसौ अभ्यन्तरप्रत्युपेक्षणामङ्गीकृत्य द्रव्यतः परीक्षां करोति साधर्मिकासन्नेषु कुलेषु भिक्षाचर्यायां प्रविष्टः सम् -1 पविसंतनिमित्समणेसणं व साहहन एरिसा समणा । अम्हंपि ते कहती कुकुडवरियाइठाणं च ॥१०१ ॥
प्रविशन् भिक्षार्थ निमित्तं पृच्छचते गृहस्पैस्ततश्च न कथयति, 'अणेसणं' अनेषणां गृहस्थेन क्रियमाणां निवारयति, 'न एरिसा समणा' नास्मदीया एवंविधाः श्रमणाः, अस्माकं हि ते निमित्तं कथयन्ति अनेषणीयमपि गृहन्ति एवमभिधीयते गृहस्थेन, 'कुकुड'त्ति कुकुडप्रायोऽयमिति । एवं तावनिक्षामटता प्रत्युपेक्षणा कृता, इदानीं दूरस्थ एवोपाश्रयप्रत्युपेक्षणां । करोति-'खरिआदिवाण'ति खरिया-त्यक्षरिका तत्समीपे स्थान-उपाश्रयः, आदिशब्दाचरिकादिसमीपे वा । इयं ताप-16 वसतिबाह्या प्रत्युपेक्षणा कृता, इदानीमुपाश्रयाभ्यन्तरे द्रव्यमत्युपेक्षणां कुर्वन्नाह
दबंमि ठाणफलए सेज्जासंथारकायउच्चारे । कंदप्पगीयविकहा बुग्गहकिड्डा य भावंमि ॥ १०२॥ द्रव्यमित्ति द्वारपरामर्शः, 'ठाणफलए'त्ति स्थान-अवस्थितिः, फलकानामवस्थितिं पश्यति, तानि हि वर्षाकाल एव गृह्यन्ते न शेषकाले, स तु प्रविष्टः शेषकालेऽपि फलकानि गृहीतानि पश्यति, 'सेज्जा' इति शेरतेऽस्यामिति शय्या-आस्तरणं तदास्तृतमेवास्ते, संसारकाः-तृणमयाः, प्रकीर्यन्तेऽधस्तृणानि स्वपद्भिस्तं संस्तारकं पश्यति, 'काय'त्ति कायिकाभूमि
गृहस्थसंबद्धां पश्यति, 'उच्चारति गृहस्थैः सह पुरीषव्युत्सर्ग कुर्वन्ति, अथवा 'उच्चार'ति श्लेष्मणः परिष्ठापनमङ्गणे कुर्वन्ति, 18 एवं स साधुः प्रविशति । इयमभ्यन्तरा द्रव्यप्रत्युपेक्षणा, इदानीमभ्यन्तरां भावप्रत्युपेक्षणां प्रतिपादयन्नाह-कन्दर्पगीत
दीप अनुक्रम [१६८]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१७०] - "नियुक्ति: [१०२] + भाष्यं [६४...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
नियुक्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१०२||
श्रीओघ- |विकथाः कुर्वन्ति, तथा 'बुग्गह'त्ति विग्रहः कलहसं कुर्वन्ति, 'किड्डु'त्ति पाशककपर्दकैः क्रीडन्सि, 'भावंमि' भावविषया साधुपरीक्षा प्रत्युपेक्षणा । उक्ता अभ्यन्तरा भावप्रत्युपेक्षणा, इदानीमेतद्दोषवर्जितेषु संयतेषु प्रविशति, एतदेवाह
नि.१०१द्रोणीया संविग्गेसु पवेसो संविग्गऽमणुन्न बाहि किहकम्मं । ठवणकुलापुच्छणया एत्तोचिअ गच्छ गविसणया ॥१०॥
१०२-१०३ __ संविनाः-मोक्षाभिलाषिणस्तेषु प्रवेशः कर्तव्यः समनोज्ञेषु । अथ समनोज्ञा न सन्ति ततः 'संविग्गऽमणुण्ण त्ति संविज्ञेषु अमनोज्ञेषु प्रवेशः, तत्र च 'बाहि'त्ति बहिरेव प्रविशन्नुपकरणमेकस्मिन् प्रदेशे मुश्चति, ततः 'कितिकम्मति तदुत्तरकालं वंदना १०४ करोति, ततः 'ठवणकुलापुच्छणया' स्थापनाकुलानि पृच्छति भिक्षार्थ, ततस्ते कथयन्ति-अमुकत्रामुकानि । 'एत्तोच्चि गच्छत्ति अस्या एव भिक्षाटनभूमेर्गमिष्यामि, इत्येवं ब्रवीति । 'गवेसणयत्ति तं तस्मात्रामादेर्निर्गतं न निर्गतमिति वा एवं गवेषणं कुर्वन्ति । उक्तं साधर्मिकद्वारम्, इदानीं वसतिद्वारमभिधीयते, स च साधुर्गच्छन् अस्तमनसमये वसतिं निरूपयति, सा च एषु स्थानेषु निरूपणीया___संविग्गसंनिभष्ठग सुन्ने निइयाइ मोतु हाच्छंदे । बच्चतस्सेतेसुं वसहीए मग्गणा होइ ॥१०४॥ 'संविग्गेसु वसतिमग्गणा होइ' सविनेषु वसतिमार्गणा कर्त्तव्या, सजी-श्राद्धः भद्रकः-संविग्नभावितस्तस्मिन् वा वसतिमार्गणा
॥५६ ।। कर्त्तव्या, तदभावे शून्यगृहादौ वसतिमार्गणा कर्तव्या, "णितियादि त्ति नित्यवासादिषु, आदिशब्दात्पार्श्वस्थादयखयो है गृह्यन्ते, तेषु वसतिमार्गणं कर्त्तव्यं, 'मोत्तुहाच्छंदे'त्ति मुक्त्वा यथाच्छन्दान् स्वच्छन्दानित्यर्थः, तत्र वसतिर्न मृग्यते,
KALASTUSHA*
दीप अनुक्रम [१७०]
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वसति-स्थान संबंधी विधानं
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१७२] . "नियुक्ति: [१०४] + भाष्यं [६४...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१०४||
बजतः साधोरेतेष्वनन्तरोदितेषु वसतेार्गणा-अन्वेषणं कर्त्तव्यम् । इयं द्वारगाथा वर्त्तते । इदानीमेतामेव गाथा प्रतिपदं व्याख्यानयनाह
वसही समणुण्णेसुं निइयादमणुपण अण्णहि निवेए।संनिगिहि इत्थिरहिए सहिए वीसुंघरकडीए ॥१०॥ BI वसतिरन्वेषणीया, क, अत आह-समणुण्णेसुं' संविग्नसमनोज्ञेषु आदी वसतिरन्वेषणीया, 'नितियादमणुन्न अण्णहि | निवेए' अथ तु तत्र नित्यवास्थादयः अमनोज्ञा अन्यसामाचारीप्रतिबद्धा वा भवन्ति, आदिशब्दात्पाभ्रस्थादयो गृह्यन्ते, ततश्चैतेषु विद्यमानेषु नैतेषां मध्ये निवसितव्यं, किन्तु 'अण्णहि अन्यत्र वसतिं कृत्वा 'णिवेदे निवेदयित्वा एषामेव-यथाऽमु
मिन् अहं वसिष्यामि प्रतिजागरणीयो भवद्भिरिति, क्वासौ निवसति ? किंविशिष्टे वा गृहे निवसति ?-सज्ञी-श्रावकः, दिस च यदि महिलया रहितस्ततस्तद्गृहे वसति, अथासौ नास्ति ततः 'गिहित्ति गृही भद्रकोऽत्र सूचितः, स च स्त्रिया रहि
तस्तत्समीपे वसति, अथ भद्रकोऽपि खीरहितो नास्ति किन्तु सहितः खिया, ततः सहिते-खीयुक्ते सति 'वीसुति पृथग् निवसति, क ?-'घरकुटीए' तस्यैव गृहस्थस्य बहिरवस्थितं धनकादि, अथवा तत्फलहिकान्तर्गतकुव्यां वा निवसति ।। द अथ भद्रकादिगृहं नास्ति ततः शून्यगृहे निवसति । किंविशिष्टे , अत आहHI अहणुवासि सकवाड निधिले निचले वसइ सुण्णो । अनिवेइएयरेसिं गेलने न एस अहंति ॥१०६॥1
'अहुणुचासिय'त्ति अधुना यदुद्वसितं तदपि सकपाटं यदि भवति तदपि निर्बिलं भवति निर्बिलमपि यदि निश्चलं भवति न पतनभयं यत्र तत्र वसितव्यं, तत्र चैते गाधोपन्यस्तानां चतुर्णा पदानां पोडश भङ्गका निष्पद्यन्ते, स चैवंविघे गृहे
दीप अनुक्रम [१७२]
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||१०६ ||
दीप
अनुक्रम [१७४]
श्री ओपनिर्युक्तिः द्रोणीया वृत्तिः
॥ ५७ ॥
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [ १७४] •→ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
“निर्युक्तिः [१०६] + भाष्यं [ ६४ ] + प्रक्षेपं [३...]" आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
वसतिं कथयित्वा नित्यवास्यादीनां यथाऽहमत्रोषितो भवद्भिर्भलनीयो, यदा पुनः 'अणिवेदितेतरेसिंति यदा तु नित्यवास्यादीनामनिवेद्य वसति, तत्र च उषितः सन् दैवयोगाद् ग्लानः संजातस्ततो ग्लानत्वे सति नित्यवास्थादीनां स गृहस्थ आगत्य कथयति-यदुत प्रब्रजितोऽपटुः संजातः, ते नित्यवास्यादयोऽस्माकं न कथितमितिकृत्वा एवं ब्रुवते -'न एस अम्हें' ति न एषोऽस्माकं - नायमस्मद्गोचरे, यदा तु पुनः पूर्वोक्तानां सर्वेषामेवाभावः संजातः, किन्तु तस्मिन् क्षेत्रे नित्यवास्यादयः सन्ति ततस्तेष्वेव वसितव्यम्, एतदेवाह-
नया अपरिभुत्ते सहिएयर पक्खिए व सज्झाए । कालो सेसमकालो वासो पुण कालचारीसु ॥ १०७ ॥ नित्यवास्यादी वसति, आदिशब्दादमनोज्ञेषु वसति कथमित्याह- 'अपरिभुत्ते त्ति तैर्नित्यवास्यादिभिर्यः प्रदेशस्त वसतेर्न परिभुक्तः - अनाक्रान्तस्तस्मिन् प्रदेशे अपरिभुक्ते च सति वसति, सहितेतर'ति ते च नित्यवास्यादयः सहितेतरे संहिताःसंयतीभिर्युक्ताः केचन नित्यवास्यादयो भवन्ति, इतरे इत्यपरे संयतीरहिता भवन्ति, तेषु च निवसति । ये ते संयतीभिर्यु| कास्ते द्विविधाः-एके कालचारिणीभिः संयतीभिर्युक्ताः, तत्र निवसत्येव, अपरे अकालचारिणीभिः संयतीभिर्युकाः, कक्ष काल: १, 'पक्खिए व सज्झाए त्ति ताः संयत्यः पाक्षिकक्षामणार्थमागच्छन्ति स्वाध्यायार्थं वा, अयं कालः, शेषन्तु अकाल, तत्र 'वासो पुण कालचारीसु' वासस्तु तस्य साधोः कालचारिश्रमणीयुक्तेषु भवतीति । अथ कालचारिसंयतीयुक्ताः साधवो न सन्ति ततः-
ते परं पासत्थाइएस न य बसहऽकालचारीसु । गहिआवासगकरणं ठाणं गहिएण गहिएणं ॥ १०८ ॥
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स्थानविधिः नि. १०५१०९
।। ५७ ।।
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१७६] - "नियुक्ति: [१०८] + भाष्यं [६४...] + प्रक्षेपं [३...]" । मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१०८||
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ततः पार्थस्थादिषु वसति, न च वसत्यकालचारिसंयतीयुक्तेषु, तेषु च पार्श्वस्थादिषु को विधिरित्येतदाह-'महिआवा-18 *सगकरण ति गृहीतेन, केन :-उपधिना, अनिक्षिप्तेनेत्यर्थः, आवश्यक-प्रतिक्रमणं करोति, ततश्च प्रतिकान्ते सति तत्रैवल 8ठाण'ति कायोत्सर्ग करोति । 'गहिएणऽगहिएणति यदि शक्नोति ततो गृहीतेनोपकरणेन कायोत्सर्ग करोति, अथ न
शक्रोति ततः 'अगहिएणति अगृहीतेनोपकरणेन कायोत्सर्ग करोति । अथ कायोत्सर्ग कर्तुं न शक्नोति श्रान्तः सन् ततः-15 निसिअ तुयण जग्गण विराहणभएण पासि निक्खिवइ । पासस्थाईणेवं निइए नवरं अपरिभुत्ते ॥ १०९॥
ततो निषण्णः-उपविष्टः गृहीतेनोपकरणेनास्ते 'तुअट्टण ति त्वग्वर्त्तनं-निमज्जनं करोति, गृहीतेनोपकरणेन करोति ६ यदि शक्नोति, 'जग्गण'त्ति यदिवा गृहीतेनैवोपकरणेन जाग्रदास्ते, न स्वपिति, अथ जागरणमपि कर्नु न शक्नोति ततः
विराहणभएणति विराधनाभयेन-पात्रकभङ्गभयेनोपकरणं पाबें निक्षिपति, ततः स्वपिति निक्षिप्तोपकरणः सन् , 'पासत्यादीणे' पार्श्वस्थादीनां संबन्धिन्यां वसतौ एवंविधो विधिः-उक्तलक्षणोद्रष्टव्यः । 'निइए नवरं अपरिभुत्ते नियतवासिना वसतौ अयं विधिज्ञेयः, यदुत-"गहिआवासयकरण मित्यादि, यदि परं अपरिभुक्ते प्रदेशे पात्राद्युपकरणं स्थापयित्वा | स्वपितीति । यथा पार्श्वस्थादिषु वसतो विधिरुक्तः, एवं अहाच्छंदेऽपि विधिरिति, अत आहप्रमेव अहाच्छंदे पडिहणणा झाण अज्झयण कन्ना । ठाणट्टिओ निसामे सुवणाहरणा य गहिएणं ॥ ११ ॥
यः पार्थास्थादौ वसतो विधिः प्रतिपादितः एवमेव अहाच्छन्देऽपि विधिद्रष्टव्यः, केवलमयं विशेषः-'पडिहणण'त्ति तस्य अहाच्छन्दस्य धर्मकथां कुर्वतोऽसन्मार्गप्ररूपिका तेन साधुना 'प्रतिहननं व्याघातः कर्त्तव्यः, यथैतदेवं न भवति,
दीप अनुक्रम [१७६]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१७८] - "नियुक्ति: [११०] + भाष्यं [६४...] + प्रक्षेपं [३...]" । मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||११०||
श्रीओप-1'झाण'त्ति अथ तद्धर्मकथायाः प्रतिघातं कर्तुं न शक्नोति ततो ध्यानं करोति, ध्यायन्नास्ते धर्मध्यानं, अथ तथाऽपि धर्मकथां स्थानविधिः नियुक्तिः 18 करोति ततः 'अज्झयण त्ति धर्मकथाव्याघातार्थमध्ययनं करोति, अथ तथाऽपि न तिष्ठति ततः कौँ स्थगयति
नि. १०९. द्रोणीया
११० धर्मकथाव्याघातार्थमिति । अथवा 'सुवणाहरणा यत्ति सुप्तः सन् आहरणा-घोरयति घोरणं करोति महता शब्देन, सोऽपि वृत्तिः
| निर्विण्णः सन् उपसंहरति धर्मकथामिति । उक्तं वसतिद्वारं, षष्ठे द्वारे स्थानस्थितो भवति इदमुक्तं, स च एभिः कारणैः- णानि ॥५४॥ असिवे ओमोयरिए रायदुहे भए नदुहाणे । फिडिअगिलाणे कालगवासे ठाणहिओ होइ ॥ १११॥ नि. १११
'असिवे' देवताजनितोपद्रवे सति तस्मिन् यत्राभिप्रेतं गमनं कदाचिदपान्तराले या भवति ततश्चानेन कारणेन स्थान₹ स्थितो भवति, 'ओमोयरिए'त्ति दुर्भिक्षं विवक्षिते देशे जातमपान्तराले वा ततश्च स्थानस्थितो भवति, 'रायदुहे'त्ति राजद्विष्ट
कदाचित्तत्र भवत्यभिप्रेतदेशे अन्तराले वा तेनैव कारणेन स्थानस्थितो भवति, 'भपत्ति म्लेच्छादिभयं विवक्षिते देशे अपान्तराले वा तेन कारणेन स्थानस्थितो भवति, 'नइत्ति कदाचिन्नदी विवक्षिते देशेऽपान्तराले वा भवति तेन प्रतिब-18 न्धेन स्थानस्थितो भवति ('उहिए'त्ति कदाचित्तत्रापान्तराले वा उद्वसितं जातं तेन कारणेन स्थानस्थितो भवति) 'फिडिय'त्ति कदाचिदसावाचार्यः तस्मात् क्षेत्रात् च्युतः-अपगतो भवति ततश्च तावदास्ते यावद्वार्ता भवति, अनेन कारणेन स्थानस्थितो भवति । 'गिलापो'त्ति ग्लानः कदाचिन्मनाम् भवति स्वयं कदाचिदन्यः कश्चिद् ग्लानो भवति तेन प्रतिवन्धेन स्थानस्थितो भवति । 'कालगय'त्ति कदाचिदसावाचार्यः कालगतो-मृतो वा भवति, यावत्तनिश्चयो भवति तावत्स्थान
दीप अनुक्रम [१७८]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१७९] - "नियुक्ति: [१११] + भाष्यं [६४...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१११||
स्थानकार
णानि | भा.६५-६६
नि.११२
स्थितो भवति । 'वासति वर्षाकालः संजातस्ततस्तत्प्रतिबन्धात्स्थानस्थितो भवति-तत्रैव ग्रामादावास्ते । इयं द्वारगाथा, | इदानी नियुक्तिकार एव कानिचिट्ठाराणि व्याख्यानयनाहतत्थेच अंतरा वा असिवादी सोउ परिरयस्सऽसई।संचिक्खे जाव सिवं अहवाची तेतओ फिडिआ ॥११॥
'तत्रेति योऽसौ विवक्षितो देशः 'अन्तरा' अन्तराले वा असिवादयो जाता इति 'श्रुत्वा' आकर्ण्य, आदिग्रहणादवमोदरिकाराजद्विष्टभयानि परिगृह्यन्ते 'परिरयस्सऽसईत्ति भमाडयस्स 'असति' अभावे तिष्ठति, एतदुक्तं भवति-यदि गन्तुं शक्नोति भ्रमिणा ततोऽपान्तराल परिहत्याभिलषितं स्थानं गच्छति । अध न शक्यते गन्तुं ततः 'संचिक्खे'त्ति संतिष्ठेत् , कियन्तं कालं यावदत आह-'जाव सिवं' 'यावच्छिवं निरुपद्रवं जातमिति । 'अहवावी ते ततो फिडिआ' अथवा 'ते' आचार्यादयः 'तस्मात्' क्षेत्रात् 'अपगताः' भ्रष्टा इति, ततश्च वार्तोपलम्भ यावत्तिष्ठति । इदानीं भाष्यकृच्छेपद्वाराणि व्याख्यानयन्नाहपुषणा व नई चउमासबाहिणी नयि अ कोइ उत्तारे।तत्वंतराव देसोव उडिओन य लगभइ पबत्ती ॥६५॥ (भा०)
'पूर्णा' भृता, का ?-नदी, किंविशिष्टा ?-चतुर्मासवाहिनी, न कश्चिदुत्तारयति, ततोऽपान्तराल एव तिष्ठति । तत्र' | अन्तराले वा देशः 'उत्थितः' उद्वसितः, न च 'प्रवृत्तिः वार्ता लभ्यते अतस्तिष्ठति तावत्,फिडिएमु जा पवित्तीसयं गिलाणो परं व पडियरइ । कालगया व पवत्ती ससंकिए जाब निस्संकं॥६६॥(भा०) 'फिडितेसु' तस्मात्क्षेत्रादपगतेषु सत्सु 'जा पवत्ती' यावद्वार्ता भवति तावत्तिष्ठति, तथा 'सयं गिलाणों' स्वयमेव ग्लानो
RECRSALESE
दीप अनुक्रम [१७९]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१८०] » “नियुक्ति : [११२] + भाष्यं [६६] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
तास्त
चतुर्मासी
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||११२||
वृत्तिः
दीप अनुक्रम [१८०]
श्रीओघ- जातस्ततस्तिष्ठति, 'परं व पडियरई' अन्यं वा ग्लानं सन्तं प्रतिचरति । द्वारम् । 'कालगया व पवत्ती' अथवा कालगतास्त नियुक्तिः आचार्या इत्येवंभूताः प्रवृत्तिः श्रुता-अतः 'ससंकिते जाव नीसंक' सशङ्कायां-वार्तायामनिश्चितायां तावदास्ते याव- स्थानविधिद्रोणीया || निम्शवं संजातमिति ॥
नि.११३| वासासु उम्भिण्णा बीयाई तेण अंतरा चिट्टे । तेगिच्छि भोइ सारक्खणहढे ठाणमिच्छति ॥ ११३॥
११४ ॥५९॥
| वर्षासु उद्भिन्ना बीजादयः, आदिशब्दादनन्तकायः, तेन कारणेनापान्तराल एव तिष्ठति, तत्र च वर्षाकालप्रतिबन्धादामादौ तिष्ठन् किं करोति ?-'तेगिच्छि चिकित्सकः-वैद्यस्तमापृच्छति, यथा त्वया ममेह तिष्ठतो मन्दस्य भलनीयम् । भोइ'त्ति 'भोगिक' ग्रामस्वामिनं पृच्छति, किमर्थं पुनर्वैद्यभोगिकयोः प्रच्छनं करोत्यत आह-'सारक्खणहहे' वैद्य पृच्छति मन्दतायां सत्यां दृढीकरणार्थ, भोगिक पृच्छति संरक्षणार्थ परिभवादेः, ततः स्थान-वसनमिच्छन्ति, केष्वित्यत आह
संविग्गसंनिभद्दग अहप्पहाणेसु भोइयघरे वा । ठवणा आयरियस्सा सामायारी पउंजणया ॥ ११४॥ __ वैद्यभोगिकयोः कथयित्वा संविग्नेषु-मोक्षाभिलाषिषु तिष्ठति । 'सण्णि'त्ति सम्झी-श्रावकस्तहहे तिष्ठति, भद्रकः साधूनां तद्गृहे वा निवासं करोति । 'अहप्पहाणेसुत्ति यथाप्रधानेष्विति-यो यत्र ग्रामादौ प्रधानः तेषु यथाप्रधानेष्वेव प्रधानतः तिष्ठति।
एतेषामभावे 'भोइयघरे वत्ति 'भोगिकगृहे वा' ग्रामस्वामिनो गृहे वा तिष्ठति, तत्र च तिष्ठन् किं करोतीत्यत आह-'ठवणा ॥ ५९॥ दाआयरियस्सा' दण्डकादिकमाचार्य कल्पयति निराबाधे प्रदेशे, अयं ममाचार्य इति, तस्य चाग्रतः सकलां चक्रवालसामाचारी
प्रयुड़े, निवेद्य करोतीत्यर्थः । एष एकः कारणिका, एतच्च कारणिकद्वारं,
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१८५] . "नियुक्ति: [११५] + भाष्यं [६६...] + प्रक्षेपं [३...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
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प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||११५|
एवं ता कारणिओ दुइजाइ जुत्त अप्पमाएणं । निकारणि एत्तो चइओ आहिंडिओ चेव ॥११५॥ एवं तावत् कारणिको 'दूइजाई विहरति, कथं विहरति ?-'जुत्तो अप्पमाएण' अप्रमादेन युक्तः प्रयत्नपर इत्यर्थः, निष्कारणिकः इतः अत अमुच्यते,स द्विविधः-चइओ-त्याजितःसारणावारणादिभिस्त्याजितः, आहिण्डकः-अगीतार्थः स्तूपादिद दर्शनप्रवृत्तः। तत्र तावत्याजित उच्यते
जह सागरंमि मीणा संखोहं सागरस्स असहता । निति तओ सुहकामी निग्गय मित्ता विनस्संति ॥११६॥13 ट्रा यथा 'सागरे' समुद्रे 'मीनाः' मत्स्याः संक्षोभं सागरस्य असहमाना निर्गच्छन्ति ततः समुद्रात् 'सुखकामिनः' सुखाभिलाषिणो, निर्गतमात्राश्च विनश्यन्ति ॥ एवं गच्छसमुहे सारणवीईहिं चोइया संता । निति तओ सुहकामी मीणा व जहा विणस्संति ॥११७॥
एवं गच्छसमुद्रे सारणावारणा एव वीचयस्ताभिस्त्याजिताः सन्तो निर्गच्छन्ति ततो गच्छसमुद्रात्सुखाभिलाषिणो मीना इव-मीना यथा तथा विनश्यन्ति । उक्तं त्याजितद्वारम् , इदानीमाहिण्डक उच्यते
उचएस अणुवएसा दुविहा आहिंडआ समासेणं । उवएस देसदसण अणुवएसा इमे होति ॥ ११८॥
उपदेशहिण्डका अनुपदेशहिण्डकाच, एवं द्विविधा हिण्डकाः 'समासतः' सोपेण । 'उवएस'त्ति उपदेशहिण्डको यो| देशदर्शनार्थ सूत्रार्थोभयनिष्पन्नो 'हिण्डते' विहरति । 'अणुवदेस'त्ति अनुपदेशाहिण्डका इमे भवन्ति वक्ष्यमाणका|चक्के थूभे पडिमा जम्मण निक्खमण नाण निवाणे । संखडि विहार आहार उवहि तह दसणवाए ॥ ११९ ॥
दीप अनुक्रम [१८५]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१८९] - "नियुक्ति: [११९] + भाष्यं [६६...] + प्रक्षेपं [३...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
श्रीओघनियुक्तिः द्रोणीया वृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||११९||
१२२
॥६
॥
'चक्र' धर्मचक्रं 'स्तूपो' मथुरायां 'प्रतिमा' जीवन्तस्वामिसंबन्धिनी पुरिकायां पश्यति, 'जम्मणति जन्म-यत्रार्हता कारणाकासौरिकपुरादौ ब्रजति निष्क्रमणभुर्व-उज्जयन्तादि द्रष्टुं प्रयाति ज्ञानं यत्रैवोत्पन्नं सत्प्रदेशदर्शनार्थं प्रयाति निर्वाणभूमि- रणकाकित्वं दर्शनार्थं प्रयाति । संखडीप्रकरणं तदर्थं प्रजति, 'विहारेति विहारार्थ ब्रजति, स्थानाजीण ममात्रेति, 'आहार'त्ति यस्मिन् ।
नि. ११५ विषये स्वभावेनैव चाहारः शोभनस्तत्र प्रयाति । 'उवहित्ति अमुकत्र विषये उपधिः शोभनो लभ्यत इत्यतः प्रयाति 'तह दसणहाए तथा रम्यदेशदर्शनार्थ प्रजति । एते अकारणा संजयस्स असमत्त तदुभयस्स भवे । ते चेव कारणा पुण गीयत्वविहारिणो भणिआ॥१२॥ "एतान्यकारणानि संयतस्य, किंविशिष्टस्य ?-'असमत्ततदुभयस्य' असमाप्तसूत्रार्थोभयस्य संयतस्य भवन्ति अकारणानीति । 'ते चेबत्ति तान्येव धर्मचक्रादीनि कारणानि भवन्ति, कस्य !-गीयत्वविहारिणो' गीतार्थविहारिणः सूत्रार्थोभयनिष्पन्नस्य दर्शनादिस्थिरीकरणा) विहरत इति । तथा चाहगीयस्थो य विहारो बिहओ गीयत्वमीसिओ भणिओ। एत्तो तहअ विहारो नाणुनाओ जिणवरेहिं ॥१२१॥ __'गीयस्थों' गीतार्थानां 'विहारः विहरणमुक्तम् । 'बिइतो गीयत्थमीसिओं द्वितीयो विहारः-द्वितीय विहरणं गीतार्थमिश्र-गीतार्थेन सह, इतस्तृतीयो विहारो 'नानुज्ञातो' नोक्तो जिनवरैः, किमर्थमित्यत आह| संजमआय विराहण नाणे तह दसणे चरिते अ। आणालोव जिणाणं कुबइ दीहं तु संसारं ॥ १२२॥
दीप अनुक्रम [१८९]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१९२] » “नियुक्ति : [१२२] + भाष्यं [६७] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१२२||
।
संयमविराधमा आत्मविराधना तथा ज्ञानदर्शनचारित्राणां विराधना आज्ञालोपश्च जिनानां कृतो भवति, सथा मणीतार्थ एकाकी हिण्डन् करोति दीर्घ च संसारमिति । इदानीमेनामेव गाथा भाष्यकारो व्याख्यानयवाह
संजमओ छकाया आयाट विजीरगेलने । नाणे माणायारो देसण चरगाइबुग्गाहे ॥ १७॥ (भा०) 'संजमतो छकाया' संयमविराधनामङ्गीकृत्य पट्टायविराधना संभवति । 'आय'त्ति आत्मविराधना संभवति, कथं , 'कंटऽट्विजीरगेलण्णे कण्टकेभ्यः अस्थिशकलेभ्यः आहारस्याभरणेन तथा ग्लानत्वेन । 'नाणे ज्ञानविराधना भवति, कथं
स हिण्डन् ज्ञानाचारं न करोति, 'दसण चरगाइउग्गाहे' दर्शनविराधना, कथं संभवति', स ह्यगीतार्थश्चरकादिभियुदावायते, ततश्चापैति दर्शनम् , किं पुनः कारणं चारित्रं न व्याख्यातम् !, उच्यते, ज्ञानदर्शनाभावे चारित्रस्याप्यभाव एव भाद्रष्टव्यः । द्वारम् । एवं तावदेकः कारणिको 'निकारणिओ य सोवि ठाणडिओ दूप्तिज्जतओ व भणिओ' इदानीमनेकान प्रत्युपेक्षकान् प्रतिपादयन्नाह
गावि होंति दुविहा कारणनिकारणे दुविहभेओ। जं एत्थं नाणसं तमहं बोच्छ समासेण ॥ १२ ॥ अनेकेऽपि द्विविधा भवन्ति, कतमेन द्वैविध्येन !, अत आह-कारणनिकारणित्ति कारणमङ्गीकृत्य अकारणं चागीकृत्य द्विविधाः, 'दुविद भेद'त्ति पुनर्दिविधो भेदः, ये ते कारणिकास्ते स्थानस्थिता दूइज्जमानाच, येऽपि ते निष्कारणिकास्तेऽपि स्थानस्थिता दूइजमानाश्च । तत्थ जे कारणिआ दूतिज्जतगा ठाणद्विआ अ ते तहेव असिवादीकारणेहिं जहाएवं एस्स गमणमिति वक्खाणतेण भणिय, मेवि निकामणिभा पाजता ठाणद्विआ य तेऽवि तह व शूभारहि,
दीप अनुक्रम [१९२]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१९४] . "नियुक्ति: [१२३] + भाष्यं [६७...] + प्रक्षेपं [४] . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१२३||
द्रोणीया वृत्तिः
दीप अनुक्रम [१९४]
श्रीओघ- जं एत्थ नाणत्तं यदत्र नानात्वंन्यो विशेषस्तमहं वक्ष्ये समासतः । इदानीमनन्तरगाथोक्ताः सर्व एव सामान्येन चतु- अगीतार्थनियुक्तिःविधाः साधवो भवन्ति ।
विहारेदो___जयमाणा विहरंता ओहाणाहिंडगा चउद्धा छ । जपमाणा तत्थ तिहा नाणट्ठा दसणचरित्ते ॥१२४॥
पाः भा.६७ 'यती प्रयत्ने' 'यतमाना' प्रयलपराः 'विहरन्तः' विहरमाणा मासकल्पेन पर्यटन्तः 'ओहाण'त्ति अवधावमानाः, प्रम
अनेके प्र
त्युपेक्षकाः ॥६१॥ ज्यातोऽवसर्पन्त इत्यर्थः, तथा 'आहिण्डकाः' भ्रमणशीलाः, एवमेते चतुर्विधाः, इदानीं “यथोद्देशं निर्देशः" इति न्याया
न्यायानि . १२३द्यतमाना जच्यन्ते-'जयमाणा तत्थ तिहा' यतमानास्त्रिप्रकाराः, कथं, 'नाणदसणचरित्ते' तत्थ णाणड्डा कथं जयन्ति !,8|
१२५ जदि आयरिआणं जै सुभे अस्थो वा पग्गहिअ अण्णा य से सत्ती अस्थि घेर्नु धारे वा ताहे विसज्जावेत्ता अत्ताणं अन्नओ वचंति, एवं चेव दसणपभावगाणं सत्थाणं अहाए वञ्चति, तत्त्वार्थादीनां, तथा चरित्तद्वाए देसतर गयाण केणइ कारणणं, वत्थ जदि पुढविकाइयाइ पउरं ततो न चरित्तं सुज्झइ ताहे निग्गच्छन्ति, एसा चरित्तजयणा खलु, एवं तिविहा समासतो समक्खाया । दारं । इदानीं विहरमाणका उच्यन्ते, अत आह-'विहरतावि अ दुषिहा' विहरमाणका द्विप्रकारा, गच्छगता निग्गया चेव, एतदेव व्याख्यानयनाहपत्तेयबुद्ध जिणकप्पिया य पडिमासु चेव विहरता । आयरिअधेरवसभा भिक्खू खुड्डा य गच्छमि ॥१२५॥
प्रत्येकबुद्धा जिनकल्पिकाश्च प्रतिमाप्रतिपन्नाच-'मासाई सत्तता' इत्येवमादि एते गच्छनिर्गता विहरमाणकाः । इदानी गच्छाविष्टा-उच्यन्ते-'आयरिअ' आचार्य:-प्रसिद्धः, स्थविरो-यः सीदन्तं ज्ञानादौ स्थिरीकरोति, वृषभो-वैयावृत्त्यकरण
CASSESAMESS
॥६१॥
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अत्र एका प्रक्षेप-गाथा वर्तते. मया संपादित "आगम सुत्ताणि" मूलं अथवा सटीकं पुस्तके सा मुद्रितं वर्तते
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
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दीप
अनुक्रम
[१९७]
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
→
मूलं [१९७]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
“निर्युक्तिः [१२५ ] + भाष्यं [ ६७ ] + प्रक्षेपं [४...]" ८० आगमसूत्र [४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
समर्थः भिक्षवः- एतद्व्यतिरिक्ताः, क्षुल्लकाः प्रसिद्धाः, 'एते गच्छगतागच्छनिर्गताश्च' इत्थमुपन्यासः प्राक् कृतः, तत्कस्माजिनकल्पिकादयो गच्छनिर्गता आदी व्याख्याताः १, उच्यते, जिनकल्पिकादीनां प्राधान्यख्यापनार्थम्, आह-प्रथममेव कस्मादित्थं नोपन्यासः कृतः १, उच्यते, तेऽपि जिनकल्पिकादयो गच्छगतपूर्वा एवास्यार्थस्य ज्ञापनार्थम्, आह- प्रत्येकबुद्धा न गच्छनिर्गताः, न तेषामपि जन्मान्तरे तन्निर्गतत्वसद्भावात्, यतस्तेषां नव पूर्वाणि पूर्वाधीतानि विद्यन्ते । द्वारम् । इदानीमवधावतः प्रतिपादयन्नाह -
ओहावंता दुविहा लिंगविहारे य होंति नायद्दा । लिंगेणऽगारवासं नियया ओहावण विहारे ॥ १२६ ॥ 'अवधावन्तः प्रव्रज्यादेरपसर्पन्तः 'द्विविधाः' द्विप्रकाराः 'लिंगविहारे य'त्ति लिङ्गादवधावन्ते अवसर्पन्ति गृहस्थतां प्रतिपद्यन्त इत्यर्थः, 'विहारे यत्ति उद्यतविहाराद येऽवधावन्ति- अपसर्पन्ति पार्श्व स्थादयो भवन्ति, एवमेते विज्ञेया भवन्त्य| वधावमानाः । एतदेव व्याख्यानयन्नाह - 'लिंगेणऽगारवास' लिङ्गेनावधावन् गृहवासं प्रतिपद्यते, 'नितिया ओहावण विहारे' | विहारादवधावन्नित्यादिषु वासं करोति । दारं । इदानीमाहिण्डकान् प्रतिपादयन्नाह -
उवएस अणुवएसा दुविहा आहिंडआ मुणेयद्दा । उवएसदेसदंसण थूभाई हुंति णुवएसा ।। १२७ ।। तत्र एके उपदेशाहिण्डकाः अपरेऽनुपदेशाहिण्डकाः एवमेते द्विविधा आहिण्डका मुणितव्याः । तत्र 'उवएस' त्ति द्वारपरामर्शः 'देसदंसण' त्ति देशदर्शनार्थं द्वादश वर्षाणि ये पर्यटन्ति सूत्रार्थी गृहीत्वा एते उपदेशाहिण्डकाः । अनुपदेशे त्वमी
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [११९] - "नियुक्ति: [१२७] + भाष्यं [६७...] + प्रक्षेपं [४...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१२७||
श्रीओघ- भवन्ति-'थूभादी होतिऽणुवएसा' स्तूपादिगमनशीला अनुपदेशाहिण्डकाः । उक्ता आहिण्डकाः । द्वारम् । अधुना ये ते ग8 अनेके - नियुक्तिःगता बिहरमाणकास्तेषामेव विधि प्रतिपादयन्नाह
त्युपेक्षकाः द्रोणीया SI पुण्णमि मासकप्पे वासावासासु जयणसंकमणा । आमंतणा य भावे सुत्तस्थ न हायई जत्थ ॥ १२८॥ वृत्तिः
१३० | 'मासकल्पे' मासावस्थाने पूर्णे सति तथा 'वासावासासुत्ति वर्षायां वासो वर्षावासः तस्मिन् वा यो वासकल्पस्तस्मिन् ॥६॥ पूर्णे सति । पुनश्च यतनया-संक्रामणया क्षेत्रसंक्रान्तिः कर्तव्या । किं कृत्वा ?-'आमंतणा यत्ति आमन्त्रणं आचार्यः शिष्या
नामन्त्रयति-पृच्छति क्षेत्रमत्युपेक्षकमेषणकाले,चशब्दादागतेषु क्षेत्रप्रत्युपेक्षकेषु क्षेत्रगमने वा,'भावे'त्ति आगतेषु क्षेत्रप्रत्युपेक्षकेषु। भावं प्रतीक्षते, कस्य किं क्षेत्रं रोचते !, तत्र सर्वेषां मतं गृहीत्वा यत्र सूत्रार्थहानिर्न भवति तत्र गमनं करिष्यत्याचार्यः॥
इदानीमेनामेव गाथा व्याख्यानयति, अत्र यदुपन्यस्तं 'जयणसंकमण'त्ति तद् थ्याख्यानयनाहहै अप्पडिले हिअदोसा बसही मिक्खं च दुल्लई होजा। बालाइगिलाणाण व पाउग्गं अहव समाओ ॥१२९॥
अप्रत्युपेक्षणे दोषा भवन्ति, ते चामी-वसहिति कदाचिदसतिर्दुर्लभा भवेत्, तथा भिक्षा या दुर्लभा भवेत् तथा ४बालादिग्लामानां प्रायोग्यं दुर्लभं भवेत् । अथवा स्वाध्यायो दुर्लभः, मांसाद्याकीर्णत्वात् तस्मात् किम् ?
॥३२॥ तम्हा पुषं पडिलेहिऊण पच्छा बिहीऍ संकमणं । पेसेइ जइ अणापुच्छिउं गर्ण तत्यिमे दोसा ॥ १३०॥ तस्मात्पूर्वमेव 'प्रत्युपेक्ष्य' निरूष्य पश्चात् 'विधिना' यतनया संक्रमण कर्तव्यम् । इदानीं यदुपन्यस्त 'आमंतणा ये'।
दीप अनुक्रम [१९९]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२०२] → “नियुक्ति: [१३०] + भाष्यं [६७...] + प्रक्षेपं [४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१३०||
स्वययन से व्याख्यानयनाह-पेसेति जइ अणापुरिछस गणं' प्रेषयति क्षेत्रप्रत्युपेक्षकान् वदि गणमनापृष्ठच तबेमे, दोषाः' वक्ष्यमाणलक्षणाःअइरेगोवहिपहिलेहणाए कत्थचि गयत्ति तो पुच्छे । खेत्ते पडिलेहे अमुगध गयत्ति तं दुई ॥११॥
पदा क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः शेषप्रनजिताननापृच्छच गतास्तदा कथं ज्ञायन्ते , अत आह-अतिरिक्तोपधिप्रत्युपेक्षणायां सत्यां | दाते पृष्छन्ति-कुन गतास्त इस्येवं पृच्छन्ति । आचार्योऽप्याह-क्षेत्र प्रत्युपेक्षितुममुकत्र क्षेत्रे गता इति, तेऽप्याहु:-'तं युद्ध ति.
तत् क्षेत्रं न शोभनं, यतस्तत्र गच्छता,
तेणा सावय मसगा ओमऽसिवे सेह इथिपडिणीए । थंडिल्लअगणि उट्ठाण एवमाई भवे दोसा ॥१९॥ दास्तेनाः अर्द्धपथे स्वापदानि-व्याघादीनि मशका वाऽतिदुष्टाः ओम-दुर्भिक्ष 'असिवं' देवताकृत उपद्रवो यदिवा 'सेहाल
त्ति अभिनवप्रवजितस्य स्वजना विद्यन्ते, ते चोत्पबाजयन्ति, 'इत्थि'त्ति स्त्रियो वा मोहप्रचुराः, 'पडिणीए'त्ति प्रत्यनीको
पद्रवच, 'थंडिल्ल'त्ति स्थण्डिलानि वा न तत्र विद्यन्ते, 'अगणि'त्ति अग्निना वा दग्धः स देशः, 'उहाणे'ति 'उस्थितः । दाउद्वसितः प्रदेशो वाऽपान्तराले इत्येवमादयो दोषा भवन्ति, तत्रापि प्राप्तस्यैते दोषाः
पचंति तावसीओ सावयदुभिक्खतेणपउराई । णियगपदुइटाणे फेडणहरियाइ(हरिहरिय)णपण्णीए ॥१३३॥ 3 स हि प्रत्यन्तदेशः म्लेच्छाधुपद्रवोपेतः 'तापस्वः तापसप्रवाजिकाः ताश्च प्रचुरमोहाः संयमाच॑शयन्ति श्वापदभयदु। भिक्षभयस्तेनमधुराणि या क्षेत्राणि 'नियग'त्ति अभिनवप्रवजितस्य निजः स्वजनादिः स चोत्मनाजयति 'पदु'त्ति प्रद्विष्टो|
दीप अनुक्रम [२०२]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२०५] → “नियुक्ति: [१३३] + भाष्यं [६७...] + प्रक्षेपं [४...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१३३||
१३५
श्रीओघ- वा तत्र कश्चित् 'उहाणे ति उत्थितः-उद्धसितः स कदाचिद्देशो भवेत् 'फेडण'त्ति प्राक् तत्र वसतिरासीत् इदानीं तु कदाचि-31 आपृच्छा नियुक्ति दपनीता भवेत् । (हरि) हरितपण्णीयत्ति हरितं तत्र शाकादि बाहुल्येन भक्ष्यते, तच्च साधूनां न कल्पते दुर्भिक्षप्राय वाटू
गणस्य द्रोणीया 'हरितपर्णी'ति तत्र देशे केषुचिद्गृहेषु राज्ञो दण्डं दत्त्वा देवतायै बल्यर्थं पुरुषो मार्यते, स च प्रत्रजितादिभिक्षार्थ प्रविष्टः सन् ,
नि. १३१वृत्तिः
8| तत्र गृहस्योपरि आर्द्रा वृक्षशाखा चिाहं क्रियते, तच गृहीतसङ्केतो दूरत एव परिहरति, अगृहीतसङ्केतश्च विनश्यति, तस्मागण।
पृष्ट्वा गन्तव्यमिति । अथवाऽन्यकर्तृकीयं गाथा, ततश्च न पुनरुक्तदोषः । इदानीं स आचार्यः क्षेत्रप्रत्युपेक्षकान् प्रेषयन् सर्व गणमालोचयति, अथ तु विशेष्यं कश्चिदेकमालोचयति शिष्यादिकं ततश्चैते दोषा भवन्तिसीसे जइ आमंतइ पडिच्छगा तेण बाहिरं भावं । जाइयरा तो सीसा तेवि समत्तमि गच्छति ॥१३४ ॥
शिष्यान् विशिष्य केवलान् यद्यामन्त्रयति ततश्च को दोषः, 'पडिच्छग'त्ति सूत्रार्थग्रहणार्थ ये आयाताः साधवस्ते प्रतीच्छकाः 'तेण'त्ति तेन अनालोचनेन 'बाहिरं भावं'ति बहिर्भावं चिन्तयन्ति, बाह्या वयमत्र । अथेतरान्-प्रतीच्छकानालो-1
चयति ततः शिष्या बहिर्भावं मन्यन्ते, प्रतीच्छकाश्च सूत्रार्थग्रहणसमाप्तौ गच्छन्ति ततश्चाचार्य एकाकी संजायत इत्येवं ट्रदोषस्तावत् । अथ वृद्धान् पृच्छति ततः*तरुणा बाहिरभावं न य पडिलेहोवहीन किइकम्म । मूलयपत्तसरिसया परिभूया यचिमो घेरा ॥ १३५॥
वृद्धानालोचयति तरुणा बहिर्भाचं मन्यन्ते, ततश्च ते तरुणाः किं कुर्वन्त्यत आह-'न य पडिलेहोवहीं' उपधेः प्रत्युपे-31 दक्षणां न कुर्वन्ति, न च कृतिकर्म-पादप्रक्षालनादि कुर्वन्ति । अथ तरुणानेव पृच्छति ततः को दोष, वृद्धा एवं
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दीप अनुक्रम [२०५]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२०७] → “नियुक्ति : [१३५] + भाष्यं [६७...] + प्रक्षेपं [४...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
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गाथांक नि/भा/प्र ||१३५||
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चिन्तयंति-मूलयपत्तसरिसया' मूल-आधं यत्पर्ण निस्सारं परिपक्वायं तत्तुल्या वयमत एव च परिभूतास्ततश्च ब्रजामः इत्येवं स्थविराश्चिन्तयन्ति, यदिवा 'मूलयपत्तसरिसया' मूलकपत्रतुल्या शाकपत्रप्राया धयम् , अथ मतं स्थविरा न प्रष्टव्या एव, तत्तु न, यत आह
जुषणमा विहणं जं जूहं होइ सुहुवि महल्लं । तं तरुणरहसपोइयमयगुम्मइ सुहं हं ॥१३६ ॥ | जीर्णमृगैर्विहीनं यथं भवति सुष्वपि महत्तथं तरुणरभसे-रोगे पोतितं-निमग्नं मदेन गुल्मयितं-मूढं 'सुखं हन्तुं'। विनाशयितुं-सुखेन तस्यापाद्यते । यस्मादेतदेवं तस्मात्सर्व एव मिलिताः सन्तः प्रष्टव्याः, कथम् !,थुइमंगलमामंतण नागच्छद जो य पुच्छिओ न कहे । तस्सुरिं ते दोसा तम्हा मिलिएसु पुच्छेजा ॥१३७॥
स्तुतिमङ्गलं कृत्वा-प्रतिक्रमणस्यान्ते स्तुतित्रयं पठित्वा ततश्चामन्त्रयति, आकारिते च दूरस्थो यदि नागच्छति कश्चिद्यो वा पृष्टः सन्न कथयति ततस्तस्योपरि ते दोषाः, तस्मान्मिलितेषु प्रच्छनीयमेकत्रीभूतेषु ।
केई भणति पुर्व पडिलेहिअ एवमेव गंतवं । तं च न जुबह वसही फेडण आगंतु पडिणीए ॥ १८॥ केचनाचार्या एवं युवते-प्राक् प्रत्युपेक्षिते यस्मिन् क्षेत्रे प्रागपि स्थिता आसन् तस्मिन् पुनरप्रत्युपेक्ष्य गम्यते, तच्च न युज्यते, यस्मात्तत्र कदाचित् 'वसही फेडण'त्ति सा प्राक्तनी वसतिरपनीता, आगन्तुको वा प्रत्यनीकः संजातः, अत एव
दोपभयात्पूर्वदृष्टाऽपि वसतिः प्रत्युपेक्षणीया । इदं च ते प्रष्टच्याःकियरी दिसा पसत्या? अमुई सवेसि अणुमई गमणं । चउदिसि ति दु एग वा सत्तग पणगं तिग जहणं ॥१३९॥
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आगम
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“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२११] . "नियुक्ति: [१३९] + भाष्यं [६७...] + प्रक्षेपं [४...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१३९||
श्रीओघ- नियुक्ति द्रोणीया
वृत्तिः ॥६५॥
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कतरा दिक् 'प्रशस्ता' शोभना ?, सुक्षेमपथेत्यर्थः, तेऽप्याहुः 'अमुई अमुका दिक् सुक्षेमेति । एवं सर्वेषां यदा 'अनुमता' आपृच्छा अभिरुचिता भवति, पधे(पन्था इत्यर्थः, तदा गमनं कर्तव्यम् । तत्र 'चतसृष्वपि दिक्षु पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरासु प्रत्युपेक्षकाः नि. १३६. प्रयान्ति, अथवा चतसृणां दिशामुपद्रवादिसम्भवे तिसृषु यान्ति, तदभावे द्वयोर्दिशोर्यान्ति, तदभावेऽप्येकस्यां दिशि। तासु
१३८ |च दिक्षप्रजन्तः कियन्तो ब्रजन्त्यत आह-'सत्तग पणगं तिग जहणं' एकैकस्यां दिशि उत्कृष्टतः सप्त सप्त प्रयान्ति, सप्तानामभावे ||
वालादेरप्रे. पञ्च पश्च प्रजन्ति, पश्चानामभावे जघन्येन त्रयस्त्रयः प्रयान्तीति । अत्र च ये आभिग्रहिकास्ते प्रहेतन्याः, तेषां त्वभावे-
पर्ण
se. अणभिग्गहिए वावारणा उ तत्थ उ इमे न धावारे । पालं हमगी जोगिं वसहं तहा खमगं ॥१४॥
'अणभिग्गहिए'त्ति यैरभिग्रहो न गृहीतस्तान् व्यापारयेद्-गमनाय चोदयेदित्यर्थः । तत्र तु बालं वृद्धं अगीतार्थ भा. ६८ योगिनं 'वृषभ वैयावृत्त्यकर तथा 'क्षपक' मासक्षपकादिकम्, एतान व्यापारयेद्गमनाय । इदानीमेतामेव गाथां भाष्य-5 कृद् व्याख्यानयनाहहीलेज व खेलेज व कज्जाकजं न याणई वालो। सोवाऽणुकंपणिजो न दिति वा किंचि बालस्स ॥१८॥(भाकाम
बाले प्रेष्यमाणेऽयं दोषो-हियते म्लेच्छादिना क्रीडेत वा बालस्वभावत्वात् कार्याकार्य च-कर्त्तव्याकर्त्तव्यं वा न जानाति बाला, स च वाला क्षेत्रप्रत्युपेक्षणार्थं प्रहितः सन् अनुकम्पया सर्वं लभते, आगत्य चाचार्याय कथयति यदुत सर्वे लभ्यते, गतश्च तत्र गच्छो यावन्न किञ्चिलभते, चेल्लकस्यैवानुकम्पया स लाभ आसीत् , अथवा न ददाति वा किश्चिद्वालाय परिभवेनासस्तं न व्यापारयेत् । वृद्धोऽपि न प्रेषणीयो, यतस्तत्रैते दोषाः
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दीप अनुक्रम
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[२११]
1
॥६४॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२१२] » “नियुक्ति : [१४०] + भाष्यं [६८] + प्रक्षेपं [४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१४०||
होऽणुकंपणिनो चिरेण न य मग्गथंडिले पेहे । अहवावि वालचुहा असमत्था गोयरतिअस्स ।। ६९ ॥(भा)
वृद्धोऽनुकम्पनीयस्ततश्चासावेव लभते, नान्यः, तथा 'चिरेण ति 'चिरेण' प्रभूतेन कालेन गमनं आगमनं च करोति, म दच 'मार्ग' पन्धान प्रत्युपेक्षितुं समर्थः नापि स्थण्डिलानि प्रत्युपेक्षितुं समर्थः, इदानीं तु द्वयोरपि बालवृद्धयोस्तुल्यदोषोदा
वनार्थमाह-अथवा बाला वृद्धाश्च 'असमर्थाः' अशक्ताः 'गोचरत्रिकस्य' त्रिकालभिक्षाटनस्येत्यर्थः । दारं । अगीतार्थेऽपि प्रेष्यमाणे एते दोषाः|पंथं च भासवासं उवस्सयं एचिरेण कालेणं । एहामोसि न याणइ चउबिहमणुण्ण ठाणं च ॥७॥ (भा०) HI पन्थान' मार्ग न जानाति वक्ष्यमाणं 'मास'ति मासकल्पं न जानाति 'वासति वर्षाकल्प न जानाति, तथा 'उपाश्रय
वसतिं परीक्षितुं न जानाति, तथा शय्यातरेण पृष्टः-कदा आगमिष्यथ ?, ततश्च ब्रवीति-एचिरेण एहामोत्ति इयता कालेन-अर्द्धमासादिना एष्याम इत्येवं वदतो यो दोषः अविधिभाषणजनितस्तं न जानाति, यतः कदाचिदन्या दिक शोभनतरा शुद्धा भवति तत्र गम्यते, अतो नैवं वक्तव्यम्-एतावता कालेनैष्यामः । तथा 'चउविह मणुण्ण'त्ति तत्रोपाश्रये ।
शय्यातरश्चतुर्विधमनुज्ञाप्यते-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्चेति, तत्र द्रव्यतस्तृणडगलादि अनुज्ञाप्यते, क्षेत्रतः पात्रकमप्रक्षालनभूमिरनुज्ञाप्यते, कालतो दिवा रात्री वा निस्सरणमनुज्ञाप्यते, भावतो ग्लानस्य कस्यचिद्भावप्रणिधानार्थ कायिका| सज्ञादि निरूप्यते, एतां चतुर्विधामनुज्ञामनुज्ञापयितुं न जानाति । 'ठाणं चत्ति वसतिः कीदशे प्रशस्ते स्थाने भवतीत्येतन्न जानाति । द्वारं । योगिनमपि न प्रेषयेत् , कस्मात् ?-'
दीप अनुक्रम २१२]
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
॥७९॥
दीप
अनुक्रम
[२१५]
श्रीओषनिर्युक्तिः
द्रोणीया वृत्तिः
॥ ६५ ॥
Eticati
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) "निर्युक्तिः [ १४०...] + भाष्यं [७१] + प्रक्षेपं [४...]" ८० आगमसूत्र [४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
मूलं [२१५] • → मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
तुरंतो अण पेहे पंथं पाढद्विओ न चिर हिंडे । विगई पडिसेहेइ तम्हा जोगिं न पेसेज्जा ॥ ७१ ॥ ( भा० ) त्वरमाणः सन्न प्रत्युपेक्षते पन्थानं, तथा पाठार्थी सन्न चिरं भिक्षां हिण्डते, तथा लभ्यमाना विकृती:- दध्यादिकाः प्रतिपेधयति, तस्माद्योगिनं न प्रेषयेत् । दारं वृषभोऽपि न प्रेषणीयो यत एते दोषा भवन्तिठवणकुलाणि न साहे सिद्धाणि न देंति जा विराहणया। परितावण अणुकंपण तिन्ह समत्यो भवे खमगो७२ भा० वृषभो हि प्रेष्यमाणः कदाचिद्वपा स्थापनाकुलानि 'न साहे'त्ति न कथयति, अथवा 'सिद्वाणि न देंति' त्ति कथितान्यपि तानि स्थापनाकुलानि न ददति अन्यस्य, तस्यैव तानि परिचितानि, 'जा विराहणय'त्ति ततश्च स्थापनाकुलेषु अलभ्यमानेषु या विराधना ग्लानादीनां सा सर्वा आचार्यस्य दोषेण कृता भवति । दारं । अथ क्षपकोऽपि न प्रेष्यते, यतः परितापना- दुःखासिका आतपादिना भवति क्षपकस्य, 'अणुकंपण'त्ति अनुकम्पया वा लोकः क्षपकस्यैव ददाति, नाम्यस्य, तथा 'तिण्डुऽसमत्थो भवे खमओ' त्रयो वारा यद्भिक्षाटनं तस्य-वारत्रयाटनस्यासमर्थः क्षपकः । द्वारम् । यदा तु पुनः प्रेषणा न भवन्ति, -
एए चैव हवेजा पडिलोमेणं तु पेसए विहिणा । अविही पेसिजंते ते चैव तहिं तु पडिलोमं ॥ १४१ ॥ एत एव बालादयो भवेयुस्तदा किं कर्त्तव्यमित्याह- 'पडिलोमेणं तु पेसए विहिणा' अनुलोमः-उत्सर्गस्तद्विपरीतः प्रतिलोमःअपवादस्तं प्रतिलोमं-अपवादमङ्गीकृत्य एतानेव बालादीन् प्रेषयेत्, कथम् ? - 'विधिना' यतनया - वक्ष्यमाणया । यदा पुनस्त एव बालादयोऽविधिना प्रेष्यन्ते तदाऽविधिना प्रेष्यमाणेषु त एव दोषाः क १, 'तहिं तु' 'तस्मिन्' क्षेत्रे प्रेष्यमा
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चालादेरप्रेपणं भा.
६९-७२ अगीतार्था देरपि प्रेषणं
नि. १४१
।। ६५ ।।
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२१८] » “नियुक्ति: [१४१] + भाष्यं [७२] + प्रक्षेपं [४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||७२||
णानां, कथम् -'पडिलोम'ति प्रतिलोमं अपवादमङ्गीकृत्य । अथवाऽविधिना प्रेष्यमाणेषु त एव दोषाः, तत्र 'पडिलोम'ति अविधिप्रतिलोमो विधिस्तेन-प्रतिलोमविधिना प्रेषयेत् । इदानी वालादीनां प्रेषणाईत्वे प्राप्ते यतना प्रतिपाद्यते-तत्र च गणावच्छेदका प्रेष्यते, तदभावेऽन्यो गीतार्थः, तदभावेऽगीतार्थोऽपि प्रेष्यते, तस्य को विधिः
सामायारिमगीए जोगमणागाढ खवग पारावे । वेयावचे दायणजुयलसमत्थं व सहि वा ॥ १४२॥ __ अगीतार्थस्य सामाचारी कथ्यते, ततः प्रेष्यते, तदभावे योगी प्रेष्यते, किंविशिष्टः-अणागाढेसि अनागाढयोगी-बा
योगी योग निक्षिप्य 'पारयित्वा' भोजयित्वा प्रेष्यते, ततस्तदभावे क्षपकः प्रेष्यते, कथं पारावे'त्ति भोजयित्वा, तद-18 भावे वैयावृत्त्यकरः, एतदेवाह-यावच्चे'त्ति वैयावृत्त्यकरः प्रेष्यते, 'दायण'त्ति स च वैयावृत्त्यकरः कुलानि दर्शयति, तदभावे 'जुअल'त्ति युगलं प्रेष्यते-वृद्धस्तरुणसहितः बालस्तरुणसहितो वा, 'समत्थं व सहि वत्ति समर्थे वृषभे प्रेष्यमाणे तरुणेन सह वृद्धेन वा सह, द्वितीयो वकारः पादपूरणः । आह-प्रथमं बोलादय उपन्यस्ताः, तत्कस्मात्तेषामेव प्रेषणविधिर्न प्रतिपादितः प्रथम, उच्यते, अयमेव प्रेषणक्रमः, यदुत प्रथममगीतार्थः प्रेष्यते पश्चाद्योगिप्रभृतय इति, आइ-इत्थमवोपन्यासः करमान्न कृतः!, उच्यते, अप्रेषणाईत्वं सर्वेषां तुल्यं वर्त्तते, ततश्च योऽस्तु सोऽस्तु प्रथममिति न कश्चिदोषः। इदानीं तेषां गमनविधि प्रतिपादयन्नाह
पंथुचारे उदए ठाणे भिक्खंतरा य वसहीओ। तेणा सावयवाला पचावाया य जाणविही ॥ १४३ ॥ 'पंथ'त्ति पन्थान-मार्ग चतुर्विधया प्रत्युपेक्षणया निरूपयन्तो गच्छन्ति, 'उच्चारे ति उच्चारणप्रश्रवणभूमि निरूपयन्तो
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दीप अनुक्रम [२१८]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२२०] » “नियुक्ति : [१४३] + भाष्यं [७३] + प्रक्षेपं [४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||७||
गमनविधिः नि. १४२
१४३ भा.७३-७४
श्रीओप- प्रजन्ति, 'सदत्ति पानकस्थानानि निरूपयन्ति, येन बालादीनां पानीयमानीय दीयते, 'ठाणे'त्ति विश्रामस्थानं गच्छस्य नियुक्तिः निरूपयस्तो ब्रजन्ति, 'भिक्खंति भिक्षां निरूपयन्ति, येषु प्रदेशेषु लभ्यते येषु वा न लभ्यत इति, 'अंतरा य वसहीड'त्ति द्रोणीया अन्तराले बसतीश्च निरूपयन्तो गच्छन्ति यत्र गच्छः सुखेन वसितुं याति, स्तेनाश्च यत्र न सन्ति, यत्र ब्यालाः तथा वृत्तिः
| स्वापदा न सन्ति-श्वापदभुजगादयो न सन्ति, 'पञ्चावाय'त्ति एकस्मिन् पथि गच्छता दिवा प्रत्यपायः, अन्यत्र रात्री
प्रत्यपायः, ततो निरूप्य गन्तव्यम् । 'जाणविहित्ति अयं गमनविधिः । इदानी भाष्यकार पनामेव नियुक्तिगाथां| ॥६६॥
प्रतिपदं व्याख्यानयनाइसो चेव उ निग्गमणे विही उ जो वनिओ उ एगस्स । दधे खेसे काले भावे पंथं तु पडिलेहे ॥७३ ।। (भा०) | स एष विधिर्य एकस्य निर्गमने उक्तः, 'विसज्जणा पओसे' इत्येवमादिको विधिरुतः, इदानीं पथि बजतो विधिरुच्यतेसचार्य-'दये खेत्ते काले भावे पंथं तु पडिलेहे'त्ति द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च मार्ग प्रत्युपेक्षते । इदानीमेतानेव द्रव्यादीन व्याख्यानयन्नाह| कंटगतेणा वाला पडिणीया सावया य दमि । समविसमउदयथंडिल भिक्खायरि अंतरा खेत्ते ॥७४॥(भा०) 81 तत्र कण्टकाः स्तेना च्यालाः प्रत्यनीकाः श्वापदाः एतेषां पधि यत्प्रत्युपेक्षणं सा द्रव्यविषया प्रत्युपेक्षणा भवतीति।
द्वारं । तथा समविषमउदकस्थण्डिलभिक्षाचर्यादीनां या 'अन्तरे' पथि प्रत्युपेक्षणा सा क्षेत्रतः प्रत्युपेक्षणा । द्वारम् । इदानीं काळप्रत्युपेक्षणां प्रतिपादयन्नाह
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दीप अनुक्रम [२२०]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२२३] » “नियुक्ति : [१४३] + भाष्यं [७५] + प्रक्षेपं [४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||७५||
दियराउऽपञ्चवाए य जाणई सुगमदुग्गमे काले । भावे सपक्खपरपक्खपेल्लणा निण्हगाईया । ७५ ॥ (भा.)
दिवा प्रत्यपायो रात्री वा प्रत्यपायो न वा प्रत्यपाय इत्येतज्जानाति, तथा दिवाऽयं पन्थाः सुगमो दुर्गमो या रात्री वा|| सुगमो दुर्गमो वा एवं यत्परिज्ञानं सा कालतः प्रत्युपेक्षणा । द्वारम् । भावतः प्रत्युपेक्षणा इयं, यदुत स विषयः स्वपक्षण | परपक्षेण वाऽऽकान्तो व्याप्तः, कश्चासौ स्वपक्षः परपक्षश्चात आह-निण्हगाईया' निहवकादिः स्वपक्षः, आदिग्रहणाच्चरकपरिमाजकादिः परपक्षः, एभिरनवरतं प्रार्थ्यमानो लोको न किञ्चित् दातुमिच्छति इत्येवं या निरूपणा सा भावप्रत्युपेक्षणा । दारं । कथं पुनस्ते ब्रजन्तीत्याह
सुसत्यं अकरिता भिक्खं कार्ड आईति अवरहे । विइयदिणे सजनाओ पोरिसिअद्धाइ संघाहो ॥ १४४ ॥ - सूत्रपौरुषी अर्थपौरुषी चाकुर्वन्तो ब्रजन्ति तावद्यावदभिमतं क्षेत्र प्राप्ता भवन्ति, पुनश्च ते किं कुर्वन्तीत्यत आहI'भिक्खं काउं अईति अवरण्हे' भिक्षां कृत्वा-तदासन्नग्रामे तद्वहिर्वा भक्षयित्वा पुनश्चापराहे प्रविशन्ति, ततो वसतिमन्वेषयन्ति, लब्धायां च वसती कालं गृहीत्वा द्वितीयदिवसे किञ्चिन्यूनपौरुषीमात्रं कालं स्वाध्यायं कुर्वन्ति । पुनश्च 'पोरिसिअद्धाइ संघाडो' 'पारुसिअद्धाए' पौरुषीकाले सङ्घाटकं कृत्वा भिक्षार्थ प्रविशन्ति, अथवा स्वाध्यायं कियन्तमपि कालं कृत्वा 'पौरुसिअद्धाए' अर्द्धपौरुष्यामित्यर्थः, सङ्घाटक कृत्वा प्रविशन्तीति । इदानीं ते सङ्काटकेन प्रविष्टास्तत्क्षेत्रं त्रिधा विभजयन्ति, एतदेवाहखेत्तं तिहा करेत्ता दोसीणे नीणिमि अ वयंति । अण्णो लद्धो बहुओ थोवं दे मा य रूसेना ॥ १४५ ॥
+CROCARALECRACROCES
दीप अनुक्रम [२२३]
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
॥१४५||
दीप
अनुक्रम [२२५]
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [२२५]
→
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
श्रीओष- * निर्युक्तिः
द्रोणीया
वृत्तिः
क्षेत्रं त्रिधा कृत्वा - त्रिभिर्भागैर्विभज्य एको विभागः प्रत्युपस्येव हिण्क्यते, अपरो मध्याह्ने हिण्ड्यते, अपरोऽपराहे, एवं ते भिक्षामटन्ति । 'दोसीणे नीणियंमि उ वदंति' 'दोसीणे' पर्युषिते आहारे निस्सारिते सति वदन्ति- 'अण्णो लद्धो बहुओ' अन्य आहारो लब्धः प्रचुरः, ततश्च 'थोवं दे'त्ति 'स्तोकं ददस्व' स्वल्पं प्रयच्छ, 'मा य रूसेज्जत्ति मा वा रोषं ग्रहीष्य22 स्यनादरजनितम् एतच्चासौ परीक्षार्थी करोति, किमयं लोको दानशीलो ? न वेति ।
॥ ६७ ॥ ४
८०
“निर्युक्तिः [१४५ ] + भाष्यं [ ७५ ] + प्रक्षेपं [४...]" आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
अहव ण दोसीणं चिअ जायामो देहि दहि घयं खीरं । खीरे घयगुलपेजा धोवं थोवं च सवत्थ ॥ १४६ ॥ अथवा एतदसौ साधुर्ब्रवीति न वयं दोसीणं चिअ याचयामः, किन्तु दधि याचयामः, तथा क्षीरं याचयामः, तथा क्षीरे लब्धे सति गुढं घृतं पेयां ददस्व । 'सर्वत्र' सर्वेषु कुलेषु स्तोकं २ गृह्णन्ति ते साधवः, एवं तावत्प्रत्युपसि भिक्षाटनं कुर्वन्ति । अधुना मध्याहाटनविधिरुच्यते
महि परभिक्खं परिताविअपिज्जजूसपयकदिअं । ओभट्टमणो भई लब्भइ जं जत्थ पाउग्गं ॥ १४७ ॥ मध्याह्ने प्रचुरा भिक्षा लभ्यते 'परिताविय'त्ति परितलितं सुकुमारिकादि, तथा पेया लभ्यते, जूषः पाटलादेः, [ पटोलादेः ] तथा पयः कथितं 'ओहमणोभडं उन्भति' प्रार्थितमप्रार्थितं वा लभ्यते 'जं जत्थ' 'यद्' यद्वस्तु 'यत्र' क्षेत्रे 'प्रायोग्यं' इष्टं तदित्थंभूतं क्षेत्रं प्रधानमिति । इदानीमपराह्णे भिक्षावेलां प्रतिपादयन्नाह -
चरिमे परितावियपेज्जजूस आएस अतरणट्टाए । एकेगसंजुतं भत्तङ्कं एकमेकरस ॥ १४८ ॥ 'चरिमे' चरमपौरुप्यामदन्ति, तत्र च परितलितानि पेया यूपश्च यदि लभ्यते ततः 'आएस'त्ति प्राघूर्णकः 'अतरण' त्ति
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द्रव्यादिप्रत्युपेक्षणा
भा. ७५ नि. १४४
१४८
॥ ६७ ॥
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
॥१४८||
दीप
अनुक्रम
[२२८]
Jan Educator
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
●→
मूलं [२२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
“निर्युक्तिः [१४८ ] + भाष्यं [ ७५ ] + प्रक्षेपं [४...]" आगमसूत्र [४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
ग्लानस्तदेषामर्थाय भवति, ततश्च तत्प्रधानम् । एवं तेऽटित्वा 'भत्त'ति उदरपूरणमेकस्यानयन्ति कथम् ? - 'एक्केकगसंजुतं' एकः साधुरेकेन संयुक्तो यस्मिन्नानयने तदेकैकसंयुक्तमानयन्ति, 'एकमेकस्स' ति परस्परस्य आनयन्ति एदुक्तं भवतिद्वौ साधू अटतः एक आस्ते प्रत्युषसि पुनर्द्वितीयवेलायां तयोर्द्वयोर्मध्यादेक आस्ते अपरः प्रयाति प्रथमव्यवस्थितं गृहीत्वा, तृतीयवेलायां च यो द्वितीयवेलायां रक्षपालः स्थितः स प्रथमस्थितरक्षपालेन सह व्रजति, इतरस्तु येन वाराद्वयमटितं स तिष्ठति, एवमेव एषां त्रयाणामेकैकस्य सङ्घाटककल्पनया पर्यटनं द्वयोर्योजनीयम् । एवम्
ओसह मेसजाणि अ कालं च कुले य दाणमाईणि । सग्गामे पेहित्ता पेहति ततो परग्गामे ॥ १४९ ॥ एवं औषधं - हरितक्यादि, भेषजं पेयादि, एतच्च प्रार्थनाद्वारेण प्रत्युपेक्षते, 'कालं चत्ति कालं प्रत्युपेक्षते, 'कुले य | दाणमाईणि कुलानि च दानश्राद्धकादीनि, “दाणे अहिगमसद्धे" एवमादि एतानि कुलानि प्रत्युपेक्षते । एतानि च स्वग्रामे 'पेहेत्ता' प्रत्युपेक्ष्य ततः परग्रामे प्रत्युपेक्षन्ते ।
arrari दीहं पणीयगहणे य नणु भवे दोसा । जुबइ तं गुरुपाहुणगिलाणगट्टा न दुप्पट्टां ॥ १५० ॥ चोदकवचनं, किमित्यत आह- 'दीहं' दीर्घ भिक्षाटनं कुर्वन्ति ते 'पणीयगहणे' त्ति स्नेहवद्रव्यग्रहणे च ननु भवन्ति दोषाः । आचार्यस्त्वाह-'जुज्जति तं' युज्यते तत्सर्व दीर्घ भिक्षाटनं यत् प्रणीतग्रहणं च यतः 'गुरुपाहुणगिलाणगडा' गुरुप्राघूर्णकग्लानार्थमसौ प्रत्युपेक्षते न दर्पार्थ, न चात्मार्थं प्रणीतादेर्यहणमिति ।
जइ पुर्ण खद्धपणीए अकारणे एकसिंपि गिव्हेजा । तहिअं दोसा तेण उ अकारणे खद्धनिद्धाई ॥ १५१ ॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२३१] .→ “नियुक्ति: [१५१] + भाष्यं [७५...] + प्रक्षेपं [४...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१५१||
श्रीशोष- यदि पुनः खी-प्रचुर प्रणीत-स्निग्धं, एतानि अकारणे सकृदपि गृह्णीयात् 'तहि दोसा' ततस्तस्मिन् ग्रहणे दोषा भवे-14 द्रव्यादिप्र
युः। किं कारणम् ?-यतः 'तेण उ' 'तेन' साधुना 'अकारणे खद्धनिद्धाई 'अकारणे कारणमन्तरेणव खद्धाई-भक्षितानि | त्युपेक्षकाः द्रोणीया स्निग्धानि-नेहवन्ति द्रव्याणि, अथवा अकारणे 'खद्धनिद्वाई' प्रचुरस्निग्धानि तेनासेषितानीति ।।
नि. १४९वृत्तिः
१५२ एवं-कहए धडिल वसही देउलिअसुण्णगेहमाईणि । पाओगमणुण्णवणा वियालणे तस्स परिकहणा ॥१५२॥
वसतेष॥६ ॥ एवं' उक्तेन प्रकारेण 'रुचिए'त्ति 'रुचिते' अभीष्टे क्षेत्रे सति 'थंडिल'त्ति ततः स्थण्डिलानि प्रत्युपेक्षन्ते, येषु मृतः
भकल्पना परिष्ठाप्यते महास्थण्डिलं 'वसहित्ति वसतिं निरूपयन्ति, किं प्रशस्ते प्रदेशे आहोश्विदप्रशस्ते-सिंगखोडादियुक्ते इति, पत्त-17
भा.७६-७७ नमध्ये शालादि, तदभावे 'देउलिआ देवकुलं शून्यं प्रत्युपेक्ष्यते 'सुन्नगेहमादीणि' शून्यगृहादीनि आदिशब्देन सभा गृह्यते, तां च वसतिं लब्ध्वा किं कर्त्तव्यं -'पाउग्गमणुण्णवणा' प्रायोग्यानां-तृणडगलकादीनां शय्यातरोऽनुज्ञापनां
कार्यते-यथा उत्सकलय एतानि वस्तूनि । अधासौ प्रायोग्यानि न जानाति 'पियालणे'त्ति विचारयति, प्रायोग्यं किमभिसीधीयते । इति, एवंविधे विचारे तस्य शय्यातरस्य कथ्यते 'परिकहणा' यथाऽस्माकं तृणक्षारडगलादि उत्संकलयेत् । एतां | नियुक्तिगाथा भाष्यकारो व्याख्यानयति, तत्र रुचिते क्षेत्रे स्थण्डिलं परीक्ष्यते, तच्च बहुवक्तव्यत्वादुपरिष्टावक्ष्यति, बसतिस्तु कीदृशे स्थाने कर्त्तव्या कीदृशे च न कर्त्तव्येति व्याख्यानयन्नाह
IN॥६८॥ सिंगक्खोडे कलहो ठाणं पुण नेव होह चलणेसु । अहिठाणि पोहरोगो पुच्छमि अ फेडणं जाण ॥७६॥(भा०) मुहमूलंमि अ चारी सिरे य कउहे य पूयसकारो । खंधे पट्ठीऍ भरो पोइंमि य धायओ वसहो ॥७७॥ (भा०)
दीप अनुक्रम [२३१]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२३२] → “नियुक्ति: [१५२] + भाष्यं [७७] + प्रक्षेपं [५-१२]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१५१||
| तत्र वामपापिषिष्टपूर्वाभिमुखवृषभरूपं क्षेत्र बुझ्या कल्पयित्वा तत इदमुच्यते-'शृङ्गखोडे' शृङ्गप्रदेशे यदि वसति | करोति ततः कलहो भवतीति क्रिया वक्ष्यति, 'स्थानं' अवस्थितिर्नास्ति 'चरणेषु' पादप्रदेशेषु, 'अधिष्ठाने' अपानप्रदेशे वसती क्रियमाणायामुदररोगो भवतीति क्रिया सर्वत्र योजनीया । 'पुच्छे' पुच्छप्रदेशे 'फेडणं' अपनयनं भवति वसत्याः॥ मुखमूले चारी भवति, शिरसि-शृङ्गयोर्मध्ये ककुदे च पूजासत्कारो भवति, स्कन्धे पृष्ठे च भारो भवति, साधुभिराग-18 च्छनिराकुला भवति, उदरप्रदेशे तु नित्यं तृप्त एव भवति क्षेत्रवृषभः । वसतियाख्याता, तद्व्याख्यानाच देवकुलशून्यगृहाद्यपि व्याख्यातमेष द्रष्टव्यम् । इयं च वृषभपरिकल्पना यावन्मानं वसतिनाऽऽक्रान्त तस्मिन् नोपरिष्टात् , उपरिष्टात्तु । तदनुसारेण कर्त्तव्या वसतिः । अधुना 'पाउग्गअणुण्णवण'त्यमुमेवावयवं व्याख्यानयन्नाह, तत्र प्रायोग्यानामनुज्ञापना कर्तव्या-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतः| दवे तणडगलाई अच्छणभाणाइधोवणा खेत्ते । काले उच्चाराई भावेण गिलाणकूरुवमा ।। ७८॥ (भा०) _ 'द्रव्यतः' द्रव्यमङ्गीकृत्य तृणानां संस्तारकार्थे डगलानां च-अधिष्ठानपोछनार्थ लेष्ट्रनामनुज्ञापना क्रियते । 'क्षेत्रे' क्षेत्रविपयाऽनुज्ञापना 'अच्छण'ति आस्या यत्रास्यते यथासुखेन स्वाध्यायपूर्वकं 'भाणादिधोवणा' भाजनादिधावन-क्षालनं पात्र-15| कादेयंत्र क्रियते सा क्षेत्रानुज्ञा । कालविषयाऽनुज्ञा दिवा रात्री वा उच्चारादिव्युत्सर्जनम् । भावविषयाऽनुज्ञापना ग्लानादेः| साम्यकरणार्थ निवातप्रदेशाधनुज्ञापना क्रियते । इदानीं 'वियालणे तस्स परिकहण'त्ति अमुमवयवं व्याख्यानयनाह, द्रा'कूरुवमा' यदा शय्यातर एवं ब्रूते-इयति प्रदेशे मयाऽवस्थानमनुज्ञातं भवतां नोपरिष्टात् , तदा तस्य परिकथना क्रियते
दीप अनुक्रम [२३१]
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अब अष्टा प्रक्षेप-गाथा: वर्तते. मया संपादित "आगम सुत्ताणि" मूलं अथवा सटीकं पुस्तके सा मुद्रितं वर्तते
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
|| १५२||
दीप
अनुक्रम
[२४३]
श्री ओघनियुक्तिः द्रोणीया
वृत्तिः
॥ ६९ ॥
मूलं [ २४३] ● → मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
"निर्युक्तिः [१५२] + भाष्यं [ ७८ ] + प्रक्षेपं [१२...]"
८०
आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
कूरदृष्टान्तेन, यो हि भोजनं कस्यचिद्ददाति स नियमेनैव भोजनोदकासेचनाद्यपि ददात्यनुक्तमपि सामथ्याक्षिप्तम्, एवं वसतिं प्रयच्छता उच्चारप्रश्रवणभूम्यादि सामर्थ्याक्षिप्तं सर्वमेव दत्तं भवति, अथवा इदमसौ शय्यातरी विचारयति -कियन्तं कालमत्र स्थास्यन्ति भवन्तः १, अस्मिन् विचारे तस्स परिकहणा
जाव गुरुण य तुज्झ य केवइया तत्थ सागरेणुवमा । केवइकालेोहिह ? सागार ठवंति अष्णेवि ॥ १५३ ॥
यावद् गुरूणां ते-तव च प्रतिभाति तावदवस्थानं करिष्यामः, अथैवमसौ विचारयति -वियालणा, यदुत 'केवइआ ' कियन्त इहावस्थास्यन्ते ?, तस्स परिकहणा क्रियते, सागरेणोपमा, यथा हि सागरः क्वचित्काले प्रचुरसलिलो भवति कचि* त्पुनर्मर्यादावस्थ एव भवति, एवं गच्छोऽपि कदाचिद्ध हुप्रब्रजितो भवति कदाचित्स्वल्पप्रव्रजित इति । अथासौ पुनरपि | 'विआलण 'त्ति विचारयति-यथा 'केवइकालेणेहिह 'त्ति कियता कालेनागमिष्यथ ?, एवमुक्ताः सन्तः साधवः तत्र 'सागार * ठर्विति' सविकल्पं कुर्वन्तीत्यर्थः, कथं कुर्वन्ति ?--'अन्नेवि' अन्येऽपि साधवः क्षेत्रप्रत्युपेक्षणार्थं गता एव, ततश्च तदालोचनेनागमिष्याम इति ॥
पुदि इच्छ अव भणिज्जा हवंतु एवइया । तत्थ न कप्पड़ वासो असई खेत्ताऽणुन्नाओ ॥ १५४ ॥ यदा त्वसौ पूर्वदृष्टानेच्छति यैः प्राग् मासकल्पः कृत आसीत्, स्वभावेनेर्ष्यालुः स दृष्टप्रत्ययानिच्छति, नान्यान्, तत्र न कल्पते वासः । अथवा भणेदसौ - एतावन्त एवात्र तिष्ठन्तु तत्र 'न कल्पते वासः' न युज्यतेऽवस्थानं, यतः साधवः कदाचित्स्तोकाः कदाचिद्वद्द्वो भवन्ति । अथान्यानि क्षेत्राणि न सन्ति तदा 'असति' क्षेत्राणामन्येषामभावे 'अणुन्नाउ'त्ति
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द्रव्याद्यनुज्ञापन
भा. ७८ शय्यातरेण कालादिविचार:
नि. १५३
१५४
।। ६९ ।।
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२४६] → "नियुक्ति : [१५५] + भाष्यं [७८..] + प्रक्षेपं [१२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१५५||
| तस्यामेव वसतावनुज्ञातो वासः । शेषक्षेत्राभावे सति तत्र च नियतपरिमितायां वसतौ यदि प्राघूर्णका आगच्छन्ति ततः18 | को विधिरित्यत आह
सकारो सम्माणो भिक्खरगहणं च होह पाहुणए । जइ जाणउ वसइ तहिं साहम्मिअवच्छ लाऽऽणाई ॥१५॥ ___ 'सत्कारः' वन्दनाभ्युत्थानादिकः 'सन्मानः' पादप्रक्षालनादिका 'भिक्षाग्रहणं भिक्षानयनं च, एतत्माघूर्णके आगते सति प्रक्रियते । पुनश्च तस्य प्राधूणकस्य वसतिस्वरूपं कथ्यते यथा-परिमितरेवैपा लब्धा, नान्यस्यावकाशः, ततश्च त्वयाऽन्यत्र 8
वसितव्यम् । 'यदि जाणउ वसइ तहिंति एक्मसावुक्तो ज्ञोऽपि सन्-यदि जानन्नपि तत्र वसति ततः को दोषोऽत आह'साहम्मिअवच्छलाऽऽणाई' साधर्मिकवात्सल्यं न कृतं भवति, यतोऽसौ शय्यातरो रुष्टस्तानपि निर्धाटयति, आज्ञाभङ्गश्च दाकृतः-आज्ञालोपश्चैवं कृतो भवति सूत्रस्य, आदिशब्दात्तद्रव्यान्यद्रव्यच्यच्छेदः । इदानीं ते क्षेत्रप्रत्युपेक्षका आचार्यसमी-IX
पमागच्छन्तः किं कुर्वन्तीत्यत आह
जइ तिन्नि सबगमणं एसु न एसुत्तिदोसुवि अ दोसा ।अण्णपहेणगुणता निययावासोऽहमा गुरुणो॥१५६ ॥ 8| यदि ते क्षेत्रप्रत्युपेक्षकास्त्रय एव ततः सर्व एव गमनं कुर्वन्ति, अथ सप्त पञ्च वा ततः सङ्घाटकमेकं मुक्त्वा ब्रजन्ति । Kil'एसु न एसुत्ति शय्यातरेण पृष्टाः सन्तस्ते नैवं वदन्ति-एष्यामो न वा एष्याम इति, यत एवं भणने दोषः, किं कारणं ?,
यदेव भणन्ति यदुत आगमिष्यामः, ततश्च शोभनतरे क्षेत्रे लब्धे सति नागच्छन्ति ततश्चानृतदोषः, अथ भणन्ति-नागमि
दीप अनुक्रम [२४६]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२४७] → “नियुक्ति: [१५६] + भाष्यं [७८..] + प्रक्षेपं [१२...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
नियुक्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१५६||
श्रीओघ- प्यामः, ततश्च कदाचिदन्यत्क्षेत्रं न परिशुद्ध्यति ततश्च पुनस्तत्रागच्छतां दोषोऽनृतजनितः। 'अण्णपहेण ति ते हि क्षेत्रप्रत्युपेक्षका संकीर्ण
गुरुसमीपमागच्छन्तोऽन्येन मार्गणागच्छन्ति, कदाचित्स शोभनतरो भवेत् , 'अगुणंत त्ति सूत्रपौरुषीमकुर्वन्तः प्रयान्ति, द्रोणीया
मा भून्नित्यवासो गुरोरिति, किं कारण ?, यतस्तेषां विश्रब्धमागच्छतां मासकल्पोऽधिको भवति, ततश्च नित्यवासो गुरोरिति वृत्तिः
नि. १५५ | गंतूण गुरुसमीवं आलोएत्ता कहेंति खेत्तगुणा । न य सेसकहण मा होज संखडं रति साहति ॥१५७॥ १५६. ॥ ७० ॥
Gआचार्याया | गत्वा गुरुसमीपं आलोचयित्वा ईर्यापथिकातिचारं कथयन्त्याचार्याय क्षेत्रगुणान् । 'न य सेसकहणं ति न च शेषसाधुभ्यः
| लोचना दा क्षेत्रगुणान् कथयन्ति । किं कारणम् ?-'मा होज संखड' मा भवेत् स्वक्षेत्रपक्षपातजनिता राटिरिति, तस्मात् 'रति साहे-14नि. १५७ति'त्ति रात्री मिलितानां सर्वेषां साधूनां क्षेत्रगुणान् कथयन्ति । ते च गत्वा एतत्कथयन्ति
१५९ VIपढमा नत्थि पढमा तत्थ उ घयखीरकरदहिलंभो।बिइयाए विह तायाए दोवि तेसिं च धुवलंभो ॥१५८॥1
ओहासिअधुवलंभो पाउग्गाणं चउत्थिए नियमा । इहरावि जहिच्छाए तिकालजोगं च सवेसिं ॥ १५९ ॥ __ 'प्रथमायाँ' पूर्वस्यां दिशि नास्ति प्रथमा-नास्ति सूत्रपौरुषीत्यर्थः, किन्तु तत्र घृतक्षीरकूरदधिलाभोऽस्ति, अन्ये वन्यस्यां | दिशि कथयन्ति, द्वितीयायां दिशि नास्ति द्वितीया-नास्त्यर्थपौरुषी, यतस्तत्र द्वितीयायां पौरुष्यामेव भोजनं, घृतादिवस्तु
॥७०॥ लभ्यत एव, ततिआए दोवित्ति तृतीयायां दिशि द्वे अपि सूत्रार्थपौरुष्यौ विद्यते 'तेसिं च धुव लंभो'त्ति तेषां घृतादीनां नि| चितं लाभः ॥ 'ओभासिअधुवलंभो त्ति प्रार्थितस्य ध्रुवो लाभः, केषां -प्रायोग्यानां घृतादीनाम् 'चउत्थीए' चतुर्थ्यां दिशि 8|
दीप अनुक्रम [२४७]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२५०] → "नियुक्ति : [१५९] + भाष्यं [७८..] + प्रक्षेपं [१२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१५९||
'नियमात्' अवश्य 'इहरावित्ति अप्रार्थितेऽपि यदृच्छया त्रिकालयोग्य प्रातमध्याह्नसायाहेषु त्रिकालमपि 'सवेसिति 'सर्वेषा बालादीनां योग्य प्राप्यत इति । एवं तैः सर्वैः क्षेत्रप्रत्युपेक्षकैराख्याते सत्याचार्यः किं करोतीत्याह|मयगहणं आयरिओ कत्थ वयामोत्ति ? तत्थ ओयरिआ।खुभिआ भणंति पढमतं चिअअणुओगतत्तिहा १६०
'मतग्रहणं' अभिप्रायग्रहणं आचार्यः शिष्याणां करोति, यदुत भो आयुष्मन्तः! तत्व बजामः ?-कया दिशा गच्छामः। तत्रैवमामन्त्रिते शिष्यगणे आचार्येण 'तत्र औदरिका' उदरभरणैकचित्ताः 'क्षुभिताः' आकुला भणन्ति-यदुत 'पढमति | प्रथमा दिशं व्रजामः, यत्र प्रथमपौरुष्यां भुज्यते, 'तं चियत्ति तामेव दिशं 'अणुओगतत्तिल्ला' ब्याख्यानार्थिन इच्छन्ति, यतस्ते सूत्रग्रहणनिरपेक्षाः केवलमर्थग्रहणार्थिनः, ते चार्थग्रहणप्रपञ्चो द्वितीयायां पौरुष्यां भवतीत्यतस्तामेवेच्छन्तीति ॥ बिइयं सुत्तग्गाही उभयग्गाही अ तइययं खेत्तं । आयरिओ अ चउत्थं सो उ पमाणं हवह तत्थ ॥१६१ ॥
द्वितीयां च दिशं सूत्रग्राहिण इच्छन्ति, यतः प्रथमपौरुष्यामेव स्वाध्यायो भवति, स च तेषामस्ति, 'उभयग्राहिणश्च । लसूत्रार्थग्राहिणस्तृतीयं क्षेत्रमिच्छन्ति, आचार्यस्तु चतुर्थ क्षेत्रमिच्छन्ति, यतस्तत्र चतुर्थ्यामपि पौरुष्यां प्राघूर्णकादेः प्रायोग्य है
लभ्यत इति, स एव प्रमाणं' आचार्य एव सर्वेषां प्रमाणं भवति 'तत्थेति तत्र शिष्यगणमध्ये, किं पुनः कारणं आचार्याश्चतुर्थमेव क्षेत्रमिच्छन्ति ?, अत आह
मोहुम्भवो उ चलिए दुबलदेहो न साहए जोए । तो मज्झबला साह दुहस्सेणेत्थ दिढतो ॥१२॥ प्रथमद्वितीययोः क्षेत्रयोः प्रचुरभक्तपानकेभ्यः सकाशाद्बलवान् भवति, बलिनश्च मोहोभवो भवति-कामोद्भवो |
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दीप अनुक्रम [२५०]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२५३] → “नियुक्ति: [१६२] + भाष्यं [७८..] + प्रक्षेपं [१२...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१६२||
दीप अनुक्रम [२५३]
श्रीओपहै भवतीत्यर्थः। आह-एवं तर्हि यत्र भिक्षा न लभ्यते तत्र प्रयान्तु, उच्यते, 'दुर्बलदेहः कृशशरीरो न साधयति-नाराधयति आचायण
15 गच्छपृच्छ नियुक्तिः 'योगान् व्यापारान् यतस्ततो मध्यमबलाः साधव इश्यन्ते । दुष्टाश्वेन चात्र दृष्टान्तः, दुष्टाश्यो-गर्दभ उच्यते, स यथा द्रोणीयादा
निनि.१६० प्रचुरभक्षणार्पिष्टः सन् कुम्भकारारोपितभाण्डकानि भनुक्ति दर्पोत्सेकादुरप्लत्य, पुनलेनैव कुम्भकारेण निरुद्धाहारः सन्नति-18 वृत्तिः
१६४ लि दुर्बलत्वात्प्रस्खलितः सन् भनक्ति, स एव च गर्दभो मध्यमाहारक्रियया सम्यग् भाण्डानि वहति, एवं साधवोऽपि संयम-16
ग्लानबलक्रियां मध्यमवला वहन्ति ।
कालं पणपण्णगस्स हाणी आरेणं जेण तेण वा धरइ । जइ तरुणा नारागा चर्चति चउस्थगं ताहे ॥१६३ ॥ नि. १६५ ___ अथ तस्मिन् गच्छे पश्चपञ्चाशद्वर्षदेशीयाः त्रिंशद्वर्षाः चत्वारिंशद्वर्षा वा भवन्ति, ततो गम्यते चतुर्थ क्षेत्र, यतस्ते येन केनचिनियन्ते-यापयन्ति (प्यन्ते) । तथा यदि च तरुणा 'नीरोगाः' शक्का भवन्ति ततश्चतुर्थमेव क्षेत्रं ब्रजन्ति । अह पुण जुष्णा थेरा रोगविमुक्का य असहुणो तरुणा । ते अणुकूलं खेतं पेसंति न यावि खरगूड़े ॥ १६४॥
अथ पुनर्जूणा (जीर्णाः) स्थविरा भवन्ति रोगेण च-ज्वरादिना मुक्तमात्रास्तरुणाः, नाद्यापि येषां साम्यं भवति शरी|रस्य, ततस्ताननुकूलं क्षेत्रं प्रेषयन्त्याचार्या । 'न यावि खग्गूडे'त्ति 'खग्गूडा' अलसा निर्द्धर्मप्रायास्तान्न प्रेषयन्ति । कियता पुनः कालेन वृद्धादय आप्याय्यन्ते', उच्यते, पञ्चमात्रदिवसः, यत उक्तं वैद्यके| एगपणअद्धमासं सही सुणमणुयगोणहस्थीणं । राईदिएण उवलं पणगं तो एक दो तिन्नि ॥१५॥ एकेन रात्रिन्दिवेन शुनो बलं भवति, पञ्चभिदिनर्मनुजस्य बलं भवति, अर्द्धमासेन बलीवर्दस्य, पष्टिभिर्दिनहस्तिनो बलं
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२५६] → “नियुक्ति : [१६५] + भाष्यं [७८..] + प्रक्षेपं [१२...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
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गाथांक नि/भा/प्र ||१६५||
भवति, एवमेतद्यथासहवं योजनीयम् । 'पणगं तो एक दो तिण्णि' एवमसौ तस्मिन् क्षेत्रे पञ्चकमेकं धार्यते, अथ तथाऽपि
बलं न गृह्णाति द्वौ पञ्चको धार्यते, त्रीन् वा पश्चकान् धार्यते, पुनरानीयत इति । एवं ते आलोचितशिष्यगणा आचार्याः टूशय्यातरमाच्छच क्षेत्रान्तरं संक्रामन्ति । अथ न पृच्छन्ति ततो दोष उपजायते । एतदेवाह
सागरिअपुच्छगमणं बाहिरा मिच्छ छेय कयनासी।गिहि साहू अभिधारण तेणगसंकाइ जं चऽपणं ॥१६६ ॥ ___ 'सागारिक' शय्यातरं अनापृच्छच यदि गमनं क्रियते ततो 'बाहिर'त्ति बाह्या लोकधर्मस्यैते भिक्षवः इत्येवं वक्ति शय्यातरः, ये च धर्म लोकधर्म न जानन्ति दृष्टं ते कथमदृष्टं जानन्ति ? इत्यतः 'मिच्छत्ति मिथ्यात्वं प्रतिपद्यते, 'छेद'त्ति अपच्छेदो वसतिदानस्य, पुनस्तेऽन्ये चा वसतिं न लभन्ते, 'कतणासित्ति अकृतज्ञा ह्येते प्रवजिता इत्येवं मन्यते, गिहि साधू अभिधारण'त्ति गृही कश्चिच्छ्रावकस्तमाचार्यमभिधार्य-संचिन्त्यायातः प्रव्रज्यार्थ, तेनाप्यागत्य शय्यातरः पृष्टःकाचार्यः १, सोऽपि रुष्टः सन्नाह-यः कथयित्वा ब्रजति स ज्ञायते, तं तु को जानाति ?, तमाकर्ण्य स श्रावकः कदाचिद्दर्शनमप्युज्झति, लोकज्ञानमप्येषां नास्ति कुतः परलोकज्ञानमिति?, कदाचित्साधुः कश्चित्तमाचार्य अभिधार्य-मनसि कृत्वा उपसंपदादानार्थमायाति, सोऽपि शय्यातरं पृच्छति, शय्यातरोऽप्याह-न जाने क गत इति, ततः स साधुः अनाचारवानाचार्य इति विचिन्त्यान्यत्र गतः, सोऽपि निर्जराया आचार्योऽनाभागी जात इति । 'तेणग'त्ति कदाचित्तद्गृहं केनचित्तस्मि-1 नेव दिवसे मुष्ट भवेत्तत एवंविधा बुद्धिर्भवेत्-यदुत स्तेनास्ते इत्येवं शङ्कां करोति, आदिशब्दाघोषित् केन केचित्सह गता|
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दीप अनुक्रम [२५६]
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शय्यात्तर संबंधी विधानानि
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२५८] → "नियुक्ति: [१६७] + भाष्यं [७८..] + प्रक्षेपं [१३]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१६७||
दीप अनुक्रम [२५८]
श्रीओप- ततो गृहात् तेऽप्यनाख्याय गताः ततश्च शङ्कोपजायते, 'जं चण'ति यच्चान्यत् शङ्कादि जातं पत्तनगतं तत्सर्वमुप- शय्यातराजायत इति गच्छद्भिश्च शय्यातर आपृच्छनीयः । स च विधिना, यतोऽविधिना पृच्छत एते दोषाः
पृच्छादि 18 अविहीपुच्छा उग्गाहिएण सिज्जातरी उ रोपज्जा । सागारियस्स संका कलहे य सएजिआ खिसे ॥ १६७॥ नि. १६६
| अविधिपृच्छा इयं वर्तते, यदुत-'जग्गाहितेन' उत्क्षिप्तेन उपकरणेन पृच्छति, तत्र 'सेज्जातरी उ रोएजा' तेनाकस्मिकेन। ॥७२॥ गमनेन शय्यातर्यो रोदनं कुर्युः, ततश्च 'सागारिकस्य शय्यातरस्य शङ्कोपजायते, कलहे च सति 'सइजिआए' सह सखि-|
क्रियया 'विस'त्ति यथा न शोभना त्वं येन त्वया तत्र काले भिक्षोर्गच्छतो रुदितं, किं च-ते स पिता भवति? येन तारोदिषीति । अधानागतमेव कथयन्ति-अमुकदिवसे गमिष्यामः, तत्राप्येते दोषाः
हरिअच्छेयण छप्पइय घचणं किच्चणं च पोत्ताणं । छण्णेयरं च पगयं इच्छमणिच्छे य दोसा उ॥ १६८॥ । तद्धि शय्यातंरकुटुम्ब साधवो यास्यन्तीति विमुक्तशेषव्यापार सत् गृह एव तिष्ठति, कृष्यादिप्रतिजागरणं न करोति,
ततश्च क्षणिकं सत् स्वगृहजातहरितच्छेदं करोति । तथा निर्व्यापारत्वादेव च ता रण्डाः पट्पदीनां परस्परनिरूपणेनोप*मर्दै कुर्वन्ति । 'किचणं च पोत्ताण ति तत्र दिवसे क्षणिका विमुक्तकृषिलवनव्यापारा वखाणि शोधयन्ति । 'छण्णेयरं च
पगर्य' प्राकृतं-भोजन छन्नं कुर्वन्ति, अप्रगटमित्यर्थः, 'इतरं वत्ति प्रकटमेव भोजनं संयतार्थं कुर्वन्ति, तत्र चेच्छतामनिच्छतां च दोषा भवन्ति, कथं, यदि तदोजनं गृह्णन्ति ततस्तदकल्पनीयम् , अथ न गृहन्ति ततो रोषभावं कदाचि-| प्रतिपद्यते । एते दोषा अनागतकथने, ततश्च कः पृच्छाविधिरित्याह
॥ ७२
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अत्र एका प्रक्षेप-गाथा वर्तते. मया संपादित "आगम सुत्ताणि" मूलं अथवा सटीकं पुस्तके सा मुद्रितं वर्तते
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२६१] → “नियुक्ति : [१६९] + भाष्यं [७८..] + प्रक्षेपं [१३...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१६९||
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जइआ चेव उ खेतं गया उ पडिलेहगा तओ पाए । सागारियस्स भावं तणुएंति गुरू इमेहिं तु ॥१६९ ॥
यदेव क्षेत्रं गताः प्रत्युपेक्षकाः ततो पाए'त्ति ततःप्रभृति 'सागारिकस्य' शय्यातरस्य 'भाव' स्नेहप्रतिबन्ध तनूकुर्वन्ति, के-गुरवः 'एभिः वक्ष्यमाणैर्गाथाद्वयोपन्यस्सर्वचनैरिति
खच्छ बोलिंति यई तुंबीओ जायपुत्तभंडा य । बसमा जायस्थामा गामा पचापचिक्खल्ला ॥१७॥ अप्पोदंगा य मग्गा वसुहावि अ पक्कमहिआ जाया। अण्णकता पंथा साहणं विहरिवं कालो॥१७१ ।। एतद्राधाद्वय शृण्वतः शय्यातरस्य पठन्ति, ततः सोऽपि श्रुत्वा भणति-किं यूर्य गमनोत्सुकाः, आचार्योऽप्याहसमणाणं सउणाणं भमरकुलाणं च गोउलाणं च । अनियाओ वसहीओ सारइयार्ण च मेहाणं ॥१७२ ॥
सुगमा । ततश्चैतां गाथां पठित्वा इदमाचरन्तिआवस्सगकयनियमा कल्लं गच्छाम तो उ आयरिआ।सपरिजणं सागारिअ वाहिरि दिति अणुसिहि १७३
'आवश्यककृतनियमाः कृतप्रतिक्रमणा इत्यर्थः, विकालवेलायां कृतावश्यका इदं भणन्ति-यदुत कलं गच्छामः । पुनश्च तत आचार्यः सपरिजनं 'सागारिक' शय्यातरं आह्वय 'अनुशास्तिं ददति' धर्मकां कुर्वन्तीत्यर्थः।
हक्षयो पुकामन्ति वृति-तुम्यो जातपुत्रभाग्दाश्च । वृषभा जातस्थामानः प्रामाः प्रचातकर्दमाः १७०॥२ सपोवकास मार्गा वसुधाऽपि च परमत्तिका आता । अन्याकान्ताः पन्थानः साधूनां विहः (योग्यः) कालः ॥ १७॥ ॥ श्रमणानां शकुनाना अमरकुलानां पगोकुलानां च । अनियता बसतयः चारदिकानां च मेघानाम् ॥ १७॥
दीप अनुक्रम [२६१]
मो.॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२६६] → “नियुक्ति: [१७४] + भाष्यं [७८..] + प्रक्षेपं [१३...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१७४||
श्रीओघ- पवज सावओ वा दसण भहो जहण्णय वसहिं । जोगमि वट्टमाणे अमुगं घेलं गमिस्सामो ॥१७४॥ गच्छता नियुक्तिः
सोऽपि सागारिको धर्मकथां श्रुत्वा एवंविधो भवति-प्रव्रज्यां प्रतिपद्यते श्रावको वा भवति दर्शनधरो वा भवति द्रोणीया
| बोधन भद्रको वा भवति, सर्वथा जघन्यतो वसतिमात्रमवश्यं ददाति । पुनश्च धर्मकथां कृत्वाऽऽचार्या एवं युवते यदुत 'योगे वृत्तिः
वर्तमाने' योऽसी योगो गमनाय मां प्रेरयति तस्मिन् वर्तमाने-भवति सति अमुकवेलायां गमिष्याम इति । इदानी ते||१७४ वि|विकालवेलायां कथयित्वा प्रत्युषसि ब्रजन्ति, किं कृत्वेत्यत आह
हाररीतिः
नि. १७५ | तदुभय सुत्तं पडिलेहणा य उग्गयमणुग्गए वावि । पडिछाहिगरणतेणे नढे खरगूड संगारो ॥ १७५ ।।
'तदुभय' सूत्रपौरुषीमर्थपौरुषी च कृत्वा ब्रजन्ति, 'सुत्तति सूत्रपौरुषी वा कृत्वा व्रजन्ति, अथ दूरतरं क्षेत्रं भवति ततः तपादोनप्रहर एव पात्रप्रतिलेखनामकृत्वा ब्रजन्ति, 'उग्गय'त्ति उद्गतमात्र एव वा सूर्ये गच्छन्ति, 'अणुग्गय'त्ति अनुगते *वा सूर्ये रात्रावेव गच्छन्ति, 'पडिच्छति ते साधवस्तस्माद्विनिर्गताः परस्परं प्रतीक्षन्ते, 'अधिकरण'त्ति अथ ते साधबो न
प्रतीक्षन्ते ततो मार्गमजानानाः परस्परतः पूत्कुर्वन्ति, तेन च पूत्कृतेन लोको विबुध्यते, ततश्चाधिकरणं भवति, 'तेण'त्ति |स्तेनका वा विबुद्धाः सन्तो मोषणार्थ पश्चाद्जन्ति 'नहत्ति कदाचित्कश्चिन्नश्यति, ततश्च प्रदोष एव सङ्कारः क्रियते, अमु-18 कत्र विश्रमणं करिष्यामः अमुकत्र भिक्षाममुकत्र वसतिमिति, ततश्च रात्री गच्छन्द्रिः सङ्केतः क्रियते । 'खरगूहे'त्ति कश्चित्त खरगूडप्रायो भवति, स इदं ब्रूते-यदुत साधूनां रात्री न युज्यत एवं गन्तुं, पुनः स आस्ते, ततश्च 'संगारो'त्ति सङ्केत खग्गू-11
दीप अनुक्रम [२६६]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२६७] → “नियुक्ति: [१७५] + भाष्यं [७९] + प्रक्षेपं [१३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
ERS
गाथांक नि/भा/प्र ||१७५|
डाय प्रयच्छन्ति, यदुत त्वयाऽमुकत्र देशे आगन्तव्यमिति । इदानीमस्या एव गाथाया भाष्यकृत् कांश्चिदवयवान् व्याख्या नयति, तत्र प्रथमावयवं व्याख्यानयन्नाहपडिलेहंतचिव बेटियाउ काऊण पोरिसि करिति । चरिमा उग्गाहे सोचा मज्झण्हि वचंति ॥७९॥(भा०)
ते हि साधवः प्रभातमात्र एवं प्रतिलेखयिस्खा उपधिकां पुनश्च वेण्टलिका कुर्वन्ति-संवर्तयन्तीत्यर्थः, ततश्चानिक्षिप्तोपधय पव 'पोरिसिं करेंति' सूत्रपौरुषीं कुर्वन्ति, 'चरिमा उग्गाहेउ'त्ति चरिमवेलायां पादोनपौरुष्यां पात्रकाणि उदाह्य-संयन्त्र-1 यित्वा पुनश्चानिक्षिप्तरेव पात्रकैः 'सोच'त्ति श्रुत्वा अर्थपौरुषी कृत्वेत्यर्थः, ततो मध्याहे अजन्तीति । ते च शोभन एवाहि व्रजन्तीति । अत एवाहतिहिकरणमि पसत्धे नक्षत्ते अहिवइस्स अणुकूले । घेत्तुण निति वसभा अक्खे सउणे परिक्खंता||८०॥(भा०) | 'तिथौ' प्रशस्तायां 'करणे' च पवादिके प्रशस्ते नक्षत्रे वा 'अधिपतेः' आचार्यस्य अनुकले सति गृहीत्वा अक्षान् प्राग वृषभा निर्गच्छन्ति, किं कुर्वाणा अत आह-'सउणे परिक्खंता' 'शकुनान प्रशस्तान् परीक्षमाणाः सन्तो वृषभा निगच्छ-| न्तीति पश्चादाचायोः । किं पुनः कारणं पश्चादाचार्यो निर्गच्छन्ति !, तत्र कारणमाहवासस्स य आगमणे अवसउणे पहिआ निवत्तंति । ओभावणा पवयणे आयरिआ मग्गओतम्हा ॥८॥(भा०), | वर्षणं वर्षस्तस्यागमनं कदाचिद्भवति, अपशकुने वा दृष्टे प्रस्थिता अपि निवर्तन्ते वृषभाः, यदि पुनराचायों एवं प्राग |निर्गच्छन्ति ततोऽपधाकुनदर्शने वृष्टौ च निवर्तमानस्य सतः किं भवति !, अत आह-'ओहावणा पवयणे' प्रवचने हीलना|
दीप अनुक्रम [२६७]
5455%
विहार-रीति: एवं तस्य विधानं
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२७०] → “नियुक्ति: [१७५...] + भाष्यं [८१] + प्रक्षेपं [१४]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
श्रीओष- नियुक्तिः द्रोणीया
"
विहाररी
तिः भा.
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||८१||
वृत्तिः
॥७४॥
ARCH
भवति, यदुत-यदपि ज्योतिपिकाणां विज्ञानं तदप्येतेषां नास्तीति, 'आयरिया मग्गोत्ति अत आचार्या 'मार्गतः' पृष्ठतोह निर्गच्छन्तीति । गच्छनिश्च शकुना अपशकुना वा निरूपणीयाः, तत्रापशकुनं प्रतिपादयन्नाहमहल कुचेले अभंगिएल्लए साण खुजबडभे या। एए उ अप्पसत्या हवंति खित्ताउ निंताणं ॥८॥ (भा०) |७९-८६ नारी पीवरगन्भा वडकुमारी य कट्टभारो अ । कासायवत्थ कुचंधरा य कजं न साहेति ॥८३ ॥ (भा०) हैा मलिनः शरीरकपटैः कुचेलो-जीर्णकर्पटः 'अभंगिएलय'त्ति स्नेहाभ्यक्तशरीरः श्वा यदि वामपादक्षिणपार्थ प्रयाति| कुब्जी-वक्रः वडभो-वामनः, एतेऽप्रशस्ताः-'पीवरगर्भा' आसन्नप्रसवकाला । शेष सुगमम्. [चकयरंमि भमाडो भुक्खामारो य पंडुरंगमि । तच्चन्नि रुहिरपडणं वोडियमसिए धुवं मरणं ]
[चक्रधरे भ्रमणं क्षुधा मरणं च पाण्डुरांगे । तचन्निके रुधिरपातं बोटिकेऽशिते भुषं मरणं] जंबू अ चासमऊरे भारदाए तहेव नउले अ सणमेव पसत्थं पयाहिणे सवसंपत्ती ।। ८४ ॥ (भा०) सुगमा । नंदी तूरं पुण्णस्स दसणं संखपडहसदो य । भिंगारछत्तचामर धयप्पडागा पसत्थाई ॥८५॥ (भा०) सुगमम् , नवरं-पूर्णकलशदर्शनं, ध्वज एव पताका ध्वजपताका । समणं संजय दंत सुमणं मोयगा दहिं । मीणं घंटं पडागं च सिद्धमत्थं विआगरे ।। ८६ ॥ (भा०)
दीप अनुक्रम [२७०]
७४॥
maratimuro
एका प्रक्षेप-गाथा इदम्
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२७६] .→ “नियुक्ति : [१७५...] + भाष्यं [८६] + प्रक्षेपं [१४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||८||
'श्रमणा' लिङ्गमात्रधारी 'संयतः' सम्यक् संयमानुष्ठाने यतः यशपरः 'दान्तः' इन्द्रियनोन्द्रियैः 'सुमनसः' पुष्पाणि,15॥ शेषं सुगमम् । गच्छश्चासौसेवातरेऽणुभासइ आयरिओ सेसगा चिलिमिलीए। अंतो गिण्हन्तुवहिं सारविअपडिस्सया पुधि ।।८७॥(भा०
ब्रजनसमये शय्यातराननुभाषते-बजाम इत्येवमादि आचार्यः। 'सेसगा चिलिमिलीए अंतो' शेषाः साधवः 'चिलि-15 मिलिण्याः' जवनिकाया 'अन्तः' अभ्यन्तरे, किम् -उपधि 'गृहन्ति' संयन्त्रयन्तीत्यर्थः । 'सारविअपडिस्सया पुषिति किंविशिष्टाः सन्तस्ते साधव उपधि गृहन्ति-समार्जितः-उपलिप्तः प्रतिश्रयो यैस्ते संमार्जितप्रतिश्रयाः 'पुषि' प्रागेव, प्रथममेवेत्यर्थः । इदानीं कः कियदुपकरणं गृहातीत्याहपालाई उचगरणं जावइयं तरति तत्तिरंगिण्हे । जहण्णेण जहाजायं सेसं तरुणा विरिचिंति ॥८८(भा०ाी
बालादयः, आदिशब्दाहृद्धा गृह्यन्ते, ते घुपकरणं यावन्मानं 'तरन्ति' शक्नुवन्ति तावन्मात्र गृहन्ति, तैश्च बालादिभिः |'जघन्येन' जपन्यतः 'जहाजाय'ति रजोहरणं चोलपट्टकच, एतदशक्नुवद्भिरपि ग्राह्य, शेष उपगरणं तरुणाः आभिप्रहिकाः 'विरिश्चन्ति' विभजन्ति बालादिसत्कम् । यदा तु पुनराभिग्रहिका न सन्ति तदाआयरिओवहि बालाइयाण गिण्हंति संघयणजुत्ता । दोसोत्ति उपिणसंथारए य गहरोकपासेणं ॥८९॥(भा०) | आचार्योपधि 'बालाइयाणति वालादीनां च संबन्धिनमुपधिं गृह्णन्ति, के ?-'संघयणजुत्ता' येऽन्ये शेषा अनाभिग्रहिकाः संहननोपेतास्ते गृह्णन्ति, कथं पुनर्गृहन्ति ते उपधि-दो सुत्तिउत्ति द्वौ सौत्रिकी कल्पी एक और्णिकः कल्पः संस्तारकश्च
दीप अनुक्रम [२७६]
15565
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२७९] .” “नियुक्ति: [१७५...] + भाष्यं [८९] + प्रक्षेपं [१४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||८||
श्रीओघ-18 शब्दादुत्तरपट्टकच, एषां ग्रहण 'एकपासेण'ति ग्रहणं एकस्मिन् पार्श्वे-एकत्र स्कन्धे ग्रहणं करोति, द्वितीये तु 'पार्थेविहाररीनियुक्तिनास्कन्धे पात्रकाणि गृहन्ति, आत्मीयां तूपधि विण्टलिकां कृत्वा यत्र स्कन्धे उपधिः कृतस्तयैव दिशा कक्षायां करोति । तिः भा. द्रोणीया इदानीं 'अधिकरणतेणेत्ति अमुमवयवं व्याख्यानयन्नाह
८७-९० वृत्तिः
आउज्जोवण वणिए अगणि कुटुंबी कुकम्म कम्मरिए। तेणे मालागारे उभामग पंथिए जंते ॥९०(भा०) ॥ ७५।। ते हि यदि सशब्दं ब्रजन्ति ततश्च लोको विबुध्यते, विबुद्धश्च सन् 'आउज्जोवण'त्ति अकाययन्त्राणि 'योत्रिज्यन्ते' बह
नाय सज्जीक्रियन्ते । अथवा 'आउ'त्ति अकायाय योषितो विबुद्धा व्रजन्ति 'जोवर्ण'ति धान्यप्रकरः तदर्थ लोको याति, प्रकरो-मर्दनं धान्यस्य, लाटविषये 'जोवर्ण धण्णपइरणं भण्णइ', 'वणिय"त्ति वणिजोबालझुकाविभातमिति कृत्वा ब्रजन्ति । 'अगणि'त्ति लोहकारशालादिषु अग्निः प्रज्वाल्यते 'कुटुंबित्ति कुटुम्बिनः स्वकर्मणि लंगन्ति 'कुकम्म'त्ति कुत्सितं कमें| येषां ते कुकर्माणः मात्स्यिकादयः कुत्सिता माराः कुमारा:-सौकरिकाः, एषां बोधो भवति रात्रौ पूत्कारयता, 'तेणे त्ति स्तेनकानां च, 'मालाकार'त्ति मालिका विबुध्यन्ते 'उच्भामगत्ति पारदारिका विबुध्यन्ते 'पंथिए'त्ति पथिका विबुध्यन्ते 'जते'त्ति || यान्त्रिकाः विबुद्धाः सन्तो यन्त्राणि वाहयन्ति चाक्रिकादयः । तत्र यदुक्तं प्राक् “नडे सग्गूडसिंगारों" तत्रेदमुक्त नियु-18 [क्तिकृता सङ्गारकरणमात्रम् , इह पुनः स एव नियुक्तिकारः स सङ्कारः कया यतनया कत्तेंव्यः । कस्यां च वेलायां क-1 सातव्यःइत्येतदाहदासंगार बीय वसही तइए सपणी चउत्थ साहम्मी। पंचमगंमि अवसही छडे ठाणडिओ होति ॥ १७६ ॥
दीप अनुक्रम [२७९]
SAKSECX
॥७५॥
JAMEaram
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२८१] → “नियुक्ति: [१७६] + भाष्यं [९०] + प्रक्षेपं [१४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||९०||
|'संगार त्ति सङ्केतोऽभिधीयते, तद्विधिर्वक्तव्यः, 'बितिअ वसहि'त्ति द्वितीये द्वारे वसतिः कर्त्तव्या, पूर्वप्रत्युपेक्षिता तस्या व्याघाते वा वसतेर्महणविधिर्वक्तव्यः, 'ततिए सण्णि'त्ति तृतीये द्वारे सञी श्रावको वक्तव्यः, चउत्थ साहम्मिति चतुर्थे द्वारे साधर्मिका वक्तव्याः, 'पंचमगंमि अ वसहित्ति पञ्चमे द्वारे वसतिर्वक्तव्या-विच्छिण्णा खुड्डुलिआ' इत्येवमादि,'छडे ठाणहिओ होति' षष्ठे द्वारे स्थानस्थितो भवति । द्वारगाथेयम् । इदानीं नियुक्तिकृतोपन्यस्त सङ्गारद्वयं भाष्यकृद् व्याख्यानयन्नाहआओसे संगारो अमुई बेलाऍ निग्गए ठाणं । अमुगत्थ वसहिभिक्खं बीओ खरगूडसंगारो॥९१ ॥(भा०) । 'आओसे'त्ति प्रदोषे 'संगारो'ति सङ्केतः आचार्येण कर्त्तव्यः, कथम् ?-'अमुई बेलाए'त्ति अमुकया वेलया यास्यामः, पुनश्च 'निग्गए ठाणं अमुगत्थ' निर्गताना सताम् अमुकत्र स्थान-विश्रामसंस्थानं करिष्यामः, 'वसहि'त्ति अमुकत्र बस-* तिर्भविष्यति-वासको भविष्यतीत्यर्थः, 'भिक्खत्ति अमुकत्र ग्रामे भिक्षाटनं कर्त्तव्यम् , एकस्तावदयं 'सङ्गार' सङ्केतः । दा वितिओ खागूडसंगारो'त्ति द्वितीयः सङ्केतः खग्गूडस्य दीयते । स चैवमाह
रतिं न चेव कप्पर नीयदुवारे विराहणा दुविहा । पण्णवण बहुतरगुणे अणिच्छ बीच उवही वा ॥१२॥(भा०)
l रतिं न चेव कप्पति'त्ति रात्रौ साधूनां गमनं न कल्पयति, द्विविधविराधनासंभवात् , यत उक्तं दिवापि तावत्दिनीयदुवारे विराहणा दुविह'त्ति, दिवाऽपि तावदयं दोषः, "नीयदुवारं तमसं, कोहगं परिवजए" [नीचद्वार तामस कोष्ठक
परिवर्जयेत् ] इतिवचनात् , नीचद्वारे द्विविधा घिराधना सतमस्कत्वाद् आस्तां तावदात्री, एष च धर्मश्रद्धया न निर्गच्छति ।
दीप अनुक्रम [२८१]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२८५] → “नियुक्ति : [१७६...] + भाष्यं [९२] + प्रक्षेपं [१४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२२||
वक्र
दीप अनुक्रम [२८५]
श्रीओप-1'पण्णवण बहुतरगुण'त्ति पुनश्च तस्य प्रज्ञापना-अरूपणा क्रियते, तत्र रात्रिगमने बहवो गुणा रश्यन्ते, बालवृद्धादयः सुखेन विहारनियुक्तिः गच्छन्ति रात्रौ, न तृषा बाध्यन्त इति, 'अणिच्छत्ति अथ तथाऽपि नेच्छति गमनम् 'बितिओ वत्ति द्वितीयस्तस्य दीयते- रीतिः द्राणीया तदर्थ मुच्यत इति । 'उवही बत्ति उपधिस्तस्य दीयते जीर्णा, तदीयश्च शोभनो गृह्यत इति, मा भूत्तत्पाईं स्थितमुपधि
नि. १७६ वृत्तिः
स्तेनका आच्छेत्स्यन्ति । इदानीमसावेकाकी यदि स्वपिति ततो दोषः प्रमादजनितस्ततश्चोपधिरुपहन्यते, उपहतश्चाकल्प्यो भा९१-९३ ॥७॥ भवति, एतदेवाह
सुवणे वीसुवघातो पडियमंतो अजोउ न मिलेजा।जग्गण अप्पडिबज्झण जइवि चिरेणं न उवहम्मे ९३ (भा०)
स्वापे 'वीसु' एकाकिनो निद्रावशे सति, को दोषः :-'उवघाउ'त्ति तस्यैकाकिनः सुप्तस्य उपधिरुपहन्यते, स ह्येकाकी स्वपन् प्रमादवान् भवति ख्याधभियोगसंभवात् , ततश्च निद्रावर्श प्राप्तस्य उपधिरुपहन्यते, अतोऽकल्पनीयो भवति परि-18 छापनीयश्चासौ । गच्छे तु स्वपतोऽपि नोपहन्यते, किं कारणम्!, यतस्तत्र केचित्सूत्रपौरुषी कुर्वन्ति, अन्ये द्वितीयप्रहरेऽर्था
नुचिन्तनं कुर्वन्ति, तृतीये तु प्रहरे आचार्य उत्तिष्ठति ध्यानाद्यर्थ, चतुर्थे तु प्रहरे सर्व एव भिक्षव उत्तिष्ठन्ति, ततश्च रात्रे४ कोऽपि प्रहरः शून्यः ततो नोपहन्यते उपधिः, एकाकिनस्तु जागरण नास्त्यत उपधातः । 'पडिबझंते व जो उ न मिलेज'
त्ति प्रतिवध्यमानो वा व्रजादिषु क्षीरयाचनेच्छया प्रतिवध्यमानो यो न मिलेत् तस्याप्युपहन्यते उपधिः । किं कारणम् !, एकाकिनः पर्यटनं नोक्तम् !, एकाकी च पर्यटन प्रमादभाम् भवति अतो ब्रजादिप्रतिबन्धेऽप्युपधिरुपहन्यते । यस्तु पुनर्जा-IN गर्ति तस्मिन् दिवसेऽभुक्तो न प्रजादिषु प्रतिबध्यते स एवंविधस्तस्मिन् दिवसे मिलमपि नोपधिमुपहन्ति । 'जइषि चि-18||
awaiianditurary.org
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
॥९३॥
दीप
अनुक्रम
[ २८६]
Eticatio
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २/१ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [ २८५] ● →
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
"निर्युक्तिः [ १७७] + भाष्यं [९३] + प्रक्षेपं [१४]...]" ८० आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
रेणेति किं बहुना ?, जाग्रन्निशि गोकुलादिषु वाऽप्रतिबध्यमानो यद्यपि चिरेण मिलति बहुभिर्दिवसैस्तथाऽप्युपधिस्तस्य नोपहन्यते, अप्रमादपरत्वात्तस्येति । इदानीं गच्छस्य गमनविधिं प्रतिपादयन्नाह
पुरओ मझे तह मग्गओ य ठायंति वित्तपडिलेहा । दाईतुधाराई भावासण्णाइरक्खट्ठा ॥ १७७ ॥ क्षेत्रप्रत्युपेक्षका एषु विभागेषु भवन्ति केचन 'पुरतः' अग्रतो गच्छस्य, केचन मध्ये गच्छस्य, ते हि मार्गानभिज्ञा: 'मार्गतश्च' पृष्ठतश्च तिष्ठन्ति क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः । किमर्थं पुरत एव तिष्ठन्ति ?, 'दाईतुच्चाराई' उच्चारप्रश्रवणस्थानानि दर्शयन्ति गच्छस्य, गच्छस्य 'भावासण्णादिरक्खडत्ति भावासण्णो- अणहियासओ, तद्भक्षणार्थम् एतदुक्तं भवति - उच्चारादिना बाध्यमानस्य ते मार्गज्ञाः स्थण्डिलानि दर्शयन्ति ।
डहरे भिक्खरगामे अंतरगामंमि ठावए तरुणे । उवगरणगहण असह व ठावए जाणगं चेगं ॥ १७८ ॥ 'हरे भिक्खरगामेत्ति यत्र ग्रामे वासकोऽभिप्रेतः भिक्षा च अटितुमभिप्रेता तस्मिन् 'डहरे' लके ग्रामे सति किं कर्त्तव्यमत आह- 'अंतरगामंमि' अपान्तराल एव यो ग्रामस्तस्मिन् भिक्षार्थं तरुणान् स्थापयेत् 'उवगरणगहणं'ति तदीय|मुपकरणमन्ये भिक्षवो गृह्णन्ति, 'असहू व ठावए'त्ति अथ ते तत्स्थापिंतेतरभिक्षुसत्कमुपकरणं ग्रहीतुं न शक्नुवन्ति ततोऽसहिष्णव एव तत्रान्तरग्रामे भिक्षार्थं स्थाप्यन्ते 'जाणगं चेगं ति ज्ञं चैकं मार्गज्ञं चैकं तेषां मध्ये स्थापयेत् येन सुखेनैवागच्छन्ति दूरुट्ठिअ खुडलए नव भड अगणी य पंत पडिणीए । संघाडेगो धुवकम्मिओ व सुष्णे नवरि रिक्खा ॥ १७९ ॥ अथवाऽसौ वासकभिक्षार्थमभिप्रेतो ग्रामो दूरे स्थितः स्यात् उत्थितो वा उद्वसितः क्षुल्लको वा प्राकू संपूर्णो दृष्टः
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For Parts Only
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२८७] .→ “नियुक्ति: [१७९] + भाष्यं [९३] + प्रक्षेपं [१४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१७९||
श्रीओध-पल इदानीमxमुदसितमतः क्षुलकः, 'नवः' प्राग यस्मिन् स्थाने दृष्टस्ततः स्थानादन्यत्र प्रदेशे जातः भड'त्ति भटाक्रान्तो नियुक्ति
| बिहाररीजातः 'अगणि'त्ति अग्निना वा इदानीं दग्धः 'प्रान्तः प्राक् शोभनो रष्ट इदानी प्रान्तीभूतो विरूपो जातः 'पडिणीए'त्ति तिः नि. द्रोणीया वृत्तिः
प्रत्यनीकाक्रान्त इदानीं जाता, प्राक् प्रतिलेखनाकाले प्रत्यनीकस्तत्र नासीत् इदानीं तु आयातः, पूर्वप्रतिलेखिते ग्रामे एवं-18
विधे जाते सति दूरोत्थितादिदोषाभिभूते सति किं कर्त्तव्यं ?-'संघाड'त्ति तत्र सङ्घाटकः स्थाप्यते, पाश्चात्यप्रव्रजितमील॥७७॥ नार्थम् 'एगोवि'त्ति सङ्घाटकाभावे एकः स्थाप्यते साधुः 'धुवकम्मिओ'त्ति ध्रुवकर्मिको-लोहकारादिस्तस्य कथ्यते यथा
वयमग्यत्र ग्रामे यास्यामः, त्वया पाश्चात्यसाधुभ्यः कथनीयं-यथाऽनेन मार्गेणागग्तव्यमिति, एवं तावत् वसति ग्रामे एस। विही । 'सुण्णे नवरि रिक्ख'त्ति यदा त्वसौ शून्यो ग्रामस्तदा किं कर्त्तव्यं ?-'नवरि रिक्ख'त्ति वर्त्मनि-अनभिप्रेते तिर-ट चीनं रेखाद्वयं पात्यते, येन तु घरमैना गतास्तत्र दीर्घा रेखां कुर्वन्ति । यदा तु पुनरेभिरक्तदोपर्युक्तो न भवति स ग्राम-13 स्तदा तत्रैव या वसतिस्तस्यां प्रविशति । ततश्च ये ते भिक्षार्थमन्तरालयामे स्थिता आसन तेषां मध्ये यदि वसतिमार्गज्ञो भवति ततस्तस्यामेव वसती आगच्छन्ति, न कश्चित्प्रतिपालयति । एतदेवाहआ जाणतठिऍता एउ बसहीए नस्थि कोइ पडियरइ । अण्णाएजाणतेसु वापि संघाट धुवकम्मी ॥१८॥
'जाणंतहिए' मार्गाभिज्ञे स्थिते तस्यां बसतावागच्छन्ति 'नथि कोइ पडियर'त्ति न कश्चित्तान् प्रतिपालयति बहिःटास्थितः, 'अण्णाए'त्ति यदा तस्याः पूर्वप्रत्युपेक्षिताया वसतेयाघातः संजातः किन्त्वन्या, तस्सामन्यस्यां वसती जातायां | |अजाणतेसु वावि, अथवा ये ते भिक्षानिमित्तं स्थिताः पश्चादागमिष्यन्ति तेषु अजानत्सु 'संघाडधुवकम्मित्ति वसति-12
।
दीप अनुक्रम [२८७]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२८८] → “नियुक्ति: [१८०] + भाष्यं [९३] + प्रक्षेपं [१४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१८०||
परिज्ञानार्थ सङ्घाटको बहिः स्थाप्यते, ध्रुवकर्मको-लोहकारस्तस्य कथ्यते, यदुत-साधव आगमिष्यन्ति तेषामियं वसति-IP दर्शनीया कथनीया वेति । इदानीं ये ते भिक्षार्थं पश्चानामे स्थापितास्तैः किं कर्त्तव्यमत आह___ जइ अन्भासे गमणं दूरे गंतुं दुगाउयं पेसे । तेवि असंथरमाणा इंती अहवा विसजंति ॥ १८१ ॥
यदि 'अभ्यासे आसन्ने गच्छस्ततस्ते 'गमणति गच्छसमीपमेव गच्छन्ति, दूरेत्ति अथ दूरे गच्छस्ततो 'गन्तुं द्विगन्यूत गत्वा क्रोशद्वयं, किं-'पेसे'त्ति एक श्रमणं गच्छसमीपे प्रेषयन्ति, 'तेवि असंथरमाणा इंति' 'तेऽपि' गच्छगताः साधवः |'असंस्तरमाणाः' अतृप्ताः सन्तः किं कुर्वन्ति ?-'एंति' आगच्छन्ति, क-यत्र ते साधवो भिक्षया गृहीतया तिष्ठन्ति, अथ च तृप्तास्ततस्तं साधु विसर्जयन्ति, यदुत-पर्याप्तमस्माकं, यूयं भक्षयित्वाऽऽगच्छत । संगारेत्ति दारं व्याख्यातं, तत्प्र
सङ्गायातं च व्याख्यातम् , इदानी वसतिद्वारमुच्यते, तत्प्रतिपादनायेदमाहदा पढमबियाए गमणं गहणं पडिलेहणा पवेसो उ । काले संघाडेगो वऽसंधरताण तह चेव ॥ १८२।।
'पढमति तस्यां च वसतौ ‘गमन प्राप्तिः कदाचित्प्रथमपौरुष्यां भवति कदाचिच्च 'वितियाएत्ति द्वितीयपौरुष्यां | 'गमन' प्राप्तिरित्यर्थः । 'गहण'ति दंडांच्यणदोरयचिलिमिलीणं कृत्वा ग्रहणं वृषभाः प्रविशन्ति । पुनश्च 'पडिलेहणा' तां वसति प्रमार्जयन्ति, 'पवेसो'त्ति ततो गच्छः प्रविशति, 'कालेत्ति कदाचिदिक्षाकाल एव प्राप्तास्ततश्च को विधिः १, अत | आह-सङ्घाटक एको वसतिं प्रमार्जयति, अन्ये भिक्षार्थं व्रजन्ति । 'एगो वत्ति यदा सङ्घाटको न पर्याप्यते तदा एको गीतार्थो वसतिप्रत्युपेक्षणार्थ प्रेष्यते, यदा तु पुनरेकोऽपि न पर्याप्यते तदा किम् ?-'असंथरंताण' अणुघताणं अतृप्यन्तः
दीप अनुक्रम [२८८]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२९१] → “नियुक्ति: [१८२] + भाष्यं [९४] + प्रक्षेपं [१४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१८२||
श्रीओघ- सर्व एवाटन्ति, या तु वसतिः पूर्वलब्धा तां कथमन्विषन्ति ?-'तह चेवत्ति यथा भिक्षामन्विषन्ति एवं वसतिमपि सर्वे विहाररीनियुक्तिः पूर्वप्रत्युपेक्षितामन्विन्ति, अन्विष्य च तत्रैव प्रविशन्ति । यदा तु पूर्वप्रत्युपेक्षिताया वसतेयाघातो जात- तिः नि. द्रोणीया 13स्तदाऽपि 'तह चेव'त्ति यथा हि भिक्षा मार्गयन्ति तथा वसतिमपि, लब्धायां च तत्रैव परस्परं हिण्डन्तः कथयन्ति, 'वस-18|९८१-१८३ हीए निअट्टिअप'ति । इदानीं “पडमबिइयाए"त्ति इदं द्वार भाष्यकृत् व्याख्यानयन्नाह
| भा. ९४ ॥७८॥ पढमबितियाऍ गमणं याहिं ठाणं च चिलिमिणी दोरे । चित्तूण इंति वसहा वसहि पडिलेहिउँ पुर्वि॥९॥(भाका
PI प्रथमपौरुष्यां 'गमन' प्राप्तिर्भवति तत्र क्षेत्रे, कदाचिद्वितीयायां प्राप्तिस्ततः को विधिरित्यत आह-'बाहिं ठाणं च' बहि
रेव तावदवस्थानं कुर्वन्ति, स्थिताश्चोत्तरकालं ततश्चिलिमिणी-जवनिकां दवरिकांश्च गृहीत्वा प्रविशन्ति वसतौ वृषभाः, ग्रहणद्वारं व्याख्यातम् । किं कर्तुं ?-'वसतिं प्रत्युपेक्षितुं वसतिप्रत्युपेक्षणार्थ प्राग् वृषभा गृहीतचिलिमलिन्युपकरणा आगच्छन्ति, 'पडिलेहण'त्ति द्वार भणितं । दारं । एवं तावत्पूर्वप्रत्युपेक्षितायां वसती विधिः, यदा तु पुनः पूर्वप्रत्युपेक्षिताया व्याघातस्तदा| वाघाए अण्णं मग्गिऊण चिलिमिणिपमज्जणा वसहे । पत्ताण भिक्खवेलं संघाडेगो परिणओ वा ॥१८॥
पूर्वप्रत्युपेक्षिताया वसतेाघाते सति अन्यां वसति मार्गयित्वा ततः किश्चित् 'चिलिमिणिपमजणा वसहेचि ततो वृष- ॥७८ भाश्चिलिमिलिन्यादीनि गृहीत्वा प्रमार्जयन्ति । 'पत्ताण भिक्खवेल' यदा तु पुनर्भिक्षावेलायामेव प्राप्तास्तदा किं कर्तव्य :
दीप अनुक्रम [२९१]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२९२] .→ “नियुक्ति : [१८३] + भाष्यं [९४...] + प्रक्षेपं [१४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
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गाथांक नि/भा/प्र ||१८३||
कालेत्ति भणितं, 'संघाडे'त्ति सङ्घाटको वसतिप्रत्युपेक्षणार्थ प्रेष्यते, संघाडेत्ति भणिअं, 'एगो व' त्ति सङ्घाटकाभाषे एको वा प्रेष्यते, किंविशिष्टः -'परिणतः' गीतार्थः, एगोत्ति भणिों, यदा तु पुनरेको नास्ति तदा किम् ?___सधे वा हिंडता वसहिं मग्गंति जह व समुयाणं । लद्धे संकलिअनिवेअणं तु तत्थेव उ नियहे ॥ १८४॥ ८. सर्वे वा हिण्डन्ता एवं वसतिं 'मार्गयन्ति' अन्विषन्ति, कथं ?-'जह व समुदाणं' यथा 'समुदानं भिक्षा 'प्रार्थयन्ति |
निरूपयन्ति एवं वसतिमपि अन्विपन्ति, 'तह चेव'त्ति अवयवो भणितः, 'लद्धे संकलिअनिवेअणं तु' भिक्षामटर्लिन्धायां ४ वसती संकलिकया निवेदन-यो यथा यं पश्यति स तथा तं वक्ति-यदुत इह वसतिर्लन्धा इह निवर्तनीयं, तस्मात्तस्यामेष च वसती निवर्त्तते । तत्र च प्रवेशे को विधिः__एको घरेइ भाणं एको दोपहवि पवेसए उवहिं । सबो उवेइ गच्छो सवालबुहाउलो ताहे ॥१८५॥
एको 'धारयत्ति संघट्टयति 'भाजन' पात्रकम् 'एकः' अन्यस्तस्य द्वितीयः बहिर्व्यवस्थितः गच्छात् सकाशाद् भिक्षा-18 मटयां मुक्तामुपधिं द्वयोरपीति आत्मनः संबन्धिनी तस्य च पात्रकर्सघट्टयितुः संबन्धिनीमुपधिं प्रवेशयति, तत उत्तरकालं गच्छ 'सपैति' प्रविशति सवालवृद्धत्वादाकुलः 'तदा' तस्मिन् काले । दारं । चोयापुच्छन झेसा मंडलिबंधमि होइ आममणं । संजमआयविराहण बियालगहणे य जे दोसा ॥१८६॥
कोदकस्य पृच्छा चोदकपृरुद्धा-चोदक एवमाह-यदुत बाह्यत एव भुक्त्वा प्रवेशः क्रियते, किं कारणम् , उपधिमानयतः क्षुधार्तस्य वृषितस्य च र्यापथमशोधयतः संयमविराधना उपधिभाराकान्तस्य कण्टकादीननिरूपयत आत्मविरा
दीप अनुक्रम [२९२]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२९५] → “नियुक्ति: [१८६] + भाष्यं [९४...] + प्रक्षेपं [१४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१८६||
श्रीओष- धना, ततश्च बहिरेव भुक्त्वा विकाले प्रविशन्तु, आचार्यस्त्वाह-बहिर्मुञ्जतां दोषाः, कथं ?-मण्डलिवन्धे सति आगमन नियुक्तिः भवति सागारिकाणां, तत्र च संयमात्मविराधना भवति 'वियालगहणे त्ति षिकालबेलायां च वसतिग्रहणे ये दोषा भवन्ति | | नि.१८५द्रोणीयाते वक्ष्यन्ते । द्वारगाथेयं । चोदकपृच्छेति व्याख्यानयनाह
अभुक्ता वृत्तिः
प्रवेश अइभारेण उ इरिअंन सोहए कंटगाइ आयाए । भत्तट्रिअ वोसिरिआ अइंतु एवं जढा दोसा ॥ १८७॥
" ४१८६-१८८ चोदक एवमाह यदुत गच्छसमीपादुपधिं प्रवेशयन् तदतिभारेण बुभुक्षया च पीडितः सन्नीर्यापथिकां न शोधयति है यतोऽतः संयमविराधना भवति, तथा कण्टकादीनि च न पश्यति बुभुक्षितत्वादेव यतोऽत आत्मविराधना भवति, तस्माद् 'भत्तष्ठियत्ति बहिरेव भुक्ताः सन्तः, तथा 'बोसिरिय'त्ति उच्चारप्रश्रवणं कृत्वा ततः 'अइंतु'त्ति प्रविशन्तु, क -वसतो,४ एवं जढा दोस'त्ति एवं क्रियमाणे दोषा:-आत्मविराधनादयः परित्यक्ता भवन्ति । एवमुक्ते सत्याहाचार्यःआयरिअवयण दोसा दुविहा नियमा उ संजमायाए । बच्चह न तुज्झ सामी असंखडं मंडलीए वा ॥१८८॥ ___आचार्यस्य वचनं आचार्यवचनं, किं तदित्याह-'दोसा' बाह्यतो भुञ्जता दोषा भवन्ति द्विविधाः 'नियमाद्' अवश्यतया,
'संजम'त्ति संयमविराधनादोषः 'आयाए'त्ति आत्मविराधनादोषः । तत्र संयमविराधनादोष एवं भवति-तत्र च भोजनसस्थाने सागारिका यदि बहवस्तिष्ठन्ति ततस्ते साधवो भिक्षामटित्वा गताः सन्तो यद्येवं भणन्ति-यदुत वचह-हे सागारिका। ॥७९॥
गच्छतास्मात्स्थानात् , ततश्चैवमुच्यमाने संयमविराधना भवति । आत्मविराधना चैवं भवति-यदा ते सागारिका उच्य-|
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दीप अनुक्रम [२९५]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२९७] .→ “नियुक्ति : [१८८] + भाष्यं [९४...] + प्रक्षेपं [१४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१८८||
माना न गच्छन्ति, किन्त्वेवं भणन्ति-'न तुज्झ सामी' नास्य प्रदेशस्य भवन्तः स्वामिनः, ततश्च असंखई भवति । 'भंड-12 लीए वत्ति अथ मण्डल्या जातायां सत्याम्
कोऊहल आगमणं संखोमेणं अकंठगमणाई। ते चेव संखडाई वसहिं वन दंति जं पऽ ॥१८॥ मण्डलिकायां जातायां कौतुकेन सागारिका आगमनं कुर्वन्ति, ततश्च 'संखोभेण'ति संक्षोभेण तेषां प्रबजितानां अकण्ठगमणादि-कण्ठेन भक्तकवलो नोपक्रामति, 'ते चेव संखडाईति त एव चा संखडादयो दोषा भवन्ति 'वसहिं व ण देंति' एवं च सागारिका रुष्टाः सन्तो वसतिं न प्रयच्छन्ति, तत्र ग्रामे 'जं वऽण ति ग्रहणाकर्षणादि कुर्वन्ति । इदानीं तस्मादा-1 मादन्यत्र ग्रामे भोजनं गृहीत्वा गन्तव्यं, तत्र चैते दोषाः
भारेण चेपणाए न पेहए धाणुकंटआयाए । इरियाइ संजमंमि अ परिगलमाणेण छकाया ॥ १९॥ । उपधिभिक्षाभारेण या वेदना क्षुद्धेदना वा तया न 'पेहइत्ति न पश्यति स्थाणुकण्टकादीन , ततश्चात्मविराधना भवति, 'इरियाईत्ति संयमविषया विराधना ईयादि, तथा परिगलमाने च पानादौ षट्कायविराधना भवति । तथा चैते चान्यत्र ग्रामे गच्छतां दोषा भवन्तिसावयतेणा दुविहा विराहणा जा य उवहिणा उ विणा । तणअग्गिगहणसेवण वियालगमणे इमे दोसा ॥१९॥ ___ श्वापदभयं भवति, तथा तेणा दुविहा भवन्ति-शरीरापहारिण उपध्यपहारिणश्च, 'विराहणा जा य उवहिणा उ विणा' या च 'उपधिना' संस्तारकादिना विना विराधना भवति, का चासौ !-तणअग्गिगहणसेवणा' यथासवं तृणानां ग्रहणे
दीप अनुक्रम [२९७]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३००] → “नियुक्ति : [१९१] + भाष्यं [९४...] + प्रक्षेपं [१४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१९१||
श्रीओघ- संयमविराधना अग्नेश्च सेवने संयमविराधनेति । द्वारम् । एवं तावद्वाह्यतो भुञ्जानानामन्यग्रामे च गच्छतां दोषा ज्यादा
४ भुक्ताप्रवेशः नियुक्तिः ख्याताः, इदानीं तु यदुक्तमासीचोदकेन यदुत विकाले प्रवेष्टुं युज्यते तन्निरस्यन्नाह-वियालगम(ह) णे इमे दोसा' विका
नि.१८९द्रोणीया मालगमने वसती 'एते' वक्ष्यमाणलक्षणा दोषा भवन्ति, ते चामी
१९३ वृत्तिः
पविसणमग्गणठाणे वेसिस्थिदुगुछिए य बोद्धवे । सज्झाए संथारे उच्चारे चेव पासवणे ॥ १९२ ॥ | 'पविसणत्ति तत्र ग्राम विकाले प्रविशतां ये दोषास्तान वक्ष्यामः, 'मग्गण'त्ति वसतिमार्गणा, अन्वेषणे च विकालवेलायां ये दोषास्तान वक्ष्यामः । 'ठाणे वेसिथिदुगुंछिए अ' इत्येतद्वक्ष्यतीति विकालवेलायां 'बोद्धच्य' ज्ञेयम् । 'सज्झाए'त्ति स्वाध्यायं अप्रत्युपेक्षितायां यसती अगृहीते काले कुर्वतो दोषः, अथ न करोति तथाऽपि दोषः-हानिलक्षणः । 'संथारे'त्ति अप्रत्युपेक्षितायां वसती संस्तारकभुवं गृह्णतः संयमात्मविराधना दोषः। 'उच्चारे'त्ति अप्रत्युपेक्षितायां बसती स्थण्डिलेष्वनिरूपितेषु व्युत्सृजता दोषो, धरणेऽपि दोषः, 'पासवणे'त्ति अप्रत्युपेक्षितेषु स्थण्डिलेषु व्युत्सृजतो दोषः धारयतोऽपि दोष एव । इयं द्वारगाथा इदानीं प्रतिपदं व्याख्यायतेसावयतेणा दुविहा विराहणा जा य उबहिणा उ विणा। गुम्मिअगहणाऽऽहणणा गोणाईचमढणा चेव ॥१९३॥ |
विकाले प्रविशतां ग्रामे श्वापदभयं भवति । स्तेना द्विप्रकाराः-शरीरस्तेना उपधिस्तेनाश्च, तद्भयं भवति विकाले प्रविशताम् , पिराधना या च उपधिना विना भवति-अग्नितॄणयोग्रहणसेवनादिका, सा प विकाले प्रवेचे दोषः । 'गुम्मिय'त्ति |
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॥
८.
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३०३] → “नियुक्ति: [१९३] + भाष्यं [९४...] + प्रक्षेपं [१४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
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गाथांक नि/भा/प्र ||१९३||
गुल्म-स्थानं तब्रक्षपाला गुस्मिकास्तैर्ग्रहणमाहननं च भवति विकाले प्रषिशतामयं दोषः । 'गोणादिचमढणा' वलीपर्दादि-181 पापमहारादिश्च, एवमयं विकालप्रवेशे दोषः । “पविसणे"त्ति गयं । इदानीं 'मग्गणे'ति व्याख्यायतेफिडिए अण्णोण्णारण तेण य राओ दिया य पंथंमि । साणाइ वेसकुत्थिन तवोचणं मूसिआ जं च ॥१९४॥
'फिडिए'त्ति विकालवेलायां वसतिमार्गणे-अन्वेषणे 'फिडिता' भ्रष्टो भवेत् तत्र 'अन्योऽन्यं परस्परतः 'आरणं, संशब्दनं तच्छत्वा स्तेनका रात्री मुषितुमभिलषन्ति, दियाय पंथंमित्ति दिवा वा प्रभाते पथि गच्छतस्तान् श्रमणान् मुष्णन्ति 'साणादिति रात्री वसतेरन्येपणे श्वादिदेशति । 'मग्गणे त्ति भणिअं, 'वेसस्थिदुगुंछिए'त्ति व्याख्यायतेऽवयवः, तत्रा-14 'धेसकुत्थिन तवोधणं मूसिगा चेव रात्री वसतिलाभे न जानन्ति किमेतत्स्थानं वेश्यापाटकासन्नमनासन्नं वा, ते चाजानानास्तस्यां धसतौ निवसन्ति, तत्र चायं दोषः-वेश्यासमीपे वसतां लोको भणति-अहो तपोवनमिति । कुत्सितछिपकादिस्थानासन्ने लोको ब्रवीति-स्वस्थाने मूषिका गताः, एतेऽप्येवंजातीया एव । 'वेसिस्थिकुत्सिते'त्ति गतं । स्वाध्यायद्वारं व्याख्यातमेव द्रष्टव्यम् । इदानीं 'संथार'ति व्याख्यायते
अप्पडिलेहिअकंटाविलंमि संधारगंमि आपाए । छक्कायसंजमंमि अ चिलिणे सेहऽन्नहाभावो ॥ १९५॥ अप्रत्युपेक्षितायां वसती कण्टका भवन्ति विलं वा, तत्र संस्तारके क्रियमाणे 'आयाए त्ति आत्मविराधना भवति 'छक्कायत्ति पदकायस्यापि अप्रत्युपेक्षितवसतौ स्वपतः 'संजमंमिति संयमविषया विराधना भवति । 'चिलिणे'त्ति तथा चिली-11
दीप अनुक्रम [३०३]
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||१९५||
दीप
अनुक्रम
[ ३०४]
श्री ओपनिर्युक्तिः द्रोणीया
वृत्तिः
॥ ८१ ॥
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [ ३०४] • → मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
“निर्युक्तिः [१९५] + भाष्यं [ ९४... ] + प्रक्षेपं [ १४... ]" ० आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
नं-अशुचिकं भवति, तस्मिंश्च सेहस्य जुगुप्सया अश्रुतार्थस्यान्यथाभावः उन्निष्क्रमणादिर्भवति । संथारुत्ति गयं, इदानीं 'उच्चारपासवणे"त्ति व्याख्यायते
कंटगथाणुगवालाविलंमि जइ वोसिरेज्ज आयाए । संजमओ छकाया गमणे पत्ते अहंते य ॥। १९६ । अप्रत्युपेक्षितायां वसती कण्टकस्थाणुव्यालाविले समाकुले प्रदेशे व्युत्सृजत आत्मविराधना भवति, 'संजमओ'त्ति संयमतो विराधना षट्कायोपमर्दे सति रात्रौ भवति, 'गमणे'त्ति कायिकाव्युत्सृजनार्थं गमने दोषाः 'पत्ते'त्ति कायिकाभुवं प्राप्तस्य व्युत्सृजतः 'अयंते यत्ति पुनः कायिकां व्युत्सृज्य वसतिं प्रविशतो पड्कायोपमर्दों भवतीति । अथ तु पुनर्निरोधं करोति, ततश्चैते दोषा भवन्ति ---
सुत्तनिरोहे चक्खू वचनिरोहेण जीवियं चयह । उट्ठनिरोद्दे कोई गेलनं वा भवे तिसुवि ॥ १९७ ॥ सुगमा || 'उच्चारपासवणि "त्ति गयं । इदानीमपबाद उच्यते
जइ पुण चियालपत्ता पए व पत्ता उवस्मयं न लभे । सुन्नघरदेउले वा उज्जाणे वा अपरिभोगे ॥ १९८ ॥ यदि पुनर्विकाल एव प्राप्ताः, ततश्च तेषां विकालवेलायां वसतौ प्रविशतां प्रमादकृतो दोषो न भवति, 'पए व पत्त'ति प्रागेव प्रत्यूषस्येव प्राप्ताः किन्तु उपाश्रयं न लभन्ते ततः क्व समुद्दिशन्तु ?-शून्यगृहे देवकुले वा उद्याने वा 'अपरिभोगे' लोकपरिभोगरहिते समुद्दिशन्तीति क्रियां वक्ष्यति ।
आयरिअचिलिमिणीए रण्णे वा निभए समुद्दिसणं । सभए पच्छन्नाऽसइ कमदय कुरुया य संतरिआ ॥ १९९ ॥
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भुक्ताप्रवेशः नि. १९४
१९६ अपवादः नि. १९७० १९९
॥ ८१ ॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३०८] .→ “नियुक्ति : [१९९] + भाष्यं [९४...] + प्रक्षेपं [१४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१९९||
| अथ शून्यगृहादी सागारिकाणामापातो भवति तत आपाते सति चिलिमिणी-यवनिका दीयते, 'रणे बत्ति अथ शून्यगृहादि सागारिकाकान्तं ततः अरण्ये निर्भये समुद्दिशनं क्रियते, सभयेऽरण्ये प्रच्छन्नस्य वा 'असति' अभावे ततो | वसिमसमीप एव कमढकेषु शुक्लेन लेपेन सबाह्याभ्यन्तरेषु लिप्तेषु भुज्यते, 'कुरुआ यत्ति कुरुकुचा-पादप्रक्षालनादिका क्रियते 'संतरित'त्ति सान्तराः-सावकाशा बृहदन्तराला उपविशन्ति । इदानी भुक्त्वा बहिः पुनर्विकाले वसतिमन्विपन्ति, सा च कोष्ठकादिका भवति, तत्र च लब्धायां वसती को विधिरित्यत आह
कोहग सभा व पुर्षि काल विचाराइभूमिपडिलेहा । पच्छा अईति रसिं पत्ता वा ते भये रसिं ॥२०॥ | कोष्ठकः-आवासविशेषः सभा-प्रतीता कोष्ठकसभा वसतौ लब्धायां प्रागेव 'काले'त्ति कालभूमि प्रत्युपेक्षन्ते यत्र13 कालो गृह्यते तथा 'वियारभूमिपडिलेहा' विचारभूमिः-सज्ञाकायिकाभूमिस्तस्याश्च प्रत्युपेक्षणा क्रियते । तत एवं प्रत्युपेक्षितायां विकाले वसती 'पच्छा अतिंति रत्तिंति पश्चाच्छेषाः साधवो रात्रौ प्रविशन्ति । 'पत्ता वा ते भवे रत्तिति यदा पुनस्त आगच्छन्त एवं कथमपि राबावेव प्राप्तास्तदा रात्रावपि प्रविशन्ति ॥ तत्र च प्रविशतांगुम्मिअभेसण समणा निम्भय बहिठाण वसहिपडिलेहा। सुन्नघरपुवमणिों कंचुग तह दारुदंडेणं ॥ २०१॥
गुल्मिकाः-स्थानकरक्षपालाः 'भेसणं ति यदि ते कथञ्चित्रासयन्ति ततश्चेदं वक्तव्यं यदुत श्रमणा वयं न चौराः, 'नि-1 भय'त्ति अथ तु स सन्निवेशो निर्भय एव भवेत्तदा 'बहिठाणति बहिरेव गच्छस्तावत्तिष्ठति, वृषभास्तु वसतिप्रत्युपेक्षणार्थ है
SRCESSAGES
दीप अनुक्रम [३०८]
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||२०१ ||
दीप
अनुक्रम
[ ३१०]
श्रीशोधनिर्युक्तिः द्रोणीया
वृत्तिः
॥ ८२ ॥
Educato
मूलं [३१०]
व्रजन्ति । किंविशिष्टाऽसौ वसतिरन्विष्यते ?- 'शून्यगृहादि' पूर्वोक्तं, 'कंचुग तह दारुदंदेणं' ति दण्डकपुञ्छनं तद्धि कशुकं | परिधाय सर्पपतनभयाद्दण्डनपुञ्छनकेन वसतिमुपरिष्टात्प्रस्फोटयन्ति, गच्छश्च प्रविशति, ततः को विधिः स्वापे १संधारगभूमितिगं आयरियाणं तु सेसगाणेगा । रुंदाए पुष्फइन्ना मंडलिआ आवली इयरे ॥ २०२ ॥ संस्तारक भूमित्रयमाचार्याणां निरूप्यते, एका निवाता संस्तारकभूमिरन्या प्रवाता अन्या निवातप्रवाता, 'सेसगाणेग'ति शेषाणां साधूनामेकैका संस्तारकभूमिर्दीयते, 'रुंदाए'त्ति यद्यसौ वसतिर्विस्तीर्णा भवति ततः पुष्पावकीर्णाः स्वपन्तिपुष्पप्रकरबदयथायथं स्वपन्ति येन सागारिकावकाशो न भवति, 'मंडलिय'त्ति अथासौ वसतिः क्षुल्लिका भवति ततो मध्ये पात्रकाणि कृत्वा मण्डल्या पार्श्वे स्वपन्ति । स्थापना चेयम् — 'आवलियत्ति प्रमाणयुक्तायां वसती 'आवल्या' पङ्कया स्वपन्ति 'इयरे त्ति क्षुल्लिकाप्रमाणयुक्तयोर्वसत्योरयं
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) -⇒> “निर्युक्तिः [२०१] + भाष्यं [ ९४... ] + प्रक्षेपं [१४...]"
Moral
विधिः-
संथारगहणाए वेंटिअरक्खेवणं तु काय | संथारो घेत्तवो मायामयविष्यमुक्केणं ॥ २०३ ॥ 'संथारकग्रहणाय' संस्तारकभूमिग्रहणकाले, एतदुक्तं भवति |||||| यदा स्थविरादिः संस्तारकभूमिविभजनं करोति तदा साधुभिः किं कर्त्तव्यमत आह- 'वेंटिअडक्लेवणं तु कायवं' वेंटिआ उपधिवेण्टलिकास्तासां सर्वैरेव साधुभिरात्मीयात्मीयानामुत्क्षेपणं कर्त्तव्यं येन सुखेनैव दृष्टायां भुवि विभजितुं संस्तारकाः शक्यन्ते । स च संस्तारको यो यस्मै दीयते साधवे कथं तेन ग्राह्य इत्याह ?--'मायामदविप्रमुकेन' तेन न माया कर्त्तव्या, यदुताहं वातार्थी ममेह प्रयच्छ, नापि मदः - अह
अथ संस्तारकविधिः वर्णयते
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०
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कोष्ठकादिवसतिः संस्तार कवि
धिः नि.
२००-२०३
॥ ८२ ॥
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
||| २०१||
दीप
अनुक्रम [३१०]
" ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२ / १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः)
मूलं [३१२] -
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
FO
"निर्युक्तिः [२०३] + आष्यं [ ९४...] + प्रक्षेपं [१४... आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
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ङ्कारः कार्यो, यदुताहमस्यापि पूज्यो येन मम शोभना संस्तारकभूर्दत्तेति ॥ जंइ रतिं आगया ताहे कालं न गेण्हंति, निजुसीओ संग्रहणीओ य सणिअं गुर्णेति, मा वेसित्थिदुगुंडिआदज दोसा होहिंति, कायिकां मत्तसु छडुंति उच्चारंपि जयगाए। जइ पुण कालभूमी पडिलेहिया साहे कालं गिण्हंति, यदि सुद्धो करेंति सझायं, अह न सुद्धो न पडिलेहिमा या बसही ताहे निज्जुत्सीओ गुर्णेति, पढमपोरिसिं काऊणं बहुपडिपुण्णाए पोरिसीए गुरुसगासं गंतूण भणति - इच्छामि खमासमणो बंदिजं जावणिजाए निसीहिआए मत्थएण वंदामि, खमासमणा ! बहुपडिपुण्णा पोरिसी, अणुजाणह राईसंथारयं, ताहे पढमं काइआभूमिं वचंति, ताहे जत्थ संधारगभूमी तत्थ बच्चेति, ताहे उघहिंमि उचओगं करेंता पमर्जता उवहीए दोरयं उच्छोडेंति, ताहे संथारगपट्टअं उत्तरपट्टयं च पडिलेहित्ता दोवि एगत्थ लाएता ऊरुंमि ठवेंति, ताहे संथारगभूमिं पडिलेहंति, ताहे संधारयं अच्छुरंति सउत्तरपट्टे, तत्थ य लग्गा मुहपोत्तिआए उवरिलं कार्य पमज्जंति, हेडिलं रयहरणेणं,
1 यदा राम्राभागादा का न गृह्णन्ति, निकी संग्रहणीय शनैर्गुणवन्ति मा वेश्यास्वीकुरिससादयो दोषा भूवन् कायिकी मात्रकेषु युरजन्ति उचारमपि पठनया यदि पुनः कालमूमयः प्रतिलेखवालदा कार्ड एम्ति, यदि शुद्धः कुर्वन्ति स्वाध्यायं अथ न शुद्धो न प्रतिलेखिता या वसतिलदा निर्युकीर्गुणवन्ति। प्रथमां पौपीं कृत्वा बहुप्रतिपूजयां पौरुष्य गुरुप्रकाशं गत्वा भगन्ति इच्छामि क्षमाश्रमणा वन्दितुं यापनीयया नैवेधिक्या मस्तकेन वन्दे, क्षमाश्रमण ! बहुमतिपूर्णा पौरुषी, अनुजानीत रात्रिसंस्तारकं तदानीं प्रथमं कायिकी भूमिं व्रजन्ति ततो यत्र संस्तारक भूमिस्तन्न व्रजन्ति, सदोपधायुपयोगं कुर्वन्तः प्रमार्जयन्त उपधेदंवरकमुच्छोटयन्ति तदा संस्तारकपट्टकमुत्तरपट्टकं च प्रतिडियम हे अप्येक छात्वोरुणि स्थापयन्ति तदा संखारकभूमिं प्रतिलेखयन्ति, तदा संस्तारकमासृण्वन्ति सोत्तरपट्टकं तत्र च सप्ता मुखपत्रिकयोपरिसनं कार्य प्रमार्जयन्ति, अपानं रमोहरणेन
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३१२] → “नियुक्ति : [२०३] + भाष्यं [९४...] + प्रक्षेपं [१४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२०३||
वृत्तिः 13
२०५
श्रीओप- कप्पे य वामपासे ठवेंति, पुणो संथारए चडतो भणइ जेहज्जाईर्ण पुरतो चिताण-अणुजाणेजहा, पुणो सामाइसंस्तारकनियुक्तिः जातिण्णि वारे कहिऊणं सोवइ, एस ताव कम्मो । इदानीं गाथा व्याख्यायते
विधिः द्रोणीया पोरिसिआपुच्छणया सामाइय उभयकायपडिलेहा । साहणिअ दुवे पट्टे पमज भूमि जओ पाए ॥२०४॥
| नि.२०४पौरुष्यां नियुक्तीर्गुणयित्वा 'आपुच्छणत्ति आचार्यसमीपे मुखवत्रिका प्रतिलेखयित्वा भणति बहुपडिपुण्णा पोरिसी ॥८३॥
संदिशत संस्तारके तिष्ठामीति, 'सामाइयति सामायिकं वारात्रयमाकृष्य स्वपिति, 'उभयं ति सम्झाकायिकोपयोगं कृत्वा है। 'कायपडिलेह'त्ति सकलं कार्य प्रमृज्य 'साहणि दुवे पट्टे'त्ति साहणिय-एकत्र लापत्ता दुवे पट्टे-उत्तरपट्टो संथारपट्टो अ, तत ऊर्वोः स्थापयति, 'पमज्ज भूमिं पाओ जओ' त्ति पादौ यतस्तेन भूमि प्रमृज्य ततः सोत्तरपट्ट संस्तारकं मुश्चति, अस्थाश्च सामाचार्यनुक्रमेण गाथायां संबन्धो न कृतः, किन्तु स्ववुझ्या यथाक्रमेण व्याख्येया । एवमसौ संस्तारकमारो-| हन् किं भणतीत्याहअणुजाणह संधारं पाहुवहाणेण वामपासेणं । कुकुडिपायपसारण अतरंत पमजए भूमि ॥२०५॥
॥८ ॥ अनुजानीध्वं संस्तारक, पुनश्च बाहपधानेन वामपार्थेन स्वपिति, 'कुकुडिपायपसारणं'त्ति यथा कुक्कुटी पादावाकाशे
कल्यांश बामपा स्थापयन्ति, पुनः संसारकमारोहन्तो भणंति ज्येष्ठायादीनां पुरतस्थिष्ठता अनुजानीत, पुनः सामायिकं श्रीन वीरान कहा (चार्य) सास्वपिति, एष तावत् क्रमः।
दीप अनुक्रम [३१२]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३१४] .→ “नियुक्ति : [२०५] + भाष्यं [९४...] + प्रक्षेपं [१४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२०५||
प्रथमं प्रसारयति एवं साधुनाऽप्याकाशे पादी प्रथममशकुवता प्रसारणीयौ, 'अतरंतो'त्ति यदा आकाशव्यवस्थिताभ्यां पादाभ्यां न शक्नोति स्थातुं तदा 'पमजए भूमि'न्ति भुवं प्रमृज्य पादौ स्थापयति ।
संकोए संडासं उच्चत्तंते य कायपडिलेहा । दबाईउवओगं णिस्सासनिरंभणालोयं ॥ २०६॥ यदा तु पुनः सोचयति पादौ तदा 'संडासति संदस-ऊरुसन्धि प्रमृज्य सङ्कोचयति 'उबत्तंते यत्ति उद्वर्यश्चासौ| साधुः कार्य प्रमार्जयति, एवमस्य स्वपतो विधिरुतः । यदा पुनः कायिकार्थमुत्तिष्ठति स तदा किं करोतीत्याह-दवाईउवओर्ग' द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्चोपयोगं ददाति, तत्र द्रव्यतः कोऽहं प्रवजितोऽप्रवजितो वा ?, क्षेत्रतः किमुः। परितलेऽन्यत्र घा!, कालतः किमियं रात्रिदिवसो वा !, भावतः कायिकादिना पीडितोऽहं न वेति, एवमुपयोगे दत्तेऽपि यदा निद्रयाऽभिभूयते तदा 'णिस्सासनिरंभणत्ति 'निःश्वासं निरुणद्धि' नासिकां दृढं गृह्णाति निःश्वासनिरोधार्थ, ततोऽ|पगतायां निद्रायां 'आलोय'ति आलोकं पश्यति द्वारम् । यतः
दारं जा पडिलेहे तेणभए दोषिण सावए तिणि । जइ य चिरं तो दारे अण्णं ठावेत्तु पडिअरइ ॥ २०७॥RI I तदाऽसौ द्वारं यावत् 'प्रत्युपेक्षयन् प्रमार्जयन् प्रजति, एवमसौ निर्गच्छति, सत्र च यदि स्तेनभयं भवति ततः 'दोण्णि'
त्ति द्वौ साधू निर्गच्छतः तयोरेको द्वारे तिष्ठति अन्यः कायिका व्युत्सृजति, 'सावए तिण्णि'त्ति श्वापदभये सति त्रयः। 18 साधव उत्तिष्ठन्ति तत्रैको द्वारे तिष्ठति अन्यः कायिकां ब्युत्सृजति अन्यस्तत्समीपे रक्षपालस्तिष्ठति । 'जति य चिरं'ति
AASARAN
दीप अनुक्रम [३१४]
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Enarayan
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३१६] → “नियुक्ति : [२०७] + भाष्यं [९४...] + प्रक्षेपं [१४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२०७||
वृत्तिः ॥an
श्रीशोष- यदि च चिरं तस्य व्युत्मजतो जातं ततो योऽसौ द्वारे व्यवस्थितः साधुः सोऽन्यं द्वारे स्थापयित्वा साधु पुनश्वासो व्युत्त-कायिकीगअन्त 'पडिभरतिति प्रतिजागर्षि
मनं नि. द्रोणीया
भागम्मपडिकतो अशुपेहे जाव चोदसचि पुथे। परिहाणि जा तिगाहा निरषमाओ जदो एवं ॥ २०८॥ TXR०६-२०९ सोऽपि साधुः कायिका व्युत्सृज्य आगत्य वसती 'पडिक्कतो'त्ति ईर्यापथिको प्रतिक्रान्तः सन् 'अणुपेहे' अनुगुणनंद करोति, कियडूरं यावदत आह-'जाव चोहसवि पुषे' यावञ्चतुर्दश पूर्वाणि समाप्तानि यश्च साधुः सूक्ष्मानप्राणलन्धिसंपन्नः।। अथैवं न शक्रोति ततः 'परिहाणि जा तिगाहा' परिहाण्या गुणयति स्तोकं स्तोकतरमिति यावद्दाथात्रयं जपन्येन यदा ४॥ तद्वा परिगुणयति सेहोऽपि । एवं च कृते विधी निद्राप्रमादो 'जढों' परित्यक्तो भवति।
अतरतो व निवज्जे असंघरंतो अ पाउणे एक । गहभदिढतेणं दो तिणि पट जहसमाही ॥ २०९॥
अथासौ गाथात्रयमपि गुणयितुं न शक्नोति ततः "णिवजेत्ति ततः स्वपित्येवेति । 'असंथरतो अत्ति उत्सर्गतस्तावत्माहै परणरहितः स्वपिति, अथ न शक्नोति यापयितुमात्मानं ततोऽसंस्तरमाणः प्रावृणोति एक कल्पं द्वौ चीन था, तथाऽपि यदि
शीतेन बाध्यते तदा बाह्यतोऽप्रातः कायोत्सर्ग करोति, ततश्च शीतव्याप्तोऽभ्यन्तरं प्रविशति, तत्र च प्रषिष्टो निवासमिति मन्यते, तत्रापि स्थातुमशक्नुवन् कल्पं गृह्णाति, एवं द्वौ त्रीस्तावद्यावत्समाधानं जातम् । अनच गर्दभष्टान्तः, जहां ॥४॥ मिनागपभो अणुरूवभारेण मारूविएण सो वहिलं नेच्छा, ताहे जोऽवि अण्णस्स भारो सोवि चढाविजइ, अप्पणावि
पिया मलेच्याभोऽनुरूपमारेगारोपितेन स बोकुं नेजाति, तवा थोऽपि भन्यस्य भावः सोऽपि चटारमते, भामना
दीप अनुक्रम [३१६]
REaraturnXSena
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३१८] → “नियुक्ति : [२०९] + भाष्यं [९४...] + प्रक्षेपं [१४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२०९||
RRRRRRY
पआरोहति, जाहे नातिदूरं गया ताहे अप्पणा उत्तरति, ताहे सो जाणति-उत्तरीतो मम भारोत्ति तुरियतरं पहाविओ, पछाट
अण्णो से अवणीमो, ताहे सो सिम्पयरं पहाविओ। एवं साहूवि णिवायतरं मण्णंतो सुहेण अच्छति, जाहे रत्रिं, एस विही, |अचवाएणं जहा वा समाही होति तहा कामर्ष । “संगारपितिअवसहि"त्ति व्याख्यातम् , इदानीं सन्जिद्वारं व्याख्यायते-दार। ट्राइविहीं प्रविहरियाविहरिलो उ भयणाज विहरिए होह संदिट्टोजो बिहरितो अविहरिअविही हमो होइ ॥२१०nel
एनं ते बजस्तः शिक्षा प्राप्ताः, स च ग्रामो द्विविधः-विहृतोऽसिहतश्च, बिहुतः साधुभिर्यः क्षुण्णः, आसेत्रित इत्यर्थः, माविहरतो या भाचिन क्षुण्या-जासेवित इत्यर्थः। तुशब्दो विशेषणार्थः। किं विशिनष्टि-योऽसी विहरितःस सन्ज्ञियुक्तः सम्झिरशियो का भयपणा उ बिहरिए होतित्ति योऽसौ विहतः सज्ञियुक्तस्तत्र 'भजना' विकलाना, यद्यसौ संज्ञी संविमानितस्ततः अग्निशक्ति, अब पार्षस्थादिभावितस्ततोन प्रविशन्ति । 'संदिट्टो जो बिहरितोत्ति संविनविहृते सम्झिगृहे संदिष्ट प्रका AISSAाशालीग्नं स्खया सझिकुलादानयानीवमित्यतः प्रविशन्ति । अथवाऽन्यथा व्यायायते-द्विविधः। कतरः १, शनिद्वारा प्रातस्माद् जो वा, करमेन वैविध्यामत आह-विहृतोऽविहतश्च, साधुभिः क्षुण्णोऽक्षुण्णक्ष, तत्र भजना विहृते श्रावके सति, बासी संचिनधिहतः प्रवेशः क्रियते, अथ पार्श्वस्थादिविहतस्ततो न प्रवेष्टव्यं, संदिष्टो विह
रितोऽत्र स संविग्नैः साम्भोगिना यैर्विहृतस्ततोऽनाचार्यसंदिष्टः प्रविशति आचार्यप्रायोग्यग्रहणार्धं, 'अविहरिअविही Skil मारोहति, बदा मातिहरेशातलदानीपति, सदास नानाति-पत्तीणों मम भार इति स्वरिततरं प्रधावति, पवादन्यस्तमादपनीता, सदा सास कापीमत जाति, "वं साधुरपि :निवास प्रन्यमानः सुखेन मिति ममाभिः, एमबिधिरपनादेन प्रथा मा समाधिर्भवति तथा ।
दीप अनुक्रम [३१८]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३१९] → “नियुक्ति: [२१०] + भाष्यं [९५] + प्रक्षेपं [१४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२१०||
श्रीओषनियुक्तिः द्रोणीया वृत्तिः
दीप अनुक्रम [३१९]
इमो होतित्ति अविहते ग्रामे संज्ञिनि वा अयं विधि:-वक्ष्यमाणलक्षणः सप्तमगाथायाम् , “अविहरिअमसंदिडो चेतिअग्रामे भिपाहुडिअ" अस्यां गाथायामिति । इदानी भाष्यकार एनामेव गाथां व्याख्यानयवाह
क्षाविधिः अविहरि विहरिओ वा जइ सडो नस्थि नत्थि उ निओगो।
नि.२१० नाए जइ ओसपणा पविसंति तओ य पण्णरस ॥९५॥ (भा०)
भा. ९५ अविहृतो विहतो वा प्रामः, तत्र विहते यदि श्राद्धको नास्ति ततो नास्ति नियोगः-न नियुज्यते साधुः आचार्यप्रायोग्यानयनार्थम् । 'णाए'त्ति अथ तु 'ज्ञाते' विज्ञाते एवं यदुतास्ति श्रावकः, तत्र च 'यदि ओसन्ना पविसंति' यद्यवसन्नाः प्रविशन्ति तथाऽपि नास्ति नियोगः, अथ तु प्रविशन्ति 'तओ उ पन्नरस'त्ति पञ्चदशोद्गमनदोषा भवन्ति, ते चामी“आहाकम्मुद्देसिअ पूईकम्मे य मीसजाए अ । ठवणा पाहुडियाए पाउयरकीय पामिच्चे ॥१॥ परियट्टिए अभिहडे उन्भिन्ने मालोहडे इअ । अच्छेग्जे अणिसढे अज्झोयरए अ सोलसमे ॥२॥" ननु चामी षोडश उच्यन्ते-"अझोयरत्तो य मीसजायं च दोहिं वि एको चेव भेदो । अथवेयमपि गाथा सजिनमेवाङ्गीकृत्य व्याख्यायते-द्विविधः श्रावको-विहृतोऽधिहतोवा, यदि 'सहो नत्थि णस्थि उ निओगो" तओ विहृतो यदि श्राद्धो नास्ति ततो नास्ति नियोगः साधोः । 'णाएं'त्ति अथ ज्ञाते सति श्राद्धके यदुतास्ति ततश्च तत्र ज्ञाते सति 'यदि ओसण्णा परिसंति' यद्यवसन्नाः प्रविशन्ति तथाऽपिट नास्ति नियोगः । अथैवंविधेऽपि प्रविशन्ति ततश्च पश्चदश दोषा उद्गमादयो नियमाद्भवन्ति । यद्यपि तत्रावमशा न गृहन्ति-1
आधार्मिकमौदेशिक पूतिकर्म च मिश्रजातं च । स्थापना प्राकृतिका पादुकरण कीतं अपमित्वं ॥१॥ परिवर्तितमम्बाइ उनि मालापड़तमिति ।। आच्छेवमनिस्टमध्यवपूरकं च षोडशम् ॥२॥
अथ ग्रामे भिक्षाविधे: वर्णनं क्रियते
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३२१] → “नियुक्ति: [२१०...] + भाष्यं [९६] + प्रक्षेपं [१४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||९६||
संविग्गमणुण्णाए अइंति अहवा कुले विरंचंति । अण्णाउंछ व सह एमेव य संजईवग्गे ॥९६॥ (भा.)
अथ त ससः संविच विहतः-अमनोहर्वसनि वितः ततः 'अणुण्णाए अइंतित्ति तैरेवानज्ञाते सति श्रावकराहे प्रविशन्ति । अथवा श्रापककुलानि 'विरंचन्ति' विभजन्ति, एते चान्यसाम्भोगिकाः संविनाः 'अण्णाउँछ व सहू' अण्णाउंछ जत्थ सावगा नत्थि तहिं हिंडंति वत्थबा । जइ सह समत्था इयरे अपाहुणगा जप्पसरीरा सावगकुलानि हिंडंति, अह वत्थवा अप्पसरीरगा पाहुणगा य सहू ततो अण्णायउंछ हिंडंति । 'एमेव य संजईवग्गे' एवमेव संयतीवर्गे विधिः, यदुत ताभिरनुज्ञातेषु श्रावककुलेषु प्रवेष्टव्यम् । बहुषु च कुलेषु सत्सु ता एवं विरञ्चन्ति, "अण्णाउंछ व सह" इति, अयं च विधिद्रष्टव्यः ।। एवं तु अण्णसंभोइयाण संभोइयाण ते चेय । जाणित्ता नियंधं चस्थवेणं स उ पमाणं ॥९७ ॥ (भा०)
एवमन्यसाम्भोगिकानां संभवे उक्तलक्षणो विधिर्द्रष्टव्यः । 'संभोश्याण ते वत्ति अथ साम्भोगिकास्तव ग्रामे भवन्ति ततः 'ते चेव'त्ति त एव वास्तव्याः साधवो भैक्षमानयन्ति, अथ तत्र साम्भोगिकसमीपे प्राप्तमात्राणां कश्चिच्यावक आयातः, स च प्राघूर्णकवत्सल एवं भवति यदुत मदीये गृहे भिक्षार्थं साधुः प्रहेतव्यः, तत्रोच्यते-वास्तव्या एव गमिष्यन्ति, अथैवमुक्तेऽपि 'निवन्ध निर्बन्धं करोति आग्रह करोत्यसौ श्रावकस्ततः 'वत्थवेणं' वास्तब्येन सहकेन गन्तव्यं, यतः स एवY वास्तव्यः प्राघूर्णकानां प्रमाणमल्पाधिकवस्तुग्रहणे । अथासौ साम्भोगिकवसतिः संकुला भवति ततः
अज्ञातो; यन्त्र श्रावका न सन्ति तत्र हिण्डन्ते वास्तव्याः । यदि सहिष्णव-समर्था इतरे-अप्रापूर्णका याप्पशरीराः भाचककुलानि हिण्डन्ते, अथ वास्तव्या बाप्यारीराः प्राघूर्णकान सहिष्णवस्ततोऽशातोगछ दिण्टते।
दीप अनुक्रम [३२१]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३२३] → “नियुक्ति: [२१०...] + भाष्यं [९८] + प्रक्षेपं [१४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||९८||
॥८६॥
दीप अनुक्रम [३२३]
श्रीओष- असइ वसहीऍ वीसुं राइणिए वसहि भोयणागम्म। असहू अपरिणया वा ताहे वीसुं सह वियरे ॥९८॥ (भा) नियुक्ति | 'असति' अभावे विस्तीर्णाया वसतेः 'वीसुति पृथग-अन्यत्र वसतौ अवस्थानं कुर्वन्ति, तत्र च तेषां को भोजनविधि- क्षाविधिः द्रोणीयारित्यत आह-'राइणिए वसहि भोयणागम्म' रक्षाधिकस्य वसती भोजनमागम्य कर्त्तव्यं, स च रताधिका कदाचिद्वास्तव्यो| वृत्तिः भवति कदाचिदागन्तुक इति । 'असर'त्ति अथान्यतरो रत्नाधिकः 'असहू' भिक्षावेलां प्रतिपालवितुमशक्तः तथाऽपरिणता
वा साधवः सेहप्राया मा भून् राटिं करिष्यन्ति ततः 'वीमुं' पृथग् क्सतिर्भवति । तथा यदि च ते वास्तव्याः साधवः 'सर।। समस्ततो 'बियरे'ति भिक्षामटित्वा प्राधणेफेभ्यः प्रयच्छन्ति ।। तिण्हं एफेण सम भत्तट्ठो अपणो अबहुं तु । पच्छा इयरेण सम आगमणविरेणु सी थिय ।। ९९॥ (भा०)
अथ तत्र त्रय आचार्या भवन्ति, द्वावागन्तुको एको वास्तव्यः तदा 'एक्केण समति एकनागन्तुकाचार्यमनजितेन सहर्ट वास्तव्यः पर्यटत्ति तापद्यावदू 'भत्तहो'त्ति एकस्य प्राघूर्णकाचार्यत्व भक्तार्थो भवति-उदरपूरणमात्रमित्यर्थः अतः "अप्पणो अवह तुत्ति आत्माचार्यार्थ वातौ वास्तव्यः अपई तु' अर्बभुवमान श्रावककुलेभ्यो गृह्णाति । पच्छा इयरेण समति पश्चादितरेण द्वितीयागन्तुकाचार्यमनजितेन समं पर्यटत्ति तत्रापि भक्ताओं यावद्भवति प्राघूर्णकरण तापत्यवेटति, आत्म-18 नवार्द्धवमात्रं गृह्णाति, एवं पूर्णो धुवी भवति वास्तव्याचार्यस्थ, भागमणति एवं ते पर्यदित्वाऽऽत्मीयायां वसती आगमनं कुर्वन्ति । विरेशु सो वत्ति स एव 'विरगों विभजन श्रावककुलेषु, श्रीऽसी भिक्षामहद्भिः कृतः, न तु पुनर्व-टू। ८६ ॥ सतिकायां भागतानां भवतीति । “भसति बसहीए वीसु राइणिए बसहि भोयणागम्म । असह अपरिणया या ताहे वीसु
SAREaramshad
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३२४] → “नियुक्ति : [२१०...] + भाष्यं [९९] + प्रक्षेपं [१४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
*
गाथांक नि/भा/प्र ||९९||
सह वियर ॥१॥"न्ति यो विधिरुक्तः, अयं च द्वितीयाधाचार्येष्वप्यागत्तेषु द्रष्टव्य इति । एवं तावद्विहरितक्षेत्रे यत्र साधुषु | तिष्ठत्सु यो विधिः स उक्तः, इदानीमविहरिते क्षेत्रे साधुरहित च यो विधिस्तत्प्रतिपादयन्ताहहवंदनिमंतण शुरूहि संविट्ट जीवऽसदिहो। निबंध जोगगहणं निवेय नयणं गुरुसगासे ॥१०॥(भा.)
एवं विहरन्तः कचिदामादौ प्राप्ताः, तत्र च यदि सम्जी विद्यते ततश्चैत्यवन्दनार्थमाचार्यो व्रजति, सतश्च श्रावकी गृहागतमाचार्य निमन्त्रयति, यथा-प्रायोग्यं गृहाण, ततश्च यो गुरुसंदिष्टः स गृह्णाति । 'जी वसंदिहोति यो वा 'असंदिष्टः अनुक्तः स वा गृह्णाति श्रावकनिर्बन्धै सति, एतदुक्तं भवति-योऽसावाचार्येण संदिष्टः स थावत्रागच्छत्येव तावत्तेन श्रावकेणान्यः सबाटको दृष्टः, स च निर्बन्धग्रहणे कृते सति योग्यग्रहण-प्रायोग्यीपादानं करोति । ततश्च 'निवेयण ति अन्येभ्यः सङ्घाटकेभ्यो निवेदयति, यथा यदुत मया श्रावकगृहे प्रायोग्यं गृहीतं न तत्र भवनिःप्रवेष्टव्यम् । ततश्च 'नयणं गुरुसनासेति तत्प्रायोग्यं गृहीत्वा गुरुसमीपं भवति तत्क्षणादिव येनासाकुपभुङ्ग इति । इदानीं यदुक्तं प्राक् “अविहरिअविही इमो हौति"त्ति, सावाख्यानयनाहअविहरिअमसंदिहो बेइय पाहुडिभस मेहति । पासपउरखंभे नऽम्हे किंवा भुजति ११०१ (भा) ____ अविहरिते प्रामादी असंदिष्टा एव सर्वे भिक्षार्थं प्रविष्टाः, तत्र च भिक्षामटन्तः श्रावकगृह प्रविष्टाः, तत्र च 'वेइए'त्ति चत्वानि पबदन्ते तत्र च 'पाहुडिअमेत्तं गिण्हन्ति' प्राभृतिकामात्र यदि तत्र लभ्यते ततो गृहन्त्येव, अथाचार्यप्रायोग्य लभ्यते प्रचुरं वा लभ्यते ततः पाउनपउरलंभे सति इदमुख्यते 'णऽम्है 'चिन वयमाचार्यप्रायोग्यग्रहणे मिर्युक्ताः, किन्त्वन्ये,
दीप अनुक्रम [३२४]
SAKASCAM
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३२७] . "नियुक्ति: [२१०...] + भाष्यं [१०१] + प्रक्षेपं [१५-१६]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
श्रीओघनियुक्तिः द्रोणीया
ग्रामे भिक्षाविधिः भा.१००
वृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१०१||
१०३
साधर्मिक
नि.२११
4548
एवमुक्ते श्रावकोऽप्याह-'किं वा न भुजंतित्ति किं भवद्भिनतिं न भुञ्जते आचार्याः, एवं निर्बन्धे सति त एव गृह्णन्ति । |कियत्पुनर्गृह्णन्तीत्यत आह
गच्छस्स परीमाणं नाउ घेत्तुं तओ निवेयंति । गुरुसंघाडग इयरे लद्धू नेर्य गुरुसमीवं ॥१०२॥ (भा०) | गच्छस्य परिमाणं ज्ञात्वा गृहन्ति, गृहीत्वा च ततो निवेदयन्ति, कस्मै !, अत आह-गुरुसंघाटकाय, यदुताचार्यमायोदाग्यमन्येषां च गुडघृतादि लब्धं प्रचुरम् , 'इयरे वत्ति इतरसङ्घाटकेभ्यो वा-शेषसहाटकेभ्यो निवेदयति, 'मा बच्चहत्ति
मा ब्रजत गृहीत गुरुयोग्य, ततश्च लब्धमात्रमेव तद् गुरुसमीपं नेतव्यम् । तथा चाह| एगागिसमुद्दिसगा भुत्ता उ पहेणएण दिलुतो । हिंडणदबविणासो निद्धं महुरं च पुवं तु ॥१०३ ॥ (भा०)
एगागिसमुद्दिसगा ये न मण्डल्युपजीविनः पृथग भुञ्जन्ते च्याध्याद्याक्रान्ताश्च तेषां भुक्तानां सतां पश्चादानीतं नोपयुज्यते। अत्र च 'पहेणएण दिहतो' 'काले दिण्णस्स पहेणयस्स अग्यो न तीरए काउं । तस्सेव अधकपणामियस्स गेण्हतया नस्थि॥१॥ तथाऽनानयनेऽयमपरो दोषः-येन द्रव्येण घृतादिना गृहीतेन हिण्डतां द्रव्यविनाशो भवति, कथश्चित्पमादात्पात्रकविनाशे सति क्षीरादि च विनश्यत्येव, तथा 'निद्धमहराई पुषि' यदुक्तमागमे तच कृतं न भवति । “सपिण"त्ति दारं ४ गयं । इदानीं साधर्मिकद्वारं प्रतिपादयन्नाह
भत्सहिअ आवस्सग सोहे तो अइंति अवरण्हे । अन्भुट्ठाणं दंडाइयाण गहणेकवयणेणं ॥ २११ ।। इदानी ते साधर्मिकसमीपे प्रविशन्तः 'भत्तहित्ति भुक्त्वा तथा 'आवस्सग सोहे'ति आवश्यक च-कायिकोचा-|
दीप अनुक्रम [३२७]
X11८७॥
Saintairat
n
a
अब वे प्रक्षेप-गाथे वर्तते. मया संपादित “आगम सुत्ताणि" मूलं अथवा सटीकं पुस्तके तौ मुद्रिते वर्तेते
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३३१] → “नियुक्ति: [२११] + भाष्यं [१०३] + प्रक्षेपं [१६...]".
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१०३||
रादि'शोधयित्वा' कृत्वेत्यर्थः, अतोऽपराह्नसमये आगच्छन्ति, येन वास्तव्यानां भिक्षाटनाधाकुलत्वं न भवति, वास्तव्या अपि कुर्वन्ति, किमित्यत आह-'अब्भुट्टाणं ति तेषां प्रविशतामभ्युत्थानादि कुर्वन्ति 'दंडादिताण गहणं'ति दण्डकादीनांट ग्रहणं कुर्वन्ति, कथं ?-'एगवयणेणं'ति एकेनैव वचनेन उक्ताः सन्तः पात्रकादीन् समर्पयन्ति, वास्तब्येनोके मुश्चस्वेति । ततश्च मुशन्ति, अथ न मुञ्चत्येकवचनेन ततो न गृह्यन्ते, मा भूत् प्रमाद इति ॥
खुडुलविगढतेणा उपहं अवरपिह तेण उ पएवि । पक्खित्तं मोत्तूणं निक्खिवमुक्खित्तमोहेणं ॥ २१२ ॥ यदा तु पुनस्तैः साधुभिरभिप्रेतो ग्रामः स क्षुल्लको न तत्र भिक्षा भवति ततश्च प्रत्यूषस्येवागच्छन्ति, 'विगिढ़त्ति विक-1* एमध्वानं यत्र साधर्मिकास्तिष्ठन्ति ततः प्रत्यूषस्येवागच्छन्ति 'तेण'त्ति अथ ततः अपराहे आगच्छतां स्तेनभयं भवेत्ततश्च प्रत्यूपस्येवागच्छन्तीति । उष्ण वा अपराहे आगच्छतां भवति यतोऽतः प्रत्यूषस्येवागच्छन्ति । एवं ते प्रत्यूषसि तस्माद् | प्रामात्प्रवृत्ताः साधुभोजनकाले प्राप्ताः साधर्मिकसमीपं निषेधिकां कृत्वा प्रविशन्ति । ततश्च तेषां प्रविशतां वास्तव्यसाधुभिः किं कर्त्तव्यमित्यत आह-पक्खित्तं मोत्तूणति प्रक्षिप्त-आस्यगत मुखे प्रक्षिप्तं कवलं मुक्त्वा 'निक्खिवमुक्खित्त'ति यदुतक्षिप्तं भाजनगतं तत् 'निक्षिपन्ति' मुश्चन्ति नैपेधिकीश्रवणानन्तरमेव, ततस्ते प्राघूर्णकाः 'ओघेणं ति सङ्केपेण आलोचनां प्रयच्छन्ति । ततो भुञ्जते मण्डल्या, सा चेयम्
अप्पा मूलगुणेसुं विराहणा अप्प उत्तरगुणेसुं। अप्पा पासस्थाइसु दाणगहसंपओगोहा ॥ २१३ ॥ अल्पा मूलगुणेषु, एतदुक्तं भवति-मूलगुणविपया न काचिद्विराधना, अल्पा उसरगुणविषया विराधना, अल्पा पार्व-16
दीप अनुक्रम [३३१]
ANG
Enatorary.om
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३३३] → “नियुक्ति : [२१३] + भाष्यं [१०३...] + प्रक्षेपं [१६...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
श्रीओष-
नियुक्तिः
द्रोणीया
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२१३||
स्थादिषु दानग्रहणसेवाविराधना 'संपओगो'त्ति तैरेव पार्थस्थादिभिः संप्रयोगे-संपर्के, एतदुक्तं भवति-न पार्श्वस्थादिभिः साधर्मिकसह संप्रयोग आसीत् । 'ओष' त्ति गयं 'ओघतः' सङ्कपत आलोचना दीयते, दत्त्वा चालोचनां यदि तु अभुक्तास्ततो
| कृत्यं नि. भुञ्जते । अथ भुक्तास्ते साधवस्तत इदं भणन्ति
२१२-२१६ भुंजह भुत्ता अम्हे जो वा इच्छे अभुत्त सह भोजं । सई च तेसि दाउ अन्नं गेण्हति वत्था ।। २१४ ॥ भजीत यूयं भुक्ता वयं, 'यो वा इच्छे'त्ति यो वा साधु क्तुमिच्छति ततः 'अभुत्त सह भोज ति तेनाभुकेन सह भोज्य || कुर्वन्ति । एवं यदि तेषामात्मनश्च पूर्वानीतं भक्तं पर्याप्यते ततः साध्वेव अथ न पर्याप्यते ततः सर्वे 'तेभ्यः' प्राघूर्णकेभ्यो| दत्त्वा भक्तमन्यद्हन्ति-पर्यटन्ति वास्तव्यभिक्षवः । एवमानीय कति दिनानि भक्तं प्राघूर्णकेभ्यो दीयते इत्यत आह
तिषिण दिणे पाहुन्नं सबेसिं असइ बालवुड्डाणं । जे तरुणा सग्गामे बथवा बाहिहिहंति ॥ २१५॥ त्रीणि दिनानि प्राघूर्णकं सर्वेषामसति बालवृद्धानां कर्त्तव्यं, ततश्च ये प्राघूर्णकास्तरुणास्ते स्वग्राम एव भिक्षामटन्ति, वास्तव्यास्तु बहिर्मामे हिण्डन्ति । अथ ते प्राघूर्णकाः केवला हिण्डितुं न जानन्ति ततः किं कर्त्तव्यमित्यत आह
संघाडगसंजोगी आगंतुगभदएयरे बाहिं । आगंतुणा ष बाहिं वत्थबगभदए हिंडे ॥ २१६॥ सहादकसंयोगः क्रियते, एतदुक्तं भवति-एको वास्तव्य एकश्च प्राघूर्णकः, ततश्चैवं सहाटकयोगं कृत्वा भिक्षामटन्ति । 'मागंतु गभर एयर'त्ति अथासी ग्राम आगन्तुकानामेव भद्रकस्तसः 'इयरे'त्ति वास्तव्या 'बाहिति बहियोंमे हिण्डन्ति, बालतुका का बहिर्माये हिण्डन्ति वास्तव्यभद्रके सति ग्रामे । उक्त साधर्मिकद्वारम् , इदानी वसतिद्वार प्रतिपादयशाह
दीप अनुक्रम [३३३]
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
||२१७||
दीप
अनुक्रम [३३७]
Eticato
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [३३७]
“निर्युक्तिः [२१७] + भाष्यं [ १०३] + प्रक्षेपं [१६...]
८०
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
| वित्थण्णा खुइलिआ पमाणजुत्ता यतिविह बसहीओ। पढमबियासु ठाणे तत्थ य दोसा इमे होंति ॥ २१७॥ • विस्तीर्णा क्षुल्लिका प्रमाणयुक्ता वा त्रिविधा वसतिः 'पढमबितियासु ठाणे' त्ति यदा प्रथमायां वसतौ स्थानं भवति विस्तीर्णायामित्यर्थः, द्वितीया क्षुल्लिका तस्यां वसतौ वा यदा भवति तदा तत्र तयोर्वसत्योः 'एते' वक्ष्यमाणका दोषा भवन्ति खरकमि अवाणियगा कप्पडिअसरकखगा प वंठा च । संमीसावासेणं दोसा य हवंति णेगविहा ॥ २९८ ॥
तत्र विस्तीर्णायां वसती 'खरकम्मिअ'त्ति दण्डपासगा रात्रिं भ्रान्त्वा स्वपन्ति, वाणिज्यकाश्च वालुखकप्राया आगत्य स्वपन्ति तथा कार्यटिकाः स्वपन्ति, सरजस्काश्च भौताः स्वपन्ति, वण्ठाश्च स्वपन्त्यागत्य 'अकयविवाहा भीतिजीविणो य बंठिन्ति । एभिः सह यदा संमिश्र आवासो भवति तदा तेन संमिश्राषासेन दोषा वक्ष्यमाणका अनेकविधा भवन्ति ॥ ते चामीआवासगअहिकरणे तदुभय उच्चारकाइयनिरोहे । संजय आयविराहण संका तेणे नपुंसित्थी ॥ २१९ ॥ आवश्यके प्रतिक्रमणे क्रियमाणे सागारिकाणामग्रतस्त एव उद्घट्टकान् कुर्वन्ति, ततश्च केचिदसहना राटिं कुर्वन्ति, ततश्चाधिकरणदोषः । 'तदुभएत्ति सूत्रपौरुपीकरणे अर्धपौरुपीकरणे च दोष उद्धट्टकान् कुर्वन्ति । निरोधश्च उच्चारस्य कायिकायाश्च निरोधे दोषः । अथ करोति तथाऽपि दोषः संयमात्मविराधनाकृतोऽप्रत्युपेक्षितस्थण्डिले । 'संका तेणे' ति स्तेनकशङ्कादोपश्च-चौराशङ्कादोपश्च चौराशङ्का, नपुंसककृतदोषः संभवति ततश्च स्त्रीदोषश्च भवतीति द्वारगाथेयम् इदानीं प्रतिपदं व्याख्यानयन्नाह -
आवासपं करिते पवंचए झाणजोगवाधाओ । असहण अपरिणया वा भावणभेओ य छक्कापा ॥ २२० ॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३४०] → नियुक्ति: [२२०] + भाष्यं [१०३...] + प्रक्षेपं [१६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
+
श्रीओघ
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२२०||
द्रोणीया वृत्तिः
॥८९॥
CRAC%
'आवश्यक' प्रतिक्रमणं कुर्वताम् 'पर्वचए'त्ति ते सागारिका उद्घट्टकान कुर्वन्ति, तथा ध्यानयोगव्याघातश्च भवति- विस्तीर्णाचलनमापद्यते चेतो यतः । दारं । अहिगरणं भण्णइ-'असहणे ति कश्चिद् 'असहनः' कोपनो भवति 'अपरिणतो वा' सेह- दिकाविधा प्रायः, एते राटिं सागारिकैः सह कुर्वन्ति, ततश्च भाजनानि पात्रकाणि तद्भेदो-विनाशो भवति, पटू कायाश्च विराध्यन्ते। वसतिनि. दारं । 'तदुभयं ति व्याख्यायते
२१७-२२३ मुत्सस्थऽकरण नासो करणे उहुँचगाइ अहिगरणं । पासवणिअरनिरोहे गेलन्नं दिहि उड्डाहो ॥ २२१॥
'सुत्तत्थअकरण'त्ति सूत्रार्थपौरुष्यकरणे नाशः-तयोरेव विस्मरणम् । अथ सूत्रार्थपौरुष्यौ क्रियते ततश्च 'उहुँचकादि उद्घट्टकादि कुर्वन्ति । ततश्चासहना राटिं कुर्वन्ति, ततोऽधिकरणदोष इति । दारं । “उच्चारकाइअनिरोहो"त्ति व्याख्यायते-'पासवणित्ति 'प्रश्रवणस्य' कायिकायाः 'इयर'त्ति पुरीषस्य च निरोहे 'गेलन्नं ग्लानत्वं भवति । अथ व्युत्सृजन्ति | ततो 'दिवे उड्डाहो ति सागारिकदृष्टे सति 'उड्डाहः' उपधातः प्रवचनस्य भवति। "संजमआयविराहण"त्ति व्याख्यायते
मा दिच्छिहिंति तो अपपडिलिहिए (थंडिल्ले ) दूर गंतु वोसिरति ।
संजमआयविराहणगहणं आरक्खितेणेहिं ॥ २२२ ।। अथ सागारिका मां मा द्राक्षुरितिकृत्वाऽस्थण्डिल एव दूरे गत्या व्युत्सृजति ततः संयमात्मनोविराधना भवति, ग्रहणं|3| चारक्षिकाः कुर्वन्ति । 'तेण'नि स्तेनका वा ग्रहणं कुर्वन्ति । दारं । “संकातेण"त्ति व्याख्यायते
ओणयपमज्जमाणं दई तेणेत्ति आहणे कोई । सागारिअसंघट्टण अपुमेथी गेण्ह साहइ वा ॥ २२३ ॥
दीप अनुक्रम [३४०]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३४३] .. "नियुक्ति: [२२३] + भाष्यं [१०३...] + प्रक्षेपं [१६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र
||२२३||
सहि रात्री कायिकाद्यर्थमुत्थितः सन्नवनतः प्रमार्जेयन्निर्गच्छति ततस्तमवनतकायं दृष्ट्वा स्तेन इति मत्वा आहन्यारकजितदार नपंसिस्थिति व्याख्यायते-'सागारिअसंघट्टण'त्ति सागारिकसंस्पर्श सति, स हि रात्री हस्तेन परामृशन् गच्छति, यतस्ततः स्पर्शने सति कश्चित्सागारिको विबुद्ध एवं चिन्तयति-यदुताय 'अपुमत्ति नपुंसकं तेन कारणेन मां स्पृशति, ततः सागारिकस्तं साधुं नपुंसकबुद्ध्या गृह्णाति । अथ कदाचित्स्त्री स्पृष्टा ततः सा शङ्कते, यदुतायं मम समीपे आगच्छति, ततः 'साहेति' कथयति निजभर्तुः सौभाग्यं ख्यापयन्ती परमार्थेन वा ॥
ओरालसरीरं वा इथि नपुंसा बलावि गेहति । सावाहाए ठाणे मिते आवडणपडणाई ॥२२४ ॥
औदारिकशरीरं था तं साधुं दृष्ट्वा दिवा ततो रात्री स्त्री नपुंसक बलाग़ाति, औदारिक-चह्निकम् । एते विस्तीर्णवसतिदोषा व्याख्याताः । इदानीं क्षुलिकावसतिदोषान् प्रतिपादयन्नाह-'सावाहाए'त्ति संकटायां वसती स्थाने अवस्थाने सति णिते आवडपडणादीति निर्गच्छन्नापतितश्च निर्गच्छन्नापतनपतनादयो दोषाः, तथा
तेणोत्ति मण्णमाणो इमोवि तेणोत्ति आवडह जुद्धं । संजमआयविराहणभायणभेयाइणो दोसा ॥ २२५ ॥ M एवं साधोरुपरि प्रस्खलिते साधौ यस्योपरि प्रस्खलितः स तं स्तेनकमिति मन्यमानः अयं च सुप्तोत्थितः अमुं प्रस्ख-| Sलितं स्तेनकं मन्यमानः सन् 'आपतति युद्ध" युद्ध भवति, ततश्च संयमात्मनोविराधना भाजनभेदादयश्च दोषाः, भाजन पात्रक भण्यते । उक्ता क्षुलिका वसतिः, यस्मात्क्षुलिकायामेते दोषास्तस्मात्प्रमाणयुक्ता वसतिग्राह्या । एतदेवाह
तम्हा पमाणजुत्ता एकेकस्स उ तिहत्यसंथारो। भायणसंथारंतर जह वीसं अंगुला हंति ॥ २२६॥
दीप अनुक्रम [३४३]
PORARSt
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३४६] .. "नियुक्ति : [२२६] + भाष्यं [१०३...] + प्रक्षेपं [१६...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२२६||
वृत्तिः
श्रीओष- तस्मात्प्रमाणयुक्ता वसतिर्माह्या, तत्र चैकैकस्य साधो हुल्यतखिहस्तप्रमाणः संस्तारकः कर्त्तव्यः, तुशब्दो विशेषणार्थः, विस्तीर्णानियुक्तिः
किं विशिनष्टि ?-संस्तारकोऽत्र भूमिरूप इति, तत्र तेषु त्रिषु हस्तेषु ऊर्णामयः संस्तारको हस्तं चत्तारि अ अंगुलाई रंभइदिका त्रिधा द्रोणीया
भायणाई हत्थं रुधंति । इदानीं संस्तारकभाजनयोर्यदन्तरालं तत्प्रमाणे प्रतिपादयन्नाह-भायणसंथारंतर भाजनसंस्तारा-18 वसतिः नि. न्तरे-अन्तराले यथा विंशतिरहुलानि भवन्ति तथा कर्त्तव्यम् । एवं त्रिहस्तप्रमाणोऽपि संस्तारकः पूरितः, किं पुनः२२४-२२७ कारणमिह दूरे भाजनानि न स्थाप्यन्ते ?, उच्यते| मजारमूसगाइ य वारे नवि अजाणुघट्टणया। दो हत्था य अवाहा नियमा साहस्स साहओ ॥ २२७॥ | | मार्जारमूषकादीन् पात्रकेषु लगतो वारयेत्। अथ कस्मादासन्नतराणि न क्रियन्ते? उच्यते-'नवि यजाणुघट्टणय'त्ति तावति । प्रदेशे तिष्ठति पात्रकेषु जानुकृतोद्घटना-जानुकृतं चलनं न भवति । इदानी प्रबजितस्य २ चान्तरालं प्रतिपादयत्राह-द्वी हस्तौ अबाधा-अन्तरालं नियमात्साधोः साधोश्च भवति, साधुधात्र त्रिहस्तसंस्तारकप्रमाणो ग्राह्यः । स्थापना चेयम्-उण्णामओ संथारओ २८ अठ्ठावीसंगुलप्पमाणो, संथारभायणाणं अंतरं वीसंगुला २०, भायणाणि अ हत्यप्पमाणे पाउँछणे ठविजति
२४, एवं तिहिं घरएहिं सबेवि तिण्णि हत्था, साहुस्स य २ अंतरं दो हत्था २८॥२८॥ २४ ह०३-६२। एवमेतद्गाथाद्वय 18|व्याख्यातम् । अत्र च द्विहस्तप्रमाणायामबाधायां महदन्तरालं साधोः साधोश्च भवति, ततश्च तदन्तरालं शून्यं महद् दृष्ट्वा-13॥९॥
सागारिको बलात्स्वपिति, तस्मादन्यथा व्याख्यायते-सम्हा पमाणजुत्ता एकेकस्स उ तिहत्वसंथारो । अत्र हस्तं साधू |रुणद्धि, भाजनानि संस्तारकादिंशस्मङ्गुलानि भवन्ति । एतदेवाह-भायणसंथारंतर अह वीसं अंगुलाई होति' । पाचक
दीप अनुक्रम [३४६]
CACASSAM
Sauranorm
अथ वसति मध्ये शयनविधि: वर्ण्यते
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
||२२७||
दीप
अनुक्रम
[३४७]
मो० १६
Eucation
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [ ३४७]
“निर्युक्तिः [२२७] + भाष्यं [ १०३] + प्रक्षेपं [१६...]
F
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
मष्टागुखानि रुणद्धि, पात्रकाद्विंशत्यङ्गलानि मुक्त्वा परतोऽन्यः साधुः स्वपिति । एतच्च कुतो निश्चीयते ? यदुत-पात्रकात्परतो विंशत्यकुलान्यतीत्य साधुः स्वपिति, यत उक्तम्- 'दो हत्थे य अवाहा नियमा साहुस्स साहूओ'। स्थापना चेयम्साहू सरीरेणं हत्थं रुंधइ २४, साहुस्स सरीरष्यमाणं, संधारयस्स पत्तयाणं च अंतरं वीसंगुला २० अट्ठहिं अंगुलेहिं पत्तया उइंति ८, पतस्स बितियसाहुस्स य अंतरं बीसंगुलाई २०, एवं एते सवेऽवि तिण्णि हत्था, एसो वितिओ साहू । २४ । | २० | ८ | २० | एवं सवत्थ । अत्र चोर्णामयः संस्तारकः अष्टाविंशत्यङ्गलप्रमाण एव बाहुल्येन द्रष्टव्यः, किन्तु साधुना शरीरेण चतुर्विंशत्यङ्गुलानि रुद्धानि, अन्यानि ऊर्णामयसंस्तारकसंबन्धीनि यानि चत्वार्यङ्गुलानि तैः सह यानि विंशत्यइलानि, तत्परतः पात्रकाणि भवन्ति । अत्र हस्तद्वयमबाधा साधुशरीराद्यावदन्यसाधुशरीरं तावद्रष्टव्यम् । “मज्जाय" इत्येयाख्यातमेव ।
भुतामुत्तसमुत्था भंडणदोसा य वज्जिआ एवं सीसंतेण व कुटुं तु हत्थं मोतृण ठार्यति ॥ २२८ ॥ द्विहस्तान्तरालेन मुच्यमानेन 'भुत्ताभुत्तसमुत्था' इति यो भुक्तभोगः 'अमुक्त' इति यः कुमार एव प्रत्रजितः, तत्र भुक्तभोगस्य आसन्नस्य स्वपतोऽन्यसाधुसंस्पर्शादन्यत्पूर्वक्रीडितानुस्मरणं भवति, यदुतास्मद्योषितोऽप्येवंविधः स्पर्श इति, | अभुक्तभोगस्थाप्यन्यसाधुसंस्पर्शेन सुकुमारेण कौतुकं स्त्रियं प्रति भवति, अयमभिप्रायः - तस्याः सुकुमारतरः स्पर्श इति, ततश्च द्विहस्तावाधायां स्वपतामेते दोषाः परिहृता भवन्ति । तथा भंडणं- कलहः परस्परं हस्तस्पर्शजनित आसन्नशयने, ते व दोषा एवं वर्जिता भवन्ति, 'सीसंतेण व कुङ्कं तु हत्थं मोचूण ठायंति त्ति शिरो यतो यत्र कुठ्यं तत्र हस्तमात्रं मुक्त्वा
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३४८] → “नियुक्ति: [२२८] + भाष्यं [१०३...] + प्रक्षेपं [१६...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र
नियुक्तिः द्रोणीया
वांतः
॥९१॥
||२२८||
'ठायति'त्ति स्वपन्ति, पादान्तेऽनुगमनमार्ग विमुच्य हस्तमात्रं स्वपन्ति । अथवाऽन्यथा पाठः-'सीसंतेण व कुहुँ तिहत्थं वसता शमोत्तूण ठायति' तत्र प्रदीर्घायां वसतौ स्वापविधिरुक्तः, यदि पुनश्चतुरस्रा भवति तदा 'सीसंतेण व कुडु'ति शिरो यतो यस्कुक्यं तस्मात्कुख्यात् हस्तत्रयं मुक्त्वा स्वपन्ति, तत्र कुड्यं हस्तमात्रेण प्रोग्य ततो भाजनानि स्थाप्यन्ते, तानिनि . २२९च इस्तमाने पादपुल्छने क्रियन्ते ततो हस्तमात्रं ब्यामुवन्ति, भाजनसायोश्चान्तरालं हस्तमात्रमेव मुच्यते, ततः साधुः।
२३० स्वपिति । एवमनया भजया स्वपतां तिर्यक् साधो साधोश्चान्तरालं हस्तद्वयं द्रष्टव्यम् ।
प्रवरिहो उ विही इहषि वसंताण होह सोचेव । आसज्ज तिनि वारे निसा आउंटए सेसा ॥ २२९॥ | अत्र स्वापकाले पूर्वोद्दिष्ट एव विधिर्द्रष्टव्यः, कश्वासी 1,“पोरिसिआपुच्छणया सामाइयउभयकायपडिलेहा । साहणिय दुवे पट्टे पमज पाए जओ भूमि ॥ १॥ अणुजाणह संथारं" इत्येवमादिकः । इहापि वसतां स्वपतां भवप्ति. स एव विधिः, किं त्वयं विशेष:-'आसज्ज तिन्नि वारे निसन्नोत्ति आसज्जं त्रयो वाराः करोति 'निसन्नो'त्ति तत्रैव संस्तारके उपविष्टः सन् , शेषाच साधवः किं कुर्वन्तीत्याह-माउंटए सेसा' शेषाः साधवः पादान् आकुञ्चयन्ति । पुनश्चासौ कायिका) वजन् किं करोतीत्यत आह
आवस्सिअमास नीइ पमजंतु जाव उ च्छन् । सागारिय तेणुभामए य संका तउ परेणं ॥ २३०॥ ॥९ ॥
आवश्यिकी आसनं च पुनः पुनः कुर्वन् प्रमार्जयनिर्गच्छति, कियहरं यावदित्यत आह-'जाव उच्छ' यावच्छण्णं-1 छायावदसतेरभ्यन्तरमित्यर्थः, बायतश्च नैवं प्रमार्जनादि कर्तव्यं, यतः 'सागारिय तेणुब्भामए य संका तदु परेणं' सागा
दीप अनुक्रम [३४८]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३५०] .. "नियुक्ति : [२३०] + भाष्यं [१०३...] + प्रक्षेपं [१६...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२३०||
रिकानां स्तेनशङ्कोपजायते, यदुत किमयं चौरः ! 'उम्भामओं पारदारिकस्ततस्तदाशङ्कोपजायते, अतस्तत्परेण-छिनाद्वायतो नेद-प्रमार्जनादि कर्तव्यमिति । एवं प्रमाणयुक्तायां वसती वसतां विधिरुक्तः । यदा तु पुनःनस्थि उ पमाणजुत्ता खुडलिया चेव वसति जयणाए । पुरहत्य पच्छ पाए पमज जयणाए निग्गमणं ॥२३॥ - यदा प्रमाणयुक्ता वसतिर्नास्ति तदा क्षुल्लिकायामेव वसती वसन्ति यतनया, का चासौ यतना ?-'पुरहत्थ पच्छपाए' 'पुरतः' अग्रतो हस्तेन परामृशति पश्चात्पादौ प्रमृज्य न्यस्यति, ततश्चैवं यतनया बाधतो निर्गच्छन्ति । एवं तावत्कायिकाबर्थ गमनागमने विधिरुक्तः, इदानीं स्वपनविर्षि प्रतिपादयनाहउस्सीसभायणाई मजले विसमे अहाकला उवरि । ओवग्गहिओ दोरो तेण य हासिलंबणया ॥ २३२॥
उपशीर्षकाणां मध्ये भाजनानि-पात्रकाणि क्रियन्ते । स्थापना चेयम्- 'विसमें त्ति विषमा भूः गतॊपेता भवति, ततश्च तस्यां गर्तायां पात्रकाणि पुञ्जीक्रियन्ते । 'अहागडा उवरिति प्राशुकानि-अल्पपरिकर्माणि च यानि तान्येतेषां पात्रकाणामुपरि पुञ्जीकियन्ते, माङ्गलिकत्वासेपाम् , अथातिसङ्कटत्वादसतेभूमी नास्ति स्थानं पात्रकाणां ततश्च 'उवग्गहितो| दोरों' औपग्रहिको यो दवरको यवनिकार्थे गृहीतः उपग्गहितो-गच्छसाहारणो तेन 'विहायसि' आकाशे 'लंबणय'त्ति | तेन दवरकेन लम्ब्यते-कीलिकादौ क्रियन्ते ।
खडलियाए असई विच्छिन्नाए उ मालणा भूमी। बिलधम्मोचारभडा साहरणेगंतकडपोसी ॥ २३३ ।।। क्षुल्लिकाया वसतेरभावे 'विच्छिन्नाए जत्ति विस्तीर्णायां वसतौ स्थातव्यं, तत्र च को विधिरित्यत अह-'मालणा भूमी
दीप अनुक्रम [३५०]
CAKACCIAS
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||२३३||
दीप
अनुक्रम [३५३]
श्री ओघनियुक्तिः
द्रोणीया
वृत्तिः
॥ ९२ ॥
Jan Educator
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [ ३५३ ]
“निर्युक्तिः [२३३] + भाष्यं [ १०३] + प्रक्षेपं [१६...]
F
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
| विस्तीर्णवसतेर्भूमिर्माल्यते - व्याप्यते पुष्पप्रकरसदृशैः स्वपद्भिः, 'बिलधम्मो चारभडे ति अवलगकादय आगत्य इदं भणन्ति यदुत बिलधमों यस्मिन् बिले यावतामवस्थानं भवन्ति तावन्त एव प्रविशन्ति, ततः साधवः किं कुर्वन्ति ?, 'साहरणे 'ति संहृत्य उपकरणजातं विरलत्वं च 'एगंत त्ति एकान्ते तिष्ठति । 'कडपोती 'ति यदि कटोऽस्ति ततस्तमन्तराले ददति अथ स नास्ति ततः 'पोत्तिं' चिलिमिनीं ददति ।
असई प चिलिमिलीए भए व पच्छन्न भूइए लक्खे। आहारा नीहारो निग्गमणपवेस वज्जेह ॥ २३४ ॥ 'असति' अभावे चिलिमिलिन्याः 'भए वत्ति चिलिमिनीहरणभये वा न ददति । किं वा कुर्वन्त्यत आह-'पच्छण्णेति ततः प्रच्छन्नतरे प्रदेशे तिष्ठन्ति । 'भूइए लक्खे'त्ति स च प्रदेशो भूत्या 'लक्ष्यते' चिपते अबोटोऽयं प्रदेश इति कथ्यते । इदं च तेऽभिधीयन्ते आहारानीहारो भवत्यवश्यमतो निर्गमनप्रवेशी वर्जनीयाविति । इदं च कर्त्तव्यं साधुभिःपिंडेण सुतकरणं आसज्ज निसीहियं च न करिंति । कारण न पमजणया न य हत्थो जयण बेरन्तिं ॥ २३५ ॥
'पिण्डेन' समुदायेन 'सूत्रकरण' सूत्रपौरुषीकरणं कर्त्तव्यं, मा भूत् कश्चित्पदं वाक्यं वा कण्णाहिडिस्सतित्ति । तथा आसज्ज निसीहिअं च तत्र न कुर्वन्ति । किं वा कर्त्तव्यमित्यत आह- 'कासणं'ति काशनं खाटूकरणं करोति, न च प्रमार्जनं करोति, 'ण य हत्थो'त्ति न च हस्तेन पुरस्तात्परामृश्य निर्गच्छति, यतनया च वेरत्तिभं कुर्वन्ति । वेरत्तिओ कालो घेप्पड़ दोण्डं पहराणं उवरिं, ततो सज्झाओ कीरति, यदिवा ताए बेलाए समझाओ । उक्तं वसतिद्वारम्, इदानीं स्थानस्थितद्वारमुच्यते, तत्राह
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४
वसती शयनविधिः नि. २३१२३५
॥ ९२ ॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३५६] .. "नियुक्ति : [२३६] + भाष्यं [१०४] + प्रक्षेपं [१६...]" .. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२३६||
+COCKI+COctoCARAT
पत्ताण खेत्त जयणा काऊणावस्सयं ततो ठवणा । पडणीयपसमामग भांगसद्धे य अचियत्ते ॥ २३६॥ एवं तेषां विहरतां प्राप्तानामभिमतक्षेत्रे 'जग्रणेति यथा यतना कर्तव्या तथा च वक्ष्यति, 'कार्ड आवश्यक' कृत्वा चावश्यक-अतिक्रमणं 'ततो ठवण'त्ति ततः स्थापना क्रियते केषाश्चिकुलानां, कानि च तानीत्यत आह-'प्रत्यनीक शासनादेः 'प्रान्तः' अदानशीलः मामगो य एवं वक्ति-मा मम समणा घरमईतु, भद्रकश्राद्धौ प्रसिद्धौ ‘अचिअत्ति'त्ति यः साधुभिरागच्छद्भिर्दुःखेनास्ते, शोभनं भवति यद्येते नायान्ति गृहे । एतेषां कुलानां यो विभागः क्रियते प्रतिषेधाप्रतिधरूपः स स्थापनेत्युच्यते । इदानीं भाष्यकार एनां गाथा प्रतिपदं व्याख्यानयनाहबाहिरगामे बुच्छा उजाणे ठाणवसहिपडिलेहा । इहरा उ गहिअभंडा वसही वाघाप उडाहो ॥१०४॥ (भा०)13
दारगाहा | एवं ते बाह्यग्रामे आसन्नग्रामे पर्युषिताः सन्तोऽभिमतं क्षेत्रं प्राप्य तावदवतिष्ठन्ते । 'उज्जाणे ठाणं ति उद्याने तावत्स्थाने आस्थां कुर्वन्ति । 'वसहिपडिलेह'त्ति पुनर्वसति प्रत्युपेक्षकाः प्रेष्यन्ते । 'इहरा उत्ति यदि प्रत्युपेक्षका वसतेन प्रेष्यन्ते ततः 'गृहीतभाण्डाः' गृहीतोपकरणा वसतिव्याघाते सति निवर्तन्ते ततश्च उड्डाहो भवति-उपघात इत्यर्थः । तत्र च प्रविशतां शकुनापशकुननिरूपणायाहमहल कुचेले अन्भंगिएल्लए साण खुज बडभे या । एए उ अप्पसस्था हवंति खित्ताउ निंताणं ॥१०॥(भा०) नारी पीवरगम्भा वटुकुमारी य कट्ठभारो य । कासायवत्थ कुचंधरा य कजं न साहेति ॥ १०६॥(भा०)
AAAAAAKCE
दीप अनुक्रम [३५६]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३६०] → “नियुक्ति: [२३६...] + भाष्यं [१०७] + प्रक्षेपं [१६...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१०७||
चक्कयरंमि भमाडो भुक्खा मारो य पंडुरंगंमि। तच्चन्निरुहिरपडणं घोडियमसिए धुवं मरणं ॥१०७॥(भा)
क्षेत्रमाप्त
विधिः नि. नियुक्तिः मजबूअ चास मउरे भारहाए तहेव नउले अ । दसणमेव पसत्थं पयाहिणे सघसंपत्ती ॥ १०८॥ (भा०)
२३६ प्रवेद्रोणीया नंदीतूरं पुण्णस्स दंसणं संख पहह सदो य । भिंगारछत्त चामर घयप्पडागा पसत्थाई ॥१०९॥ (भा०) शकना वृत्तिः समणं संजयं दंतं सुमणं मोयगा दहिं । मीणं घंटे पडागं च सिद्धमत्थं विआगरे ।। ११०॥ (भा.)
प्रवेशः ॥९३॥ | एता निगदसिद्धाः॥
धमकथा: तम्हा पडिलेहिअ दीवियंमि पुषगप असइ सारविए । फड़यफड्डपवेसो कहणा न य उट्ट इयरेसिं॥१११।(भा०ाभा .१०४ | यस्मात्पूर्षमप्रत्युपेक्षितायां वसती उड्डाहो भवति तस्मात्मत्युपेक्ष्य प्रवेष्टव्यम् । 'दीवियंमिति दीपिते-कथिते शय्या-18 ११२ दातराय, यदुताचायों आगताः, 'पुधगय'त्ति पूर्वगतक्षेत्रप्रत्युपेक्षकैः प्रमार्जितः ततः साध्येव, 'असति'त्ति पूर्वगतक्षेत्रप्रत्युपे-16 पक्षकाभावे, ततःक्षेत्रप्रत्युपेक्षकः प्रविश्य 'सारविते' प्रमार्जितायां वसती, कथं प्रवेष्टव्यमित्यत आह-फडकफडकैः प्रवेशः ४ कर्त्तव्यः । 'कहण'त्ति यो धर्मकथालन्धिसंपन्नः स पूर्वमेव गत्वा शय्यातराय बसतेबहिधर्मकथां करोति । 'न य उद्दत्ति
न चासौ धर्मकथां कुर्वन् 'उत्तिष्ठति' अभ्युत्थानं करोति 'इयरेसिं'ति ज्येष्ठाणाम् , आह-किमाचार्यागमने धर्मकथी अभ्युत्थानं करोति उत नेति !, आचार्य आह-अवश्यमेवाभ्युत्थानमाचार्याय करोति, यतोऽकरणे एते दोषाः
TO॥१३॥ आयरियअणुट्ठाणे ओहावण बाहिरा यक्खिण्णासाहणयवंदणिज्जा अणालवंतेऽवि आलावो ॥११॥(भा०) | आचार्यागमने सत्यनुत्थाने 'ओहावण'त्ति मलना भवति, 'बाहिर'त्ति लोकाचारस्य बाह्या एत इति, पश्चानामप्यङ्गुली-11
दीप अनुक्रम [३६०]
For P
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३६५] → “नियुक्ति: [२३६...] + भाष्यं [११२] + प्रक्षेपं [१६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||११२||
नामेका महत्तरा भवति, 'अदक्षिणत्ति दाक्षिण्यमप्येपामाचार्याणां नास्तीत्येवं शय्यातरश्चिन्तयति । 'साहणय'त्ति तेन धर्मकथिनाऽऽचार्याय कथनीयं यदुतायमस्मसतिदाता । 'वंदणिज'त्ति शय्यातरोऽपि धर्मकथिनेदं वक्तव्यो-वन्द-14 नीया आचार्याः, एवमुक्ते यदि असौ वन्दनं करोति ततः साध्वेव, अथ न करोति ततः 'अणालवंतेऽवि तस्मिन् शय्यातरेऽ. नालपत्यपि आचार्येणालापका कर्तव्यः, यदुत कीदृशा यूयम् ? । अथाचार्य बालपनं न करोति तत एते दोषाः*वुड्डा निरोवयारा भग्गहणं लोगजत्त वोच्छेभो।तम्हा खलु आलवर्ण सयमेव उ सत्य धम्मकहा॥११॥(भा०) ला तथाहि-एत आचार्यास्तथा निरुपकारा-उपकारमपि न बहु मन्यन्ते, 'अग्गहण ति अनादरोऽस्थाचार्यस्य मा प्रति,
'अलोगजत्तत्ति लोकयात्राबाह्याः, 'वोच्छेओ'त्ति व्यवच्छेदो वसतेरन्यद्रव्यस्य वा, तस्मात्सल्वालपना कर्त्तव्या, स्वयमेव |च तत्र धर्मकथा कर्त्तव्याऽऽचार्येणेति ॥
वसहिफलं धम्मकहा कहणअलद्धी उसीस वावारे। पच्छा अइंति वसहि तत्थ य भुजोइमाजयणा॥११४॥(भा० RI धर्मकथा पुर्वन् वसतेः फलं कथयति, 'कहणअलद्धी उ' यदा तु पुनराचार्यस्व भर्मकथालब्धिनं भवति तदा 'सीमा
वावारित्ति शिष्यं 'व्यापारयति' नियुक्रे धर्मकथाकथने, शिष्यं च धर्मकथायां व्यापार्य पश्चादाचार्याः प्रविशन्ति वसति
तत्र च वसतौ 'भूयः पुनः 'इयं' बतना वक्ष्यमाणलक्षणा कर्तव्या ॥ पिडिलेहण संघारम आयरिए तिषिण सेसज कमेण। विंटिअउक्खेवणया पविसह ताहेय घम्मकही॥११५॥(मा)
। तत्र च वसती प्रविष्टाः सन्तः पात्रकादेः प्रत्युपेक्षणां कुर्वन्ति, संस्तारकग्रहणं च क्रियते, तत आचार्यस्य त्रयः संस्तारका
SUCCECACCC
दीप अनुक्रम [३६५]
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||११६||
दीप
अनुक्रम [३६८]
श्री ओघनिर्युक्तिः द्रोणीया
वृति:
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [ ३६८]
“निर्युक्ति: [२३६...] + भाष्यं [ ११६ ] + प्रक्षेपं [ १६...]" FO मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
निरूप्यन्ते, शेषाणां क्रमेण यथारलाधिकतया, ते च साधव आत्मीयात्मीयोपधिवेण्ट लिकानामुत्क्षेपणं कुर्वन्ति येन भूमिभागो ज्ञायते, अस्मिन्नवसरे बाह्यतो धर्मकथी संस्तारकग्रहणार्थं प्रविशति ॥
उच्चारे पासवणे लाउय निल्लेवणे य अच्छणए । पुषट्टिय तेसि कहेऽकहिए आवरण बोच्छेओ ।। ११६ ॥ ( भा० )
॥ ९४ ॥
तेहि क्षेत्रप्रत्युपेक्षका उच्चाराव भुवं दर्शयन्ति ग्लानाद्यर्थे, 'पासवणे'त्ति कायिकाभूमिं दर्शयन्ति, लाउए' त्ति तुम्बकत्रे४ पणभुवं दर्शयन्ति, निर्लेपनस्थानं च दर्शयन्ति, 'अच्छणएत्ति यत्र स्वाध्यायं कुर्वद्भिरास्यते 'पूर्वस्थिताः' क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः, एवं 'तेषां' आगन्तुकानां कथयन्ति । 'अकहिए'ति यदि न कथयन्ति ततः 'आयरण वोच्छेओति अस्थाने कायिकादेराचरणे सति व्यवच्छेदस्तद्रव्यान्यद्रव्ययोः, वसतेर्निर्द्धादयतीति ॥
भत्तद्विआ व खवगा अमंगलं चोयए जिणाहरणं । जइ खमगा वंदता दायंतियरे विहिं वोच्छं ॥ ११७ ॥ (भा० ) ते हि श्रमणाः क्षेत्रं प्रविशन्तः कदाचिद्भक्तार्थिनः कदाचित्क्षपका उपवासिका इत्यर्थः, तत्रोपवासिकानां प्रविशतां 'अमंगलं चोयए'ति चोदक इदं वक्ति, यदुत क्षेत्रे प्रविशतां अमङ्गलमिदं यदुपवासः क्रियते, तत्र 'जिनाहरण' मिति जिनोदाहरणं, यथा हि जिना निष्क्रमणकाले उपवासं कुर्वन्ति न च तेषां तदमङ्गलं, किन्तु प्रत्युत मङ्गलं तत्तेषामेवमिदमपीति । इदानीं यदि क्षपकास्तस्मिन् दिवसे साधव उपवासिकास्तत्र च सन्निवेशे यदि श्रावकाः सन्ति ततस्तद्गृहेषु चैत्यानि वन्दन्तो दर्शयन्ति, कानि ? - स्थापनादीनि कुलानि आगन्तुकेभ्यः, 'इयरे' त्ति भक्तार्थिषु यो विधिस्तं वक्ष्ये । कश्वासौ विधिरित्यत आह
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धर्मकथाः
भा. ११४११५ वसतिविभागः
भा. ११६ कुलस्थापना भा. ११७
॥ ९४ ॥
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||१८||
दीप
अनुक्रम [३७१]
EducationT
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [३७१]
“निर्युक्ति: [२३६...] + भाष्यं [ ११८ ] + प्रक्षेपं [१६...]"
८०
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
| सवे दद्धुं उग्गाहिएण ओयरिअ भयं समुप्पज्जे । तम्हा तिहु एगो वा उग्गाहिअ चेइए वंदे ॥ ११८ ॥ (भा० ) ते हि भक्तार्थिनः श्रावककुलेषु चैत्यवन्दनार्थं व्रजन्तः यदि सर्व एव पात्रकाण्युद्भाह्य प्रविशन्ति ततः को दोष इत्यत आह- 'दहुमुग्गाहिएहिं ओदरिअत्ति दृष्ट्वा सान् साधून् पात्रकैरुद्राहितैः औदरिका एत इति भट्टपुत्रा इति, एवं श्रावकश्चिन्तयति । 'भयं समुप्पज्जेत्ति भयं च श्रावकस्योत्पद्यते, यदुत कस्याहमत्र ददामि ? कस्य वा न ददामीति?, कथं वा एतावतां दास्यामीति यस्मादेवं तस्मात् 'तिदुएगो वा' त्रय उग्राहितेन प्रविशन्ति आचार्येण सह द्वौ वा एको वा उद्भा हितेन प्रविशति चैत्यवन्दनार्थमिति ॥ अतः - सद्वाभंगोऽणुग्गाहियंमिटवणाया य दोसा उ । घरचेहअ आयरिए कइवयगमणं च गहणं च ॥ ११९ ॥ ( भा०)
अतिपात्रका एव प्रविशन्ति, दातव्ये च मतिर्जाता श्राद्धस्य, ततश्च पात्रकाभावेऽग्रहणमग्रहणाच्च श्रद्धाभङ्गो भवति । अथैवं भणन्ति पात्रकं गृहीत्वाऽऽगच्छामि ततश्च स्थापनादिका दोषा भवन्ति, आदिशब्दात्कदाचित्संस्कारमपि कुर्वन्ति, तस्माद्गृहचैत्यवन्दनार्थ आचार्येण कतिपयैः साधुभिः सह गमनं कार्य, ग्रहणं घृतादेः कर्त्तव्यमिति । 'पत्ताण | खेत्तजयण'त्ति व्याख्यायते
संमि अमी तिहाणट्ठा कर्हिति दाणाई । असई अ चेइयाणं हिंडता चैव दायंति ॥ १२० ॥ ( भा० ) यदि तत्क्षेत्रमपूर्व न तत्र मासकल्पः कृत आसीत् ततः 'तिद्वाणत्थि 'ति त्रिषु स्थानेषु श्रावकगृहचैत्यवन्दनवेलायां
अथ 'स्थापनाकुल'स्य स्थापना विधिः वर्ण्यते
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३७३] - "नियुक्ति: [२३६...] + भाष्यं [१२०] + प्रक्षेपं [१६...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१२०||
॥१५॥
स्थापनाकुभिक्षामटन्तः प्रतिक्रमणावसाने वा कथयन्ति दानादीनि कुलानि । असई अ चेइयाण' यदा पुनस्तत्र श्रावककुलेषु चैत्यानि श्रीओघ
लस्थापनानियुक्तिः न सन्ति ततोऽसति चैत्यानां भिक्षामेव हिण्डन्तः कथयन्ति । कानि पुनस्तानि कथयन्तीत्यत आह
भा.११८द्रोणीया दाणे अभिगमसद्धे संमत्ते खलु तहेव मिच्छत्ते । मामाए अचियत्ते कुलाइं दायंति गीयस्था ॥ १२१॥ (भा०) १२३ वृत्तिः
| दानश्राद्धकान् अभिगमश्राद्ध (द्धान्)अभिनवसम्यक्त्वसाधुः(श्राद्धान्)तथा मिथ्यादृष्टिकुलानि कथयन्ति । शेषं सुगमम् । इदानीं यदि तत्र चैत्यानिन सन्ति उपवासैन भिक्षा पर्यटिता तत आवश्यकान्ते क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः कथयन्त्याचार्याय, एतदेवाह-| कयउस्सग्गामंतण पुच्छणया अकहिएगयरदोसाठवणकुलाण य ठवणा पविसइ गीयत्थसंघारो॥१२शा(भा०)
आवश्यककायोत्सर्गस्यान्ते 'आमंतणत्ति आचार्य आमन्त्र्य तान् प्रत्युपेक्षकान् 'पुच्छणयत्ति पृच्छति, यदुत कान्यत्र स्थापनाकुलानि ! कानि चेतराणि ?, पुनश्च ते पृष्टाः कथयन्ति, 'अकहिएगतरदोस'ति क्षेत्रप्रत्युपेक्षकैरकथितेषु कुलेषु सत्सु एकतर:-अन्यतमो दोषः-संयमात्मविराधनाजनितः, कथिते च सति स्थापनादिकुलानां स्थापना क्रियते । पुनश्च स्थापनाकुलेषु गीतार्थसङ्घाटकः प्रविशति ।।
गच्छमि एस कप्पो वासावासे तहेव उष्टुषद्धे । गामागरनिगमेसुं अइसेसी ठावए सही ॥१२३ ॥ (भा०) NI गच्छे 'एष कल्पः' एप विधिरित्यर्थः, यतः स्थापनाकुलानां स्थापना क्रियते, कदा ?-'वासावासे तहेव उडुबडे' वर्षा-IN
काले शीतोष्णकालयोश्च । केषु पुनरयं नियमः कृतः ? इत्यत आह-'गामागरनिगमेसुं' ग्रामः-प्रसिद्धः आकरः-सुवर्णादे
ASSOCIDCORECAS
दीप अनुक्रम [३७३]
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
||१२३||
दीप
अनुक्रम [३७६]
Eturati
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) मूलं [ ३७६] ● → “निर्युक्तिः [२३७] + भाष्यं [१२३] + प्रक्षेपं [१६...]” ८० मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र -[ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
रुत्पत्तिस्थानं निगमो - वाणिजकप्रायः सन्निवेशः, एषु स्थापनाकुलानि स्थापयेत् । किंविशिष्टानीत्यत आह- 'अतिसेसि ति स्फीतानीत्यर्थः 'सङ्घि'त्ति श्रद्धावन्ति कुलानि स्थापयेदिति ॥
किं कारणं चमढणा दवखओ उग्गमोऽवि अ न सुज्झे । गच्छंमि निययको आयरियगिलाणपाहुणए ॥ २३७ ॥ किं कारणं तानि कुलानि स्थाप्यन्ते ?, यतः 'चमढणत्ति अन्यैरन्यैश्च साधुभिः प्रविशद्भिश्वमढ्यन्ते - कदर्थन्त इत्यर्थः, ततः को दोष इत्यत आह- 'दवखओ' आचार्यादियोग्यानां द्रव्याणां क्षयो भवति । 'उग्गमोऽवि अं न सुज्झे' उद्गमस्तत्र गृहे न शुद्धयति । 'गच्छे'त्ति नियतं कार्य योग्येन, केषामित्यत आह- 'आयरिअगिलाणपाहुणए' आचार्यग्लानप्राघूर्ण - कानामर्थाय नित्यमेव कार्य भवति इति नियुक्तिगोथयम्, इदानीं भाष्यकारो व्याख्यानयति, तत्र 'चमढण'ति व्याख्यानयन्नाह [दारगाहा ]
पुर्विपि वीरसुणिआ छिका छिका पहायए तुरिअं । सा चमढणाए सिन्ना संतंपि न इच्छए घेतुं ॥ १२४ ॥ ( भा० ) जहा काचित् वीरणि केणइ आहिंडइलेणं तित्तिरमयूराईणं गहणे छिक्कारिआ तित्तिराईणि गिण्हेइ, एवं पुणो तित्तिराईहिं विणावि सो छिछिकारेइ, सा य पहाविभा जया न किंचि पेच्छर तथा विआरिआ संती कजेवि न धावति, एवं सहयकुलाई अण्णमण्णेहिं चमदिजंताई पञोयणे कारणे समुप्पण्णेऽवि संतंपि न देति । किं कारणं १, जतो अकारणा एव निचोइयाणि तेण कारणे समुप्पण्णेवि न देंतित्ति । इदानीं गाथाऽक्षरार्थ उच्यते- पुनरपि वीरशुनी छीत्कृता छीत्कृता प्रधावति त्वरितं, पुनश्चासौ अलीकचमढणतया सिन्ना-विश्रान्ता सदपि मयूरादि नेच्छति ग्रहीतुम् ॥
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||१२५||
दीप
अनुक्रम [३७९]
श्रीओपनिर्युक्ति: द्रोणीया
वृत्तिः
॥ ९६ ॥
Eticatur
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [३७९]
“निर्युक्ति: [२३७...] + भाष्यं [ १२५ ] + प्रक्षेपं [ १६...]" FO मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
एवं सहकुलाई चमदिजताई ताई अण्णेहिं । निच्छंति किंचि दाउँ संतंपि तयं गिलाणस्स ॥ १२५ ॥ (भा० ) सुगमा ॥ " चढण "त्ति गयं, "दबक्खय" त्ति व्याख्यायते
दक्खएण पंतो इस्थि वाएज कीस ते दिण्णं । भहो हद्वपहट्टो करेज अनंपि समण्डा ।। १२६ ।। ( भा० )
बहूनां साधूनां घृतादिद्रव्ये दीयमाने तद्रव्यक्षयः संजातस्ततस्तेन द्रव्यक्षयेण यदि प्रान्तो गृहपतिस्ततः स्त्रियं घातयेत्, एतच्च भणति किमिति तेभ्यः प्रव्रजितेभ्यो दत्तम् । “दवक्खए"ति गयं, 'उग्गमोबि अ न सुज्झेति व्याख्यायते, तत्राह 'भद्दो हपहडो करेज अन्नंपि साहूणं' भद्रो यदि गृहपतिस्ततो दत्तमपि मोदकादि पुनरपि कारयेत् । "उग्गमोऽविव न सुज्झे" ति गयं । “गच्छंमि निययकजं आयरिए "त्ति व्याख्यानयन्नाह -
आयरिअणुकंपाए गच्छो अणुकंपिओ महाभागो । गच्छाणुकंपयाए अघोच्छिन्ती कया तिस्थे ।। १२७ ।। (भा०) सुगमा ॥ इदानीं “गिलाण "त्ति व्याख्यायते
परिहीणं तं दयं चमडिज्जंतं तु अण्णमण्णेहिं । परिहीणं मि य दवे नत्थि गिलाणरस णं जोग्गं ।। १२८ ।। (भा० ) सुगमा ॥ तथा चात्र दृष्टान्तो द्रष्टव्यः
चत्ता होंति गिलाणा आयरियां बालबुहसेहा य । खमगा पाहुणगाविय मन्त्राय महकमतेणं ॥ १२९ ॥ भा०) सारक्खिया गिलाणा आयरिया बालबुद्दसेहा य । खमगा पाहुणगाविय मज्जायं ठावतेणं ॥ १३०॥ (भा० )
सुगमे ॥
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स्थापनाकु
लस्थापना
नि. २३७
भा. १२४१३०
॥ ९६ ॥
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३८६] » “नियुक्ति: [२३८] + भाष्यं [१३१] + प्रक्षेपं [१६...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१३१||
जो मडिसे चारी बासे गोणे अ तेसि जावसिआ। एएसि पडिवक्खे चत्तारि उ संजया हंति ॥ २३८॥
जहा एक महाबीर्य परिसूअं, तत्थ य चारीभो नाणाविहाओ अस्थि, संअहा-जइस्स-हत्थिस्स जा होड़ सा बोच वा सत्य अस्थि, महिसस्स सुकुमारा जोग्गा सावि तत्थ अस्थि, आसस्स महुरा जोग्गा साबि तस्य अस्थि, गोणस्त सुर्यभा दाजोग्गा सावि तत्थ अस्थि, तं च रायपुरिसेहिं रक्खिजइ ताणं व जड्डाईणं, जाइ परं कारणे पसिना आणेति, पब
पुण तं मोकलय मुच्चार ताहे पट्टणगोणेहिं गामगोणेहिं चमदिजह, चमढिए अ सस्सिं महापरिसूए ताणं रायकेराणं जडा-12 ४ाणं अणुरुवा चारी ण लन्भइ, विध्वंसितत्वात् गोधनस्तव, एवं सढयकुलाणिवि जइन रक्खियति ततो असमरियर
चमदिति, तेसु चमढिएसु जं जडाइसब्भावपाहुणयार्ण पाउग्गं तं न देंति ॥ इदानीमक्षरार्थ उच्यते-अड्डो-खी महिषः-प्रसिद्धस्तयोरनुरूपां चारी यावसिका-यासवाहिका ददति, तथा अश्वस्य गोणो-बलीवर्दस्तस्य च चारीमानयन्ति यावसिकाः । 'पतेषां जड्डादीनां प्रतिरूपः-अनुरूपः पक्षः प्रतिपक्षः तुल्यपक्ष इत्यर्थः तस्मिन् चत्वारः संयताः माधूर्णका भवन्ति । इदानीमेतेषामेव जड्डादीनां यथासक्वेन भोजन प्रतिपादयन्नाहजडा जं वा तं वा सुकुमारं महिसिओ महुरमासो। गोणो सुगंधदर इच्छद एमेव साहूपि ॥ १३१ ॥ (भा०)
सुगमा ॥ नवरं साधुरप्येवमेव द्रष्टम्यः-सत्थ पढमो पाहुणसाहू भणइ-जं मम दोसीणं अण्हर्ग वा कंजिअं वा लम्भइ तं चेव आणेहि, तेण एवं भणिते किंी-दोसीणं चेव आणिअषं, न विसेसेणं तस्स सोहणं तस्स आणेयर्थ । बितिमओ पाहुणसाद भणइ-वरं मे णेहरहियावि पूयलिआ सुकुमाला होउ । ततिभो भणति-महुरं नवरि मे दोज । चजस्थो भणति
दीप अनुक्रम [३८६]
मो०१७
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Hinduranorm
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३८७] → नियुक्ति: [२३८...] + भाष्यं [१३२] + प्रक्षेपं [१६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१३२||
श्रीओघ- निष्पडिग, अंबपाणं वा होउ । एवं ताणं भणंताणं जं जोग्गं तं सहृयकुलेहितोवि सेसयं आणिज्जइ । एवमुक्त सत्याहट स्थापनाकुनियुक्ति परः-यस्मादेवं तस्मान्न कदाचित्केनचित्प्रवेष्टव्यं प्राघूर्णकागमनमन्तरेण श्रावककुलेषु, यदैव प्राघूर्णका आगमिष्यन्ति
लस्थापन द्रोणीया तदैव तेषु प्रवेशो युक्तः, एवमुक्ते सत्याहाचार्यः
नि.२३८ वृत्तिः
भां.१३१एवं च पुणो ठविए अप्पविसंते भवे इमे दोसा । बीसरण संजयाणं विसुक्खगोणी अ आरामो॥१३२॥ (भा०)
१३२ | एवं च पुनः 'ठविते' स्थापिते स्थापनाकुले यदि सर्वथा न प्रवेशः क्रियते तदैते दोषाः। अप्रविशत्सु एते दोषाः-वीसरण-12 दसंजयाणं' विस्मरणं संयतविषयं तेषां श्रावकाणां भवति, तत्र च विशुष्कगोण्या-गवा आरामेण च दृष्टान्तः, जहा एगस्स
माणस्स गोणी सा कुंडदोहणी ताहे सो चिंतेति-एसा गावी बहुअं खीरं देइ मज्झ य मासेण पगरणं होहिति तो| अच्छउ ताहे चेव एकवारिआए दुन्जिहिति, एवं सो न दुहति, ताहे सा तेण कालेण विसुक्का तदिवसं विदुपि न दे। एवं संजया तेसिं सहाणं अणतिअंता तेसिं सहाणं पम्हुडा ण चेव जाणंति किं संजया अस्थि न वा?, तेवि संजया जंमि | दिवसे कजं जायं तद्दिवसे गया जाव नस्थि ताणि दवाणि, तम्हा दोण्ह वा तिण्ह वा दिवसाणं अवस्स गंतषं ॥ अथवा
आरामदिहतो, एगो मालिओ चिंतेइ-अच्छंतु एयाणि पुष्पाणि अहं कोमुईए एकवारिआए उबेहामि जेण बहूणि हुंति, दाताहे सो आरामो उफुल्लो कोमुईए न एकपि फुलं जायं । एवं सावगकुलेसु पए चेव दोसा एकवारिआए पधिसणे तम्हा ॥९७॥
पविसिअचं कहिंचि दिवसेत्ति ॥ इदानीं योऽसौ आचार्यादीनां वैयावृत्त्यकरः श्राद्धकुलेषु प्रविशति स एभिर्दोपिपिरहितो नियोक्तव्यः
ॐॐॐ
दीप अनुक्रम [३८७]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३८८] → नियुक्ति: [२३८...] + भाष्यं [१३३] + प्रक्षेपं [१६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१३३||
अलसं घसिरं सुविरं खमगं कोहमाणमायलोहिल्लं । कोहलपडिबद्धं वेयावचं न कारिजा ॥ १३३ ॥(भा०) ___ अलसो आलसितो सो वेयावच्चं न कारेयबो, जदि कारवे असमाचारी, सो आलस्सेण ताव अच्छइ जाव फिडिओ देसकालो, ताहे पच्छा सहयाणि जं किंचि देति तेण आयरिआईणं विराहणा, अहवा सो अइप्पए वच्चइ कर्म निषाहि होउत्ति, ताहे तत्थ अकाले वच्चंतस्स तस्स ते चैव दोसा, अथवा ताणि धम्मसडियआ ओसकणदोसे उस्सकणदोसे वा करेजा ठवियगदोसा वा, अहवा आयरियाणं निमित्तं पए वा उस्सूरे उवक्खडेजा, एते एवमाइया अलसे दोसा। घसिरो बहुभक्खगो, सोवि ण पट्टवेयधो, सो पढमं चेव अप्पणो अडाए हिंडइ पज्जतं, जाव सो अप्पणो पजत्तं हिंडइ ताव फिडिआ वेला, अहवा तत्थेव पढम वच्चइ पच्छा तत्थ य ण चेव वेला होइ, ते चेवोस्सकाणादिआ दोसा, अहवा| तत्थ सहकुले पभूयं गेण्हइ ताहे उग्गमदोसा न सुज्झति । सुविरो ताव सुबइ जाव फिडिआ भिक्खावेला, अहवा पढमं तत्थ गंतुं अवेलाए पच्छा सुयइ ते चेव दोसा । खमओ जइ अप्पणो हिंडइ ताहे आयरिआ परितावणादि पार्वति, अह खमओ आयरिआणं गेण्हइ ततो अप्पणो परितावणादि पावइ । कोहिलो पुषलाभाओ फिडितो सकोहिओ संतो भणइ-अम्हे अण्णतो लभामः, तंपि तुझपच्चएण न गेण्हामो, अहवा घेवं लब्भइ तत्थ भंडइ, अहवा ऊर्ण पाणेण वा | तेमणेण वा तत्थवि रूसति । माणिओ जइ न अब्भुडिजति तो पुणो न एइ, को विसेसो सावगाणति ? । माइल्लो भद्दगं भद्दगं अप्पसागरि भोच्चा पंतं आणेति । लोभिल्लो जत्तिलभति तं सर्व गेण्हति, एसणं वा लोभेणं पेल्लेज्जा कोऊहल्लिलो। जत्थ नडादि पेच्छइ तत्थ पेच्छतो अच्छइ । पडिबद्धो जो सुत्तत्थेसु अल्लिओ तो सो ताव अच्छा जाव कालवेला जाया
दीप अनुक्रम [३८८]
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81%
84-%
ॐ454318
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३९५] . "नियुक्ति: [२३८...] + भाष्यं [१३४] + प्रक्षेपं [१७-२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
स्थापनाक
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१३४||
श्रीओप- एए दोसा तम्हा परिसं साहुं वेयावञ्च न कारेज्जा । कीदृशं पुनः कारयेयावृत्यम् । इत्यत माहनियुक्तिःपयोसविमुकं कडजोगि नायसीलमायारं । गुरुभत्तिसंविणीयं वेयावचं तु कारेजा ॥ १४ ॥ (भा.)
लस्थापन द्रोणीया || एभिरुक्तदोषर्विमुक्तं, किंविशिषम् । इत्याह-'कडजोगि'त्ति कृतो योगो-घटना ज्ञानदर्शनचारित्रः सह येन स कृत-IA
(नि.२६८हायोगी-गीतार्थः तं, पुनरसावेव विशिष्यते-ज्ञाती शीलमाचारश्च यस्य तं वैयावृत्त्वं कारयेत् । गुरी भक्तिः-भावप्रतिबन्धः
|भाः१३३
१३६ ॥९॥
संविनीतो-बाह्योपचारेण ॥
साहति अपिअधम्मा एसणवोसे अभिग्गहविसेसे । एवं तु विहिग्गहणे दवं बहुंति गीयस्था ॥ १३५ ॥(भा०) 18 ते चैव वैयावृत्त्यकराः श्राजकुलेषु प्रविष्टाः सन्तः कथयन्ति 'एषणादोषान्' शक्लितादीन् अभिग्रहविशेषांश्च साधसंब-18
धिनः, कीरशास्ते वैयावृत्त्यकराः-प्रिया-मष्टो धर्मो येषां ते प्रियधर्माणः 'एवं' उक्तेन प्रकारेण विधिग्रहणं अष्टण्यं, प्रतामादिवृद्धिं नयन्ति अव्यवपिछत्तिलाभेन, के ?-गीसार्थाः । तैश्च गीतार्थमिक्षा गृहनिः श्राजकुले इदं ज्ञातम्यम्
दवप्पमाणगणणा खारिअफोडिअ तहेष अद्धा य । संबिग्ग एगठाणे अणेगसाहसु पारस ॥१३६॥(भा) &ा न्य-गोधूमादि तद्विज्ञेयं कियत्सूपकारशालायां प्रविशति दिने दिने ततश्च तदनुरूपं गृहाति, 'गणण'त्ति पवायम्मा-1|| त्राणि घृतगुडादीनि प्रविशन्स्यस्मिन् इत्येतावन्मानं ग्राह्यम् । 'खारित्ति सलवणानि कानि-न्यानामि-सलवणकरीरादीनि कियन्ति सन्ति । इति, ततश्च ज्ञात्वा यथाऽनुरूपाणि गृहासि । 'फोडिअसि वाइंगणाणि मत्थाकोडिमाणि कति- ॥९८ आणि घरे सिझिजति नाऊण जहारूवाणि घेति । तथा अद्धा यत्तिकाल उच्यते, किमत्र महरे बेला आहोवित्पहरबये|
ACASSADS
दीप अनुक्रम [३९५]
JMEairatnDE
Momrary on
अत्र षड् प्रक्षेप-गाथा: वर्तते. मया संपादित “आगम सुत्ताणि" मूलं अथवा सटीकं पुस्तके सा मुद्रित सन्ति
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३९७] → नियुक्ति: [२३८...] + भाष्यं [१३६] + प्रक्षेपं [२२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१३६||
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इति विज्ञेयं, 'सैविग्ग एगठाणे'त्ति संविनो-मोक्षाभिलाषी 'एगाणे'त्ति एकः सहाटकः प्रविशति, 'अणेगसासुत्ति अनेकेषु साधुषु प्रविशत्सु 'पण्णरस'त्ति पञ्चदश दोषा नियमावन्ति "आहाकम्मुद्देसिअ" इत्येवमादयः । अझोयरओ मीसजायंचएको भेओ, यस्मादनेकेषु साधुषु दोषास्तस्मात् संघाडेगो ठवणाकुलेसु सेसेसु पालबुहाई । तरुणा बाहिरगामे पुच्छा दिवतऽगारीप ॥१३७॥ (भा०)
सहाटकर एका स्थापनाकुलेषु प्रविशति, शेषेषु कुलेषु वाला वृद्धाश्च प्रविशन्ति, आदिशब्दात्क्षपकाश्च । तरुणाः-शक्तिमन्तो बहिर्मामे हिण्डन्ति । अत्र चोदकः पृच्छति-पूर्वमेव क्षेत्र प्रत्युपेक्षितं यत्र सबालवृद्धस्य गच्छस्यामपानं पर्याप्त्या भवति तय स्थीयते ततः कस्मात्तरुणा बहि मे हिण्डन्ति ?, आचार्य आह-दिईतगारीप' एकस्या अगायर्या दृष्टान्तो दातम्या, संघ तृतीयगाथायां भाष्यकारो वक्ष्यति । तथा इयमपरा द्वारगाथा* पुच्छा गिक्षिणो चिंता दिहतो तत्थ खजयोरीए । आपुच्छिऊण गमणं दोसा य इमे अणापुच्छे ॥ २३९।।
'पुच्छत्ति चोदकः पृच्छति, ननु च तस्या अगार्या घृतादिसवहः कर्तुं युक्तो भर्तृप्रदत्ततयणिमध्यात् येन प्राघूर्णकादेः सुखेनैवोपचारः क्रियते, साधूनां पुनः स्थापनाकुलसंरक्षणे न किनित्प्रयोजनं यतस्तत्र यावन्मावस्याहारस्य पाका * क्रियते तत्सर्वं प्रतिदिवसमुपयुज्यते, न तु तानि कुलानि संचयित्वा साधुपाघूर्णकागमने सर्वमेकमुखेनैव प्रयच्छंति, एवं
चोदकेनोके आचार्य आह-'गिहिणो चिंता' गृहिणश्चिन्ता भवति, यदुस-एते साधवः प्रापूर्णकाद्यागमने आगच्छन्ति | ततश्च एतेभ्यो यलेन देयमिति, एवंविधामादरपूर्विको चिन्तां करोति । यत्रोक्तं तरुणा बहिर्मामे किमिति हिण्डन्ति 1,
दीप अनुक्रम [३९७]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३९८] .. "नियुक्ति: [२३९] + भाष्यं [१३७] + प्रक्षेपं [२२...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
श्रीओषनियुक्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१३७||
द्रोणीया वृत्ति
॥ १९॥
'दिईतो तत्व खुजबोरीए' स च दृष्टान्तो वक्ष्यमाणः । 'आपुच्छिऊण गमणं ति तत्र च बहिर्गामादौ आचार्यमापृच्छ्य स्थापनाकुगन्तव्यं, यतः 'दोसा य इमे अणापुच्छत्ति दोषा अनापृच्छायामेते च वक्ष्यमाणलक्षणा दोषाः । इदानीं भाष्यकारः प्रति
लस्थापन
भा.१३७ पदमेतानि द्वाराणि व्याख्यानयति, तत्र च यदुक्तं दृष्टान्तोऽगार्याः, स उच्यते-एगो वाणिओ परिमि भत्तं अप्पणो |
१३९ महिलाए देइ, सा य ततो दिणे दिणे थोवं थोवं अवणेइ, किं निमित्तं ?, जदा एयस्स अवेलाए मित्तो वा सही वा ए-3 द इस्सइ तदा किं सक्का आवणाउ आणेलं, एवं सबतो संगहं करोति, अण्णया तस्स अवेलाए पाहुणगो आगतो, ताहे सोद
भणइ-किं कीरउ ? रयणी वट्टई णीसंचाराओ रत्थाओ, ताहे ताए भणि-मा आतुरो होहि, ताहे तस्स पाहुणगस्स| उवक्खडिअं, गतो तग्गुणसहस्सेहिं वहृतो भत्तारोऽवि से परितुष्टो। एवं आयरिआवि ठवणकुलाई ठवेंति जेण अवेलागयस्स | पाहुणयस्स तेहितो आणेउं दिजइ, तेण तरुणा संतेसुवि कुलेसु बाहिरगामे हिंडं तित्ति । इदाणिं एसिं चेव विवरीओ भण्णइ, अण्णो अण्णाए गारीए परिमिअं देइ, सा य तओ मज्झाओ थोवं थोवन गेण्हइ, तओ पाहुणए गए विसूरेति, अमुमेवार्थं | गाथाद्वयेनोपसंहन्नाहपरिमिअभत्तगदाणे नेहादवहरइ थोव थोवं तु । पाहुण बियाल आगम विसन्न आसासणादाण॥१३८॥(भा०)
परिमितभक्तप्रदाने सति साऽगारी नेहादि-घृतादि स्तोकं स्तोकमपहरति । पुनश्च प्राघूर्णकस्य विकालागमने विषण्णः । खिया आश्वासितः 'दाणं ति तथा स्त्रिया भक्तदानं दत्तं प्राघूर्णकायेति ॥ एवं पीइविवुही विवरीयपणेण होइ दिहतो । लोउत्तरे विसेसो असंचया जेण समणा उ ॥ १३९ ॥ (भा०)
ANAGAR
दीप अनुक्रम [३९८]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४०१] .. "नियुक्ति: [२३९] + भाष्यं [१३९] + प्रक्षेपं [२२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१३९||
एवं तयोर्दम्पत्योः प्रीतिवृद्धिः संजाता, विपरीतश्चान्येन प्रकारेण भवति दृष्टान्तः । एवं तावद्यदि गृहस्था अपि सनयपरा भवन्ति-अनागतमेव चिन्तयन्ति, साधुना पुनः कुक्षिशम्बलेन सुतरामनागतमेव चिन्तनीय, यदि परं लोकोत्तरेऽयं है। विशेषः, यदुत निःसञ्चयाः सुतरां चिन्तामाचार्या वहन्तीति । “पुच्छा दिद्रुतगारी'त्ति भणिअं, इदानीं "पुच्छा गिहिणो चिंत"त्ति गाथायाः प्रथमावयव व्याख्यानयन्नाह| जणलावो परगामे हिंडिन्ताऽऽणति वसह इह गामे । दिनह बालाईणं कारणजाए य सुलभं तु ॥१४०॥(भा०) | यच्चोदकेन पृष्टमासीत्तत्रेदमुत्तरं-जनानामालापोजनालापो-लोक एवं ब्रवीति, यदुत परग्रामे हिण्डयित्वाऽऽनयन्ति-अत्र | भुञ्जते । 'वसहि इह गामे'त्ति वसतिः केवलमन्त्र एतेषां साधूनां, ततश्च 'देजई' बालादीनां ददध्वम् , आदिशब्दात्माघूर्ण| कादयो गृह्यन्ते, एवंविधां चिन्तां गृहस्थः करोति । ततश्च 'कारणजाते य सुलभ तु'त्ति एवंविधायां चिन्तायां प्राघूर्णकादिकारणे उत्पन्ने घृतादि सुलभं भवतीति । आह-किं पुनः कारणं प्राघूर्णकानां दीयते ?, तथा चायमपरो गुणःपाहुणविसेसदाणे निजर कित्ती अ इहर विवरीयं । पुवं चमढणसिग्गा न देंति संतंपि कज्जेसु ॥१४१॥ (भा०) | प्राघूर्णकाय विशेषदाने सति निर्जरा कर्मक्षयो भवति, इहलोके च कीर्तिश्च भवति । इहर विवरीय'त्ति यदि प्राघूर्णकविशेषदानं न क्रियते ततश्च निर्जराकीती न भवतः, एवं प्राघूर्णकविशेषदानं न भवति, यस्मात्पूर्व चमढणसिग्गा ततश्च न देति संतपि कज्जेसु गिहिणो । चिंतत्ति वक्खाणिअं, इदानी कुन्जबदरीदृष्टान्तं व्याख्यानयन्नाहगामभासे बयरी नीसंदकडष्फला य खुजा य । पक्कामालसडिंभा घायंति घरे घया दूरं ॥ १४२ ॥ (भा०)
दीप अनुक्रम [४०१]
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४०४] → “नियुक्ति: [२३९...] + भाष्यं [१४२] + प्रक्षेपं [२२...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१४२||
श्रीओषनियुक्ति द्रोणीया वृत्ति ॥१०॥
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एगो गामो तत्थ खुज्जबोरी साय नाम णिज्जासेण कडुया तत्थ चेडरूवाणि भणति व्रजामो बोराणि खामो तत्थ खुजबोरी-I स्थापनाकुविलग्गाई ताई डिभरूवाणि तूवराईणिवि खायंति, न य पजत्तीए होइ, अण्णाणि भणंति, किं एएहि, ताहे अडविंगतया लस्थापन तत्थ घोराणि धरणीए खाइऊण बहूणि पोट्टलगा बंधिऊण आगया सिग्यतरं जाव इमे झाडेता चेव अच्छंति न भा . १४.. तत्तीया जाया, ताहे ते तेसि अमेसिंच देति । एवं चेव इमं खेत्तं चमढि, एत्थ अंबिलकूरो घेचूर्ण चेव आगच्छति |
१४५ दिवसं च हिंडेयर्ष एवं किलेसो अप्पगं च भत्तं होति,जहा ते अणालसचेडा (तहा जे तरुणा) आयपरहिआवहा तेबाहिरगाम-18 भिक्खारि जंति ताहे ते अचमटिअगामाओ खीर दहिमाइयाई घेत्तूण लहुं आगया जग्गमदोसाई य जढा होति, बालवुहा य अणुकंपया होति, वीरियायारो य अणुचिन्नो होइ, तम्हा गंतवं बाहिरगामे हिंडएहिं तरुणएहिं । इदानीममुमेवार्थ गाथाभिरुपसंहरन्नाहगामभासे.षयरी नीसंदकडुप्फला य खुज्जा य । पक्कामालसडिभा खायंतियरे गया दूरं ॥१४३ ॥ (भा०) सिग्घयरं आगमणं तेसिपणेसिं च देति सयमेव । खायंती एमेव उ आयपरिहिआवहा तरुणा ॥१४४॥(भा)
खीरदहिमाझ्याणं लंभो सिग्घतरगं च आगमणं । पहरिक उग्गमाई विजढा अणुकंपिआ इयरे ॥१४५॥ (भा०) हा गामन्भासे बदरी सा च निस्स्वन्दकटुकफला कुनाच, सा च फलिता, तत्र च फलानि 'पकाम'त्ति सानि च फलानि पक्कानिट आमानि च पक्कामानि-अर्द्धपक्कानीत्यर्थः, ये अलसा डिम्भाने भक्षयन्ति । 'इयर'त्ति अनलसाः-उत्साहवन्तो टिम्भरू-IN
सा॥१०॥ पास्ते दूरं गताः। तेषां च शीघ्रतरमागमनं संजातं ततश बाह्यत आगत्य 'तेसिं अण्णेसिंचदिति वामलसशिशूना
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दीप अनुक्रम [४०४]
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SARERamaithunand
A
ntaram.org
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४०९] → नियुक्ति: [२३९...] + भाष्यं [१४५] + प्रक्षेपं [२२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१४५||
मन्येषां च ददति स्वयमेव च भक्षयन्ति, एवमेव तरुणा अपि आत्मपरयोहितमावहन्तीति आत्मपरहितावहासरुणा एवं तरुणानां क्षीरदध्यादीनां लम्भः शीघ्रतरं चागमनं 'पहरिकेति प्रचुरतरं लभन्ते, उद्गमादयश्च दोषाः परित्यक्ता भवन्ति, तथाऽनुकम्पिताश्चेतरे-बालादयो भवन्तीति । उक्तः कुनबदरीदृष्टान्तः, इदानी “आपुच्छिऊण गमण"ति व्याख्यानयन्नाह
आपुच्छिम उम्गाहिअ अण्णं गामं वयं तु बच्चामो । अण्णं च अपजते होंति अपुच्छे इमे दोसा॥१४६॥(भा) | आपृच्च्च गुरुमुद्राहितपात्रका एवं भणन्ति, यदुत अन्य ग्रामं वयं प्रजामः, अण्णं च अपज्जत्तेति यदि तस्मिन् प्रामे पर्याप्त्या न भविष्यति ततस्तस्मादपि प्रामादन्यं ग्रामं गमिष्यामः । “आपुच्छिऊण गमण"न्ति भणिय, इदाणिं "दोसा य| इमे अणापुच्छि"त्ति व्याख्यानयन्नाह, दोषा एतेऽनापृच्च गतानां भवन्ति, के च ते दोषाः १ (तान्)व्याख्यानयन्नाहतेणाएसगिलाणे सावय इत्थी नपुंसमुच्छा य । आयरिअबालवुड्डा सेहा खमगा प परिचत्ता ॥ १४७॥(भा०) | कदाचिदन्यनामान्तराले प्रजतां स्तेना भवन्ति, ततश्च तहणे(तत्र गमने)उपधिशरीरापहरणं भवन्ति, आचार्योऽप्यकथितो न जानाति कया दिशा गता। इति, ततश्च दुःखेनान्वेषणं करोति । अथवा आपसः-पाघूर्णक आयातः, ते चाना
गताः, ते य आयरिया एवं भर्णता जहा पाहुणयस्स बट्टावेह, अहवा गिलाणस्स पाओगं गेण्हह, अहवा अंतराले साच-18 है याणि अस्थि तेहिं भक्खियाणि होति, अहवा तत्थ गामे इत्थिदोसा नपुंसगदोसा वा, अहवा मुच्छाए पडेजा ताहे न
नजइ, अपुच्छिए कयराए दिसाए गयत्ति न नजति । ततश्चानापृच्छय गच्छता बालवृद्धसेहक्षपकाः परित्यक्का भवन्ति,
दीप अनुक्रम [४०९]
| आपृच्छनं एवं गमनं विधि:
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
॥१४७||
दीप
अनुक्रम [ ४११]
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [४११] ● → मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
८०
“निर्युक्तिः [ २४०] + भाष्यं [ १४७] + प्रक्षेपं [२२...]" आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
श्री ओष-यत आचार्यादीनां प्रायोग्यमात्रं नानयन्ति अनुक्तत्वात् न च प्रच्छनं कृतं येनोच्यन्ते यत एते दोषाः परित्यागजनितानिर्युतिः स्तस्मादेतद्दोषभयात्,
द्रोणीया
वृत्तिः
॥ १०१ ॥
आयरिए आपुच्छा तस्संदिट्ठे व तंमि उवसंते । चेहयगिलाणकज्जाइएस गुरुणो अ निगमणं ॥ २४० ॥ तस्मादाचार्यमा पृथ गन्तव्यं । अथाचार्यः कथञ्चिन्न भवति 'तस्संदिट्ठे वत्ति तेनाचार्येण यः संदिष्टः यथाऽमुमापृच्छय गन्तव्यं ततस्तमापृच्छ्थ व्रजन्ति । तस्मिन्नसति-आचार्ये अविद्यमाने क्वचिन्निर्गते, केन पुनः कारणेनाचार्यो निर्गच्छति ? अत आह-'चेइय' 'चैत्यवन्दनार्थं ग्लानादिकार्येषु गुरोर्निर्गमनं भवति । अथाचार्येण गच्छता न कश्चिन्नियुक्तस्ततः :भण्णइ पुवनिउत्ते आपुच्छित्ता वयंति ते समणा । अणभोगे आसन्ने काइयउच्चार भोमाई ॥ २४९ ॥
अभणिते पूर्वनिर्युक्तान् कस्मिंश्चिद्विक्षावेलायां यः प्रागेव निर्युक्त आस्ते तमापृच्छ्य व्रजन्ति ते श्रमणा भिक्षार्थं । 'अणाभोग'ति 'अनाभोगेन' अत्यन्तस्मृतिभ्रंशेन गताः ततः 'आसन्ने त्ति आसन्ने भूमिप्रदेशे यदि स्मृतं तत आगत्य पुनः कथयित्वा यान्ति, 'काइय' कायिकार्थं यो निर्गतः साधुस्तस्मै कथयन्ति यदुत वयममुकत्र गताः । 'उच्चार भोमादि'त्ति सज्ञाभूमिं यो गतस्तस्मै कथयन्ति यदुत कथनीयमहममुकत्र गत इति, आदिग्रहणात्प्रथमालिकार्थं वा यो गतस्तस्य वा हस्ते संदिशन्ति ॥
दवमाइनिग्यं वा सेजायर पाहुणं च अप्पाहे । असई दूरगओवि अ नियत्त इहरा उ ते दोसा ॥ २४२ ॥ द्रव - पानकं तदर्थं निर्गतो यः साधुस्तं दृष्ट्वा कथयन्ति, 'सेज्जायर पाहुणं च अप्पाहे'ति शय्यातरं वा दृष्ट्वा संदि
For Pernal Use On
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आपृच्छधगमनं भा. १४६-१४७ नि. २४०२४२
॥१०१॥
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४१२] → “नियुक्ति : [२४२] + भाष्यं [१४७...] + प्रक्षेपं [२२...]" .. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२४२||
शन्ति प्रापूर्णक वा-साध्वादि दृष्ट्वा संदिशन्ति, यतः कथनीयं मम विस्मृतमिति । यदा त्वेतान् गच्छन्न पश्यति तदा दूरगतः विणियत्ति'त्ति दूरगतः सन्निवर्त्तते, 'इहरा उत्ति यदि न निवर्त्तते ततः 'ते दोस'त्ति ते पूर्वोक्ताः स्तेनादयो दोषाः भवन्तीति ।।
अण्णं गामं च वए इमाई कजाई तत्थ नाऊणं । तत्थवि अप्पाहणया नियत्तई वा सई काले ॥ २४३ ।
अधासौ साधस्तस्मादामादन्यं ग्रामं व्रजेत्, एतानि कार्याणि-वक्ष्यमाणलक्षणानि कानि?-"दूरडिअखडलए" इत्येवमादीनि 'तत्रेति तस्मिन् प्रामे योऽसावभिप्रेतो 'ज्ञात्वा' विज्ञाय, ततश्च किं कर्त्तव्यमित्यत आह-तत्रापि' अन्यस्मिन् प्रामे व्रजता 'अप्पाहणया' संदेशकस्तथैव दातव्यः, अथ कश्चिन्नास्ति यस्य हस्ते संदिश्यते ततो निवर्त्तनं वा क्रियते, कदा!, अत आह-सति काले' विद्यमाने पहुप्पति काले तत्तदनुष्ठीयते यदुक्तं, एतानि कार्याणि तत्र ज्ञात्वाऽन्यत्र प्रामे प्रजन्ति, तानि दर्शयन्नाह
दूरडिअखुड़लए नव भड अगणी य पंत पडिणीए । पाओग्गकालइक्कम एकगलंभो अपजतं ।। २४४ ॥ - प्रथम गाथा सुगम, एतानि दूरस्थितादीनि कारणानि अर्द्धपथ एव ज्ञातानि, कदाचिद्गतः सन् तत्र 'पाउग्ग'त्ति तत्र ग्रामे प्रायोग्यमाचार्यादीनां न लब्धं ततोऽन्यत्र ब्रजति, 'कालातिकम' भिक्षाकालस्य वाऽतिक्रमो जाव एकस्य वा
साधोस्तत्र भोजनलाभो जातस्ततोऽन्यनामे प्रजन्ति । 'अपजतंति न वा पर्याप्त्या तत्र भक्तजातं लब्धं पानकं वा न 18 लब्धं, एभिरनन्तरोक्तैः कारणैरन्यग्राम प्रजन्तीति ॥
दीप अनुक्रम [४१२]
NAG44560 SAKAL
455
uramorg
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४१५] » “नियुक्ति : [२४५] + भाष्यं [१४७...] + प्रक्षेपं [२२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
*
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प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२४५||
श्रीओपनियुक्तिः द्रोणीया वृत्तिः ॥१०॥
पाउग्गाईणमसई संविग्गं सण्णिमाइ अप्पाहे । जइ य चिरं तो इयरे ठवित्तु साहारणं भुजे ॥२४५ ॥ आपृच्छय
एवमसी प्रायोग्यादीनां असति अन्यग्रामं व्रजति, बजंश्च संविग्नं साधु यदि पश्यति ततस्तस्य हस्ते संदिशति, सम्झी- गती विधि: श्रावकस्तस्य हस्ते संदिशत्यन्यस्य वा आदिग्रहणात् पूर्ववच्छेषम् । एवं तावनिक्षामटतां विधिरुक्ता, ये पुनर्वसती तिष्ठन्ति 3/
| नि.२४साधवस्तैः किं कर्तव्यमित्यत आह-जह य चिरं' यदि च चिरं तेषां ग्रामं गतानां तत इतरे-वसतिनिवासिनः साधवः
२४७ 'ठवेत्तु साहारणं' यद्गच्छसाहारणं विशिष्टं किश्चित्तत्स्थापयित्वा शेषमपरं प्रान्तप्रायं भुञ्जते । अथ तथाऽपि चिरयंति| जाए दिसाए उ गया भत्तं घेर्नु तओ पडियरंति । अणपुच्छनिग्गयाणं चउदिसं होइ पडिलेहा ॥ २४६॥ ।
'जाए दिसाए उ गया' यया दिशा भिक्षाटनार्थं गतास्तया दिशा गृहीतभक्तपानकाः साधवः 'पडियरंति'त्ति प्रतिजागरणां-निरूपणां कुर्वन्ति, अथ तु ते भिक्षाटका अनाभोगेनाकथयित्वैव गतास्ततः किं कर्त्तव्यमित्यत आह-अनापृच्छच निर्गतानां भिक्षाहिण्डकानां चतसृष्वपि दिक्षु 'प्रतिजागरणं' निरूपणं कर्त्तव्यं साधुभिः । प्रतिजागरणगमनविधिः कः ?,
पंथेणेगो दो उप्पहेण सह करेंति वचंता । अक्खरपडिसाडणया पडियरणिअरेसि मग्गेणं ।। २४७॥
'पथा' मार्गेण प्रसिद्धेन एकः साधुः प्रयाति, द्वौ साधू 'उत्पधेन' उन्मार्गेण ब्रजतः, वर्त्तन्या एक एकया दिशाऽन्यश्चान्यया, ते च त्रयोऽपि जन्तः शब्दं कुर्वन्ति, तेच वजन्तः स्तेनादिना नीयमानाः साधवः किं कुर्वन्तीत्यत आह-'अक्खर'त्ति
॥१०॥ वर्तिन्यामक्षराणि लिखन्तः पादादिना ब्रजन्ति, परिसाढणय'ति परिशातनं वस्त्रादेः कुर्वन्तो प्रजन्ति येन कश्चित्तेन मार्ग-द्रा आणान्वेषयति । 'पडिअरणियरेसिति इतरेषामन्वेषणार्थं निर्गताना साधूनां मार्गेण तत्कृते चिडून प्रतिजागरणं कर्तव्यं ।
दीप अनुक्रम [४१५]
SANG KC
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४१८] → “नियुक्ति: [२४८] + भाष्यं [१४७...] + प्रक्षेपं [२२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२४८||
दीप अनुक्रम [४१८]
गामे गंतुं पुच्छे घरपरिवाडीऍ जत्थ उन दिहा । तत्थेव बोलकरणं पिंडियजणसाहणं चेव ॥ २४८॥ यदा तु पुनस्तेषां स्तेननीतानां चिहं न किञ्चित्पश्यति तदाऽपि ग्राममेव गत्वा पृच्छति, कर्थ, गृहपरिपाट्या, 'जत्थ। उ ण दिड'त्ति यत्र न दृष्टास्तस्मिन् ग्रामे, न च तगामनिर्गतानां वार्ता तत्रैव 'बोलकरणं' रोलं कुर्वन्ति, पश्चाच 'पिंडितजणसाहणं' पिण्डितो-मिलितो यो जनस्तस्य कथयन्ति यदुअस्मिन् ग्रामे प्रव्रजिता भिक्षार्थ प्रविष्टाः न च तेषां पुनरस्मात् प्रामाद्वार्ता श्रुतेति । एवं तैस्तरुणैरेतदेव च कृतं भवति अन्यग्रामेऽटभिःएवं उग्गमदोसा विजढा पड़रिकपा अणोमाणं । मोहतिगिच्छा अ कया विरियायारो य अणुचिण्णो ॥२४॥ __'एवं अन्यग्रामे भिक्षाटनेन 'उद्गमदोषाः' आधाकर्मादयः 'विजढा' परित्यक्ता भवन्ति, 'पइरिकयत्ति प्रचुरस्य भक्कादाभो भवति 'अणोमाणं ति न वा 'अपमान' अनादरकृतं भवति लोके, तथा मोहचिकित्सा च कृता भवति, श्रमातपवैयावृत्त्यादिभिर्मोहस्य निग्रहः कृतो भवति--अवकाशो दत्तो न भवतीति, 'विरियायारो य' वीर्याचारश्च 'अनुचीर्णः' अनुष्ठितो भवति ।
अणुकंपायरियाई दोसा परिकजयणसंसहूं । पुरिसे काले खमणे पढमालिय तीमु ठाणेसु ॥ २५॥ I एवमुक्ते सति चोदक आह-सत्यमाचार्यादयोऽनुकम्पिता भवन्ति, किन्तु त एव वृषभाः परित्यक्ता भवन्ति, आचार्योऽप्यनेनैव वाक्येन प्रत्युत्तरं ददाति काका-'अणुकंपायरिआईत्तिएवमाचार्यादीनामनुकम्पा, यत एव परलोके निर्जरा इहलोके । प्रशंसा, पुनरप्याह परः-'दोसा' इति भवतु नाम परलोका(आचार्या)नुकम्पा किन्तु क्षुत्पीडा पिपासापीडा च तदवस्थैव, आ
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४२०] » “नियुक्ति : [२५०] + भाष्यं [१४७...] + प्रक्षेपं [२२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
क्षा नि.
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२५०||
श्रीओघ- चार्योऽप्याह-क्रियत एव प्रथमालिका, किन्तु, त्रिषु स्थानेषु, कानि च तानि?, अत आह 'पुरिसे'त्ति 'पुरुषा' असहिष्णुः पुरुषोद तरुणानां नियुक्तिः यद्यसहिष्णुस्ततः करोति, काले-उष्णकालादी, यद्युष्णकालस्सतः करोति, 'खवण'ति कदाचित्क्षपको भवति अक्षपको वा. परनामेभि द्रोणीया
यदि क्षपकस्ततः करोति, एवमेतेषु त्रिषु स्थानकेषु प्रथमालिकां करोति, क करोति !, आचार्योऽष्यनेनैव वाक्येनोत्तरं ४ वृत्तिः
+२४८-२५० दिदाति, कथं वा करोति?, अत आह-'पतिरिके जयण'त्ति प्रतिरिक्ते-एकान्ते यतनया करोति, पुनरप्याह परः-आचार्यादीनां दा २४८
भा.१४८ ॥१०॥
तेन तद्भक्तं संसृष्टं कृतं भवति, आचार्योऽप्यनेनैव वाक्येनोत्तरं ददाति-पतिरिक्जयणसंसई' एकान्ते यतनयाऽसंसृष्टं च यथा भवति तथा प्रथमालियंति-मात्रके प्रथममाकृष्य भुङ्क्ते हस्तेन वा द्वितीयहस्ते कृत्वा, अकारप्रश्लेष आचार्यवाक्ये द्रष्टव्यः । इदानीमेतामेव गाथा भाष्यकारः प्रतिपदं व्याख्यानयनाह, तत्र प्रथमावयवव्याचिख्यासुराह
चोयगवयणं अप्पाणुकंपिओ ते अभे परिचत्ता । आयरियणुकंपाए परलोए इह पसंसणपा ॥१४८॥(भा०) ४ चोदकस्य वचनं, किं तद् , आत्मैवैवमनुकम्पित आचार्येण, ते च भवता परित्यक्ता भवन्ति । आचार्योऽप्याह-आचादर्यानुकम्पया परलोको भवति, इहलोके च प्रशंसा भवति । 'अणुकंपा आयरियाई' वक्खाणिों, इदानीं "दोस"त्ति
व्याख्यानयन्नाहएवंपि अपरिचत्ता काले खवणे अ असहपुरिसे य। कालो गिम्हो उभषे खमगो वा पढमबिइपहि॥१४९॥(भा०)13|| चोदकः पुनरप्याह-एवमपि ते परित्यक्ता एव, यतः क्षुधादिना वाध्यन्ते, आचार्योऽष्याह-'काले'त्ति काले-उष्णकाले
॥१०॥ करोति 'खवण'त्ति क्षपको यदि भवति ततः स करोति प्रथमालिकामसहिष्णुश्च पुरुषो यदि भवति ततः स करोति
दीप अनुक्रम [४२०]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४२३] → नियुक्ति: [२५०...] + भाष्यं [१५०] + प्रक्षेपं [२२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१५०||
ACCASSESAXCCC
प्रथमालिकां, सत्र कालो-ग्रीष्मो यदि भवेत्पुरुषः क्षपको यदि भवति, 'पढमविइएहिं ति अत्र पुरुषः केन कारणेनासहिष्णुर्भवति ?-पढमें त्ति प्रथमपरीषहेण बाध्यमानः, क्षुधित इत्यर्थः, द्वितीयपरीषहेण-तृषा वाध्यमानः, पिपासया पीयमानोऽसहिष्णुर्भवति । अत्राह पर:जइ एवं संसह अप्पत्ते दोसिणाइणं गहणं । लंबणभिक्खा दुविहा जहणमुक्कोस तिअपणए ॥१५०॥(भा०) | यद्येवमसौ बाह्यत एव प्रथमालिकां करोति ततो भक्तं संसृष्टं कृतं भवति, आचार्योऽप्याह-'अप्पत्ते दोसिणादिणं | गहणं' अप्राक्षायामेव भिक्षाबेलायां पर्युषितान्नग्रहणं कृत्वा प्रथमालयति, कियत्प्रमाणां पुनःप्रथमालिकां करोत्यसौः, द्विविधा प्रथमालिका भवति-'लंबणभिक्खा दुविहा' लम्बनैः-कवलैर्भिक्षाभिश्च द्विविधा प्रथमालिका भवति, इदानी जघन्योस्कृष्टतः प्रमाणप्रतिपादनायाह-'जहन्नमुक्कोस तिअपणए' यथासकचेन जघन्यतस्त्रयः कवलास्तिस्रो वा भिक्षाः, उत्कृष्टतः पञ्च क-18 बलाः पञ्च वा भिक्षाः । इदानीं तेन सङ्घाटकेन किं वस्तु केषु पात्रकेषु गृह्यते ? का वा प्रथमालिकाकरणे यतना क्रियते ?,18 एतत्प्रतिपादयन्नाह
एगत्य होइ भत्तं पिइमि पडिग्गहे दवं होइ । पाउग्गायरियाई मत्ते बिइए उ संसत्तं ॥२५१ ॥ एकस्मिन् पात्रके भक्तं गृह्णाति द्वितीये च पतबहे द्रवं भवति । तथा 'पाउग्गायरियाई मसे'त्ति प्रायोग्यमाचार्यादीनामेकस्मिन् मात्रके भक्तं गृह्यते 'बितिए उसंसत्तं द्वितीये तु मात्रके संसृष्टं किश्चित्पानकं गृह्यते ॥
जइ रित्तो तो दवमत्तगंमि पढमालियाए करणं तु । संसत्तगद्दण द्वदुल्लहे य तस्धेव जं पत्तं ॥ २५२ ॥
दीप अनुक्रम [४२३]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४२५] .. "नियुक्ति: [२५२] + भाष्यं [१५०] + प्रक्षेपं [२२...]". मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२५२||
श्रीओघ- यदि रिक्तः संसक्तद्रवमात्रकस्ततस्तस्मिन् प्रथमालिकायाः करणं, संससगहणं ति अथ तस्मिन् द्रवमात्रके संसक्तद्रवग्रहणं मागप्रथमा नियुक्तिः कृतं ततस्तत्रैव पात्रके यत्प्रान्तं तंडुङ्गे । 'दबदुल्लभे यत्ति अथ दुर्लभं पानकं तत्र क्षेत्रे ततश्च तत्रापि संसक्तमात्रके पान- लिकाविद्रोणीयाकाक्षणिके सति 'तत्थेव'त्ति तस्मिन्नेव भक्तपतङ्कहे यत्प्रान्तं तद्धस्तेनाकृष्यान्यस्मिन् हस्ते कृत्या समुद्दिशति । एवं चासो
धिः भावृत्तिः ।
१४९-१५० सङ्घाटकः प्रथमालिकां करोति
न.२५१ | अंतरपल्लीगहिरं पढमागहियं व सब भुजेजा । धुवलंभसंखडी व जं गहिरं दोसिणं चावि ॥ २५३॥ ॥१०॥
२५५ अन्तरपल्ली-तस्मादामात्परतो योऽन्य आसन्नग्रामस्तत्र यद्गृहीतं तद्भुङ्क्ते, पुनस्तत्तत्र क्षेत्रातिकान्तत्वादभोज्यं भवति, पढमागहि वत्ति प्रथमायां वा पौरुष्यां यद्धृहीतं तत्सर्व भुते, तृतीयपौरुष्यामकल्प्यं यतस्तद्भवति । 'धुवलंभो संखडीयं व' अथवा ध्रुवो वा-अवश्यभावी-अत्र सङ्खच्या लाभो भविष्यतीति मत्वा, ततश्च यगृहीतं 'दोसिणं वावि' पर्युषितमन्नं तत्सर्व भुञ्जते ॥
दरर्हिडिए व भाणं भरिअं भोचा पुणोवि हिंडिजा। कालो वाइकमई मुंजेजा अंतरं सर्व ॥ २५४ ॥
अद्धहिण्डिते वा यत्पात्रकं गृहीतं तद्भुतं, ततश्च तद्भुक्त्वा पुनरपि हिण्डेत । 'कालो वाऽतिकमतित्ति भोजनकालो, 8|वा प्रवजितानामतिकामति यावदसी तदकं गृहीत्वा ब्रजति ततश्चान्तराल एव सर्व भुक्त्या प्रविशति । एसो उ विही भणिओ तंमि वसंताण होइ खेत्तंमि । पडिलेहणपि इत्तो बोच्छ अप्पक्वरमहस्थं ॥ २५५॥ ॥१०॥
एप विधिः "भणितः' उक्तस्तस्मिन् क्षेत्रे वसतां भवति, प्रतिलेखनामपीत ऊर्च वक्ष्ये, किंविशिष्टाम् -अल्पाक्षरांINI
दीप अनुक्रम [४२५]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४२८] → “नियुक्ति: [२५५] + भाष्यं [१५०...] + प्रक्षेपं [२२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
ACCE
गाथांक नि/भा/प्र ||२५५||
महार्थी चेति । उक्त स्थानस्थितद्वारं, तत्प्रतिपादनाच्च व्याख्यातेयं गाथा, यदुत "सिंगारबित्तियवसही ततिए सण्णी" इत्येवमादिका, तत्प्रतिपादनाचोका अनेके प्रत्युपेक्षकाः, तत्प्रतिपादनाच्चोक्तं प्रत्युपेक्षकद्धारमिति, तत्र यदुक्तम्-"एत्तो, पडिलेहणं वुच्छं"तामिदानी व्याख्यानयन्नाहदुविहा खलु पडिलेहा छउमत्थाणं च केवलीणं च । अम्भितर बाहिरिआ दुविहा दधे य भावे य ।। २५६ ॥13
द्विविधा प्रत्युपेक्षणा भवति, कतमेन द्वैविध्येनेत्यत आह-छद्मस्थानां संबन्धिना केवलिनां च, सा चैकैका द्विविधा- अभ्यन्तरा बाह्या थ, याऽसौ छद्मस्थानां सा द्विविधा-बाह्या अभ्यन्तरा च, या च केवलिनां साऽपि अभ्यन्तरा बाह्या च। 'दवे य भावे य'त्ति याऽसौ बाह्या प्रत्युपेक्षणा सा द्रव्यविषया, याऽप्यभ्यन्तरा सा भावविषयेति । तत्र केवलिप्रत्युपेक्षणां प्रतिपादयन्नाह
पाणेहि व संसत्ता पडिलेहा होइ केवलीणं तु । संसत्तमसंसत्ता छउमत्थाणं तु पडिलेहा ॥ २५७॥
प्राणिभिः संसक्तं यद्रव्यं तद्विषया प्रत्युपेक्षणा भवति केवलिना, 'संसत्तमसंसतंत्ति संसक्तद्रव्यविषया असंसक्तद्रव्यटाविषया च छदास्थानां प्रत्युपेक्षणा भवतीति । आह-'यथोपन्यासस्तथा निर्देश' इति न्यायात्प्रथम छदास्थानां व्याख्यातुं कायुक्त पश्चारकेवलिनामिति, उच्यते, प्रधानत्वारकेवलिनां प्रथमं व्याख्या कृता पश्चाच्छद्मस्थानामिति, आह-तत्कथं प्रथम-1* हामेवमुपन्यासो न कृतः इति, उच्यते, तत्पूर्वकाः केवलिनो भवन्तीत्यस्यार्थस्य ज्ञापनार्थमिति ॥ अनेन वा कारणेन केवदलिनः प्रत्युपेक्षणां कुर्वन्तीति प्रतिपादयनाह
दीप अनुक्रम [४२८]
BRaitaram.org
प्रत्युप्रेक्षणा संबंधी विधानानि
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४३१] .. "नियुक्ति: [२५८] + भाष्यं [१५०] + प्रक्षेपं [२२...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
श्रीओष
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२५८||
वृत्तिः
॥१०५॥
संसजइ धुवमेअं अपेहि अंतेण पुत्व पडिले हे । पडिलेहि अंपि संसज्जइत्ति संसत्तमेव जिणा ॥ २८ ॥ प्रतिलेखन 'संसज्यते' प्राणिभिः सह संसर्गमुपयाति 'धुवं' अवश्य 'एतत् वस्त्रादि अप्रत्युपेक्षितं सत् तेन पूर्वमेव केवलिनः प्रत्यु- विधिः नि पेक्षणां कुर्वन्ति, यदा तु पुनरेवं संविद्रते-इदमिदानी वस्त्रादि प्रत्युपेक्षितमपि उपभोगकाले संसज्यते तदा 'संसत्त- २५६-२६६ मेव जिण'त्ति संसकमेव 'जिना' केवलिनः प्रत्युपेक्षन्ते न त्वनागतमेव, पलिमन्थदोषात् । उक्ता केवलिद्रव्यप्रत्युपेक्षणा,12 इदानीं केवलिन एष भावप्रत्युपेक्षणां प्रतिपादयन्नाह
नाऊण वेयणिजं अइयाअं आउभं च धोवागं । कम्म पडिले हे वचंति जिणा समुग्घायं ।। २५९॥ 8 ज्ञात्वा 'वेदनीय' कर्म अतिप्रभूतं तथाऽऽयुष्कं च स्तोकं कर्म 'प्रत्युपेक्ष्य' ज्ञात्वेत्यर्थः, किमित्यत आहलावचंति जिणा समुग्धायं' 'जिनाः' केवलिनः समुद्घातं ब्रजन्ति, अत्र च भावः-कर्मण उदयः औदयिको भाव इत्यर्थः। द्र
उक्ता केवलिभावप्रत्युपेक्षणा, इदानीं छद्मस्थद्रव्यप्रत्युपेक्षणामाह___ संसत्तमसंसत्ता छउमस्थाणं तु होइ पडिलेहा । योयग जह आरक्खी हिंडिताहिंडिया चेच ॥ २६०।। । RI 'संसत्त'त्ति संसक्तद्रव्यविषया असंसक्तद्रव्यविषया च छद्मस्थानां भवति प्रत्युपेक्षणा, अत्र चोदक आह-युक्त तावत् 181 है संसक्तस्य वस्त्रादेः प्रत्युपेक्षणाकरण, असंसक्तस्य तु कस्मात् प्रत्युपेक्षणा क्रियते ?, आचार्य आह-यथा आरक्षकयोहिंण्डि-है।
॥१०॥ ताहिण्डितयोर्यथासक्येन प्रसादविनाशी संजाती तथाऽत्रापि द्रष्टव्यं, तथाहि-किंचिन्नगरं, सत्य राया, तेन चोरनिग्गहणत्यं आरक्खिओ ठविओ, सो एग दिवसं हिंडइ बीए तइए हिंडतो चोरं न किंचि पासति ताहे ठितो निविण्णो, चोरेहिं आग-18
दीप अनुक्रम [४३१]
awradainasurary.org
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४३३] .. "नियुक्ति: [२६०] + भाष्यं [१५०] + प्रक्षेपं [२२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२६०||
18 मिमं जहा पीसत्थो जाओ आरक्खिओ, ताहे एकदिवसेण सबं नगरं मुह, ताहे नागरगा उडिआ मुडा, तो राया भणइदावाहरह आरक्खिों , वाहित्ता पुच्छितो कि तुमए अजाहिंडिअं [न] नगरे?, सो भणति-न हिंडिअं, ताहे रुहोराया भणइ-पदा
जइ नाम एत्तिए दिवसे चोरोहिं न मुई सो ताण चेव गुणो, तए पुण पमार्य करितेणं मुसाविअं, ततो सो निग्गहिओ राइणा, अण्णो पट्टविओ, सो पुण जइ न दिक्खति चोरे तहवि रतिं सयलं हिंडति, अह तत्थ एगदिबसे अण्णरत्थाए गयं नाऊण चोरेहिं खत्तं खणिों, सो य नागरओ रायउले उवडिओ, राइणा पुच्छिओ आरक्खिओ-जहा तुमं हिंडसि ?, सो भणइ-आम हिंडामि, ताहे राइणा लोगो पुच्छिओ भणइ-आम हिंडइत्ति, ताहे सो निहोसो कीरति । एवं चेव रायत्याणीया तित्थयरा आरक्खिअत्थाणीआ साहू उवगरण नगरस्थाणीअं कुंथुकीडीयत्थाणीया चोरा णाणदसणचरिताणि| हिरणस्थाणीयानि संसारो दंडो। एवं केणवि आयरिएण भणितो सीसो दिवसे दिवसे पडिलेहइ, आहे न पेच्छा ताहे। न पडिलेहेइ, एवं तस्स अपडिलेहतस्स सो संसत्तो उवही ण सक्को सोहेडं, ततो तेणं तित्थयराणा भग्गा, तं च दवं अपरिभोग जाय, एवं अण्णो भणितो, तेण य सर्व कयं तित्थयराणा य कया, एवं परिभोग जायं ॥ अमुमेवार्धं गाधायामुपसंहरबाहतिथपरा रायाणो साह आरक्खि भंडगं च पुरं । तेणसरिसा य पाणा लिगं च रयणा भवो दंडो ॥ २६१।।
उक्का छदास्थविषया द्रव्यप्रत्युपक्षणा, इदानीं भावप्रत्युपेक्षणां प्रतिपादयन्ताहकिं कय किं वा सेसं किं करणिलं तवं च न करेमि । पुवावरत्तकाले जागरओ भावपडिलेहा ॥ २२ ॥
दीप अनुक्रम [४३३]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४३६] .. "नियुक्ति: [२६३] + भाष्यं [१५१] + प्रक्षेपं [२२...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२६३||
॥१०॥
दीप अनुक्रम [४३६]
श्रीओप-5] सुगमा ॥ नवरं 'पुवावरत्तकाले'त्ति पूर्वरात्रकाले रात्रिमहरद्वयस्याद्यस्यान्तः-उपरिष्टादपररात्रकालस्तस्मिन् जाग्रतः- पत्युपेक्षणीनयाका नाचिन्तयतः । एवमुक्ता छद्मस्थविषया भावप्रत्युपेक्षणा, तद्भणनाच भणिता प्रत्युपेक्षणा, इदानीं प्रत्युपेक्षणीयमुच्यते, नि.२६१तत्प्रतिपादयन्नाह
२६२ भा. वृत्तिः ___ठाणे उवगरणे या धंडिल उवयंभमरगपडिलेहा । किमाई पडिलेहा पुचण्हे चेव अवरहे ॥२६३॥
४१५१-१५२ | 'स्थानं' कायोत्सर्गादि त्रिविधं वक्ष्यति, तथा 'उपकरणं' पात्रकादि 'स्थण्डिल' यत्र कायिकादि क्रियते, अवष्टम्भनं
अवष्टम्भस्तत्प्रत्युपेक्षणा 'मार्ग:' पन्था, यदेतत्पश्चकमुपन्यस्तम्, एतद्विषया प्रत्युपेक्षणा भवति । 'किमाई पडिलेहा पुषण्हे | |किमादिका प्रत्युपेक्षणा पूर्वाहे ?, मुखवस्त्रिकादिकेति, अपराहे किमादिका १, तत्रापि मुखवस्त्रिकादिका । द्वारगाथेयं, &ाभाष्यकारः प्रतिपदं व्याख्यानयति, तत्र सामान्येन तावत्सर्वाप्येष द्वाराणि व्याख्यानयन्नाह--
ठाणनिसीयतुयट्टणउवगरणाईण गहणनिक्खेवे । पुर्व पडिलेहे चक्खुणा उ पच्छा पमज्जेजा ॥ १५१ ॥ (भा०) हा स्थानं-कायोत्सर्गस्तं कुर्वन् प्रथमं चक्षुषा प्रत्युपेक्षते पश्चात्प्रमार्जयति, तथा निषीदनम्-उपविशनं त्वग्वर्त्तनं-स्वपनं
तथोपकरणादीनां ग्रहणे निक्षेपे च, आदिग्रहणात्स्थण्डिलमवष्टम्भश्च गृह्यते, एतानि सर्वाण्येव पूर्व चक्षुषा प्रत्युपेक्ष्यन्ते पश्चाद्रजोहरणेन प्रमृज्यन्ते । इदानीमेतामेव द्वारगाथां विशेषेण व्याख्यानयन्नाह
उहनिसीयतुयट्टण ठाणं तिविहं तु होइ नायचं । उहुं उच्चाराई गुरुमूलपडिकमागम्म ॥ १५२॥ (भा०) तत्र स्थानं विविध ज्ञातव्यं-अईस्थानं निषीदनस्थानं त्वग्वर्तनास्थानं च, तत्रायमूर्द्धस्थानं व्याख्यानयज्ञाह-'उहुं|
4460%
॥१०६॥
MAmrary on
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४३८] → “नियुक्ति: [२६३...] + भाष्यं [१५२] + प्रक्षेपं [२२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
ACANCR5
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१५२||
उचाराई' ऊर्द्धस्थानकं कायोत्सर्गः, स चोचारादीन कृत्वा, आदिग्रहणात्प्रश्रवणं कृत्वा, ततश्च गुरुमूले आगत्य प्रतिकामतः, काम् ?-र्यापधिको प्रतिक्रामतो भवति ऊर्द्धस्थानम् ॥ पक्खे उस्सासाई पुरतो अविणीय मग्गओ वाऊ । निक्खमपवेसवजण भावासपणे गिलाणाई ॥१५३।। (भा) ___ कायोत्सर्ग च कुर्वता आचार्यपक्षके-पक्षप्रदेशे न स्थातव्यं, यतो गुरुरु महासेनाभिहन्यते, नापि पुरतः स्थातव्यं, यतः पुरतोऽविनीतत्वमुपजायते गुरुमाच्छाद्य तिष्ठतो, नापि मार्गतो-गुरोः पृष्ठतो यतो गुरोर्वायुनिरोधेन ग्लानता भवति, वायुरपानेन निर्गच्छति, कथं पुनः स्थातव्यं ?, तत्र निष्क्रमप्रवेशस्थानं वर्जयित्वा कायोत्सर्ग करोति, "भावासन्नेत्ति य उच्चारादिना पीडितः स च निगमे रुद्धे सज्ञानिरोधं करोति, ततश्च ग्लानता भवति, अथ निर्गच्छति ततः कायोत्सर्गभङ्गः॥ भारे वेधणखमगुणहमुच्छपरियावछिंदणे कलहो । अवाबाहे ठाणे सागारपमज्जणा जयणा ॥ १५४ ॥ (भा०) ___ तथा च मार्ग कायोत्सर्गकरणे एते दोषाः, भिक्षामटित्वा कश्चिदायातः साधुः, स भारे सति यदि प्रतिपालयति ततो वेदना भवति, तथा क्षपकः कश्चिद्भक्तं गृहीत्वाऽऽयातस्तथाऽन्य उष्णसंतप्त आयातः, अनयोद्धयोरपि प्रतिपालयतोः सतोयथासाप मू परितापौ भवतः, क्षपकस्य मूळ उष्णतप्तस्य परितापः, अर्थते कायोत्सर्ग छित्त्वा प्रविशन्ति ततः परस्परं कलहो भवति, तस्मादव्याबाधे स्थाने कायोत्सर्गः कर्तव्यः एतदोपभयात् । 'सागारपमजणा जयण'त्ति, यदा तु पुनः सागारिको भवति कायोत्सर्ग कुर्वतस्तदाऽप्रमार्जनमेव करोति, यतनया वा प्रमार्जयति, कथं ?, रजोहरणबाह्यनिषद्यया
दीप अनुक्रम [४३८]
ROSSES
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४४०] → “नियुक्ति: [२६३...] + भाष्यं [१५४] + प्रक्षेपं [२२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१५४||
श्रीओघनियुक्तिः द्रोणीया वृत्तिः
॥१०७॥
दीप अनुक्रम [४४०]
प्रमृज्य कायोत्सर्गस्थानं ततस्तां निषद्या सागारिकपुरत एकान्ते मुश्चति, गते च तत्र गृह्णाति । उक्तमूलस्थानं, इदानीं स्थानप्रतिनिषीदनास्थानं प्रतिपादयन्नाह
लेखनाभा. संडास पमजित्ता पुणोवि भूमि पमजिआ निसिए।राओ य पुश्वभणिअं तुयपूर्ण कपई न दिवा ॥१५६॥ (भा) १५३-१५७ | सण्डासं-जहोऊरन्तरालं प्रमृज्य उत्कुटुकः स्थित्वा पुनर्भुवं प्रमृज्य निषीदेत् । उक्त निपीदनास्थानं, इदानी | त्वग्वर्त्तनास्थानमुच्यते, रात्री पूर्वोक्तमेव त्वग्वर्त्तनं, दिवा तु पुनस्त्वग्वतनं न कल्पते, नोक्त भगवद्भिः, किं सर्वथैव न कल्पते ! इति, न इत्याह
अद्धाणपरिस्संतो गिलाणवुड्डा अणुण्णवेत्ताणं । संथारुत्तरपट्टो अत्थरण निवजणाऽऽलोगं ॥१५६॥ (भा.) HI अद्धानपरिश्रान्तस्तथा ग्लानो वृद्धश्च, एते त्रयोऽप्यनुज्ञाप्याचायस्तितश्च संस्तारकोत्तरपट्टी आस्तीर्य 'निवज्यण'त्ति स्वपन्ति ।
'आलोक स्ति सावकाशं मुक्त्वाऽभ्यन्तरे स्वपन्ति,मा भूत् सागारिकस्य शङ्का स्थात् , यदुत-नून रात्री सुरतप्रसङ्गे स्थितोऽयमा-18 सीत् , कुतोऽन्यथाऽस्य निद्रेति ।। त्वग्वर्तनास्थानमुक्तं, तत्प्रतिपादनाच्च स्थानद्वारमुक्तम् । इदानीमुपकरणप्रतिपादनायाह-पत उवगरणाईयाणं गहणे निक्खेवणे य संकमणे । ठाण निरिक्खएमजण का पडिलेहए उवहिं ॥१५७॥ (भा०) I उपकरणादीनां 'ग्रहणे' आदाने यत्स्थानं तन्निरीक्ष्य-निरूप्य प्रमृज्य च उपधिः प्रत्युपेक्षणीय इत्यत्र संबन्धः, तथा उप-18॥
| ॥१०७॥ हा करणादीनां च निक्षेपणे च यत्स्थानं तनिरीक्ष्य प्रमृज्य चोपधिः प्रत्युपेक्षणीयः, तथा उपकरणादीनामेव यत्संक्रमणं-स्थाना-16
स्थानान्तरसंक्रमणं तस्मिन् यत्स्थानं तन्निरीक्ष्य प्रमार्जनं कृत्वा उपधिं प्रत्युपेक्षेत, योऽयमादिशब्दः अयमुपधिप्रकार
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४४३] .. "नियुक्ति: [२६४] + भाष्यं [१५७] + प्रक्षेपं [२२...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२६४||
SSACROSAASARASARDARS
प्रतिपादनार्थः । उपकरणादग्रहणनिक्षेपणसंक्रमणेषु यत्स्थानं तस्य निरीक्षणप्रमार्जनमुक्त, इदानीमुपकरणप्रत्युपेक्षणाप्रतिपादनायाहउवगरण वत्थपाए वत्थे पडिलेहणं तु वोच्छामि । पुवण्हे अवरण्हे मुहर्णतगमाइ पडिलेहा ॥ १५८ ॥ (भा०) । उपकरणप्रत्युपेक्षणा द्विविधा-वत्थे पाए'त्ति वस्त्र विषया पात्रविषया चेति, तत्र तावद्वस्त्रविषया प्रत्युपेक्षणा उच्यते, यतः प्रव्रजतः प्रथम वस्त्रोपकरणमेव दीयते न पात्रोपकरणं, सा च वस्त्रप्रत्युपेक्षणा कस्मिन् काले भवतीत्यत आह'पुवण्हे अबरण्हे' पूर्वाहे वस्त्रप्रत्युपेक्षणा भवत्यपराहे च, किमादिका पुनः प्रत्युपेक्षणा भवतीत्यत आह-'मुहपोत्तीयमादि पडिलेह'त्ति मुखवत्रिका आदी यस्याः प्रत्युपेक्षणायाः सा मुखवस्त्रिकादिका प्रत्युपेक्षणा, कदा?, पूर्वाहेऽपराहे चेति, तत्र मुखवत्रिकाऽऽदिवस्त्रप्रत्युपेक्षणायामयं विधिः
उहं थिरं अतुरिअं सपंता वत्थ पुद पडिलेहे । तो बिइअं पकोडे तइयं च पुणो पमजेजा ॥ २६४ ॥ | तत्र वखोझै कायोर्द्धच आचार्यमतेन भविष्यति, चोदकमतेन वक्ष्यमाणं, तत्र वखोई कायो च यथा भवति तथा : का प्रत्युपेक्षेत, 'थिति यथास्थितं सुगृहीतं कृत्वा प्रत्युपेक्षेत, 'अतुरिय'ति अत्वरितं स्तिमितं प्रत्युपेक्षेत-निरीक्षेत, 'सच'ति |
सर्व-कृत्स्नं वस्त्रं तावत्पूर्व-प्रथमं प्रत्युपेक्षेत-चक्षुषा निरीक्षेत, एवं तावदर्वाग्भागः, परभागोऽपि परावृत्त्य एवमेव चक्षुषा निरीक्षेत, 'तो बिइयं पफोडे'त्ति ततो द्वितीयायां वारायां प्रस्फोटयेद्वखं षट् पुरिमाः कर्त्तव्या इत्यर्थः, 'तइयं च पुणो पमज्जेजति तृतीयायां वारायां हस्तगतान प्राणिनः प्रमार्जयति । इदानीमेनामेव गाथां भाष्यकारो व्याख्यानयन्नाह
दीप अनुक्रम [४४३]
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||२६४||
दीप
अनुक्रम
[४४६ ]
श्री ओपनिर्युक्तिः
द्रोणीया
वृत्तिः
॥ १०८ ॥
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [ ४४६ ] • → मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
“निर्युक्तिः [ २६४] + भाष्यं [ १५९ ] + प्रक्षेपं [२२...]" ८० आगमसूत्र - [ ४१/१], मूल सूत्र - २/१] “ओघनिर्युक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
वत्थे काउसि अ परवयणटिओ गहाय दसियते । तं न भवति उक्कुडओ तिरिअं पेहे जह विलित्तो ॥ १५९ ॥ भा०) ( उपकरण
प्रतिलेखना
तत्रोद्धं द्विधा वस्त्रोद्धं कायोर्द्ध चेति, अस्मिते 'परवयण'ति परः- चोदकस्तस्य वचनं परवचनं, किं तद् १ इत्याह, 'डिओ गहाय दसिअंति त्ति स्थितस्य-ऊर्द्धस्य गृहीत्वा दशान्ते वस्त्रं प्रस्फोटयतः कायोर्द्ध च वस्त्रोद्धं च यथा भवति, एवमुक्ते सत्याचार्य आह- 'तन्न भवति' तदेतन्न भवति यच्चोदकेनाभिहितं कुतः ?, यस्मात् 'उडओ तिरिअं पेहे' उत्कुटुकस्थितस्तिर्यक् प्रसार्य वस्त्रं प्रत्युपेक्षेत, एतदेव च नः कायोर्द्ध वस्त्रोद्धे च नान्यत्, यथा चन्दनादिना विलिप्ताङ्गः श्र परस्परमङ्गानि न लगयति एवं सोऽपि प्रत्युपेक्षते, ततश्चैवमुत्कुटुकस्य कायोर्द्ध भवति, तिर्यक्प्रसारितवस्त्रस्य च वस्त्रो भवति । 'उहं' ति भणिअं, इदानीं स्थिरादीनि पदानि भाष्यकार एव व्याख्यानयन्नाह
घेत्तुं थिरं अतुरिअं तिभागवुद्धीय चक्खुणा पेहे। तो विश्यं पकोडे तइयं च पुणो पमजेजा ॥ १६०॥ (भा०) गृहीत्वा 'स्थिर' निविडं दृढं वस्त्रं ततः प्रत्युपेक्षेत 'अत्वरितं' स्तिमितं प्रत्युपेक्षेत, 'तिभागबुद्धिए ति भागत्रयबुद्ध्या इत्यर्थः, चक्षुषा प्रत्युपेक्षेत, ततो द्वितीयवरायां प्रस्फोटयेत् तृतीयबारायां प्रमार्जयेदिति पूर्ववत् । इदानीं प्रत्युपेक्षणां कुर्वता इदं कर्त्तव्यम् -
अचावि अलि अणाणुबंधिं अमोसलिं चैव । छप्पुरमा नव खोडा पाणी पाणपमजणं ॥ २६५ ॥ तत्र प्रत्युपेक्षणां कुर्वता वस्त्रमात्मा वा नर्त्तयितव्यः, तथा अवलितं च वस्त्रं शरीरं च कर्त्तव्यं, 'अणाणुवंधि'न्ति न अनुवन्धः अननुबन्धः सोऽस्मिन्नस्तीति अननुवन्धि प्रत्युपेक्षणं नानवरतमाखोटकादि कर्त्तव्यं सान्तरं सविच्छेदमित्यर्थः,
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भा. १५८१६० नि. २६४-२६५
॥१०८॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४४७] .. "नियुक्ति: [२६५] + भाष्यं [१६०] + प्रक्षेपं [२२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२६५|
CASS
भमोसलिन्ति न मोसली क्रिया यस्मिन् प्रत्युपेक्षणे तदमोसलि प्रत्युपेक्षणं, यथा मुशलं झटिति ऊर्दू, लगति अधस्तिर्यक् । च, न एवं प्रत्युपेक्षणा कर्तव्या, किन्तु यथा प्रत्युपेक्षमाणस्य की पीढिषु न लगति न च तिर्यकुडे म च भूमी तथा कर्त्तव्यं । 'छप्पुरिमा' तत्र वखं चक्षुषा निरूप्य-अर्वाग्भागं निरूप्य त्रयः पुरिमाः कर्त्तव्याः, तथा परावर्त्य-परभाग निरूप्य पुनरपरेऽपि त्रयः पुरिमाः कर्तव्याः, एवं एतेषु पुरिमाः, षड्वाराः प्रस्फोटनानीत्यर्थः, 'नव खोड'त्ति नव चाराः खोटकाः कर्त्तव्याः पाणेरुपरि 'पाणी पाणपमजणं ति प्राणिनां-कुन्थ्वादीनां पाणी-हस्ते प्रमाजेन नवैव वाराः कर्त्तव्याः । इयं
द्वारगाथा, इदानीं भाष्यकारः पूर्वार्द्ध व्याख्यानयन्नाहलवस्थे अप्पाणमि अचउहा अणचावि अवलिअंच अणुवंधि निरंतरया तिरिउहह य घट्टणा मुसली॥१६शामा | वस्ने आत्मनि चेत्यनेन पदद्वयेन भङ्गकचतुष्टयं सूचितं भवति, ततश्चानेन प्रकारेण अनायित चतुर्द्धा भवति, कथं ! कत्थं अणच्चावि अप्पाणं च अणच्चावि एगो भंगो १, तथा चत्वं अणच्चावि अप्पाणं च णचाविजं २, तहा पत्थं णच्चाविजे अप्पाणं अणचाविरं ३, तथा वत्वंपि नच्चावि अप्पाणंपि नचाविजे ४, एस चउत्थो, एत्थ पढमो
भंगो सुद्धो। एवं अवलिअंपि-अवलितेऽपि चत्वारो भङ्गाः, यथा वत्थं अवलिअं अप्पाणं च अवलिअं एगो १, तहा वत्थं ४ अवलिअं अप्पाणं च वलि २, तहा अप्पाणं अवलिअं वत्थं बलिअं ३, अप्पाणपि वलिअं वत्थंपि वलिअं४, एथवि पढमोर भंगो सुद्धो । 'अणुवंधि निरंतरय'त्ति अनुबन्धो निरन्तरतोच्यते, ततश्च न च अनुबन्धेन-नैरन्तर्येण प्रत्युपेक्षणा कर्त्तव्या ।। इदानीममोसलिं व्याख्यानयन्नाह-'तिरिउवह य घट्टणा मुसलि'त्ति त्रिविधा मुसली-तिर्यग्घटना १ ऊ_घट्टना २ अघो
दीप अनुक्रम [४४७]
श्री.१९
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४५०] - "नियुक्ति: [२६६] + भाष्यं [१६१] + प्रक्षेपं [२२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
श्रीओघ-
घट्टना ३च
प्रत गाथांक नि/भा/प्र
||२६६||
पट्टना ३ चेति, तत्र प्रत्युपेक्षणां कुर्वन् वस्त्रेण तिर्यक् कुड्यादि पट्टयति ऊ— कुट्टिकादिपटलानि घट्टयति अधो भुवं घट्ट- प्रतिलेखना
विधिः भा. नियुक्तियति, एवं न मुशली-न किश्चित्प्रत्युपेक्षणां कुर्वन् वस्त्रेण घट्टयति । इदं तावत्पूर्वोक्तमन यितादि कर्त्तव्यं, इदं तु वक्ष्यद्रोणीया
१६१-१६२ माणं न कर्त्तव्यं, किं तद् , इत्याहवृत्तिः
|नि. २६६ हा आरभडा सम्मदा वजयबा य मोसली तइया । पप्फोडणा चउत्थी विक्खित्ता बेइया छट्ठा ॥ २६६ ॥ ॥१०९॥
__'आरभड'त्ति आरभटा प्रत्युपेक्षणा न कार्या, 'सम्मति संमर्दा न कार्या, वर्जनीया च मोसली तृतीया, प्रस्फोटना नाचती, विक्षिप्त पञ्चमी वर्जनीया, वेदिका पठी वर्जनीयेति द्वारगाथेय । इदानीं प्रतिपदं भाष्यकारो व्याख्यानयति.
तत्राद्यावयवब्याचिख्यासयाऽऽहसावितहकरणे च तुरिअं अण्णं अण्णं व गेण्हणाऽऽरभडा। अंतोव होज कोणा निसियण तस्थेव संमहा॥१६श(
भाग वितर्थ-विपरीतं यत्करणं तदारभडाशब्देनोच्यते, सा चारभटा प्रत्युपेक्षणा न कार्या, विपरीता प्रत्युपेक्षणा न कार्य-18 त्यर्थः, वा-विकल्पे, इयं वाऽऽरभटोच्यते यदुत त्वरितः-आकुलं यदन्यान्यवस्त्रग्रहणं तदारभटाशब्देनोच्यते, सा च प्रत्युपेक्षणा न कार्या, त्वरितमन्यान्यवनग्रहणं न कर्त्तव्यमित्यर्थः । "आरभडे"ति भणिअं, इदानीं संमर्दा व्याख्यायते,
॥१० ॥ 8 तत्राह-'अंतो व होज कोणा निसियण तत्वेव संमदा' अन्तः-मध्यप्रदेशे वस्त्रस्य संवलिताः कोणा यत्र भवन्ति सा संमर्दो-18 दाच्यते, सा प्रत्युपेक्षणा तादृशी न कार्या, 'णिसीयण तत्थेच'त्ति तत्रैव-उपधिकायां उपविश्य यत्प्रत्युपेक्षणाकरणं सा वा जा समर्दोच्यते, सा च न कर्त्तव्येति । “संमद्दे"ति भणिों , इदानीं मोसलीवर्जनप्रतिपादनायाह
दीप अनुक्रम [४५०]
ACASSEURCASSACROCOCAL
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४५२] .. "नियुक्ति: [२६६] + भाष्यं [१६३] + प्रक्षेपं [२२...]". मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१६३||
| मोसलि पवदिहा पफोडण रेणुगुडिए चेव । विक्खेवं तुक्खेवो बेइयपणगं च छदोसा ॥१६३ ॥(भा)
मोसली पूर्वमेवोद्दिष्टा-पूर्वमेव भणितेत्यर्थः “मोसलि"त्ति गयं, इदानीं पप्फोडणत्ति व्याख्यायते-'पप्फोडण रेणुगुंडिए हाय' प्रकर्षेण धूननं-स्फोटनं तद्रेणुगुण्डितस्यैव वस्त्रस्य करोति, यथाऽन्यः कश्चिद्गृहस्थः रेणुना गुण्डितं सद्वखं प्रस्फोटयति | Pएवमसावपि, इयं च न कर्त्तव्या । 'पष्फोडण'त्तिगयं, "विक्खित्त"त्ति भण्यते, तबाह-'विक्खेवं तुक्खेवो' विक्षेपां तु तां विद्धि
यत्र वखस्यान्यत्र क्षेपणं, एतदुक्तं भवति-प्रतिलेखयित्वा वस्त्रमन्यत्र जवनिकादी क्षिपति, अथवा विक्षेपो-यखाञ्चलाना&ाई यत्क्षेपणं स उच्यते, स च प्रत्युपेक्षणायां न कर्त्तव्यः । “विक्खित्त"त्ति गर्य, "वेदिय"ति व्याख्यायते, तत्राह
विदिअपण च' वेदिका पञ्चप्रकारा, तंजहा-उहुवेइया अहोवेइया तिरिअवेइया दुहओवेड्या एगओवेइमा, तत्थ उलवेइआ | उवरि जण्णुयाण हत्थे काऊण पडिलेहइ, अहोवेड्या अहो जण्णुयाण हत्थे काऊण पडिलेहइ, तिरियवेझ्या संडासमझे हत्थे णेऊण पडिलेहति, दुहतोवेदिया बाहाणं अंतरा दोवि जणणुगा काऊण पडिलेहति, एगतोवेदिया एगजण्णुभ बाहाणं | अंतरे काऊण पडिलेहेति, इदं वेदिकापञ्चकं प्रत्युपेक्षणां कुर्वता न कर्त्तव्यम् । 'छ दोसा' इति पत आरभटादयः पडू दोषाः।
प्रत्युपेक्षणायां न कर्त्तव्या इति । तथा एते च दोषाः प्रत्युपेक्षणायां न कर्त्तव्याःहा पसिढिल पलंब लोला एगामोसा अणेगरूवधुणा । कुणइ पमाणपमायं संकियगणणोवर्ग कुजा ॥२६७॥ PI पसिढिलं-दृढ न गृहीतं 'पलंच'त्ति प्रलम्बमानाञ्चलं गृहीतं ततश्च प्रलम्बते,'लोला'इति भूमौ लोलते हस्ते वा पुनः पुनर्लो-12
लयति प्रत्युपेक्षयन् । लोलत्ति गर्य, एगामोस'त्ति मज्झे गहिऊण हत्थेहिं वत्थं घसंतोतिभागावसेसं जाव नेइ दोहि वा पासेहिं 5
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दीप अनुक्रम [४५२]
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
॥१६४||
दीप
अनुक्रम [४५४]
श्रीभोवनिर्युक्तिः द्रोणीया वृत्तिः
॥११०॥
Jan Educator
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) मूलं [ ४५४] • → मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
“निर्युक्तिः [ २६७] + भाष्यं [ १६४ ] + प्रक्षेपं [२२...]" ८० आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
जाब गेण्हणा इत्यर्थः, अहवा तिर्हि अंगुलीहिं घेत्तवं तं एकाए चैव गेण्टर, अहवा 'णेगामोसा' इति केचित्पठन्ति, तत्र न एके आमर्शाः अनेकामर्शाः, अनेकस्पर्शा इत्यर्थः । 'अणेगरूवधुणण सि अणेगपगारं कंपेइ, अथवा अणेगाणि वत्थाणि एगओ काऊण धुणइ तथा 'कुणइ पमाणपमायं' ति पुरिमेषु खोटकेषु वा यत्प्रमाणमुक्तं तत्र प्रमादं करोति, एतदुकं भवति तान् पुरिमादीन् ऊनानधिकान वा करोति, 'संकिनगणणोवर्ग कुछ 'त्ति शङ्किता चासौ गणना च शङ्कितगणना तां शङ्कितगणनामुपगच्छति या प्रत्युपेक्षणा सा शङ्कितगणनोपगा तामेवंगुणविशिष्टां न कुर्यात्, एतदुक्तं भवति- पुरिमादयः शङ्किता-न जानाति कियन्तो गता इति ततो गणनां करोति, अथवाऽनाभोगात् शङ्किते सति गणनोपगां-गणनामुपगच्छतीति गणनोपगा तां गणनोपगांगणनायुक्तां प्रत्युपेक्षणां करोति पुरिमादीन् गणयन्नित्यर्थः । द्वारगाथेयम् इदानीं भाष्यकारः प्रतिपदं व्याख्यानयन्नाह - | पसिटिलमघणं अतिराइयं च विसमगहणं व कोणं वा । भूमीकरलोलणया कहुणगहणेकआमोसा ॥ १६४ ॥ (भा०)
प्रशिथिलं - अपनं अदृढं गृह्णाति 'अतिरायितं वा' अताडितं वा प्रशिथिलमुच्यते । 'पसिडिले'त्ति गवं, पलंबत्ति भण्यते- 'विसमगहणं व कोणंवन्ति विषमग्रहणे सति लम्बकोणं भवति वस्त्रं 'पलंबत्ति गयं, टोला भण्यते, तत्राह-'भूमीकरलोलणया' भूमौ लोलयति करे - हस्ते वा लोलयति प्रत्युपेक्षमाणः । 'लोले ति गयं, एगामोसत्ति भण्यते, तत्राह - 'कह णगहणेगआमोसा' मध्ये वस्त्रं गृहीत्वा तावदाकर्षणं करोति यावत्रिभागशेषजातग्रहणं जातं, इथं 'एगामोसा' एकाघर्षणमित्यर्थः, अथवाssकर्षणे ग्रहणे चानेके आमोसा अनेकानि स्पर्शनानि, एतदुक्तं भवति तद्वस्त्रमनेकधा स्पृशति ॥ पगामोसत्ति गयं 'अणेगरूवधुणण'त्ति भण्यते
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प्रतिलेखना विधिः भा. १६३-१६४ नि. २६७
॥११०॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४५५] .. "नियुक्ति: [२६७] + भाष्यं [१६५] + प्रक्षेपं [२२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
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गाथांक नि/भा/प्र ||१६५||
पुणणा तिज परेणं बहूणि वा घेत्तु एकई धुणइ । खोडणपमजणासु य संकियगणणं करि पमाई॥१६॥ (भा)
'धुनना' कम्पना 'त्रयाणां पुरिमाणां परत इति यदुक्तं तदेकवस्त्रापेक्षया, बहूनि वा गृहीत्वा वस्त्राणि 'एकीकृया योगपपेन 'धुनाति' प्रस्फोटयति । 'अणेगधुणण'त्ति भणिसं, "कुणइ पमाणे पमाय"ति भण्णा, तत्रा-खोबणफ्मजणासु ' खोटकेषु नवसु प्रमार्जनासु च नवसु प्रमादं करोति । "कुणइ पमाणे पमाय"ति गये, “संकिए गणणोवर्ग"वि भण्णइ, तत्राह-'संकियगहणं करि पमाई' शङ्किते सति गणनां करोति यः प्रमादी भवति, एवमियमित्थंभूता मत्खुपेक्षणा न कर्तव्येति स्थितं । किविशिष्टा पुनः कर्तच्या इति', भत आह
अणूणाहरितपडिलेहा, अविवचासा तहेव य । पढम पयं पसस्थं, सेसाणि अ अप्पसंस्थाणि ॥२६८॥ ___ अन्यूनातिरिक्ता अविपर्यासेन प्रत्युपेक्षणा कर्सच्या, एभिश्च त्रिभिः पदैरष्टौ भङ्गाः सूचिताः तेषां चैषा स्थापनाएतेषां प्रथमं पदं प्रशस्त शेषाणि तु 'अप्रशस्तानि' अनादेयानि । इदानीं भाष्यकारः शुद्धाशुद्धप्रदर्शनायाह-|| नवि ऊणा नवि रित्ता अविवच्चासा उ पढमओ सुद्धो।सेसा होइ असुद्धा उवरिल्ला सस जेभंगा१६६(भा०)SIS
नापि न्यूना नाप्यतिरिक्ता अविपर्यासेण च, अयं प्रथमो भगः शुद्धः, शेषं सुगर्म । इदानीं ये तेऽशुद्धाः सप्त | भङ्गका प्रदर्शितास्त एवं भवन्तिखोडपमजणवेलाउ चेव उणाहिमा मुणेया। अरुणावासग १ पुर्व २परोप्परं ३ पाणिपडिलेहा४॥२३९॥ खोटका यदि ऊना अधिका वा क्रियन्ते ततोऽशुद्धता भवति, प्रमार्जना च नवसवाया न्यूना अधिका वा
दीप अनुक्रम [४५५]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४१७] .. "नियुक्ति: [२६९] + भाष्यं [१६६] + प्रक्षेपं [२२...]". मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र
||२६९||
श्रीओघ-13 क्रियते ततोऽशुद्धता भवति, वेलायां च न्यूनाधामधिकायां वा प्रत्युपेक्षणायां क्रियमाणायामशुद्धा भङ्गका भवन्ति । एवं प्रतिलेखना नियुक्तिः ते न्यूनाधिका भवन्ति विज्ञेयाः । आह-वेळायां न्यूनाधिकायां प्रत्युपेक्षणायां क्रियमाणायां दोष उक्तस्तत्कस्यां पुनर्वे- विधिःभा. द्रोणीया लायां प्रत्युपेक्षणा कर्त्तव्या?, तत्र केचनाहुः-'अरुणावासग पुर्व अरुणादावश्यक पूर्वमेव कृत्वा ततः अरुणोद्गमनसवृत्तिः मये-प्रभास्फाटनवेलायां प्रत्युपेक्षणा क्रियते१,अपरे त्वाः-अरुणोद्गमे सति-प्रभायां स्फाटितायां सत्यामावश्यक पूर्व प्रथम |
नि.२६८
*२६९-२७० ॥११॥
कृत्या ततः प्रत्युपेक्षणा क्रियते.२, अन्ये त्वाः-'परोप्पर ति परस्परं यदा मुखानि विभाव्यन्ते तदा प्रत्युपेक्षणा क्रियते ३, अन्ये वाहुः-'पाणिपडिलेहा' यस्यां बेलायां पाणिरेखा दृश्यन्ते तस्यां वेलायां प्रत्युपेक्षणा क्रियते ४ । सिद्धान्तवाद्याह
एते उ अणाएसा अंधारे उग्गएविड न दीसे । मुहरयनिसिलचोले कप्पतिगदुपट्टथुई सूरो ॥ २७ ॥ 13 ते सर्व एव 'अनादेशाः असत्पक्षाः, यतः 'अंधारे उग्गएविहु न दीसे' अन्धकारे प्रतिश्रये उद्गतेऽपि सूर्ये रेखा न टू श्यन्ते तस्मादसत्पक्षोऽयं, शेषं पक्षत्रयं सान्धकारत्वादेव दूषितं द्रष्टव्यं, तत्कस्यां पुनवेलायां प्रत्युपेक्षणा कार्या ! इत्यत
आह-'मुहरयनिसज्जचोले कप्पतिगदुपट्टथुति सूरों' 'मुख' इति मुखवस्त्रिका 'रय' इति रजोहरणं 'निसेज्जा' रयहर-| दणस्योपरितनाः 'चोले'त्ति चोलपट्टकः 'कप्पतिगत्ति एक औणिको द्वौ सौत्रिकी, 'दुपट्टत्ति संस्तारकपट्ट उत्तरपट्टकच
'वह'त्ति प्रतिक्रमणप्रतिसमाप्ती ज्ञानदर्शनचारित्रार्थं स्तुतित्रये दत्ते सति एतेषां मुखवत्रिकादीनां प्रत्युपेक्षणासमात्यन-IMIRan न्तरं यथा सूर्य उद्गच्छति एष प्रत्युपेक्षणाकालविभाग इति । यदुक्तं प्रागुपधेर्विपर्यासः प्रत्युपेक्षणायां न कर्त्तव्य इत्युत्सर्गतोऽभिहितं, तस्यापवादमाह
दीप अनुक्रम [४५७]
BRaitaram.org
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४५९] → “नियुक्ति : [२७०] + भाष्यं [१६६...] + प्रक्षेपं [२२...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२७०||
पुरिसुवहिविवचासो सागरिए करिव उवहिवच्चासं । आपुच्छित्ताण गुरुं पहुचमाणेयरे वितहं ॥ २७१ ॥ तत्र विपर्यासो द्विविधा-पुरुषविपर्यास उपधिविपर्यासश्च, तत्रोपधिविपर्यासप्रतिपादनायाह-'सागरिए करेज उवहिवश्वास' 'सागारिके' स्तेनादिके सत्यागत इति विपर्यासः क्रियते प्रत्युपेक्षणायाः, प्रथमं पात्रकाणि प्रत्युपेक्ष्यन्ते पश्चाद-15
स्त्राणि । एवमयं प्रत्युषसि विपर्यासः प्रत्युपेक्षणायाः, एवं विकालेऽपि सांगारिकानागन्तुकान् ज्ञात्वा । इदानीं पुरुषविपपर्यास उच्यते, तत्राह-'आपुच्छित्ताण गुरुं पहुबमाणे आपृच्छ्च गुरुमात्मीयोपधिं ग्लानसत्कां वा प्रत्युपेक्षते, कदा ?
अत आह-'पहुबमाणे' यदा आभिमहिका उपधिप्रत्युपेक्षकाः 'पहुवंति' पर्याप्यन्ते तदैवं करोति 'इतरे वितह'ति इतरेऽभिग्रहिका यदा न सन्ति तदा प्रथममात्मीयामुपछि प्रत्युपेक्षमाणस्य 'वितथं अनाचारो भवतीत्यर्थः, तत्र न केवलं प्रत्युपेक्षणाकाले उपधिविपर्यासं कुर्वतो वितर्थ-अनाचारो भवति । एवं च वितथं भवतिपडिलेहणं करेंतो मिहो कहं कुणइ जणवयकहं वा । देइ व पञ्चक्खाणं वाएइ सयं पडिच्छा वा ॥ २७२ ॥
प्रत्युपेक्षणां कुर्वन्मिथः कथां मैथुनसंबद्धां करोति जनपदकथां वा, प्रत्याख्यानं वा श्रावकादेर्ददाति, 'वाचयति' कश्चित्साधुं पाठयतीत्यर्थः, 'सयं पडिच्छति वा स्वयं वा प्रतीच्छति-आत्मना वाऽऽलापं दीयमानं प्रतीच्छति-गृहाति। एतच कुर्वन् पण्णामपि कायानां विराधको भवति, अत आह
पुढवी आऊकाए तेऊबाऊवणस्सइतसाणं । पढिलहणापमत्तो छहंपि विराहओ होइ ॥२७३ ॥ सुगमा । कथं पुनः कायानां षण्णामपि विराधकः, अत आह
NICOCCASSAGAR
दीप अनुक्रम [४५९]
Dancianarmera
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४६२] » “नियुक्ति: [२७३] + भाष्यं [१६६...] + प्रक्षेपं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२७३||
CR
श्रीओघ- घडगाइपलोडणया महिअ अगणी य बीय कुंथाई । उदगगया व तसेयर ओमुय संघट्ट झावणया ॥ २७४ ॥ पतिलेखना नियुक्तिः II स हि साधुः कुम्भकारशालादी वसती प्रत्युपेक्षां कुर्वन्ननुपयुक्तस्तोयघटादि प्रलोठयेत्, सच तोयभृतो घटो मृत्ति-विधि नि. द्रोणीया
काग्निचीजकुन्थ्वादीनामुपरि प्रलुठितस्ततश्चैतान् व्यापादयेत् , यत्राग्निस्तत्र वायुरप्यवश्यंभावी, अथवाऽनया भाषा पण्णां, २७१-२७६
कायानां व्यापादकः 'उदगगता व ससेतर'त्ति योऽसौ उदकघटः प्रलोठितस्तद्गता एव असा भवन्ति पूतरकादयः ॥११२॥
'इतर'त्ति वनस्पतिकायश्च, तथावस्त्रान्तेन चोन्मुकं सहयत्'चालयेत् ततश्च 'झावणय'त्ति तेनोल्मुकेन चालितेन सता प्रदीपनक संजातं ततश्च संयमात्मनोविराधना जातेति । अथोपयुक्तः प्रत्युपेक्षणां करोति तत एतेषां जीवनिकायानामाराधको भवति, एतदेवाह
पुढची आउकाए तेजवाजवणस्सइतसाणं । पडिलहणमाउत्तो छण्इंऽपाराहभो होइ ॥ २७॥ INT सुगमा ।। नवरम् 'आराधकः' अविराधको भवति । न केवलं प्रत्युपेक्षणा, अन्योऽपि यः कश्चित् व्यापारो भगवम्मते
सम्बक प्रयुज्यते स एच दुःखक्षयायालं भवति, एतदेवाह-. जोगो जोगो जिणसासणंमि दुक्खक्खया पञ्जते । अण्णोण्णमवाहाए असवत्तो होइ कायचो ॥ २७॥
॥११२॥ योगो योग इति वीप्सा, ततश्च व्यापारो जिनशासने प्रयुज्यमानो दुःखक्षयाय 'प्रयुज्यमानः' क्रियमाणः, कथम् | 'अन्योन्यायाधया' परस्परापीडया, एतदुक्तं भवति-यथा क्रिया क्रियमाणाऽन्येन कियाम्तरेण न बाभ्यते एवमम्योन्या-101 बाधया प्रयुज्यमाना 'असंवत्तों' असपतः अविरुद्धो भवति कर्त्तव्यः । इदानी फलं प्रदर्शयन्नाद
दीप अनुक्रम [४६२]
SARELatunintamatarna
Halancinrary.org
अत्र एका प्रक्षेप-गाथा वर्तते. मया संपादित “आगम सुत्ताणि" मूलं अथवा सटीकं पुस्तके सा मुद्रिता अस्ति
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४६७] → “नियुक्ति: [२७७] + भाष्यं [१६६...] + प्रक्षेपं [२३...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२७७||
जोगे जोगे जिणसासणंमि दुक्खक्खया पजते । एककमि अणंता वहता केवली जाया ॥२७॥ | सुगमा । नवरम्-एकैकस्मिन् 'योगे' व्यापारे वर्त्तमामा अनन्ताः केवलिनो जाता इति ॥
एवं पडिलेहता अईयकाले अणंतगा सिद्धा । चोयगवयणं सययं पडिलेहेमो जओ सिद्धी ।। २७८ ॥ । एवं प्रस्युपेक्षणां कुर्वन्तोऽतीतकालेऽनन्ताः सिद्धाः। एवमाचार्येणोक्ते सति 'चोयगवयण' अत्र चोदकवचनं-चोदकपक्षः, | किं तद् इत्याह-सततं पडिलेहेमो' यद्येवं प्रत्युपेक्षणाप्रभावादनन्ताः सिद्धास्ततः सततमेव प्रत्युपेक्षणां कुर्मः, किमन्वे
नानुष्ठितेन , यतस्तत एव सिद्धिर्भवति । आचार्यः माह। सेसेसु अवतो पडिलेहंतोवि देसमाराहे । जइ पुण सबाराहणमिच्छसि तो णं निसामेहि ॥ २७९ ॥ - शेषेषु योगेषु अवर्तमानः सम्यक् शाखोकेन न्यायेम प्रत्युपेक्षणां कुर्वन्नपि देशत आराधक एवासौ, न तु सर्वमाराधित भवति, तेन यदि पुनः संपूर्णामाराधनामिच्छसीति, शेष सुगम । कथं च सर्वाराधको भवति !, अत आह
पंचिंदिएहिं गुत्तो मणमाईतिविहकरणमाउत्तो । तवनियमसंजमंमि अ जुत्तो आराधओ होइ ॥ २८॥ 13
पश्चभिरिन्द्रियैर्गुप्तो मनसादिना त्रिविधेन करणेन 'युक्तः' यक्षवान् तपसा-द्वादशविधेन युक्तः नियम:-इन्द्रियः । नियमो नोइंद्रियनियमच तेन युक्तः, संयमः-सप्तदशप्रकारः पुढविकाओ आउकाओ तेउकाओ वाउकाओ वणस्सइकाओ | बेंदियतेंदिअचउरिदिअपंचिंदिअअजीवकायसंजमो पेहाचपेहापमजणपरिवणमणोवईकाए । अन्न संयतः सन् मोक्षस्या-10
दीप अनुक्रम [४६७]
JAMEauraton
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४७०]
“नियुक्ति: [२८०] + भाष्यं [१६७] + प्रक्षेपं [२३...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
श्रीओध
मोग
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२८०||
वृत्तिः ዘየደችህ
त राधको भवति प्रव्रज्याया वाऽऽराधकः । द्वारगाथेयम् । इदानी भाष्यकार एतां गाथा प्रतिपदं व्याख्यानयति, तत्र 'पचिंट प्रतिलेखदिएहिं गुत्तो'त्ति प्रथमावयवं व्याख्यानयन्नाह
नाविधिः इंदियविसयनिरोहो पत्तेसुवि रागदोसनिग्गहणं । अकुसलजोगनिरोहो कुसलोदय एगभावोवा ॥१६७॥ (भा)
नि.२७७ला इन्द्रस्यामूनि इन्द्रियाणि तेषां विषयाः-शब्दादयः तेषां च यो निरोधः सा पश्चेन्द्रियंगुप्तिरभिधीयते, अयमप्राप्तानां
२७९ सबों
राधकत्वं शब्दादिविषयाणां निरोधः, तथा 'पत्तेसुचि रागदोसनिग्गहणं'ति तथा 'प्राप्तेषु' गोचरमागतेप्वपि शब्दादिषु विषयेषु
नि.२८० रागद्वेषयोर्निग्रहणं यत्सा पञ्चेन्द्रियगुप्तता, तत्रेष्टशब्दादिविषयप्राप्ती रागन गच्छति अनिष्टशब्दादिविषयप्राप्ती द्वेष न गच्छ-14
लाभा. १६७तीति, भणिता पथेन्द्रियगुप्तता, इदानीं 'मणमाईतिविहकरणमाउत्तया" भवति, तत्राह-'अकुसलजोगनिरोहों' अकुश-II १५८ लानाम्-अशोभनानां मनोवाकाययोगानां व्यापाराणां यो निरोधः सा विविधकरणयुक्तता, तथा 'कुसलोदय'त्तिा कुशलाना-प्रशस्तानां मनोवाकायव्यापाराणां य उदयः सा त्रिविधकरणगुप्तता, तथा 'एगभावो वत्ति न कुशलेषु || योगेषु प्रवृत्ति प्यकुशलेषु योगेषु प्रवृत्तिर्या मध्यस्थता सा त्रिविधकरणगुप्तता । भणिता त्रिविधकरणगुप्तता इदानीं । तवत्ति भण्णतिअम्भितरवाहिरगं तवोवहाणं दुवालसविहं तु । इंदियतो पुवुत्तो नियमो कोहाइओ बिइओ ॥१६८॥ (भा.) | अभ्यन्तरं बाह्यं च यत्तप उपधानम्-उपदधातीत्युपधानम्-उपकरोतीत्यर्थः, तच्चोपधानं द्वादशविधमपि तप उच्यते ।
११३।। तवो गओ, नियमो भण्णति, स च द्विधा-इन्द्रियनियमो नोइन्द्रियनियमच, तत्रेन्द्रियतः-इन्द्रियाण्यङ्गीकृत्य पूर्वोक्को नि
दीप अनुक्रम [४७०]
SHARERucatural
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४७२] → “नियुक्ति: [२८०...] + भाष्यं [१६८] + प्रक्षेपं [२३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१६८||
यमः,'कोहाइओ थिइओ'त्ति द्वितीयो नोइन्द्रियनियमः क्रोधादिकः, आदिग्रहणान्मानमायालोभा गृह्यन्ते, एतेषां नियमोनिरोधः । नियमोत्ति गर्य, इदानीं संजमो भण्णइ, स च सप्तदशप्रकारस्तत्राह
पुढचिदगअगणिमारुअवणस्सईबितिचउकपंचिंदी अजीव पोत्थगाइसु गहिएसु असंजमो जेणं ॥१९॥(भा०) है पुढविदगअगणिमारुअवणस्सईवेइदिअतेइंदिअचउरिंदिअपंचिंदिआ । तथा 'अजीव त्ति 'अजीवेषु' पनकसंसक्त
पुस्तकादिषु गृहीतेषु असंयमो भवति येन तन्न ग्राह्यं, आदिशब्दात् दूसपणगं तणपणगं च, एतेषु अपरिगृहीतेषु संयमः|| परिगृहीतेषु त्वसंयमः। तहापत्ता संजमो वृत्तो, उपेहितावि संजमो । पमजेत्ता संजमो वुत्तो, परिहावेत्ताधि संजमो ॥१७॥ (भा०)।
प्रेक्षासंयमः-चक्षुषा यन्निरूपणं, ततश्चैवं पूर्व चक्षुषा निरूपयतः प्रेक्षासंयम उक्तः । 'उवेहेत्तावि संजमोत्ति उपेक्षा द्विप्रकारा तां कुर्वतः संयम उक्तस्तां च वक्ष्यति । 'पमन्जित्ता संजमो वुत्तो'त्ति प्रमार्जयतः संयम उक्तः। 'परिहवेत्तावि| है संजमोत्ति परिष्ठापयतः परित्यजतोऽपि पानकादि अतिरिक्तं संयम उक्तः। एवमेते चतुर्दश, मनोवाकायसंयमश्च त्रिविध |
उक्त एव द्रष्टव्यः । इदानीं भाष्यकृव्याख्यानयति-प्रथमगाथार्थः एकाकिकारणिकगमनयतनायामुक्तः, अजीवपुस्तकादि-13 संयमोऽपि अचित्तवनस्पतिगमनयतनायां व्याख्यात एव द्रष्टव्यः, इदानीं यदुपन्यस्तै 'उपेहितावि संयमो'त्ति तन्न कचि- व्याख्यातमिति व्याख्यानयनाहठाणाइ जत्थ चेए पुर्व पडिलेहिऊण चेएज्जा । संजयगिहिचोयणऽचोयणे य वाचारओबेहा ॥ १७१ ॥ (भा)
दीप अनुक्रम [४७२]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४७५] → नियुक्ति: [२८०...] + भाष्यं [१७१] + प्रक्षेपं [२३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रेक्षादिसंय
मा: भा. १६९-१७३
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१७१||
श्रीओपनियुक्तिः द्रोणीया वृत्ति ॥११॥
स्थान-कीस्थानं कायोत्सर्गादि, आदिग्रहणाविषीदनस्थान त्वग्वर्तनास्थानं च गृह्यते, तत्स्थानादि यत्र चेतयते "चिती संज्ञाने' जानाति चेष्टते करोति अभिलपतीत्यर्थः, तत्र पूर्व-प्रथमं प्रत्युपेक्ष्य-चक्षुषा निरीक्ष्य ततश्चेतयते स्थान-कायोत्सर्गादि, आदिग्रहणान्निषीदनस्थानं स्वगवर्तनास्थानं च, सक्तः प्रेक्षासंयमः, इदानी उपेक्षासंयम उच्यते, सा चोपेक्षा द्विविधा, कथं? -संयतव्यापारोपेक्षा, गृहस्थव्यापारोपेक्षा च, तत्र यथासवं संयतस्य चोदनविषया व्यापारोपेक्षा, गृहस्थस्य चाचीदनविषया व्यापारोपेक्षा, एतदुक्तं भवति-साधु विषीदन्तं दृष्ट्वा संयमच्यापारेषु चोदयतः संयतव्यापारोपेक्षा, उपेक्षाशब्द श्वात्र 'ईक्ष दर्शने' उप-सामीप्येनेक्षा उपेक्षा, तथा गृहस्थस्य व्यापारोपेक्षा, गृहस्थमधिकरणब्यापारेषु प्रवृत्तं राष्ट्रवाऽचोदयतो गृहस्थव्यापारोपेक्षा उच्यते, उपेक्षाशब्दश्चात्रावधारणायां वर्तत इति । इदानीं 'परिडावेत्ताधि संजमोत्ति व्याख्यायते, तबाहउवगरणं अइरेग पाणाई वाऽवह? संजमणं । सागारिएऽपमज्जण संजम सेसे पमन्जणया ॥ १७२ ॥ (भा०)। । 'उपकरण' बखादि यदतिरिक्त गृहीतं तथा 'पाणाई वा' तथा पानकादि वा यदतिरिक गृहीतं तद् 'अवह 'त्ति परित्यज्य, किं -संजमणा' संयमो भवतीति, मादिग्रहणात वाऽतिरिक्तं परित्यज्य संयमः । अथेदानी "पमजित्सावि संजमो" व्याख्यायते-'सागारिएऽपमजण संजमों' सागारिकानामग्रतो यत्पादाप्रमार्जनमसावेव संयमः, 'सेसे पमनणय'ति 'शेषे सागारिकायभावे प्रमार्जनेनैव संयमः । इदानीं योगत्रयसंयमप्रतिपादनायाह- . जोगलिग खमणि समत्तपडिलेहणाए सजनाओ। चरिमाए पोरिसीए पडिलेह तआ उ पायदुगं॥१७।। (भा०) । योगत्रयं पूर्वमेव व्याख्यातं, "मणमाईतिविहकरणमाउत्तो इत्यस्मिन् ग्रन्थे, अत्रापि तथैव द्रष्टवं । रक्ता सप्तदश-1
दीप अनुक्रम [४७५]
| ॥११॥
maharary.orm
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४७८] » “नियुक्ति: [२८१] + भाष्यं [१७३] + प्रक्षेपं [२३...]". मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२८१||
प्रकारः संयमः, तत्प्रतिपादनाचोक्ता पखप्रत्युपेक्षणा, तत्समाप्तौ च किंकर्तव्यमित्यत आह–'समत्तपडिलेहणाए सज्झाओ' समाप्तायां प्रत्युपेक्षणायां स्वाध्यायः कर्त्तव्यः सूत्रपौरुषीत्यर्थः पादोनप्रहरं यावत् । इदानीं पात्रप्रत्युपेक्षणामाह'चरिमाए' 'घरमायां पादोनपौरुष्या प्रत्युपेक्षेत 'ताहे'त्ति 'तदा' तस्मिन् काले स्वाध्यायानन्तरं पात्रकद्वितयं प्रत्युपेक्षते । इदानी यदुक्तं 'चरमपौरुष्यां पात्रकद्वितयं प्रत्युपेक्षणीय' तत्र पौरुष्येव न ज्ञायते किंप्रमाणा? अतस्तत्प्रतिपादनायाह
पोरिसि पमाणकालो निच्छयववहारिओ जिणक्खाओ। निच्छयओकरणजुओ ववहारमतो परं वोच्छं ॥२८॥ ISI पौरुष्या प्रमाणकालो द्विविधः निश्चयतो व्यवहारतश्च ज्ञातव्यः, तत्र 'निश्चयतो निश्चयनयाभिप्रायेण करणयुक्तो|गणितन्यायात, अतः परं 'व्यावहारिको व्यवहारनयमतेन वक्ष्ये । तत्र निश्चयपौरुषीप्रमाणकालप्रतिपादनायाह
अयणाईयदिणगणे अडगुणेगडिभाइए लद्धं । उत्तरदाहिणमाई पोरिसि पयसुज्झपक्रया ॥ २८२ ॥ देक्खिणायने उत्तरायणदिनानि उत्तरायणे दक्षिणायनदिनानि मीलयित्वा गण्यन्ते, स राशिरएभिर्गुण्यते, एकषष्ट्या अधर्म-सरायण दक्षिणायनं च तस्य अतीतदिनानि-तीनदिवसाः तेषां गणः सर्वोरवाटतः ज्यशीतिशातं तचाटगणं जातं चतुर्दशशतानि चतुःषावधिकानि, | सत्र कियाथा भागे इते लब्धानि चतुविधात्यलानि, तत्रापि वावधाभिरकुलैः पादमिति के पाये जाते, एतयोश्नोत्तरायणादी पक्षिणायमादीच
पथ'ति पो शुद्धिः प्रक्षेपन, तब उत्तरायणप्रथमदिने चस्वारि पदानि भासन् ततस्तन्मध्यात् पदयोसारणे संक्रान्तिदिने पद संजातं, पक्षि-19 | गायने व पदे भभूता सम्मध्ये च यो प्रक्षिक्षयोमकरसंक्रान्ती जातानि चत्वारि पदानि, इदकृष्टदिनयोः पौरुषीमानं, मध्यम दिनेष्वपिस्तविया भावनीय। इदानी व्यवहारता पीरुषीप्रमाणकाक्रप्रतिपादनायाह- (पत्यन्तरे सुगमो यथाथमोधको प्रयोध्यमिति)
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दीप अनुक्रम [४७८]
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अथ 'पौरुषी' संबंधी प्ररुपणा क्रियते
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४८१] » “नियुक्ति: [२८३] + भाष्यं [१७३...] + प्रक्षेपं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२८३||
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श्रीओघ- भागो हियते, लन्धेऽङ्गलानि, द्वादशाङ्गुलैः पादः, यावता भवति उत्तरत्ति मकरदिने ४ पादाः । (दाहिणत्ति-कर्कदिने पौरुषीप्रसनियुक्तिः 13/२ पादौ, शेषेषु पदशुद्धिप्रक्षेपी) व्यवहारतोऽधुना पौरुषीप्रमाणकालप्रतिपादनायाह
पणा नि. द्रोणीयादा आसाढे मासे दो पया, पोसे मासे चउप्पया । चित्तासोएसु मासेम, तिपया हवइ पोरिसी ॥२८३ ॥ २८१-२८४ वृत्तिः
आषाढे मासे पौर्णमास्यां द्विपदा पौरुषी भवति,पदं च द्वादशाङ्गलं ग्राह्य, पौषे मासे पौर्णमास्यां चतुष्पदा पौरुषी भवति, तथा ॥११५॥
चैत्राश्वयुजपौर्णमास्यां त्रिपदा पौरुषी भवति। अधुना कियती वृद्धिः कियत्सु दिनेषु? कियती वा हानिरित्येतत्प्रतिपादयन्नाह -
अंगुलं सत्तरत्तेणं, पक्खेणं तु दुअंगुलं । बहुए हायए वावि, मासेणं चउरंगुलं ॥ २८४ ॥ आषाढपौर्णमास्या आरभ्याङ्गुलं सप्तरात्रेण वर्द्धते, पक्षेण तु अङ्गलद्वयं वर्धते, तथा मासेनाङ्गलचतुष्टयं वर्द्धते, इयं च वृद्धिरुत्तरोत्तरं तावन्नेया यावत्पौषमासपौर्णमास्यां पदचतुष्टयेन पौरुषी जायते, हानिरपि पौर्णमास्याः परत एवमेव च। द्रष्टव्या, यदुताङ्गलं सप्तरात्रेणापहियते, पक्षणाङ्गलद्वयं,मासेनाङ्गलचतुष्टयं, एवमियं हानिरुत्तरोत्तरं तावन्नेया यावदाषाढपौर्णमास्यां द्विपदा पौरुषी जायेत । स्थापना चेयम्-आसाढपुणिमाए पद २ पौरुषी, सावणपुषिणमाए पद २ अंगुल ४, भदवयपुण्णिमाए पद २ अंगुल ८, आसोयपुण्णिमाए पद ३, कत्तियपुन्निमाए पद ३ अंगुल ४, मग्गसिरपुण्णिमाए पद ३ अंगुल.८, पोसपुण्णिमाए पद ४, एत्ति जाव वुड्डी होइ । माहपुषिणमाए पद ३ अंगुल ८ फग्गुणपुण्णिमाए पद ३
॥११॥ अंगुल ४, चेत्तपुषिणमाए पद ३, वइसाहपुन्निमाए पद २ अंगुल ८, ज्येष्ठपुन्निमाए पद २ अंगुल ४, आसाढपुन्निमाए |पद २, इत्तियं जाव हाणी | भावत्थो इमो-सावणस्स पढमदिवसाओ आरब्भ बुही जदा भवति तदा दिवसे दिवसे अंगुलस्स
दीप अनुक्रम [४८१]
SAREauratonintentiamonal
अत्र एका प्रक्षेप-गाथा वर्तते. मया संपादित “आगम सुत्ताणि" मूलं अथवा सटीकं पुस्तके सा मुद्रिता अस्ति
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४८२] → “नियुक्ति : [२८४] + भाष्यं [१७३...] + प्रक्षेपं [२४...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२८४||
जासत्तमो भागो किंचिप्पूणो वडाइ, इमं भणि होइ-सावणस्स पढमदिवसे दोहि पाहि पोरिसी होइ अंगुलस्स सत्तमेण
भागेण किंचिप्पूणेण अहिया, एवं बितियदिवसे दो पयाई दो असत्तमभागा अंगुलस्स किंचिप्पूणा, एवं एयाए बुट्टिए ताव ki जाव सावणपुण्णिमाए दो पयाई चत्तारि य अंगुलाई बुड्डी जाया, एवं इमाइ कमवुड्डीए ताव नेय जाव पोसमासपुण्णिमा, तत्व चउप्पया पोरिसी, ततो परं माहपढमदिवसाउ आरम्भ हाणी एतेण चेव कमेण नायबा जाव आसाढपुण्णिमा । आह-इदमुक्त सप्तभिर्दिवसैरङ्गलं वर्द्धते, तथा पक्षणाङ्गलद्वयं वर्द्धते इत्युक्तं, तदयं विरोधः,कुतो?, यदा पक्षणाङ्गलद्वयं वर्द्धते तदाऽङ्गलं सप्तभिः साढ़ेंदिवसैर्वर्द्धते?, आचार्यस्त्वाह, सत्यमेतत्, किन्त्वनेनैव तत्प्रख्याप्यते-वरं किश्चिदृद्धायां पौरुष्यां पारितं मात
भून्यूनायां, प्रत्याख्यानभङ्गभयात्, न्यूनता च पौरुभ्यामेवं भवति, यदि याऽसौ मातुमारब्धा छाया तस्यां यदि प्रदीर्घायां दभुते तदा न्यूना पौरुषी, अधिका च तदा भवति यदा सा छाया-स्वल्पा भवतीति । अधुना येषु मासेष्वहोरात्राणि पतन्ति तान् मासान् प्रतिपादयन्नाह
आसाढबहुलपक्खे भद्दवए कत्तिए य पोसे य । फग्गुणवइसाहेसु य बोद्धछा ओमरत्ताभो ॥ २८५ ॥
आषाढस्य मासस्य बहुलपक्षे-कृष्णपक्षेऽहोरात्रं पतति, तथा भाद्रपदबहुलपक्षे कार्तिकबहुलपक्षे पौषबहुलपक्षे फागुन-18 बहुलपक्षे वैशाखबहुलपक्षे चाहोरात्राणि पतन्ति । 'ओमरतं' अहोरात्रं, न च तैरहोरात्रैः पतगिरपि पौरुष्या न्यूनता वेदि
सव्या, अस्यार्थस्य ज्ञापनार्थमिदमुक्तं । एवं तावत्पौरुष्याः प्रमाणमुपगतं, या तु पुनश्चरमपौरुषी सा कियत्प्रमाणा भवतीयत५ स्तत्स्वरूपप्रतिपादनायाह
दीप अनुक्रम [४८२]
Sarasaram.org
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||२८६||
दीप
अनुक्रम [४८४]
श्रीओोषनिर्युक्तिः
द्रोणीया
वृत्तिः
॥११६॥
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [४८४]
“निर्युक्ति: [ २८६] + भाष्यं [१७३...] + प्रक्षेपं [२४]...] ८० मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
जेट्ठामूले आसाढसाबणे छहिं अंगुलेहिं पडिलेहा । अट्ठहिं बीअतियंमि अ तइए दस अट्ठहि चडस्थे ॥ २८६ ॥ मासे तथाssवाभावणे षङ्गिरङ्गलैर्यावदद्यापि पौरुषी न पूर्यते तावच्चरमपौरुषी भवति । 'अट्ठहिं चितिअतिमि ति भाद्रपदे आश्वयुजि कार्तिके चास्मिन् द्वितीयत्रिकेऽष्टभिरङ्गलैर्यावदद्यापि पौरुषी न पूर्यते तावच्चरमपौरुषी भवति । 'ततिए दस' त्ति मार्गशिरे पौषे माथे च एतस्मिन् तृतीये त्रिके दशभिरङ्गलैर्यावदद्यापि पौरुषी न पूर्यते तावचरमपौ रुषी भवति । 'अट्ठहिं चउत्थे' त्ति फाल्गुने चैत्रे वैशाखे च अस्मिंश्चतुर्थे त्रिकेऽष्टभिरकुलैर्यावन्न पूर्यते पौरुषी तावच्चरमपौरुषी भवति, एतस्यां चरमपौरुष्यां पात्रकाणि प्रतिलेख्यन्ते । स च पात्रकप्रत्युपेक्षणासमये पूर्व कं व्यापारं करोतीत्याहउववजिऊण पुढं तलेसो जइ करेइ उबओगं । सोएण चक्खुणा घाणओ य जीहाऍ फासेणं ॥ २८७ ॥
'उपयुज्य' उपयोगं दत्त्वा पूर्वमेव यदुत मयाऽस्यां वेलायां पात्रकाणि प्रत्युपेक्षणीयानीत्येवमुपयुज्य पुनः 'तल्लेश्य एव' प्रत्युपेक्षणाभिमुख एव 'जति' त्ति 'यतिः' प्रब्रजितः पात्रकसमीपे उपविश्य 'उपयोगं करोति' मतिं व्यापारयति, कथं?- 'श्रोत्रेण' श्रोत्रेन्द्रियेण पात्रके उपयोगं करोति, कदाचित्तत्र भ्रमरादिं गुञ्जन्तं शृणोति, पुनस्तं यतनयाऽपनीय तत्पात्रकं प्रत्युपेक्षते, तथा चक्षुषा उपयोगं ददाति कदाचित्तत्र मूषिकोत्केरादिरजो भवति, ततस्तद्यतनयाऽपनयति, प्राणेन्द्रियेण चोपयोगं करोति कदाचित्तत्र सुरभकादिर्मर्दितो भवति पुनश्च प्राणेन्द्रियेण ज्ञात्वा यतनयाऽपनयति, जिया एवं शात्वा यत्र गन्धसत्र रसोऽपि गन्धपुङ्गलैरोष्ठो यदा व्याप्तो भवति, तदा जिह्वया रसं जामातीति, स्पर्श
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पौरुषीप्ररूपणा नि. २८५-२८६
+ मात्रकप्रत्यु४ नि. २८७
॥ ११६॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४८६] . “नियुक्ति: [२८७] + भाष्यं [१७४] + प्रक्षेपं [२४...]". मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
X
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प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२८७||
नेन्द्रियेण चोपयोग ददाति कदाचित्तत्र मूषिकादिः प्रविष्टस्तन्निःश्वासवायुश्च शरीरे लगति, ततश्चैवमुपयोग दवा पात्रकाणि प्रत्युपेक्ष्यन्ते ॥ इदानीं भाष्यकृत्किंचियाख्यानयनाह- . पडिलेहणियाकाले फिडिए कल्लाणगं तु पच्छिसं । पायस्स पासु बेहो सोयादुवाउस तल्लेसो ॥ १७४ ॥ (भा०) | प्रत्युपेक्षणाकाले 'फिटिते' अतिक्रान्ते एक कल्याणकं यतः प्रायश्चित्तं भवति अतः पूर्वमुपयोग प्रत्युपेक्षणाविषयं करोति।
किविशिष्टोऽसौ उपयोगं करोतीत्यत आह-'पायरस पासु बेहो पात्रकस्य पार्थे उपविष्टः श्रोत्रादिभिरुपयुक्तस्तलेश्य:#तचित्तो भवतीति । कथं पुनः पात्रकप्रत्युपेक्षणां करोतीत्यत आह6 महर्णतएण गोउं गोच्छगगहिअंगुलीहिं पहलाई । पापभाणवस्थे पलिमंथासुतं न भवे ॥२८॥
'मुहर्णतएण' त्ति रजोहरणमुखवखिकया 'गोच्छं' वश्यमाणलक्षणं प्रमार्जयति, पुनस्तमेव गोच्छकमङ्गलीभिहीत्वा पटलानि प्रमार्जयति । अत्राह पर:-'उकुडयभाणपत्थे उत्कुटुकः सन् 'भाजनवखाणि' गोच्छकादीनि प्रत्युपेक्षयेत् यतो वसमस्युपेक्षणा उत्कुटुकेनैव कर्तव्या, आचार्य आह-'पलिमथाईसु तं न भवें तदेतन्न भवति यच्चोदकेनोक्तं, यतः
पलिमन्थः सूत्रार्थयोर्भवति, कथा, प्रथममसी पादयोग्छने निषीदति पश्चात् पात्रकवस्खप्रत्युपेक्षणायामुत्कटुको भवति पुनः ★ पात्रकप्रत्युपेक्षणायां पादप्रोम्छने निषीदति, एवं तस्व साधोश्चिरयतः सूत्रार्थयोः पलिमन्थो भवति यतः अतः पादमोग्छने ।
निषण्णेनैव पात्रकवस्त्रप्रत्युपेक्षणा कर्तव्येति ॥ ततः किं करोतीत्याह- . एचउकोण भाणकपणं पम पाएसरीय विगुणं तु । भाणस्स पुष्फर्ग लो इमेहिं कहि पडिलेहे ॥ २८९ ॥
दीप अनुक्रम [४८६]
CCCCESGARCACACADO
4-06
वस्त्र, पात्र एवं स्थण्डिल आदि संबंधी प्रत्यप्रेक्षणा वर्णयते
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४८८] → “नियुक्ति: [२८९] + भाष्यं [१७४...] + प्रक्षेपं [२४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२८९||
वृत्तिः
श्रीओष- पटलानि प्रत्युपेक्ष्य पुनर्गोच्छकं वामहस्तानामिकाकुल्या गृह्णाति, ततः पात्रकेसरिकां-पात्रकमुखवत्रिकां पावकस्थामेव पात्रकप्रत्यु. नियुक्तिः गृह्णाति, 'चउकोण' त्ति चतुरः पात्रबन्धकोणान् संवत्त्योपरिस्थापितान् प्रमार्जयति, पुनर्भाजनस्य कर्ण प्रमार्जयति, भा. १७४ द्रोणीया पुनश्च पात्रककेसरिकयैव 'तिगुणं' तिम्रो वारा बाह्यतोऽभ्यन्तरतस्तिस्र एव बाराः प्रमार्जयति, ततः "भाणस्स' पात्रकस्या
२९१ 'पुष्फगं बुभं ततः एतानि वक्ष्यमाणलक्षणानि कार्याणि यदि न भवन्ति ततः प्रथमं बुनं पात्रकस्य प्रत्युपेक्ष्यते । कानि ॥११७॥ पुनस्तानि कार्याणि ?, अत आह- .
मूसयरय उकेरे, घणसंताणए इय । उदए महिआ चेव, एमेया पडिवत्तिओ ॥ २९॥ कदाचित्तत्र मूपिकोरकेररजो लग्नं भवति ततस्तद्यतनयाऽपनीयते, तथा धनः सन्तानको वा-कदाचित् तत्थ कोलि& अतंतुयं लग्ग होइ तद्यतनयाऽपनीयते । तथा 'उदए' त्ति कदाचिदुदकं लग्नं भवति, साद्रीया भूमेरुन्मज्य लगति, तत्र यतनां वक्ष्यति, 'मडिआ चेव' कदाचित् मृत्तिका कोत्थलकारिकायाः संबन्धिनी लगति तत्र यतनां वक्ष्यति, एवमेताःIPI प्रतिपत्तयः-प्रकारा-भेदा यदि न भवन्ति ततो बुनं प्रत्युपेक्ष्यते । कुतः पुनरुत्केरादिसम्भवः' इत्यत आहनवगनिवेसे दूराउ उकेरो मृसएहिं उकिण्णो निद्धमहि हरतणू वा ठाणं भेत्तूण पविसेना ॥ २९१ ॥ | 'नवगणिवेसे' यत्र प्रामादी ते साधव आवासिताः स नवः-अभिनवो निवेशः कदाचिद्भवति, सत्र च पात्रकसमीपे | मूर्षिकैरुत्केर उत्कीर्णतेन रजसा पात्रक गुण्ड्यते । मूसगरउकेरेत्ति भणिय, '
निमहिहरतणू वा' तथा स्निग्धायाँ-साद्रों-18
॥११७॥ दयां भुवि 'हरतणू व' त्ति सलिलबिन्दव उन्मज्ज्य लगन्ति ततो भुव उन्मज्ज्य पात्रकस्थापनक भित्त्वा प्रविशेत् स लग्नो
दीप अनुक्रम [४८८]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४९०] → नियुक्ति: [२९१] + भाष्यं [१७४...] + प्रक्षेपं [२४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२९१||
भवेत् तद्यतनां वक्ष्यति । उदएत्ति गर्य, इह कस्मादुदकस्थानमेवमुक्तम् , उच्यते, पृथिवीकायस्य धनसन्तानस्य च तुल्ययतनाप्रतिपादनार्थम् । तथाकोत्थलगारिअघरग घणसंताणाइया व लग्गेजा । उकरं सट्ठाणे हरतणु संचिट्ठ जा सको ॥ २९२॥
'कोत्थलकारिका' गृहकारिका गृहकं मृन्मयं करोति तत्र यतनां वक्ष्यति । मट्टिएत्ति भणिअं, घनसन्सानिका वा कदाचिल्लगति घणसतानिया लग्गा, आदिशब्दात्तदण्डकादिः । अधुना सर्वेषामेवैतेषां यतनां प्रतिपादयन्नाह-'उकरं सहाणे' मूर्षिकोत्केरः स्वस्थाने मुच्यते-यतनया मूषिकोत्करमध्य एव स्थाप्यते प्रमृज्य, 'हरतणु' अथ हरतणुः अधस्तात्सलिलबिन्दव उन्मज्य लग्नास्ततस्तावत्प्रतिपालयति याचदेते शोषमुपगच्छन्ति, ततः पश्चात्पात्र प्रत्युपेक्ष्यते । उदएत्ति गयं ॥ इयरेस पोरिसितिगं संचिक्खाचेत्तु तत्तिअंकिंदे। सवं वावि विगिचइ पोराणं महि ताहे ॥ २९३ ॥ | 'इयरेसुं' ति कोस्थलकारिआघणसंताणयादियाण 'पोरिसितिगं संचिक्खावेड'त्ति प्रहरत्रयं यावत्तत्पात्रक संदिन क्खावेत्तु प्रतिपालयति, यदि तावत्याऽपि वेलया नापयाति ततः पात्रकस्थापनादेस्तावन्मात्रं छित्त्वा परित्यज्यते । 'सवं वावि बिगिचति' अन्येषां वा पात्रकस्थापनादीनां सद्भावे सर्वमेव तत्पात्रस्थापनादि परित्यजति । 'पोराणं महिअं| ताहे' त्ति अथ तत्कोत्थलकागृहकं न सचेतनया मृत्तिकया कृतं किन्तु पुराणमृत्तिकया ततस्तां पुराणमृत्तिका 'ताहे' ति|2 तस्मिन्नेव प्रतिलेखनाकालेऽपनयति यदि तत्र कृमिकास्तया न प्रवेशिता इति । पत्तं पमजिऊणं अंतो बाहिं सई तु पप्फोडे । केइ पुण तिषिण वारा चउरंगुल भूमि पडणभया ॥ २९४ ।।
दीप अनुक्रम [४९०]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४९३] » “नियुक्ति : [२९४] + भाष्यं [१७४...] + प्रक्षेपं [२४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
बीभोपनियुक्तिः
द्रोणीया
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२९४||
बत्तिः
॥११॥
इदानीं तत्पात्रक पात्रकेसरिकया-मुखवत्रिकया तिम्रो वारा बाह्यतः प्रमृज्य संपूर्णास्ततो हस्ते स्थापयित्वाऽभ्यन्तर-1 पात्रकप्रत्युतखयो वाराः पुनः समन्ततः 'सई तु पष्फोडे' ति सकृद्-एकां वारामधोमुखां कृत्वा बुने प्रस्फोटयेत्, एवं केचिदाचार्यानि . २९२
वते, केचित्पुनराचार्या एवं भणन्ति, यदुत तिस्रो पाराः प्रस्फोटनीयं, एतदुक्तं भवति-एकां वारां प्रमृज्य पश्चादधोमुखं २९५ प्रस्फोव्यते पुनरपि प्रमृज्य प्रस्फोव्यते ३, एवं तास्तिस्रो वाराः प्रस्फोटनीयं । तच पात्रकं भुष उपरि कियाहूरे प्रत्युपेक्षणी-
Iभा . १७५. यमित्यत आह 'चउरंगुल भूमि' चतुर्भिरकुलै व उपरि धारयित्वा प्रत्युपेक्षणीयं, मा भूत्पतनभकभयं स्यादिति । एषं तावत्प्रत्यूषसि वस्त्रपात्रप्रत्युपेक्षणा उक्का, इदानीमुपधि पात्रकं च प्रत्युपेक्ष्य किमुपधेः कर्त्तव्यं? क या पात्रकं स्थापनीयमित्यत आहचिंटिअबंधणधरणे अगणी सेणे य दंडियक्खोभे । उउबहधरणवंधण वासासु अबंधणा ठवणा ॥ २९५ ॥ । उपधिविण्टिकानां बन्धनं कर्तव्यं, 'धरण' ति पात्रकस्य चात्मसमीपे-आत्मोत्सङ्गे धरणं कार्यम् , अनिक्षिप्तमित्यर्थः, किमर्थ पुनरेतदेषं क्रियते ? यदुपधिका अध्यते पात्रकमनिक्षिप्तं क्रियत इति?, उच्यते, अगणि' ति 'अग्निभयात्' प्रदीपनभयात् स्तेनकभयात् दण्डिकक्षोभाच एतदेवं क्रियते, कस्मिन् पुनः काले क्रियते कस्मिन् पुनः काले एतदेवं न क्रियते इत्यत आह-'उउबद्ध' प्रतुबद्ध उच्यते शीतकाल उष्णकालश्च, तत्र पात्रकधरणमुपधेश्च बन्धनं कर्त्तव्यं, 'वासासु' त्ति वर्षाकाले 'अबंधन' ति उपधेरवन्धनं कर्तव्य-उपधिर्न बध्यते, 'ठवण' त्ति पात्रकं च निक्षिप्यते-एकदेशे स्थाप्यते, प्रयोजनमुपधे है।
॥११८॥ रपाधने पात्रकस्य च निक्षेपणे वक्ष्यति । इदानी भाष्यकारो व्याख्यानयन्नाहरयता माण धरणा उपचढे निक्खिवेज वासास। अगणीनेणभएण व रायक्वोभे विराहणया ॥१७५।। (भा)
दीप अनुक्रम [४९३]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४९५] .. "नियुक्ति: [२९५] + भाष्यं [१७५] + प्रक्षेपं [२४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२९५|
रजस्त्राणस्य भाजनस्य च धरणम्-अनिक्षेपणं कर्त्तव्यं, कदा?-'ऋतुवढे शीतोष्णकालयोः, वर्षासु पुनर्भाजन निक्षिपेदे-11 कान्ते, किमर्थं पुनर्भाजनस्य उत्सङ्गे धरणं क्रियते ! अत आह-'अगणी अग्निभयेन-प्रदीपनकभयेन स्तेनभयेन वा राजक्षोभेन वा, मा भूदाकुलस्य गृहृतः पलिमन्थेनात्मविराधना संयमविराधना वा स्यात् ॥
परिगलमाणा हीरेन डहणा भेया तहेव छक्काया । गुत्तो व सयं डझे हीरेज व जं च तेण विणा ॥१७६॥(भा है अयादिक्षोभे निर्गच्छत आकुलस्य अपरिवद्धा परिगलति ततश्च परिंगलमाना केनचिदपहियते 'डहण' त्ति दह्येत वा है
अवद्धा सती उपधिर्यावद् गृह्यते, 'भेया' इति आकुलस्य निर्गच्छतोऽनासन्नं पात्रकं गृह्णतो 'भेदो वा' विनाशो वा भवेत्।
ततश्च षटकायस्यापि विराधना संभवति । 'गुत्तोच सयं डझे' संमूढो वा उपधिपात्रग्रहणे स्वयं दह्येत, स्तेनकसंक्षोभेच *सति उपधिपात्रकमहणच्याक्षेपेण स्तेनकः-म्लेच्छैरपहियते, 'जं च तेण विण' त्ति यच 'तेन बिना' उपधिपात्रकादिना | |विना भवति आत्मविराधना संयमविराधना च तत्तदयस्थमेवेति । आह-पुनः किं कारणं वर्षासु उपधिन बध्यते पात्रकाणि
वा निक्षिप्यन्ते ?, उच्यतेदीवासासु नत्थि अगणी नेव य तेणा उ दंडिया सत्वा । तेण अवंधण ठवणा एवं पडिलेहणा पाए ॥१७७॥(भा)
वर्षासु नास्ति अग्निभयं नापि च स्सेनभयं, स्तेनाश्चात्र पल्लीपतिकादयो द्रष्टव्याः, यतस्त एव वर्षासु प्रतिबन्धेन नागकच्छन्तीति, दण्डिका-अन्यराजानो वर्षासु स्वस्थास्तिष्ठन्ति, विग्रहस्य तस्मिन् कालेऽभावात् , अतस्तेन कारणेन 'अबंधम सि12
दीप अनुक्रम [४९५]
REnand
S
murary.au
~240~
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४९८] » “नियुक्ति: [२९६] + भाष्यं [१७७] + प्रक्षेपं [२४...]". मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
*484
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२९६||
श्रीओघनियुक्ति द्रोणीया वृत्तिः
॥११९॥
अवन्धनमुपधेः 'ठवण' त्ति पात्रकं च पार्थे निक्षिप्तं न क्रियते अपि तु स्थाप्यते-मुच्यते । एवं प्रत्युपेक्षणा पात्रविषया पात्रकप्रत्यु. प्रतिपादिता, तत्प्रतिपादनाचोक्तमुपकरणप्रत्युपेक्षणाद्वारम्, इदानीं स्थण्डिलद्वारस्वरूपप्रतिपादनायाह
|भा. १७१
१७७ अणावायमसंलोए अणवाए चेव होइ संलोए । आवायमसंलोए आवाए चेव संलोए ॥ २९६ ॥
स्थण्डिलम'अणावापमसंलोए' ति न आपात:-अभ्यागमः स्वपक्षपरपक्षयोर्यत्र स्थण्डिले तदनापातं, 'लोक दर्शने' न संलोको-15
|त्यु नि. न दर्शनं छत्रत्वाद्यत्र स्थंडिले तदनालोकम्, अनापातं च तदसलोकं च अनापातासँलोकं एको भेदः स्थण्डिलस्य, तथा २९६-२९७ 'अणवाए चेव होइ संलोए' नापातः कस्यचिद्यत्र तदनापातं अनापातं च तत्सलोकं च-अच्छन्नं च, एतदुक्तं भवति-18 यत्र स पुरीषं व्युत्सृजति तत्र न कस्यचिदापातः किन्तु दूरस्थिताः पश्यन्ति आकाशत्वादिति अर्य द्वितीयो भेदः, तथाऽ-18 न्यदापातमसंलोकम्, आपातः यत्र कश्चिदागच्छति असंलोक-छन्नम् आपातं च तदसंलोकं च आपातासंलोकम्, एतदुक्तं भवति-आपातोऽस्ति सागारिकाणामासन्ना एव तिष्ठन्ति न च वनादिवृत्यादितिरोहितत्याधुत्सृजन्तं साधु पश्यन्ति, एष तृतीयो भेदः, तथाऽन्यत्-'आवाए चेव होइ संलोए' त्ति 'आपातः' अभ्यागमः कस्यचिद्यत्र 'संलोका' संदर्शनं यत्र, तत्र आपातं च तत्संलोकं च आपातसंलोकं सागारिकागमो भवति दूरस्थिताश्च सागारिकाः पश्यन्ति साधु ब्युत्सृजन्तं,
अयं चतुर्थः । इदानी चतुर्थमेव तावझेदं व्याख्यानयति, यतस्तद्व्याख्यानेऽन्ये विधिप्रतिषेधरूपाः सुशाना भवन्तीति ॥ II ॥११९॥ I तत्थावायं दुविहं सपक्खपरपरखओ य णायचं । दुविहं होइ सपक्खे संजय तह संजईणं च ॥ २९७ ॥
दीप अनुक्रम [४९८]
3
~ 241~
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४९९] → “नियुक्ति: [२९७] + भाष्यं [१७७..] + प्रक्षेपं [२४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
%
4%
गाथांक नि/भा/प्र ||२९७||
तचापातं स्थण्डिल द्विविध' द्विप्रकारं वर्तते, कथं वैविध्य भवतीत्यत आह-'सपक्खपरक्खओ य नायवं' तत्र। स्वपक्षा-संयतवर्गः परपक्षः--गृहस्थादिः, तत्र स्वपक्षपातं द्विविधं संयतस्वपक्षापातं संयतीस्वपक्षापातं च ।
संविग्गमसंविग्गा संविग्गमणुष्णएयरा चेव । असंविग्गावि दुविहा तप्पक्खियएअरा चेव ॥ २९८॥
तत्र ये ते संयतास्ते संविनाश्च असंविग्नाच, ये ते संविनास्ते मनोज्ञा इतरे-अमनोज्ञाश्च, असंविग्ना अपि द्विविधाः'तत्पाक्षिकाः' संविग्नपाक्षिकाः इतरे-असंविझपाक्षिकाः निर्द्धर्मा नैव श्लाघन्ते तपस्विनस्तु ये निन्दन्ति । उक्तः
स्वपक्षः, इदानी परपक्ष उच्यतेPापरपक्वेवि अ दुविहं माणुस तेरिच्छिों च नायचं । एकेपि अतिविहं पुरिसित्थिनपुंसगे येव ॥ २९९ ॥
परपक्षेऽपि च दुविहं स्थण्डिलं मानुषापात तिर्यगापातं च ज्ञातव्यं, यत्तन्मानुपापातं तत्रिविध-पुरुषापातं ख्यापातं नपुंसकापातं च, तिर्यगापातमपि त्रिविध-तिर्यक पुरुषस्तिर्यकत्री तिर्यग्नपुंसकम् । पुरिसावायं तिविहं दंडिअ कोडुबिए य पागइए । ते सोयऽसोयवाई एमेविस्थी नपुंसा य ॥ ३०॥ तत्र पुरुषापातं त्रिविधं-'दण्डिकः' राजा 'कौटुम्बिकः' श्रेष्ठ्यादिः 'प्राकृतिकः' प्रकृतिनां मध्ये यः, अयं त्रिविधः | पुरुषः, तेषामेकैकस्त्रयाणामपि पुरुषाणां शौचवादी अशौचवादी चेति । 'एमेवित्थी नपुंसा य' त्ति एवमेव दण्डिककौटुम्बिकप्राकृतिकरूपाः शौचाशीचवादिनः स्खीनपुंसका ज्ञातव्या एभिभैदैभिन्नाः । इदानीं मनुष्याणां मध्ये द्वितीयं परपक्षभेदं प्रतिपादयन्नाह
दीप अनुक्रम [४९९]
REaratinidha
ARAurary on
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||३०१||
दीप
अनुक्रम [५०३ ]
श्रीओोपनिर्युक्तिः
द्रोणीया
वृत्तिः
॥१२०॥
Educati
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [५०३] • → मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
“निर्युक्ति: [ ३०१] + भाष्यं [१७७..] + प्रक्षेपं [ २४...]" FO आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
| एए चैव विभागा परतित्थीपि होइ मणुयाणं । तिरिआपि विभागा अओ परं किसहस्सामि ॥ ३०९ ॥ एत एव 'विभागा' भेदा दण्डिककौटुम्बिकप्राकृतिकशौचवाद्यशौचवादिरूपाः परतीर्थिकानामपि भवन्ति मनुष्याणां, इदानीं तिरश्चामपि 'विभागान्' भेदानतः परं 'कीर्त्तयिष्यामि' प्रतिपादयामीत्यर्थः ।
दित्तादित्ता तिरिआ जहणमुकोसमज्झिमा तिविहा । एमेवित्थिनपुंसा दुर्गुछिछि नेया ॥ ३०२ ॥ द्विविधास्तिर्यञ्चो-प्ताश्चादृप्ताश्च-मारकाश्चामारकाचेति, पुनरेकैकास्त्रिविधा दीप्ता अदीप्ताश्च य उक्तास्ते जघन्या उत्कृष्टा मध्यमाश्च तत्र जघन्या मूल्यमङ्गीकृत्य मेण्ढकादयः, उत्कृष्टा हस्त्यश्वादयः मध्यमा गवादयः । 'एमेवित्थि नपुंसा' ये ते दीप्ता अदीप्ताश्च ते सर्व एव प्राग्वत् स्त्रियः पुरुषा नपुंसकाश्चेति, ते च पुनः सर्व एव 'जुगुप्सिताः' निन्दिताः 'अजुगुप्सिताः' अनिन्दिता ज्ञेयाः ॥ तंत्रेतेषां भेदानां मध्ये केषामापाते सति गमनं कर्त्तव्यमित्यत आह
गमण मणुणे इयरे लिहायरणमि होइ अहिगरणं । पउरदवकरण हुं कुसील सेहऽण्णहाभावो ॥ ३०३ ॥ मनोज्ञानामापातो यत्र स्थण्डिले तत्र गमनं कर्त्तव्यं, 'इयरे' ति अमनोज्ञास्तेषामापाते गमनं न कर्त्तव्यं, यतः 'वितहायरणंमि होति अहिगरणं ति वितथाचरणम्-अन्यसामाचार्या आचरणं तस्मिन् सति शिक्षकाणां परस्परं स्वसामाचारीपक्षपातेन राटिर्भवति ततश्चाधिकरणं भवति । तथा कुशीलापातेऽपि न गन्तव्यं यतः 'पउरदवकरण दहुँ' प्रचुरेण द्रवेण शौचकरणक्रियामुच्छोलनया दृष्ट्वा कुशीलानाम्-असंविद्मानां संबन्धिनीं पुनश्च सेहादीनामन्यथा भावोभवेत्, यदुतैते शुच
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~ 243~
स्थण्डिलमत्युपेक्षा नि.
| २९८-३०३
॥१२०॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५०५] → “नियुक्ति: [३०३] + भाष्यं [१७७..] + प्रक्षेपं [२४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
45
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३०३||
यो न त्वस्मत्साधवः तस्मादेत एव शोभनाः पूज्याश्चेति तन्मध्ये यान्ति, संयतापातेऽयं दोषः, संयतीनां त्वापातमेकान्तेनैव
वर्जनीयं । अधुना परपक्षमानुषापातदोषान् दर्शयन्नाह18 जत्थऽम्हे बच्चामो जत्थ य आयरह नाहवग्गो णे । परिभव कामेमाणा संकेयगदिन्नया वावि ॥ ३०४॥ K तत्पुरुषा एवमाहुः यदुत-ययैव दिशा पुरीषव्युत्सर्जनार्थ वयं ब्रजामः यत्र चाचरति-सज्ञाव्युत्सृजनं करोति नः-अस्म
दीयो ज्ञातिवर्गः-स्वजनयोषिर्गः तयैव दिशा एतेऽपि व्रजन्ति, ततश्चैते परिभवमस्माकं कुर्वन्ति, 'कामेमाण' त्ति नूनसुमेते 'कामयन्ति' अभिलपन्ति स्त्रियं तेन तत्र प्रयान्ति, संकेतगदिन्नआ वाषि' दत्तसङ्केत्ता वा तेन ख्यापाते प्रजन्ति ।। है एते च दोषाः
दव अप्प कलुस असई अवपणपडिसेहविप्परीणामो । संकाईया दोसा पंडिस्थि गहे य जं चऽण्णं ॥ ३०५॥ 3. कदाचिवमल्प भवति तत उड्डाहादि कलुसं'ति कलुषंवा उदकं भवति, 'असई ति अभावो वा द्रवस्य भवति, ततश्चैते
दोषाः-अवर्ण:-अश्लाघा प्रवचने भवति, प्रधानो वा कश्चिदृष्ट्वा प्रतिषेधं भिक्षादेः करोति, विपरिणामो वा' कस्यचिदभिनवश्रावस्य, शक्कादयश्च दोषाः पण्डकखीविषया भवन्ति, 'गहिए जं चऽवणं'ति पण्डकस्त्रीभ्यां बलाहहीतस्य | | यच्चान्यदाकर्षणोडाहादि भवति स च दोषः। अधुना तिर्यगापातदोषं दर्शयन्नाह
आहणणाई दित्ते गरहिअतिरिएम संकमाईया । एमेव य संलोए तिरिए बजेतु मणुपाणं ॥ ३०६ ॥ इसतिर्यगापाते-मारणकतिर्यगापाते आहननादिदोषाः, आदिग्रहणानक्षणदोषश्च मर्कटादिकृतः, गर्हितेषु-गर्दभ्यादिषु
KARAVARTA
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1
दीप अनुक्रम [५०५]
CREASECRE
को.२१
CREDiator
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||३०६||
दीप
अनुक्रम
[५०८ ]
श्रीओषनियुक्ति: द्रोणीया
वृत्तिः
॥१२१॥
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
०
मूलं [५०८ ] • → “निर्युक्ति: [ ३०६] + भाष्यं [ १७७..] + प्रक्षेप [ २४...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४१/१], मूल सूत्र - २/१] “ओघनिर्युक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
*%*८
तिर्यक्षु मैथुनाशङ्कायाः, आदिग्रहणान्निःशङ्कमेव वा भवति । एवं तावदेते आपातदोषा उक्ताः, 'एमेव य संलोए' एवमेव संलोकेऽपि 'मनुष्याणां मनुष्यसंबन्धिनि दोषा द्रष्टव्याः, किन्तु 'तिरिए वज्जेत्तु'सि तिरक्षो मुक्त्वा, एतदुक्तं भवति तिर्यक्सलोके न कश्चिद्दोषो भवतीति । इदानीं संलोके दोषानेव दर्शयन्नाह
कसवे असई य व पुरिसालोए हवंति दोसा उ । पंडित्थीसुवि एए खन्दे बेडति मुच्छाय ॥ ३०७ ॥ ange वे सति 'अति' अभावे वा द्रवस्य पुरुषालोके पुरुषो यत्र स्थितः पश्यति, पण्डकस्त्रीजनिताश्च शङ्कादोषाः पूर्वोक्ताः तथा 'खद्धे' बृहत्प्रमाणे सेफे 'विउवित्ति विक्रियामापने शेफे दृष्ट्वा सति पण्डकस्य स्त्रिया वा मूर्च्छा अनुरागो भवति । उक्तं चतुर्थस्थण्डिलमापातसंलोकरूपम्, इदानीं तृतीयमापातासंलोकरूपमुच्यते, तत्राह
आवायदोस तहए बिइए संलोपओ भवे दोसा । ते दोषि नत्थि पढमे तहिँ गमणं तत्थिमा मेरा ॥ ३०८ ॥ तृतीयं स्थण्डिलं यद्यप्यसंलोकं तथाऽप्यापातदोषेण दुष्टं वर्त्तते । उक्तं तृतीयम्, इदानीं द्वितीयमनापातसंलोकरूपमुच्यते, तत्राह - 'बिइए संलोयओ भवे दोसा' द्वितीये यद्यप्यापातदोषो नास्ति तथापि संलोकतो भवति दोषः, उक्तं द्वितीयं स्थण्डिलं, इदानीं प्रथममनापातमसंलोकमुच्यते, तत्राह 'ते दोवि नत्थि पढमे' ते दोषा आपातजनिताः संलोकजनिताश्च न सन्ति प्रथमे स्थण्डिलेऽतस्तत्रैव गमनं कर्त्तव्यं, तत्र चेयं 'मेरा' मर्यादा -चक्ष्यमाणा इयं नीतिरिति ॥ तत्र यदुक्तं - प्रथमस्थण्डिले गच्छतामियं मेरा साऽभिधीयतेकालमकाले सण्णा कालो तझ्याइ सेसयमकालो । पढमा पोरिसि आपुच्छ पाणगमपुष्पियऽण्णदिसिं ॥ ३०९ ॥
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स्थण्डिलप्रत्युपे. नि. ३०४-३०९
॥१२१॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५११] .→ “नियुक्ति: [३०९] + भाष्यं [१७७..] + प्रक्षेपं [२४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३०९||
ARRACK
तत्रैका काले सञ्ज्ञा भवति अन्याऽकाले सज्ञा भवति, कालो ततियाए'त्ति 'काल' सम्ज्ञाकालः तृतीयायां पौरुष्यां। भवति 'सेसयमकालो त्ति शेषकाले या सज्ञा भवति साऽकालसञ्जत्युच्यते, पदमपोरिसित्ति तत्राकालसञ्ज्ञा प्रथमपौरुष्यां यदि भवति ततः 'आपुच्छ पाणगत्ति आपृच्छय साधून, एतदुक्तं भवति-साधूनेवमसावापृच्छति यदुत-भवतां किं कश्चिच्चमणभूमि यास्यति न वा ? इति, पुनः 'पाणग'त्ति तदनुरूपं पानकमानयति, किंविशिष्टम् ?-'अपुष्पित' तरिकारहितं येन स्वच्छतया उदकधान्तिर्भवति, 'अण्णदिसं'ति अन्यया पत्तनस्य दिशा उदकं गृह्यते अन्यया च दिशा चमणभूमि प्रयाति येन सागारिकाशङ्का न भवति यदुतैते काञ्जिकेन शौचं कुर्वन्ति ॥ अहरेगगहण उग्गाहिएण आलोअ पुच्छिउँ गमछे । एसा उ अकालंमी अहिंडिअहिंडिआ कालो॥ ३१०11* | अतिरिक्त च तत्पान गृह्यते कदाचिदन्यसाधो कार्य भवेत् सागारिकपुरस्ताद्वा उच्छोलनादि क्रियते । 'उग्गाहिएण'-| ति उदाहितेन-पात्रबन्धबद्धेन पात्रके ग समानीय गुप्तं सत् 'आलोए'त्ति आनीयाचार्यस्य तदालोच्यते, 'पुच्छिउँ गरछे'|त्ति पुनस्तमेवाचार्य पृष्ट्वा चकमणिकया गच्छति, इयमकाले सञ्ज्ञा अकालसम्शेत्यर्थः अहिण्डितानां सतां भवति, कालसज्ञा पुनर्हिण्डितानां-भिक्षाटनकालस्योत्तरकालं भुक्त्वा या भवति सा कालसज्ञा भवति । अन्ये त्वाः-'अणहिं|डिय हिंडियाकालो त्ति अहिण्डितानामर्थपौरुषीकरणोत्तरकाले यका भवति सा कालसझैव, तथा हिण्डितानां भिक्षाभ्रमणभोजनोत्तरकालं या भवति साऽपि कालसम्ज्ञोच्यते । भुक्त्वोत्तरकालं या सज्ञा भवति तत्र किं कृत्वा कथं वा गम्यते । इत्यत आह
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दीप अनुक्रम [५११]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५१३] → “नियुक्ति: [३११] + भाष्यं [१७७..] + प्रक्षेपं [२४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३११||
श्रीओघनियुक्तिः द्रोणीया वृत्तिः
॥१२२॥
दीप अनुक्रम [५१३]
कप्पेऊणं पाए एकेकस्स उ दुवे पडिग्गहए । दाउं दो दो गच्छे तिण्हट्ट दवं तु घेत्तूणं ॥ ३११॥ स्थण्डिलप्रपात्रकाणि कल्पयित्वा पत्ताई तेप्पिऊण इत्यर्थः पुनरेकैकस्य साधोः पतहदयं दत्त्वा, एतदुक्तं भवति-योऽसौ तिष्ठति ।त्युपे. नि. साधुस्तस्य आत्मीय एव एकः पतनहो द्वितीयं तु पतनहं योऽसौ साधुश्चमणभूमि प्रयाति स समर्पयित्वा ब्रजति अत२१०-३१३ एकैकस्य द्वौ द्वौ पतग्रही भवतः । 'दो दो गच्छे'त्ति द्वौ द्वौ गच्छतः नैकैको गच्छति, तत्र च 'तिण्हह दवं च घेत्तूण' त्रयाणां साधूनामर्थे यावदुदकं भवति तावन्मानं तो गृहीत्वा ब्रजतः। ते च कथं गच्छन्ति ? अत आह
अजुगलिआ अतुरंता विकहारहिआ वयंति पढमं तु । निसिइनु डगलगहणं आवडणं वच्चमासज ॥ ३१२ ॥ | न युगलिताः-समश्रेणिस्था ब्रजन्ति किन्तु अयुगलिताः अत्वरमाणा विकथारहिताश्च ब्रजन्ति, ततश्चमणभुवं प्राप्य प्रथमं 'निषीदयित्वा उपविश्य डगलकानां-अधिष्ठानमोभ्छनार्थमिष्टकाखण्डकानां लघुपाषाणकानां वा ग्रहणं करोति,
आवडणं'ति प्रस्फोटनं तेषां डगलकानां करोति, कदाचित्तत्र पिपीलिकादि स्यात् , तेषां च ग्रहणे किं प्रमाणमत आह'वचमासज' पुरीषमझीकृत्य, श्लथं कठिनं वा विज्ञाय पुरीषं ततस्तदनुरूपाणि डगलकानि गृह्णाति, ततो डगलकानि गृहीत्वा सच्छायस्थण्डिले उपविशति । कीडशे इत्यत आहअणावायमसंलोए, परस्प्तणुवघाइए। समे अझुसिरे यावि, अचिरकालकयंमि अ ॥ ३१३ ॥
१२२॥ अनापातः असंलोकश्च परस्य यस्मिन् तदनापातासंलोकं स्थण्डिलं लोकस्य, तथा 'अणुवघाइए'त्ति उपघातश्च यत्र ना भवति उड्डाहादि तस्मिन्ननुपातिके, तथा समं यत्र लुठनं न भवति, लुठने स्थण्डिले आत्मपतनभयं पुरीषं च मुक्त कीदि
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५१४] → “नियुक्ति: [३१३] + भाष्यं [१७७..] + प्रक्षेपं [२५]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३१३||
कादींचूर्णयति तथा 'अमुसिरे यावि'त्ति यत्तृणादिच्छन्नं न भवति, तत्र हि वृश्चिकादिरागत्य दशति कीटकादि वा 8 प्लान्यते, 'अचिरकालकयंमि यत्ति अचिरकालकृतं तस्मिन्नेव द्विमासिके ऋतौ यदम्यादिना प्राशुकीकृतं तस्मिन् । ।
वित्थिपणे वरमोगादे, नासपणे बिलवज्जिए। तसपाणबीयरहिए, उच्चाराईणि वोसिरे ॥ ३१४॥ ___ तथा विस्तीर्णे, तत्र विस्तीर्ण जघन्येन हस्तप्रमाणं चतुरस्रमुत्कृष्टेन चक्रवावासनिकाप्रमाणं द्वादशयोजनमिति गम्यते, तस्मिन् , 'दूरमोगासि दूरमधोऽवगाह्य आध्यादितापेन प्राशुकीकृतं जघन्येन चत्वार्यङ्गलानि अधः, 'नासपणे'त्ति तत्रासण्णं द्विविधं दबासणं भावासणं च, भावासन्नं अणहियासओ अतिवेगेण आसपणे चेव बोसिरह, दवासणं धवलगरआरामाईणं आसण्णे बोसिरइ, न आसन्नं अनासन्न-यद्रव्यासन्न भावासन्नं वा न भवति तस्मिन् व्युत्सृजति, तथा 'बिलर्जिते बिलादिरहिते स्थण्डिले व्युत्सृजति, तथा बसपाणबीजरहितयोव्युत्सृजतीति, एतस्मिन् दशदोषरहिते| स्थण्डिले सति उच्चारादीनि ध्युत्सृजेत् । इदानीमेकादिसंयोगेन यावन्ति स्थण्डिलानि भवन्ति तावन्ति प्रतिपादयन्नाह
एगदुगतिगचउकगपंचगछसनट्ठनवगदसगेहिं । संजोगा कायवा भंगसहस्सं चनधीसं ॥ ३१५ ॥ KI एकद्वित्रिचतुष्पश्चषट्सप्ताष्टनबदशकैः संयोगाः कर्तव्याः, ततश्च सर्वेरेभिर्निष्पन्नं भङ्गकसहस्रं चतुर्विशत्युत्तरं भवति ।
इदानी भाष्यकार एतान्येव स्थण्डिलपदानि व्याख्यानयति, तत्राद्यमनापातासंलोकं व्याख्यातमेव, इदानीमनुपातिकपदव्याचिख्यासयाऽऽह- . आयापवयणसंजमतिविहमुग्धाइमं तु नायचं आराम वच्च अगणी पिट्टण असुई य अन्नत्थ ॥ १७८॥ (भा.)
दीप अनुक्रम [५१४]
SSSSS
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JAMEmiratinidh
amasurary.orm
अत्र एका प्रक्षेप-गाथा वर्तते. मया संपादित “आगम सुत्ताणि" मूलं अथवा सटीकं पुस्तके सा मुद्रिता अस्ति
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||३१५||
दीप
अनुक्रम
[५१९ ]
श्रीशोषनिर्युतिः द्रोणीया
वृत्तिः
॥१२३॥
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) “निर्युक्तिः [ ३१५] + भाष्यं [ १७८ ] +
मूलं [५१९] ● → मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
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प्रक्षेपं [२५...]"
८० आगमसूत्र - [४१/१], मूल सूत्र -[२/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
औपघातिकं त्रिविधं ज्ञातव्यं - आत्मौपघातिकं प्रवचनौपघातिकं संयमीपघातिकं च तत्रात्मौपवातिकं व भवतीत्यत आह-आरामे- आरामादी व्युत्सृजतः, प्रवचनौपघातिकं च क भवतीत्यत आह- 'वच्च' वर्चो गूथं तत्करीषे व्युत्सृजतः, संयमीपघातिकं च क्व भवतीत्यत आह-'अगणी' अग्निः स यत्र प्रज्वाल्यते, एतच्च यथासङ्ख्येन योजनीयं । कथमात्मोपघातादि भवतीत्यत आह-यथासोन 'पिट्टण असुई य अन्नत्थ' आरामे व्युत्सृजतः पिट्टणं-ताडनं भवति, वर्चः करीषे न्युत्सृजतोऽशुचिरयमिति लोक एवं संभावयति, अङ्गारदहनभूमौ व्युत्सृजतः सोऽङ्गारदाहकः 'अण्णत्थ'त्ति अन्यत्राङ्गारार्थ प्रज्वालयति ततश्च संयमोपधात इति, यतश्चैते दोषा भवन्ति अतोऽनुपघातिके स्थण्डिले व्युत्सृजनीयमिति । अनुपघातिकं गतम्, इदानीं 'समे'त्ति व्याख्यानयन्नाह -
विसम पलोट्टण आया इयरस्स पलोहांमि छकाया। सिरंमि विच्छुगाई उभयकमणे तसाईया || १७९ ॥ (भा०)
विषमे स्थण्डिले व्युत्सृजतः प्रलुठनं साधोरेव भवति ततश्चात्मविराधना, 'उभय'त्ति मूत्रपुरीषं तदाक्रमणेन त्रसादयो विराध्यन्ते ततश्च संयमोपघातो भवति, 'इतरस्स'त्ति इतरयोः कायिकापुरीषयोः प्रलुठने सति पर काया विराध्यन्ते, ततः समे व्युत्सृजनीयम् । समेत्ति गयं, 'अज्झसिरि'त्ति व्याख्यायते, तत्राह - 'भुसिरंमि विच्छुगाई' झुसिरं पलालादिच्छन्नं तत्र व्युत्सृजतो वृश्चिकादिभक्षणं संभवति ततश्चात्मविराधना, 'उभय'त्ति मूत्रपुरीषं तदाक्रमणेन प्रसादयो विराध्यन्ते ततश्च संयमोपघातो भवति ततोऽथुषिरे व्युत्सृजनीयं, द्वारम् । इदानीं 'अचिरकालकर्यमि यत्ति व्याख्यायते - जे जंमि उउंमि य कया पथावणाईहि थंडिला ते उ। होंतियरंमि चिरकया वासा बुच्छेय बारसगं ॥ १८० || (भा० )
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स्थण्डिलमत्युपे नि.
३१४-३१५ भा. १७९૨૦
॥ १२३ ॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१२१] → “नियुक्ति: [३१५...] + भाष्यं [१८०] + प्रक्षेपं [२५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१८०||
यानि यस्मिन् ऋतौ-शीतकालादौ प्रतापनादिभिः-अग्निप्रज्वालनादिभिः स्थण्डिलानि कृतानि तस्मिन्नेव च ऋतौ| स्थण्डिलान्यचिचानि भवन्ति, तानि स्थण्डिलानि इतरस्मिन्-अनन्तरऋतौ चिरकृतानि मिश्रीभूतानि चायोग्यानि भवन्ति । 'वासा वुच्छेय यारसगं ति यस्मिन् प्रदेशे एक वर्षाकालं ग्राम उषितः, स च प्रदेशो 'दादश' द्वादश वर्षाणि यावत्स्थण्डिलं भवति, यत्र तु पुनर्वर्षामात्रमुषितो ग्रामस्तत्र भवत्येव स्थण्डिलं द्वादश वर्षाणीति । इदानीं 'विच्छिण्णं' ति व्याख्यानयनाह| हत्थायाम चउरस्स जहणं जोयणे विक्कियरं । चउरंगुलप्पमाणं जहषणयं दूरमोगाद ॥ १८१॥ (भा.)
विस्तीर्ण द्विधा-जघन्यमुत्कृष्टं च, तत्र जघन्यं हस्तायाम चतुरनं च जघन्यतो विस्तीर्ण स्थण्डिलं, 'जोयणे बिछक इयरंति इतरद्-उत्कृष्टं विस्तीर्ण योजनानां द्विषट्टा, द्वादशयोजनविस्तीर्णमित्यर्थः । वित्थिण्णेत्ति गर्य, इदानीं 'दूरमो-| गाढे'त्ति व्याख्यायते, तह-'चतुरंगुलप्पमाणं चत्वार्यङ्गलानि भुवोऽधो यदवगाढं तजघन्यतो दूरमोगाढमुच्यते, मध्यममुत्कृष्टं च चतुर्णामङ्गलानामधस्ताद्विज्ञेयमिति । द्वारम् । आसन्नं व्याख्यायते, तत्राहदवासण्णं भवणाइयाण तहियं तु संजमायाए । आयापवयणसंजमदोसा पुण भावआसपणे ॥१८२ ॥ (भा०) | आसन्नं द्विविध-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यासन्नं भवनादीनामासन्ने व्युत्सृजतो द्रव्यासन्नं भवति, तत्र संयमात्मोप
घातो भवति, तत्र च संयमोपघात एवं भवति-स गृहपतिस्तत्पुरीषं साधुव्युत्सृष्टं केनचित्कर्मकरेणान्यत्र त्याजयति ततश्च है। तत्प्रदेशविलेपने हस्तप्रक्षालने च संयमोपघातो भवति, आत्मोपघातश्च स गृहपती रुष्टः सन् कदाचित्ताडयति ततश्चात्मो
दीप अनुक्रम [५२१]
ARALES
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१२३] → नियुक्ति: [३१५...] + भाष्यं [१८२] + प्रक्षेपं [२५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१८२||
श्रीओध- पघात इति, तस्माद्रव्यासन्ने न व्युत्सृजनीयं । इदानीं भावासन्नं प्रतिपादयन्नाह-'आयापवयण'त्ति आत्मप्रवचनसंयमोप- स्थण्डिलप्रनियुक्तिःहाघातदोषा भावासने भवन्ति, कथं ?, स हि साधुरन्ययोगव्यावृत्तस्तावदास्ते यावदतीव भावासन्नः संजातः, ततश्च त्वरित[त्युपे भा. द्राणाया प्रयाति, पुनश्च केनचिनोपलक्ष्य भावासन्नतां धर्मप्रच्छनव्याजेनार्द्धपथ एव धृतः ततश्च तस्य पुरीषवेगं धारयत आत्मो- १८१-१८
पघातो भवति, अथार्द्धपथ एव व्युत्सृजति ततश्च प्रवचनोपघातो भवति, संयमोपघातोऽपि तत्रैवाप्रत्युपेक्षितस्थण्डिले| द्रव्युत्सृजतो भवति, तस्मादनागतमेव गमने प्रवर्तते । इदानी पिलवर्जित व्याख्यायते, तत्राह
होति पिले दो दोसा तसैसु बीएसु वापि ते चेव । संजोगओ अदोसा मूलगमा होंति सविसेसा॥१८॥(भा०) PI बिलप्रदेशे व्युत्सृजतो दोषद्वयं भवति--आत्मविराधना संयमविराधना च, दारं । इदानीं "तसपाणबीयरहिय"ति
व्याख्यायते, तत्राह-'तसेसु पीएमु वावि ते चेव' वसेषु व्युत्सृजतः संयमविराधनाऽऽरमविराधना च भवति, बीजेषु च दिव्युत्सृजतस्त एव दोषा भवन्ति-आत्मविराधना संयमविराधनाच, तत्रात्मविराधना गोक्षुरकप्रभृतीनामुपरि व्युत्सृजतो
भवति, संयमविराधना तथैवेति, दारं । एवं तावदेकैकदोषदुष्ट स्थण्डिलमुक्तम् , इदानी द्वितीयादिसंयोगेन दोषदुष्टतां प्रतिजापादयन्नाह-'संजोगओ य' संयोगतो-व्यादिदोषसंबन्धेन 'मूलगमात्' मूलदोषभेदात्सकाशात् 'सविशेषाः' द्विगुणतराहैदयो दोपा भवन्ति, मूलभेदे तावदापातसंलोकदोषदुष्टता तथाऽन्यस्तत्रैव यधुपघातदोषो भवति ततो द्विदोषसंयोगतः
सविशेषा दोषा भवन्ति । एवं दोषत्रयादिसंयोगतः सविशेषा अधिका एकैकस्मिन् स्थण्डिले ज्ञेया इति । इदानीं तस्मिन् | दोषरहिते स्थण्डिले प्राप्तस्य यो विधिः स उच्यते
दीप अनुक्रम [५२३]
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र
||१८३ ||
दीप
अनुक्रम
[५२४]
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) ● → “निर्युक्तिः [ ३१६] + भाष्यं [१८३] + प्रक्षेपं [२५...]"
मूलं [ ५२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
८० आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र -[ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
| दिसिपवणगामसूरियछायाएँ पमजिऊण तिक्खुत्तो। जस्सोग्गहोत्ति काऊण वोसिरे आयमेजा वा ।। ३१६ ।। । तेन साधुना सज्ञाच्युत्सृजता 'दिस'त्ति उत्तरायां दिशि पूर्वायां च न पृष्ठं दातव्यं, लोकविरोधात्, तथा पवनग्रामसूर्याणां च पृष्ठं दत्त्वा न व्युत्सृजनीयं, लोकविरोधादेव, तथा छायायां प्रमार्जयित्वा 'तिक्खुत्तो'त्ति तिम्रो बाराः प्रमार्जयित्वा तंत्र व्युत्सृजनीयं,' जस्सोग्ग हो'त्ति यस्यायमवग्रहस्तेनानुज्ञातव्य इत्येवं कृत्वा व्युत्सृजनीयं 'आयमेज्जा वा' निर्लेपनं चापाने एवमेव कुर्यात्, यदुत स्थण्डिलेऽनुज्ञापयित्वा चेति । इदानीमेतामेव गाथां भाष्यकारो व्याख्यानयन्नाह - उत्तरपुवा पुज्जा जम्माऍ निसियरा अहिवडति । घाणाऽरिसा य पवणे सूरिपगामे अवण्णो उ ॥ १८४॥ भा०)
उत्तरा दिक् पूर्वा च किल लोके द्वे अपि पूज्ये, ततश्च तयोः पृष्ठं न दातव्यं, 'जम्माए निसियरा अभिव ंति ' याम्या-दक्षिणा दिक् तस्यां च रात्रौ पृष्ठं न दातव्यं, किमित्येतदेवम् ?, उच्यते, रात्रौ निशाचराः पिशाचादयः 'अभि पतंति 'त्ति अभिमुखा आगच्छन्ति, एतदुक्तं भवति-रात्रौ दक्षिणाया दिश उत्तरायां दिशि देवाः प्रयान्ति (इति) लोके श्रुतिः, ततश्च तत्र पृष्ठं न दातव्यं, प्रयच्छतो लोकविरोधो भवति, 'घाणारिसा य पवणेत्ति पवनस्य च पृष्ठं यदि दीयते ततो घ्राणाशांसि भवन्ति, सूर्यग्रामयोश्च पृष्ठप्रदाने अवर्णः-अयशो भवति । इदानीं 'छायाएं'त्ति व्याख्यानयन्नाह - | संसत्तग्गहणी पुण छायाए निग्गयाण बोसिर । छायासह उण्हभिवि वोसिरिअ मुहुत्तयं चिट्ठे ॥ १८५ ॥ (भा०) 'संसग्रहणिः कृमिसंसक्तोदर इत्यर्थः यद्यसौ साधुर्भवेत् ततो. वृक्षच्छायायां निर्गतायां व्युत्सृजति, अथ छाया न भवति ततश्च व्युत्सृज्य मुहर्त्तमात्रं तिष्ठेद् येन ते कृमयः स्वयमेव परिणमन्ति । किं चासौ करोतीत्यत आह
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५२८] .. "नियुक्ति: [३१७] + भाष्यं [१८५] + प्रक्षेपं [२५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१८५||
श्रीओघद्रोणीया वृत्तिः
॥१२॥
उवगरणं वामे जरुगंमि मत्तं च दाहिणे हत्थे । तत्थऽनत्थ व पुंछे तिहि आयमणं अदूरंमि ॥ ३१७॥ सिस्थण्डिलप्र'उपकरणं' रजोहरणदण्डकादि वामे ऊरौ स्थापयति, मात्रकं च दक्षिणे हस्ते करोति, प्रोञ्छनं च अपानस्य तत्रान्यत्र वा
त्युपे नि. करोति, यदि कठिनं पुरीपं ततस्तत्रैव प्रोञ्छयति, अथ श्लथं ततोऽन्यत्र, तिहि आयमणं ति त्रिभिश्चुलुकैर्निर्लेपनं करोति,
४३१६-३१९
भा. १८४|'अदूरंमि'त्ति स्थण्डिलस्यासन्नप्रदेशे निर्लेपनीयमिति । इदानीं स्थण्डिलयतनोच्यते, तत्राह
१८५ पढमासइ अमणुग्नेयराण गिहियाण वावि आलोए। पत्तेयमत्त कुरुकुय दवं च परं मिहत्थेसु ॥३१८॥ । प्रथमस्य-अनापातासंलोकरूपस्य 'असति' अभावे अथवा प्रथमस्य-संविग्नसमनोज्ञापातस्थाण्डिलस्यासति क गन्तव्यमत आह-'अमणुण्ण त्ति अमनोज्ञानामापाते स्थण्डिले गम्यते, 'इतराण'त्ति कुशीलानां संविग्नपाक्षिकाणामसंविग्नपाक्षिकाणां चापातस्थण्डिले गन्तव्यं, एतेषां चानन्तरोदितानां सर्वेषामेवमर्थमालोको नोपात्तो यतस्ते दूरस्थिता नाभोगयन्त्येव । 'गिहियाण वावि आलोएत्ति तदभावे गृहस्थालोके स्थण्डिले गम्यते। 'पत्तेयमत्त'त्ति प्रत्येक प्रत्येकं यानि मात्रकाणि गृहीतानि तैः प्रत्येकमात्रकै 'कुरुकुचा' पादप्रक्षालनाचमनरूपां प्रचुरद्रवेण कुर्वन्ति, गिहत्येसुति गृहस्थविषये आलोके| सति इदं पूर्वोक्तं कुरुकुचादि कुर्वन्तीति ॥
॥१२५॥ तेण परं पुरिसाणं असोयवाईण वच आवायं । इत्थिनपुंसालोए परंमुहो कुरुकृया सा च ॥ ३१९ ॥ ततः परं यदि गृहस्थालोकं नास्ति स्थण्डिलं ततः पुरुषाणामापाते तत्राप्यशौचवादिनां ब्रज मापातस्थण्डिलं । अथाशी-10
दीप अनुक्रम [५२८]
SantarataniKRA
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५३०] » “नियुक्ति : [३१९] + भाष्यं [१८५...] + प्रक्षेपं [२५...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३१९||
SABAIKAC
%
चवादिपुरुषापातस्थण्डिलं नास्ति ततः 'इत्थिनपुंसालोए' स्त्रीनपुंसकालोके स्थण्डिले पराङ्मुखो व्युत्सृजति कुरुकुचा |च सैव कर्तव्या। ती तेण परं आवायं पुरिसेअरइधियाण तिरियाणं । तत्थवि अपरिहरेजा दुगुंछिए दित्तचित्ते य ॥ ३२०॥ HI ततः परं तदभावे सति पूर्वोक्तस्थाण्डिलस्य तिरश्चां संवन्धिनो ये पुरुषा इतरे च नपुंसकाः खियः एतेषामापातस्थण्डिले। व्युत्सृजनीयं, 'तत्थवि पति तत्रापि-तिरश्चांमध्ये जुगुप्सिता हप्तचित्ताश्च परिहरणीयाः, यतस्तत्रात्मसंयमोपघातो भवति ।।
तत्तो इत्थिनपुंसा तिविहा तस्थवि असोयवाईसु । तहिअंतु सहकरणं आउलगमणं कुरुकुया य ॥ ३२१॥ NI ततस्तदभावे खीनपुंसकापातस्थण्डिले गन्तव्यं, तत्र स्त्री त्रिविधा-दण्डिककौटुम्बिकपाकृतभेदभिन्ना, नपुंसकमपि ।
विविध-दण्डिककौटुम्बिकप्राकृतभेदभिन्नं, तत्राप्यशौचवादिनामापाते व्युत्सृजनीय, आह-वाद्याशङ्कादयस्तत्र तदवस्था हाएव दोषाः, उच्यते, 'तहियं तु सद्दकरणं तत्र स्थाण्डिले व्रजन् अन्येषामाशङ्काविनिवृत्त्यर्थमुच्चैः काशितादिरूपं शब्द करोति परस्परं वा जल्पन्तो ब्रजन्ति ततस्ते गृहस्था नाशङ्कां-ख्याद्यभिलपणरूपां कुर्वते यतस्ते प्रसभं प्रयान्तीति, अनाकुल-1
गमनं वा करोति, एकत्र मिलिता गच्छन्तीत्यर्थः, कुरुकुचा च पूर्ववत्कार्या । उक्त स्थण्डिलद्वारम्, इदानीमवष्टम्भद्वारं ६ प्रतिपादयन्नाह
अधोच्छिन्ना तसा पाणा, पडिलेहा न सुज्झई। तम्हा हट्टपहवस्स, अवटुंभो न कप्पई ।। ३२२॥ अवष्टम्भः स्तम्भादौ न कर्त्तव्यः, यतः प्रत्युपेक्षितेऽपि तत्र पश्चादपि 'अव्यवच्छिन्नाः' अनवरतं त्रसाः प्राणा भवन्ति,
दीप अनुक्रम [५३०]
EC
REauratantial
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||३२२||
दीप
अनुक्रम [ ५३३]
श्रीओष
निर्युक्तिः द्रोणीया
वृत्तिः
॥ १२६॥
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [ ५३३] ● → मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
“निर्युक्तिः [ ३२२] + भाष्यं [ १८५] + प्रक्षेपं [२५...]" ८० आगमसूत्र - [४१/१], मूल सूत्र -[२/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
ततश्च तत्र प्रत्युपेक्षणा न शुद्ध्यति, 'तन्हा हट्टहस्स' हृष्टो-नीरोगः प्रहृष्टः समर्थस्तरुणस्तस्य एवंविधस्य साधोरवटम्भो 'न कल्पते' नोक्तः । इदानीं के ते त्रसाः प्राणिन इत्येतत्प्रदर्शनायाह
संचर कुंहियावेहे तहेब दाली अ । घरकोइलिआ सप्पे विस्संभरउँदुरे सरडे ॥ ३२३ ॥ तत्रावष्टम्भे स्तम्भादौ संचरन्ति-प्रसर्पन्ति, के ते १-कुन्धवः सत्त्वा उद्देहिकाश्च लूता- कोलियकः तत्कृतो वेधो-भक्षणं भवति, तथा दाली-राजिर्भवति तस्यां च वृश्चिकादेराश्रयो भवति, तथा 'गृहको किलिका' घरोलिका उपरिष्टान्मूत्रयति, तन्मूत्रेण चोपघातो भवति चक्षुषः, सर्पो वा तत्राश्रितो भवेत्, विश्वम्भरो जीवविशेष उंदुरो वा भवेत्, 'सरट:' कृकलाशः, स च दशनादि करोति । इदानीं भाष्यकारो व्याख्यानयन्नाह
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| संचारमा चउद्दिसि पुषिं पडिलेहिएवि अनंति । उद्देहि मूल पडणे चिराहणां तदुभए भेओ ॥ १८६॥ ( भा० ) 'सञ्चारकाः' कुन्थ्वादयः पूर्वोक्ताश्चतसृषु दिक्षु तस्मिन्नवष्टम्भे परिभ्रमन्ति, पूर्व प्रत्युपेक्षितेऽपि तत्र स्तम्भादाववष्टम्भेऽनुयन्ति आगच्छन्ति । दारं 'उद्देहित्ति कदाचिदसौ स्तम्भादिरवष्टम्भो मूल उद्देहिकादिभक्षितः ततश्चावष्टम्भं कुर्वतः पतति, पुनश्च विराधना 'तभए' भवति आत्मनि संयमे च भेदश्च पात्रकादेर्भवति । दारं । ल्याइचमढणा संजमंमि आपाए विच्छुगाइया । एवं घरकोइलिआ अहिउंदुर सरडमाईसु ॥ १८७॥ (भा० ) छूतादिचमहने - मर्दने संयमे - संयमविषया विराधना भवति, आत्मविराधना च वृश्चिकादिभिः क्रियते । एवं गृहकोलिका (अहि) उन्दरसरडादिविषया संयमविराधना आत्मविराधना च भवति । उक्त उत्सर्गः, इदानीमपवाद उच्यते-
For Parts Only
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स्थण्डिलप्रत्युपे नि.
३२१ अवष्टम्भप्रत्यु. नि. ३२२-३२३
भा. १८६१८७
॥ १२६॥
binary org
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||३२४||
दीप
अनुक्रम [ ५३७]
बो० २५
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
८०
मूलं [ ५३७] ● → “निर्युक्तिः [३२४] + भाष्यं [१९८७ ] + प्रक्षेपं [२५...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र -[ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
99%
अतरंतस्स उ पासा गाढं दुक्खंति तेणऽवर्द्धभे। संजयपट्टी बंभे सेल छुहाकुडुविट्टीए || ३२४ ॥
'अतरंतस्य' अशक्नुवतो ग्लानादेः पार्श्वानि गाढं अत्यर्थं दुःखंति तेन कारणेनावष्टम्भं कुर्वन्ति, अत आह—संयतपृष्ठे स्तम्भे वा 'सेल'त्ति पाषाणमये स्तम्भे सुधामार्थे कुढये वावष्टम्भं कुर्वीत, उपधिकां विण्टिकां वा कुन्यादी कृत्वा ततोऽ| वष्टम्भं करोति । उत्तमवष्टम्भद्वारम् इदानीं मार्गद्वारे प्रतिपादयन्नाह
पं तु वच्चमाणा जुगंतरं चक्खुणा व पडिलेहा । अइदूरचक्खुपाए सुमतिरिच्छग्गय न पेहे ॥ ३२५ ॥ कथि ब्रजन् 'युगान्तरं' युगं - चतुर्हस्तप्रमाणं तन्मात्रान्तरं चक्षुषा प्रत्युपेक्षेत, किं कारणं १, यतोऽतिदूरचक्षुःपाते सति सूक्ष्मांस्तिर्यग्गतान् प्राणिनः 'न पेहे' न पश्यति, दूरे दूरे प्रहितत्वाच्चक्षुषः ।
अचासन्ननिरोहे दुक्खं दहुंपि पायसंहरणं । छक्कापविओरमणं सरीर तह भत्तपाणे य ॥ ३२६ ॥
अत्मासन्ने निरोधं करोति चक्षुषस्ततो दृष्ट्राऽपि प्राणिनां दुःखेन पादसंहरणं, पादं प्राणिनि निपतन्तं धारयतीत्यर्थः, अतिसनिकृष्टत्वाच्चक्षुषः । 'छकायक्रिमण'ति पट्कावानां विराधनं भवति शरीरविराधनां तथा भक्तपानविराधनां करोतीति । इदानीमस्या एव गावायाः पश्चार्द्ध व्याख्यानयन्नाह -
उहमुहो कहरतो अवयक्तो विक्खमाणो व वातर काए वहए तसेतरे संजमे दोसा ॥ १८८ ॥ ( भा० ) ऊर्ध्वमुखो वजन कथा व रसः - एकः 'अक्वक्संतो' कि पृष्ठतोऽभिमुखं निरूपयन् 'क्विक्खमाणो'त्ति विविधं
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५४०] .. "नियुक्ति: [३२६] + भाष्यं [१८८] + प्रक्षेपं [२५...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३२६||
श्रीओघ- सर्वासु दिक्षु पश्यन् , स एवंविधो बादरकायानपि व्यापादयेत् 'नसेतरांश्च पृथिव्यादीन् स्थावरकायान् , ततश्च भवष्टम्भप्रनियुक्ति 'संयमें संयमविषया एते दोषा भवन्तीति । इदानीं शरीरविराधनां प्रतिपादयन्नाह
त्यु.नि. द्रोणीया I|निरवेक्खो बचतो आवडिओ खाणुकटविसमेसु । पंचण्ह इंदियाणं अन्नतरं सो विराहेजा ॥१८९॥ (भा)
३२४ वृत्तिः
|मार्गप्रत्यु. निरपेक्षो ब्रजन आपतितः सन् स्थाणुकण्टकविषमेषु, विषमम्-उन्नतं, तेष्वापतितः पञ्चानामिन्द्रियाणां-चक्षुरादीनां
नि. ३२५॥१२७॥ अन्यतरत् स विराधयेत् । इदानीं 'भत्तपाणे यत्ति अवयव व्याख्यानयनाह
३२६ भा. भत्ते वा पाणे वा आवडियपडियस्स भिन्नपाए वा । छक्कायविओरमणं उड्डाहो अप्पणो हाणी ॥१९॥ (भा०)/B८८-१९१
नि. ३२७ ___ आपतितश्चासौ पतितश्च २ तस्य साधोः भिन्ने भन्ने वा पात्रके सति भक्ते वा प्रोज्झिते पानके वा ततः षट्कायव्युप-टू तारमणं भवति, उड्डाहश्च भवति आत्मनश्च 'हानिः'क्षुधा बाधनं भवति ततः पुनः षट्कायब्युपरमणमुड्डाहश्च । दहि घय तकं पयमंबिलं व सत्थं तसेतराण भवे । खळूमि य जणवाओ बहुफोडो जं च परिहाणी॥१९१॥ (भा०)
तानि गृहीतानि कदाचिद्दधिवृततक्रपयःकाञ्जिकानि भवन्ति, ततश्च तानि शस्त्रं, केषां -सानामितरेषां च-पृधि-15 व्यादीनां भवेत् , 'खद्धं मिति प्रचुरे च तत्र भक्के लोकेन दृष्टे सति जनापवादो भवति-उड्डाहः, यदुत 'बहुफोडे'त्ति बहु-1|| भक्षका एत इति, या चात्मपरितापनिकादिका परिहाणिः सा च भवति । तथा पात्रविराधनायां याचनादोषान् प्रदर्शयन्नाह
॥१२॥ पत्तं च मग्गमाणे हवेज पंथे विराहणा दुविहा । दुविहा य भवे तेणा परिकम्मे सुत्तपरिहाणी ॥ ३२७ ॥
दीप अनुक्रम [५४०]
SHARERIEatimanandnal
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक नि/भा/प्र
|| ३२७||
दीप
अनुक्रम [५४४]
Educator
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) “निर्युक्तिः [३२७] + भाष्यं [१८८ ] + प्रक्षेपं [२५...]" ८० आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
मूलं [ ५४४ ] ● → मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
पात्र चान्विति सति ग्रामादौ भवेत् पथि विराधना द्विविधा आत्मविराधना संयमविराधना च, पथि स्तेनाश्च द्विमकारा भवन्ति - उपधिस्तेनाः शरीरस्तेनाश्च, लब्धेऽपि कृच्छ्रात्पात्र के तत् परिकर्मयतः तद्व्यापारे लग्नस्य सूत्रार्थपरिहानिः ॥ एसा पडिलेहणविही कहिआ भे धीरपुरिसपन्नत्ता । संजमगुणगाणं निग्गंधाणं महरिसीणं ॥ ३२८ ॥ अयं च प्रत्युपेक्षणाविधिः कथितो 'मे' भवतां, किंविशिष्टः - 'धीरपुरुषैः प्रज्ञप्तः' गणधरैः प्ररूपितः, संयमगुणैराढ्यानां निर्मन्थानां 'महर्षीणां' सत्यवादिनां कथित इति ॥ तथा
एवं पडिलेहणविहिं जुंजंता चरणकरणमाउत्ता । साहू खवंति कम्मं अणेगभवसंचिअमणतं ॥ ३२९ ॥ एतं प्रत्युपेक्षणाविधिं ‘युञ्जन्तः' कुर्वाणाः चरणकरणयोगयुक्ताः सन्तः साधवः क्षपयन्ति कर्म, किंविशिष्टम् ?- 'अनेकभवसञ्चितम्' अनकभवोपात्तम् 'अनन्तम्' अनन्तकर्मपुद्गलनिर्वृत्तत्वात्तदनन्तमिति, अनन्तानां वा भवानां हेतुर्यतदनन्तं क्षपयन्तीति । उक्तं मार्गप्रत्युपेक्षणाद्वारं, तत्प्रतिपादनाच्चोक्तं प्रत्युपेक्षणाद्वारमिति प्रतिलेखनाद्वारं समाप्तं ॥ इदानीं पिण्डद्वारप्रतिपादनायाह
पिंड व एसणं वा एतो वोच्छं गुरुवएसेणं । गवेसणगहणघासेसणाऍ तिविहाए विसुद्धं ॥ ३३० ॥ पिण्डं वक्ष्ये एषणां च एषणा - गवेषणा तां च अतः परं वक्ष्ये गुरूपदेशेन न स्वमनीषिकया, सा चैषणा त्रिविधा भवति - गवेषणैषणा ग्रहणैषणा ग्रासपणा चेति, अनया त्रिविधयाऽप्येषणया विशुद्धः शुचिर्यः पिण्डस्तं वक्ष्य इति योगः । 'यथोद्देशं निर्देश' इतिन्यायात्प्रथमं पिण्डमेव व्याख्यानयन्नाह
अत्र पिण्डवारस्य प्ररूपणा क्रियते
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
||३३१ ||
दीप
अनुक्रम [५४८]
बीओघ
निर्युक्तिः द्रोणीया वृत्तिः
॥१२८॥
Jan Educator
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [५४८]
“निर्युक्ति: [ ३३१] + भाष्यं [१८८...] + प्रक्षेपं [२५...] F मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
BAONK
firee forest चउकओ छक्कओ य कायो । निक्खेवं काऊणं परूवणा तस्स कायवा ॥ ३३१ ॥ तत्र पिण्डनं - पिण्डः, 'पिण्ड सङ्घाते', पिण्ड इत्यस्य पदस्य निक्षेपः कर्त्तव्यः, स च निक्षेपकञ्चतुष्ककः क्रियते पङ्को वा, एवं निक्षेपं कृत्वा प्ररूपणा - व्याख्या तस्यैव पिण्डस्य कर्त्तव्या ॥ तत्र चतुष्ककनिक्षेपं प्रतिपादयन्नाह-नाठवणाfपंडो पिंडो य भावपिंडो य । एसो खलु पिंडस्स उ निक्खेवो चउष्विहो होइ ॥ ३३२ ॥ नामपिण्डः स्थापनापिण्डो द्रव्यपिण्डो भावपिण्डश्चेत्येष तावच्चतुष्कको निक्षेपः, यदा पुनः क्षेत्रपिण्डः कालपिण्डश्च निक्षिप्यते तदाऽयमेव षट्को वा भवति, तत्र नामपिण्डः- पिण्ड इति नाम यस्य स नामपिण्डः । तच्चगोणं समयकथं वा जं वावि हवेज तदुभरण कयं । तं विंति नामपिण्डं ठेवणापिंडं अओ वोच्छं ॥ ३३३ ॥
तच नाम गोण्णं भवति यथा गुडपिण्ड इति, तथाऽन्यत्समयकृतं भवति, समय:- सिद्धान्तस्तेन कृतं यथा "से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहाबइकुळ पिंडवायपडियाए पविडे समाणे जं जाणेज्जा अंबपाणगं वा" इत्यादि, यद्यप्यसौ पानकस्य द्रवस्वभावस्य (कृते) प्रविष्टस्तथाऽप्यसौ पिण्डार्थं प्रविष्ट इत्युच्यते, एष समय सिद्धः पिण्डः, यद्वा नाम भवेत्तदुभयेन कृतंलोकलोकोत्तरकृतं वा यन्नाम भवेत्, यथा 'गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविद्वेण पिंडो चैव सतुगाणं केरओ लद्धओ गुडपिंडो वा " तत्र लोके गुडपिण्डकः गुडपिण्डक एवोच्यते, समयेऽप्येवमेव पिण्डक उच्यते, एवमेवंगुणविशिष्टं सर्वमेव नामपिण्डं ब्रुवते, अत ऊर्द्ध स्थापनापिण्डं वक्ष्य इति ।
अक्खे वराड वा कट्टे पोल्थे व चित्तकम्मे वा । सम्भावमसम्भावा ठेवणापिंडं विपाणाहि ॥ ३३४ ॥
अथ पिण्ड विषयक निक्षेप आदिः वर्णनं क्रियते
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प्रतिलेखना समाप्तिः नि. १ ३२८-३२९ * पिण्डनिक्षे
पः नि.
|३३०-३३४
॥ १२८॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१५१] » “नियुक्ति : [३३४] + भाष्यं [१८८...] + प्रक्षेपं [२५...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३३४||
स्थापना द्विविधा-सद्भावस्थापना असद्भावस्थापना चेति, सत्रामविषया सभावस्थापना असद्भावस्थापना च भवति, कर्थ, बदा एक एवाक्षः पिण्डकल्पनया बुब्या कल्प्यते तदाऽसद्भावस्थापना, यत्र पुनस्त एवाक्षास्त्रिप्रभृतय एकत्र है स्थाप्यन्ते तदा सझावस्थापना, एवं 'वराटकेषु' कपर्दकेषु, तथा काष्ठकर्मणि वेति, यदैकमेव काष्ठं पिण्ड एष इत्येवं
कल्प्यते तदाऽसद्धावस्थापना, यदा तु एकत्र बहूनि मिलितानि पिण्डत्वेन कल्प्यन्ते तदा सद्भावस्थापना, एवं 'पुस्ते ४ाधीउलिकादौ पुतलिकादिष्वपि एवं चित्रकर्मण्यपि, यदैकचित्रकर्मणि पुत्तलपिण्ड इति स्थाप्यते तदाऽसद्भावपिण्डस्थापना यदा त्रिप्रभृति पिण्डबुझ्या कल्प्यते तदा सद्भावस्थापना, एवं सद्भावपिण्डमसद्भावपिण्डं च जानीहि । इदानी द्रव्यपिण्डस्य
शररीभव्यशरीरव्यतिरिक्तस्य प्रतिपादनायाहतिविहो य दवपिंडो सचित्तो मीसओ य अचित्तो । अचित्तो य दसविहो सचित्तो मीसओ नवहा ॥ ३३५ ॥
त्रिविधो द्रव्यपिण्डः सचित्तोऽचिसो मिश्रश्चेति, तत्र योऽसावचित्तः स दशविधः सचित्तो नवप्रकारः मिश्रश्च नवधा ॥ सातत्राचित्तपिण्डप्रतिपादनायाह
पुढवी आउछाए तेउवाऊषणस्सई चेव । यिअतिअचउरो पंचिंदिया प लेवो य दसमो ७ ॥ ३३६ ॥ पृथिवीकायपिण्डः अकायपिण्डतेजस्कायपिण्डः वायुकायपिण्डः वनस्पतिकायपिण्डः द्वीन्द्रियपिण्डः श्रीन्द्रिवपिण्ड चतुरिन्द्रियपिण्डः पोन्द्रियपिण्डः पात्रका लेपपिण्डचेति दनमः । एवमयं दशप्रकारोऽचित्तपिण्डा, इदानीं योऽसौ
दीप अनुक्रम [५५१]
Santaratin
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५५४] → “नियुक्ति : [३३७] + भाष्यं [१८८...] + प्रक्षेपं [२५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
पिण्डनिक्षेपण |पनि.
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३३७||
श्रीओघ- नियुक्तिः द्रोणीया वृत्तिः
ॐकरकर
॥१२९॥
अचित्तः पृथिवीकायादिपिण्डः स सचित्तपूर्वको भवतीतिकृत्वा[ऽतः] स एव प्रथम सचित्तःप्रतिपाद्यते, तथोपन्यासोऽपि स- ६||चित्तस्यैव प्रथमं कृतः, तथा योऽसी सचित्तो मिश्रश्च एकैको नवप्रकार उक्तः सोऽप्यनेनैव क्रमेण व्याख्यातो भवतीति-|
कृत्वा पूर्व सचित्तं व्याख्यानयन्नाहपुढविकाओ तिविहो सञ्चित्तो मीसओ य अचित्तो। सचित्तो पुण दुविहो निच्छयववहारिओ चेव ॥ ३३७ ॥
पृथिवीकायखिविधः सचित्तो मिश्रोऽचित्तश्च, तत्र सचित्तो द्विविधा निश्चयसचित्तो व्यवहारसचित्तश्च । PI निच्छयओ सच्चित्तो पुढविमहापचयाण बहुमज्झे । अचित्तमीसवज्जो सेसो ववहारसचित्तो ॥ ३३८॥ | निश्चयतः सचित्तः पृथिवीना-रत्लशर्कराप्रभृतीनां संबन्धी यः 'महापर्वतानां हिमवदादीनां च 'बहुमध्ये मध्यदेशभागे । इदानी व्यवहारसचित्तप्रतिपादनायाह-अचित्तवर्ज:मिश्रवर्जश्च, एतदुक्तं भवति-योऽचित्तो न भवति न च मिश्रः स व्यवहारतः सचेतन इति, स चारण्यादौ भवति यत्र वा गोमयादि नास्ति । उक्तः सचित्तः पृथिवीकायः, इदानी मिश्रथिवीकार्य प्रतिपादयन्नाह| खीरदुमहेट पंथे कट्ठोल्ला इंघणे य मीसो य । पोरिसि एगद्गतिगं बहुइंधणमज्झथोवे अ ॥ ३३९॥
क्षीरद्रुमाः-उदुम्बरादयस्तेषामधो यः पृथिवीकायः स मिश्रः, ते हि क्षीरदुमा मधुरस्वभावा भवन्ति, पथि च मिश्रपृथिवीकायः, 'कट्ठोल्लो'त्ति हलकृष्टो यः पृथिवीकायस्तत्क्षणादेव आर्द्रश्च शुष्कश्च कचिन्मिश्रपृथिवीकायः 'इंधणे'त्ति इन्धनंगोमयो भव्यते, तत्थ कुम्भकारेण सद्रवो आणिओ तेण मिलितो संतो पृथिवीकायो मिश्रो भवति, कियत्कालं यावद् ?
दीप अनुक्रम [५५४]
॥१२९॥
REautammana
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
||३३९||
दीप
अनुक्रम [ ५५६ ]
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [५५६]
“निर्युक्तिः [३३९] + भाष्यं [ १८८...] + प्रक्षेपं [२५...]"
F
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
अत आह-'पोरिसीएगदुगतिर्ग' यथासोन च 'बहुषणमशिषणथोविंषण' यदि बहु इन्धनं स्वल्पः पृथिवीकाय| स्ततः पौरुषीमात्रं यावत् मिश्रो भवति, मध्ये तु इन्धने अर्द्धमिन्धनस्य अर्द्ध पृथिवीकायस्य यत्र स पौरुषीद्वितयं यावन्मिश्र स्वल्पेन्धनस्तु पृथिवीकायः पारुषीत्रयं यावन्मिश्रो भवति । उक्तो मिश्रः, इदानीमचित्त उच्यते स चैवं भवति
सीखारखत्ते अग्गीलोणूस अंबिले नेहे । वकंतजोजिएणं पओषणं तेजिमं होंति ॥ ३४० ॥
शीतशस्त्राभिहतः उष्णशस्त्राभिहितः क्षारः- तिलक्षारादिस्तेनाभिहतो यः क्षत्रशस्त्रेणाभिहतः, क्षत्रं-करीषविशेषः, अग्नि| शस्त्राभिहतः लवणशस्त्राभिहतः ( अवश्यायशस्त्राभिहितः ) काञ्जिकशस्त्राभिहतः, स्नेहेन घृतादिना शस्त्रेणाभिहतः सन् यो व्युत्क्रान्तयोनिकः, अथवा 'विकतजोणिएवि य' केचित्पठन्ति तत्रायमर्थः व्युत्क्रान्ता - अपगता योनिः स्वयमेव यस्य पृथिवीकायस्य तेन च 'इदं' वक्ष्यमाणं प्रयोजनं भवति । किं तत्प्रयोजनमित्यत आह
अवरगि विसबंधे लवणेण व सुरभिउवलएणं च । अचित्तस्स उ गहणं पओपणं होइ जं चनं ॥ ३४१ ॥ •
अवरद्धिगा-छूता फोडिआ तस्यां लूतास्फोटिकायामुत्थितायां दाहोपशमार्थमचेतनेन पृथिवीकायेन परिषेकः क्रियते, | यदिवा अवरद्धिगा-सर्पदंशस्तस्मिन् परिषेकादि क्रियते, दंशे विषे वा पतिते सति तयाऽचेतनया मृत्तिकया बन्धो दीयते, लवणेन वा प्रयोजनमचि तेन भवति, 'सुरहितोवलएणं वत्ति गन्धारोहकेणापि किञ्चित्प्रयोजनं भवत्यामादौ, एभिः प्रयोजनैरचेतनस्य पृथिवीकायस्य ग्रहणं भवति-प्रयोजनं भवति । इदं च वक्ष्यमाणलक्षणमन्यत्
dan Education!
For Patonal & PO
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१५९] » “नियुक्ति : [३४२] + भाष्यं [१८८...] + प्रक्षेपं [२५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३४२||
श्रीमओवनियुक्तिः द्रोणीया वृत्तिः ॥१०॥
ठाणमिसीयतुपट्टण उच्चाराईणि चेच उस्सग्गो। घट्टगडगलगलेवो एमाइ पोषणं बहुहा ॥ ३४२॥
पिण्डनिक्षे.
प: नि. स्थान-कायोत्सर्गः सोऽचेतने पृथिवीकाये क्रियते निषीदनम्-उपवेशनं त्वग्वर्त्तनं-निमज्जनं च क्रियते उच्चारादीनां
सना३४०-३४५ बोत्सर्गः क्रियते, 'घट्टग'त्ति पट्टकः-पाषाणका येन पात्र लेपितं सत् घृष्यते, तथा डगलकाः अपामप्रोछनार्थं लेपकच | पात्रकाणां, एवमादि प्रयोजनमचित्तेम पृथिवीकायेन भवति । उक्तः पृथिवीकायः, इदानीमकाय उच्यते, असावपि विविधः सचित्तमिश्राचित्तभेदः, तत्र सचित्तप्रतिपादनायाहघणजदहीघणवलया करगसमुपहाण बहुमज्झे । अह निच्छयसचित्तो ववहारनयस्स अगडाइं ॥ ३४३॥ ते
घनोदधयो रत्नप्रभापृथिव्यादीनां घनवलयामि च करकाश्च एतेषु निश्चयतः सचित्तोऽप्कायः समुद्रबहुमध्ये-मध्यप्रदेशे द्रहमध्ये च निश्चयसचेतनः, व्यवहारनवस्य पुनरगडादौ-कृपादौ योऽप्कायः स व्यवहारतः सचित्तः । इदानीं मिश्रप्रतिपादनायाह
उसिणोदगमणुवत्ते दंडे वासे य पडिअमेत्ते य । मोत्तूणाएसतिगं चाउलउदगं बहुपसन्नं ॥ ३४४ ॥ उष्णोदकमनुद्वत्ते दण्डे मिश्र भवति, तत्व माझे जीवसंघाओ पिंडीभूओ अच्छा पच्छा उबत्ते सो परिणमइ, सो. जाव || परिणमद ताव मीसो, वासे य पडियमिसे-वर्षे च पतितमात्रे मिश्रो भवत्यकायः, तम्दुलोदके व्यवस्था का , तदुच्यते, टा
॥१३०० 'मोतूण'इत्यादि, तदपि मिश्र बहु प्रसन्नं सदचेतन भवति आदेशत्रितयं मुक्त्वा तदनेकान्तान् ॥के च ते आदेशाः थाएसतिगं दुध विन्दू तह चाउला न सिजसंति। मोसूण तिपिणवेए चाउलउदगं बहु पसणं ॥ ३४५॥
दीप अनुक्रम [५५९]
REaratimandard
K
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
||३४५||
दीप
अनुक्रम
[ ५६२]
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [ ५६२]
“निर्युक्तिः [३४५] + भाष्यं [ १८८...] + प्रक्षेपं [२५...]"
F
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
केई मति- जाव बुब्बुया ण फिट्टेति ताव तं मी, अण्णे भांति-भंडवलग्गा बिंदुणोण सुकंति जाब ताब मीसं, अण्णे | भयंवि-जब चालान सिन्हांति ताव मी, एसे मणाएसा, जम्हा एयाणि तिष्णि वत्थूणि कयाइ चिरेण होंति कयाई सिग्मतरं 'वेव आधारवशात्, तम्हा चाउलोदगं जदा बहु पसन्नं होइ तथा तं अचितं भवति, अथवा मुक्त्वा तदुलोदकं बहुप्रसनं यदन्यदादेशत्रितयं प्रतिपादितं तच मिश्रं द्रष्टव्यमिति । उक्तो मिश्रोऽष्कायः, इदानीमचित्तप्रतिपादनायाह-
सीसारखते अग्नीलोणूस अंबिले नेहे। वर्षात जोगिएणं पओपणं तेणिमं होंति ॥ ३४६ ॥ पूर्ववत् । तेन पातित्प्कायेन एवं प्रयोजनं क्रिषते
परिसेपियणहत्याइघोषणा भीरघोषणा बेच आयमण भाणधुवणे एमाइ पोषण बहुहा ॥ ३४७ ॥ परिषेकः- सेचनं कुष्ठाद्युत्थिते सति क्रियते, तथा पानं हस्तादिधावनं चीरधावनं च क्रियते, तथा आचमनं भाजनमक्षानं च क्रियते, एवमादीनि प्रयोजनानि बहुधा भवन्ति । इदानीं चीरमक्षालनं क्रियत इत्युक्तं तच्च ऋतुबद्धे न कर्त्तव्यं अथ क्रियते तत एते दोषा भवन्ति
धुवण पाउस बंभविणासो अठाणठवणं च । संपाइमघाउवहो पलवण आतोपधातो य ॥ ३४८ ॥ ऋतुबद्ध: - शीतोष्णकाली मिठितावपि चैव भण्यते, तत्र यदि श्रीवराणां धावनं क्रियते ततो बाकुशिको भवति विभूपणशील इत्यर्थः यदा च विभूषणशीतस्तदा ब्रह्मविनाशो भवति, तथा अस्थानस्थापनं च भवति, यदुत नूनमयं कामी तेनात्मानं मण्डपति ततथास्थावस्थापनम् अयोग्यतास्थापनं भवतीति तथा संपातिमसस्वानां वायोश्च वधो भवति,
For Pale Only
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५६५] → “नियुक्ति: [३४८] + भाष्यं [१८८...] + प्रक्षेपं [२५...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
श्रीओप
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३४८||
पिण्डनिक्षेपःनि. ३४६-३५२ वस्त्रप्रक्षा
तथा प्लबनेन च सत्यवधो भवति, तथाऽऽत्मोपघातश्च भवति हस्ते कण्डकपतनादिति । आह-ययेवं न धाषितव्यान्येव नियुक्किाचीवराणि, उच्यते, वर्षाकाले प्रक्षालयितव्यानि, अथ न प्रक्षाल्यन्ते तत एते दोषा भवन्तिद्रोणीया अइभारचुडणपणए सीपलपावरण अजीरगेलने । ओभावणकायवहो वासासु अधोवणे दोसा ।। ३४९॥ वृत्तिः मलेनातिगुरूणि भवन्ति, तथा'चुडण'त्ति जीर्यन्ते पनकश्चतत्र लगति पनका-फुल्ली, शीतलप्रावरणे चाजीर्ण भवति, ततश्च ॥१३॥ ग्लानता भवति, तथा 'उवहावणा' परिभवो भवति कायवधश्च भवति, तानि हि आोणि श्योतन्ति सन्ति अप्का
यादि विनाशयन्ति, एते वर्षास्वधावने दोषाः । कदा प्रक्षालन कार्यमित्याह
अप्पत्ते चिय वासे सर्व उवहिं धुवंति जयणाए । असहए व दवस उ जहन्नओ पायनिज्जोगो ॥ ३५०॥ वर्षाकाले अप्राप्ते एव अर्द्धमासमात्रेण सर्वमुपधि प्रक्षालयन्ति यतनया । अथोदकं प्राथुकै प्रचुरं नास्ति ततो जघन्येन 'पात्रनिर्योगं'पात्रकोपकरणं प्रक्षालनीयं येन गृहस्था भिक्षां प्रयच्छन्तो न जुगुप्सन्ते इति । आह-सर्वेषां वर्षपर्यन्त एवोपधिः प्रक्षाल्यते !, न इत्याह
आयरियगिलाणाणं मइला मइला पुणोवि धोवंति।मा हु गुरूण अवन्नो लोगंमि अजीरणं इयरे ॥३५१॥ सुगमा ॥ नवरं 'अजीरणं इयरे'त्ति इतरेषां ग्लानानां चीवराणि प्रक्षालनीयानि यदि न प्रक्षाल्यन्ते ततोऽजीर्ण भवति । इदानीमुपधिप्रक्षालनकाले कानि न विश्रामणीयानि ? इत्याहपायस्स पडोयारं दुनिसजे तिपट्टपोत्तिरयहरणं । एते ण उ विस्सामे जयणा संकामणा धुवणा ॥ ३५२ ॥
KARI
दीप अनुक्रम [५६५]
LDoma
Raitaram.org
अथ वस्त्र-प्रक्षालन विधि: वर्ण्यते
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५६९] .” “नियुक्ति : [३५२] + भाष्यं [१८८...] + प्रक्षेपं [२५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||३५२||
पात्रस्य 'पहोवारं' परिकरणं पात्रबन्धादिकं न विश्रामयेत् , तथा 'दुन्नि निसजेत्ति रजोहरणनिषद्याद्वयं एका और्णिका बाह्यनिषद्या द्वितीया मध्यवर्तिनी क्षोमनिषद्या इदं द्वयं न विश्रामणीयं 'तिपत्ति एकः संस्तारकपट्टको द्वितीय उत्तरपट्टकः तृतीयश्चोलपट्टकः 'पोत्तित्ति मुखवस्त्रिका रजोहरणं-प्रतीतमेव एतानि न विश्रामयेत्, यतो नान्यान्यनुपभो-टू ग्यानि सन्ति । तत्र च षट्पदसङ्कमणं कथमित्याह-जयगा संकमणा' यतना वस्त्रान्तरितेन हस्तेनान्यस्मिन् वस्त्रे षट्पदीः सङ्कामयति ततो धावनं करोति । इदानीं शेषमुपधि विश्रामयतो विधिमाहअम्भितरपरिभोगं उरि पाउणइ णातिदूरे यातिनि यतिन्नि य न एक निसि ए काउं पडिरछेज्जा ॥ ३५३ ॥
अम्भितरपरिभोग क्षोमकल्प शेषकल्पयोरुपरि प्रावृणोति, कतराः?, त्रयस्तित्र इति वक्ष्यति, तथा नातिदूरे नात्याIPIसने तमेव कल्प रात्रित्रयमेव स्थापयति, 'तिनि य तिन्नि यत्ति पदद्वयं योजितमेव द्रष्टव्यं, एक निसिङ काउंति एका रित्रिमात्मोपरि कीलकादौ स एव कल्पः स्थाप्यते । 'पडिच्छे जत्ति एवं सप्त दिनानि परीक्षा कार्या । अथवा 'परिक्खेज-15 त्ति एवं सप्तवाराः कृत्वा पुनश्च शरीरे वखं प्रावृत्य परीक्षणीयं, यदि षट्पयो न लगन्ति ततः प्रक्षालनीयमिति ॥
केई एकेकनिर्सि संवासे तिहा पडिच्छति । पाउणियजयणलग्गति छप्पया ताहे घोचेजा ॥ ३५४॥ केचनाचार्या एवमाहुः-'एकेकनिसिं संवासे'ति अयमत्रार्थः-तमभ्यन्तरं कल्प क्षोममितरकल्पयोरुपरि एको रात्रि प्रावृणोति, पुनरपरस्यां रात्रावात्मासन्ने स्थापयति, पुनरपरस्यां रात्रौ आत्मोपरि कीलकादी लम्बमानं करोति, एवं त्रिरात्र ||
SSCRACKSLSAX
दीप अनुक्रम [५६९]
For P
OW
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [११] .→ नियुक्ति: [३५४] + भाष्यं [१८८...] + प्रक्षेपं [२५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३५४||
इत्तिः
॥३२॥
दीप अनुक्रम [५७१]
श्रीओप-यात्परीक्ष्यसे, पक्षाबकल्प पुनः प्राहमोति, पाहते च कल्पे यदि न गम्ति षट्पद्यस्तदा धावयेत्-प्रक्षालयेन् । तेपिण्डनिक्षनियुक्तिः च प्रक्षाळयन्त:
प.नि. द्रोणीया निचोदमस्स गहणं कई भाणेसु असुइ पडिसेहो । गिहिभायणेसु गहणं ठियवासे मीसि छारो ॥ ५५॥131
३५३-३५६
वखप्रक्षा'तेच साधवचीरप्रक्षालनार्थ नीबोदकस्य ग्रहणं कुर्वन्ति, तत्राह-केई भाणेसु'त्ति केचनैवं ब्रुवते यदुत "भाजनेषु
लन पात्रेषु नीबोदकमहर्ण कार्य, आचार्य आहे-'असुइ' लोका एवं भणन्ति, यदुत-अशुचय एते, ततश्च प्रतिषेधं कुर्वन्ति । क पुर्नग्राह्यमित्यत आह-गिहिभायणेसु' गृहस्थसत्केषु भाजनेषु-कुण्डादिषु भाजनेषु गृह्यते, कदा-'ठियवासें स्थिते | प्रवर्षणे-थके वरिसियवे, 'मीसग ति अथात्र प्रवर्षप्ति पर्जन्ये गृह्यते ततो गृहतो मित्रं भवत्वन्तरिक्षोदकपातात् तस्मा-दि स्थिते प्रवर्षणे प्राय, गृहीतेचवार क्षेपणीयो वेन सचित्तता न याति । कस्य पुनः प्रथममुपधिः प्रक्षालनीय इत्यत आह
गुरुपचक्खाणगिलाणसेहमाईण घोवणं पुवं । तो अप्पणा पुषमहाकडे व इतरे दुचे पच्छा ।। ३५६ ॥ प्रथमं गुरोरुपधिःप्रक्षाल्यते ततः पिचक्खाय ति प्रत्याख्याता-अनशनस्थस्तस्योपधिः प्रक्षाल्यते समाधानार्थं ततो| ग्लानख पश्चात्सेहत्य मा सम्मळपरीवहपीडया चित्तभङ्गः, एवमेतेषां पूर्वमुपधिःक्षाल्पते तत आत्मनः क्षालयत्युपषिं। इदानी
काबि प्रथम क्षालनीयानि इल्याह-'पुवमहाकडे'त्ति यान्येकलण्डानि अतूर्णितानि च तानि यथाकृतानि पूर्वमक्षालबति, ॥१३॥ दइयरे दुवे पच्छसि इतरी दो बखभेदी पात्प्रक्षालयन्ति, एकान्यल्पपरिकर्माणि-यानि कचिन्मनाक् तूर्णितानि अन्यानि
बहुपरिकर्माधि यानि विधा सीवितानि पूर्थिवानि च, अल्पपरिकर्माणि च क्षावित्या तो बहुपरिकणि क्षालयति ।
REaratision
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५७४] .. "नियुक्ति : [३५७] + भाष्यं [१८८...] + प्रक्षेपं [२५...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||३५७||
अच्छोडपिट्टणासुत ण धुवे धावे पतावणं न करे। परिभोगमपरिभोगे छायातव पेह कल्लाणं ॥ ३५७॥
इदानीं स साधुः प्रक्षालयन् कर्पटानि नाच्छोटयति रजकवत्, नापि च पिट्टयति काष्ठपिट्टनेन स्त्रीवत्, किन्तु हस्तेन मनार यतनया धावनं करोति, धौतानि च वखाणि नातपे प्रतापयति, मा भूत्तत्र काचित् षट्पदी, स्यात् कानि पुनरातपे४ कार्याणि कानि वा न ? इत्याह-'परिभोगमपरिभोगे'त्ति तानि कर्पटानि द्विविधानि भवन्ति-परिभोग्यानि अपरिभोग्यानि च, तत्र यथासोन छायातपयोः कार्याणि, परिभोग्यानि छायायां शोष्यन्ते, मा भूत्तत्र षट्पदी स्यात् , अपरिभोग्यान्यातपे,12 | 'पहे'त्तिं तानि च कर्पटानिशुष्यन्ति सन्ति निरूपयत्यपहरणभयात्। 'कल्लाणगंति पश्चात्तस्य प्रक्षालनप्रत्ययमेककल्याणक प्रायश्चित्तं दीयते । उक्तोऽप्कायः, साम्प्रतमग्निकाय उच्यते
इगपागाईणं बहुमज्झे विजुयाइ निच्छाओ। इंगालाई इयरो भुम्मुरमाई पमिस्सो उ॥ ३५८ ॥ असावपि त्रिविधः, तत्र सचित्त इष्टकापाकादीनां बहुमध्ये विद्युदादिको नैश्चयिको भवति, अङ्गारादिश्वेतरो व्यावहा-13 रिका भुर्मुरादिका-उस्मुकादिमिश्रो भवति । इदानीमचित्ताग्निकायस्योपयोगमचिसाग्निशरीरोपयोगं च दर्शयन्नाहओदणवंजणपाणगआयामुसिणोदगं च कुम्मासा । उगलगसरक्खसई पिप्पलमाई य परिभोगो ॥ ३५९॥
ओदनं-कूरादि व्यञ्जनं-तिम्मणं पानक-आचाम्लं आयाम-अवश्रावणं उष्णोदकं कुल्माषाच, एतानि अग्नेनिर्वस्यानि कार्याणि, ततश्चैभिरुपयोगः क्रियते । इदानीमग्निनिवर्तितशरीरोपभोगं दर्शयन्नाह-डगलका-इष्टकाखण्डा अतीव पकाः सरक्खो-भस्म सूच्यः पिप्पलक:-क्षुरकः, एवमादिभिरचित्तरग्निशरीररुपयोगः क्रियते, अग्निशरीराणि च द्विविधानि भष
दीप अनुक्रम [५७४]
मो०२३
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||३५९||
दीप
अनुक्रम [५७६ ]
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [५७६ ] • मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
०
"निर्युक्तिः [ ३५९] + भाष्यं [१८८...] + प्रक्षेपं [२५...]" आगमसूत्र - [४१/१], मूल सूत्र -[२/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
न्ति-बजेलयाणि मुकेलयाणि च तत्रात्र मुकेलयाणि द्रष्टव्यानि । इदानीं वायुकाय उच्यते, असावपि त्रिविधः सचित्ता- * पिण्डवर्णने दिरूपः, तत्र नैश्वयिकसचित्तप्रतिपादनायाहवस्त्रधावने नि. ३५७ * अग्निवायुपि U. M ३५-३६०
सवलयघणतणुवाया अतिहिमअतिदुद्दिणे य निच्छइओ । ववहार पायमाई अकंतादी य अचिन्तो ॥ ३६० ॥
श्रीओषनियुक्तिः
वृत्तिः
सह वलयैर्वर्त्तन्त इति सवलयाः घनवाताश्च तनुवाताश्च सवलयाश्च ते घनतनुवाताश्च २ ते निश्चयतः सचित्ताः । तथाऽ॥१३३॥ ॐ तिहिमपाते यो वायुरतिदुर्दिने च यो वायुः स नैश्चयिकः सचित्तः, व्यवहारतः पुनः प्राच्यादि- पूर्वस्यां यो दिशि, आदिग्रहणादुत्तरादिग्रहणं, एतदुक्तं भवति - अतिहिम अतिदुर्दिनरहितो यः प्राच्यादिवायुः स व्यवहारतः सचितः । इदानीमचित्तः 'अकंलाई य अचित्तोत्ति यः कर्दमादावाक्रान्ते सति भवति सोऽचित्तः, स च पञ्चधा अकंते धंते पीलिए सरीराणुगए संमुच्छिमे, तत्थ अकंतो चिक्खिलाइसु, धंतो दतियाइसु, पीलिओ पोत्तचम्माईसु, सरीराणुगओ ऊसासनीसासवाऊ उदरत्थाणीओ, संमुच्छिमो तालियंटाईहिं जणिओ । इदानीं मिश्र उच्यते, आह- किं पुनः कारणं मिश्रः पश्चाद्व्याख्यायते ?, उच्यते, अचित्तेनैव साधुर्व्यवहारं करोति, स च गृहीतः सन्नेव मिश्रीभवति, अस्यार्थस्य प्रदर्शनार्थे पश्चान्मिश्र उच्यते ।
हत्थसयमेग गंता दइ अचित्तो बिइय संमीसो । तइयंमि उ सच्चित्तो वत्थी पुण पोरिसिदिणेहिं ॥ ३६१ ।।
अचित्तवायुभृतो इतिस्तरणार्थं गृह्यते, स च क्षेत्रतो हस्तशतमेकं यावद्भत्वाऽपि अचित्त एव, तोयं नीत्वाऽपि ततो | हस्तशतादूर्द्ध द्वितीयहस्तशतप्रारम्भेऽपि मिश्रो भवति, तृतीयहस्तशतप्रारम्भे सचित्तो भवति, क्षेत्रमङ्गीकृत्य यावता कालेन
For Parts Only
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| ॥१३३॥
nary org
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५७६] .. "नियुक्ति : [३५९] + भाष्यं [१८८...] + प्रक्षेपं [२५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
।
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३५९||
SACREASC+SACACANCE
मिश्रो भवति तथोक्तं, इदानीं कालमङ्गीकृत्य यावता कालेनाचित्तः सन् मिश्रः सचित्तो भवति तत्पदर्शनायाह-वथी। पुण पोरिसिदिणेहिं ति तब बस्तिः-चर्ममयी खल्लोच्यते, सा चाचित्तवायोरापूरिता अतिस्निग्धकाले पौरुषीमात्र कालं
यावत्तत्र स्थितो वायुरचित्त एवास्ते, अयमत्र भावार्थः-कालो हि द्विविधः-निद्धो लुक्खो य, तत्थ निद्धो कालो सपाणि४|तो इयरो लुक्खो, तत्व निद्धो तिविहो-उकोसो मज्झिमो जहण्णो य, तस्थ उफोसनिद्धे काले पौरुषीमात्र कालं यावत
वत्थी वायुणाऽऽपूरितो अचित्तो होइ तदुवरिं सो चेव तइए पहरे सचित्तो होइ, मज्झिमनिद्धे काले वत्थी बाउणाSS-11 *पूरिओ दो पोरसीओ जाव अचित्तो होइ तदुवरि सो चेव चउत्थे पहरे सचित्तो होइ, जहण्णे निद्धे काले वत्थी बाउणाss-1
पूरिओ तिष्णि पहरे जाव अचित्तो होइ, तदुवरि सो चेव चउत्थे पहरे मिस्सो होइ, तदुवरिं पंचमे पहरे सो चेव सचित्तो| होइ । एवं निद्धकाले माणं भणिअं, इदाणिं रुक्खकाले दिणेहिं परूवणा किजइ, तत्थ लुक्खकालोऽवि तिबिहो जहन्नलुक्खो मज्झिमलुक्खो उकोसलुक्यो य, तत्थ जहन्नलुक्खे काले वत्थी वाउणाऽऽपूरिओ एगदिवसं जाब अचित्तो होइ, तदुवरि
सो चेव बिइयदिवसे मिस्सो होइ, सो चेष ततिए दिवसे सचित्तो होइ, मज्झिमलुक्खे काले वत्थी वाउणाऽऽपूरिओदो दिणा दाजाव अचित्तो अच्छा, तद्वरि सो चेव तइए दिवसे मिस्सो होइ, तदुवरि चउत्थे दिवसे सचिसो होइ, सो चेव याऊ । | उक्कोसलुक्खे काले दिवसतिगं जाव अचित्तो होइ, तदुवरि सो चेव चउत्थे दिवसे मीसो होइ, तदुवरि सो चेव पंचमेद दिवसे सचित्तो होइ । एवं एगदुगतिगसंखा पोरिसिदिणेसुं अणुवट्टावणीआ। इदानीमचित्तेन वायुना यत्प्रयोजनं भवति | तत्प्रतिपादयन्नाह
दीप अनुक्रम [५७६]
SAREairahi
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५७९] → “नियुक्ति: [३६२] + भाष्यं [१८८...] + प्रक्षेपं [२५...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र
| नि.
||३६२||
श्रीओघ-RI दइएण वस्थिणा वा पओयणं होज बाउणा मुणिणो । गेलनंमि व होजा सचिसमीसे परिहरेला ॥ ३६२॥ पिण्डवर्णने नियुक्तिः सुगमा ॥ नवरं दतिएणं तरण कीरति, गेलन्ने वस्थिणा कर्ज होइ । उक्तो वायुः, इदानीं वनस्पतिकाय उच्यते, असा-16
अग्निवायुद्रोणीया
वनस्पतयः वृत्तिः Iवपि सचित्तादिभेदेन विधा, तत्र निश्चयसचित्तप्रतिपादनायाह
सबो वऽणंतकाओ सचित्तो होइ निच्छयनयस्स । ववहाराउ अ सेसो मीसो पचायरोहाई ।। ३६३ ॥ ३६१-३६४ ॥१३॥
सर्व एवानन्तवनरपतिकायो निश्चयनयेन सचित्तः, शेषः परित्तवनस्पतिर्व्यवहारनयमतेन सचित्तः, 'मीसो पचायरो-14 द्वीन्द्रियाटाईत्ति मिनस्तु प्रम्लानानि फलानि यानि कुसुमानि पर्णानि चरोट्टो-लोट्टो तन्दुलाः कुट्टिताः, तत्थ तंदुलमुहाई अच्छति ।
| दिपिण्डः
| नि.३६५ तेण कारणेन सो मिस्सो भवति । इदानीमचित्तवनस्पतिकार्य तदुपयोगं च दर्शयन्नाह----
संथारपायदंडगखोमिअकप्पाइ पीढफलगाई । ओसहभेसज्ञाणि य एमाइ पओयणं तमम् ॥ ३६४ ॥ तत्र संस्तारका अशुपिरतृणः क्रियते, कल्पद्वयं च कार्यासिकं भवति, औषधमन्तरुपयुज्यते, भेषजं वहिः । उक्तो वन-1 स्पतिकायः, इदानी द्वीन्द्रियादिप्रतिपादनायाहबियतियचउरो पंचिंदिया थ तिप्पभिई जस्थ उ समेति । सट्ठाणे सहाणे सो पिंडो तेण कजमिणं ॥ ३६५॥15
द्वित्रिचतुष्पयोन्द्रिया एकके त्रिप्रभृतयो यत्र समवायं गच्छन्ति स द्वीन्द्रियादिपिण्डः, ते चैवं समवायं गच्छन्ति | | स्वस्थाने स्वस्थाने, एतदुक्तं भवति-वीन्द्रिया द्वीन्द्रियरेव मिलितैदीन्द्रियपिण्डः, तथा त्रीन्द्रियात्रीन्द्रियैरेव त्रिप्रभृति
दीप अनुक्रम [५७९]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५८१] .. "नियुक्ति : [३६५] + भाष्यं [१८८...] + प्रक्षेपं [२५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||३६५||
|भिर्मिलितस्वीन्द्रियपिण्ड उच्यते, एवं सजातीयर्मिलितैः पिण्डो वक्तव्यो यावत्पश्चेन्द्रिया इति स्वस्थाने स्वस्थाने स पिण्डः । अयं तावद् द्वीन्द्रियादिः पञ्चेन्द्रियपर्यन्तः सचित्तादिः पिण्डो भवति, यश्चाचित्तपिण्डो द्वीन्द्रियादिसत्कस्तेन चैतत्कार्यम्
घेइंदियपरिभोगो अक्वाण ससंख सिप्पमाईणं । तेइंदियाण उद्देहिगाइ जं वा वए विजो ॥ ३६६ ॥ | द्वीन्द्रियाणां परिभोगः 'अक्षाणां' चन्दनकानां सशङ्खा याः शुक्तयः तदादीना, शङ्केषु शुक्तिषु च औषधानि क्रियन्ते ।। बीन्द्रियाणां मध्ये उद्देहिकया, आदिशब्दादन्येन वा त्रीन्द्रियेण, यद्वा वैद्यो याद्, उद्देहिकायाः सत्कया मृत्तिकया प्रयोजनं, स सर्वस्वीन्द्रियपरिभोगः । इदानीं चतुरिंद्रियपरिभोग उच्यते| चरिंदियाण मक्खियपरिहारो आसमक्खिया चेव । पंचिंदिअपिंडमि उ अबवहारी उ नेरइया ॥३६७।। । चतुरिन्द्रियाणां मध्ये 'मक्षिकापरिहारेण' मक्षिकापुरीषेण ऊर्द्धविरेकः क्रियते शरीरपाटवार्थ, अश्वमक्षिकोषयोगश्च 8 तयाऽक्ष्णोरक्षराः पतिता उद्धियन्ते । अयं चतुरिन्द्रियपिण्डः, पञ्चेन्द्रियपिण्डे यदि परं नारकैर्व्यवहारः-उपयोगो न कश्चि-| स्क्रियते । शेषास्तु तिर्यशो देवा मनुष्याश्चोपयुज्यन्ते, तत्र तिरश्चां पञ्चेन्द्रियाणां सत्कमुपयोगं दर्शयन्नाह| चम्मट्टितनहरोमसिंगअमिलाइच्छगणगोमुत्ते। खीरदहिमाइयाणं पंचिंदिअतिरिअपरिभोगो ।। ३६८॥ | तत्र चर्मणा कुष्ठिनः कार्यं भवति, अरमा-गृध्रनलकेन प्रयोजनं भवति वाय्वाद्यपहरणार्थ पादे वध्यते, दन्तेन मूकरादेः
संबन्धिना प्रयोजनं नखेन वा, रोमभिः प्रयोजनमुरभ्रादीनां सत्कैस्तैः कम्बलिका भवति, शेण किञ्चित् प्रयोजनं भवेत्, |अमिला-उरचा तत्पुरीष पामादावुपयुज्यते, तेन गोमूत्रेण चोपयोगः । शेष सुगमम् । इदानी मनुष्योपयोगी दाते
दीप अनुक्रम [५८१]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५८६] .. "नियुक्ति : [३६९] + भाष्यं [१८८...] + प्रक्षेपं [२५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र
वृत्तिः
P
||३६९||
श्रीओघ- सभित्तो पचायण पंथुवदेसे य भिक्खु दाणाई । सीसहियअचित्ते मीसहि सरक्खपहपुच्छा ।। ३६९॥ ।
पिण्डवर्णने नियुक्तिः
विकलपञ्चे. द्रोणीया प्रथमाई सुगम, सचित्तमनुष्यप्रयोजनमुक्तम् , इदानीमचित्तमनुष्यपिण्डदर्शनायाह-'सीसट्टिग अचित्ते'त्ति अचित्तेन टू
[न्द्रियमनुशिरःकपालेन प्रयोजनं भवति, पित्तारुए घसिऊण दिजइ, वेषपरायतादि क्रियते ।इदानीं मिश्रमनुष्यपिण्ड उच्यते-'मीसहिसर- ध्यदेवानि.
क्खपहपुच्छा' मिश्रोऽस्थियुक्तो यः सरजस्कः-कापालिकस्तस्य मिनस्य पधि पृच्छयोपयोगः। इदानीं देवोपयोगप्रतिपादनायाह- २६६-३७० ॥१३५|| खमगाइकालकजातिएसु पुच्छेज देवयं किंचि । पंथे सुभासुभे वा पुच्छेज्ज व दिवमुवओगो ॥ ३७॥ 15
पात्रलेपपि
|ण्डः नि. क्षपकादिः कश्चिद्, आदिशब्दादाचार्यादयः कालकार्यादी स्वमृत्युप्रच्छनादौ-आदिग्रहणात्सवादिकार्ये उत्पन्ने 'पृच्छेत्' ३७१ अर्थयेत् काश्चिद्देवतां, पधि वा गच्छन् शुभाशुभं पृच्छेत् , अथवा शुभाशुभं-दुर्भिक्षादि पृच्छेत् , ततश्चायं दिव्यपिण्डो-14 पयोगः । एवं तावत्सचित्तो नवप्रकारः पिण्ड उक्तः, तदनन्तरं मिश्रोऽपि पिण्डो नवप्रकारः प्रतिपादितः, अचित्तोऽपि नवप्रकारः प्रतिपादित एव, इदानी दशमो भेदोऽचित्तो लेपपिण्ड उच्यते, स चैतेषामेव पृथिव्यादीनां नवानां भेदानां संयोगेन भवति, एतदेव प्रदर्शयन्नाहआ अह होइ लेवपिंडो संजोगेणं नवह पिंडाणं । नायवो निष्फनो परूवणा तस्स कायवा ।। ३७१ ॥
॥१३५|| 31 अथ भवति लेपपिण्डः संयोगे नवानां पिण्डानां निष्पनो ज्ञातव्यः, कथं ?, दुचका गडिआ, तत्थ अक्खे मक्खिए पुढ-151 दाविकायस्स रजो लग्गति, आउकाओ नदीए उत्तरओ लग्गइ, तेउकाओ तत्थ लोहं घंसति, वायू तत्थेव, यत्राग्निस्तत्र
दीप अनुक्रम [५८६]
JAATEucatun
ariana
Chintantries
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५८८] → “नियुक्ति: [३७१] + भाष्यं [१८८...] + प्रक्षेपं [२५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||३७१||
5-454545
वायुना भाग्यम् । वणस्सई अक्खो चितिचउ संपातिमा पाणा पडंति, पंचिंदियाणवि वरत्ता घस्सति । एवं संजोएण निष्फशो| लेबो, इदानीं तस्य प्ररूपणा कर्त्तव्या।
अवकालिअलेवं भणति लेवेसणा नवि अ दिहा ते वत्तबा लेबो दिट्टो तेलुकदंसीहिं ॥ ३७२॥ द्रा पर आह-अर्वाकालिक लेप केचन प्रतिपादयन्ति, सदोषत्वाल्लेपस्य, तथा लेपैषणा च समये न कचिद् दृष्टा, यतो18 द्विविधैव एषणा प्रतिपादिता-वस्वैषणा पाषणा च, ततश्चायम/कालिको यतो न युक्त्या घटते नापि समये दृष्ट इति । एवमुक्त आहाचार्यः-'ते बत्तबा' त एवं भणनीयाः-इदं वक्तव्याः, यदुत लेपो दृष्टखैलोक्यदर्शिभिः-जिनः, एतदुक्तं भवति-पात्रैपणां प्रतिपादयता लेपैषणा उक्तैव द्रष्टव्या, अन्यथा तद्व्यतिरेकेण पात्रग्रहणानुपपत्तेः, पात्रं हि लेपादिसंस्कृत-18 | मेवोपयोगभाग् भवति नान्यथेति । इदानीमेतामेव गाथां भाष्यकारो व्याख्यानयतिआयापवपणसंजमउवधाओदीसई जओ तिविहो। तम्हा वदंति केई न लेवगहणं जिणा चिंति ॥१९२॥ (भा०)
पर आह-आत्मप्रवचनसंयमोपघातो दृश्यते यतस्त्रिविधस्तस्माद्वदन्ति केचन न लेपग्रहणं जिना युवते । इदानीं पर एवात्मोपघातादि दर्शयन्नाहरहपडणउत्तिमंगाइभंजणं घट्टणे य करधाओ। अह आयविराहणया जक्खुल्लिहणे पवयणंमि ॥१९३ ॥ (भा०) | तस्य साधोपं गृह्णतो दुःस्थितस्य पतनेनोत्तमाङ्गादिभङ्गो भवति, घट्टने च-चलने सति रथस्य करस्य-हस्तस्य धातो ४ भवति-संपीडनं भवतीत्यर्थः, अथैषाऽऽत्मविराधनोक्ता, इदानी प्रवचनोपधातं प्रदर्शयन्नाह-'जक्खुल्लिहणे पवयणमि'
दीप अनुक्रम [५८८]
GAAKA
| अथ पात्र-लेपन पिण्डं वर्ण्यते
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५९१] .. "नियुक्ति: [३७२] + भाष्यं [१९३] + प्रक्षेपं [२५...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३७२||
श्रीओघ
यक्षा-श्वास हि यक्षोऽक्षप्रदेशमुलिहति ततश्च तस्मिन् यक्षोल्लिहने सति 'प्रवचने' प्रवचनविषये उपघातो भवति । इदानीपात्रलेपपिनियुक्तिः 18 संयमविराधनाप्रदर्शनायाह
ण्डः नि. द्रोणीया दिगमणागमणे गहणातिहाणे संयमे विराहणया।महिसरिउम्मुगहरिआ कुंथू वासं रओघ सिया ॥१९४॥ (भाकात
३७२ भा. वृत्तिः PI लेपार्थ गमने च आगमने च ग्रहणे च लेपस्य संयमविराधना भवति, कथं ?-'महिसरिउम्मगहरिआकुंथुत्ति तत्र गच्छतो.
18 १९२-१९६ ॥१३६॥ मही सचित्ता भवति, तथा सरिदुत्तरमेऽप्कायविराधना भवति, तथा ग्रहणे चाग्निविराधना भवति, स हि गृह्णन् कदाचिदुल्मुकं| दिचालयति ततश्चाग्निविराधना, यत्राग्निस्तत्र वायुना भाव्यं, तथा कदाचिदसौ गन्त्री हरितकुन्थुकादिमध्ये व्यवस्थिता भवति
ततश्चासौ लेपं गृहन् तानि विराधयति, अधयाऽनया भल्या संयमविराधना भवति-'वासं रओ व सिआ' तत्र गतस्य ४ कदाचिद्वर्ष भवति ततश्चाष्कायविराधना अथ रजःसंपातो भयति ततश्च पृथिवीकायविराधना भवति, एवमुक्त सूरिराह
दोसाणं परिहारो चोयग ! जयणाइ कीरई तेसिं । पाए उ अलिप्पंते ते दोसा हुंति णेगगुणा ॥१९५।। (भा०) 4 दोषाणां परिहारस्तेषां चोदकोक्तानां कियत इति संबन्धः, कथं क्रियते ? इत्यत आह-हे चोदक! यतनया लेपस्य*
ग्रहणं क्रियते, ततक्ष यतनया ग्रहणे सत्यात्मोपघातादयो दोषा न भवन्ति, पात्रे चालिप्यमाने त एष दोषा यत्त्वयोदिता आत्मोपघातादयः अनेकगुणा-अनेकप्रकारा भवन्ति । अधुनाऽऽचार्य एवात्मोपघातादि दर्शयन्नाहउहाई विरसमी मुंजमाणस्स हुंति आयाए । दुग्गंधि भायणमि य गरहा लोगो पवयणमि ॥१९६॥ (भा०),
॥१३॥ जो दि-छर्दनादिदोषो भवति विरसे तक पात्रे भुञ्जतः ततश्चात्मविराधनैव भवति । तथा दुग्गंधि तत्र भाजने 81
दीप अनुक्रम [५९१]
SHARERucatunmalne
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५९४] → “नियुक्ति: [३७२...] + भाष्यं [१९६] + प्रक्षेपं [२५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१९६||
भिक्षा तो लोको गहीं करोति ततश्च 'प्रवचने प्रवचनविषये उपघातो भवति । यच्चो चोदकेन "जक्खुलिहणे पवयणमि" स्वेदमुच्यतेपवयणघाया अन्नेवि होंति जयणा उ कीरई तेसिं। आयमणभोयणाई लेवे तब मच्छरो कोणु ? ॥१९७॥ (भा०)
प्रवचनोपघातोऽन्योऽप्यस्ति किन्तु यतनया क्रियते तेषां, के च ते प्रवचनोपघाताः । अत आह- आचमनभोजनादयः। आचमन-निर्लेपनादि भोजनं चैकमण्डल्या, एतानि प्रवचनोपघातानि कुर्वन्ति यदि प्रकटानि क्रियते, किन्तु यतनया कर-14 |णान्न प्रवचनोपपातो भवतीति, ततश्च लेपे तव को मत्सरः इति । अधुना पात्रस्थालेपे संयमविराधनां दर्शयन्नाहलखंडमि मग्गिअंमि अ लोणे दिन्नंमि अवयवविणासो । अणुकंपाई पाणंमि होइ उदगस्स उ विणासो ॥ ३७३॥
एगेण साहुणा गिलाणडं खंडं मम्गिअं, तम्मि च विसए लोणपि खंड भण्णइ, ततो तेणे सावएणं लोणं मग्गियति-1 काउं भायणे लोणं दिन्नं, पच्छा पडिस्सए गएण दिई जाव तं लोणं, ततो तेण पुढविक्काउत्तिकाऊण परिहविरं, ततो परिद्ववियमिवि तंमि लोणमि तत्थ खरफरुसे भायणे लग्गाराईसु य पविहा लोणावयवा, ततो जदि तत्थ अण्णपाणगाइ घेप्पड़ ततो ताणं लोणवयवाणं विणासो होइ, अथ न गिण्हइ लोणखरडिए भायणे तत आत्मादिविराधना भवति, अहवा | कंजिअपाणे मग्गिअंमि गिहत्थीए अणुकंपाए आउकाओ दिण्णो, आदिग्रहणात्पडिणीयत्तणेण अणाभोएणं था, तो तमि कडुयभायणमि सो विणस्सइ-विराध्यते ततो संजमविराधना भवति । अथवा इमो दोसो होइ पायस्स अलेवणे
पूणिअलग्गअगणीपलीवणं माममाइणो होजा। रोपणगा तरुंमी भिगुकुंथादी व छटुंमि ।। ३७४ ॥
दीप अनुक्रम [५९४]
SAREnature
Dinmarary.om
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५९७] .. नियुक्ति: [३७५] + भाष्यं [१९७] + प्रक्षेपं [२५...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
काण्डः भा.
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३७५||
श्रीओषनियुक्ति द्रोणीया वृत्तिः ॥१३॥
दीप अनुक्रम [५९७]
GARCANKARACTS
एगेण साहुणा कणिकमंडलिआ लद्धा, तीए हेहा सुहुमो अंगारो लग्गो दिण्णो, सो उ साहुणा न दिहो, ततो भर्मतस्सपात्रलपेपिपत्तं पडलेहिं समं पठित्तपायं दद्गुण पत्तियं, तंपि वाडीए पडि गामपलीवणं जायं, यत्राग्निस्तत्र वायुः । अहवा रोट्टो 21 चाउललोट्टो लद्धो, सो अपरिणओ होइ, 'पणगा तरुंमी ति पणगो उल्लीराइसु होइ, ततो तविणासो-तरुषिणासो, वणस्स-18
| १९७ नि. इविणासोत्ति जं भणि, भृगू-राजिर्भण्यते, तत्र कुंथाईया पाणिणो हवंति, एवं छटो तसकाओ विणासिओ होइ, एवं |
३७३-३७६ अलेविए पाए छज्जीवणिकायविराधना अवस्स होइ ॥ यच्चोतं त्रैलोक्यदर्शिभिः समये लेपैपणा नोक्ता' तत्रेदमुच्यतेपायग्गहणमि देसिअंमि लेवेसणावि खलु वुत्ता । तम्हा आणयना लिंपणा य पायरस जयणाए ।। ३७५ ॥ पात्रग्रहणे दर्शिते-अनोपदिष्टे सति लेपैषणाऽपि खलूकैव द्रष्टव्या, तस्मादानयनं लेपनं पात्रस्य यतनया कर्त्तव्यम् । अत्राह परःहत्थोवधाय गंतूण लिंपणा सोसणा य हत्थंमि । सागारिए पजिंघणा य छकायजयणा य ॥ ३७६ ॥
यदि नाम पात्रं लिप्यते लिप्यता नाम, किन्तु तत्रैव शकटसमीपं गत्वा लिष्यतां यतो लेपानयने हस्तस्योपघातो-बाधा भवति, अथवा हस्तेन यदि लेप आनीयते ततः संपातिमसत्त्वानामुपघातो भवति, तस्माद्गत्वा पात्रकलेपनं कार्य, एवमुक्ते आचार्या भणिष्यन्ति, यथा त्वदीयेऽपि पक्षे आत्मोपघातादि भवत्येव । तथा पुनरपि पर एवं भणति तत्पात्रकं लेपयित्वा
| ॥१३७॥ पुनश्च शोषणा हस्तव्यवस्थितस्य पात्रकस्य कार्या, येन सार्द्रनिक्षेपदोषः परिहृतो भवति, आचार्योऽप्यन्त्र प्रत्युत्तरं ददाति, यदुत हस्ते प्रियमाणेन पात्रकेण आत्मोपघातादयो दोषा भवन्ति तस्मात्पात्रक हस्ते न शोषणीयं लेपश्च आनयनीयः, तत्र
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५९८] » “नियुक्ति: [३७६] + भाष्यं [१९७] + प्रक्षेपं [२५...]". मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||३७६||
च लेपार्थ गच्छन् स साधुः कदाचिदासन्न एव 'सागारिएत्ति सागारिकः-शय्यातरस्तच्छकटानि यदि पश्यति ततस्तेष्वेव Bालेपं गृह्णाति, न तत्र गृहतः शय्यासरपिण्डदोषो भवति, 'पभुत्ति तेन साधुना लेपं गृह्णता यस्तेषां शकटानां प्रभुः स
पृच्छनीयः, अप्रच्छने दोषा भवन्ति । तथा लेपस्य जिघणं कर्त्तव्यं, किमयं कटुरकटुवा ?, तथा पटकाययतना च कार्या, इत्येतत्सर्व वक्ष्यति । इदानीं एतामेव गाथा भाष्यकारो व्याख्यानयति, तत्राद्यावयवच्याचिख्यासयाऽऽहचोदगवयणं गंतूण लिंपणा आणणे यह दोसा । संपाइमाइधाओ अतिउचरिए य उस्सग्गो ॥१९८ ।। (भा०) | चोदकस्य वचनं, किं तद्, गत्वा लेपनं पात्रकस्य कर्त्तव्यं, यत आनयने लेपस्य बहवो दोषा भवन्ति, कथं ?, यदि ट्र तावद्धस्तेनानीयते लेपस्ततो हस्तस्य बाधोपजायते, तथा संपातिमसत्वघातो भवति, अत्युद्धरिते च तत्र लेपे 'उत्सर्गः परिष्ठापनं भवति तत्र चासंयमस्तस्मात्तत्रैव गत्वा लिम्पतु । एवमुक्के सत्याह गुरु:| एवंपि भाणभेओ वियाबडे अत्तमोय उवधाओ।नीसंकियं च पायमि गिण्हणे इहरहा संका॥१९९॥(भा०) HI एवमपि गत्वा भाजन लिम्पतो भाजनभेदो भवति, व्यापृतस्य च-आकुलस्य पात्रकलेपने गन्न्याश्चलने सत्यात्मोपघातो
भवति, तथा प्रकटं तत्रैव पात्रे लेपग्रहणं कुर्वतो निःशङ्ख लोकस्य भवति यदुततेऽशुचयः येनाशुचिना लेपेन पात्रकले-12 पनं कुर्वन्ति । 'इहरहा संकत्ति इतरथा यदि तत्पात्रं तत्र प्रकट न लिप्यते ततो लोकस्य शङ्केव केवला भवति, यदुत नद्र विद्मः किमप्यनेन लेपेनैते करिष्यन्ति !, ततः प्रतिश्रय एवागत्य लेपना कर्तव्या। .
चोएइ पुणो लेवं आणे लिंपिऊण तो हत्थे । अच्छउ धारेमाणो सहवनिक्वेषपरिहारी ।। २०० ॥ (भा०
दीप अनुक्रम [५९७]
rainrary.org
अत्र एका प्रक्षेप-गाथा वर्तते. मया संपादित “आगम सुत्ताणि" मूलं अथवा सटीकं पुस्तके सा मुद्रिता अस्ति
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६०३] → “नियुक्ति: [३७६] + भाष्यं २००] + प्रक्षेपं [२६]" .. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२००||
दीप अनुक्रम [६०३]
श्रीओष- अत्र परः पुनरपि चोदयति-एवं नामानीय लेपमाश्रये लिम्पतु पात्रकं, किंतु लेपयित्वा ततो हस्ते लिप्तं स धारयस्तिष्ठतु पत्रपति
यावत्तद्धस्तस्थितमेव शोषमुपयाति, किं कारणं?, यतो यूयं 'सद्वनिक्षेपपरिहारिणः' सद्रवस्य निक्षेपः सद्भवनिक्षेपस्तं परिहत्तु | ण्डः भा. द्रोणीया वृत्तिः
शीलं येषां भवतां ते सद्रवनिक्षेपपरिहारिणः, एतदुक्तं भवति-पात्रक तोयामपि न निक्षिपथ किं पुनर्लेपलिप्तमिति । एष-11१९८-२०१ मुक्ते सति परेणाचार्य आह
| नि.३७७ ॥१३८॥
एवं होउवधाओ आताए संजमे पवयणे य । मुच्छाईपवडते तम्हा उ न सोसए हत्थे ॥ २०१॥ (भा०)
एवं पात्रकं लिप्तं सद्धस्तेन धारयतो भवत्युपघात आत्मनि संयमे प्रवचने च, तत्रात्मविषया संयमविषया च कथं ?ठा'मुच्छाई पवडते'त्ति कदाचित्तस्य साधोनिरोधे पात्रक हस्तस्थं धारयतो मूर्छा भवेत्ततश्च प्रपतति, पतितस्य चात्मोपधातो।
भवति अङ्गविनाशलक्षणः, पात्रकभेदे च संयमविराधना भवति, तथा प्रवचनोपघातश्चैवं भवति, तं तथा पतितं साधंदृष्ट्वा कश्चित्सागारिक एवं ब्रूयात् , यदुत-एतदीयसर्वज्ञेन हस्ते पात्रधारणमुपदिशता अयमप्यपायो भावी न दृष्ट इति,
तस्मादेतहोषभयान्न हस्ते शोषयेत् पात्रमिति । 18 दुविहा य होति पाया जुन्ना य नवा य जे उ लिप्पंति । जुन्ने दाएऊणं लिंपइ पुच्छा य इयरेसिं ॥ ३७७॥
॥१३८॥ __तानि च लेपयितच्यानि पात्राणि द्विविधानि भवन्ति, 'जूर्णानि' पुराणानि 'नवानि' अधुनैव यान्यानीतानि तानि प्रथमं लिप्यन्ते, तत्र यानि जीर्णानि पात्रकाणि लिम्पनीयानि तानि गुरोः प्रदर्य लिम्पति, एवंविधान्येतानि पश्य किं
Urona
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
||२०१||
दीप
अनुक्रम [६०५ ]
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
●→
मूलं [६०५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
ओ० २४४
“निर्युक्ति: [३७७] + भाष्यं [२०१] + प्रक्षेपं [२६...]" ८० आगमसूत्र- [ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
लिप्यन्ते उत न १, इतरेषां नवानां पात्रकाणां लेपने पृच्छा कर्त्तव्या, किं एतानि लिप्यन्ते उत तिष्ठन्तु ? इति । आह-कः पुनरनापृच्छच पात्रकाणि लिम्पति सति दोषः १, उच्यते, यो मायावी भवति स चैवं ज्ञात्वा पात्रकाणि लिम्पति—
पाटिच्छगसेहाणं नाऊणं कोइ आगमणमाई । दढलेवेवि उ पाए लिंपइ मा एसु देखेजा ॥ ३७८ ॥ पाडच्छा - सूत्रार्थग्रहणार्थं ये आचार्यसमीपमागच्छन्ति सेहा अभिनवप्रव्रजिताः एतेषामागमनं ज्ञात्वा कश्चिन्मायावी दृढलेपान्यपि तानि पुराणपात्रकाणि लिम्पति, मा भूदाचार्यस्तेभ्यः प्रतीच्छक सेहेभ्यो दद्यात् ॥
अहवादि विभूसाए लिंपइ जा सेसगाण परिहाणी । अपडिच्छणे य दोसा सेहे काया अओ दाए ॥ २०२ ॥ (भा०)
अथवा दृढलेपमपि पात्रं विभूषया लिम्पति, तस्मिंश्च लिप्ते पात्रे या 'शेषकाणां ग्लानादीनां परिहानिः सा सर्वा तेन कृता भवति । 'अपढिच्छणे य दोस'त्ति पात्रकाभावे आयरिओ तान् प्रतीच्छकान् न प्रतीच्छति, अपडिच्छणे 'दोषाः' निर्जराद्यभावलक्षणाः । 'सेह'त्ति यः प्रत्रजितमात्रस्तस्मै यदि पात्रकादि न दीयते ततोऽस्योपकरणरहितस्य चित्तमोहो भवति विपरिणामतश्च कायान् व्यापादयति, अतः अस्मात्कारणाद्दर्शयित्वा पात्रं लिप्यते, कदाचिदसावाचार्यः प्रतीच्छकादीनागन्तुकान् श्रुत्वा निवारयेत्तं साधुं लिप्पन्तमिति । कदा पुनर्लेपग्रहणं दानं च कर्त्तव्यमित्यत आह
पुण्हलेबदाणं लेवरगहणं सुसंवरं कार्ड लेवस्स आणणालिंपणे य जयगाविही वोच्छं ॥ ३७९ ॥ पूर्वाह्णे लेपदानं पात्रकस्य कर्त्तव्यं लेपेन लेपनमित्यर्थः येन तत्प्रत्यूषसि लिप्तं दिवसेन शुप्यते, तथा 'लेवग्गणं सुसंवरं
For Penal Use Only
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६०९] → “नियुक्ति: [३७९] + भाष्यं [२०३] + प्रक्षेपं [२६...]" .. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३७९||
नियुक्तिः वृत्तिः
श्रीओघ- काउंति गृह्यतेऽस्मिन्निति ग्रहणं-शरावसंपुट सुसंवरं-सुगुप्तं चीवरेण कृत्वा तं शरावसंपुटम् । इदानीं लेपस्थानयनेलेपपिण्डे लिम्पने च पात्रकस्य यो यतनाविधिस्तं वक्ष्ये । इदानीमेतामेव गाथां भाष्यकारो व्याख्यानयति
पात्रलेपना. द्रोणीया || पुषण्हे लेवगहणं काहंति चउत्थर्ग करेजाहि । असहवासिअभत्तं अकारऽलंभे य दितियरे॥२०३ ॥(भा०) न. ३७८.
३८१ | पूर्वाद लेपदानं करिष्यामीतिकृत्वा चतुर्थ-एकमुपवास कुर्याद् येन निर्व्यापारः सुखेनैव करोति, अथासौ चतुर्थं कर्तुं
भा.२०२॥१३९॥ न शक्नोति अत्यन्तमसहिष्णुस्ततो वासिक भक्तं भक्षयित्वा पात्रकाणि लेपयति । 'अकारग'त्ति अथ तहासिकभक्तमका-12
२०३ टारक-अपथ्यं तस्यालम्भो वा तया बेलयास न लभते भक्तं ततः 'दितितरे'त्ति इतरे' अन्ये साधव आनीय ददति लन्धि-1
संपशा ये । ततश्च लेपयित्वा कृतकृत्यो घड्यन्नाह18|कयकितिकम्मो छंदेण छंदिओ भणइ लेवऽहं घेत्तुं । तुम्भंपि अस्थि अट्ठो? आम तं कित्तिअंकिंवा ? ॥ ३८॥1
। स हि लेपार्थ बजन गुरोः कृतिकर्म-बादशावर्त्तवन्दनं ददाति, कृतकृतिकर्मा च छन्देनेति-द्वादशावर्त्तवन्दने गुरु-18 वाक्यमेतत्, छन्दितः-अनुज्ञातः सन् भणति-लेपमहं ग्रहीष्यामि ततश्च तुभ्यं भवतामपि अस्त्यर्थित्यं लेपेन, पुनरसी गुरुभणति-आमम्-अस्ति कार्य, पुनः साधुर्भणति-'कित्तिों तं लेप कियन्तं ग्रहीष्यामि ? 'किं वत्ति किं मल्लिकया|
॥१३९॥ प्रयोजनं तव उत लेपेन , आचार्यस्य च लेपेन प्रयोजनं भवति, तस्य गच्छसाधारणं नन्दीपात्रमस्ति तदर्थं तस्य वाऽs-1 चार्यश्चिन्तां करोति।
सेसेचि पुच्छि ऊणं कयउस्सग्गो गुरुं पणमिऊणं । मल्लगरूवे गिपहइ जइ तेसिं कपिओ होइ ॥ ३८१ ॥
दीप अनुक्रम [६०९]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६११] → “नियुक्ति: [३८१] + भाष्यं [२०३...] + प्रक्षेपं [२६...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र
||३८१||
न केवलं गुरुमेव पृच्छति शेषानपि साधून पृष्ट्वा 'कृतोत्सर्गः' कृतोपयोगो गुरुं नमस्कृत्य, किं करोतीत्यत आहदमल्लकरुवे गिण्हई' मल्लक-शरावं यत्र लेपो गृह्यते रूतं च गृह्णाति तेनासौ लेपो छाइजइ, मल्लकरूतयोश्च कदा ग्रहणं
करोति ?, यदा तयोः कल्पिको भवति, एतदुकं भवति-यद्यसौं वस्त्रैषणायां पात्रैषणायां च गीतार्थस्ततो मल्लक रूतं च।
मार्गयित्वा गच्छतीति ।। दा गीयत्थपरिग्गाहिअ अयाणओ रूवमल्लए घेर्नु । छारंच तत्थ वच्च गहिए तसपाणरक्खट्टा ॥ ३८२॥ ।
| अथासौ मल्लकस्तयोर्मागणे न कल्पिकस्ततो गीतार्थपरिगृहीते-स्वीकृते मल्लकरुती गृहीत्वा क्षारं च-भूति गृहीत्वा तत्र हमलके ब्रजति, गृहीते लेपे सति चीरमुपरि दत्त्वा लेपस्य ततो रूतं तत उपरि भूतिं ददाति, किमर्थं ?, सप्राणरक्षार्थमिति ।।
इदानीं यदुक्तमासीच्बोदकेन यदुत सागारिकगन्यां लेपग्रहणं न कार्य यतोऽसौ शय्यातरपिण्डो वर्तत इति, तत्प्रतिषेधनायाह-18 A वचंतेण य दि8 सागारिदुचक्कगं तु अन्भासे । तत्थेव होइ गहणं न होइ सो सागरिअपिंडो ॥ ३८३॥ 3 बजता साधुना लेपमहणार्धं यदि दृष्टं सागारिकसंबन्धि द्विचक्र-गन्त्रिका अभ्यासे-समीपे ततस्तत्रैव ग्रहणं कर्तव्यः हीन भवत्यसौ सागारिकपिण्डः-शय्यातरपिण्डोऽसौ न भवति । इदानीमसौ गत्वा किं कृत्वा लेपं गृह्णातीस्थत आहII गंत सुचकमूलं अणुन्नवत्ता पहंति साहीणं । एत्थ य पहत्ति भणिए कोई गच्छे निवसमीवे ॥ ३८४ ॥
गत्वा 'द्विचक्रमूलं' गनीसमीपं, यदि तत्प्रभुः 'स्वाधीनः सन्निहितो भवति ततस्तमनुज्ञाप्य गृह्यते, अथ तत्र गरबा आसन्नः प्रभुनोस्ति ततश्चासी साधुः पृच्छति-कोऽत्र प्रभुः इति, पुनश्चैवं पृष्टे सति कश्चित्पुरुष एक याद्, यदुत 'एक्थ
SANSAR
दीप अनुक्रम [६११]
SAREaatanki
A
sarary on
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||३८४||
दीप
अनुक्रम [६१४]
श्रीओषनिर्युक्तिः द्रोणीया
वृत्तिः
॥१४०॥
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [६१४]
“निर्युक्ति: [३८४] + भाष्यं [ २०३...] + प्रक्षेप [ २६...]"
F
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
य पभुत्ति अंत्र शकटे प्रभू राजा, ततश्चैवं भणिते सति कश्चिदगीतार्थो गन्त्रीणामनुज्ञापनार्थं नृपसमीपमेव गच्छेत् । एत्थ य अविधिअणुण्णवणाए दिहंतो ।
किं देमिन्ति नरवई तुझं खरमक्खिआ दुयकेति । सा अपसत्थो लेवो एत्थ य भद्देतरे दोसा ॥ ३८५ ।। एगो साहू लेवरस को निग्गओ जाव पेच्छइ सगडाई, साहुणा पुच्छिअं-करस एते सगडा ?, गिहत्थेण सिड-राउला, साहू अगीयत्थो चिंते-पहू अणुण्णवेयवो वच्चामि रायं पेच्छामि, तेण राया दिट्ठो, भणति राया-किं तुह देमि ?, साहू भणतितुब्भं सगडे तिलमक्खिए अस्थि तत्थ लेवो पसत्थो हवति तं मे देहि, एत्थ य भद्देयरे दोसा भवति, तत्थ जइ सो राया भद्दो ताहे सबहिं चैव उग्घोसणं करेइ जह नेह केणइ सगडा घएण मक्खियबा जो मक्खेइ सो दंडं पत्तो एवमाई भद्दओ पसंगं कुज्जा, अह सो पंतो राया ताहे सो भणेज्जा अन्नं किंची न जाइयं इमीए परिसाए मज्झे तो लेवो जातिओ, अहों असुई समणा एए मा एएसिं कोई भिक्ख देउ। एते अविहिअणुण्णवणाए दोसा ।
तम्हा चकवणा तस्संदिद्वेण वा अणुन्नाए । कडुगंधजाणणा जिंघे नासं तु अफुसंता || ३८६ ।। तम्हा विहीए अणुण्णवेयवो, सा य बिही- ता सगटाणं पासे ठिओ अच्छड़ जाव दुचकवई आगओ, तओ दुष्चकवइणाडिआवइणा अणुष्णाए सति लेवो गहेयवो, तेण दुचक्कवतिणा जो संदिडो एत्थ पडविओ जहा तुमे भलेययं, तेण वा अणुष्णाओं संतो गेण्हइ, कडुगंधजाणणङ्कं जिंघियधो लेवो-किं सो कडुओ ?- कडुअतेलेण मक्खिओ नवत्ति, जइ कटुतेलेण
For Parts Only
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लेपपिण्डे पात्रलेपना. नि.
३८३-२८६
॥१४०॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६१६] .. "नियुक्ति : [३८६] + भाष्यं [२०३...] + प्रक्षेपं [२६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३८६||
मक्खिओ ताहे न घेप्पइ, सो अधिरो होइ, जो मितिलतेल्लमक्खिओ सो घेप्पइ । कथं पुनजिघणं करोति ?, नासिकया अस्पृशन् । जिंघणा इति अवयवो भणिओ । इदानीं 'छकायजयण'त्ति व्याख्यानयन्नाह
हरिए बीए चले जुत्ते, चकले साणे जलहिए । पुढवी संपाइमा सामा, महवाते महियाऽमिए ॥ ३८७॥ । हरिते बीजे वा तच्छकटं प्रतिष्ठितं भवति ततश्च तत्र न ग्राह्यो लेपः, तथा तत्कदाचिच्छकटं 'चलं' गमनाभिमुख व्यवस्थितं भवति ततश्च न ग्राह्यः, तथा युक्तं वा वहति तदाऽपि न ग्राह्यः, कदाचित्तस्मिन् शकटे वत्सको बद्धो भवति * तदासो वा ततश्च न ग्राह्यः, श्वा वा तत्र बद्धः तथापि न ग्राह्यः, जलमध्ये तत् शकटं व्यवस्थितं भवति ततो न
ग्राह्यः, कदाचिच्च सचित्तवृधिवीप्रतिष्ठितं भवति तथापि न ग्राह्यः, कदाचित्संपातिमसत्त्वैः स प्रदेशो व्याप्तस्ततश्च न ग्राह्यः, तथा श्यामा-रात्रिस्तस्यां च न ग्राह्यः, महाबाते च वाते सति न गृह्यते, 'महिकायां धूमिकायां निपतन्न्यां न गृह्यते, अमितश्चासौ लेपो न गृह्यते किन्तु प्रमाणयुक्तः । द्वारगाधेयम् , इदानीभाष्यकृव्याख्यानयति, तत्राद्यावयवव्या चिख्यासयाऽऽहदाहरिए बीएसु तहा अर्णतरपरंपरेविय चउका । आयादपयं च पतिद्वियंति एरथंपिचउभंगो।। २०४॥ (भा०) | हरिते बीजे च द्वौ चतुष्की भवतः, कथम् ?, अनन्तरपरम्परकल्पनया, एतदुक्तं भवति-हरितबीजयोरनन्तरप्रतिष्ठितत्वमाश्रित्य भङ्गचतुष्टयं निष्पाद्यते, तथा तयोरेव हरितबीजयोः परम्परप्रतिष्ठितत्वमाश्रित्य द्वितीयभङ्गचतुष्टयं निष्पाद्यते। अत्र चेयं भावना-अणंतरं हरिते पतिहिया गड्डी बीए अ अर्णतरं पतिद्विआ, एगो भंगो। तहा अणंतरहरिए पतिहिआ
दीप अनुक्रम [६१६]
RECACANCCCCASCA-SCAN
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६१८] .. "नियुक्ति: [३८७] + भाष्यं [२०४] + प्रक्षेपं [२६...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
श्रीओघ
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३८७||
द्रोणीया बृत्तिः
॥१४॥
ण बीए तेषामभावात् , विइओ भंगो २। अण्णा हरिए अर्णतरं न पतिहिया तस्याभावात् बीए अणंतरं पइडिआ तइओ ३१
दिलेपपिण्डे तहा अन्ना ण हरिए अणतरं पइडिआ ण बीए अणंतरं पइडिआ तयोरभावात्, चउत्थो ४,एस सुद्धो भैगो । एवं हरितबी-16
पात्रलेपना.
नि. ३८७ भाजपदद्वयेनानन्तरप्रतिष्ठितत्वकल्पनया भङ्गचतुष्टयं लब्धं । इदानी हरितबीजयोरेव परम्परप्रतिष्ठितत्वकल्पनया यथा भङ्गच
भा. २०४तुष्कं लभ्यते तथोच्यते, तञ्चैवं-हरिते परंपरपइडिआ गड्डी बीए परंपरपइडिआ एगोभंगो अण्णा हरिए परंपरइडिआ ण ४
२०५ बीए परंपरपइडिआ बीजानामभावात् , बिइओ भंगो, तहा अण्णा हरिते ण परंपरपइडिआ तेषामभावात् बीजे परंपरपइडिआ | तइओ अण्णा ण हरिए परंपरपइडिआ णबीए परंपरपइडिआ चउत्थो भंगो तयोरभावात्, एस सुद्धो भंगो। 'आयादुपयं च | पइडिअंति एत्थंपि चउभंगों' तथा तेष्वेव हरितबीजेषु आत्मा-आत्मा प्रतिष्ठितः द्विपदं च प्रतिष्ठितमिति, एतस्मिन्नपि पदवये चतुर्भङ्गिका भवति, कधम् ?, आया हरितबीएसु पइडिओ दुपयं च हरितबीएसु पइडिअं एगो भंगो १ । तथा आया हरितबीएसु पइडिओ न दुपयं हरियबीएसु पइटि वितिओ २, तथा आया न हरितबीजेसु पइडिओ दुपयं च हरित-2 बीएसु पइडि तइओ ३ तथा आया हरितबीएसुन पइडिओ दुपयं च हरितबीएसु न पतिहि चउत्थो भंगो ४४ एसो सुद्धो । एवं अन्नेवि परिसणंताईहिं भंगा सबुद्धीए ऊयवा । हरिते बीएत्ति गर्य, चलत्ति व्याख्यानयन्नाहदवे भावे य चलं दमि दुपइटिअं तुजं दुपयं आया य संजमंमि अ दुविहाउविराहणा तत्थ ॥ २०५-(भा०)
॥१४॥ | चल द्विविधं-द्रव्यचलं भावचलं च, तत्र द्रव्यचलं 'दुपइहि तुजं दुपयं' दुष्प्रतिष्ठितं यद्विपदं-शकटं तद्रव्यचलमुच्यते, तत्र च द्रव्यचले लेपं गृह्णत आत्मसंयमविराधना भवति द्विविधा । भावचलप्रतिपादनायाह
दीप अनुक्रम [६१८]
ACARACROCOCESS
SHARERucaturiN
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६२०] → “नियुक्ति: [३८७...] + भाष्यं [२०६] + प्रक्षेपं [२६...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२०६||
भावचलं गंतुमणं गोणाई अंतराइयं तत्थ । जुत्तेवि अंतरायं वित्तस चलणे य आयाए ॥२०६॥ (भा०)
भावचलमुच्यते यच्छकटं गमनाभिमुखं वर्तते, तत्रच लेपं गृह्णतः गोणाई अंतराइयंति-गवादीनां अंतरायं भवति, कथं, 8स कयाइ सगडवई भद्दओ भवति ततो सो जाव साह लेवं गेण्हइ ताव ते बइले न जोएइ पच्छा ऊसूरे जोतेति ततो ताणं|
बइलाणं पयट्टत्तिकाउं चारिं न देंति, अग्गतो य जा सा चारी ऊसूरे पत्ता, एवं भावचले गेण्हंतस्स अंतराय हवइ । दारं। PIजुत्तेत्ति व्याख्यायते, तत्राह-'जुत्तेवि अंतरायं बलीवर्दयुक्तेऽपि शकटे एवमेवान्तरायं भवति । तथाऽयं च दोषः 'वित्तस*
|चलणे य आयाए' ते वलीवर्दाः कदाचित्तं साधुं दृष्ट्वा वित्रसन्ति, ततश्च गन्न्याश्चलने लेपं गृहृत आत्मोपघातो भवति ।।2 दादारं । इदानीं 'वच्छे'त्ति व्याख्यायतेवच्छो भएण नासह डिंभक्खोभेण आयवावत्ती। आया पवयण साणे काया य भएणनासंति ।।२०७॥(भा०)
यदि च तत्र वत्सक आसनो भवति ततोऽसौ तं साधुं दृष्ट्वा कदाचिद्भयेन नश्यति, ततो नश्यन् कायान् व्यापाद-13 तयति । अथासौ तस्यामेव गन्न्यां बद्धस्ततोऽसौ भयेन नश्यन् गन्त्र्याः क्षोभं करोति, तेन च 'डिम्भक्षोभेण' गन्त्रीक्षोभेण]8,
आत्मव्यापत्तिर्भवति । दारं । 'साणे'त्ति व्याख्यायते-कदाचित्तत्र श्वा तिष्ठति स च तमक्षं जिह्वया लिखति, ततश्च लेप
गृहृत आत्मोपघातो भवति प्रवचनोपघातश्च,भयेन नश्यता कायाश्च विनाश्यन्ते । दारं । 'जलपुढवित्ति व्याख्यायते, तत्राहदजो चेव य हरिएK सो चेव गमो उ उदगपुढवीसु । संपाइमा तसगणा सामाए होइ चउभंगा ॥२०८॥ (भा०) * य एव हरितबीजेषु गमः-अधिगम उक्तः असावेवोदकपृथिव्योर्द्रष्टव्यः, एतदुक्तं भवति-यथा तत्र पदद्वयेन भङ्गका
दीप अनुक्रम [६२०]
witunasurary.orm
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६२२] → नियुक्ति: [३८७...] + भाष्यं [२०८] + प्रक्षेपं [२६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२०८||
वृत्तिः
श्रीओघ-1 उपलब्धाः एवमत्राप्युदकपृथिवीपदद्वयेन भङ्गकाः कर्तव्याः। दारं । इदानीं 'संपातिम'त्ति ब्याख्यायते, तत्राह-संपाइमालेपपिण्डे नियुक्ति स गणा' संपातिमशब्देन असगणा उच्यन्ते, ते यदि भवन्ति ततो लेपो न ग्राह्यः, अत्र च भङ्गचतुष्कं भवति, तद्यथा-1 द्रोणीया |संपातिमेसु अप्पा पइढिओ भंडी य पइविआ एगो १, तहा अप्पा संपातिमेसु पइट्टिओ न भंडी पइट्ठिआ बीओ २, अप्पा
भा. २०६
४ २०९ न पइडिओ भंडी पइडिआ तइओ ३, अप्पा न पइडिओ न भंडी पइडिआ चउत्थो ४, एसो सुद्धो । दारं । 'सामाए'त्ति
नि.३८८ ॥१४॥ व्याख्यायते, तत्र च श्यामायां भङ्गचतुष्कं भवति, कथं ?, लेवो दिवा गहिओ अणंमि दिवसे लाइओ एगो भंगो १,8
हा दिवा गहिओ राईए लाइओ विडओ २, राईए गहिओ दिवा लाइओ तइओ ३, राओ गहिओ राओ लाइओ चउत्थो
भगो ४, दारं । 'महावाए'त्ति व्याख्यायतेवामि चायमाणेसु संपयमाणेसु वा तसगणेसु नाणुन्नायं गहणं अमियस्स य मा विगिचणया ॥२०॥ (भा०) | वायौ वाति संपतत्सु वा त्रसगणेषु नानुज्ञातं लेपस्य ग्रहणं । दारं । इदानीं महिका, सा च 'संपयमाणेसु वा तसगणेसु' इत्यनेन वाशब्देन व्याख्यातव द्रष्टव्या, एतदुक्तं भवति-वाशब्दान्महिकायां च पतन्त्यां लेपो न ग्राह्यः।। दारं । 'अमिय'त्ति व्याख्यायते-'अमितस्य च प्रमाणाभ्यधिकस्य लेपस्य ग्रहणं न कार्य, यतः 'मा विकिंचणिय'त्ति [मा भूत् प्रभूतलेपस्य ग्रहणं विकिंचणं-त्यागस्तस्कृतो दोषो भविष्यतीति । दारं ।
एयद्दोसविमुक्कं घेत्तुं छारेण अक्कमित्ताणं । धीरेण बंधिऊणं गुरुमूलपडिकमालोए ॥ ३८८ ॥ F॥१४॥
दीप अनुक्रम [६२२]
ॐॐॐॐ
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
||३८८||
दीप
अनुक्रम [६२४]
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [६२४] • → मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
“निर्युक्तिः [३८८] + भाष्यं [ २०९ ] + प्रक्षेपं [ २६...]" ८० आगमसूत्र - [४१/१] मूल सूत्र -[२/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
एतद्दोषविमुक्तं लेपं गृहीत्वा वस्त्रेणाच्छाद्य छारेणाक्रम्य ततश्चीवरेण तं शरावसंपुढं बजा गुरुमूलमागत्य ईर्यापथिकां प्रतिक्राम्य गुरवे आलोचयति ।
दंसि अछंदि अगुरुसेसएस (य) ओमत्थियस्स भाणस्स । काउं चीरं उवरिं रूयं च भेज तो लेवं ॥ ३८९ ॥ पुनश्चासौ कायव्यापारेण दर्शयति, पुनश्च गुरुं छन्दयति- आमन्त्रयति, यदि भदन्तस्य प्रयोजनं लेपेन ततो गृह्यता - मिति, एवं छन्दयति । 'सेसए य'ति शेषांश्च साधून् छन्दयति, यदुत यदि भवतामनेन लेपेन किञ्चित्प्रयोजनं ततो गृह्यतामिति । एवं यदा न कश्चिद् गृह्णाति तदा 'ओमंथियस्स भाणस्स त्ति ओमस्थितस्य - अधोमुखीकृतस्य भाजनस्य उपरि कृत्वा चीरं, ततश्वीरस्योपरि रूतपटलं करोति, 'छुभेज्ज तो लेवंति ततो रूतस्योपरि लेप प्रक्षिपेत् ।
अंगुपए सिणिमज्झिमाए घेत्तुं घणं तओ चीरं । आलिंपिऊण भाणे एक दो तिष्णि वा घट्टे ॥ ३९० ॥ पुनश्चासौ रूतस्योपरि क्षिप्त्वा लेपं पुनरङ्गुष्ठप्रदेशिनीमध्यमाभिरङ्गुलीभिर्गृह्णाति, गृहीत्वा च 'घनम्' अत्यर्थं चीरं पुनः | पोट्टलिकाविनिर्गलितेन लेपरसेन पात्रमालिम्पति, तच्च पात्रकं कदाचिदेकं भवति कदाचिद्दौ कदाचित्रीणि, ततश्च तान्यालिप्य पुनः धट्टयति-अङ्गुल्या मसृणानि करोतीत्यर्थः । तानि च पात्रकाणि एवं दिम्पति
अन्नोऽन्नं अंकमि उ अन्नं घट्टेइ वारवारेणं । आगेइ तमेव दिणं दवं रएवं अभत्तट्ठी ॥ ३९९ ॥ अन्यद् अन्यद् अङ्के उत्सङ्गे स्थापयति, स्थापयित्वा चान्यद् 'घट्टयति' अङ्गुल्या मसृणयति, एवं वारया वारया एकं द्वे वाऽङ्के स्थापयेत् अन्य चैकं मसृणयति एवं तावद्यावन्मसृणानि संजातानि भवति । यदा पुनरेकमेव लिप्तमुत्कृष्टलेपेन
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६२७] .. "नियुक्ति: [३९१] + भाष्यं [२०९] + प्रक्षेपं [२६...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
नि.
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३९१||
श्रीओघ- भवति तदा रूढे सति 'आणेइ तमेव दिणं ति तस्मिन्नेव दिवसे द्रवं-पानकमानयति 'रए' रणयित्वा पात्रकं तदेवलेपपिण्डे नियुक्तिः 'अभत्तहिसि उपोषित एवं करोति । अथासौ ग्लानादीनां वैयावृत्त्यकरः स्यात्तता
पात्रलेपना. द्रोणीयाली अभत्तट्टियाण दाऊं अन्नेसि वा अहिंडमाणाणं । हिंडेज असंथरणं असह घेतुं अरइयं तु ॥ ३९२ ॥ वृत्तिः
अथ तत् पात्रकं न रूढं ग्लानादयश्च सीदन्ति सोऽपि वैयावृत्त्यकरस्ततो ये अभकार्थिकाः-उपवासिकाः साधवस्तेभ्यो ॥१४३॥
'दत्त्वा' समर्प्य भिक्षार्थं ब्रजति । 'अन्नेसिं वा अहिंडमाणाणं' अन्ये वा ये भिक्षा नादन्ति तेषामहिण्डमानानां भोक्तृणां समर्प्य हिण्डते । 'असंथरणे'त्ति ग्लानादीनामसंस्तरणे-असंतरणए होतए एवमसौ करोति । असहुत्ति अथासौ स्वयमेवास-18 हिष्णुरुपवास कर्तुं ततः 'घेत्तुं अरइयं तुति गृहीत्वाऽन्यसाधुसत्कं पात्रं 'अरइयं तु'त्ति अरञ्जितं तस्मिन् दिवसे पूर्वलिसमित्यर्थः, तगृहीत्वा हिण्डेत । यदा पुनरेवंविधः साधुर्नास्ति कश्चिद्यस्य तन्नवलेपं पात्रकं समर्प्य भिक्षामटति, आत्मना च त्रीणि पश्चकाणि संवाहयितुं न शक्नोति, कानि त्रीणि ?, एक नवलेपं पात्रकं अन्यो भक्तपतवहस्तृतीयमशुद्धार्थ मात्रक,18 तदा को विधिरित्यत आह
न तरेजा जइ तिन्नी हिंडावेउं तओ अ छोरणं । उ पणे हिंडइ अन्ने य दवं सि गेण्हंति ॥ ३९३ ॥ | 'न तरेत्' न शक्नुयात् यदि त्रीणि पात्रकाणि हिण्डयितुं ततो नवलेपं पात्रकं छारेण-भूतिना अवचूर्ण्य-गुण्डयित्वा |
॥१४॥ एकत्र प्रदेशे स्थापयित्वा हिण्डते । 'अन्ने य दवं सि गि पहंतित्ति अन्ये साधवस्त दर्थ द्रवपानकं गृह्णन्ति । तथा चMiलेस्थारियाणि जाणि उ घगमाईणि तत्थ लेवेणं । संजमफाइनिमित्तं ताई भूमीइ गुंडेजा ॥ ३९४ ॥
दीप अनुक्रम [६२७]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६३०] » “नियुक्ति : [३९४] + भाष्यं [२०९...] + प्रक्षेपं [२६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
560%
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||३९४||
'लेस्थारियाणि' लिप्तानि, केन ?, लेपेनेति संबन्धः, यानि घट्टकादीनि, तत्र घट्टको-येन पापाणकेन पात्रं नवलेपं मसणं क्रियते, आदिग्रहणाच्छरावं चीरं च लेपलिप्त, एतानि लेपेन सर्वाण्येव लिप्तानि तत्र पात्रक लिम्पतः, ततश्च तानि घट्ट-16 कादीनि भूत्या गुण्डयति, येन तत्र प्रतिष्ठापितानां सतां कीटिकाद्युपघातो न भवेत् । किमर्थं पुनरेवं क्रियते ?, अत: आह-संजमफातिनिमित्त मिति संयमवृद्ध्यर्धमिति । एवं लेवग्गहणं आणयणं लिंपणा य जयणा य । भणियाणि अतो वोच्छ परिकम्मविहिं तु लेवस्स ॥ ३९५ ॥
'एवम्' उक्तेन न्यायेन लेपग्रहणं तथा तस्यैवानयन लिम्पना च पात्रकस्य यतना च ग्रहणे लेपस्यैतानि भणितानि अतः परं वक्ष्ये परिकर्मविधिं लिप्तस्य पात्रकस्य । स चाय परिकर्मविधिःलित्ते छगणिअछारो घणेण चीरेणऽधि उण्हे । अंछण परियत्तण घट्टणे य धोवे पुणो लेवो ।। ३९६ ॥
लिप्ते तत्र पात्रके सति 'छगणियछारो'त्ति गोमयछारेण तत्पात्रक गुण्ड्यते, पश्चाच्च घनेन 'चीरेण पात्रकबन्धेन वेष्टयित्वा रजखाणेन च परिवेष्ट्या 'अंबधि'ति पात्रकबन्धग्रन्धिमदत्त्वा तत एवंविधं कृत्वा 'उण्हे'त्ति उष्णे स्थापयति, 'अंछण'त्ति ततोऽजल्या लिप्तस्य रङ्गितस्य पात्रकस्याकर्षण-समारणं करोति, आतपे कृत्वा पुनः परिवर्तयति-आतपाभिमुखं करोति, एवं शोषणा तस्य नवलेपस्य पात्रकस्य, धौते च छारगुण्डिते तत्र पात्रके पुनलेंपो दीयत इति । इदानी भाष्यकार एतामेव गाथां व्याख्यानयति, तत्र 'लिते छगणियछारो'त्ति इदं व्याख्यातमेव द्रष्टव्यं, शेष व्याख्यानयन्नाहदाउ सरयसाणं पत्ताधं अवंधणं कुजा । साणाइरक्खणट्टा पमज्ज छाउण्हसंकमणा ॥ २१॥ (भा०)
SAGARCACANC
दीप अनुक्रम [६३०]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६३३] → "नियुक्ति: [३९६] + भाष्यं [२१०] + प्रक्षेपं [२६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
लेपपिण्डे पात्रलेपना.
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३९६||
वृत्तिः
३९८ भा. २१०२११
दीप अनुक्रम [६३३]
श्रीओष
दत्त्वा तत्र पात्रके सरजस्त्राणं पात्राबन्धं पुनश्चाबन्धगं कुज्जेति-तत्र ग्रन्थि न ददाति, किमर्थम् ?, अत आह-'साणा- नियुक्तिःदिरक्खणट्ठा' श्वानादिरक्षणार्थ ग्रन्थिं न ददाति, इदमुक्तं भवति-ग्रन्धिना दत्तेन सता कर्पटैकदेशे गृहीतः सन् शुना द्रोणीया माजारेण वा नीयते, पुनश्च तत्पात्रकं प्रमृज्य भुवं छायात उरणे सङ्कामयति, एतदुक्तं भवति-अपराहच्छायाक्रान्तं सन्
पुनरुष्णे स्थापयति । ॥१४॥ तद्दिवसं पडिलेहा कुंभमुहाईण होइ कायबा । उन्ने य निसंकुजा कयकजाणं विउस्सग्गो ॥२११॥ (भा०)
यस्मिन् दिवसे पात्रक लेपयति तस्मिन् दिवसे 'कुम्भमुखादीनां' घटग्रीवादीनां प्रत्युपेक्षणं कृत्वा ततश्च गृह्णाति, येन लिप्तं पात्रक बहिस्तस्यां ग्रीवायां तस्मिन् दिवसे क्रियते, निशायां तु छन्ने तत्पात्रकं कुर्याद्, आत्मसमीपे, कृते च कार्ये व्युत्सर्गः कर्त्तव्यस्तेषां घटग्रीवादीनां तस्मिन्नेव दिवसे येन परिग्रहकृतो दोषो न भवेत्, अन्यस्मिन् दिवसेऽन्यानि भविव्यन्ति । अथ लेपशेषः कश्चिदास्ते ततस्तस्य को विधिरित्यत आह
अवगहेड लेबाहियं तु सेसं सरूवगं पीसे । अहवावि नथि कजं सरूवमुझे तओ विहिणा ॥ ३९७ ॥
कदाचित्तत्रान्यत्र वा पात्रकेऽष्टको दातव्यो भवति, ततस्तदर्थ-अष्टकनिमित्तं करेण तं लेपाधिकं शेष सरुतं पेष्यते, अथ तेन लेपशेषेण न किश्चित्कार्यमस्ति ततः सरूतमेव विधिना परित्यजेत् छारेण गुण्डयित्वेत्यर्थः । इदानीं तत्पात्रक कस्यां पौरुष्या बाह्यतः स्थापनीयं ? कस्यां चाभ्यन्तरे प्रवेशयितव्यमित्येतत्प्रदर्शयन्नाहपढमचरिमा सिसिरे गिम्हे अद्धं तु तासि बजेजा। पायं ठये सिणेहातिरक्षणट्ठा पबेसो वा ॥ ३९८॥
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॥१४४||
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६३६] .→ "नियुक्ति : [३९८] + भाष्यं [२११] + प्रक्षेपं [२६...]". मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||३९८||
'शिशिरशीतकाले प्रथमपौरुषी वर्जयित्वा तत्पात्रक बहिरातपे स्थाप्यते, चरमाया-चतुर्थप्रहरे शिशिरपौरुष्यां तत्पा-16 अकमभ्यन्तरे प्रवेशयेत्, 'गिम्हे अद्धं तु तासि वजेजत्ति ग्रीष्मकाले तयोः-प्रथमचरमपौरुष्योरई वर्जयेत्, ततः पात्रके
स्थापयेत् प्रवेशयेद्वा, एतदुक्तं भवति-ग्रीष्मे अर्द्धपौरुष्यां गतायां सत्यां पात्रकं बहिः स्थापयेत् , तथा चरमप्रहराः गते & सति तत्पात्रक प्रवेशयेत्, किमर्थ-सिणेहाइरक्खणट्ठा' एतदुक्तं भवति-शिशिरे प्रथमप्रहरः चरमप्रहरश्च स्निग्धः
कालस्तमिश्च पात्रक न क्रियते, लेपविनाशभयात् , तथोष्णकाले च प्रथमप्रहराढ़े चतुर्थप्रहराडे च न स्थाप्यते, सोऽपि | निध एव कालः, अतीवोष्णे स्थापनीयं येन रुह्यत इति ।
उचओगं च अभिकखं करेइ चासाइरक्खणहाए । वाचारेह व अन्ने गिलाणमाईसु कज्जेसु ॥ ३९९ ॥ तस्मिंश्चातपस्थापिते 'उपयोग' निरूपणं 'अभीक्ष्णं' पुनः पुनः करोति, किमर्थमित्यत आहे-'वासाइरक्खणट्ठा' वर्षादिरक्षणार्ध, आदिग्रहणात् श्वादिरक्षणार्थ च, अन्यान् वा साधून व्यापारयति पात्रकरक्षणार्थं यद्यात्मना ग्लानादि-18 कार्येषु क्षणिकः । कियन्तः पुनर्लेपा दीयन्ते इत्यस्य प्रदर्शनायाह
एको व जहनेणं दुगतिगचत्तारि पंच उक्कोसा । संजमहेउं लेवो वजित्सा गारवविभूसा ॥ ४०॥ एको जघन्येन प्रलेपो दीयते मध्यमेन न्यायेन द्वौ बयश्चत्वारो वा उत्कृष्टतः पञ्च लेपा दीयन्ते, स च संयमार्थ दीयते, वर्जयित्वा गौरवधिमूषे, तत्र गौरवं येन मां कश्चिद्भणति यथैतदीयमेतच्छोभनं पात्रमिति, विभूषा सुगमा । इदानीं | "धोवे पुणो लेवो"त्ति, अमुमवयवं व्याख्यानयन्नाह
दीप अनुक्रम [६३६]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६३८] → “नियुक्ति: [४००] + भाष्यं [२११..] + प्रक्षेपं [२६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४००||
श्रीओघ- अणुवर्दृते तहवि हु सर्ष अवणि तो पुणो लिंपे । तवाय सचोप्पडगं घटगरइअंततो धोचे ॥ ४०१॥ दालेपपिण्डे नियुक्तिः अनुपतिष्ठति-अरुह्यमाणे अरुज्झते, एतस्मिन् पात्रके 'तथाऽपि तेनापि प्रकारेण यदान रोहति सदा सर्व लेपमपनीय पात्रलेपना. द्रोणीया
ततः पुनर्लिम्पति । एष तावत् खञ्जनलेपविषयो विधिरुक्तः, इदानीं तज्जातलेपधिषि प्रदर्शयन्नाह-तजायसचोपडगं' नि. ३९९वृत्ति
तस्मिन्नेव जातस्तजातो-गृहस्थसमीपस्थस्यैवालाबुकस्य 'सचोप्पडगस्स' तैलस्निग्धस्य यद्रजालक्ष्णं चिकणं लग्नं स तजा- ४०३ ॥१४५॥ ४ तलेप उच्यते, एवं तज्जातलेपः, सघोषद-सोहं यत्पात्रकं तवू 'घट्टगरइतं' घट्टकेन रचित-मसृणितं घृष्ट सत्ततः काजि-11
केन शालयेत् । कतिप्रकारः पुनर्लेपः इत्यस आह
तजायजुसिलेवो खंजणलेवो य होइ बोडयो । मुरिअनाचापंधो तेणयषेण परिकहो ॥१०॥ तज्जातलेपो युक्तिलेपः-पाषाणादिः खञ्जनलेपवेति विज्ञेयः । एवं च यदा तत्पात्रक पूर्वमेव भन्नं भवेत्सदा किं कर्त्तव्यमित्यत आह-तदाऽन्यद्धते पात्रक, यदाज्यलाभावस्सदा किं कर्त्तव्यमित्यत आह-मुहिअनावाबंघों त्ति तदा तेसदेव पात्रकं सीघयति, केन पुनर्वग्धेम तस्सोपनीयं, मुद्रिकावन्धेज-अधिषम्धेम सीवयति यारशो मावि बन्धो भवति
तत्सहयोन गोमूत्रिकाबम्धेनेत्यर्थः, अन्यः सेनकवन्धो गूढो भवति स पर्जितो यतस्तस्पायकं तेन सेनकवन्धेनारदं भवति मुसिरं च होतिति । इदानीमेतामेव गाथा व्याख्यानयति,तत्र सजातजनलेपौ व्याख्यातादेव,श्वानी युक्तिले प्रतिपादपति-IRyan जुसीउ पत्थराहे पहिकुट्ठो सो उ समिही जेणं । दयकृसुमार असतिहि संजणलेषो मजो अणिो ॥ ४०॥ I युक्तिलेपः पुनः प्रस्तरादिरूपः, आदिग्रहणाच्छरिकालेपो वा, सच प्रस्तरादिलेपः प्रतिकुष्ठ असिपियो भगवमि
दीप अनुक्रम [६३८]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६४१] .→ “नियुक्ति: [४०३] + भाष्यं [२११..] + प्रक्षेपं [२६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ॥४०३||
तास समिधिमन्तरेण न भवति, यतबैवमतो जीवदयार्थ सुकुमारत्वादसन्निधिरिति च कृत्वा खन्नामलेप एभिः कारण रुको भणितः । माह-एवं हि सुकुमारं लेपमित्रातस्तख विभूषा भवति !, उच्चते, मैसदति, यतादा संजमहे लेवो न विभूसाए वदति तित्थयरा । सह असइ प विष्टलो सासाहम्मे उवणओ उ ॥४॥ मा 'संयमहत' संयमनिमित्त लेप उक्तो न विभूषार्थ वदम्ति तीर्थकराः । अत्र च साष्टान्तः असरारतक्ष । एकमि | |संनिवेसे दो इथियाओ, ताणं एका सई अण्णा असई, जा सा सई सा असाणं विभूसंती अच्छा, असईवि एवमेष, समो सईए भत्तारभत्तित्तिकाऊ उषणबेसो लोगेण गणिज्जा न य हसिज्जइ, असईए उण चेसो उल्लणो लोए हसिजर, यस-15 स्तस्या असी वेषोऽभ्यार्थं वर्त्तते । एवमत्र सतीसाधर्म्य उपनयः कर्तव्यः, यथा सत्या विभूषां प्रकुर्वत्या अपि सा विभूषा १/लोकेनान्यथा न कल्प्यते एवं साधोः संयमार्थ शोभनं लेपयतोऽपि न विभूपादोष रति ॥ इदानी मुद्रिकादिवन्धान
व्याख्यानयति, तत्संबन्धं प्रतिपादयन्नाहPI भिज्जिन लिप्पमाणं लित्तं वा असइए पुणो बंधो। मुद्दिअनावाबंधो न तेणएणं तु बंधिज्जा ॥४०५॥
भिद्येत्तलिष्यमानं पात्रकं वा लिम्पितं वा सद्भिद्येत ततोऽन्यस्याभावे पुनरपि वध्यते-सीच्यते, तत्र मुद्रिकावन्धस्येयं स्थापना- नौवन्धः पुनर्द्विविधो भवति, तस्य चेयं स्थापना-६४। स्तेनकबन्धः पुनर्गुप्तो भवति, मध्येनैव पात्र-1|| ककाष्ठस्य दवरको याति तावधावरसा राजिः सीविता भवति, तेन ३8 स्तेनकबन्धेन दुर्बलं पात्रं भवत्यतोऽसौ वर्जनीयः । इदानीं स लेप उत्तममध्यमजघन्यभेदेन त्रिविधो भवत्यत आह
दीप अनुक्रम [६४१]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६४४] → "नियुक्ति: [४०६] + भाष्यं [२११..] + प्रक्षेपं [२६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
श्रीओप- नियुक्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४०६||
द्रोणीया
॥१४६॥
दीप अनुक्रम [६४४]
खरअयसिकुसुंभसरिसव कमेण उक्कोसमज्झिमजहन्ना । नवणीए सप्पिवसा गुडेन लेपो अलेवो उ ।। ४०६॥ लेपपिण्डे __खर इति-सरसन्नयं तिलतिलं तेण कओ उकोसो लेयो, अयसि-कुसुंभिआ तेण य मझिमो लेवो, सरिसवतेल्लेण य पात्रलेपना | जहन्नओ होइ, अनेन क्रमेणोत्कृष्टो मध्यमो जघन्य इति । कैः पुनर्लेपो न भवतीत्यत आह-नवनीतेन सर्पिपा-घृतेन
- नि. वसया गुडेन लवणेन च, एभिः रसरलेपः-एभिर्लेपो न भवतीति । उक्तो द्रव्यपिण्डः, इदानी पिण्डस्यकार्थिकान्युच्यन्ते-४
४८४-४०७
भावपिण्डे पिंड निकाय समूहे संपिंडण पिंडणा प समवाए।समोसरण निचय उवचय चए य जुम्मे य रासी य ॥४०७॥ नि.४०८
पिण्डो निकायः समूहः संपिण्डनं पिण्डना च समवायः समवसरणं 'मृ गती' सम्यग्-एकत्र गमनं समवसरणं, निचय उपचयः चयश्च जुम्मश्च राशिः पिण्डार्थः। प्रतिपादितो द्रन्यपिण्डः, भावपिण्डप्रतिपादनायाह
दुविहो य भावपिंडो पसत्थओ होइ अप्पसत्थो य । दुग सत्तट्टचउक्चग जेणं वा यज्झए इयरो॥ ४०८ ॥ द्विविधो भावपिण्ड:-प्रशस्तभावपिण्डोऽप्रशस्तभावपिण्डश्च, तत्राप्रशस्तं प्रतिपादयन्नाह-'दुयसत्तअट्ठ'इत्यादि, दुविहो रागो य दोसो य सत्तविहो सत्त भयहाणाणि, एतानि च तानि-इहलोकभयं परलोकभयं आयाणभयं अकम्हा-1 भयं आजीवियाभयं मरणभयं असिलोगभयं, "इहपरलोयायाणमकम्हाआजीवमरणमसिलोए"त्ति । अट्ठ कम्मपयडीओ|
॥१४॥ णाणावरणाइयाउ, अहबा अट्ठ मयट्ठाणाणि-जाइकुलबलरूवे तवईस्सरिए सुए लाभे । चउबिहो कोहमाणमायालोहरूवो। रागद्वेषावेव पिण्डः औदयिको भाषोऽनन्तकर्मपुद्गलनिर्वृत्तः पिण्डः, एवं सप्तभिर्भयस्थानों जन्यते कर्मपिण्डः, एव
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अथ 'भावपिण्ड' वर्णयते
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||४०९||
दीप
अनुक्रम [६४७]
Educator
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [६४७] ● → मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
"निर्युक्तिः [४०९] + भाष्यं [२११] + प्रक्षेप [ २६...] ० आगमसूत्र - [४१/१], मूल सूत्र -[२/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
मन्यत्रापि योज्यं, 'येन वा' बाह्येन वस्तुना इतरः- आत्मा बध्यते कर्मणाऽष्टप्रकारेण सोऽप्रशस्तः । इदानीं प्रशस्तं भाव| पिण्डं प्रतिपादयन्नाह -
तिविहो होइ पत्थो नाणे तह दंसणे चरिते य । मोचूण अप्पसत्थं पसत्थपिंडेण अहिगारो ॥ ४०९ ॥
त्रिविधः प्रशस्तो भावपिण्डः- ज्ञानविषयः दर्शनविषयः चारित्रविषयश्च तत्र ज्ञानपिण्डो ज्ञानं स्फातिं नीयते येन, तथा दर्शनं स्फातिं नीयते येन, चारित्रं स्फातिं नीयते येन स बाह्योऽभ्यन्तरच पिण्डः, मुक्त्वाऽप्रशस्तं प्रशस्तपिण्डेनाधिकारः । अयं च भावपिण्डः केन पिण्ड्यते ?-प्रचुरीक्रियते, शुद्धेनाहारोपधिशय्यादिना, अत्र चाहारेण प्रकृतं स एव प्रशस्तो भावपिण्डः, कारणे कार्योपचारात्, ज्ञानादिपिण्डकारणमसी, स चाहार एषणाशुद्धो ग्राह्यः अनेन संबन्धेनागता एषणा प्रतिपाद्यते । अथवा पूर्वमिदमुक्तं- 'पिंडं च एसणं च बोच्छं' तत्र पिण्ड उक्तः, इदानीमेषणा प्रतिपाद्यते, अथवा स्वयमे वायं भाष्यकृत्संबन्धं करोति-लित्तंमि भाषणंमि उ पिंडस्स उबग्गहो उ कायद्दो । जुत्तस्स एसणाए तमहं वोच्छं समासेणं ॥ २१२ ॥ (भा०) लिप्ते भाजने सति ततः पिण्डस्योपग्रहो - ग्रहणं कर्त्तव्यं किंविशिष्टस्य पिण्डस्य १ - एपणायुक्तस्य, अतस्तामेवपणां प्रतिपादयन्नाह -
नामं ठवणादविए भावंमि य एसणा मुणेयचा। दबंमि हिरण्णाई गवेसगहभुंजणा भावे ॥ ४१० ॥
For Parts Only
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||४१०||
दीप
अनुक्रम [६४९ ]
श्रीओोघ
निर्युतिः
द्रोणीया
वृत्तिः
॥ १४७॥
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २/१ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [६४९] ● → मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
०
"निर्युक्तिः [ ४१०] + भाष्यं [ २१२ ] + प्रक्षेपं [ २६...]" आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
नामस्थापने सुगमे, द्रव्ये द्रव्यविषया, यथा हिरण्यादेर्गवेषणां करोति कश्चिद् भावे-भावविषया त्रिविधा - गवेषणैषणाअन्वेषणैषणा ग्रहणैपणैषणा-पिण्डादानैषणा ग्रासैषणा । सा च गवेषणैषणा एभिर्द्वारैरभिगन्तव्य
पमाणे काले आवस्सए य संघाडए य उबकरणे । मतगकाउस्सग्गो जस्म प जोगो सपचिक्खो ॥ ४११ प्रमाणं कतिवारा भिक्षार्थे प्रवेष्टव्यमिति, एतद्वक्ष्यति, 'काले'त्ति कस्यां वेलायां प्रवेष्टव्यं ?, भिक्षा गवेषणीया इत्यर्थः, 'आवस्सए 'त्ति आवश्यक - कायिकादिव्युत्सर्ग कृत्वा भिक्षाटनं कर्त्तव्यं गवेषणमित्यर्थः, 'संघाडए' ति सङ्घाटकयुक्तेन हिण्डनीयं नैकाकिना, 'उबगरणे'त्ति भिक्षामटता सर्वमुपकरणं ग्राह्यमाहोश्वित्स्वल्पं, 'मत्तगे'चि भिक्षामदत्ता गवेषयता मात्रकग्रहणं कर्त्तव्यं, कायोत्सर्गः - भिक्षार्थं गच्छता उपयोगप्रत्ययः कार्यः, तथा च यस्य योगः - भिक्षार्थं गच्छशिदं वक्ति यस्य योगो येन वस्तुना सह संबन्धो भविष्यति तद्ग्रहीष्यामीत्यर्थः, 'सपडिवक्खो त्ति सर्व एवायं द्वारकलापः सप्रतिपक्षोऽपि वक्तव्यः, सापवादोऽपीत्यर्थः । इदानीं भाष्यकारः प्रतिपदमेतां गाथां व्याख्यानयति, तत्र “पमाणे "ति व्याख्यानयशाह
दुविहं होइ पमाणं काले भिक्खा पवेसमाणं च । सन्ना भिक्खायरिआ भिक्खे दो काल पढभद्धा ॥ २१३॥ (भा०) द्विविधं प्रमाणं भवति, 'कालो'त्ति एक कालप्रमाणं कालनियमः - वेलानियम इत्यर्थः तथाऽन्यद्विवार्थी प्रविशमानामां 'प्रमाण' मारालक्षणं भवति, तत्र भिक्षाप्रवेशप्रमाणप्रतिपादनायाह-'सन्नाभिक्खायरिया भिक्खे दो' भिक्षार्थी वाराद्वयं प्रविशति, एकमकालसञ्ज्ञायाः पानकनिमित्तं द्वितीयं भिक्षाकाले प्रविशतीति । जदि गुण सहवणारं भिक्ला
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भावपिण्डः नि. ४०९ एषणायां
प्रमाणकालावश्यका
दिभिर्गवेषणपणा भा. २१२ नि.
४१०-४११ भा. २१३
॥ १४७॥
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
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दीप
अनुक्रम [६५१]
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [६५१]
"निर्युक्ति: [४११...] + भाष्यं [ २१३ ] + प्रक्षेप [२६...]"
८०
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
यरिगं करेइ ततो खेत्तं चमढिज्जइ उड्डाहो व हवर, जहा गस्थि एएसिं भिक्खाहिंडणे नियमो, तम्हा दोणि वाराड हिंडियवं, एवं च पुत्रभणियमेव-पुणो पुणो पविसमे सहबकुलाणि चमडिजांतित्ति, तेन भासकारण बहुवारा पविसणे दोसा न दंसिआ । उक्तं भिक्षाप्रवेशवाराप्रमाणं, भिक्षाकालप्रतिपादनायाह - 'काले पडमा' काल इति भिक्षाकालस्तस्मिन् प्रविशितव्यं, तथा 'पढमद्धा' इति प्रथमपौरुष्यां वदर्द्ध तस्मिंश्च भिक्षार्थं प्रविशितम्यं, उकं कालममरणम् । आरेण भदपंता मद्दग उडवण भंडण पदोसा । दोसीणपउरकरणं ठविषगदोसा य भमि ॥ २१४ ॥ भा० ) यदि पुनरर्द्धपौरुष्या आरत एव - प्रत्यूषसि एव भिक्षार्थं प्रविशति ततो भद्रककृता एते दोषाः 'उडवणं भंडणपओसा' उट्टावणं पसुत्तमहिलाए करेइ, जहा पबतियगा आगया तं उट्ठेत्ता देसुत्ति, अहवा सा आलस्सेण न उट्ठेइ तओ भंडणंकलहो होज्जा, अथवा सा चेव पओसेज्जा, प्रद्वेषं गच्छतीत्यर्थः । 'दोसीणपरकरणं'ति सो चैव गिवई इमं भणई| जहा एए तवस्सिणो रतिं अजिमिआ एचाहे छुहाईया अहो समतिरेगं रंधिज्जासु जेण एथार्णपसरवेलाए आगयानं होइत्ति । तथा 'ठविअगदोसा यत्ति स्थापनाकृताश्चैवं दोषा भवन्ति ॥ सांप्रतं प्रान्तकृतदोषकथनाचाहअद्यागमंगलं वा उन्भावण खिंसणा हणण पंते। फिडिउग्गमे च ठविया भद्दगचारी किलिस्सणया ||२१५|| (भा०) भणिज्जा - अहो मे अदागमिव अधिद्वाणं हवइ, तथा सिंसणा वा भवति, जहा तावत्प्रत्यूषस्वेव प्रविशतां दोष उक्ताः
गिवई घरे अस्थि, तओ पसरे साहू आगओ, तं दहण य गिहवई इमं दिट्ठ, अमंगलं चासौ गृहपतिर्मन्यते साधुदर्शनं, ततश्चैवं ओहावणा - परिभवो एते पोट्र्पूरणत्थमेव पवड्या, आहणणा वा पंते-प्रान्तविषये भवति । एवं
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६५३] → नियुक्ति: [४११...] + भाष्यं [२१५] + प्रक्षेपं [२६...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२१५|
श्रीओप
'फिडिए' ति अधापगताया-अतिक्रान्तायामड़पौरुष्यां भिक्षा) प्रविशति ततश्च यदि भद्रको भवति तत एवं प्रमाणकानियुक्तिः अवीति-यदुत अदिवसादारभ्य यथा इयती बेला राजस्य भक्तस्य भवति तथा कर्तव्यं, ततश्च उद्गमदोषः-आधाकमों-STATE
लादिभिर्गद्रोणीया
दिदोषः, 'ठविय'त्ति अथवा यदुद्धरति तत्त्वयाऽद्यदिवसादारभ्य साध्वर्थ स्थापनीयं, ततश्चैवं स्थापनादयो दोषा भद्रकदृत्तिः
भा-२१४विषया भवन्ति, अथासौ गृहपतिर्भद्रको न भवति ततः 'चारी' इति ततश्चावेलायां भिक्षार्थ प्रविष्टमेवं प्रान्तो ब्रवीति
२१६ ॥१४८॥ यदुतायं चारीभण्डिकः कचिद् अन्यथा कोऽयं भिक्षाकाल इति, नायं प्रत्यूपकालो नापि मध्याह्नकाल इति, 'फिल-131
स्सण'त्ति तथा अवेलायां भिक्षानिमित्तं प्रविष्टस्य क्लेश एव पर्यटनजनितः परं न तु भिक्षाप्राप्तिः, तम्हा दोसी|णवेलाए चेव उयरेयवं । इदानीं मध्याह्नस्यारत एव यदि भिक्षामटति ततः को दोषः । इत्यत आहभिक्खस्सवि य अवेला ओसकहिसक्कणे भवे दोसा । भद्दगपंतातीया तम्हा पत्ते चरे काले ॥ २१६ ॥(भा०)
भिक्षाया अवेलायां यदि प्रविशति ततो यदि भद्रका 'ओसकर्णति याऽसौ रन्धनबेला तां मध्याह्नादारत एव कारयति येन साधोरपि दीयते, एवं तावनिक्षावेलायामप्राप्तायां हिण्डतो दोषाः, अथ पुनर्निवृत्तायां भिक्षावेलायामदति 8 है ततः 'अहिसकणे'त्ति रन्धनबेला तामुच्छूर एवं करोति येन साधोरपि भक्तं भवति, एवमेते दोषा भद्रके भवन्ति, १४८॥
'पंतादीय'त्ति प्रान्तकृतास्तु दोषाः पूर्ववद्रष्टव्याः भाण्डिकोऽयमिति ब्रूते प्रान्तः, तस्मात्प्राप्त एव काले चरेमिक्षा न न्यूने||ऽधिके वा । “काले"त्ति गयं, इदानीं “आवस्सए"त्ति व्याख्यायते
दीप अनुक्रम [६५३]
XNarayan
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
|२१७||
दीप
अनुक्रम [६५५ ]
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [६५५]
"निर्युक्ति: [४११...] + भाष्यं [ २१७ ] + प्रक्षेप [२६...]"
८०
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
आवस्सग सोहेडं पविसे भिक्खस्स सोहणे दोसा । उग्गाहि अवोसिरणे दवअसईए य उड्डाहो || २१७|| (भा० )
अवश्यं कर्त्तव्यमावश्यकं-कायिकाव्युत्सर्गरूपं शोधयित्वा कृत्येत्यर्थः, ततो भिक्षार्थं प्रविशेत्, असोधने आवश्यकस्य दोषा भवन्ति, कथं ? – 'उग्गाहियवोसिरणे'त्ति यद्यसौ साधुः उद्भाहितेन गृहीतेनैव पात्रकेण व्युत्सृजति तत उड्डाहः, अथ तत्प्रात्रकमन्यस्य साधोः समर्प्य यदि व्युत्सृजति ततश्च द्रवस्यासति-अभावे सति 'उड्डाहो' उपघातो भवति । अइदूरगमणफिडिओ अलहंतो एसपि पेलेज्जा । छड्डावण पंतावण धरणे मरणं च छक्काया ॥ २९८ ॥ (भा०)
अथासौ अतिदूरं गमनं करोति स्थण्डिले ततः 'फिडिओ'ति भ्रष्टः सन् भिक्षावेलाया भिक्षामप्राप्नुवन्नेषणामपि 'प्रेर येत्' अतिक्रामयेत्, अथवा तत्रैव क्वचिद्गृहासन्ने व्युत्सृजति ततः 'छड्डावण'त्ति स गृहपतिस्तदशुचि छड्डाबेति, त्याजयतीत्यर्थः, अथवा पंतावणं-ताडनं कशादिना करोति, अथैतदोषभयाद्धरणं करोति पुरीषवेगस्य ततो मरणभयं भवेत्, व्युत्सृजतस्तु षट्कायविराधनेति, स्थण्डिलाभावात् । 'आवस्सए'त्ति गयं, 'संघाडए' ति व्याख्यायते— एकाणियस्स दोसा इत्थी साणे तहेव पडिणीए । भिक्खविसोहि मह्वय तम्हा सवितिज्जए गमणं ॥ ४१२॥ दारं ।
यदि सङ्घाटकोपेतः सन् भिक्षाटनं न करोति तत एकाकिन एते दोषाः स्त्रीकृतः श्वजनितः प्रत्यनीकजनितः भिक्षाविशुद्धिरेकस्य न भवति तथा व्रतोपघातो भवति तस्मात्सद्वितीयेन गन्तव्यम् । इयं च प्रतिद्वारगाथा, इदानीं भाष्यकार: | प्रतिपदं व्याख्यानयति
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६५८] → “नियुक्ति: [४१२] + भाष्यं [२१९] + प्रक्षेपं [२६...]". मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
नियुक्ति
द्रोणीया
गाथांक नि/भा/प्र ||२१९||
श्रीओष- संघाडएमगहणे दोसा एगस्स इत्थियाउ भवे । साणे भिक्खुवओगं संजमआएगयरदोसा ॥ २१९ ॥(भा०) गवेषणैष
'सङ्काटकस्य सङ्घाटकसंयोगस्य 'अग्रहणे' अकरणे दोषा एकाकिनः खीकृता भवन्ति, एकाकिनं दृष्ट्वा साधु कदा- णायां संघा
चिद्गृहीयात् । 'इत्यि'त्ति गयं, 'साणे त्ति व्याख्यायते-शुन्युपयोग यदि ददाति ततः संयमविषयो दोषः, अथ भिक्षा-18टित्व भा. वृत्तिः यामुपयोगं ददाति तत आत्मोपघातदोषः, एवमेकाकिनः प्रविशतः शुनीकृतो दोषो भवतीति, यथासङ्ग्यं चैतद् व्याख्ये-16
| नि.४१२ ॥१४९॥ यं । 'साणेति गर्य, इदानीं 'पडिणीए'चि व्याख्यायते
दोण्णि उदुद्धरिसतरा एगोसि हणे पदुदृपडिणीए । लिघरमहणे असोही अग्गहण पदोसपरिहाणी॥२२०॥ (भा०) | द्वौ साधू भिक्षामटन्तौ प्रत्यनीकस्य दुष्प्रधृष्यतरौ भवतः-दुःखेन परिभूयेते दुर्जयतरौ इत्यर्थः । 'एगोत्ति हणे' एकाकिनं पुनदृष्ट्वा हन्ति प्रद्विष्टः सन् प्रत्यनीकस्तस्मात्सङ्घाटकेन गन्तव्यं । 'पडिणीए'त्ति गर्य, इदानीं 'भिक्खाविमोहि'त्ति भण्णइ-यदा स एकाकी कचित्पाटके भिक्षार्थ प्रविष्टः समकमेव च गृहत्रयान्निर्गता भिक्षा गृहृतो भिक्षाया अशुद्धिर्भवति-18 आहृतदोषो भवति, यत ईर्यापथिका शोधयितुं न शक्नोति, अथ तत्रैका भिक्षा गृह्णाति यस्यामुपयोगो दत्तः तत इतरस्य भिक्षाद्वयस्याग्रहणे 'पओस'त्ति ते भिक्षादातारः प्रद्वेष गच्छेयुः, यदुतास्माकमयं परिभवं करोति येन नास्मदीयं
गृह्णाति, 'परिहाणि'त्ति अग्रहणे च परिहाणिर्भवति भिक्षाया गच्छस्य वा तेनागृहीतेन 'भिक्खविसोहि'त्ति गर्य, इदानीं ॥१४॥ है महबय'त्ति व्याख्यायते
पाणिवहो तिसु गहणे पउंजणे कोंटलयस्स वितियं तु। तेणं उच्छुद्धाई परिग्गहोऽणेसणग्गहणे ॥२२१॥(भा०)
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६६०] .→ “नियुक्ति : [४१२] + भाष्यं [२२१] + प्रक्षेपं [२६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२१९||
त्रिषु गृहेषु यौगपद्यागतां भिक्षां यदा गृह्णाति तदा प्राणिवधः कृतो भवति, ततश्च प्रथमतभङ्गा, तथा 'चासी एकाकी। 8. कौटलं ज्योतिष निमित्तं वा प्रयुङ्गे, ततश्च अनृतस्य नियमेनैव सम्भवो यतस्तत्रोपचातकरमवश्यमुच्यते, उपधातजनक
चानृतं तदुच्चारणे द्वितीयत्रतभङ्गः । तेणं उच्छुद्धाई' अथ तत्र गृहे एकाकी प्रविष्टः सन् उच्छुद्ध-विक्षिप्त हिरण्यादि पश्यति ततश्च तद्हाति, एकाकिनो मोहसंभवात् , 'तेणं'ति ततः स्तैन्यदोषस्तृतीयवतभङ्ग इत्यर्थः, तथा कदाचि-IN देकाकी अनेषणीयमपि गृह्णीयात् , ततस्तस्मिन्ननेषणीये गृहीते परिग्रहकृतो दोषः, चतुर्थव्रतमत्र पृथम् नोक, मध्यमतीर्थक-13 राणां परिग्रह एव तस्यान्तर्भावात् , किल नापरिगृहीता स्त्री भुज्यत इति, पश्चिमस्य तु तीर्थकृतः पृथक् चतुर्थं प्रत, सन्म-6 तेन चतुर्धवतभङ्गं दर्शयन्नाह[विहवा पउत्थवइया पयारमलभंति दडुमेगागी। दारपिहाणय गहणं इच्छमणिच्छे य दोसा उ ॥ २२२॥ (भा०)
विधवा स्त्री, धवो-मनुष्यः स विनष्टो यस्या इति समासः, तथा प्रोषितभर्तृका, तधा या प्रचारं न लमते-निरुद्धा ध्रियते, सा एवंविधा त्रिप्रकारा स्त्री एकाकिनं साधुं प्रविष्टं दृष्ट्वा गृहे द्वारं ढङ्कयित्वा गृह्णीयात् , तत्र यद्यसौ तां स्त्रिय51 मिच्छति ततः संयमभंशः अथ नेच्छति सत उड्डाहः, सैव स्त्री लोकस्य कथयति, यदुतायं मामभिभवतीति, ततश्चोड्डाहः।। प्रतिद्वारगाथा व्याख्याता । कैः पुनः कारणैरसौ एकाकी भवति', तबाहगारविए काहीए माइल्ले अलस लुद्ध निद्धम्मे। दुल्लभअत्ताहिठिय अमणुने या भसंघाडो॥४१३॥ दारगाहर। 'मारथिए ति गर्वेण लब्धिसंपन्नोऽहमितिकृत्वा एकाकीभवति, तथा 'काहीए'त्ति भिक्षार्थं प्रविष्टो धर्मकथां करोति
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दीप अनुक्रम [६५८]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६६२] .→ "नियुक्ति: [४१३] + भाष्यं [२२२] + प्रक्षेपं [२६...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२२२||
श्रीओघ- महतीं वेलां तिष्ठति ततस्तेन सह न कश्चित्प्रयाति ततश्चैकाकीभवति, तथा मायावानेकाकीभवति, स हि शोभनं भु- गवेषणैषनियुक्तिः क्त्वाऽशोभनमानयति, स च द्वितीयं नेच्छत्यत एकाकीभवति, 'अलस' अन्येन सह प्रभूतं पर्यदितुमसमर्थस्तत एका- णायां संघा द्रोणीया
क्येवानीय भक्षयति, गच्छवैयावृत्त्येऽलसः स एकाकीभवति, 'लुद्ध'त्ति लुब्धो विकृतीः प्रार्थयति, ताश्च द्वितीये सति नाटित्व भा. वृत्तिः
IN२२२-२२४ शक्यन्ते प्रार्थयितुमत एकाकीभवति, निर्द्धर्मः अनेषणीयं गृह्णाति ततो द्वितीयं नेच्छति, 'दुखभत्ति दुर्लभे दुर्भिक्षे ॥१५॥ एकाकीभवति, तत्र हि एकैक एवं गच्छति येन पृथक् पृथग् भिक्षा लभ्यते, तथा 'अत्ताहिट्टिय'त्ति आत्माधिष्ठितो T RA यदात्मना लभते तदाहारयति अत्तलद्धिउत्ति जं भणिों, अथवा अमनोज्ञो-न कश्चित्प्रतिभाति रदनशीलत्वात्ततश्चैकाकी 81
एकाकित्वे
दोषाः हिण्डते, एवमसङ्घाटको भवति । इदानीं एतामेव गाथां भाष्यकारो याख्यानयति
संघाडगरायणिओ अलद्धिओमोयलडिसंपन्नो जेडग्ग पडिग्गहगंमुह गारवकारणा एगो।। २२३ ।।(भा०)
कस्यचित्सङ्घाटकस्य योऽसौ रत्नाधिका-पर्यायज्येष्ठः 'अलद्धिकत्ति अलब्धिकः-लब्धिरहितः 'ओम'त्ति पर्यायलघु-18 ईितीयः स च लब्धिसंपन्नः, ततो योऽसौ पर्यायेण लधुर्लब्धिमान् स भिक्षामटन्नग्रतो गच्छति रत्नाधिकश्च पृष्ठतो ब्रजति,
पुनश्च मण्डल्यां भोजनकाले आचार्या एवं भणन्ति, यदुत ज्येष्ठार्यस्याग्रतः पतद्भहं मुञ्च, पुनरसी ओमराइणिओ चिन्त-17 ४|यति, यदुतास्यां वेलायामयं ज्येष्ठायः सञ्जातो न तु भिक्षावेलायां ज्येष्ठार्यः सञ्जातः, अहं लभे यावता ज्येष्ठार्यस्य प्रथमं ॥१५०॥ है समर्प्यते, ततश्चानेन गर्वकारणेन एकाकी भवति-एकाक्येव हिंडति । 'गारविए'त्ति गयं, 'काहीउत्ति ब्याख्यायते
काहीउ कहेइ कहं बिहओ वारेइ अहव गुरुकहणं । एवं सो एगागी माइल्लो भद्दगं मुंजे ॥ २२४ ॥(भा०)
दीप अनुक्रम [६६२]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६६४] .→ "नियुक्ति: [४१३...] + भाष्यं [२२४] + प्रक्षेपं [२६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२२४||
दीप अनुक्रम [६६४]
भिक्षार्थ प्रविष्टः कथको धर्मका कुर्वन्नास्ते, ततश्च तस्य द्वितीयो धारयति-मा कृथा धर्मकथा ग्लानादयः सीदन्तीति, अथवाऽऽगत्य गुरोः कथयति यदुतायं धर्मकां कुर्वस्तिष्ठति, गुरुरपि तं निवारयति, यदि वारितोऽपि कथयति सदा स एवमेकाक्येच संजायते । 'काहिए'त्ति गर्य, मायावी भद्रकं भुते अत एव एकाकी गच्छति ॥ 'माइल्ले'त्ति गये, 'अलसेति व्याख्यायतेअलसो चिरं न हिंडइ लुद्धो ओहासए विगईओ। निद्धम्मो णेसणाई दुल्लहभिक्खे व एगागी ।। २२५ ॥(भा०)
अलसश्चिरं न हिण्डते कतिपयां भिक्षां गृहीत्वाऽऽगच्छति । 'अलसे'त्ति गर्य 'लुद्धो'त्ति भण्णति, लुब्धो विकृतीः|| प्रार्थयते, ततश्चैकाक्येव याति । 'लुद्धे'त्ति गयं 'णिद्धम्म त्ति भण्यते, निर्धर्मा अनेपणीयादि गृह्णाति, अपरसाधुप्रेरितश्चैकाकीभूयवाटति । 'णिद्धमेति गर्य, 'दुल्लभेति भण्यते, दुर्भिक्षे-दुर्लभभिक्षायां संघाट नेच्छति एकाक्येव भिक्षयति, ततश्काक्येव भवति, 'दुल्लभे'त्ति गतं, 'अत्ताहिडियोत्ति व्याख्यायते
अत्ताहिडियजोगी असंखडीओ वणि? सवेसि । एवं सोएगागी हिंडइ उवएसऽणुवदेसा ॥ २२६ ॥ (भा) | आत्माधिष्ठितेन लब्धेन भक्तादिना युज्यत इति आत्माधिष्ठितयोगी अत्तलद्धिओ इत्यर्थः, स एकाकी भवति । 'अ-IN ताहिडिए'त्ति गयं, 'अमणुनेत्ति व्याख्यायते-'असंखडिओ वणि? सवेसिं'ति कलहकारकः सर्वेषामनिष्टः सन् ४ ततश्चैकाकी क्रियते, एवमेभिः कारणरेकाक्यसी हिण्डते, उपदेशेन अनुपदेशेन वा, उपदेशेन गुरुणाऽनुज्ञातः अनुपदेशेनगुरुणाऽनुक्तः । व्याख्यातं सङ्घाटकद्वारम् , अधुनोपकरणद्वारमुच्यते
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६६७] . "नियुक्ति: [४१३...] + भाष्यं [२२७] + प्रक्षेपं [२६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२२७||
श्रीओघ- सबोवगरणमाया असह आयारभंडगेण सह । नयणं तु मत्सगस्सा न प परिभोगो विणा कज्जे ॥२२७॥(भा०) गवेषणेषनियुक्तिः
तत्रोत्सर्गतः सर्वमुपकरणमादाय भिक्षागवेषणां करोति, अथासौ सर्वेण गृहीतेन भिक्षामटितुमसमर्थस्तत आचार-IPणायाएका द्रोणीया
| कित्वं भा. वृत्तिः
लाभण्डकेन समं, आचारभण्डक-पात्रक पटलानि रजोहरणं दण्डकः कल्पद्वयं-औणिकः क्षौमिकश्च मात्रक च, एतद्गृहीत्वा|81
याति । 'उवगरणे'त्ति गयं, इदानी मात्रकग्रहणप्रतिपादनायाह-नयनं मात्रकस्य करोति भिक्षामटन , न च तस्य मात्रकस्य प्रमाणादी॥१५॥ कार्येण विना संसक्तादिना परिभोगः क्रियते । 'मत्तए'त्ति गर्य, 'काउस्सग्ग'त्ति व्याख्यायते
निसप्रतिआपुच्छणत्ति पढमा बिइया पडिपुच्छणा यकायचा । आवस्सिया य तइया जस्स य जोगो चउत्यो उ ।२२८। (
भाग
पक्षाणि पढम आपुग्छन्, यदुत-संदिसह उबओगं करेमि, एसा पढमा, उवओगकरावणिों काउस्सर्ग, अहिं उस्सासेहिं नमो
नि. ४१४ कारं चिंतेइ, ततो नमोकारेण पारेऊण भणति-संदिसह, आयरिओ भणइ-लाभो, साहू भणइ-कहत्ति, एसा पडिपुच्छा, ततो आयरिओ भणइ-तहत्ति, तओ 'आवस्सियाए जस्स य जोगों'त्ति जं जं संजमस्स उवगारे वट्टा तं तं गेण्हिस्सामि 'जस्स य जोगो'त्ति व्याख्यातम् । इदानीमेतान्येव प्रमाणादीनि द्वाराणि सप्रतिपक्षाण्यभिधीयन्ते, तत्र यदुतं प्रमाण-18 द्वारे-वारादयं प्रवेष्टव्यं, तस्य प्रतिपक्ष उच्यते, बारात्रयमपि प्रविशति, किमर्थमत आह
॥१५॥ आयरियाईणहा ओमगिलाणद्वया य बहुसोऽवि । गेलन्नखमगपाहुण अतिप्पएऽतिच्छिए यावि ॥ ४१४ ॥ आचार्यादीनामर्थाय बहुशोऽपि वाराः प्रविशति, ओमो-बालस्तदर्थ (ग्लानार्थ च) बहुशः प्रविशति । प्रमाणयतनोक्ता,
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अथ प्रमाणादि द्वाराणि वर्णयन्ते
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६६९] → नियुक्ति: [४१४] + भाष्यं [२२८] + प्रक्षेपं [२६...]
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प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२२८||
ASANSAR
इदानीं यदुक्तं कालद्वये प्रवेष्टव्यं तत्प्रतिपक्ष उच्यते, ग्लानक्षपकपाघूर्णार्थमतिप्रत्यूषस्यपि प्रविशति तथा 'अतिच्छिए वावि'त्ति अतिक्रान्तायामपि भिक्षावेलायां प्रविशति बहुशः ॥ अणुकंपापडिसेहो कयाइन हिंडेज वा न वा हिंडे । अणभोगि गिलाणहा आवस्सगऽसोहइत्ताणं ॥४१॥ दारी | स च प्रत्यूषस्येव प्रविष्टः कस्मिंश्चिद् गृहे ग्लानार्थं, लब्धं च तत्तेन तत्र, ततश्च गृहपतिः पुनर्भणति अनुकम्पया, यदुत पुनरपि त्वया ग्लानार्थमस्यां वेलायामागन्तव्यं, ततश्चासौ साधुः प्रतिषेधं करोति, कथं, ते गृहस्थमेवं भणति, यदुत प्रत्यूपसि श्वः कदाचिदहं हिंडेजा कदाचिन्न हिंडेजत्ति, एवं भणतेण आगंतुका उग्गमदोसा परिहरिया हवंति न च प्रति
धः कृतो भवति । उक्ता कालयतना, अधुनाऽऽवश्यकयतनोच्यते-कदाचिदसौ साधुरनाभोगेन 'आवश्यक' कायिका-12 व्युत्सर्गलक्षणमकृत्वा ग्लानार्थ त्वरितं गतः। | आसन्नाउ नियत्ते कालि पहुप्पंति दूरपसोधि । अपहप्पते तत्तो चिय एगु घरे वोसिरे एगो ॥ ४१६ ॥
तत आसन्नात्सञ्जातकायिकाद्याशको निवर्त्तते, कालो. पहुप्पइ यदि ततो दूरगतोऽपि निवर्त्तते, अथ निवर्तमानस्य | कालो न पहुप्पा 'सत्तोचिअ' तत एव यतो भिक्षार्थ गतस्तत एव व्युत्सृजति, कथम् ?, एकः साधु जनं धारयति एकस्तु व्युत्सृजति कायिकादि।
भावासन्नो समणुन अन्नओसन्नसहचेजघरे । सल्लपरूवणवेजो तस्थेव परोहडे वावि ॥ ४१७ ॥ अथवा 'भावासन्नः' असहिष्णुरत्यन्तं भवति ततः समनोज्ञा यदि तत्र क्षेत्र आसन्ना अन्यस्मिन् प्रतिश्रये ततस्तत्र |
रकA SSAGE
दीप अनुक्रम [६६९]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६७२] → “नियुक्ति: [४१७] + भाष्यं [२२८...] + प्रक्षेपं [२७]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
द्रोणीया
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४१७||
वृत्तिः
प्रविश्य व्युत्सृजति । 'अण्ण'त्ति अथासमनोज्ञास्तत्रासन्नास्ततस्तद्वसतौ प्रविश्य व्युत्सृजति, तदभावेऽवसन्नानां वसती व्युस्स-ट्राप्रमाणादीनियुक्तिः जति तदभावे श्राद्धगृहे, तदभावे वैद्यगृहे व्युत्सृजति, तत्र च वैद्यगृहे प्ररूपयति यदुत 'तिष्णि सल्ला महाराय' इत्येवमादि,
|निसप्रतिततश्चासी वैद्यः स्मारिखे ग्रन्थ एवं भणति 'एत्थेव'त्ति अत्र पश्चाद्गृहे व्युत्सृज, 'परोहडे वा' गृहस्य पश्चादङ्गणे
पक्षाणि नि.
४१५-४१८ व्युत्सृजति, यतोऽसौ मध्यप्रदेशः, स च नरपतेः परिग्रहः ततः कलहादिर्न भवति । ॥१५॥
उग्गहकाईयवज्ज छंडण ववहारु लन्मए तत्थ । गारविए पन्नवणा तव चेव अणुग्गहो एस ।। ४१८॥ तदभावे गृहस्थसत्केऽवग्रहे परिगृहीते तस्मिन्नपि व्युत्सृजति, कथं ?, कायिकाषर्ज पुरीषमुत्सृजन्नपि कायिकी न व्युत्सृजति । किं कारणं ?, जओ छडणे ववहारो लन्भइ, जदि गिहत्थो भणेजा-उड्डेहि, तो न छड्डेड, यवहार राउले करेइ । जहा चाणकएऽवि भणिअं-'जइ काइयं न वोसिरह ततो अदोसों । अयमित्थंभूतस्तत्र व्यवहारो लभ्यते, ततः कायिकां न ब्युत्सृजति । उक्ताऽऽवश्यकयतना, अधुना सङ्घाटकयतनोच्यते, तत्र चेयं प्रतिद्वारगाथोपन्यस्ताऽऽसीत् “गारविएकाही" त्येवमादिका, तस्या यतनोच्यते, तत्र “गारविए त्यस्य पदस्य यतनामाह-गारविए पन्नवणा' योऽसौ-14 ओमरायणिको लब्ध्या गर्वितः सन्नेकाकी भवति तमाचार्यों धर्मकथया प्रज्ञापयति, यदुत तवैवायमनुग्रहो यत्त्वदीय-131॥१५२||
लन्ध्युपष्टम्भेन स्वाध्यादि कुर्वन्तीति । गारवियजयणा गया, एवमिदमुपलक्षणं वर्तते, अन्येषामपि कर्थिकमायाविअल-12 दसलुब्धनिर्द्धर्माणां प्रज्ञापना कर्तव्या । इदानी दुर्लभपदव्याख्यां कुर्वनिदमाह
दीप अनुक्रम [६७२]
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awranasurary.org
अत्र एका प्रक्षेप-गाथा वर्तते. मया संपादित “आगम सुत्ताणि” मूलं अथवा सटीकं पुस्तके सा मुद्रिता अस्ति
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६७५] . "नियुक्ति: [४१९] + भाष्यं [२२८...] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
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प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४१९||
जइ दोण्ह एग भिक्खा न य वेल पहुप्पए तओ एगो । सवि अत्तलाभी पडिसेहमणुन्नपियधम्मे ॥ ४१९॥ | यदि तत्र क्षेत्रे पर्यटतामेकैव भिक्षा द्वयोरपि लभ्यते न च कालः पर्याप्यते-नय पहुष्पइ तदा एकाकिन एव हि*ण्डन्ते । दुर्लभयतनोक्का, इदानीं अत्ताहिट्टिययतनोच्यते-यदि ते सर्व एव खग्गूडा अत्तलद्धिया होइउमिच्छति तदाऽs-|
चार्यः प्रतिषेधं करोति, अथ कश्चित्प्रियधर्मा आत्मलब्धिको भवति तत आचार्योऽनुज्ञां करोति, ततश्चैवमेकाकी भवति, अत्ताहिडिअजयणा भणिया, अमणुण्णयतनां प्रतिपादयन्नाह
अमणुन अन्नसंजोइया उ सबेवि णेच्छण विवेगो । पहुगुणतदेकदोसे एसणवलवं नउ विगिचे ॥४२०॥ 8| यद्यसी 'अमनोज्ञः' रटनशीलस्ततोऽन्यस्य संयोज्यते तेन सह हिण्डते, अथ सर्व एव नेच्छन्ति ततस्तस्यामनोज्ञस्य ४ विवेकः परित्यागः क्रियते, अथासी बहुगुणसंपन्नः किन्तु स एवैको दोषः रटनशील इति एषणायां च बलवांस्ततो नासौ परित्यज्यते । भणिया अमणुण्णजयणा, अधुना यदुक्तम्-“एगाणियस्स" इत्येवमादि तेषां यतनोच्यते, आह-किं पुनः18 कारणमुत्क्रमेण ख्यादीनां पदानां यतनोच्यते ?, उच्यते, गर्वितकधिकादयः प्रज्ञापिताः सन्तः कारणवशादेकाकिनोऽपि भिक्षामदन्ति, ततश्चैकाकिनामटतां यद्यपि स्वीकृता दोषा भवन्ति तथाऽपि तत्रेयं यतना, इदानीं या गाथोपन्यस्ताऽs|सीत् यदुत "एगाणियस्स दोसा" इत्यादिका, तत्र यतनां प्रतिपादयन्नाह
इत्थीगहणे धम्म कहेइ वयठवण गुरुसमीवंमि । इह चेवोवर रजू भएण मोहोवसम तीए ॥ ४२१॥ । एवं तस्यैकाकिनो गतस्य सतः स्त्रीग्रहणे सति-स्त्रिया गृहीतः सन् धर्मकथां करोति, यदुत नरकगमनाय मैथुनासेवे-द्र
दीप अनुक्रम [६७५]
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६७७] .. "नियुक्ति: [४२१] + भाष्यं [२२८...] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
पक्षाणि नि.
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४२१||
दीप अनुक्रम [६७७]
हत्येवमादिका, अध कधितेऽपि धर्मे न मुश्चति ततो भणति यदुत व्रतानि गुरुसमीपे स्थापयित्वाऽऽगच्छामीति, एसदभि- प्रमाणादीनियुक्तिः
निसप्रति धाय नश्यति, अथ तथाऽपि न लभ्यते गन्तुं ततो भणति इहैवापवरके व्रतमोक्षणं करोमीति तन्त्र च प्रविशप्ति, उल्लम्बनाई। द्रोणीया वृत्तिः
रखं च गृह्णाति, ततस्तेन भयेन कदाचिन्मोहोपशमो भवति, मोहनरसो भयेन हियते, अथैवमपि न मुञ्चति ततो नियत १-४२३
एवेति । उक्ता स्त्रीयतना, इदानीं श्वादियतनोच्यते॥१५३॥
साणा गोणा इयरे परिहरऽणामोगकुडकडनीसा । बारह य दंडएणं वारावे वा अगारेहिं ॥ ४२२ ॥ श्वानो गवादयश्च येषु गृहेषु तानि परिहरति, अथानाभोगेन कथमपि प्रविष्टः प्रत्यनीकैश्च गृहीतुमारब्धस्ततः कुड्यकटनिश्रया तिष्ठति, कुड्यं कटं वा पृष्ठे करोति अग्रतो दण्डकेन वारयति अगारैर्वा वारयति । उका श्वयतना, इदानीं पडिणीययतनोच्यते
पडिणीयगेहवजण अणभोगपचिट्ठ पोलमिक्खमणं । मज्झे तिण्ह घराणं उवओग करेउ गेण्हेजा ॥ ४२३ ॥ । एकाकिना प्रत्यनीकगृहे न प्रवेष्टव्यं, अथानाभोगेन प्रविष्टः प्रत्यनीकैश्च ग्रहीतुमारब्धस्तती पोलं करीति-मुच्छन्दपति | येन लोको मिलसि, तत आकुले निष्कामति । उक्का प्रत्यनीकयतना, अधुना भिक्षाविशोधियतनोच्यते-मध्ये खिसख
A ॥१५॥ याणामपि गृहाणामुपयोग दत्त्वा पक्या स्थितानां भिक्षा गृह्णाति, उक्ता भिक्षाविशोधियतना, अधुना पञ्चमहानतयतनोच्यते, तत्र भिक्षायामुपयोग ददता प्राणातिपातसंरक्षणं कृतमेव, इदानी द्वितीयमहानतयतनां प्रतिपादनायाह
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६८०] → “नियुक्ति : [४२४] + भाष्यं [२२८...] + प्रक्षेपं [२७...]" .. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ॥४२४||
++
बॅटल पद्धो न याणे आयन्नातीणि वजाए ठाणे । सुद्धं गधेस संछ पंचाइयारे परिहरतो ॥ ४२४ ॥ वेण्टलं-निमित्तादि पृष्टः सन्नेवं भणति-न जाने, एवं भणता द्वितीयमहाव्रतयतना कृता भवति । इदानीं तृतीयमहाव्रतयतनां दर्शयन्नाह-'आयण्णाईणि वज्जए ठाणे' तत्र भिक्षार्थं प्रविष्ट आकीर्णादिस्थानं परिवर्जयेत् , यत्र हिरण्यादि विक्षिप्तमास्ते तदाकीर्णस्थानं तच्च साधुना वर्जनीय, एवं तृतीयमहाव्रतयतना कृता भवति । इदानी पञ्चममहाव्रतयतना प्रतिपादयन्नाह-'शुद्धम्' उद्गमादिदोषरहितं 'गवेषयति' अन्वेपयति 'उञ्छ' भकं पश्चाप्यतीचारान् रक्षन् । उक्ता पश्चममहाव्रतयतना, चतुर्थमहाव्रतयतना तूक्तैच, "इत्धिग्गहणे धर्म" इत्येवमादिना, उक्का सङ्घाटकयतना, इदानीमुपकरणयतनाप्रतिपादनायाह
जहन्नेण चोलपट्टो चीसरणालू गहाय गच्छेज्जा । उस्सग्ग काउ गमणे मत्सयगहणे इमे दोसा ॥ ४२५ ॥ | उत्सर्गस्तावनिक्षार्थं गच्छता सर्वमुपकरणं गृहीत्या गन्तव्यं, यस्तु विस्मरणालुः स जघन्येन चोलपट्टकमादाय गच्छति, उपलक्षणं चात्र चोलपट्टकोऽन्यथा पात्रकं पटलानि रजोहरणं दण्डकं कल्पद्वयं च गृहीत्वा गच्छति । उक्कोपकरणयतना, इदानी मात्रकयतनां प्रतिपादयन्नाह-मात्रकं गृहीत्वा गन्तव्यं, अगृहीत्वा वोत्सर्गमिति-उपयोगं कृत्वा प्रजति, अथ मात्रक न गृह्णाति गच्छंस्ततश्च मात्रकाग्रहणे एते च दोषाः वक्ष्यमाणाः, अत्र च यदुत्सर्गग्रहणं कृतं तद्विधिप्रदर्शनार्थ न |तु पुनः स्वस्थानमिति । इदानी मात्रकाग्रहणे दोषान् प्रदर्शयन्नाह- .
CASSACARSACACADE
दीप अनुक्रम [६८०]
CCASSES
Bhauranorm
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६८३] → "नियुक्ति: [४२६] + भाष्यं [२२९] + प्रक्षेपं [२७...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४२६||
२३१
श्रीओघ- आयरिए य गिलाणे पाहुणए दुल्लहे सहसलाभे । संसत्तभत्तपाणे मत्सगगहणं अणुन्नायं ॥ ४२६ ।।
प्रमाणादीनियुक्तिः आचार्यार्थ ग्लानार्थ प्राघूर्णकार्थ वा दुर्लभ वा किञ्चिल्लभ्यते तदर्थ, 'सहसा' अकस्मात्किश्चित्कदाचिल्लभ्यते तदर्थ, निसप्रतितथा संसक्तभक्तपानमहणार्थ मात्रकग्रहणमनुज्ञातम् । इदानीमेतामेव गाथां भाष्यकारो व्याख्यानयति
पक्षाणि नि. वृत्ति पाउग्गायरियाई कह गिण्हउ मत्तए अगहियंमि । जा एसि विराहणया दवभाणे जं दवेण विणा ॥२२९॥ (भा०) ४२४-४२६
भा. २२९प्रायोग्यमाचार्यादीनां क गृह्णातु मात्रके अगृहीते सति ?, अग्रहणाच्च या तेषामाचार्यादीनां विराधना सा तेनाङ्गी-18 ॥१५॥
&ाकृता भवति, अथैवं मन्यसे द्रवभाजने गृह्णातु ततश्चैवं द्रवेऽगृहीते तेन विना या विराधना सा तदवस्थैव, आदिनपाहणाद् ग्लानप्राघूर्णका अपि व्याख्याता एव । दुल्लहदर्ष व सिया घयाइ गिण्हे उपग्गहकरं तु । पउरऽन्नपाणलंभो असंथरे कस्थ य सिया उ ।। २३०॥ (भा०)
दुर्लभं वा द्रव्यं घृतादि 'स्यात् भवेत् ततस्तत्र घृतादि गृह्यते यत उपग्रहं करोति-अवष्टम्भं करोति तत्, सहसा-आक, स्मिकपचुरानपानलम्भः स्यात्ततः असंस्तरतां प्रनजितानामात्मानं कृच्छ्रेण यापयतां कुत्रचित् स्याब्रहणमिति । तथा च| संसत्तभत्तपाणे मत्तग सोहेज पक्खिचे उवरि । संसत्तगं च णा परिदृवे सेसरक्खहा ॥ २३१॥ (भा०)
संसक्तभक्तपानग्रहणे सति मात्रके 'शोधयित्वा' प्रत्युपेक्ष्य सक्तुकाञ्जिकादि पात्रकस्योपरि प्रक्षिपेत् । अथ तत्पानकादि गृहीतं मात्रके किन्तु अशुद्धसंसक्तं जातं, ततश्चैवं ज्ञात्वा विधिना तस्मिन्नेव क्षणे परिष्ठापयति, किमर्थं , शेषभक्त-II॥१५॥ रक्षणार्थ, मा भूत्तगन्धेन शेषस्यापि संसक्तिः स्यात्, तस्मान्मात्रक ग्रहीतव्यं, एभिश्च कारणने गृह्णाति
दीप अनुक्रम [६८३]
REmaina
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६८५] .→ "नियुक्ति: [४२७] + भाष्यं [२३१] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ॥४२७||
गेलन्नकज्जतुरिओ अणभोगेणं च लित्त अग्गहणं । अणभोगगिलाणट्ठा उस्सग्गादीणि नवि कुजा ।। ४२७॥ ___ ग्लानकार्येण त्वरितो गतः ततश्चैवं न गृह्णाति, अनाभोगेन वा निर्गतो यदि, लिप्तं वा लेपेन तत् मात्रक यदि, तत-18|| वैवाग्रहणं मात्रकस्य संभवतीति । उक्ता मात्रकयतना, इदानी उत्सर्गयतनाप्रतिपादनायाह-अनाभोगेन उत्सर्ग-उप-18 योग न कुर्यात्, ग्लानार्थ वा त्वरित उत्सर्ग न कुर्यात्, आदिग्रहणादावश्यकं च न कुयादिति । उत्सर्गयतनोका, इदानीं “जस्स जोगो” अस्य विधिरुच्यतेजस्स य जोगमकाऊण निग्गमो न लभई तु सच्चित्तं । न य वत्थपायमाई तेणं गहणे कुणसु तम्हा ॥ ४२८ ॥
जस्स य जोग इत्येवं 'अकृत्वा' अभणित्वा निर्गतः सन् एवं 'न लभते' न भवत्याभाव्यं 'सचित्त' प्रवज्यार्थ-IN मुपस्थितं गृहस्थं, नाप्यचित्तं वनपात्रकादि, अथ यस्य योग इत्येवमकृत्वा गृह्णाति ततः स्तैन्यं भवति, तस्मात्कुरु
यस्य योग इत्येवम् । INसो आपुछि अणुनाओ सग्गामे हिंड अहव परगामे । सग्गामे सइ काले पते परगामि चोच्छामि ॥ ४२९॥ | आपुच्छणा णाम 'संदिसह उपओगं करेमित्ति, बितिया पडिपुच्छणा-कह गिण्हामित्ति, गुरू भणइ-तहत्ति, यथा पूर्व
साधवो गृह्णन्तीत्यर्थः, एवमसी अनेन क्रमेण प्रच्छने कृते सत्यनुज्ञात आवश्यकी कृत्वा यस्य च योग इत्येवमभिधाय निर्गत्य ६ है स्वग्रामे हिण्डते, अथवा ‘परमामे' समीपग्रामे, तत्र स्वनामे यदि हिण्डते ततः 'सति काले' प्राप्तायां भिक्षावेलायामि
त्यर्थः, इदानीं परग्रामे वक्ष्यामि हिण्डतो विधिम्
दीप अनुक्रम [६८५]
ACCOASA
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६८९] .. "नियुक्ति: [४३०] + भाष्यं [२३१...] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४३०||
नियुकिः द्रोणीया वृत्तिः
SOORAKAR
॥१५५॥
दीप अनुक्रम [६८९]
पुरतो मुगमायाए नंतूर्य अन्नगामवाहिठिओ। तरुणे मज्झिमधेरे नव पुच्छाओ जहा हेट्ठा ॥ ४३०॥ प्रमाणादीपुरतो युगमात्रं निरीक्षमाणो 'गत्वा' अन्यग्राम संप्राप्य बहिर्व्यवस्थितः पृच्छति-किं विद्यते भिक्षावेलाऽत्र ग्रामे उत | निसप्रतिन १, कान् पृच्छतीत्यत आह-तरुणं मध्यम स्थविरं, एकैकस्य वैविध्यान्नव पृच्छाः कर्तव्याः, यथाऽधस्तात्प्रतिपादितस्त-151
पक्षाणि नि. थैवात्रापि न्यायः, तत्र तरुणं स्त्रीपुंनपुसकं मध्यमं स्त्रीपुनपुसकं स्थविरं खीपुंनपुंसकमिति । एवं पृष्ट्वा यदि तत्र भिक्षावेला
४२७-४२९ तत्क्षण एव ततः को विधिरित्यत आह
x परनामे
भिक्षा नि. पायपमजणपडिलेहणा उ भाणवुम देसकालंमि । अप्पत्तेऽचिय पाए पमज पत्ते व पायदुर्ग ॥ ४३१॥ ४३०-४३२ तत्र हि ग्रामासन्ने उपविश्य पादप्रमार्जनं करोति, किं कारणं ?, तत्पादरजः कदाचित्सवितं भघति कदाचिन्मिश्र लग्नं 18 भवेत्, प्रामे च नियमादचित्तं रजोऽतः प्रमार्जयति, पुनश्च प्रत्युपेक्षणां करोति पात्रद्वितयस्य-पतहस्य मात्रकस्य च, एवं 'देशकाले' भिक्षावेलायां प्राप्तायां करोति, अधाद्यापि न भवति भिक्षाकालस्ततस्तस्मिन्नप्राप्ते भिक्षाकाले पादौ प्रमार्टि, ततस्तावदास्ते यावशिक्षाकालः प्रातः, ततस्तस्मिन् प्राक्षे सति तस्यां वेलायां पात्रद्वितर्थ प्रत्युपेक्षत इति । एवमती पात्रद्वितयं प्रत्युपेक्ष्य प्रामे प्रविशन् कदाचिस्मणादीनि पश्यति ततस्तान पृच्छति, एतदेषाह| समणं समणि सावगसावियगिहि अन्नतिथि यहि पुच्छे। अत्थिर समण ? सुविहिया सिढे तेसालयं गच्छे।।४३२१५५||
श्रमणं श्रमणीं श्रावक श्राविकां गृहस्थमन्यतीथिकान् वा बहिर्दृष्ट्वा पृच्छति, एताननन्तरोक्कान् सर्वान् दृष्ट्वा पृच्छति
RELIEOture
Hemrary.org
परग्रामे भिक्षा, स्थापनाकुल पृच्छा आदि विधि" वर्णयन्ते
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६९१] → “नियुक्ति : [४३२] + भाष्यं [२३१...] + प्रक्षेपं [२७...]" .. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४३२||
भाभत्र सन्ति श्रमणाः, किंविशिष्टाः-शोभनं विहितमेषामिति सुविहिताः-शोभनानुष्ठानाः, ततश्चैतेपामन्यतमेन कथिते 8 सति ततस्तेषामेव-श्रमणादीनां 'आलयं आवासं गच्छेत् । ततस्तेषां आलयं प्राप्य किं करोति । इत्याह
समणुण्णेसु पवेसो बाहिं ठविऊण अन्न किइकम्मं । खग्गूडे सन्नेसुं ठवणा एकछोमवंदणयं ॥ ४३३ ॥ PI यदि हि ते समनोज्ञाः-एकसामाचारीप्रतिबद्धास्ततस्तेषां मध्ये प्रविशति अन्ये-असमनोज्ञा भवन्ति यदि ततो बाह्यत
उपकरणं स्थापयित्वा प्रविश्य 'कृतिकर्म द्वादशावर्त्तवन्दनं ददाति, अथ ते संविग्नपाक्षिका अवसन्ना भवन्ति ततो Cीबहिर्व्यवस्थित एव वन्दनं कृत्वाऽवाधां पृच्छति, अथ ते 'अवसन्नाः खग्गूडप्रायास्ततो बहिरेवोपकरणं स्थापयित्वा पुनश्च
प्रविश्य तेषामुच्छोभवन्दनं करोति । 5 गेलनाइ अबाहा पुच्छिय सयकारणं च दीवेत्ता। जयणाए ठवणकुले पुच्छह दोसा अजयणाइ ॥ ४३४॥
। एवं सर्वेष्वेतेष्वनन्तरोदितेषु समनोज्ञादिषु प्रविश्य ग्लानाद्यबाधा पृष्टा स्वकीयमागमनकारण 'दीपयित्वा' निवेद्य दायितनया' मधुरबागलक्षणया, यदिवा वक्ष्यमाणलक्षणया स्थापनाकुलानि पृच्छति । अयतनया पृच्छतो दोषः वक्ष्यमा
लक्षणो यतोऽतो यतनया पृच्छति । एतानि तानि स्थापनाकुलानि| दाणे अभिगमसहे संमत्ते खलु तहेव मिच्छत्ते । मामाए अचियत्ते कुलाइ जयणाइ दायति ।। ४३५ ॥ - दानश्राद्धकोऽभिगमश्राद्धको-यत्र कारणे आपन्ने प्रविश्यते सम्यक्त्वधरकुलं मिथ्यात्वकुलं मामाकः-मा मम समणा
परमईतु तत्कुलं 'अचियत्त' अदानशील कुलं, एतानि कुलानि ते वास्तव्यास्तस्य साधोर्यतनया दर्शयन्ति ।
दीप अनुक्रम [६९१]
arvasaram.org
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६९५] → “नियुक्ति : [४३६] + भाष्यं [२३१...] + प्रक्षेपं [२७...]" .. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४३६||
वृत्तिः
।
सागारि वणिम सुणए गोणे पुन्ने दुगुंछियकुलाई। हिंसागं मामागं सवपयत्तेण वजेला ॥ ४३६ ॥ परग्रामेश्रनियुक्तिः सागारिक:-शय्यातरस्तनहं दर्शयन्ति, तथा वणीमओ-दरिद्रस्तद्रह दर्शयन्ति, तत्रैतदर्थं न गम्यते, स हि दरिद्रोड-IPमणादिस्था द्रोणीयासति भक्ते लज्जां करोति, यद्वा यत्किश्चिदस्ति तद्दत्त्वा पुनरात्मार्थ रन्धनं करोति, तथा श्वा यत्र दुष्टो गृहे तच्च, गौर्वा पनाकुल
यत्र दुष्टो गृहे तच्च, 'पुषणे'त्ति पुण्यार्थ यत्र बहु रन्धयित्वा श्रमणानां दीयते, अधवा पूर्ण यद्गृहस्थैर्बहुभिस्तञ्च दर्शयन्ति, १५
४३३-४३७ जु गुप्सितं-छिम्पकादि तच्च, हिंसाग-सीकरिकादिगृहं तच्च मामाकं चोक्तं, एतानि दर्शितानि सन्ति सर्वयलेन परिहर्स-1
व्यानीति । इदानी यदुक्तं 'यतनया स्थापनाकुलानि पृच्छनीयानि कथनीयानि च' तत्प्रतिपादनायाहदयाहाए अंगुलीय व लट्टीइ व उज्जुओ ठिओ संतो। न पुच्छेज न दाएजा पचावाया भवे दोसा ॥ ४३७ ।।
बाहु प्रसार्य गृहाभिमुखं न दर्शयन्ति नापि पृच्छति, तथाऽगुल्या यष्ट्या न पृच्छति नापि कथयति, ऋजुहाभिमुखः स्थितो न पृच्छेत् साधुनापि दर्शयेद् , यतस्तत्र दोषाः, किंविशिष्टाः-प्रत्यपायजनिता भवन्ति । के च ते प्रत्यपायाः' इत्याहअगणीण व तेणेहि व जीवियववरोवणं तु पडिणीए । खरओ खरिया मुण्हा णडे बट्टक्खुरे संका ॥ ४३८॥
यया दिशा साधुना बाई प्रसार्य गृहं पृष्टं तेन बाह्वादि प्रसार्य तत्कथितं गृहं कदाचिदग्निना दग्धं भवति ततश्च गृहपतिस्तं साधुमाशङ्कते, यदुत तेन साधुनाऽन्यस्य साधोस्तिनेऽहनि दर्शितमासीत्तद्यदि तत्कृतोऽयं पातः स्यात्, १५६॥ नान्यः, स्तेनकैर्वा मुषितं भवति जीवितव्यपरोपणं वा गृहस्थस्य प्रत्यनीकेन कृतं भवति तत आशङ्का साधोरुपरि भवति, कदाचिद्वा खरिय'त्ति यक्षरिका-कर्मकरी नष्टा भवति, 'खरओं यक्षरो वा कर्मकरः प्रायो नश्यति, सुण्हा वा-स्नुषा
दीप अनुक्रम [६९५]
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६९७] - "नियुक्ति: [४३८] + भाष्यं [२३१...] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४३८||
AAAAASTAKES
केनचित्सह गता, एतेषु नष्टेषु सत्सु साधोरुपरि शङ्का भवति, यदुत तस्कृतोऽयं घात इति, 'वृत्तखुरः' अश्वप्रधान
नचिदपहती भवेत्ततश्च साधोरुपरि बाहादिना दर्शयतः शङ्का भवति ॥ इदानीं यानि प्रतिकुष्टकुलानि कथितानि तान्ये४ भिरभिज्ञानैर्वजयति
पडिकुटकुलाणं पुण पंचविहा थूभिआ अभिन्नाणं । भग्गघरगोपुराई रुक्खा नाणाविहा चेव ॥४३९॥
तेषां प्रतिकुष्ठकुलानां पश्चविधा स्तूपिकाऽभिज्ञानं भवति, भग्नगृहसमीपादौ वा तथा गोपुरसमीपे बहिरन्तर्वा वृक्षा नानाविधा अभिज्ञानं प्रतिषिद्धकुलानाम् । इतश्च स्थापनाकुलेषु न प्रवेष्टव्यं, यतः
ठवणा मिलक्खुनेहुँ अचियत्तघरं तहेव पडिकुटुं । एवं गणधरमेरं अइकमंतो बिराहेजा ॥४४॥ स्थापनाकुलानि तथा 'मिलक्खू' म्लेच्छगृहं तथा अचियत्तगृहं तथा प्रतिकुष्टं छिम्पकादिगृहं सूतकोपेतगृहं वा,* एतेषु न प्रवेष्टव्यं, इयं 'गणधरमेरा' गणधरस्थितिस्ततश्चैतां मर्यादां प्रवेशेनातिक्रामन् विराधयति दर्शनादि । आहप्रतिकुष्टकुलेषु प्रविशतो न कश्चित् षडूजीववधो भवति किमर्थं परिहार इति !, उच्यते
छकायदयावंतोऽपि संजओ दुल्लहं कुणइ योहिं । आहारे नीहारे दुगुंछिए पिंडगहणे य ॥४४१॥ सुगमा ॥ नवरम् -आहारनौहारौ यद्यगुप्तः सन् करोति, 'जुगुप्सितेषु' छिम्पकादिषु यदि पिण्डग्रहणं करोति ततो दुर्लभां बोधि करोतीति । ननु च ये इह जुगुप्सितास्ते चैवान्यत्राजुगुप्सितास्ततः कथं परिहरणं कर्तव्यं ?, उच्यते
जे जहि दुगुंछिया खलु पचावणवसहिभत्तपाणेसु । जिणवयणे पडिकुटा बजेयवा पयत्तेणं ॥ ४४२ ॥
दीप अनुक्रम [६९७]
को०२०
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७०१] . "नियुक्ति: [४४२] + भाष्यं [२३१...] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४४२||
श्रीओघनियुक्तिः द्रोणीया वृत्तिः
जैन नि.
॥१५७॥
दीप अनुक्रम [७०१]
ये 'यस्मिन' विषयादी जुगुप्सिताः प्रवज्यामङ्गीकृत्य वसतिमङ्गीकृत्य तथा भक्तं पानं चाङ्गीकृत्य ते तत्र वर्जनीयाः, तत्थ गवेषणेषपवावणं प्रतीत्य अवरुन्धिका ण पथावणजोग्गा वसहिभत्तपाणेसु जोग्गा, वसहिमङ्गीकृत्य जुगुप्सितो भंडाण वाडओ तत्थ वसईणायां प्रतिन कीरइ, जतो तत्थ गाइयवनच्चियवएण असल्झायादि होइ, पवावणभत्तपाणेसु पुण जुग्गो, तथा भक्तपानग्रहणेषु जुगुप्सितानि कुष्टकुलबसूतकगृहाणि पचावणेसु य, ताणि पुण वसहिं अपणत्थ दवावेंति, अण्णाणि पुण तिहिघि दोसेहिं दुहाणि कम्मकराईणि, एते
तिहासारण
४३९-४४१ जिनवचनमतिकुष्टा वर्जनीयाः प्रयलेन । अथवा पश्चार्द्धमन्यथा व्याख्यायते, पधावणे दुगुंछिया एते
अट्ठारस पुरिसेसुं वीसं इत्थीसु दस नपुंसेसुं । पचावणाए एए दुगंछिया जिणवरमयंमि ॥ ४४३ ॥ पबावणे जिणवयणे पडिसिद्धा, धसहिदुगुछिया ओसण्णा अमणुण्णा वा, भत्तपाणेवि एते चेव, एते जिनवचनप्रतिकुष्टाः। दोसेण जस्स अयसो आयासो पवयणे य अग्गहणं । विप्परिणामो अप्पचओ य कुच्छा य उप्पज्जे ॥४४४ ॥
सर्वधा येन केनचित् 'दोषेण' निमित्तेन यस्य संबन्धिना 'अयश:' अश्लाघा 'आयासः' पीडा प्रवचने भवति, अग्रहणं वा विपरिणामो वा श्रावकस्य शैक्षकस्य वा तन्न कर्तव्यं, तथाऽप्रत्ययो वा शासने येन भवति यदुतैतेऽन्यथा बदन्ति अन्यथा कुर्वन्ति एवंविधोऽप्रत्ययो येन भवति तन्न कर्त्तव्यं, तथा जुगुप्सा च येनोत्पद्यते यदुत वराकका एते दयामनका
॥१५७॥ स्तदेवंविधं न किश्चित्कार्यम् । यस्तु पुनरेवं करोति तस्येदमुक्तं भगवतापवयणमणपेहंतस्स तस्स निद्धंधसस्स लुद्धस्स । बहुमोहस्स भगवया संसारोऽणतओ भणिओ ।। ४४५ ॥
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गवेषणा. एषणा इत्यादिनाम् वर्णनं
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७०४] . "नियुक्ति: [४४५] + भाष्यं [२३१...] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ॥४४५||
प्रवचनमनपेक्षमाणस्य तस्य 'निद्धन्धसस्य' निःशूकस्य लुब्धत्य बहुमोहस्य भगवता संसारोऽनन्त उक्त इति । तथा न| | केवल बहुमोहस्यैतद्भवति योऽप्यन्यस्तस्याप्येवं कुर्वतोऽनन्त एव संसारः, एतदेवाह
जो जह व तह व लई गिण्हा आहारउवहिमाईयं । समणगणमुक्कजोगी संसारपबहओ भणिो ॥ ४४६॥ | सुगमा ॥ एवं तावरज्ञानवतामपि दोषः, ये तु पुनराचार्येण मुण्डितमात्रा अगीतार्थी एव मुक्तास्ते सुतरामज्ञानादेव एषणादि न कुर्वन्ति, एतदेवाहएसणमणेसणं वा कह ते नाहिति जिणवरमयं वा । कुरिणमिव पोयाला जे मुका पपईमेशा ॥४४७ ॥
सुगमा ॥ नवरं 'कुरिणमि' महति अरण्ये 'पोयाला' मृगादिपोतलकास्त इह यूथपतिना मुक्ताः सन्तो विनश्यन्ति एवं तेऽपीति । एवं तावदाचार्यदोषेणैवंविधा भवन्ति, एते तु स्वदोषेण भवन्ति, के च ते!, अत आह-- गच्छमि के पुरिसा सउणी जह पंजरंतरनिरुद्धा । सारणवारणचइया पासत्थगया पविहरंति ॥ ४४८॥ | | गच्छे केचित् पुरुषा निरुद्धाः सन्तः शकुनीव पञ्जरान्तरनिरुद्धा, ते 'सारणचारणचइया' सारण-प्रसर्पणं संयमे तेन, 'स गती' इत्यस्येदं रूपं अधवा सारणं-स्मारणं वा संयमविषय, वारणं-दोषेभ्यो निवारणमिति एवं निरुद्धाः सन्तः 'चइता' त्याजिताः सन्तः पार्श्वस्थादिषु प्रविहरन्ति । । तिविहोवघायमेयं परिहरमाणो गवेसए पिंडं । विहा गवेसणा पुण दवे भावे इमा दद्ये ॥ ४४९॥
एवं त्रिविधस्य ज्ञानदर्शनचारित्रस्योपघातभूत पिण्डं 'परिहरन' परित्यजन ,किं कुर्वीत ? अत आह 'गवेसए' गवेषयेद्
दीप अनुक्रम [७०४]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७०८] » "नियुक्ति : [४४९] + भाष्यं [२३१...] + प्रक्षेपं [२७...]" .. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४४९||
श्रीओघ- अन्वेषयेत् , के ?-तमेव पिण्ड' संयमोपकारिणं । इदानीं सा गवेषणा द्विविधा-द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यतस्तावद् 'इमा' वक्ष्य
एपणानियुक्तिःमाणलक्षणा । का चासौ वक्ष्यमाणा ?, सोच्यते-वसंतपुरं नाम नयरं जियसत्तू राया धारिणी देवी, सा य अप्पणो चित्तसभंत भावेससार: द्रोणीया अइगया कणगपिडिमिगे पासइ, सा य गुविणी, तेसु कणगपिट्ठमिगेसु दोहलो समुप्पण्णो, चिंतेइ य-धन्नाओ ताओ जाओ। नि.४४६वृत्तिः एएसिं चम्मेसु सुवंति मंसाणि य खायंति, सा तेणं डोहलेणं अणवणिजंतेण दुचला जाया, रण्णा य पुच्छिया, कहियं च 8 ४४९ |तीए, ताहे रण्णा पुरिसा आणत्ता, वच्चह कणगपिढे मिगे गेण्हह, तेसिं पुण मिगाणं सीवपिणफलाणि आहारो, तया य
द्रव्यगवेष॥१५८॥ सीवणीणं अकालो फलस्स, ताहे कित्तिमाणि कणिकाफलाणि काउं गया अडवीए, तत्थ य पुंजयपुंजया सीवण्णीणं हेटा
णायां वानठवंति, ताहे कुरंगेहिं दिटुं, गया य जूहवइस्स साहेति, ताहे ते मिगा आगया, जो तेसिं अहिवई सो भणइ-अच्छह तुब्भे|
रगजयूथ
दृष्टान्ती पेच्छामि ताव अप्पणा गंतुं, दिटुं च तेणं, कहियं च ताणं जहा केणइ धुत्तिमा कया अम्ह गहणत्थं, जेण अकालो सीवफिलाणं, अह भणइ-अकालेवि हवंति चेव फलाणि, तं सच्चं, किंतु ण पुंजया होता, अह भणह वातेण तहा कया तण्ण जओ पुरावि एवमेव वाया वार्यता न उण पुंजयपुंजएहिं फलाई कयाइ ठियाणि ताण गच्छामो तत्थ, एवं भणिए केइ तत्थ ठिया, अण्णे पुण असद्दहंता गया, तत्थ य बंधणमरणाई पाविया, जे उण ठिया ते सच्छंदं वणेसु सुहं मोदति । एस एगो दिट्ठतो, वितिओ भष्णइ-एको राया, तेण य हत्थिगहणत्थं पुरिसा भणिया, जहा गेण्हह हत्थी, ते| भणंति-जस्थ हत्थी चरति तं नलवणं सुकं गिम्हकालेण, तो तत्थ अरणे अरहट्टो कीरइ, राइणा तहत्ति पडिवणं,॥१५८॥ तेहिंपि तत्थ गंतूण तहत्तिकयं उर्हं च नलवणं हरियं जायं, ताहे जहवणा दिलु, निवारेइ नियकलहगे, जहा विदि
C46-
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दीप अनुक्रम [७०८]
6-439486
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“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७०८] - "नियुक्ति: [४४९] + भाष्यं [२३१...] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ॥४४९||
ACAASCALKALAMA
यमेयं गयकुलाणं जया रोहंति नलवणा, एत्थ पुण अकालेण, अह भणिह पाणिय पभूयं निझरेसु बट्टा तेण नीला, तं न, अण्णयावि जेण कारणेन बहुयं पाणिय हुंतं न उण नीला नलवणा, ता अच्छह मा एस्थ पविसह, एवं भणिया जे तत्थ ठिया ते पउरण्णपाणियएम सुहं विहरंति, जे पुण न ठिया ते वारीसु बद्धा हम्मति अंकुसपहारेहिं । एस बितिओ | दिढतो ।। एसा दषगवेसणा, इमा य भावगवेसणा-लोगुत्तमण्हवणाईसु मिलियाणं साहूर्ण केणइ सावएणं भदएणं वा आहाकम्माणि भक्खाणि रइलयाणि, भोयणं वा केणइ साहुणो दई भद्दएण कर्य, तत्थ य अणेगे निमंतिया, अण्णाणय पभूयं दिजइ, सो य भद्दओ चिंतेइ-एयं दद्दूण साहूणो आगमिस्संति, आयरिएण तं नायं, ततो साहू निवारेइ, मा तेसु अल्लियह, ताहे केइ सुणंति केइ न सुणंति, जेहिं सुयं ते परिहरंति, ते य अंतपंत कुलेसु हिंडंति, अरिहंताणं च आणा आरा हिआ परलोगे महंतसुहाणं आभागिणो जाया, जेहिं पुण ण सुयं ते तहिं भोयणे गया अरहताणं च आणाभंगो कओx अणेगाणं च जम्मणमरणाणं आभागिणो जाया ॥ अधुनाऽमुमेवार्थ गाथाभिरुपसंहरन्नाह-- जियसन्तुदेविचित्तसभपविसणं कणगपिट्ठपासणया। डोहल दुषल पुच्छा कहणं आणा य पुरिसाणं ॥ ४५०॥ सीवन्निसरिसमोदगकरणं सीवन्निरुक्खहेतुसु । आगमण कुरंगाणं पसत्थअपसस्थउवमा उ ।। ४५१ ॥
विइयमेयं कुरंगाणं, जया सीवन्नि सीदई । पुराचि वाया वायंति, न उणं पुंजगपुंजगा ।। ४५२ ॥ सुगमाः ।। नवरं प्रशस्तोपमा पैयूथपतेर्मतं कृतं, अप्रशस्ता च यैर्न कृतं, नवरं जया सीवणि सीयई फलतीत्यर्थः॥ हत्थिगहणंमि गिम्हे अरह हि भरणं तु सरसीणं । अचुदएण नलवणा अभिरूढा गयकुलागमणं ॥ ४५३ ॥
दीप अनुक्रम [७०८]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७१३] .→ “नियुक्ति: [४५४] + भाष्यं [२३१...] + प्रक्षेपं [२७...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
नियुक्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४५४||
82-464-5
वानरगजविइयमेयं गयकुलाणं, जहा रोहंति नलवणा । अन्नयावि झरंति सरा, न एवं बहुओदगा ॥ ४५४ ॥ श्रीओघसुगमे, नवरं 'भरणं च सरसीणं ति महंति सरांसि सरस्य उच्यन्ते तासां भरणम् ॥
दृष्टान्तगा. द्रोणीया
थाः नि. पहाणाईसु विरइयं आरंभकर्ड तु दाणमाईसु । आयरियनिवारणया अपसस्थितरे उवणओ उ ॥ ४५५॥ वृत्तिः
स्नानादिषु विरचितं किश्चिद्भक्तं, आरम्भे वा भोजने दानादि किश्चित्प्रवर्तितं, तत्राचार्यों निवारणां करोति । अयं स्नानादि॥१५९॥ चाप्रशस्तस्येतरस्य चोपनय उक्तः । अहवा इमा भावगवेसणा-धम्मरुई नाम अणगारो सो ज्येष्ठामूले ज्येष्ठमासइत्यर्थः तिहिं| धूपनयः आयावेइ अट्ठमं च करेइ, सो य पारणए सग्गामे न हिंडइ अन्नं गामं वच्चाइ, तत्थ य वच्चंत साहुं दहण एका देवया आउट्टा,
पानि. ४२५ कोंकणगरूबादि तो विउबइ, ताहे रुक्खहेट्ठा अणुकंपाए लाउएणं कजियस्स भरिएणं अच्छइ, ताहे तं साहुं अन्भासगं दलूण
एगो भणति तुम पिब कंजियं, ताहे सो भणइअलाहि मम पीएणं ताहे सोभणइ-को उण एवं वहिही तम्हा साहुस्स दिजउ, कोताहे बीओ भणइ-देहि वा छड्डेहि वा, तओ तेणं सो अणगारो निमंतिओ भणिओ य-तुन्भे इमं गेण्हह, ताहे सो भगवं दबओ*
खेत्तओ कालओ भावओ य गवेसइ, दवओ इमं कजियं सीयलं सुरहिं च, खेत्ततो इमाए अडवीए को देइ ?, कालतो जेट्ठ-18 मासो, एत्थवि दुक्खं दाउ, भावओ हट्ठतुट्ठचित्तेण निमंतेति, तं एत्य कारणेण भवियचं, ताहे सो उवउत्तो हेट्ठा पेच्छई। जाव भूमीए पाया न लग्गति, उवरि पेच्छइ अच्छीणि अणिमिसाणि, ताहे देवत्ति नाऊण वज्जियं ।। अहवा वयरसामी ॥१५॥
दिट्ठतो, वयरसामी आयरिएहिं समं वासारत्तं एगमि नगरे ठिओ, तत्थ य सत्ताहबद्दले न कोइ साहू णीइ, सोवि भगवं| हैडहरओ ण णीति, तस्स पुबसंगइया देवा आगया, ते हि तत्व बणियवेसं काऊण भरएहिं आगंतूण अम्भासे ठिआ, तेहिंसा
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दीप अनुक्रम [७१३]
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“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७१४] → “नियुक्ति : [४५५] + भाष्यं [२३१...] + प्रक्षेपं [२७...]" .. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ॥४५५||
तत्थ अणेगरूवं उवक्खडियं, उजुत्ता अकलिज्जता य गता निमंतंति साहुणो, ते भणति-एस खुडलओ गेण्हउ, ताहे सो आयरियसंदिट्ठो पयट्टो जाव अजवि वरिसइ, ताहे तेहिं देवहिं सर्व वद्दल उवसंहरियं, आगओ तं पएसं, देवेहि य वीहिकूरो दाउमारद्धो पूसफलं माहुरयं च, सो भगवं उवउत्तो-को कालो बाणियगाणं एत्थ आगमणे, एज वा अकाले वासं न उवसमेइ तो किह आगया ?, इमो य पढमपाउसो कतो वीहिणो पूसफलं वा १, एवं चिंतंतो हेडा उवरिं च | निरुवेइ जाव भूमीए पाया न लग्गति अणिमिसाणि अच्छीणि तओ गुज्झगत्ति बजेइ, ताहे देवा सत्थं साहरित्ता बंदति है नमसंति, पसंसति धन्नोऽसि भयवं!, तत्थ य से वेउ बिलद्धिं नभोगमणलद्धिं च देति, ताहे गया देवा। एसा भावगवेसणा।। | अमुमेवार्थ गाथाभिरुपसंहरति, तत्र नियुक्तिकारः कथानकद्वयमपि उपसंहरनाह
धम्मरुद अज्जवयरे लंभो वेउवियस्स नभगमणं । जेट्ठामूले अट्ठम उबरि हेट्ठा व देवाणं ॥ ४५६ ॥
धर्मरुचिरनगारस्तथाऽऽर्यवयरस्वामी लम्भो वैकुर्विकलब्धेनभोगमनलब्धेश्च तस्यैव, तथा ज्येष्ठामूले ज्येष्ठमास इत्यर्थः,5 दाधर्मरुचिरटमभक्तेन स्थितोऽन्यस्मिन् ग्रामे गच्छन् देवेन दृष्टा, स च भगवानधस्तादुपरि चोपयोगं दत्त्वा पुनश्च न गृही-18
तवानकल्प्यमिति । इदानीं भाष्यकारो धर्मरुचिकथानकमुपसंहरन्नाहआयावणऽहमेणं जेहामूलंमि धम्मरुइणो उ । गमणऽन्नगामभिक्खट्ठया य देवस्स अणुकंपा ॥ २३२ ॥(भा०) कोंकणरूवविउच्चण अंबिल छडेमऽहं पियसु पाणं।छडेहित्तिय बिइओतंगिण्ह मुणित्ति उवओगो ॥२३३।। (भा०) तण्हाछुहाकिलंतं दद्दूणं कुंकणो भणइ साहुँ। उज्झामि अंधजिय अजो! गिहाहि णं तिसिओ ॥२३४॥ (भा०)
दीप अनुक्रम [७१४]
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“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७१९] → "नियुक्ति: [४५६] + भाष्यं [२३५] + प्रक्षेपं [२७...]". मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
श्रीओघनियुक्तिः द्रोणीया
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४५६||
कामिनी नि.
॥१६॥
सोऊण कोंकणस्सय साह वयणं इमं विचिंतेइ । गविसणविहिए निउणं जह भणिअंसबर्दसीहिं ॥२३५॥ (भा०) भावगणेषगविसणगहणकुडंग नाऊण मुणी उमुणियपरमत्थो।आहडरक्खणहे उबगंजइ भावओ निउणं ॥२३६॥(भा०ाणायां धर्म|उकोसदबखेत्तं च अरणं कालओ निदाहो उ । भावे हद्दपहहो हिहा उचरिं च उवओगो ।। २३७ ॥ (भा०) कविरस्वा दहूण तस्स रूवं अच्छिनिवेसं च पायनिक्खेवं । उपजिऊण पुर्वि गुज्झिगमिणमोत्ति बजेइ ॥२३८॥ (भा०) गवेषणा गहनमेव गह्वरमित्यर्थः तज्ज्ञात्वा मुनिः ॥ उत्कृष्टमेतद्रव्य-काजिक सुरभि क्षेत्रतोऽरण्ये कुतोऽस्य सम्भवः?,15
IN२३२-२३९ शेष सुगम ॥दृष्ट्वा च तस्य' देवस्य रूपं वर्जयतीति संबन्धः । इदानीं भाष्यकार एव बयरस्वामिकथानकमुपसंहरन्नाह-६
सत्ताहबद्दले पुवसंगई वणियविरूवुवक्खडणं । आमंतण खुड्ड गुरू अणुनवनं बिंदु उवओगो॥२३९॥ (भा०) नि. ४५७ सप्ताहवर्दले पूर्वसङ्गतिकदेवो विरूपरूपं-अनेकप्रकारं उवक्खडिता आमन्त्रणं क्षुल्लस्य कृतवान्, गुरुणा चानुज्ञातःग प्रवृत्तश्च, पुनश्च विन्दुपतनास्थितो, देवेन चोपसंहरितं, पुनश्च बयरस्वामिना उपयोगो दत्तः।
पणायां वा
नरकुल एसा गवसणविही कहिया भे धीरपुरिसपन्नत्ता । गहणेसणंपि एत्तो वोच्छं अप्पक्वरमहत्थं ॥ ४५७॥ | नि.४५८ सुगमा ॥ तत्र यदुक्तं 'इत ऊर्दू ग्रहणैषणां वक्ष्ये' इति, तत्प्रतिपादयन्नाह
॥१६॥ नाम ठवणादविए भावे गहणेसणा मुणेयया । दचे वानरजहं भामि य ठाणमाईणि ॥ ४५८॥ याऽसौ ग्रहणषणा सा चउबिहा-नामग्रहणषणा स्थापनामहणेपणा द्रव्यग्रहणषणा भावग्रहणषणा च ज्ञेया, नामग्रहणै
द्रव्यग्रहण
दीप अनुक्रम [७१९]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७२५] . "नियुक्ति: [४५८] + भाष्यं [२३९...] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ॥४५८||
षणा सुगमा, तत्र स्थापनाग्रहणषणा द्विविधा-सद्भावस्थापनाग्रहणषणा चित्रकर्मणि साधुग्रहणषणां कुर्वन् दयते, अस-ट। दावस्थापनाग्रहणपणाऽक्षादिषु, तत्र द्रव्यग्रहणपणा आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो ग्रहणैपणापदार्थज्ञः तत्र चानुप-10 युक्तः, नोआगमतो ज्ञदारीरभव्यशरीरे तथा ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यग्रहणषणायां वानरयूथं, भावग्रहणै
पणायां तु स्थानादीनि भवन्ति, एतदुक्तं भवति-भावग्रहणैषणां कुर्वन विवक्षिते स्थाने तिष्ठति, दातृप्रभृतीनि च 31 परीक्षते भावग्रहणषणायां, तत्र द्रव्यग्रहणपणायामिदमाख्यानकम्-एक वर्ण तत्थ वानरजूहं परिवसइ, कालेण यत
परिसडियपंडुपत्तं जायं, उपहकाले ताहे जहवई भनइ- अण्णं वर्ण गच्छामो, तत्थ तेसिं जूहवई अण्णवणपरिक्खणत्थं दुन्नि व तिण्णि व पंच व सत्तव पयट्टइ, बच्च ह वणंतरे जोएह, ताहे गया एगं वणसंडं पासंति पउरफलपुष्फ, तस्स वणस्स मज्झे एगो महद्दहो, तं दहण हट्टतुट्ठा गया जहवइणो साहति ताहे जहबई सवेसिं समं आगओ, ताहे तं वर्ण रुक्षेण रुक्खं पलोएइ, ताहे तं वणं सुद्धं, तेग भणिया-खायह वणफलाई, जाहे ते तत्थ धाया ताहे पाणियं गया, ताहे सो जहवई दहस्स परिपेरंतेहिं पलोएइ जाव ओयरंताणि पयानि दीसंति नीसरंताणि न दीसंति, ताहे भणइ
एस दहो सावाओ ता मा एत्थ तीरट्ठिया माझे वा उपरि य पाणियं पियह किं तु नालेण पियह, तत्थ जेहिं सुयं तस्स" नवयणं ते पुप्फफलाणं आभागिणो जाया, एवं चेव आयरिओ ताणं साहणं आहाकम्मुद्दे सियाणि समोसरणण्हवणाइसु
परिहरावेइ उवाएण फासुयं गिण्हावेइ जहा न छलिजंति आहाकम्माइणा तहा करेइ, तत्थ पुवकयाणि खीरदहिषयाईणि तारिसाणि गिण्हावेइ अकयाकारियासंकप्पियाणि, तत्थ जे आयरियाणं वयणं मुणंति ते परिहरंति ते अचिरेणं
दीप अनुक्रम [७२५]
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SARERainintenmarana
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७२५] . "नियुक्ति: [४५८] + भाष्यं [२३९...] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४५८||
श्रीओघ- नियुक्तिः द्रोणीया वृत्तिः
॥१६॥
दीप अनुक्रम [७२५]
कालेणं कमाक्वयं करेहिति, जे ण सुणंति ते भणति एते तुम्हारया असद्विकल्पाः, किं कारणं एयं न पिप्पतित्ति ?, एवं असुणेता अणेगाणं जाइयबमरियवयाणं आभागिणो जाया ॥ इदानीममुमेवा) गाथाभिः प्रदर्शयन्नाह
न्तगाथा
नि.४५९परिसठियपंडपत्तं षणसंडे दह अन्नहिं पेसे । जहबई पडियरिए जूहेण समं तहिं गच्छे ॥ ४५९ ।।
४६१ * सयमेवालोएवं जूहबई तं वर्ण सम तेहिं । वियरइ तेसि पयारं चरिऊण य ते दहं गच्छे ॥ ४६॥
भावग्रहणओयरंतं पयं दहूं, उत्तरंतं नदीसइ । नालेण पियह पाणीयं, एस निकारणो दहो॥ ४६१॥
षणायांस्था. सुगमाः, नवरं 'पडियरिए' निरूविए ॥ नवरं वियरई' ददाति 'तेषां' वानराणां 'प्रचार' अटनमुत्सङ्कलयति ॥ एवं नादीनि तावन्यग्रहणषणा, भावग्रहणैषणा एभिारैरनुगन्तव्या
नि.४३२ ठाणे य दायए घेव, गमणे गहणागमे । पत्ते परियत्ते पाडिए य गुरुयं तिहा भवे ॥ ४६२ ।। दारं ।।
तत्र पिण्डग्रहणं कुर्वता वक्ष्यमाणं स्थानत्रितयं परिहरणीय, तद्यथा--आत्मोपघातिक प्रवचनोपघातिकं संयमोपघा|तिक चेति । तथा पिण्डग्रहणं कुर्वता दाता परीक्षणीयः-योऽव्यक्तादिरूपो न भवति, तथा दातुर्गमनं निरूपणीयं भिक्षा
र्थमभ्यन्तरं प्रविशतो भिक्षां च दत्त्या गच्छतो गमनं निरूपणीयं, 'गहणं ति स भिक्षादाता यस्माद् हण्डिकादिस्थानादराहणं भिक्षायाः करोति तन्निरीक्षणीयं, स दाता तां भिक्षा गृहीत्वाऽभ्यागच्छन्निरूपणीया, 'पत्ते'त्ति प्राप्तस्य दातुस्तस्य हस्त ||
॥१६ ॥ साउदकाोन वेति निरूपणीयः, अथवा 'पत्ते'त्ति पात्रं-स्थानं यस्मिन् भिक्षा आदाय गृहस्थ आगतः कडुच्छुकादि तन्निरीक्ष
णीयं, अथवा पत्तेत्ति प्राप्तं द्रव्यमोदनादि निरूपयति परियत्तेत्ति परावृत्तमधोमुखं स्थितं भिक्षा ददतो दातुः कडुच्छुकादिक
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७२९] - "नियुक्ति: [४६२] + भाष्यं [२३९...] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
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प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४६२||
तत् निरूपयति कदाचिदुदका भवति, 'पाडिए'त्ति पातितश्च पात्रके पिण्डो निरूपणीयः, 'गुरुयंति गृहस्थभाजनं स्थाल्यादिगुरुर्भवति, कदाचित्तद्रव्यं गुडादि गुरुर्भवति, पापाणादिर्वा भण्डकस्योपरि यो दत्तः, तथा 'तिह'त्ति विविधः कालो। वक्तव्यः, भावश्च-प्रशस्ताप्रशस्तरूपो वक्तव्यः। इदानी भाष्यकारःप्रतिपदं व्याख्यानयति, तत्राद्यावयवव्याख्यानायाहआया पचयण संजम तिविहं ठाणं तु होइ नायछ । गोणाइ पुढविमाई निद्धमणाई पवयणमि ॥२४०॥ (भा०)
त्रिविधमुपपातस्थानं भवति, तद्यथा-आत्मोपघातिकं प्रवचनोपघातिकं संयमोपघातिक चेति, तत्र यथायोगं गवा-15 दिभिरात्मोपघातिक भवति पृथिवीकायादिभिः संयमोपघातिक भवति निद्धमणादि-नगरोदकोपघसरादि उपघातस्थान प्रवचनविषयं भवति । तत्र गवादिभिः कथमात्मोपधाती भवतीति दर्शयन्नाह
गोणे महिसे आसे पेल्लण आहणण मारणं भवइ । दरगहिय भाणभेदो छडुणि भिक्खस्स छकाया ॥ ४६३ ॥ PI चलकुडपडणकंटगविलस्स व पासि होइ आयाए । निक्खमपवेसवजण गोणे महिसे य आसे य ॥ ४६४ ॥ ___ यदा गोमहिष्यादिस्थाने स्थितो भिक्षां गृह्णाति ततो महिष्यश्वादिप्रेरणं-विक्षेपणं आघातो वा मारणं तत्कृतं भवति ||
आत्मविराधना, अर्द्धगृहीतायां भिक्षायां 'भाजनभेदः' पात्रकभेदो भवति, ततश्च भिक्षायाः 'छडने' प्रोग्झने षडपि काया , विराध्यन्ते, इयं संयमविराधना । अथवाऽनेन प्रकारेणात्मविराधना भवेत्-तत्र भिक्षाग्रहणस्थाने कदाचिच्चलं कुड्यमा-- सन्ने भवति ततस्तत्पतनजनित आत्मोपघातो भवति, कण्टका वा तत्र भवन्ति, बिलस्य वा 'पाचे आसन्ने तत्स्थानं ५
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दीप अनुक्रम [७२९]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७३२] .→ "नियुक्ति: [४६४] + भाष्यं [२४०] + प्रक्षेपं [२७...]". मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
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प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४६४||
--
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श्रीओप- भवति ततश्चात्मविराधना । तथा निष्क्रमणप्रवेशस्थानं गोमहिषाश्वादीनां वर्जयित्वा तिष्ठति भिक्षागहणार्थं । तथा प्रका-दाणपणानियुक्तिःकारान्तरेण संयमोपघातं दर्शयन्नाह
यांस्थानद्वाद्रोणीया
| पुढविदगअगणिमारुयतरुतसवजमि ठाणि ठाइजा। दिती व हेढ उरि जहा न घट्टे फलमाई ॥४६५॥ रनि.४६३वृत्तिः पृथिव्युदकाग्निमारुततरुत्रसैर्वर्जिते स्थाने स्थातव्यं, यथा वा भिक्षां प्रयच्छन्ती गृहस्थी अधो' भूमौ 'उपरि' च नीत्रा
४० दात॥१६२॥ दौ न सङ्गयति फलादि तत्र प्रवेशे स्थितो गृह्णाति । इदानी प्रवचनोपघातप्रदर्शनायाह--
द्वारं नि. उच्चारे पासवणे सिणाण आयमणठाण उकुरुडे । निद्धमणमसुइमाई पबयणहाणी विवज्जेजा ॥ ४६६॥ 18 प्रश्रवणस्य उच्चारस्य स्नानस्य आचमनस्य च यत्स्थानं तथा कज्जत्थोकुरटिकास्थानं तथा निमनस्थानं-उपघसरस्थान | यत्र वाऽशुचि प्रक्षिप्यते स्थाने, एतेषु स्थानेषु भिक्षा गृह्णतः प्रवचनोपघातो भवति, ततः सर्चप्रकारः प्रवचनहानि-हीलनां वर्जयेत् । उक्त स्थानद्वारम् , अधुना दातृद्वारमुच्यते, तत्र चैतानि द्वाराणि
अवत्तमपटु धेरे पंडे मत्ते य खित्तचित्ते य । दित्ते जक्खाइडे करचरछन्नेऽन्ध णियले य ।। ४६७ ॥
तहोसगविणीवालवच्छकंडतपीसमजंती । कत्ती पिंजंती भइया दगमाइणो दोसा ॥ ४६८॥ ___ 'अव्यक्तः' अष्टानां वर्षाणामधो बाला, स यद्यपि भिक्षा ददाति तथा पेन गृह्यते, तथा अप्रभुयस्तस्य हस्तान्न गृह्यते, तथा स्थविरहस्तात् 'पण्डकात्' नपुंसकहस्तात् , मत्तो यः सुरया पीतया तस्य हस्तान्न गृह्यते, क्षिप्तं चित्तं यस्य द्रविणाचपहारे सति चित्तविभ्रमो जाता, तथा दीप्तं चित्तं यस्यासकृच्छत्रुपराजयाद्युत्कर्षणातिविस्मयाभिभूतस्य चित्तहासो जाता
दीप अनुक्रम [७३२]
॥१६२॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७३७] .→ "नियुक्ति: [४६८] + भाष्यं [२४१] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४६८||
दीप अनुक्रम [७३७]
यथा मत्तुल्यो नास्तीति, तथा यक्षाविष्टः पिशाचगृहीतः करच्छिन्नः चरणच्छिन्नः अन्धश्च निगडितश्च यः, स्वग्दोषः-कुष्ठीयः। है तथा गुर्विण्या हस्तात् तथा बालवत्सा-शिशुपालिका या, कण्डन्ती श्रीह्यादि,तथा पिषन्ती गोधूमादि,तथा भर्जयन्ती यवधा
न्यादि, तथा फेपाश्चित्पाठो भुञ्जन्ती, तथा कर्त्तयन्ती सूत्रं, पिज्जयन्ती रुतं, एतेभ्यो गाथाद्वयोपन्यस्तेभ्यो दातृभ्योऽन्यक्कादिभ्यः पिञ्जयन्तीपर्यन्तेभ्यो हस्तान्न ग्राह्या भिक्षा, 'भइयत्ति भजना विकल्पनाऽत्र कर्त्तव्या, एतदुक्तं भवति-कदाचिदेतेभ्योऽन्यक्कादिभ्यः पिञ्जयन्तीपर्यन्तेभ्यो दातृभ्यो हस्ताद् गृह्यते कदाचित् न गृह्णात्यपि, 'दगमाइणो दोसा' एतेषु भुञ्जानादिदातृषु आचमनोदकपोज्झनदोषः, अव्यक्तादिष्वनेके उपघातादयः। प्रतिद्वारगाथाद्वयमेतत् , इदानीं भाष्यकारः प्रतिपदं व्याख्यानयति, तत्राद्यावयवप्रतिपादनायाहकप्पडिगअप्पाहणदिन्ने अन्नोऽन्नगहणपज्जतं । खंतियमग्गणदिन्नं उड्डाहपदोसचारभडा ॥ २४१ ।। (भा०)
तत्थ अवत्तो भण्णइ जाव अदुवरिसो जाओ तस्स हत्याउ न गिहियवं, को दोसो १, इमो-एगा भद्दिगा सा छेत्तं 1४ गया तए डहरगा चेडीसंदिसिज्जइ, जहा जदि एज पवइयगो तस्स भिक्खं देजाहि, तओ ताए गयाए आगओ भिक्खा
वेलाए पवइयगो, ताहे तेण सा चेडी भण्णइ-कहिं तुह अंबा गया १, सा भणइ-छेत्तं, सो भणइ-आणेहि भिक्खें, ताहे ताए कूरो दिण्णो, ताहे सो अण्णाणिवि जेमणाणि मग्गइ, ताहे सर्व दिण्णं खीरं दहिं तकं, तओ चेव चढस्वरसि, तेणवि सर्व गहेऊण पजतं काऊण निग्गओ, सा भद्दिगा आगया अवरव्हे ताहे खंतिया जेमणं मग्गइ।
सा चेडी भणइ-पवायगस्स मए दिण्णं, सा भणइ-सुख कय, कूर आणेहि जेमेमि, सा भणति-दिण्णो पवइयस्स, सा भणइ-1 ID भो०२८
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||४६८||
दीप
अनुक्रम
[७३७]
श्रीओषनियुक्तिः
द्रोणीया वृत्तिः
॥ १६३॥
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) • → “निर्युक्तिः [४६८] + भाष्यं [ २४१ ] + प्रक्षेपं [२७...]" ८०
आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
मूलं [ ७३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
सुहु कथं, आणेहि कुसिणं दधिदुद्धादि, सा भणइ-दिण्णं, सुड्डु कथं, कंजिअं आणेहि, बेडी भणइ-तंपि दिनं, एत्थ सा भद्दिगा रुट्ठा भण्णति-कीस सर्व देहि ?, चेडी भणइ सो मग्गइ सा भणइ - चेडरूवं परिभविऊण सर्व घेण गओ, गया आयरियस्स पासं, तत्थ खिसति- एस चारभडो इव सवं सर्व घेतॄण आगओ, तत्थवि आयरिएणं तीए पुरओ देव तस्स सबै उवकरणं अदक्खेय, एते दोसा अबत्तगहत्थाओ गहणे । दारं । इदानीं अप्रभुद्वारमुच्यते-अप्पभु भयगाईया उभएगतरे पदोस पहु कुज्जा । धेरे चलंत पडणं अप्पनुदोसा य ते चैव ॥ २४२ ॥ (मा० )
अप्रभवो भूतकादयस्तेषां हस्ताद्भिक्षा न ग्राह्या, यतः 'उभयोः' प्रव्रजितकभृतकयोः प्रद्वेषं कुर्यात्, एकतरस्य वा प्रत्रजितस्य भृतकस्य वोपरि प्रद्वेषं कुर्यात् प्रभुः द्वारं । इदानीं स्थविरद्वारमुच्यते - स्थविरस्यापि हस्ताद्भिक्षा न ग्राह्या, यतस्तस्य चलतः -कम्पमानस्य पतनं भवति, अप्रभुदोषाश्च त एव भवन्ति, एतदुक्तं भवति - स्थविरः प्रायेणाप्रभुर्भवति परिभूतत्वादिति । द्वारं । इदानीं पण्डकद्वारमुच्यते
आयपरो भघदोसा अभिक्खगहणंमि सुग्भण नपुंसे। लोग दुगुच्छा संका एरिसमा नूणमेतेऽवि ॥ २४३॥ (भा०) नपुंसकान्न गृह्यते यत आत्मनः परत उभयतश्च दोषाः संभवन्ति, आत्मशब्देन साधुर्गृह्यते, ततः को दोषः ?, क्षोभणं स्यात् बहुमोहनपुंसकदर्शनेऽभीक्ष्णं, तत्र भिक्षाग्रहणे च तद्वा क्षुभ्येत अभीक्ष्णं साधुदशर्नादिना, उभयकृतो वा दोषः, लोकश्च जुगुप्सते शंकते च नूनमेतेऽपि नपुंसकानीति । द्वारं । मत्तद्वारमाहअवयास भाणभेदो वमणं असुइत्ति लोगउड्डाहो । खेत्ते य दिसचित्ते जखाइडे य दोसा उ || २४४|| (भा०)
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ख्या भा. २४१-२४४
॥ १६३॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७४०] .→ “नियुक्ति: [४६८] + भाष्यं [२४४] + प्रक्षेपं [२७...]" (. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२४४||
सुरापानेन यो मत्तस्तस्य हस्तादिक्षा न गृह्यते, किं कारणं, यतो सत्तो भिक्षा प्रयच्छन् कदाचिदवयासं करोतिआलिङ्गतीत्यर्थः कदाचिद्भाजन-पात्रक भिनत्ति वमनं वा-छर्दनं करोति, तथाशुचिरितिकृत्त्वा लोक उड्डाहो भवतिप्रवचनोपघातः। द्वारम् । इदानीं तृतीयद्वारमुच्यते-व्याक्षिप्तचित्ते दीप्तचित्ते यक्षाविष्टे एत एव दोषा आलिङ्गनभाजन| भेदवमनाशुचिप्रभृतयो भवन्तीति । इदानी द्वारपश्चकप्रतिपादनायाह
करच्छिन्न अमुह चरणे पडणं अंधिल्लए य छक्काया।नियलाऽसुइ पडणं वा तद्दोसी संकमो असुइ॥२४॥(भा०) | छिन्नकरो यदि भिक्षा ददाति ततो न गृह्यते यतोऽशुचिदोषो लोके भवति । द्वारं । तथा यस्यापि चरणश्छिन्नस्ततोऽपि 8/न गृह्यते यतः तस्य प्रयच्छतः पतनं भवति । द्वार। अन्धादपि न गृह्यते यतोऽसी प्रयच्छन् षटू कायान् व्यापादयति । दार। |निगडितादपि न गृह्यते भिक्षा, यतोऽसावशुचिर्भवति, पतनं च तस्य निगडबद्धस्य स्यात् । दारं । स्वग्दोषदूषितस्यापि हस्तान्न गृह्यते यतः कदाचित्कुष्ठसङ्कमः स्यात् अशुचिश्चासौ वर्तते । दारं ।
गुपिणि गन्भे संघट्टणा उ उटुंति निवेसमाणी य । बालाई मंसउंडग मज्जाराई विराहेजा ॥ २४६ ॥(भा) गुर्विणीहस्तान्न गृह्यते यतस्तस्या गर्ने संघट्टनं भवति, कथम् , उत्तिष्ठन्त्याश्चोपविशन्त्याश्च । दारं । बालवत्साया अपि हस्तान्न गृह्यते भिक्षा, यतो बालं मुक्त्वा यदि भिक्षां ददाति ततस्तं बाल 'मंसुण्डकादिबुद्ध्या' मांसपिण्डादिबुक्या, आदिग्रहणान्नवनीतबुद्ध्या वा मार्जारादिविराधयेत् । दारं । इदानी द्वारपश्चकप्रतिपादनायाहबीओदगसंघट्टण कंडणपीसंत भजणे डहणं । कतंती पिंजंती हत्थं लित्तंमि उद्गवहो ॥ २४७॥ (भा०)
दीप अनुक्रम [७४०]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७४३] . "नियुक्ति: [४६८...] + भाष्यं [२४७] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२४७||
दीप अनुक्रम [७४३]
श्रीओघ- कण्डयन्त्याः पिंपन्न्याश्च हस्तान्न गृह्यते यतस्तत्र यथासङ्ख्येन एकस्या बीजसंघटनकृतो दोषः अपरस्या उदकसंघट- अव्यक्तापनियुक्तिःनकृतो दोषः, इति द्वारद्वयम् । याऽपि यवादीनां भर्जनं करोति तस्या अपि हस्तान्न गृह्यते यतस्तत्र यवा- स्वादिच्याद्रोणीया दिदहनकृतो दोषो भवति । दारं । तथा कर्त्तन्त्याः पिञ्जन्त्याश्च हस्तान्न गृह्यते यतस्तयोनिष्ठीवनलिप्ती हस्ती भवतस्त-12
ख्या भा. प्रक्षालने उदकवधः, द्वारद्वयं ॥ इदानीं यदुक्कमासीद् भजनया-विकल्पेनैषामव्यक्तादीनां हस्तागृह्यते न त्वेकान्ते
२४५-२४७
अव्यकादि ॥१६॥ नवाग्रहणं किन्तु ग्रहणमपि तत्प्रदर्शयति, तत्राद्यावयवभजनाप्रतिपादनायाह
यतना नि. भिक्खामेत्ते अवियालणं तु वालेण दिजमाणमि । संदिवे वा गहणं अइबहुयवियालणुन्नाओ ।। ४६९ ॥ बालो यदि भिक्षामात्रं परोक्षेऽपि ददाति ततो भिक्षामात्रे दीयमानेऽविचारणया गृह्णाति, अथासौ बालो गृहपतिना प्रत्यक्षमेव 'संदिष्टः उक्तो यथा प्रयच्छास्मै साधवे भिक्षां, ततोऽसौ साधुलाति, अथासावतिबहु प्रयच्छति ततः साधुर्विचारयति, यदुत किमित्यद्यातिबहु दीयते !, एवमुक्ते सति यद्यसौ गृहस्थ एवं भणति यदुताय प्राघूर्णकादिवशादहुद संस्कृत, ततोऽसौ साधु गृह्णाति । उक्ताऽध्यक्तयतना, इदानी अप्रभुयतनोच्यतेअप्पहुसंदिहे वा भिक्खामित्ते व गहणऽसंदिहे । थेरपटु थरथरते धरणं अहवा ददसरीरे ॥ ४७०॥
८ ॥१६॥ अप्रभुः-भृतकादिर्यदि सन्दिष्टः-उको भवति प्रभुणा ततस्तस्य हस्ताद्यते, यदा पुनर्न संदिष्टः-नोक्तः स प्रभुणा| यथा दातव्यं त्वया, तत्रासन्दिष्टे सति भिक्षामात्रस्यैव ग्रहणं करोति । अप्रभुयतनोक्ता, स्थविरयतनोच्यते-स्थविरः सन्|
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
||४७१||
दीप
अनुक्रम [७४६ ]
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [७४६]
“निर्युक्ति: [४७१] + भाष्यं [ २४७... ] + प्रक्षेपं [ २७...]"
८०
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
प्रभुर्यदि ददाति, किंविशिष्टः १ - कम्पमानः परेण धृतः सन् ततो गृह्यते, अथासौ स्थविरः प्रभुर्यदि दृढशरीरो ददाति तथाऽपि गृह्यते । दारं । इदानीं पण्डकादीनां यतनादर्शनायाह
पंड अप्पडिसेवी मत्तो सट्टो व अप्पसागरिए । खेत्ताइ भद्दगाणं करचरविट्टप्पसागरिए || ४७१ ॥
पण्डकस्य ददतो गृह्यते यद्यसावप्रतिसेवी भवति न कुत्सितं कर्म आचरति । दारं । श्राद्धकस्य च मत्तस्य हस्तागृह्यते, यद्यसावल्पसागारिकः स भवेत्, वाशब्दादल्पमदश्च यदि स्यात् । दारं । तथा क्षिप्तचित्तदीप्तचित्तयक्षाविष्टानां हस्तागृह्यते यदि प्रकृत्या भद्रका भवन्ति - साधुवासनावन्त इत्यर्थः । द्वारत्रितयं । तथा कररहितचरणरहितानां हस्तागृह्यते, कथं?, चरणरहितो यद्युपविष्टो ददाति अल्पसागारिकं च यदि भवति, कररहितोऽपि यद्यल्पसागारिके ददाति ततो गृह्यते नान्यथा । द्वारद्वितयं । इदानीमन्धादियतनाप्रदर्शनायाह
सहो व अन्नभण अंधे सविधारणा य बर्द्धमि । तदोसिए अभिन्ने वेला धणजीवियं धेरा ॥ ४७२ ।।
अन्धस्य च हस्तागृह्यते यदि श्रद्धावानन्येनाकृष्यमाणो ददाति । दारं । बद्धस्य च हस्ताद् गृह्यते यदि स सविचारो भवति परिष्वष्वितुं शक्नोति । दारं । 'स्वग्दोषदुष्टस्यापि कुष्ठिनोऽपि हस्ताद् गृह्यते यद्यसावभिन्नकुष्ठी भवति - गलत्कुष्ठो न भवतीति । दारं । वेलेति-गुर्विण्या यदि वेलाभासस्ततस्तस्था हस्तान्न गृह्णन्ति स्थविरकल्पिका इतरत्र गृहन्ति, जिनकल्पि कादयस्तु यतः प्रभृत्यापन्नसत्त्वा भवति तत एवारभ्य न गृह्णन्ति । दारं । तथा स्थविरा: स्थविरकल्पिकाः स्तनोपजीवी
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७४७] . "नियुक्ति: [४७२] + भाष्यं [२४७...] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
भा.२४८
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४७२||
श्रीओप- यो बालस्तधुक्ता या बालवत्सा तस्या हस्तान्न गृहन्ति, जिनकल्पिकादयस्तु यावदपि बालस्तावदपि तां बालवत्सां परिहर- अव्यक्तादि नियुक्तिःशान्ति-न तस्य हस्तादू गृह्णन्ति । द्वारद्वयं । इदानी कण्डयन्त्यादियतनोच्यते
यतना नि.
४७१-४७४ ___ उक्खित्तऽपचवाए कंडे पीसे वछूट भजन्ती । सुकं व पीसमाणी बुद्धीय विभावए सम्मं ॥ ४७३ ।।। वृत्तिः
तत्र कण्डयन्त्या हस्ताद् गृह्यते यद्युत्क्षिप्तं मुशलमास्ते साधुश्च प्राप्तस्ततोऽप्रत्यपाये स्थाने मुशलं स्थापयित्वा यदि ददाति। ॥१५॥ दारं । पीसे वत्ति-पेषयन्त्या हस्ताद गृह्यते यदि तत्पेषणीयमचेतनं-धानादि तथा यत् सचित्तं पूर्व यदि प्रक्षिप्तं तत्पिष्टता
अन्यदद्यापि न प्रक्षिप्यते साधुश्च तत्रावसर उपस्थितो भिक्षार्थ ततस्तस्या हस्तागृह्यते, तच्च पेपणं शिलायां घरट्टे वा । दारं । हा अच्छुढभजन्ती'त्ति भर्जयन्त्या अपि हस्तान् गृह्यते यदि पूर्वप्रक्षिप्तं भृष्टं अन्यदद्यापि न प्रक्षिप्यते साधुश्च प्राप्त इत्यस्मिन्नवसर इति, शुष्क बाऽचेतनं तद्वस्तु यदि पिनष्टि ततश्च बुझ्या 'विभाव्य' निरूप्योत्तरकालं गृह्णाति । इदानीमेनामेव है गाथां भाष्यकारो व्याख्यानयतिमुसले उक्खित्तमि य अपचवाए य पीस अचित्ते । भजंती अच्ढे भुंजती जा अणारद्वा ॥ २४८ ।। (भा.)
मुशले उत्क्षिप्ते सति अप्रत्यपाये प्रदेशे स्थापयित्वा यदि भिक्षां ददाति, 'पीस अचित्ते'त्ति अचेतनं वा यदि घरहादौ पिनष्टि ततो ददाति भिक्षा, भजतीति जवधाणे भट्ठमि अण्णंमि अपखित्ते सति एयंमि अवसरंमि साहुणो भिक्ख देइ,
॥१६५ भुञ्जानाया अपि हस्तागुह्यते यद्यद्यापि न विट्टलयति भक्तं यत्ताजनगृहीतं तदुत्थाय ददाति ॥ कसंतीए थूलं विक्षिण लोढण जति य निढवियं। पिंजण असोयवाई भयणागहणंतु एएसि ॥ ४७४ ॥
AIMERORSEENETWOROSS
दीप अनुक्रम [७४७]
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
॥४७४||
दीप
अनुक्रम
[७५० ]
Eticatur
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) “निर्युक्तिः [४७४] + भाष्यं [ २४८ ] + प्रक्षेपं [२७...]"
मूलं [७५०] ● → मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
45% 4% 4% 5%÷÷54454
८० आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
तथा कर्त्तयन्त्या अपि हस्तागृह्यते यदि स्थूरमसौ कर्त्तयति, किं कारणं १, यतः स्थूरमसौ कर्त्तयन्ती शङ्खचूर्ण न इस्ताङ्गलौ करोति, नापि निष्ठीवनेन, विक्खिणंति रूयं विक्खिणंतीए हत्थाङ घेप्पइ, तथा उरिणणं लोढणं यदि निङ्कविअं लोढेयवयं तीए हत्थाउ भिक्खा घेप्पर, एतदुक्तं भवति-जो सो अकप्पासो घाणो लोढणीए दिनो सो छोडिओ अन्नो न अज्जवि दिइ घाणो, एयाए बेलाए घेप्पइ भिक्षा देतीए तीए, पिज्जयन्त्या अपि हस्तागृह्णाति यद्यसी महेलाऽशौचवादिनी भवति-न हस्ती प्रक्षालयति । एवमेषां दातृणां हस्ताद्भजनया ग्रहणं करोति । उक्ता प्रतिद्वारगाथा, तत्प्रतिपादनाञ्चोकं दातृद्वारं, इदानीं गमनद्वारप्रतिपादनायाह
गमणं च दायगस्सा हेट्ठा उचरिं च होइ नायवं । संजमआयविराहण तस्स सरीरे य मिच्छन्तं ॥ ४७५ ॥ 'गमनं च' भिक्षादानार्थमभ्यन्तरप्रवेशस्तस्य दातुः 'अधस्ताद' भुवि विज्ञेयम् 'उपरि च' उपरिविभागश्च विज्ञेयः, यदि न निरूपयति ततस्तस्य गच्छतः पृथिव्यादिमर्दने सति साधोः संयमविराधना भवति, आत्मविराधना तस्य दातुः शरीरे सर्पादिदशनजनिता भवति, अत एव च निमित्ताच्छ्राद्धः सन् मिथ्यात्वं यायात् यदुतैवंविधस्य दत्तं | येन तत्क्षण एव स दाता सर्पेण दष्ट इति । इदानीमेनामेव गाथां भाष्यकारो व्याख्यानयति
| बचती छक्काया पमद्दए हितो उघरि तिरियं च । फलवल्लिरुक्खसाला तिरिया मणुया ये तिरियं तु । २४९ (भा०) ब्रजन्ती सा स्त्री भिक्षाया दात्री पडपि कायान् प्रमदयेत् क :-'अधस्ताद्' भुवि पृथिव्यप्तेजोवनस्पतित्रसान् व्या
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७५२] .→ "नियुक्ति: [४७५] + भाष्यं [२४९] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४७५||
श्रीओष- पादयेत् , वायुकार्य इतौ स्थित स्पृशन्ती व्यापादयेत् , तथोपरि तियगव्यवस्थिता फलबल्लीवृक्षशाला:- शाखा घिराधयति, दाच्यागम: नियुक्तिः। तथा तिर्यग्मनुजान्-जातमात्रवालकान् तिरश्चः-अश्ववत्सकादीन् सङ्घट्टयेत् । अथ चैते दोषाः
ननिरूपणं
नि.४७५ कंटगभाई य अहे उपि अहिमादिलंबणे आया । तस्स सरीरविणासो मिच्छन्तुडाह वोच्छेओ॥२५॥(भा०)दाभा.२४७.
ला कण्टकादयो वाऽधो भवन्ति, उपरि अह्यादि-सादिलम्बने आत्मविराधना दातुः, तस्य च-दातुः शरीरविनाशे , २५० ग्रहण ॥१६६॥ मिथ्यात्वं तस्यान्यस्य वा भवति, 'उड्डाहश्च' प्रवचनोपघातश्च भवति यदुत एतेषामेतावानपि प्रभावो नास्ति येन
नि.४७६ दातारं रक्षति । व्याख्यातं गमनद्वारम्, इदानीं ग्रहणद्वारप्रतिपादनायाह|नीयदुवाकग्पाहणकवाडठिय देह दारमाइन्ने । इडिरपत्थियलिंदे गहणं पत्तस्सऽपडिलेहा ॥ ४७६ ॥ | 'नीयदुवार' गाहा, नीचद्वार यदि भवति तत्र चक्षुषा निरूपणं कर्तुं न शक्नोति अतो न गृह्यते भिक्षा, तथो-18
द्घाटकपाट-अनर्गलितकपाटं न किन्तु पिहितकपाटं, तत्रापि न गृह्णाति, तथा दातुः संबन्धिना स्वदेहेन द्वारे रुद्धे सति न गृह्यते, आकीर्ण चान्यपुरुषैर्गमागर्म कुर्वभिः तथा इडुर-गन्याः संबन्धि तेन तिरोहिते पत्थिका-वृहती पिट्टिका तया 8
॥१६६॥ वा पिहिते द्वारे अलिन्द-कुण्डकं तेन वा तिरोहिते एवमेतेषु दोषेषु सत्सु 'ग्रहणं प्राप्सस्य' गृहस्थस्य गृह्यते ऽस्मिन्निति से
ग्रहणं, यस्मात्प्रदेशागण्डकं गृह्णाति तं प्रदेश प्राप्तस्य 'अपडिलेह'त्ति यतः प्रत्युपेक्षणा न शुद्धयति अनन्तरोदितैर्दोषैरतो जीन गृह्यते, ययेभिरनन्तरोदितोषभवद्भिर्न ग्रहणं ततो ग्रहणप्रदेशं प्राप्तस्य प्रत्युपेक्षणा कर्त्तव्या-श्रोत्रादिभिरुपयोगं करोति |
दीप अनुक्रम [७५२]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७५४] .→ "नियुक्ति: [४७६] + भाष्यं [२५०] + प्रक्षेपं [२७...]". मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ॥४७६||
यदि श्रोत्राद्यपयोगेन शुद्धा ततो ग्रहीष्यति, अथ न शुद्धा श्रोत्राथुपयोगेन ततो न ग्रहीष्यति ॥ इदानीं भाष्यकार: प्रतिपदमेनामेव गाथां व्याख्यानयति, तत्र कथं जिनकल्पिकादयो गृहन्ति कथं वा स्थविराः । इत्येतत्प्रदर्शयन्नाहनियमा उ दिहगाही जिणमाई गच्छनिग्गया होति।धेरावि दिट्ठगाही अदिष्टि करेंति उवओगं ॥२५१।। (भा०)। । 'नियमात्' अवश्यन्तयैव दृष्टग्राहिणः जिना-जिनकल्पिकादयो 'गच्छनिर्गता परित्यक्तगच्छा भवन्ति, हास्थविराः' स्थविरकल्पिका अपि 'दृष्टग्राहिण एवं' अतिरोहितद्वार एव गृहे गृह्णन्ति, किमयमेव नियमः ?, नेत्याहदा अदृष्टे तिरोहिते गृहद्वारे कपाटादिना उपयोग श्रोत्रादिभिरिन्द्रियर्दया ततः परिशुद्धे गृह्णन्ति । इदानीं 'नीयदुवार
कवाडे त्ति व्याख्यानयनाहमणीयदुचारुवओगे उडाह अवाउडा पदोसो य । हियनटुंमि अ संका एमेव कवाडउग्घाडे ॥ २५२ ।। (भा०) 4 नीचद्वारे गृहे न ग्राह्य यतस्तत्र नीचद्वारे निष्कुटनं कृत्वोपयोगनिरीक्षणं कुर्वत उडाहः पश्चामागदर्शने पेला-8 दिदर्शने सति कदाचित्तत्राप्रावृताः स्त्रियस्तिष्ठन्ति ततश्च निरूपयतः प्रद्वेषमुपरि कुर्वन्ति, तथा हृते चौरादिना नष्टे-स्वयमेवादृश्यमाने क्वचिद्वस्तुनि शङ्कोपजायते गृहस्थानां जहा तेण पवइयएणं निऊडिऊण निरूवि आसी जदि तेण ण हियं भवे ?, 'एवमेव' एत एव दोषाः पिहितकपाटे निरर्गलमुद्घाटयतोऽप्रावृतिकादयः॥ देहन्नसरीरेण व दारं पिहिअंजणाउलं वावि । इडुरपस्थियलिंदेण वावि पिहियं तर्हि वावि ॥२५३॥ (भा०) दातुर्देहेन द्वारं पिहितं स्थूलत्वाद्देहस्य अन्यस्य वा पार्श्वस्थस्य शरीरेण पिहितं । द्वारम् । आकीर्ण व्याख्यानयति-जना
दीप अनुक्रम [७५४]
MESSACROCAL
B
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७५७] .→ "नियुक्ति: [४७६] + भाष्यं [२५३] + प्रक्षेपं [२७...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४७६||
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दीप अनुक्रम [७५७]
श्रीओप- कुलं वा द्वारं निर्गच्छता प्रविशता वा लोकेन, तथा 'इडरण' गंत्रीसंवन्धिना 'पत्थिकया' वृहत्पिट्टिकया 'अलिन्देन'पाहणद्वारे निर्युतिः कुण्डकेन वा स्थगित द्वारं भवेत् , 'तहिं बावि'त्ति तत्र वा इड्डरादौ स्थगितं तत्तद्रव्यं भवेत्ततश्च न गृह्यते ॥
नीचद्वारो
द्धारादिद्रोणीयाएतेहऽदीसमाणे अग्गहणं अह व कुज उपओगं।सोतेण चक्खुणा घाणओ य जीहाऍ कासेणं ॥ २५४ ॥ (भा०)। वृत्तिः
है। 'एभिः' अनन्तरोदितैः 'अदृश्यमाने' अचक्षुर्दर्शने सत्यग्रहणं भवति, अथवाऽदश्यमानेऽप्युपयोगं कुर्यात, के-1|२५१-२५६ ॥१६७० रित्याह-श्रोत्रेण चक्षुषा माणेन जिह्वया स्पर्शेन चेति ॥ कथं श्रोत्राद्युपयोगं करोति :
हत्थं मतं च धुवे सद्दो उदकस्स अहव मत्तस्स । गंधे व कुलिंगाई तत्थेव रसो फरिसबिंदू ॥ २५५ ॥ (भा०) द्रा हस्तं मात्र वा कुण्डलिकादि सा गृहस्था प्रक्षालयेत्ततश्चोदकस्य झलझलाशब्दो भवति, अथवा मात्रकस्य-कुण्डलिदाकादेः प्रक्षाल्यमानस्य खसखसाशब्दो भवति, तथा प्राणेनोपयोगं करोति, कदाचित्कुलिङ्ग:-त्रीन्द्रियादिमर्दितो भवेदा
गच्छन्त्या, एतच्च गन्धेन जानाति अशोभनेन, ततश्च न गृह्णाति, यत्र गन्धस्तत्र रसोऽपीति, तथा स्पर्शेन चोपयोग सददाति, कदाचिदुदकबिन्दुर्लगति शीतलः, चक्षुषा तूपयोग ददाति गमनागमने प्राप्तस्य च द्रव्यप भाजनस्य वा हस्तस्य हवा, मा भूदुदकसंस्पृष्टं स्यात् ।।
सो होइ दिट्टगाही जो एते जुजई पदे सके । निस्संकिय निग्गमणं आसंकपयंमि संचिक्खे ॥ २५६ ॥ (भा०) ॥१६७॥ II स एवंविधो दृष्टयाही भवति य एतानि पदानि स्थानान्तराणि पूर्वोक्तानि प्रयुके उपयोगपूर्वकं सर्वाणि, अथ निश
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
||४७६||
दीप
अनुक्रम [ ७६० ]
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) • → “निर्युक्तिः [४७६] + भाष्यं [२५६ ] + प्रक्षेपं [२७...]"
मूलं [ ७६० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
८० आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
ङ्कितमेव भवति यदुतानेन गृहस्थेन पुरः कर्मादि कृतं तत्र वारयित्वा निर्गच्छति, अधाशङ्कितं भवति किमनेन कृतं पुरः कर्मादि न वेतीत्थमाशङ्कायां निरूपयति प्राप्तां सतीं गृहस्थाम् । उक्त ग्रहणद्वारम् इदानीं आगमनद्वारप्रतिपादनायाहआगमणदायगरसा हेट्ठा उचरिं च होइ जह पुत्रिं । संजमआयविराहण दिहंतो होइ वच्छेण ॥ ४७७ ॥
भिक्षां गृहीत्वा साध्वभिमुखमागच्छन्त्या अधस्तादुपरि च निरूपणीयमागमनं यथा पूर्व गमने संयमात्मविराधने निरूपिते एवमत्रापि संयमात्मविराधने निरूपणीये । उक्तमागमनद्वारं, 'पत्ते' त्ति द्वारप्रतिपादनायाह-'दिहंतो होइ वत्थमि' अत्र प्राप्तायां भिक्षायां दाग्यां वत्सकेन दृष्टान्तो वेदितव्यः । जहा एगस्स वाणियस्स वच्छओ तद्दिवसं तस्स संखडी न कोइ तस्स भत्तपाणियं देइ, मञ्झण्हे वच्छएण रडियं, सुण्हाए से अलंकियविभूसियाए दिण्णं भसपाणं, जहा तस्स वच्छस्स चारीए दिडी ण महिलाए, एवं साहुणावि कायवं । अहवा
पत्तस्स 'पडिलेहा हत्थे मत्ते तहेव दवे थ। उदउल्ले ससिणिद्धे संसत्ते चैव परियते ॥ ४७८ ॥ प्राप्तस्य गृहस्थस्य प्रत्युपेक्षणा कार्या हस्ते, किमयं हस्तोऽस्य उदकाद्याद्रों न वेति, तथा मात्रं च कुण्डलिकादि गृहस्थसत्कं निरूपयति यत्र गृहस्था भिक्षामादाय निर्गता, द्रव्यं च मण्डकादि निरूपयति संसक्तं न वेति । एवं पतद्दारं निज्जुत्तिकारेण वक्खाणियं इदानीं नियुक्तिकार एवं परिवतेत्तिद्वारं व्याख्यानयन्नाह - 'परिवर्तिते' अधोमुखे कृते सति गृहस्थेन मात्रके कुण्डिकादी यद्युदकाद्वै दृश्यते सस्निग्धं वोदकेनैव संसक्तं च-त्रसयुक्तं ततस्तस्मिन्नेवंविधे मात्रके परिवृत्ते सति दृष्ट्वा न गृह्यते । इदानीं भाष्यकारः 'पत्ते'त्ति व्याख्यानयन्नाह -
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७६२] .→ "नियुक्ति: [४७८] + भाष्यं [२५७] + प्रक्षेपं [२७...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४७८||
श्रीओघनियुक्तिः द्रोणीया वृत्तिः
॥१६८॥
है तिरिय उडमहेवि य भायणपडिलेहणं तु काय । हत्थं भत्तं दवं तिन्नि उ पत्तस्स पडिलेहा ॥ २५७॥ (भा०) दात्रागमन
पात्रपरावृ| गृहस्थभाजनस्या आगच्छत एव तिर्यक्-पार्श्वतो भाजनस्य ऊर्दै कर्णकेषु भाजनस्य अधो बुझे प्रत्युपेक्षणा कर्सच्या,
त्तिपतितनि तथा 'प्राप्तस्य' आसण्णीभूतस्य गृहस्थस्य हस्तं मात्रं द्रव्यं त्रीण्यप्येतानि गृहस्थसत्कानि प्रत्युपेक्षेयत्-निरूपयेत् , किम् ?- रूपणं नि. माससिणिद्धों दउल्ले तसाउलं गिह एगतर दई । परियत्तियं च मत्तं ससणिद्वाईसु पडिलेहा ॥२५८॥ (भा०) ४४७७-४८०
सस्निग्धं तोयेन उदकाईमुदके वसाकुलं हस्तं मात्रं द्रव्यं वा दृष्टा एकतरमपि तन्मा गृहाण । 'पत्ति'त्ति द्वारमुक्त, भा. २५७भाष्यकार एव 'परियत्तिय'त्ति व्याख्यानयवाह-'परियत्तियं च मत्तं तत् गृहस्थमात्रकं कदाचित्सस्निग्धादिसमन्वितं | WI २५८ भवति ततश्च सस्निग्धादिषु सत्सु प्रत्युपेक्षणा कार्येति । उक्तं परावर्तितद्वारं, 'पडिय'त्तिद्वारं व्याचिण्यासुराहपडिओ खलु दयो कित्तिमसहावओ य जो पिंडो । संजमआयविराहण दिहतो सिटि कवट्ठो ॥ ४७९।।
पतितः पात्रके पिण्डो द्रष्टव्यः किमयं कृत्रिमः१-योगेन निष्पन्नः सक्तुमुद्गपिण्ड इव सिद्धपिण्डो वा स्वाभाविककूरखोह इव, तत्र यदि कृत्रिमः पिण्डः स्फोटयित्वा तं न निरूपयति ततः संयमात्मविराधना भवति, यथा सिडिकबहस्स हता काष्ठेन कन्थिका इत्येतत्कथानकमनुसरणीयं, तेन हि संयोगपिण्डो न निरूपितस्तत्र च संकलिकाऽऽसीत्, तत्र राज
X ॥१६८॥ कुले व्यवहारस्तेन च काष्ठर्षिणा भगवता निर्मूढम् , अन्यश्च कदाचित्तादृशो न भवति ततश्च निरूपणीय इति । तत्रात्मविराधनादिप्रदर्शनायाहगरविस अडिय कंटय विरुद्धदमि होइ आयाए । संजमओ छकाया तम्हा पडियं विगिचिजा ॥४८॥
दीप अनुक्रम [७६२]
SAREarathi
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७६६] .→ "नियुक्ति: [४८०] + भाष्यं [२५८] + प्रक्षेपं [२७...]". मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४८०||
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सगर उच्यते य आहारं स्तम्भयति कार्मणं वा गरः, स कदाचित्तत्र पिण्डे भवति, तथा विषमस्थीनि कण्टकाश्च कदा-1 चिद्भवन्ति, विरुद्धं वा किंचिद्रव्यं तत्र भवति, ततश्चानिरूपणे एभिरात्मविराधना भवति, तथा संयमतश्च षटकाया विरा-1 ध्यन्ते, कथं !, कदाचित्तत्र पृथिवी उदकं वनस्पतिरग्निा लनो भवति, यत्राग्निस्तत्र वायुरपि, द्वीन्द्रियादयश्च कदाचिअवन्ति, ततश्च 'पडियं विगिंञ्जा' विभागेन विभजेत-निरूपयेदित्यर्थः । अथवाऽनाभोगेन कदाचित्तत्र सुवर्णादि स्थापयित्वा ददाति, एतदेवाह
अणभोगेण भएण य पडिणी उम्मीस भसपाणमि । दिज्जा हिरण्णमाई आवजणसंकणादिहे ॥ ४८१॥
अनाभोगेन ददाति-तन्दुलादिमध्ये व्यवस्थित सुवर्णादि पुनश्च रन्धयित्वा तद्ददत्यनाभोगेन प्रदानं भवति, भयेन वा ददाति, कथं !, कथाचित्परसत्कं सुवर्णमपहृतं पुनश्च प्रत्याकलिता सती कलिकलङ्कभयात्साधोर्वेष्टयित्वा ओदनादिना
ददाति, प्रत्यनीकत्वेन वा 'उन्मिभ्य एकीकृत्य भक्तपानादिना सह हिरण्यादि ददाति, ततश्च तस्य साधोरेतद्दोष द्र विनाऽपि यदि न निरूपयति ततः 'आवजणं ति आवर्जनं पूर्वोक्त संयमविराधनादिदोषाणां भवति, प्रमादपरत्वात्तस्य,
तथा शङ्कना-दृष्टे तत्र सुवर्णादी राजप्रभृतीनां शङ्का भवति, यदुत न विद्मः किं तावदयं साधुरेवंविधः आहोचिनिक्षादातेति, तस्मात्पतितः सन् पिण्डो निरूपणीयः । इत्युक्तं पतितद्वार, गुरुकद्वारप्रतिपादनायाह
उक्वेवे निक्खेवे महल्लया लुद्धया वहो दाहो । अचियत्ते वोच्छेओ छक्कायवहो य गुरुमत्ते ॥४८२॥ यत्तत्पाषाणादिघट्टनं दत्तं तस्योत्क्षेपे सति निक्षेपे वा-मोक्षणे सति गृहस्थस्य कटिभङ्गो वा पादस्योपरि पतनं वा भ
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दीप अनुक्रम [७६६]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७६८] → “नियुक्ति: [४८२] + भाष्यं [२५८] + प्रक्षेपं [२७...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४८२||
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भा.
॥१६९।।
वति, 'महल्लया' इति महत्प्रमाणं वा तगृहस्थस्य भाजनं तस्योत्क्षेपे सति दोषा भवन्ति, अथवा 'महल्लया' इति महता भण्ड- पतितगुरु| केन दीयतामित्येवं कदाचिदसी साधुर्भणति, ततश्च लुब्धता साधोरुपजायते, तथा बधश्च-तस्यैव साधोः पादस्योपरि भण्डकेन|कद्वार नि:
४८१-४८२ पतितेन वधो भवति, तथा 'दाहात्ति दाहो वा भवति यदि तदुष्ण भण्डकं भवति,अचियत्तं वा भवति तस्यैव गृहस्थस्य तद्गृहप-13 तेर्वा 'अचियत्तं वा अप्रतीतिर्वा भवति,महाप्रमाणकेन भण्डकेन दीयमाने सति व्यक्च्छेदो वा तद्रव्यस्यान्यद्रव्यस्य वा भवति,
२५९-२६० षट्कायवधव भण्डकपतने सति भवति, एवं गुरुके भण्डके एते दोषा भवन्ति । एतामेव गाथां भाष्यकृदाह, तत्राद्यावयवमाह
गुरुदवेण च पिहिअंसयं व गुरुयं हवेज जं दवं ।।
उक्खेवे मिक्खेवे कडिभंजण पाय उवरिं वा ॥२५९ ॥ (भा०)॥ गुरुद्रव्येण वा 'पिहित घहितं तद्रव्यं भवेत् , स्वयं वा तद्रव्यं गुडपिण्डादि गुरुकं भवेत् , सतश्च तस्य 'उरक्षेपे' उत्पाटने निक्षेपे च पुनर्मोचने सति कटिभङ्गो भवति,पादस्योपरि पतेत्ततश्चात्मविराधना भवति । 'महालया' इति व्याख्यानयनाह-12
महल्लेण देहि मा डहरएण भिन्ने अहो इमो लुद्धो । उभए एगतरवहो दाहो अण्ह एमेव ॥२६०।। (भा०)॥3॥१६॥ CI कश्चित्साधुः कडुच्छिकया ददतीं खियं एवं ब्रूते-यदुत 'महल्लेण' बृहता भाजनेन स्थाल्यादिना देहि, मा 'डहरकेण
लघुना प्रयच्छ कडुच्छुकादिना, ततः सा तथैव करोति, अशक्नुवत्याश्च कदाचित्तमाजन भज्यते ततो भिन्ने सति तस्मिन् भाजने गृहस्थ एवं भणति-यदुताहो ! अयं साधुर्महालुब्धः येन बृहता भाजनेन दीयमानं गृह्णाति, तत 'उभयस्य' साधु
दीप अनुक्रम [७६८]
SAREna
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७६८] .→ “नियुक्ति: [४८२] + भाष्यं [२६०] + प्रक्षेपं [२७...]" .. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र
॥४८२||
गृहस्थयोः पादस्योपरि पतितेन भण्डकेन वधो भवति, एकतरस्य वा वधो भवति, तथा दाहश्च अंत्युष्णे तस्मिन् द्रव्ये पतिते सति भवति 'एमेव'त्ति उभयोरन्यतरस्य वा ॥ इदानीं 'अचियत्ते'त्ति व्याख्यानयन्नाह-- बहुगहणे अचियत्तं बोच्छेओ तदन्न दछ तस बाबि । छक्कायाण य वहणं अइमत्ते तंमि मत्तंमि ॥२६१।। (भा०)।
बहुग्रहणे तस्य घृतादिद्रव्यस्य 'अचियत्तं' अप्रीतिर्भवति तस्य तद्गृहपतेर्वा, व्यवच्छेदो वा तदन्यस्य द्रव्यस्य भवतितस्माद्-घृतादेः अन्यद्-क्षीरगुडादि तस्य व्यवच्छेदो भवति, तस्य वा-घृतादेव्यस्य वा व्यवच्छेदो भवतीति, तथा पटुकायानां वा हननं भवति 'अतिमात्रे' बृहत्पमाणे 'मात्रके' स्थाल्यादी गृहीते सति । उक्तं गुरुकद्वारं, त्रिविधेतिद्वारप्रतिपादयन्नाह[तिविहो य होइ कालो गिम्हो हेमंत तह य चासासु।तिविहो य दायगो खलु थी पुरिस नपुंसओ चेव ॥४८॥ एक्सिकोवि अतिविहो तरुणो तह मज्झिमोय थेरोय।सीयतणुओ नपुंसो सोम्हित्थी मज्झिमो पुरिसो॥४८४॥ ___ कालस्त्रिविधो भवति, तद्यथा-ग्रीष्मो हेमन्तो वर्षा च, तत्र त्रिविधेऽपि काले दाता विविध एव भवति, स्त्री पुमान्न-18 |पुंसक चेति ॥ पुनः स एकैकस्यादिदाता त्रिविधो भवति-तरुणो मध्यमः स्थविरश्च। इदानीं नपुंसकादीनां स्वरूपप्रतिपाद-11 नायाह-शीतलतनुनपुंसको भवति, 'सोम्हित्धित्ति सोष्मा स्त्री भवति, मध्यमश्च पुरुषो भवति-नाप्युष्णो नातिशीतल इति।। पुरकम्म उदउल्लं ससणिद्धं तंपि होइ तिविहं तु । इकिकपि य तिविहं सचित्ताचित्तमीसं तु ॥ ४८५॥
दीप अनुक्रम [७६८]
REaratimona
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
||४८५||
दीप
अनुक्रम [७७१]
श्री ओघनिर्युक्तिः
द्रोणीया वृत्तिः
॥ १७० ॥
Jan Esca
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [७७१] ● → मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
“निर्युक्तिः [४८५] + भाष्यं [ २६१] + प्रक्षेपं [२७...]" ८० आगमसूत्र - [४१/१] मूल सूत्र -[२/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
न केवलं कालादयस्त्रिविधाः यदपि तत्पुरः कर्मादि तदपि त्रिविधं तद्यथा- पुरःकर्म उदकार्द्र सस्निग्धं चेति, तत्पुनरेकैकं त्रिविधं सच्चित्ताचित्तमिश्रभेदभिन्नं भवति, एतदुक्तं भवति यत्पुरःकर्म तत्सचित्तमचित्तं मिश्रं चेति यदपि उदका तदपि सचितमचित्तं मिश्रं चेति, यदपि सस्निग्धं तदपि सचित्तमचित्तं मिश्रं चेति । इदानीं यत्तदुक्तं पुरः कर्मादित्रितयं तत्राद्यद्वयस्य प्रतिषेधं कुर्वन्नाह
पुरः कर्म आदि त्रयाणाम् वर्णनं
आइदुवे पढिसेहो पुरओ कय जं तु तं पुरेकम्मं । उदउल्लबिंदुसहिअं ससणिडे मग्गणा होइ ॥ ४८६ ॥ आद्यद्वितयस्य पुरतः कर्मण उदकार्द्रस्य च प्रतिषेधो द्रष्टव्यः, यतस्ताभ्यां सदोषत्थान्नैव व्यवहार इति । इदानीं पुर:| कर्मादीनां लक्षणप्रतिपादनायाह-'पुरओ कय जं तु तं पुरेकम्मं' भिक्षायाः पुरतः प्रथममेव यत्कृतं कर्म कडुच्छुकादिप्रक्षा| लनादि तत्पुरः कर्माभिधीयते, उदकार्ड पुनरुच्यते यद्विन्दुसहितं भाजनादि गलद्विन्दुरित्यर्थः, सस्निग्धं पुनरुच्यते यद्विन्दुरहितमात्रं, तत्रेह सस्निग्धे 'मार्गणा' अन्वेषणा कर्त्तव्या यतः सस्निग्धे हस्तादी ग्रहणं भविष्यत्यपि ॥
ससिणिर्द्धपि यतिविहं सचित्ताचितमीसगं चेव । अचित्तं पुण ठप्पं अहिगारो मीससचित्ते ॥ ४८७ ॥ यत्तत्सस्निग्धं तत्त्रिविधं सचित्तमचित्तं मित्रं चेति, तत्राचितं स्थाप्यं यतस्तत्रा चित्तसस्निग्धे ग्रहणं क्रियत एव न तत्र निरूपणा, अधिकारः पुनः- निरूपणं मिश्रसचित्तयोः कर्त्तव्यं । इदानीं मिश्रसच्चित्तसस्निग्धे हस्ते सति ग्रहणविधिं प्रतिपादयन्नाह
पाण किंचि अडाणमेव किंचिच होअणुद्दाणं । पाएण हि यं (तं) सर्व एककहाणी य बुद्धी यं ॥ ४८८ ॥
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गुरुकद्वारं भा. २६१ पुरः कर्मादि
त्रिविध्यं नि. ४८३-४८८
॥ १७० ॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७७४] → "नियुक्ति: [४८८] + भाष्यं [२६१] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
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प्रत
%
22556456
गाथांक नि/भा/प्र ॥४८८||
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दीप अनुक्रम [७७४]
अत्र हस्ते सस्निग्धं किश्चित् अम्लानं-मनाक्शुष्कं तथा 'अवाण ति आध्यानमुद्वान किश्चित्सस्निग्धं 'किचिच होअणुधाण'ति किश्चिच स्निग्धमनाव्यानमनुद्धानम् , एवं त्रिविधभप्येतत्सर्वं प्रायेण सस्निग्धमुच्यते, एवमेतद्विभाब्य | तत एकैकशुष्कभागवृद्ध्या ग्रहण कर्तव्यं पूर्वानुपूा, तथा एकैकशुष्कभागहान्या वा पश्चानुपूया गृह्णाति भिक्षा । सा एकैकभागवृद्धिः कथं कर्तव्येत्यत आह
सत्तविभागण कर विभाइत्ताण इस्थिमाईणं । निशुन्नयइयरेवि य रेहा पचे करतले य ॥ ४८९ ॥ 'सप्त विभागान' सप्तधा 'करं हस्तं 'विभज्य' विभागीकृत्य, केषां -ख्यादीनां, ते च विभागा एतानङ्गीकृत्य | कर्तव्याः, के च ते -'निमोनतेतरे' तत्र निम्नं त्वङ्गुलिपर्वरेखा उन्नतमङ्गठिपर्वा णि इतरत्-करतलं नोचतं नापि निर्म। 12 8|इदानी केन शुष्केन प्रदेशेन का प्रदेशः अम्लानो भवति ? केन वा अम्लानेन प्रदेशेन का सार्द्रः प्रदेशो भवतीत्यस्वार्थस्य ज्ञापनार्धमाह
जाहे य उन्नयाई उधाणाई हवंति हत्थस्स । ताहे तलपचाणा लेहा पुण होतऽणुवाणा ॥ ४९० ॥ यदा उन्नतानि हस्तस्थानानि उद्धानानि भवन्ति तदा हस्ततलं प्रम्लानं-मनाक् शुष्कं भवति रेखास्तु भवन्त्यनुद्धानाः। इदानीं शुष्कहस्तस्थानानामेकैकवृद्ध्या यथा यस्मिन् काले ग्रहणं भवति तथा प्रदर्शयन्नाह
तरुणित्थि एकभागे पचाणे होइ गहण गिम्हासु। हेमंते दोसु भवे तिसु पवाणेसु वासासु ॥ ४९१ ॥ तरुण्याः खिय उन्नतसप्तमैकभागे प्रम्लाने शुष्के सति उष्णकाले गृह्यते भिक्षा यतः सोष्मतया कालस्य चोष्णतया
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७८०] . "नियुक्ति: [४९१] + भाष्यं [२६१...] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
श्रीओप-
नियुकि
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४९१||
द्रोणीया वृत्तिः
MCHAR
॥१७॥
यावता कालेन असावुन्नतप्रदेशः शोषमुपगतस्तावता कालेन इतरे निम्नप्रदेशाः सार्दा अपि अचित्ताः संजाताः अतः
पुर:कमादि कल्पते भिक्षाग्रहणं, हेमन्तकाले तस्या एव तरुण्या द्वयोः सप्तमभागयोः शुष्कयोः सतोर्भिक्षाग्रहणं भवेदिति, तस्या एव
विध्यं नि.
४८९-४९३ तरुण्या वर्षाकाले त्रिषु सप्तभागेषु शुष्केषु सत्सु भिक्षाग्रहणं भवति ।
एमेव मजिझमाए आत्तं दोसु ठायए चउसु । तिसु आढतं घेरी नवरि हाणेसु पंचसु उ ॥ ४९२॥ एवमेव मध्यमायाः स्त्रिया उष्णकाले द्वयोर्भागयोः प्रारब्धं चतुषु भागेषु संतिष्ठते, एतदुक्तं भवति-मध्यमायाः स्त्रिया उष्णकाले द्वयोः सप्तभागयोः शुष्कयोः सतोहणं भवति, तथा तस्या एव मध्यमायाः स्त्रिया हेमन्ते काले त्रिषु सप्तभागेषु |शुष्केषु सत्सु ग्रहणं भवति, तस्या एव च मध्यमस्त्रिया वर्षाकाले चतुर्यु सप्तभागेषु शुष्केषु सत्सु भिक्षाग्रहणं कर्त्तव्यं, एवं स्थविराया अपि उष्णकाले त्रिषु भागेषु प्रारब्धं पञ्चसु भागेषु सतिष्ठते, एतदुक्तं भवति-उष्णकाले स्थविर्यात्रिषु सप्तभागेषु शुष्केषु सत्सु ग्रहणं भवति, तथा तस्या एव स्थविर्या हेमन्तकाले चतुर्यु सप्तभागेषु शुष्केषु सत्सु भिक्षाग्रहणं कर्त्तव्यं, तस्या। एव वर्षाकाले पञ्चसु सप्तभागेषु शुष्केषु सत्सु भिक्षाग्रहणं कर्त्तव्यम् ।
एमेव होइ पुरिसो दुगाइछट्ठाण पजवसिएसुं । अपुमं तु तिभागाई सत्तमभागे अवसिते उ ॥ ४९३ ॥ एवमेव पुरुषस्य द्वयोर्भागयोः प्रारब्धं पदस्थानपर्यवसितेषु भागेषु संसिष्ठते, एतदुक्तं भवति-तरुणपुरुषस्योष्णकाले ॥१७१॥ भागवये शुष्के सति गृह्यते, तथा तस्यैव तरुणस्य शीतकाले त्रिषु भागेषु शुष्केषु सत्सु भिक्षा गृह्यते, तथा तस्यैव तरुणस्य वर्षाकाले चतुए भागेषु शुष्केषु सत्सु ग्रहणं, तथा मध्यमपुरुषस्योष्णकाले त्रिषु भागेषु शुष्केषु सत्सु ग्रहणं, तस्यैव मध्य
दीप अनुक्रम [७८०]
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
||४९३ ||
दीप
अनुक्रम [७८२]
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“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [७८२]
“निर्युक्तिः [४९३ ] + भाष्यं [ २६१... ] + प्रक्षेपं [२७...]"
८०
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
मस्य हेमन्ते चतुर्षु भागेषु शुष्केषु सत्सु ग्रहणं, तथा तस्यैव मध्यमस्य वर्षाकाले पञ्चसु भागेषु शुष्केषु सत्सु भिक्षाग्रहणं कर्त्तव्यं, तथा वृद्धपुरुषस्योष्णकाले चतुर्षु भागेषु शुष्केषु सत्सु ग्रहणं कर्त्तव्यं तस्यैव वृद्धस्य हेमन्ते पश्ञ्चसु भागेषु शुष्केषु ग्रहणं, तस्यैव वृद्धस्य वर्षाकाले षट्सु भागेषु शुष्केषु भिक्षाग्रहणं कर्त्तव्यं । नपुंसकस्य पुनस्त्रिभागेष्वारब्धं सप्तमभागेषु संतिष्ठते, एतदुक्तं भवति-सर्वस्मिन् हस्ते शुष्के सति ग्रहणं कर्त्तव्यं भवति, तत्र चेयं भावना - तरुणनपुंसकस्योष्णकाले त्रिषु भागेषु शुष्केषु भिक्षाग्रहणं कल्पते, तस्यैव तरुणनपुंसकस्य हेमन्तकाले चतुर्षु भागेषु शुष्केषु भिक्षाग्रहणं कर्त्तव्यं, तस्यैव वर्षाकाले पश्चसु भागेषु शुष्केषु ग्रहणं, मध्यमस्य नपुंसकस्योष्णकाले चतुर्षु भागेषु शुष्केषु ग्रहणं, तस्यैव च हेमन्तकाले पञ्चसु भागेषु शुष्केषु ग्रहणं, तस्यैव च वर्षाकाले षट्सु भागेषु शुष्केषु ग्रहणं, बृद्धनपुंसकस्योष्णकाले पञ्चसु भागेषु शुष्केषु ग्रहणं, तस्यैव हेमन्तकाले षट्सु भागेषु शुष्केषु भिक्षाग्रहणं, तस्यैव वृद्धनपुंसकस्य वर्षाकाले सप्तस्वपि सप्तभागेषु शुष्केषु भिक्षाग्रहणं कर्त्तव्यमिति । एवमेकैकवृद्धया ग्रहणमुक्तं, पश्चानुपूर्व्या तु एकैकभागहान्या भिक्षाग्रहणं वेदितव्यं, तच्चैवं स्थविरनपुंसकस्य वर्षाकाले सप्तभिरपि हस्तभागः शुष्कैर्गृह्यते भिक्षा, तस्यैव शीतकाले पनिर्भागैः शुष्कैर्गृह्यते, तस्यैवोष्णकाले पञ्चभिर्भागः शुष्कैर्गृह्यते, एवमनया हान्या तावन्नेतव्यं यावत्तरुणी स्त्रीति । उक्तं त्रिविधद्वारं, भावद्वारप्रतिपादनायाह
दुविहो य होह भावो लोइयलोउत्तरो समासेणं । एक्किकोवि य दुविहो पसत्थओ अप्पसत्थो य ॥ ४९४ ॥ द्विविधो भवति भावः - लौकिको लोकोत्तरश्चेति, समासतः पुनरेकैको द्विविधः प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च, लौकिकः प्रशस्तोs
For Penal Lise Only
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७८३] → “नियुक्ति: [४९४] + भाष्यं [२६१...] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४९४||
श्रीओघ- नियुक्ति द्रोणीया
वृत्तिः
॥१७२॥
प्रशस्त प्रशस्तच, एवं लोकोत्तरोऽपि । तत्रोदाहरणमुच्यते-एगंमि सण्णिवेसे दो भाउया वणिया, ते य परोप्पर विरिफा, तत्थ एगो गामे गंतूण करिसणं करेइ, अण्णोवि तहेव, तत्थ एकस्स सुमहिला अण्णस्स दुम्महिला, जा सा दुम्महिला सा४/ स्त्यतरद्वार
नि. ४९४गोसे उडिया मुहोदगदंतपक्खालणअदागफलिहमाईहिं मंडती अच्छइ, कम्मारगाईणं न किंचि जोगक्खेमं वहइ, कल्लेउयं चल
४९८ करेइ, अण्णस्स य जा सा महिला कम्मारमाईणं जोगक्खेमं वहइ अप्पणो य सकजं मंडणादि करेइ, तत्थ जा सा अप्पणो
भ्रातृदयचेव मंडणे लग्गा अच्छइ तीए अचिरेण कालेणं परिक्खीणं घरं, इयरीए धणधण्णेणं घरं समिद्धं जायं । एवं च जो
स्थ वधूद्वयं साह वण्णहेज रूबहेउँ वा आहारं आहारेइ, नवि आयरिए गवि बालबुडगिलाणदुखले पडियग्गति अप्पणो य गहाय, पजत्तं नियत्सइ, एवं सो अप्पपोसओ, जहा सा चुका हिरण्णाईणं एवं सोवि निजरालाभो तस्स चुकिहिइ, पसत्थो इमोजो णो वण्णहेउं रूवहेउं वा आहारं आहारेइ, वालाईणं दाउं पच्छा आहारेइ, सो नाणदसणचरित्ताणं आभागी भवति । एवं पसत्येण भावेणं आहारेयवो सो पिंडो । इदानीमेनमेवार्थं गाथाभिरुपसंहरमाहसज्झिलगा दो वणिया गाम गंतूण करिसणारंभो। एगस्स देहमंडणबाउसिआ भारिया अलसा ।। ४९५ ॥ मुहधोवण दंतवणं अहागाईण कल्ल आवासं । पुखण्हकरणमप्पण उक्कोसयरं च मज्झण्हे ॥ ४९६ ।। तणकट्ठहारगाणं न देइ न य दासपेसवग्गस्स । न य पेसणे निउंजइ पलाणि हिय हाणि गेहस्स ॥४९७॥l विइयस्स पेसवरगं वावारे अन्नपेसणे कम्मे । काले देहाहारं सयं च उवजीवई इही ॥ ४९८॥ | सुगमाः नवरं 'याउसिआ' बिहूसणसीला ॥ मुखधावनं करोति, तथा 'कल्ल'त्ति कल्यपूषकम् आवश्यक पूर्वाहे |
दीप अनुक्रम [७८३]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७८७] - "नियुक्ति: [४९८] + भाष्यं [२६१...] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
SCAMER
गाथांक नि/भा/प्र ||४९८||
दीप अनुक्रम [७८७]
85%250-5%
करोत्यात्मना चोत्कृष्टतरं च घृतपूर्णादि मध्याहे भक्षयत्येकाकिनी ॥ तृणकाष्ठहारकाणां न किञ्चिद्ददाति दासवर्गस्य तथा प्रेष्यो यः कश्चित्प्रेष्यते तद्वर्गस्य च न किश्चिद्ददाति, न च 'प्रेषणे' कार्ये नियुले कर्मकरान् , ततश्च भोजनादिना विना 'पलाणा' नष्टाः हृतं च यत्किश्चिद्गृहे रिक्थमासीत्, एवं हानिर्जाता गेहस्य, तत्रायं लौकिकोप्रशस्तो भावः।। इदानी लौकिकप्रशस्तभावप्रतिपादनायाह-द्वितीयस्य या भार्या सा प्रेष्यवर्ग व्यापारयित्वा प्रेपणा कार्ये कर्मणि च विविधे काले च तेषामाहारं ददाति स्वयं च काले आहारमुपजीवति । अयं च लौकिकोऽत्र प्रशस्तो भाव उक्तः, इदानीं लोकोत्तराप्रशस्तप्रतिपादनायाहवन्नयलरूपहेउं आहारे जो तु लाभि लभते । अतिरेगं न उ गिण्हा पाउग्गगिलाणमाईणं ॥ ४९९ ॥ जह सा हिरपणमाईसु परिहीणा होइ दुक्खआभागी। एवं तिगपरिहीणो साहू दुक्खस्स आभागी॥५०॥ आपरियगिलाणट्ठा गिह न महंति एव जो साहू। नो वन्नरूवहे आहारे एस उ पसत्थो ॥५०१॥ । वर्णबलरूपहेतुमाहारयति यश्च लाभे क्षीरादौ लभ्यमाने सति प्रायोग्य ग्लानादीनामतिरिक्त न गृह्णाति । यथा सा गृहस्था हिरण्यादिपरिहीना संजाता दुःखभागिनी च जाता एवं साधुरपि त्रिकेण-ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणेन हीनो दुःखस्य |भागी भवति । उको लोकोत्तरोऽप्रशस्तः, इदानी लोकोत्तरप्रशस्तभावदर्शनायाह-आचार्यादीनामर्थाय गृह्णाति न ममेदं 8 योग्यं किन्त्वाचार्यादेः, एवं यः साधुकाति, शेषं सुगम । उक्तो लोकोत्तरः प्रशस्तो भावः, उक्तं भावद्वारम् ॥
उग्गमउप्पापणएसणाए बायाल होति अवराहा । सोहे समुयाणं पडप्पन्ने वचए वसहि ॥५०२॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७९२] → "नियुक्ति : [५०३] + भाष्यं [२६१...] + प्रक्षेपं [२७...]" .. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
श्रीगोपनियुक्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५०३||
द्रोणीया वृत्तिः
॥१७३n
सुन्नघरदेउले चा असई य उबस्सयस्स वा दारे । संसत्तकंटगाई सोहेउमुवस्सगं पविसे ॥ ५०३ ॥ भावद्वारोप एवं साधुरुगमोत्पादनैषणाभिर्विचत्वारिंशदपराधा भवन्ति तैः समुदानं भैक्षं 'शोधयित्वा' विविच्य ततः 'पडप्पन्ने' लब्धे सहारः नि:
४९९-५०१ सति भकादी वसतिं प्रयाति । इदानीं तद्भक्तं गृहीतं सच्छोधयित्वा यसतिं प्रविशति, केषु स्थानेषु १, अत आह-गृहीत्वा
गृहीतभक्तभक्तमुपाश्रयाभिमुखो व्रजेत् , शून्यगृहे तद्भक्तं प्रत्युपेक्ष्य ततो वसतिं प्रविशति, तदभावे देवकुले वा, 'असई य' गृहादी- प्रवेश नामभावे उपाश्रयद्वारे संसक्तं सैः कण्टकैर्वा यद्व्याप्तं तत् शोधयित्वा-प्रोज्झ्य संसक्तादिभक्तं तत उपाश्रयं प्रविशति । विधिःनि. एवं तस्य प्रत्युपेक्ष्यमाणस्य कदाचित्संसक्तं भवति तत्र किं करोतीत्यत आह
५०२-५०५ संसत्तं तत्तोचिअ परिहवेत्ता पुणो दवं गिण्हे । कारण मत्तय गहि पडिग्गहे छोटु पविसणया ॥५०४ ॥
यदि तत्र संसक्तं भक्तं पानक वा भवेत्ततस्तस्मादेव स्थानात्प्रतिस्थाप्य पुनरप्यन्यद्रवं गृह्णाति, तथा ग्लानादिकारणेन च मात्रके यहहीतमासीत्तत्पतहे प्रक्षिप्य प्रविशति, यतस्तस्य साधुभिराख्यातं यदुत ग्लानस्थान्यलब्धमतो निष्कारण
मात्रकोपयोगं परिहरन पतबहे प्रक्षिष्य प्रविशति, निष्कारणमात्रकोपयोगे च प्रमादी भवति । एवमसी परिशुद्धे सति || दाभक्त प्रविशति उपाश्रयं । अथाशुद्धं भवति ततः परिष्ठाप्य किं करोतीत्यत आह
॥१७॥ गामे य कालभाणे पहुचमाणे हवंति भंगट्ठा । काले अपहुप्पते नियत्तई सेसए भयणा ॥५०५॥ । यदा ग्रामः पर्याप्यते कालश्च यदा पर्याप्यते भाजनं च पर्याप्यते एवमसिंस्त्रये पर्याप्यमाणे सति पदत्रयनिष्पन्ना अष्टौ |
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दीप अनुक्रम [७९२]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७९४] . "नियुक्ति: [१०५] + भाष्यं [२६१...] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||५०५||
भङ्गा भवन्ति, तेषां च भङ्गकानां मध्ये यस्मिन् भङ्गके कालो न पर्याप्यते तस्मिन्निवर्त्तत एव, शेषेषु चतर्ष भरेषा 'भजनां' विकल्पनां करोति सेवना वा करोति । इदानी भजनां दर्शयन्नाहअपणं च वए गाम अण्णं भाणं व गेण्ह सइ काले । पढमे वितिए छप्पंचमे य भय सेस य नियते ॥५०६ ॥४ ___ अन्यं ग्राम वा प्रजति काले पर्याप्यमाणे, अन्यं च भाजनं गृह्णाति पर्याप्यमाणे काले सति, एवं प्रथमे भने द्वितीयेच षष्ठे
पश्चमभङ्गकेच "भजना' सेवनां करोति काले सति, शेषभङ्गेषु येषु कालो न पर्याप्यते तेषु 'निवर्सन' गन्तव्यं भिक्षाया | काश्त्यर्थः । स च पर्याप्यमाणः कालो द्विविधः-जघन्य उत्कृष्टश्च, तत्र जघन्यप्रतिपादनायाह
बोसिहमागयाणं उदासिअ मत्तए य भूमितिअं । पडिलेहियमस्थमणं सेसस्थमिए जहन्नो उ ॥ ५०७॥
सम्झां व्युत्सृज्यागताना मात्रकं च यस्मिन् तोयं गृहीत्वा गत आसीन्निर्लेपनार्थं तस्मिन्नुदासिते-शोषिते सति भूमित्रिके च-कायिकीभूमौ द्वादश स्थण्डिलानि संज्ञाभूमौ द्वादश स्थण्डिलानि कालभूमौ त्रीणि स्थाण्डिलानि, एवमस्मिन् भूमि६ त्रितये प्रत्युपेक्षिते सति यदाऽस्तमनं भवति तस्मिन् प्रदेशे 'अंत्यमिए'त्ति शेषोपधि अस्तमिते आदित्ये प्रत्युपेक्षते यदा अयमित्थंभूतो जघन्यः काल इति । इदानीमुस्कृष्टकालप्रतिपादनायाहभुत्ते वियारभूमी गयागयाणं तु जह य ओगाहे । चरमाए पोरिसीए उकोसो सेस मज्झिमओ ॥ ५०८ ॥ भुक्ते सति विचारभूमि गत्वाऽऽगतानां यथा 'ओगाहे' आगच्छति घरमा पौरुषी-चतुर्थः प्रहरः, अथवा चरमपी
दीप अनुक्रम [७९४]
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७९७] . "नियुक्ति: [१०८] + भाष्यं [२६१...] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५०८||
श्रीओघ- रुषी-पादोनश्चतुर्थप्रहरो यथाऽऽगच्छति अस्यां वेलाकामयमुत्कृष्टः कालः, शेषस्त्वन्यो मध्यमः काल इति । तेन च भिक्षाम- मामादिपनियुक्तिःटित्वा विनिवृत्त्य प्रविशता वसतो किं कर्त्तव्यमत आह
पर्याप्तता नि. द्रोणीया पायपमजणनिसीहिआ य तिनि उ करे पवेसंमि । अंजलि ठाणविसोही दंडग उवहिस्स निक्खेवो ॥ ५०९॥४/५०६-५०८ वृत्तिः बहिरेव वसतेः पादौ प्रमार्जयति निषीधिकात्रितयं करोति, प्रविशन् पुनश्च गुरोः पुरस्तादञ्जलिना नमस्कारं करोति ।
वसतिप्रवे
शः नि. १७ 'नमो खमासमणाणं"ति, तथा प्रविष्टश्च स्थान विशोधयति यत्र दण्डकस्योपधेश्च निक्षेपं करोति । इदानीमेतामेव गाथां |
५०९ भा. भाष्यकारो व्याख्यानयन्नाह
२६२-२६३ एवं पडुपन्ने पविसओ उ तिन्नि व निसीहिया होति । अग्गबारे मज्झे पवेस पाए य सागरिए ॥ २६२ ॥ (भा०)।
एवं प्रत्युत्पन्ने-लब्धे सति भक्ते प्रविशतस्तिस्रो निषीधिका भवन्ति, क-अग्रद्वारे प्रथमा तथा द्वितीया मध्यप्रदेशे वसतेः प्रवेशे च मूलद्वारस्य तृतीयां निषीधिकां करोति पादौ च प्रमार्जयति यदि कश्चित् सागारिको न भवति, अथ तत्र सागा|रिको भवति ततो वरण्डकाभ्यन्तरे प्रमार्जनं करोति, अथ मध्यमेऽपि भवति-द्वितीयनिषीधिकास्थानेऽपि भवति ततो
मध्ये प्रविश्य प्रमार्जयति पादी, तेन च कारणेन पश्चादायकारेण पादप्रमार्जनं व्याख्यातं येन तदनियतं वर्तते, निषी18 धिकास्वकृतास्वपि कारणवशात्संभवतीति । इदानीमञ्जल्यवयवं व्याख्यानयन्नाह
॥१७४॥ हत्थुस्सेहोसीसप्पणामणं चाइओ नमोकारो। गुरुभायणे पणामो बायाऍ नमो न उस्सेहो ॥२६३ ॥ (भा०)
हस्तस्योत्सेधं नमस्कारार्थं करोति, शीर्षप्रणमनं करोति, वाचा च "नमो खमासमणाणं ति, इत्येवं नमस्कारं करोति
दीप अनुक्रम [७९७]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७९९] .→ "नियुक्ति: [५०९] + भाष्यं [२६३] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||५०९||
अथ तद्गुरु भिक्षाभाजनं भवति मात्र च गुरु गृहीतमङ्गलीभिः, ततश्चैवं गुरुणि भाजने सति शिरसा प्रणाम करोति वाचा च नम इत्येवं ब्रूते, न हस्तोच्छूयं करोति, यतोऽसौ गुरोर्मात्रकस्याधो हस्तो दत्तः साधारणार्थमतोऽक्षणिकस्ततच
नोच्छ्यं करोति । इदानीं स्थानविशोधि व्याख्यानयन्नाह६ उवरि हेहा य पमज्जिऊण लडिं ठवेज सहाणे । पढें उबहिस्सुवरि भायणवत्थाणि भाणेसु ॥ २६४ ॥ (भा०)
उपरि-कुक्यस्थाने अघस्ताच्च-भुवं प्रमृज्य पुनश्च स्वस्थाने यष्टिं स्थापयेत्, पुनश्च 'पट्टक' चोलपट्टकमुपधेरुपरि स्थापयेत्-मुश्शति 'भाजनवखाणि च' पटलानि 'भाजनेषु' पात्रोपरि स्थापयति ॥ जइ पुण पासवर्ण से हवेज तो उग्गहं सपच्छागं । दाउं अन्नस्स सचोलपट्टओ काइयं निसिरे ॥२६५।। (भाका | यदि पुनस्तस्य साधोः 'प्रश्रवणं' कायिकादिर्भवति ततश्च 'अवग्रह' पतग्रह 'सपच्छागं' सपटलं 'दातुं' अर्पयित्वा | अन्यस्य साधोः पुनश्च सह चोलपट्टकेन-चोलपट्टकद्वितीयः कायिकां व्युत्सृजति । कायिका व्युत्सृज्य कायोत्सर्ग करोति, तत्र च को विधिरित्यत आह
चउरंगुलमुहपत्ती उज्जुयए वामहत्थि रयहरणं । बोसहचत्तदेहो काउस्सग्गं करेजाहि ॥ ५१०॥ चतुर्भिरलैर्जानुनोरुपरि चोलपट्टगं करोति नाभेश्चाधश्चतुर्भिरङ्गलैः पादयोश्चान्तरं चतुरङ्गलं कर्त्तव्यं, तथा मुखवस्त्रिकामुज्जुगे-दक्षिणहस्तेन गृह्णाति वामहस्तेन च रजोहरणं गृह्णाति, पुनरसी ब्युत्सृष्टदेहः-प्रलम्बितबाहुस्त्यक्तदेहः सर्पाद्युप
दीप अनुक्रम [७९९]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८०३] → "नियुक्ति: [५१०] + भाष्यं [२६५] + प्रक्षेपं [२७...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
श्रीमओप
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५१०||
वेऽपिनोत्सारयति कायोत्सर्ग, अथवा व्युत्सृष्टदेहो दिव्योपसर्गेष्वपि न कायोत्सर्गभङ्गं करोति, त्यक्तदेहोऽक्षिमलदूपिका- कायिका नियुतिः मपि नापनयति, स एवंविधः कायोत्सर्ग कुर्यात् । इदानीमेनामेव गाथा भाष्यकारो व्याख्यानयज्ञाह
भा. ब्रोणीया
२६४-२६५ चउरंगुलमप्पत्तं जाणुगहेट्ठा छिवोवरिं नाहिं। उभओ कोप्परधरिअं करेज पट्टच पडलं वा ॥ २६६ ।। (भा०)
नि. ५१० पूचुदिडे ठाणे ठाउं चउरंगुलंतरं काउं । मुहपोत्ति उज्जुहत्थे वार्ममि य पायपुंछणयं ॥ ५११॥
कायोत्सर्ग॥१७५॥ काउस्सग्गंमि ठिओ चिंते समुयाणिए अईआरे । जा निग्गमप्पवेसो तत्थ उ दोसे मणे कुज्जा ॥ ५१२ ॥ श्वभा.२६६
चतुर्भिरङ्गलैरधो जानुनी अप्राप्तश्चोलपट्टको यथा भवति तथा नाभिं चोपरि चतुर्भिरङ्गुलैर्यथा न स्पृश्शति, उभयतो-18/ नि. ५११. बाहुकूपराभ्यां धृतं करोति 'पट्टक' चोलपट्टकं पडलं वा उभयकूपरधृतं करोति, यदा चोलपट्टकः सच्छिद्रो भवति तदा ५१२आलो पटलं गृह्णाति । पूर्वोद्दिष्टमेव कायोत्सर्गस्थानं तत्र स्थित्वा, तथा पादस्य चान्तरं चतुरङ्गलं कृत्वा मुखवत्रिकां च दक्षिण- चनावा
दानि.५१३ हस्ते कृत्वा वामहस्ते पादपुन्छनक-रजोहरणं कृत्वा कायोत्सर्गेण तिष्ठति । पुनश्च कायोत्सर्गेण व्यवस्थितश्चिन्तयेत् 'सामु-81 दानिकानतिचारान् भिक्षातिचारानित्यर्थः, कस्मादारभ्य चिन्तयत्यतिचारान् ?-निर्गमादारभ्य यावत्प्रवेशो वसती जातः
अस्मिन्नन्तराले तत्र दोषा ये जातास्तान् 'मनसि करोति' स्थापयति चेतसि ॥ हैते उ पडिसेवणाए अणुलोमा होति वियडणाए य । पडिसेववियडणाए एत्थ उ चउरो भवे भंगा ॥५१३ ॥ 8 ॥१७॥
तांश्चातिचारान् प्रतिसेवनानुलोम्येन-यथैव प्रतिसेवितास्तेनैवानुक्रमेण कदाचिच्चिन्तयति, तथा 'वियडणाए'त्ति 8 विकटना-आलोचना तस्यां चानुलोमानेव चिन्तयति, पतदुक्तं भवति-पढम लहुओ दोसो पडिसेविओ पुणो वड्डो वड्डयरो,
दीप अनुक्रम [८०३]
Dinesturary.com
आलोचनाविधे: विधानं वर्णयते
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८०८] → “नियुक्ति: [५१३] + भाष्यं [२६६] + प्रक्षेपं [२७...]". मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५१३||
चितेइ एवमेव, ततश्च प्रतिसेवनाया अनुकूलम् , आलोचनायामप्यनुकूलमेव, यतः प्रथम लघुको दोष आलोच्यते पुनर्वहत्तरः पुनर्वृहत्तम इत्येष प्रथमभङ्गकः, अण्णी पडिसेवणाए अणुकूलो न उण विअडणाए, एतदुकं भवति-आसेवि पढम | वडं पुणो लहु पुणो वई पुणो बड्डयरं, चिंतेइ एवमेव,ततश्च प्रतिसेवनाया अनुकूलं न वालोचनायाः, यतस्तत्र प्रथम लघुतर
आलोच्यते पुनर्बहत्तरः पुगङ्घहत्तम इत्येष द्वितीयः, अण्णो पडिसेवणाए नाणुकूलो आलोयणाए पुण अणुकूलो,एतदुक्तं भवति-| द अडवियड्डा पडिसेविआ चिंतेइ पुण आलोयणाणुकूलेणं,एष तइयो भंगी, अण्णे उण पडिसेवणाएवि अणणुकूलो आलोयणा-18
एवि अणकूलो, एतदुक्तं भवति-पढम बड्डो पडिसेविओ पुणो लहुओ पुणो वड्डो वड्डयरो,चिंतेइ पुण जं जहा संभरइ,पढम वडो पुणो लहुमो पुणो बड्डो पुणो वड्यरो, एवं अडवियहं चिंतंतस्स ण पडिसेवणाणुकूलो णालोयणायकूलो, एस चउत्थो, एसो य वजेययो । इदानीममुमेवाथे गाथार्डेनोपसंहरनाह-'पडिसेववियडणाए होति एत्थंपि चउभंगा' इदं व्याख्यातमेवेति । इदानी सामुदानिकानतिचारानालोचयति यदि व्याक्षेपादिरहितो गुरुर्भवति, अथ व्याक्षिप्तो गुरुभवति तदा नालोचयति, एतदेवाह
वक्खित्तपराहुत्ते पमत्ते मा कयाह आलोए । आहारं च करेंतो नीहारं वा जइ करेइ ।। ५१४ ॥ कहणाईवक्खित्ते विकहाइ पमत्त अनओ व मुहे । अंतरमकारए वा नीहारे संक मरणं वा ॥२६७।। (भा०) 3 ब्याक्षिप्तो धर्मकथनादिना स्वाध्यायेन, 'परासोत्ति पराङ्मुखः पराभिमुख इत्यर्थः, प्रमत्त इति विकथयति, एवंविध
गुरौ न कदाचिदालोचयेत्, तभाऽऽहारं कुर्वति सति, तथा मीहारं वा यदि करोति ततो नालोचयति । इदानीमेतामेव
दीप अनुक्रम [८०८]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८०९] → “नियुक्ति: [५१४] + भाष्यं [२६७] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५१४||
आलोचना विधिःनि. २१४-५१६ | भा.२६८
AGRICA
२७.
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श्रीओष
गाथां भाष्यकारी व्याख्यानयन्नाह-धर्मकथादिना वा च्याक्षिप्तः कदाचिद् गुरुर्भवति, विकथादिना वा प्रमत्तोऽन्य- नियुक्ति तोऽभिमुखो वा भवति, भुजतोऽपि नालोचनीयं, किं कारणं ?-'अंतरंति अन्तरायं वा भवति यावदालोचनां शृणोति, द्रोणीया अकारकं वा-शीतलं भवति यावदालोचना शृणोति । तथा नीहारमपि कुर्वतो नालोचनीयं, किं कारणं १, यत आशङ्कया| वृत्तिः
साधुजनितया न कायिकादिर्निर्गच्छति, अथ धारयति ततो मरणं वा भवति । यस्मादेते दोषास्तस्मात्
अपक्खित्ताउत्तं वसंतमुबहिरं च नाऊणं । अणुन्नवेत्तु मेहावी आलोएज्जा सुसंजए ॥ ५१५॥ ॥१७६॥
कहणाइ अवक्खित्ते कोहाइ अणाउले तनुवउत्ते । संदिसत्ति अणुन्नं काऊण विदिनमालोए ॥२१८॥ (भा०) | धर्मकथादिनाऽव्याक्षिप्ते गुरी आलोचयेत् , आयुक्त-उपयोगतत्पर, उपशान्तं' अनाकुलं गुरुं दृष्ट्वा 'उपस्थित उद्यतंच है ज्ञात्वा, एवंविधं गुरुमनुज्ञाप्य मेधावी आलोचयेत् 'सुसंयतः साधुः । इदानीमेतामेव गाथां व्याख्यानयन भाष्यकृ
दाह-धर्मकथादिनाऽव्याक्षिप्ते क्रोधादिभिरनाकुले तदुपयुक्त-भिक्षालोचनोपयुक्ते च 'संदिसहत्ति अणुन काऊण' संदिशत आलोचयामीत्येवमनुज्ञा कृत्वा-मार्गयित्वेत्यर्थः, 'विदिपणे त्ति आचार्येण विदिन्नायामनुज्ञायां भणत इत्येवंलक्षणायां तत आलोचयेत् । तेन च साधुनाऽऽलोचयता एतानि वर्जनीयानि
नह वलं चलं भासं मूयं तह ढहरं च वजेजा । आलोएन सुविहिओ हत्थं मत्तं च वावारं ॥ ५१६ ॥ दारं ॥ ४ करपाय भमुहिसीसच्छिउढिमाईहि नट्टि नाम । बलणं हत्यसरीरे चलणं काए य भावे य ॥२६९।। (भा)
गारत्थियभासाओ य वज्जए मूय ढहरं च सरं । आलोए चावारं संसहियरे व करमत्ते ॥ २७०॥ (भा०)
दीप अनुक्रम [८०९]
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॥१७६॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८१४] .→ "नियुक्ति: [५१६] + भाष्यं [२७०] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
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प्रत
SANA
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गाथांक नि/भा/प्र ||५१६||
| नृत्यमालोचयति बलन्नालोचयति अंगानि चलयन्नालोचयति, तथा भाषमाणो गृहस्थभाषया नालोचयति, कि तह-15 संयतभापयाऽऽलोचयति, तद्यथा-मुयारियाउ इत्येवमादि, तथा चालोचयन् मूकेन स्वरेण नालोचयति मिणिमिणत, तथा दहरेण च स्वरेण-उच्चै लोचयति, एवंविधं स्वरं वर्जयेत् । किं पुनरसावालोचयतीत्यत आह-आलोचयेत्सुविहितो हस्तमुदकस्निग्ध, तथा 'मात्रक' गृहस्थसत्कं कडुच्छुकादि-उदकादि, तथा गृहस्थया कतमं व्यापार कुर्षया भिक्षा दत्तेत्येतच्चालोचयति । इदानीमेतामेव गाथां व्याख्यानयन्नाह करस्य तथा पादस्य भ्रवः शिरसः अक्ष्णः ओष्ठस्य च,8 एवमादीनामङ्गानां सविकारं चलनं नर्त्तनं नाम, एतत् कुर्वशालोचयति, वलनं हस्तस्य शरीरस्य कुर्वन्नालोचयति, तथा है चलनं कायस्य करोति मोटनं तत्कुर्वन्नालोचयति,तथा भावतश्चलनमन्यथा गृहीतमन्यथाऽऽलोचयति अड्डवियडं। आलो-11 चयन् गृहस्थभाषया नालोचयति, यथा “सुग्गीओ(लंगणीओ)लद्धाओ मंडया लद्धा" इत्येवमादि, किन्तु संयतभाषया|
लोचनीयं “सुयारियाज" इत्येवमादि, मूकस्वरं मनाक ढहरं च महान्तं स्वर वर्जयन्नालोचयति, किमालोचयति ?-'व्यापार | *गृहस्थयोः संबन्धिन, तथा 'संसृष्टम्' उदकाादि, 'इतरं असंसृष्टं, किं तत्-कर संसृष्टमसंसृष्टं च उदकेन, तथा 'मात्रक'|
गृहस्थसत्कं कुण्डलिकादि उदकसंसृष्टमसंसृष्टं चेति, एतदालोचयेत् ।। एयहोसविमुकं गुरुणा गुरुसम्मयस्स वाऽऽलोए । जं जह गहियं तु भवे पढमाओ जा भवें चरिमा ॥ ५१७ ॥
एभिर्दोषविमुक्तमनन्तरोक्तभैक्षमालोचयेद्गुरोः समीपे वा यो गुरोः संमतो-बहुमतस्तस्य समीपे आलोचयेत् , कथमा
दीप अनुक्रम [८१४]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८१५] .→ "नियुक्ति: [५१७] + भाष्यं [२७०] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
श्रीओष- नियुकि द्रोणीया
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५१७||
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॥१७७॥
लोचनीयं ?, यद्यथा गृहीतं भवेत् येन क्रमेण बट्टहीतं प्रथमभिक्षाया आरभ्य वावञ्चरमा-पश्चिमा भिक्षा साबदालोचयेदिति। आलोचना पष तावदुत्सर्गेणालोचनविधिः । यदा पुनरेतानि कारणानि भवन्ति तदा ओघत आलोचयतीत्येतदेवाह
विधिःनि. का काले य पहुप्पंते उचाओ वावि ओहमालोए। वेला गिलाणगस्स व अइच्छा गुरू व स्चाओ॥५१८॥ ५१७-५२०
यदातुपुनः काल एव न पर्याप्यते यावदनेन क्रमेणालोचयति तावदस्तं गच्छत्यादित्यः तदा तस्मिन् काले ओघत आलोचयति, यदिवा श्रान्तः कदाचिद्भवति तदाऽप्योधत एवालोचयति, वेला वा ग्लानस्यातिकामति यावत्कमेणालीचयति अत ओघत आलोचयति, अथवा गुरुः उच्चातो-श्रान्तः कुलादिकार्येण केनचित् तत ओषत आलोचयस्येवं कारपैरिति । का| चासाबोघालोचना, पुरकम्मपच्छकम्मे अप्पेऽसुद्धे य मोहमालोए । तुरियकरणमिजं सेम सुजाई तसि कहए ५१९॥
आकुलत्वे आपने सत्येवमोघालोचनयाऽऽलोचयति-पुरकर्म पश्चात्कर्म च अल्प-नास्ति किचिदिखा, 'असजे यसि अशुद्ध चाल्प, अशुद्धमाधाकर्माद्यभिधीयते तदल्यं नास्तीति, एवमोघतः सङ्केपेणालोचयेत् । 'तुरियकरणमिति त्वरिते 8 कार्ये जाते सति यन्न शुक्ष्यति उक्तेन प्रकारेण तावन्मात्रमेव कथयति, एपा ओघालोचनेति ॥ भालोइसा सबं सीसं सपडिग्गहं पमजिसा । उदुमहो तिरियमी पडिलेहे सबओ सर्व ॥५२॥
॥१७७॥ एषमेषा मानसी भालोचना वाचिकी याऽऽलोचनोका, इदानी कायिकी आलोचना भण्यते-आचार्यस्य भिक्षा18 दश्यते, एवं मनसा बाचा वाऽऽलोचयित्वा 'सर्वे निरवशेष, तथा मुखबस्त्रिकया निरः प्रमृज्य पतनहं च सपटलंद
दीप अनुक्रम [८१५]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८१८] → "नियुक्ति: [५२०] + भाष्यं [२७१] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||५२०||
प्रमृज्य कई पीठीः 'अधों' भुवि 'तिर्यक' तिरश्चीनं 'मत्युपेक्षेत निरूपयेत् 'सर्वतः' समन्ताचसष्वपि दिक्षु सर्वचैरन्तर्येण, ततः पतई हस्ते कृत्वा भक्तादि गुरोदेर्शयतीति वक्ष्यति भाष्यकृत् । इदानीमेतामेव गाथां भाष्यकृदाह, तत्र गुरुदोषत्वात्प्रथममूर्दादीनि त्रीणि पदानि व्याख्यानयनाहउहुं पुप्फफलाई तिरियं मजारिसाणर्डिभाई। खीलगदारुगआवडणरक्खणट्ठा अहो पेहे ॥ २७१(भा०) | उद्यानादौ आवासिताना सतां पुष्पफलादिपातमूई निरूप्य ततो गुरोर्दर्शयति, तिर्यङ्मार्जारवाडिम्भानालोक्यालोचयति, मा भूत्ते आगच्छन्तस्तत्पात्रमुरमेर्य पातयिष्यन्ति, आदिशब्दात्काण्ड वा केनचिद्विक्षिप्तमायाति, अतस्तिर्यग् निरूप्यते, तथाऽधो निरूपयति, किमर्थं , कदाचित्कीलको भवति, तत्रापतनम्-आस्खलन मा मूदिति, अतोऽयो निरूप्य ततो भक्कादि दर्शयति । इदानीं 'सीसं सपडिग्गह पमजेत्त'त्ति व्याख्यानयति
ओणमओ पवडेजा सिरओ पाणा सिरं पमज्जेजा। एमेव उग्गहंमिवि मा संकुरणे तसविणासो॥२७॥ (भा०) | हस्तस्थे पतम्रोऽवनमतः शिरसः प्रपतेयुः प्राणिनः कदाचिदतः शिरः प्रथममेव प्रमार्जयेत्, एवमेव पतनहे प्रमार्जन कृत्वा प्रदर्शयेभक्तादि, किं कारणं :-'भा संकुरणे तसविणासो'त्ति मा भूत्सकोचने सति पटलानां वसादिविनाशो भविष्यत्यतः प्रमृज्य पतदहं भक्तं प्रदर्शयतीति । काउं पडिग्गहं करयलंमि अद्धं च ओणमित्ताणं । भत्तं वा पाणं वा पडिदंसिज्जा गुरुसगासे ॥ २७३ ॥ (भा)
कृत्वा पतनहं करतले अर्धे च शरीरस्यावनम्य पुनर्भक्तं वा पानं वा प्रदर्शयेत् गुरुसगासे इति ॥
दीप अनुक्रम [८१८]
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||५२०||
दीप
अनुक्रम
[८२२]
श्रीओघनिर्युतिः
द्रोणीया
वृत्तिः
॥१७८॥
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [८२२] • → मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
८०
"निर्युक्तिः [५२०] + भाष्यं [ २७४ ] + प्रक्षेपं [२७...]" आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
ताय दुरालोइय भत्तपाण एसणमणेसणाए उ । अङ्कुस्सासे अहवा अणुग्गहादीउ झापा ||२७४|| (भा० )
ततः कदाचिद्दुरालोचितं भक्तपानं भवति, 'नहं वलं चलें' इत्येवमादिना प्रकारेण तथैषणादोषः कदाचित् सूक्ष्मः कृतो भवति, अनेषणादोषो वा कश्चिदजानता, ततश्चैतेषां विशुद्ध्यर्थमष्टोच्छ्वासं - नमस्कारं ध्यायेत्, अथवा 'अनुग्रहादी'ति अथवाऽनुग्रहादि ध्यायेत्, "जइ मे अणुग्गहं कुजा साहू हुज्जामि तारिओ" इत्येवमादि गाथाद्वयं कायोत्सर्गस्थो * विशुद्धयर्थं ध्यायेत्, उत्सार्य च कायोत्सर्गे ततः स्वाध्यायं प्रस्थापयेत् । एतदेवाह -
विणण पवित्त सझायं कुणइ तो महत्तागं । पुवभणिया य दोसा परिस्समाई जढा एवं ।। ५२१ ॥
विनयेन प्रस्थाप्य स्वाध्यायं योगविधाविव ततः स्वाध्यायं मुहूर्त्तमात्रं करोति, जघन्यतो गाथात्रयं पठति, उत्कृष्टतश्चतुदशापि सूक्ष्माणप्राणलब्धिसंपन्नोऽन्तर्मुहूर्त्तेन परावर्त्तयति, एवं च कुर्वता पूर्वभणिता दोषा 'धातुक्षोभे मरण' मित्येवमादयः तथा परिश्रमादयश्च दोषा 'जटाः त्यक्ता भवन्तीति ॥
दुविहो य होइ साहू मंडलिउवजीवओ य इयरो य । मंडलिमुवजीवंतो अच्छइ जा पिंडिया सवे ॥ ५२२ ॥ स च साधुर्द्विप्रकारो - मण्डल्युपजीवकः इतरश्च-अमण्डल्युपजीवकः, तत्र यो मण्डल्युपजीवकः साधुः सोऽटित्वा भिक्षां तावत्प्रतिपालयति यावत् 'पिण्डिताः' एकीभूताः सर्वेऽपि साधवो भवन्ति, पुनश्च स तैः सह भुङ्क्ते ।
इयरोवि गुरुसगासं गंतॄण भणह संदिसह भंते । । पाहुणगखवगअतरंतयालाणसेहाणं ॥ ५२३ ॥
For Pale On
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भदर्शने ववद्यालो
का भा. २७१-२७४ स्वाध्यायः नि. ५२१ मण्डलीनि. ५२२५२३
॥१७८॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८२५] . "नियुक्ति: [१२३] + भाष्यं [२७४...] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
*
%
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||५२३||
+5-0%
'इतरोऽपि' अमण्डल्युपजीवकः,तत्र यो मण्डल्युपजीवकः स साधुर्मुरुसगासं गत्वा तमेव गुरुं भणति-यथा हे आचार्या संदिशत-ददत यूयमिदं भोजन प्राघूर्णकक्षपकअतरन्तवालवृद्धशिक्षकेभ्यः साधुभ्य इति । पुनश्च
दिपणे गुरूहि तेर्सि सेसं भुंजेज गुरुअणुन्नायं । गुरुणा संविट्ठो वा दाउं सेसं तओ भुंजे ॥ ५२४ ॥ । एवमुक्तेन सता गुरुणा दत्ते सति तेभ्यः-प्राघूर्णकादिभ्यो यच्छेषं तद् भुञ्जीत गुरुणाऽनुज्ञाते सति, यदिवा गुरुणा 'सन्दिष्टः उक्तः यदुत त्वमेव प्राघूर्णकादिभ्यः प्रयच्छ, एवमसौ साधुणितः सन् दत्त्वा प्राघूर्णकादिभ्यस्ततः शेष यद् भक्तं तत्रुझे । एवं न केवलमसौ प्राघूर्णकादिभ्यो ददाति अन्यानपि साधूनिमन्त्रयति, तत्र यदि ते गृह्णन्ति ततो निर्जरा, अथ न गृहन्ति तथाऽपि विशुद्धपरिणामस्य निरैवेति ॥ एतदेवाहइच्छिज्जन इच्छित व तहविय पयओ-निमंतए साहू । परिणामविसुद्धीए अ निजरा होअगहिएपि ॥ ५२५॥
इच्छेत् कश्चित्साधुर्नेच्छेद्धा तथापि प्रयत्नेन-सद्भावेन निमन्त्रयेत्साधून , एवं सद्भावेन निमन्त्रयमाणस्य 'परिणामविशुख्या'चित्तनैर्मल्यान्निर्जरा भवति-कर्मक्षयलक्षणाऽगृहीतेऽपि भक्ते । अथावज्ञया निमन्त्रयति ततोऽयं दोषःभरहेरवयविदेहे पन्नरसवि कम्मभूमिगा साह । एकमि हीलियमी सबे ते हीलिया हुंति ॥ ५२६ ॥ भरहेरवयविदेहे पनरसवि कम्भभूमिगा साहू। एकमि पूजयंमी सबे ते पूइया टुंति ॥ ५२७॥ अह को पुणाद नियमो एफमिवि हीलियंमि ते सो।होंति अवमाणिया पूइए य संपूहया सवे ॥ ५२८ ॥ नाणं व दसणं वा तवो य तह संजमो य साहुगुणा । एक्के सवेमुवि हीलिएसु ते हीलिया हुंति ॥ ५२९ ॥
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दीप अनुक्रम [८२५]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८३२] → “नियुक्ति : [५३०] + भाष्यं [२७४...] + प्रक्षेपं [२७...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र
श्रीओषनिर्यकि द्रोणीया वृत्तिः
॥१७९॥
||५३०||
052
एमेच पूहयमिवि एकमिवि पहया जइगुणा उ । यो बहनिवेसं हह नचा पूयए महमं ॥३०॥
भिकादितम्हा जइ एस गुणो एकमिवि पूइयंमि ते सवे । भत्तं वा पाणं वा सवपयत्तेण दाययं ॥ ५३१ ॥ दानं नि. सुगमा ॥ यदा पुनरादरेण निमन्त्रयते तदायं महान् गुणः-सुगमा ॥ अत्राह परः-अथ का पुनरय नियमः । यदे-18 ५२४-५२५ कस्मिन्नवमानिते सति सर्व एवापमानिता भवन्ति, तथैकस्मिन् संपूजिते सति सर्व एव संपूजिता भवन्ति, न चैकस्मिन् एकपूजायाँ संपूजिते सर्वे संपूजिता भवन्ति, न हि यज्ञदत्ते भुक्ते देवदत्तो भुक्तो भवतीति । आचार्य आह-ज्ञानं दर्शनं च तपस्तथा
सर्वेपूजा
|नि.५२६संयमच एते साधुगुणा वत्तेन्ते, एते च गुणा यथैकस्मिन् साधौ व्यवस्थिता एवं सर्वेष्वपि, एकरूपत्वात्तेषां, यतश्चैवमत एकस्मिन् साधौ हीलिते-अपमानिते सर्वेषु वा साधुषु हीलितेषु 'ते' ज्ञानादयो गुणा 'हीलिताः' अपमानिता भवन्ति ॥
|वृत्त्य नि. एवमेकस्मिन् पूजिते पूजिता यतिगुणाः सर्वे भवन्ति, यस्मादेवं तस्मात्स्तोकमेतद्भक्तपानादि 'बहुनिवेसं' बलायमित्यर्थ: ५३२-५३६ निर्जराहेतुरिति,तस्मादेवं ज्ञात्वा पूजयेत्साधून मतिमानिति, यतश्चैवमत एवमेव कर्त्तव्यम् । एतदेवाह-'तम्हें'त्यादि, सुगमा॥
पावचं निययं करेह उत्तरगुणे धरिताणं । सर्व किल पडिवाई वेयावचं अपडिबाई । ५३२॥ कापडिभग्गस्स मयस्स व नासह चरणं सुर्य अगुणणाए। न ह वेयावच्चचिअं सहोदर्य नासए कम्मं ।। ५३३ ॥ लाभण जोजयंतो जइणो लाभतराइयं हणइ । कुणमाणो य समाहिं सबसमाहिं लहइ साहू ॥५३४ ।।
॥१७९॥ भरहो बाहुबलीवि य दसारकुलनंदणो य वसुदेवो। यावचाहरणा तम्हा पडितप्पह जईणं ॥५३५॥ होज न प होज लंभो फासुगआहारखवहिमाईणं । लंभो य निल्लराए नियमेण अओ उ काय ॥ ५५ ॥
दीप अनुक्रम [८३२]
+6+
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८३९] - "नियुक्ति: [५३७] + भाष्यं [२७४...] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||५३७||
वेयावश्थे अन्भुट्टियस्स सद्धाए काउकामस्स । लाभो चेव तवस्सिस्स होइ अहीणमणसस्स ।। ५३७॥
वैयावृत्त्यं 'नियत' सततं कुरुत, केषाम् ?-उत्तमगुणान् धारयतां साधूनां कुरुत । शेष सुगमम् । किश-'प्रतिभ-12 प्रस्य' उनिष्कान्तस्य मृतस्य धा नश्यति चरणं श्रुतमगुणनया नतु वैयावृत्त्यचित-बर्द्ध शुभोदयं नश्यति कर्म । किञ्च-15 लाभेम' प्राप्त्या प्रतादेः 'योजयन्' घृतादिलाभेन योजयन, कान् ! यतीन, लाभान्तरायं कर्म हन्ति । तथा पादपझालनादिना कुर्वन समाधि 'सर्वसमार्षि' मनसः स्वस्थता वाचो माधुर्यादिकं कायस्य निरुपद्रवताम्, एवं कुर्वत्रिरूपमपि3 सर्वसमाधि लभते । सुगमा, नवरं 'पडितप्पहत्ति वैयावृत्त्यं कुरुत । किच-भवेद्वा न वा लाभा, केषां -प्रासुकाना-14 माहारोपध्यादीनां तथापि तस्य वैयावृत्त्यार्थमभ्युद्यतस्य साधोर्विशुद्धपरिणामस्य लाभ एव निजरायाः अवश्यं, अला४ भेऽपि सति निर्जरा भवति, यस्मादेवं तस्मात्कर्त्तव्यं वैयावृत्त्यम् ॥ सुगमा, नवरं वैयावृत्त्ये 'अभ्युत्थितस्य' उद्यतस्य श्रद्धया कझुकामस्य लाभ एव॥
एसा गहणेसणविही कहिया भे धीरपुरिसपन्नत्ता । घासेसणंपि इत्तो चुच्छ अप्पक्खरमहत्थं ।। ५३८ ॥ सुगमा ॥ उक्का प्रहणैषणा, अधुना ग्रासैषणोच्यते, तथा चाहबंधे भावे घासेसणा उ दवमि मच्छआहरणं । गलमंसुंडगभक्षण गलस्स पुरुच्छेण घट्टणया ॥ ५३९ ॥
सा व प्रासैषणा द्विविधा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यमङ्गीकृत्याह-द्रव्यतो मत्स्योदाहरणं, तंजहा-एगो किर मछबन्धो गले मंसपिंड दाऊण दहे मुहह, तेच एगो मच्छो जाणइ, जहा एस गलोत्ति, सो परिपेरतेणं मंसं खाइऊण ताहेछ
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दीप अनुक्रम [८३९]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८४१] . "नियुक्ति: [१३९] + भाष्यं [२७४...] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५३९||
तापराहुत्तो छपाए गलमाणइ, मच्छबंधो जाणइ-एस गहिओत्ति, एवं तेणं सर्व खइयं मंसं, तो सो मच्छबंधो खइएणवियावृत्त्य
मंसेण अदिईए लद्धो अच्छद, एत्थ य आहरणं दुविह-चरिअं कपि च, तै एवं मच्छबंध ओहयमणसंकप्पं झायंतं दई नि. ५३७ द्रोणीया
मच्छो भणइ-अहं पमत्तो चरन्तो गहिओ बलागाए, ताहे सा खिवित्ता पच्छा गिलइ, ताहे अहं बंको तीसे मुहे पडामि, मासेषणाम वृत्तिः एवं वितिअं तइयं च उच्छलिओ ताहे मुक्को, अण्णया समुद्दे अहं गओ तत्व मच्छबंधा वलयामुहाणि करेंति कडएहिदास्पताल
५३८-५४० Vताहे समुद्दवेलापाणिएणं सह अहं तत्थ वंकीकए कडे पविट्ठो, ताहे तस्स कडगस्स अणुसारेण अतिगओ, एवं तिणि वारा ॥१८॥
| वलयामुहाओ मुको, जालाओ एकवीस वारा पडिओ, किह पुण ?, जाहे जालं छूदं भवति ताहे अहं भूमी घेत्तूण | अच्छामि, तहा एकंमि छिपणोदए दहे ठिआ, अम्हेहिं कहवि न नार्य जहा इमो दहो सुकिहिइ, ताहे सो दहो सुक्को,
मच्छाणंपि थले गई णत्थि, ते सबे सुकंते पाणिए मया, कइवि जीवंति, तत्थ कोइ मच्छबंधो आगओ, सो हत्येण गहाय । 8 सूलाए पोएति, ताहे मए नायं, अहंपि अचिरा विज्झीहामि, जाव न विज्झामि ताव उपायं चिंतेमि, ताहे तेसिं मच्छाण 8 है अंतरालं सूलं डसिङ मुहेण ठिओ, सो जाणइ-एते सबे पोइयल्लया, ततो सो गंतूण अण्णहिं दहे धोवइ, तत्थ अहं|
मच्छुपत्तं करितो चेबुडीणो पाणिए पविट्ठो,तं एयारिसं मम सत्तं, तहवि इच्छसि गलेण घेत्तुं, अहो ! ते निलजसणंति ॥ अमुमेवार्थ गाथाभिरुपसंहरन्नाह-गलमसुंडग'गलमांसपिंडभक्खणं, शेषं सुगमं ॥ अह मंसंमि पहीणे झायंतं मक्छिय भणइ मच्छो। किं झायसि तं एवं? सुण ताव जहा अहिरिओऽसि ॥४०॥ ॥१८॥ चिरियं व कप्पियं वा आहरणं दुविहमेव नायचं । अत्धस्स साहणट्ठा इंधणमिव ओयणट्ठाए ॥ ५४१ ॥
दीप अनुक्रम [८४१]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८४४] → “नियुक्ति : [१४२] + भाष्यं [२७४...] + प्रक्षेपं [२७...]" .. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||५४२||
WIतिबलागमुहा मुफो, तिक्खुत्तो वलयामुहे । तिसत्तखुत्तो जालेणं, सयं छिन्नोदए दहे ।। ५४२॥ प्राण्यारिसं ममं सत्तं, सदं घटिअघट्टणं । इच्छसि गलेण घेत्तुं, अहो ते अहिरीयया ॥५४३ । | अह होइ भावधासेसणा उ अप्पाणमप्पणा चेव । साहू भुजिउकामो अणुसासह निजरहाए ॥ ५४४ ॥ बायालीसेसणसंकडंमि गहणंमि जीव ! नहु छलिओ। एहि जह न छलिजसि भुजंतो रागदोसेहिं ॥५४५॥
जह अभंगणलेवा सगटक्खवणाण जुत्तिओ होंति । इय संजमभरवहणवयाएँ साहुण आहारो ॥५४६॥ दा सगमाः, तिम्रो यारा बलाकाया मुखेनोन्मुक्त:-ऊर्द्ध क्षिप्तः त्रिकृत्यो 'चलयामुखे' कटात्मके आवर्त्त इव चिते,
तथा यः सप्तका जालात्प्रच्युतः 'सकृद्' एकवारश्छिन्नोदके द्रहे छुटितः ॥ एवंविधं मम सत्त्वं शठं मां तथा| पट्टितपट्टन' घट्टितानि-संबद्धानि घट्टनानि-जालादीनि चलनानि यस्य सोऽहं पट्टितघट्टनः, तमेवंविधं इच्छसि गलेन | ग्रहीत , अहो ते निर्लज्जता ॥ उक्ता द्रव्यग्रासैषणा यतोऽसौ ग्रासं कुर्वन् न कचिच्छलित इति । इदानीं भावनासैषणां| प्रतिपादयन्नाह-अथ भवति भावनासैपणा, कथं , यदाऽऽत्मानमात्मनैव साधुरनुशास्ति, कदा पुनः-'भोक्तुकाम' भोक्तुमभिलषन् , निर्जरार्थ न तु वर्णाद्यर्थम् । किं पुनरसा चिन्तयन्नात्मानमनुशास्तीत्याह-द्विचत्वारिंशदेषणादोषैः संकटदुष्प्रवेशं यद्गहनं-गह्वरं तस्मिन् हे जीच ! न त्वं छलितः, शेषं सुगम, यथा न व्यंस्यसे तथा कर्त्तव्यं । यथाऽभ्यङ्गालेपा
यथासंख्येन शकटाक्षस्य ऋणानां च युक्तितो भवंति, यथाऽभ्यङ्गः शकटाक्षे युक्त्या दीयते न चातिबहुर्न चातिस्तोको भारववाहना, तथा बणानां च लेपो युक्त्या दीयते नातिबहु तिस्तोकः, एवं संयमभरवहनार्थं साधूनामाहारः ॥
दीप अनुक्रम [८४४]
ॐ
मो
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८४९] . "नियुक्ति: [५४७] + भाष्यं [२७४...] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
श्रीओपनियुतिः द्रोणीया
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५४७||
वृत्तिः
॥१८॥
दीप अनुक्रम [८४९]
|| उवजीवि अणुवजीवी मंडलि पुथन्निओ साहू । मंडलिअसमुदिसगाण ताण इणमो विहि बुरुछ ॥५४७॥ मत्स्यवृत्त तत्र मण्डल्युपजीवी साधुरनुपजीवी च पूर्वमेव द्विविधो व्यावर्णितः साधुरेकः, इदानी बहूनां मण्डल्यामसमुद्दिशकानां |
नि. ५४२
५४३ भावयो विधिर्भवति तं वक्ष्ये ॥ ते च कथं मण्डल्यामसमुद्देशका भवन्ति ?, अत आह
ग्रासपणा ___ आगाढजोगवाही निजूदत्तद्विआ च पाहुणगा। सेहा सपायछित्ता पाला हेवमाईया ॥ ५४८॥
नि.५४४आगाढयोगो-गणियोगः तत्स्था ये ते मण्डली नोपजीवन्ति, 'निजूदत्ति अमनोज्ञाः कारणान्तरेण तिष्ठन्ति ते पृथग ५४६मण्डभुञ्जते, तथाऽऽत्मार्थिकाश्च पृथग भुञ्जते प्राघूर्णकाश्च, यतस्तेषां प्रथममेव प्रायोग्यं पर्याप्या दीयते, ततस्तेऽप्येकाकिनोल्युपजीवीभवन्ति, शिक्षका अपि सागारिकत्वात् पृथग भोज्यन्ते, सप्रायश्चित्ताश्च पृथग भोज्यन्ते, यतस्तेषां शवलं चारित्रं, शबल-18
तरे नि. चरित्रैः सह न भुज्यते, बालवृद्धा अप्यसहिष्णुत्वात्प्रथममेव भुञ्जतेऽतस्तेऽप्येकाकिन इति, एवमाद्या मण्डल्यामसमुद्दि
५४७-५४८
आलोकः ||शका भवन्ति, आदिग्रहणात्कुष्ठव्याध्याद्युपद्रुता इति ॥ ते च भुञ्जानाः सन्त आलोके भुञ्जते, स चालोको द्विविधो
|नि.५४९ है भवतीत्येतदेवाह
दुविहो खलु आलोको दवे भावे य दधि दीवाई । सत्तविहो पुण भाव आलोगं तं परिकहेऽहं ॥५४९॥ द्विविध आलोको-द्रव्यालोको भावालोकश्च, तत्र द्रव्यालोकः प्रदीपादिः, भावविषयः पुनरालोकः सप्तविधः, तं च
॥१८॥ कथयाम्यहं, तत्र भावालोकस्येयं व्युत्पत्तिः-आलोक्यत इत्यालोकः-स्थान दिगादिनिरूपणमित्यर्थः । तं च सप्तविधमपि प्रतिपादयन्नाह
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८५३] → “नियुक्ति: [५५०] + भाष्यं [२७५] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||५५०||
ठाणदिसिपगासणया भायणपक्खेवणे य गुरुभावे । सत्तविहो आलोको समावि जयणा सुविहियाणं ॥५०॥ | तैश्चामण्डलिसमुद्दिशकनिष्क्रमप्रवेशवर्जिते स्थाने भोक्तव्यं, तथा कस्यां दिशि आचार्यस्योपवेष्टव्यमित्येतद्वक्ष्यति, तथा सप्रकाशे स्थाने भोक्तव्यं, भाजने च विस्तीर्णमुखे भोक्तव्यं, प्रक्षेपणं च कवलानां कुर्कुव्यण्डकमात्राणां कर्त्तव्यं, तथा गरो-15 |श्चक्षुःपथे भोक्तव्य,तथा भावो ज्ञानादि तत्संवहनार्थं भोक्तव्यमित्येतद्वक्ष्यति । एवमयं सप्तविध आलोकः, सदाऽपि च यतना-1 तस्मिन् सप्तविधेऽप्यालोके यतना सुविहितानाम् । इदानीं भाष्यकारो व्याचष्टे प्रतिपदं, तत्राद्यावयवच्याचिल्यासयाऽऽहनिक्खमपवेसमंडलि सागारियठाणपरिहियहाइ । मा एकासणभंगो अहिगरणं अंतरायं वा ॥२७५ ।। (भा)
निष्क्रमप्रवेशौ वर्जयित्वा भोजनार्थमुपविशति, तथा मण्डलीप्रवेशं च वर्जयन्ति, तथा सागारिकस्थानं च परिहत्य भुञ्जते, मा भूतु सागारिके प्राप्ते सति एकाशनभङ्गः स्यादिति, अधिकरणं' रादिवो भवति अन्येनप्रबजितेन सह अस्थाने उपविष्टस्य भुञ्जतोऽन्तरायं च भवति, कथं, स साधुरन्यस्य सत्के स्थाने भुझे उपविष्टा, सोऽपि साधुरागतः प्रतीक्षमाण आस्ते, एवं चान्तरार्य कर्म बध्यते । इदानीं दिशाद्वारप्रतिपादनायाह-- पशुरसिपरंमुहपट्ठिपक्ख एया दिसा विवजेत्सा । ईसाणग्गेईय व ठाएज गुरुस्स गुणकलिओ॥२७६ ।। (भा०)
उरसोऽभिमुखं प्रत्युरसं-गुरोरभिमुखं वर्जयित्वेत्यर्थः, पराड्मुखश्च नोपविशति गुरोः, तथा पृष्ठतश्च गुरोर्नोपविशति, पक्षके च नोपविशति, एवमेता दिशो वर्जयित्वा ईशान्यां दिशि गुरोराग्नेय्यां वा दिशि 'तिष्ठेत् उपविशेदोजनार्थं गुणकलितः साधुर्यः । इदानीं 'पगासणय'त्ति व्याख्यायते
दीप अनुक्रम [८५३]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८५५] .→ "नियुक्ति: [५५०...] + भाष्यं [२७७] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
श्रीओघनियुक्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२७७||
मक्खियकंटगहाईण जाणणहा पगास जणया । अडियलग्गणदोसा वग्गुलिदोसा जढा एवं ॥ २७७ ॥ (भा०सप्तविधः
____कथं नु नाम मक्षिका ज्ञायते-दृश्यते तथा कण्टको वा कथं नु नाम दृश्येत अस्थि वा उपलभ्येत १, एवमर्थ । स्थानाधाद्रोणीया 'प्रकाशे' सोयोतस्थाने भुज्यते, आदिग्रहणाद्वालादिपरिग्रहस्तच्च दृश्यते, एवं च प्रकाशे भुञ्जानेन योऽसौ गलकादौ
लोकः नि. वृत्तिः
५५० भा. अस्थिलगनदोपस्तथा कण्टकलगनदोषश्च गलकादी स परिहतो भवति, तथाऽन्धकारे मक्षिकाभक्षणजनितो यो वल्गुलि
२७५-२७८ ॥१८२॥ व्याधिदोषः स परिहतो भवति । इदानीं 'भायण'त्ति द्वारमुच्यते
जे घेव अंधयारे दोसा ते चेव संकडमुहं मि । परिसाडी बहुलेवाडणं च तम्हा पगासमुहे ॥ २७८ ॥ (भा०)
य एवान्धकारे भुञ्जानस्य 'दोषाः' मक्षिकादिजनिता भवन्ति त एव दोषाः 'सङ्कटमुखे भाजने कमठादौ भुञ्जतः, अयमपरोऽधिकदोषः-परिसाडी' परिशाटी भवति पार्षे निपतति, तथा 'बहुलेवाडणं च' वर्ल्ड विचं खरडिजइ हत्थस्स | उवरिपि भुजंतस्स संकडे तस्मात् 'प्रकाशमुखे' विपुलमुखे भाजने भुज्यत इति । पक्खेवणाविही भण्णइकुकुडिअंडगमित्तं अविगियवयणो उ पक्खिये कवलं । अइखद्धकारगं वा जं च अणालोइयं हुज्जा।।२७९।। (भा०) कुकुव्या अण्डक कुकुख्यण्डकं तत्प्रमाणं कवलं प्रक्षिपेतूदने, किंविशिष्टः सन् -'अविकृतवदन नात्यन्तनिर्घाटि
॥१८या तमुखः प्रक्षिपेत्कवलम् । दारं । गुरुत्ति व्याख्यायते–'अतिवद्ध'त्ति गुरोरालोके भोक्तव्यं, यदि पुनर्गुरोर्दर्शनपथे Pन भुले ततः कदाचित्साधुः 'अतिखद्धम्' अतिप्रचुरं भक्षयेनिःशङ्कः सन् , स च सव्याजशरीरः कदाचिद्गुरोरदर्शनपथे
दीप अनुक्रम [८५५]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८५८] . "नियुक्ति: [५५०...] + भाष्यं [२८०] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२८०||
|ऽकारक-अपथ्यमपि भुञ्जीत निःशङ्कः सन् , कदाचिद्धा भिक्षामटताऽनेन स्निग्धद्रव्यं लब्धं भवेत् तच्चानालोच्यैव भक्षयेदः । एकांते, मा भूनामाचार्यों निवारयिष्यति । अतः एएसि जाणणट्ठा गुरु आलोए तओ उ भुजेजा । नाणाइसंधणट्ठा न वन्नबलरूवविसयहा ।।२८० ॥ (भा०) | एतेषां प्रचुरभक्षितादीनां दोषाणां ज्ञानार्थं गुरोः 'आलोके चक्षुर्दर्शनपथे भुञ्जीत येन गुरुः समीपस्थं भुञ्जानं दृष्ट्वा । प्रचुर भक्षयन्तं निवारयति, तथाऽकारकं भक्षयन्तं निवारयति, तथा अणालोइयं चोरिअं खायंतं निवारयति, माभूदवारणे-18 पाटवजनिता दोषाः स्युः । इदानी भावेत्ति व्याख्यायते-'णाणाइ'त्ति ज्ञानादिर्भावः ज्ञानं दर्शनं चारित्रं च, एतज्ज्ञानादिभावत्रयमभुज्यमाने चुट्यति-न्युच्छिद्यते,अत एतेषां ज्ञानादीनां त्रुव्यतां 'सन्धानार्थम्' अविच्छिन्नप्रवाहार्थं भुज्यते,न वर्णार्थ । भुज्यते, न वर्णो मम गौरवं स्यादित्येवमर्थ, तथा बलं मम भूयादित्येवमर्थमपि न भुज्यते, रूपं मम भूयाद् बुभुक्षया क्षीणेक्षणगण्डपार्श्वः सन् मांसोपचयेन पूरितगण्डपार्थो रूपवान् भविष्यामीति नैवमर्थ भुझे, नापि विषयार्थ' मैथुनाद्यासेवनार्थ भुते।
सो आलोइयभोई जो एए जुंजए पए सक्छ । गविसणगहणग्धासेसणाइ तिविहाइवि विसुद्धं ॥५५१॥
'स' साधुगुरोरालोचितं भुते य एतानि पदान्यनन्तरोदितानि 'युनक्ति' प्रयुङ्क्ते करोति स्थानादीनि, स च गवेदिपणेषणया ग्रहणैषणया प्रासैषणया, अनया त्रिविधयाऽप्येषणया शुद्धं भुते य एतानि पदानि प्रयुत इति ।
एवं एगस्स विही भोत्तचे घनिओ समासेणं । एमेव अणेयाणवि जं नाणत्तं तयं वोच्छं ॥५५२ ॥
दीप अनुक्रम [८५८]
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८६०] - "नियुक्ति: [१५२] + भाष्यं [२८०...] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५५२||
द्रोणीया
वृत्तिः ॥१८॥
एवमेकस्य साधो क्तव्ये विधिर्वर्णितः 'समासेन' सङ्केपेण, एवमेवानेकेषामपि साधूनां भोजने विधिः, यत्तु पुनर्ना- गुर्वालोकनात्वं भवति-यो भेदो यदतिरिक्तं तदहं वक्ष्ये । आह-किं पुनः कारणं मण्डली क्रियते ?, उच्यते
कारणानि अतरंतषालबुडा सेहाएसा गुरू असहुवग्गो । साहारणोग्गहाऽलद्धिकारणा मंडली होइ ।। ५५३॥ भा.२८० अतरन्त:-अतिग्लानस्तत्कारणात्-तन्निमित्तं मण्डली भवति, यतस्तस्य ग्लानस्य यद्येकः साधुर्वैयावृत्त्यं करोति ततस्तस्य *
नि. ५५२ तत्रवाक्षणिकस्य सूत्रार्थहानिर्भवति, मण्डलीवन्धे तु कश्चित्किञ्चित्करोति, एतदर्थं मण्डली क्रियते येन बहवः प्रतिजागरका13
मण्डलीका
रणानि नि. भवन्तीति । बालोऽपि भिक्षामटितुमसमर्थः, सच बहूनां मध्ये सुखेनैव कथं नु नाम वर्तेत ?, अतो मण्डली भवति । वृद्धो
५५३ वसऽप्येवमेव, सेहः-शैक्षकः, स चैकः सन् भिक्षाविशुद्धिं न जानाति ततस्तस्थानीय दीयते, आएसो-प्राघूर्णकस्तस्य चाग-1
तिपालकृतस्य सर्व एवोपकुर्वन्ति, स चोपकारः सर्वैरेव मिलितैः कर्तुं शक्यते न त्वेकेन, गुरोश्च सर्वैरेवोपकतुं शक्यते न वेकेन. त्वं नि. सूत्रार्थपरिहानेः, तथा 'असहुवग्गो'त्ति असम?-राजपुत्रादिः स च भिक्षामटितुं सुकुमालत्वान्न शक्नोति ततश्च सर्व एव ५५४ मिलिता उपकुर्वन्ति, तस्मात् 'साधारणोग्गहा' साधारणश्चासावुर्पग्रहश्च साधारणोपग्रहस्तस्मात् साधारणोपग्रहात्कारणान्मण्डली| र कर्तव्या,अथवा मण्डलीविशेषणमेतत् , उपगृह्णातीत्युपग्रहा-भक्तादिःस साधारण:-तुल्यो यस्यां सा साधारणोपग्रहा मण्डली है भवति । 'अलद्धिकारणा मंडली होइ'इति कदाचित्कश्चित्साधुरलब्धिको भवति ततश्च तेऽन्ये साधवस्तस्मै आनीय प्रयच्छन्ति अत एतत्कारणान्मण्डली भवति । इदानी भिक्षागतानां साधूनां यो वसतिरक्षपालस्तेन किं कर्तव्यमित्यत आहनाउ नियहणकालं बसहीपालो य भाषणुग्गाहे । परिसंठियच्छदधगण्हणहया गच्छमासज्जा ।। ५५४ ॥ 18
दीप अनुक्रम [८६०]
DI॥१८॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८६२] .→ “नियुक्ति: [५५४] + भाष्यं [२८०...] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||५५४||
बाबा भिमागतानां निवर्तनकाल वसतिपालो 'भाजन' नन्दीपात्रं तत्प्रत्युपेक्ष्योद्रायति-सङ्कट्टितेनास्ते इत्यर्थः, किमर्थः १, परिसंस्थिताच्छद्रवग्रहणार्थम् , एतदुक्तं भवति-तत्रानीय साधवः पानक प्रक्षिपन्ति, पुनश्च तत्र परिस्थितं-स्वच्छी-K भूतं सत् ततोऽन्यत्र पात्रके क्रियते येन तत्स्वच्छमायादीनां योग्यं भवति, पात्रकादिप्रक्षालनं च क्रियते । 'गच्छमास
जत्ति 'गच्छमाश्रित्य' गच्छस्य प्रमाणं ज्ञात्वा पात्रकमुद्राहयन्ति, एतदुक्तं भवति-यदि महान् गच्छस्ततः पानकगलद नार्थ महाप्रमाणं पात्रकमुद्राहयति, तथा वे त्रीणि चत्वारि पश्चादीनि यावत् ।
असई य नियत्तेसु एकं चउरंगुळूणभाणेसु । पक्विविय पडिग्गहर्ग तत्थऽच्छदवं तु गालेज्जा ॥ ५५५॥
अथ तत्र रक्षपालः समर्थो नास्ति या पात्रकमुद्राहयति, अथवा 'असई यत्ति यदि नन्दीपात्रं नास्ति यत्रोदकमानीतं ४ स्वच्छीकरणार्थ क्रियते ततोऽसति तस्मिन् नन्दीपात्रे तदेकं पतगृहं प्रक्षिप्य, क?, अत आह-'चउरंगुळूणभाणेसु
चतुर्भिरङ्गालैरूनानि यानि भाजनानि तेषु प्रक्षिप्य पतनह पुनस्तस्मिन् क्षणीभूते स्वच्छ द्रवं गालयेत्, अत्र चायं नियमो द्रष्टव्यः यदुत-भिक्षा तावत्साधवः पर्यटन्ति यावत्पात्रक चतुर्भिरङ्गुलैरूनमास्त इति । आह-किं पुनः कारणं तद्रवगलनं क्रियते ,
आयरियअभावियपाणगट्ठया पायपोसधुवणट्टा । होइ य सुहं विवेगो सुह आयमणं च सागरिए ॥५५६ ।। | आचार्यपानार्थं अभावितसेहादिपानार्थं च गलनं क्रियते । तथा पादधापनार्थं 'पोस'त्ति अधिष्ठानं तस्य प्रक्षालनार्थ
दीप अनुक्रम [८६२]
C+STORE
SAREaratundana
HEDurare.org
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८६५] . "नियुक्ति: [५५७] + भाष्यं [२८०...] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५५७||
दीप अनुक्रम [८६५]
श्रीओघ- |तथा भवति च सुखेन विवेकः-त्यागोऽतिरिक्तस्य तस्य पानकस्य, तथा सुखेन वाऽऽचमनं सागारिकस्याग्रतः क्रियते, एवनियुक्तिः मर्थ गलनं क्रियत इति । कियन्ति पुनः पात्रकाणि गलितद्रवस्य भ्रियन्ते ? इत्यत आह
नि. ५५५द्रोणीया iN एक व दो व तिन्नि व पाए गच्छप्पमाणमासज्ज । अच्छदवस्स भरेजा कसहचीए विर्गिचेजा ॥५५७॥ । ५५९प्रथएक द्वे वीणि वा पात्रकाणि श्रियन्ते, गच्छप्रमाणं ज्ञात्वा चतुष्प्रभृतीन्यपि भ्रियन्ते स्वच्छद्रवस्य, तत्र च गलिते
मालिका सति कसट्ट-कचवरं वीजानि च-गोधूमादीनि 'विनिश्चेत्' परित्यजेत् , एवं तावत् पात्रकर्णेनापि उदकमपवृत्त्य पानकग-18
नि. ५६० ॥१८४॥
लनं क्रियते । अथ पुनस्तत्र कीटिकामर्कोटिकादयः प्लवमाना दृश्यन्ते ततस्तत्र गलिते को विधिः' इत्यत आह
भूइंगाईमकोडएहि संसत्तगं च नाऊणं । गालेज छच्चएणं सउणीघरपण व दवं तु ॥५५८॥ मुइंगा-कीटिका मर्कोटकाश्च तैः संसक्तं ज्ञात्वा गालयेत् 'छचएणं' वंशपिटकेन शकुनिगृहकेन वा गालयेत् तद् द्रवं॥ इय आलोइयपट्टविअगालिए मंडलीइ सहाणे । सज्झायमंगलं कुणइ जाय सबे पडिनियत्ता ॥५५९॥ द 'इय'त्ति पूर्वोक्तविधिना आलोचिते सति प्रस्थापिते स्वाध्याये गलिते च पानके पुनश्च मण्डल्यां स्वस्वस्थाने उपविश्य स्वाध्यायमङ्गलं करोति-स्वाध्याय एव मङ्गलं स्वाध्यायमङ्गलं तत्करोति यावत् सर्वे साधुषः प्रतिनिवृत्ता भवन्तीति ।।४॥ एवं यदि सहिष्णवस्ततो योगपद्येन भुञ्जते, अधासहिष्णवस्तत्र केचिद्भवन्ति ततः को विधिरित्याहकालपुरिसे व आसज मत्तए पक्खिवित्तु तो पढमा । अहवावि पडिग्गहगं मुयंति गच्छं समासज ॥५६॥
स चासहिष्णुप्रीष्मकालाधगीकृत्य भवति, तत एव चा पुरुषः कदाचित् क्षुधाों भवति, तमाश्रित्य मात्रके प्रक्षिप्य ||
RECASSROCOGES
IR॥१८४॥
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
||५६०||
दीप
अनुक्रम
[८६८]
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [८६८]
“निर्युक्ति: [५६०] + भाष्यं [ २८०...] + प्रक्षेपं [ २७...]"
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मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
भक्तं प्रथमालिका तावद्दीयते अथ बहवः क्षुधालवस्ततः पतग्रहकं मुच्यते तेभ्यो रक्षणार्थं गच्छं 'समासज्जति गच्छ| मल्पं बहुं था ज्ञात्वा तदनुरूपं पंतग्रहं मुञ्चति । पुनश्च मिलितेषु साधुषु मण्डलीस्थविरः प्रविशति, किं कृत्वेत्यत आहचितं बालाईणं महाय आपुच्छिऊण आयरिअं । जमलजणणीसरिच्छो निबेसई मंडलीथेरो ॥ ५६१ ॥
चित्तं बालादीनां गृहीत्वा पृष्ट्राऽऽचार्य मण्डलीस्थविरः प्रविशति, किंविशिष्टः १ इत्यत आह-जमलजणणीसरिच्छो 'निवेसई' उपविशति मण्डलीस्थविर इति, स च मण्डलीस्थविरो गीतार्थो रलाधिकोऽलुब्धश्च भवति । अनेन च पदत्रयेणाष्टौ भङ्गाः सूचिता भवन्ति, तत्र तेषां मध्ये ये शुद्धाशुद्धाश्च तान् प्रदर्शयन्नाह -
जइ लुद्धो राइणिओ होइ अलुद्धोवि जोवि गीयत्थो । ओमोबि हु गीयत्थो मंडलिराइणि अलुद्धो उ ॥ ५६२ ॥ hari auratस्थविरो लुब्धो रत्नाधिकश्च ततस्तिष्ठति न प्रविशति, अनेन च लुब्धपदेन द्वितीयचतुर्थषष्ठाष्टमा भङ्गा अशुद्धाः प्रदर्शिता भवन्ति । 'अलुद्धोवि जोवि गीयत्थो ओमोवि हुत्ति अलुब्धोऽपि यदि गीतार्थ ओमः -लघुपर्यायः स मण्डल्यां परिविशति, अनेन च ग्रन्थेन तृतीयो भङ्गकः कथितो भवति, अयं च प्रथमभङ्गकाभावे भवति, अत्र च भङ्गके गीतार्थपदग्रहणेन यत्र यत्र भङ्गकेऽगीतार्थपदं स सर्वो दुष्टो ज्ञातव्यः । 'गीयत्थो मंडलिराइणिउत्ति अलडोति यस्तु पुनर्गीतार्थो रक्षाधिकोऽलुब्धश्च स मंडल्यामुपविशति, अनेन च प्रन्थेन प्रथमो भङ्गकः शुद्धः प्रदर्शितो भवति, सर्वथा यत्र यत्र लुब्धपदमगीतार्थपदं च स परिहार्यः, ओमराइणियपदं च यद्यगीतार्थः लुब्धपदं च न भवति
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पण्डलीस्थविरः नि. ५६१-५६२
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८७०] → "नियुक्ति : [५६२] + भाष्यं [२८०...] + प्रक्षेपं [२७...]" .. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
श्रीओघ-
नियुक्ति द्रोणीया
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५६२||
मण्डल्याः स्थानादि नि. ५६३ भा.२८१२८२
वृत्तिः
॥१८५॥
ततोऽपवादे शुद्धं भवति, प्रथमं तु शुद्धमेव ॥ इदानीं ते मिलिताः सन्त आलोके भुञ्जन्ते, स चालोको द्विविधोद्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतः प्रदीपादिः, भावतः सप्तप्रकारस्तं दर्शयन्नाहठाणदिसिपगासणया भायणपक्खेवणा य भावगुरू । सो चेव य आलोगो नाणतं तहिसा ठाणे ॥ ५६३ ॥
स्थानं वक्तव्यं उपविशने दिए वक्तव्या प्रकाशमुखे भाजने भोक्तव्यं, भाजनक्रमो वक्ष्यमाणः, प्रक्षेपणं वदने वक्तव्य, भावालोको वक्तव्यः, गुरुर्वक्तव्यः, स एवालोकः पूर्वोक्तः, नानात्वं त्वत्र यदि परं दिशः स्थानस्य च, अत्र दिक्पदमन्यथा वक्ष्यति स्थानं च ॥ इदानी भाष्यकारः स्थाननानात्वं दर्शयति, तन्त्र स्थानव्याख्यानार्थमाहनिक्खमपवेस मोत्तुं पढमसमुहिस्सगाण ठायति । सज्झाए परिहाणी भावासन्नेवमाईया ॥२८१॥ (भा०)
प्रथमसमुद्दिष्टानां ग्लानादीनां निर्गमप्रवेशी मुक्त्वा उपविशन्ति, किमर्थं १, तत्र यदि ते मार्ग रुडा मण्डल्यां तिष्ठन्ति | ततः पूर्वोकानां स्वाध्यायपरिहाणिर्भवति, तथा 'भावासनस्य' सज्ञादिवेगधारणासहिष्णोः पीडा भवति । एवमादयोऽन्येऽपि दोषाः ।। दिग्द्वारप्रतिपादनायाहपुत्वमुहो राइणिओ एक्को य गुरुस्स अभिमुहोठाइ।गिण्हइ थपणामेइ व अभिमुहो इहरहाऽवन्ना॥२८२॥ (भा०) | पूर्वाभिमुखो रत्नाधिक उपविशति मण्डल्या, तस्यां च मण्डल्यामेकः साधुर्गुरोरभिमुख उपविशति, किमर्थं १, कदाचित्किश्चिद्गुरोरतिरिक्तं भवति तद् गृह्णाति दातव्यं वा किश्चिद्भवति तद्ददाति मण्डलीस्थविरेणार्पित, एवमर्थमभिमुख
दीप अनुक्रम [८७०]
-॥१८५॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८७३] .→ “नियुक्ति : [५६४] + भाष्यं [२८२] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
*
गाथांक नि/भा/प्र ||५६४||
उपविशति, इतरथा-यद्यभिमुखो नोपविशति ततोऽवज्ञा-परिभवः कृतो भवति, पृष्ट्यादि दत्त्वोपविशति ततोऽप्यवज्ञादि-IN कृता दोषा भवंति ।।
जो पुण हवेज खमओ अतिउच्चाओ व सो बहिं ठाइ । पढमसमुद्दिडो वा सागारियरक्षणट्ठाए ॥ ५६४ ॥ Kा यस्तु पुनः क्षपकोऽर्द्धमासादिना भवेद् अतिश्रान्तो वा प्राघूर्णकादिः स बहिर्मण्डल्यास्तिष्ठति, प्रथमसमुद्दिष्टो वा साधुःPIशीपतरेण येन भुक्तं स सागारिकरक्षणार्थं वहिस्तावन्मण्डल्यास्तिष्ठति ॥
एकेकस्स य पासंमि मल्लयं तत्थ खेलमुग्गाले । कहिए व छुम्भइ मा लेवकडा भवे वसही ॥ ५६५ ॥
तत्र च साधूनां भुञ्जानानामेकैकस्य साधोः पार्थे मल्लकं भवति, तत्र खेलश्लेष्म उद्दालयेत्-तस्मिन् मलके श्लेष्मनिष्ठीवनं कुर्वन्ति, तथा तत्र भुञ्जतः कदाचित्कण्टकोऽस्थिखण्डं वा भवति स तत्र क्षिप्यते, अथ तु भुवि क्षिप्यतेऽस्थिकण्ट-है। कादि ततो वसतिलेपकृता-अनायुक्ता भवति, अतस्तत्परिहारार्थ मलकेषु क्षिप्यते । तथाऽमुभपरं भुञ्जानानां विधि प्रतिपादयन्नाहमंडलिभायणभोयण गहणं सोहीय कारणुवरिते। भोयणविही उ एसो भणिओ तेलुकादसीहिं ॥ ५६६ ॥
मण्डली यथारलाधिकतया कर्त्तव्या, भाजनानि च पूर्व अहाकडाई भुञ्जन्ति, भोजनं च स्निग्धमधुरं पूर्व भोकव्यं, ग्रहणं च पात्रकात् कुकुड्यण्डकमात्रं कवलं गृह्णाति, तथा ग्रहणस्यैव शुद्धिर्वक्तव्या, अथवा शुद्धिर्भुजानस्य यथा भवति
दीप अनुक्रम [८७३]
555555
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८७७] → "नियुक्ति: [१६६] + भाष्यं [२८३] + प्रक्षेपं [२७...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५६६||
श्रीओप-1 तथा वक्तव्यं, कारणे भोक्तव्यं, तथा 'उच्चरिए'त्ति अतिरिक्त विधिर्वक्तव्यः । अयं भोजनविधिः सुगमः । इदानीं भाष्यकारः दिक् नि. नियुक्ति प्रतिपदं व्याख्यानयति, तत्राद्यावयवव्याचिख्यासयाऽऽह
५६४ श्लेद्रोणीया हामंडलि अहराइणिआ सामायारी य एस जा भणिआ। पुर्व तु अहाकडगामुच्चंतितओ कमेणिय।।२८।। (भा०) मपात्रं नि. वृत्ति RI मण्डली कथमुपविशति ?, अत आह-यथारलाधिकतया सामाचारी चात्र कार्या, एषा 'योक्का' भणिता, कतमा,
५६५ भोज
1नं नि.५६६ ॥१८६॥ ठाणदिसिपगासणया" इत्येवमादिका सानापि तथैव द्रष्टव्या । उक्तं मण्डलीद्वारम् , इदानीं भाजनद्वारप्रतिपादना
मण्डली याह-'पुर्व तु अहाकडगा' 'पूर्व प्रथम 'यथाकृतानि' प्रतिकर्मरहितानि लब्धानि यानि तानि समुद्देशनार्थं मुच्यते,181
भोजनक्रएतदुक्तं भवति-प्रथममप्रतिकर्मा प्रतिग्रहको भ्राम्यते, ततः क्रमेण 'इतरे' अल्पपरिकर्मबहुपरिकर्माणि च मुच्यन्ते ।। म: भा. 'भायण'त्ति गयं, इदानीं 'भोयण'त्ति व्याख्यायते
२८३-२८५ निद्धमहुराणि पुर्व पित्ताईपसमणट्ठया झुंजे । बुद्धिबलबहणट्ठा दुक्खं खु विकिंचिउं निद्धं ।। २८४ ॥ (भा०)18 है। प्रथमार्द्ध सुगमं । किमर्थ स्निग्धमधुराणि पूर्व भक्ष्यन्ते ?, यतो बुद्धेबलस्य च बर्द्धनं भवति, तथा चाह-"घृतेन वद्धते
मेधा"इत्यादि, बलवर्द्धनं च प्रसिद्धमेव, बलेन च वृद्धेन वैयावृत्त्यादि शक्यते कर्तु, दुःखं परिस्थापयितुं स्निग्ध-घृतादि| भवति यतोऽसंयमो भवतीति ॥ अह होज निद्धमहुराणि अप्पपरिकम्मसपरिकम्मेहिं । भोत्तूण निद्धमहुरे फुसिअ करे मुंचऽहागडए ।।२८५॥ (भाका
१८६॥ | अथ भवेत् स्निग्धानि मधुराणि च द्रव्याणि अल्पपरिकर्मसु वहुपरिकर्मजनितेषु च पात्रकेषु ततः को विधिरित्यत:
दीप अनुक्रम [८७७]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८७१] . "नियुक्ति: [५६६...] + भाष्यं [२८५] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२८५||
आह-तान्येव भुक्त्वा स्निग्धमधुराणि ततः करान् प्रोञ्छ्यति प्रोञ्छयित्वा च करान् 'मुंचऽहाकडए'त्ति यथाकृतानि-अपरिकर्माणि पात्रकाणि समुद्दिशनार्थं मुच्यन्ते । 'भायण'त्ति गर्य, इदानीं ग्रहणद्वारप्रतिपादनायाह
कुक्कुडिअंडगमित्तं अहवा खुड्डागलंबणासिस्स ।
लंबणतुल्ले गिण्हइ अविगियवयणो य राइणिओ ॥ २८६ ॥ (भा०) ततः पतनहकारकवलं गृह्णन् कुकुख्यण्डकमात्रं गृह्णाति, अथवा 'खुड्डागलंबणासिस्स' धुलकेन लम्बनकेन-हस्तेन अशितं शीलं यस्य स क्षुल्लकलम्बनाशी तत्तुल्यान् कवलान् गृह्णाति-स्वभावेनैव लघुकवलाशिनस्तुल्यान् कवलान् गृह्णाति |'अविकियवयणो य राइणिओ' अविकृतवदनो रत्नाधिकः, न भावदोषेण मुखमत्यर्थं बृहत्कवलप्रक्षेपार्थं निर्वादयति,
किं तर्हि ?, स्वभावस्थेनैव मुखेनेति । अथवाऽयं ग्रहणविधिःटगहणे पक्खेवमि अ सामायारी पुणो भवे दुविहा ।गहणं पायंमि भवे वयणे पक्वेवणा होइ ॥२८७।। (भा०) का 'ग्रहणे' कवलादाने प्रक्षेपे च सामाचारी पुनरियं भवति द्विविधा, तत्र ग्रहणं पात्रकविषये भवेत् पात्रकारकवलोत्क्षेपः, वदनविषयं च प्रक्षेपणं कवलस्य भवति । तत्र पात्रकात्कथं भक्षयनिह्यते ? इत्येतत्प्रदर्शयन्नाह
कडपयरच्छेएणं भोत्तवं अहव सीहखाइएणं । एगेहि अणेगेहिवि वजेत्ता धूमइंगालं ॥ २८८ ॥ (भा०) । तत्र कटकच्छेदेन भोकव्यं यथा कलिञ्जस्य खण्डलकं छित्त्वाऽपनीयते, एषमसावपि भुते, तथा प्रतरच्छेदेन वा2
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दीप अनुक्रम [८७१]
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भो०३२
K
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८८२] .→ "नियुक्ति: [५६६...] + भाष्यं [२८८] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
द्रोणीया
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२८८||
वृत्ति
कासारते नि.
॥१८७॥
भोक्तव्यं तरिकाच्छेदेनेत्यर्थः, अथवा सिंहभक्षितेन, सिंहो हि किल एकदेशादारभ्य तावद्भुते यावत्सर्व भोजनं निष्ठितंद्रग्रहणवि|तच्चैकेन बहुभिर्वा भोक्तव्यं, वर्जयित्वा धूमाङ्गारक, द्वेषरागौ वर्जयित्वेत्यर्थः । इदानीं वदनप्रक्षेपणशोधि दर्शयन्नाह- |धिः भा. असुरसुरं अचवचवं अदुयमविलंबिअं अपरिसार्डि।मणवयणकायगुत्तो जइ अह पक्खिवणसोहि।।२८९॥(भा०) २८६.२
INसंसाररा| असुरसुर भुङ्क्ते-सरडसरडं अकरितो 'अचवच' बल्कमिव चर्वयन् न चवचवावेइ, तथा 'अद्रुतम्' अत्वरितं, तथा 8 'अविलम्बितम्' अमन्धरं अपरिशाटि मनोवाकायगुप्तो भुञ्जीत, न मनसा विरूपमिति चिन्तयति, वाचा नैवं वक्ति, यदुत ९७५७२ को इमं भक्खेइ ? जो अम्हारिसो न होइ, कारण उद्घोसए मुहेण न देइ, एवं त्रिगुप्तस्य भुञ्जानस्य प्रक्षेपणशोधिर्भवति । | उग्गमउप्पायणासुद्धं, एसणादोसवज्जि। साहारणं अयाणतो, साहू हवइ असारओ॥५६७ ।। उग्गमउपायणासुद्धं एसणादोसवज्जिअं । साहारणं वियाणतो, साह हवह ससारओ ॥ ५१८॥ उम्गमउप्पायणासुद्धं, एसणादोसवजिअं । साहारणं अयाणतो, साहू कुणइ तेणिों ॥ ५६९॥ उग्गमउप्पायणासुद्धं, एसणादोसवजि साहारणं वियाणतो, साह पावह निजरं ॥ ५७० ॥ अंतंतं भोक्खामित्ति बेसए भुंजए य तह चेव । एस ससारनिविट्ठो ससारओ उहिओ साहू ।। ५७१ ॥ एमेव य भंगति जोएयचं तु सारनाणाई। तेण सहिओ ससारो समुहवणिएण दिटुंतो ।। ५७२॥
V ॥१८७॥ । उद्गमशुद्धं उत्पादनाशुद्धं एषणादोषवर्जितं 'साधारणं' सामान्यं गुडादि अजानान:-अतिमात्रं दुष्टेन भावेन आददानः योऽसौ पतगहो भ्रमति तस्मात् साधुः 'असारकः' अप्रधानज्ञानदर्शनचारित्राण्यङ्गीकृत्यासारः स भवति । तथा उद्गमो-/
दीप अनुक्रम [८८२]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८८३] → “निर्युक्ति : [५७२] + भाष्यं [२८९] + प्रक्षेपं [२७...]" .. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||५७२||
त्पादनाशुद्धमेषणादोपवर्जितं साधारणमेतट्रब्यमित्येवं जानानोऽदुष्टेनान्तरात्मना कवल गुडादेराददानः साधर्भवति । 'ससारा' ज्ञानदर्शनचारित्रसारवान् भवति । कथं पुनरसारः साधुर्भवति ! अत आह-उद्गमोत्पादनाशुद्धमेषणादोषव-13|| जिंतं साधारणमेतद्गुडादीत्येवमजानानो दुष्टेन भावेनाददानः साधुः स्तेयं करोति ततोऽसारोऽसी । स कथं पुनः ससारो। भवति :-उद्गमोत्पादनाशुद्धमेपणादोपवर्जित 'साधारणं' तुल्यमेतत्सर्वेषां गुडादीत्येवं जानानोऽदुष्टान्तरात्मा स्वल्पमाददानः साधुनिर्जरां करोति अतः ससारो ज्ञानदर्शनचारित्रैरिति । इदानीं ससारः कदाचिदोजनार्थमुपविशन् भवति कदाचिदुपविष्टः कदाचिदुत्थितः, एतत्प्रदर्शनायाह-अन्त्य-प्रत्यवरं वल्लचणकादि तदप्यन्त्य-पर्युषितं चणकादि अन्त्यम-16 प्यन्त्यमन्त्यान्त्य भक्षयिष्यामि एवंविधेन परिणामेनोपविष्टो मण्डल्यां मुझे यस्तथैव एष साधुः शुभपरिणामत्वात्ससार ६ उपविष्टः ससारश्चोत्थितः, तस्य शुभपरिणामस्याप्रतिपतितत्वात् , एवमेव भङ्गत्रितयं योजनीयं, तत्र प्रथमो भङ्गः ससारो
निविडो ससारो उडिओ १, ससारो निविट्ठो असारो उडिओ बिइओ भंगो २, असारो निविट्ठो ससारो उडिओ
तइओ ३, असारो निविट्ठो असारो उढिओ एस चउत्थो ४, सारश्चान्न ज्ञानादि, आदिग्रहणादर्शनं चारित्रं चेति, तेन ४ज्ञानादिना सहितो यः साधुः स ससारो भण्यते । अत्र च समुद्रवणिजा दृष्टान्तः ॥ एगो समुदवणिओ बोहित्थं भंडस्स
भरि ससारो गओ, ससारो य पउरं हिरन्नाइ विढवेऊण आगओ। अण्णो पुण ससारो भंडं गहेऊण गओ निस्सारो आगओ कवडियाएवि रहिओ, तंपि पुचेल्लयं हारेऊण आगओ । अण्णो असारो अंगवित्तिओ णिहिरण्णो गओ ससारो। आगओ पभूयं विढवेऊण । अण्णो पुण असारो हिरण्णरहिओ गओ असारो व आगओ कवडियाएवि रहिओ ॥ एवं
दीप अनुक्रम [८८३]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८८९] → "नियुक्ति: [५७२] + भाष्यं [२८९] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
आहार
द्रोणीया
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५७२||
श्रीओप-15 साधोरपि सारासारयोजना कत्ता वणिगून्यायेन ॥ एवं तेषां भुञ्जानानां यदि पतनहको भ्रमन्नेवालपथे निष्ठां याति मतदा को विधिरित्यत आह
णादिः जत्थ पुण पडिग्गहगो होज कडो तत्थ छुब्भए अन्नं । मत्तगगहिउचरिअं पडिग्गहे जं असंसह ॥ ५७३॥ ५७३-५७५ वृत्तिः
जं पुण गुरुस्स सेसं तं छुम्भइ मंडलीपडिग्गहके । बालादीण व दिजइन छुब्भई सेसगाणऽहिअं॥ ५७४ ।। ॥१८॥
सुक्कोल्लपडिग्गहगे विआणिआ पक्खिये दवं सुक्के । अभत्तहिआण अट्ठा बहुलंभे जं असंसह ।। ५७५ ॥
यत्र पुनर्भुजानानां पतहको 'भवेत् कडोति निहितभक्तो जातः साधुपर्यन्तमप्राप्त एव, तत्र किं कर्तव्यमित्यत आह-तत्र'तस्मिन्निष्ठितभक्त पतहकेऽन्यद्भकं प्रक्षिप्यते, ततश्च यस्मिन् साधौ स निष्ठितः पतहस्तत आरभ्य तेनैव क्रमण पुनर्धाम्यते, मात्रके वा यद्बालादीनां प्रायोग्यं गृहीतमासीत् तदिदानी उद्धरितं तदसंसृष्टं पतगृहे क्षिप्त्या पतङ्कहो यस्मिन् साधौ निष्ठितस्तस्मादारभ्य पुनाम्यते । यत्पुनर्गुरोः शेष भुञ्जानस्य जातं तत्संसृष्टमपि प्रक्षिप्यते मण्डलीपत-15 ब्रहके, बालादीनां वा दीयते तदाचार्योद्धरित, यत् पुनराचार्यव्यतिरिक्तानामुदरितम्-अधिकं जातं तन्न प्रक्षिप्यते मण्डलीपतकहके संसृष्टं सत् । किश्व, 'सुक'त्ति एकः शुष्केण भक्तेन पतबहः, अपरः "उल्ल'त्ति आईण भक्तेन पतनहा, एवं [विज्ञाय ततः प्रक्षिपेत् द्रवं शुष्कभक्तपतनहे, येन तोयप्रक्षेपेण संजातवन्धं तद्भर्फ सुखेनैव कवल गुह्यते, अथ बहुलाभः151
॥१८॥ |संजातः-प्रचुरं लब्धं गुडादि ततोऽसंसृष्टमेव ध्रियते, किमर्थम् ?, अभक्तार्थिकानामर्थे येन मनोज्ञं भवेत् । उक्का ग्रहणशुद्धिः, अधुना भुञानस्य शोधिरुच्यते, सा चतुर्धा, एतदेवाह
दीप अनुक्रम [८८९]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८९३] → “नियुक्ति: [१७६] + भाष्यं [२९०] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
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गाथांक नि/भा/प्र ||५७६||
सोही चकभावे विगइंगालं च विगयधूमं च । रागेण सयंगालं दोसेण सधूमगं होइ ॥ ५७६ ॥ जत्तासाहणहे आहारति जवणहया जइणो । छायालीसं दोसेहिं सुपरिसुद्धं विगयरागा ॥ ५७७॥ हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा । न ते चिजा तिगिच्छंति, अप्पाणं ते तिगिच्छगा ।। ५७८ ॥ 8 शुद्धौ चतुष्ककं भवति नामस्थापनाद्रव्यभावरूपं, तत्र नामस्थापने सुगमे, द्रव्यशोधिः पूर्ववत् , भावविषया पुनः शोधिः
विगताकार विगतधूमं च भुञानस्य भावशोधिर्भवति, कथं सागारं कथं वासधूमं भवतीति ?, एतदेवाह-रागेण' इत्यादि | * सुगमं ॥'चारित्रयात्रासाधनार्थ धर्मसाधननिमित्तमाहारयन्ति यापनार्थ-शरीरसंधारणार्थ मुनयः षट्चत्वारिंशद्दोषैः।
सुपरिशुद्भमाहारयन्ति, के च ते ?, पोडशोद्गमदोषाः षोडशोत्पादनादोषाः दशैषणा दोषाः संजोयणा पमाणं सांगारं सधू-13 मग चेत्येते पट्चत्वारिंशत्, एभिर्विशुद्धं सद् विगतरागा आहारयन्ति ।। सिलोगो सुगमः । उक्तो भुञ्जनविधिः, 'कारणे त्ति द्वारं व्याख्यानयन्नाहउण्हमन्नयरे ठाणे, कारणमि उ आगए । आहारेज्ज(उ) मेहावी, संजए सुसमाहिए ॥ ५७९ ॥
यणवेयावचे इरियट्ठाए य संजमहाए । तह पाणवत्तियाए छटुं पुण धम्मचिंताए ॥५८०॥ भानस्थि छुहाए सरिसया वेषण मुंजेज तप्पसमणहा । छाओ वेयावचं न तरह कार्ड अओ भुंजे ॥२९०। (भा०)। इरियं नवि सोहेइ पहाईयं च संजमं काउं । थामो वा परिहायइ गुणणुप्पहासु य असत्तो ॥ २९१ ॥ (भा०) पण्णां स्थानानामन्यतरस्मिन् स्थाने-कारणे आगते सति आहारयेन्मेधावी संयतः सुसमाहितः । कानि च तानि षट
दीप अनुक्रम [८९३]
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८९७] → "नियुक्ति: [५८०] + भाष्यं [२९१] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र
श्रीओधनियुक्ति द्रोणीया
वृत्तिः ॥१८९॥
||५८०||
स्थानानि ? इत्यत आह-वेदना-क्षुद्धेदना तत्पशमनार्थ भुते, तथा वैयावृत्त्यार्थ तथा ईर्यापथिकाशोधनार्थ तथा संयमार्थ भोजनशुस च पेहोपेहपमजणादिलक्षणः, तथा 'पाणवत्तियाए' प्राणसंधारणार्थ, षष्ठं पुनर्धर्मचिन्तार्थ भुते । अधुनैतां गाथा |द्धिः नि. भाष्यकृत्प्रतिपदं व्याख्यानयति, आद्यावयवं तावदाह-नास्ति क्षुत्सरिसी वेदनाऽतो भुञ्जीत तत्पशमनार्थ। दारं। 'छाओ'त्ति ५७६-५७८ बुभुक्षितो वैयावृत्त्यं कर्तुं न शक्नोति अतो भुङ्क्ते । दारं ॥ ईपिधिका बुभुक्षितो न शोधयति यतोऽतस्तच्छोधनार्थं भुते ।
आहार का दारं । तथा 'पहाईयं वत्ति 'पेहोपेहपमज्जण' इत्यादिकं संयम बुभुक्षितः कर्तुं न शक्नोति यतोऽतो मुझे। दारं । 'थामो|
भरणानि नि. वा' प्राणस्तस्य परिहानिर्भवति यदि न भुङ्क्ते अतस्तदर्थ भुञ्जीत । दारं । तथा गुणनं पूर्वपठितस्य अनुप्रेक्षा-चिन्तनं ग्रन्थार्थयोः
५७९-५८०
भा. २९०एतदसौ कर्तुमसमर्थः सन् भुड़े। दारं ॥
२९१ अना अहवा न कुज आहारं, छहिं ठाणेहिं संजए । पच्छा पच्छिमकालंमि, काउं अप्पक्खमं खमं ॥ ५८१॥
हारकारआर्यके उवसग्गे तितिक्खया बंभचेरगुत्तीए । पाणदयातवहे सरीरवोच्छेयणढाए ॥ २९२ ।। (भा०)
णानि नि. आयंको जरमाई राया सन्नायगा व उवसग्गा । बंभवयपालणट्ठा पाणदयावासमहियाई ॥२९३ ॥ (भा०) 15/५८१-५८२ तबहेउ चउत्थाई जाव छउम्मासिओ तवो होइ । छटुं सरीरवोच्छेयणट्ठया होयणाहारो ।। २९४ ॥ (भा०)
हाभा. २९२
२९४ एएहि छहिं ठाणेहि, अणाहारो य जो भवे । धम्मं नाइकमे भिक्खू, झाणजोगरओ भवे ॥५८२॥ । अथवा न कुर्यादेवाहारमेभिः पतिः स्थानैर्वक्ष्यमाणलक्षणैः । तत्र नियुक्तिकार एव षष्ठं पदं व्याख्यानयन्नाह-पच्छा ॥१८॥ पच्छिमकालंमि पश्चिमकाले-संलेखनाकाले 'आत्मक्षमाम् आत्महितां क्षमां-क्षान्तिमुपशमं कृत्वा ततः पश्चात्-सुखेन
दीप अनुक्रम [८९७]
~381~
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९०३] .→ "नियुक्ति: [५८२] + भाष्यं [२९४] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५८२||
शरीरपरिकानन्तरं सर्वाहारं मुञ्चतीति ॥ इदानीं भाष्यकार एव एतानि षट् स्थानानि प्रदर्शयन्नाह-'आतङ्क:' ज्वरादिर्वक्ष्यते, तथा 'उपसर्गः' राजादिजनितः, एतेषां 'तितिक्षार्धे' सहनार्थ न भोक्तव्यं, तथा ब्रह्मचर्यगुप्त्यर्थं च न भोक्तव्यं, तथा तपोऽर्थ शरीरव्यवच्छेदार्थ च न भोक्तव्यमिति । इदानी भाष्यकारः प्रतिपदं व्याख्यानयति, तत्राद्यावयवव्याचिख्या-1 सयाऽऽह-आतङ्को-ज्वरादिः, आदिग्रहणादन्यो व्याधिर्यत्र भोजनं न पथ्यं तदर्थं न भुङ्क्ते । दारं । राज्ञा राजकुलधारणादिरूपो यद्युपसर्गः कृतः, सणायगो वा-स्वजनः यदि उन्निष्क्रमणार्थमुपसर्ग करोति ततो न भुते । दारं । ब्रह्मव्रतपाल-18 नार्थ न भुले, यतो बुभुक्षितस्योन्मादो न भवति । दारं । तथा प्राणदयार्थं न भुले, यदि धर्षति महिका वा निपतति । मादारं ॥ तपोऽर्थ न भुले, तच चतुर्थादि यावत्षण्मासास्तावत्सपो भवति तदर्थं न भुले । दारं । पाठ शरीरस्य व्यवच्छे-12
दार्थमनाहारः साधुर्भवतीति ॥ एभिः पूर्वोक्तः पद्भिः स्थानैरनाहारो यो भवति स धर्म नातिकामति भिक्षुरतो ध्यानयोगरतेन भवितव्यमिति । अथेदमुक्तं षड्भिः कारणैराहार आहारयितव्यः षद्भिश्च कारणैर्नाहारयितव्यस्ततः किमेतदोजनमपवादपदं ?, उच्यते !, अपवादपदमेवैतद्, यतः
झुंजतो आहारं गुणोवयारं सरीरसाहारं । विहिणा जहोवइट संजमजोगाण वणवा ॥ ५८३ ॥ भुञ्जन्नाहारं, किंविशिष्ट ?-गुणोपकारं' ज्ञानदर्शनचारित्रगुणानामुपकारक, तथा शरीरस्य साधारकमाहारं भुञ्जन्8 विधिना-ग्रासैषणाविशुद्ध 'यथोपदिष्टम्' आधाकर्मादिरहितं 'संयमयोगाना' संयमब्यापाराणां वहनार्थ भुञ्जन्नपवाद
दीप अनुक्रम [९०३]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९०५] → “नियुक्ति : [५८३] + भाष्यं [२९४...] + प्रक्षेपं [२७...]" .. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र
||५८३||
श्रीओप- पदस्थ एव भुते नान्यथा । इदानीं समुद्दिष्टे सति संलिहनकल्पः कर्त्तव्यः-भिक्षाभक्तविलिप्तानां पात्रकाणां संलिहनं आहारस्यानियुक्तिः कर्त्तव्यमित्यर्थः, सच
पवादता द्रोणीया भत्तडियावसेसो तिलंबणा होइ संलिहणकप्पो । अपहुप्पत्ते अन्न छोडें ता लंबणे ठवए ॥ ५८४ ॥
नि. ५८३
पात्रकल्प: वृत्ति संदिहा संलिहिलं पढमं कप्पं करेइ कलुसेणं । तं पाउ मुहमासे बितियच्छदवस्स गिण्हंति ॥५८५॥
नि.५८४॥१९०॥ दाऊण वितियकप्पं बहिआ मज्झहिओ उ दवहारी । तो देति तइयकप्पं दोपहं दोहं तु आयमणं ॥ ५८६॥
५८६ | भक्तानामवशेषो यः स संलेखनकल्पः कर्तव्यः, स चावशेषो न ज्ञायते कियत्प्रमाणः ? अत आह-'निलम्बनः' त्रिक-ट वलः कवलत्रयप्रमाणो भुक्तावशेषः संलेखनकल्पः कर्त्तव्यः, यदा तु त्रिकवलप्रमाणः संलेखनकल्पो न भवति तदाऽपर्या
प्यमाणेऽन्यदपि तस्मिन् पात्रके भक्तं प्रक्षिप्य ततस्त्रीन् कबलान् स्थापयति । 'सन्दिष्टाः' भुक्ताः सन्तः संलिह्य पात्र-४ दकाणि पुनश्च प्रथमं कल्पं ददति कलुषोदकेन, पुनश्च तत्पीत्वा 'मुहमासोत्ति मुखस्य परामर्शः-प्रमार्जनं कुर्वन्तीति, |पुनश्च द्वितीयकल्पार्थमच्छस्य द्रवस्य ग्रहणं कुर्वन्तीति, गृहीत्वाऽध कल्पार्थमच्छद्रवं मण्डल्या उत्थाय बहिः पात्रकप्रक्षा-10 |लनार्थं गच्छन्ति । तत्र दत्त्वा द्वितीयकल्पं 'याद्यतः' पात्रकप्रक्षालनभूमी, ते च मण्डल्याकारेण तत्रोपविशन्ति, तेषां मध्ये[५ | स्थितो द्रवधारी भवति, स च पात्रकप्रक्षालनं सर्वेषामेव प्रयच्छतीति, ततो ददति ते साधवः पात्रकाणां तृतीयं कल्पं,
|॥१९॥ | पुनश्च पात्रकप्रक्षालनानन्तरं 'दोहं दोण्हं व आयमणं'ति द्वयोर्द्वयोः साध्योर्मात्रकेषु 'आचमनार्ध' निर्लेपनार्थमुदक प्रयच्छतीति । एष तावदनुद्वरिते भक्के विधिरुक्तः, यदा तु पुनरुद्धरितं भक्तं भवति तदा को विधिरित्यत आह
दीप अनुक्रम [९०५]
ACASSCOOG
ALUnioranmarg
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९०९] - "नियुक्ति: [५८७] + भाष्यं [२९४...] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||५८७||
3
होज सिआ उद्धरियं तत्थ य आयंबिलाइणो हुज्जा । पडिदंसि अ संदिट्टो वाहरइ तओ च उत्थाई ॥ ५८७॥ डामोहचिगिच्छविगिह गिलाण अत्तट्ठियं च मोत्तूणं । सेसे गंतु भणई आयरिआ वाहरंति तुमं ॥५८८॥
अपडिहणतो आगंतु वंदिउं भणइ सो उ आयरिए । संदिसह भुंज जं सरति तत्तियं सेस तस्सेव ॥ ५८९॥ अभणंतस्स उ तस्सेब सेसओ होइ सो विवेगो उ । भणिओ तस्स उ गुरुणा एसुवएसो पवयणस्स ।। ५९०॥ भुतंमि पढमकप्पे करेमि तस्सेच देति तं पायं । जावतिअंतिम भणिए तस्सेव विगिचणे सेसं ॥५९१ ॥ | 'भवेत् स्यात् कदाचिदुद्वरितं 'तत्र' साधूनां मध्ये कदाचित्केचिदाचाम्लादयो भवन्ति आदिग्रहणादभक्तार्थिको वा कश्चिद्भवेत्ततस्तदुद्वरितं भक्तं रलाधिक आचार्याय दर्शयति, पुनश्च प्रदर्शिते भक्के गुरुणाच 'सन्दिष्टः' उक्तः यदुत आह्वयाचाम्लादीन् साधून येन तेभ्यो दीयते, पुनश्चासौ रलाधिकः सन्दिष्टः सन् चतुर्थादीन् साधून व्याहरति । स च व्याहरन्नेतान्न व्याहरति, मोहचिकित्सार्थं य उपवासिकः स्थितस्तं न व्याहरति, तथा विकृष्टतपसं साधुं न प्याहरति, विकृष्टतपश्चाष्टमादारभ्य भवति, तस्य कदाचिद्देवता मातिहार्य करोति अतस्तस्य न दीयते, ग्लानश्च ज्वरादिना तं च न व्याहरति, आत्मलन्धिक चन ध्याहरति, एताननन्तरोदितान् साधून मुक्त्वा शेषान् गत्वा भणति, यदुत आचार्या व्याहरन्ति युष्मान, तेषां च मध्ये यश्चतुर्थादिक आकारितः स आकर्ण्य किं करोति ? इत्याह-अनतिलवयन गुरोराज्ञामागत्य वन्दित्वा भणति तमाचार्य यदुत-संदिशत यूयं, आचार्योऽपि भणति-भुञ्जीत, सोऽपि भणति-जं सरति तत्ति भुजामि, शेष यदुद्वरितं तत्तस्यैव यस्य सत्कः प्रतिग्रहका, पुनश्च स एव परिष्ठापयतीति अधासौ साधुरेवं न भणति यदुत 'जं सरइ तत्तिअं' ततस्तस्य एवमभणत-
दीप अनुक्रम [९०९]
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९१३] .. "नियुक्ति: [१९१] + भाष्यं [२९४...] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५८०||
वृत्तिः
श्रीओष
दस्तस्यैव यच्छेषं भक्तमुरितं तद्भवति, स एव 'विवेचक परिष्ठापक इत्यर्थः, भणिते तु एवं “जावइयं सरइ तावश्यं सरामी"ति, उद्धृतस्यवि नियुक्तिः ततस्तस्यैव साधोर्यस्य सत्कः पतहकः तस्यैव गुरुणा पतनहकः समर्पणीयः पुनः स एव कल्पं ददाति । अयं प्रवचनस्य पूर्वोक्तभाजनं नि. द्रोणीया उपदेशः । अथ यदुद्वरितं तत्सर्व भुते, ततस्तस्मिन् भुक्ते सति तस्य पात्रकस्य प्रथमकल्पं ददाति, कृते च तस्मिन् प्रथमकल्पे/५८७-५९१
तस्यैव साधोर्यस्य सत्कः पतग्रहकस्तस्यैव तत्पात्रकं ददाति समर्पयतीत्यर्थः, अर्थतन्न ब्रूते यदुत जावइयं सरइ तावइयं सारे- पारिष्ठापनि
मित्ति, ततः जावतिअंति अभणिते सति तस्यैव साधोर्यः परिस्थापनिकभोक्ता तस्यैव यदुद्वरितं शेषं तत्परित्याज्यं भवति । ॥१९॥
काविाधा इदं च पूर्वोक्तस्यैव व्याख्यानं द्रष्टव्यं न तु पुनरुक्तमिति । कीदृशं पुनश्चतुर्थोपवासिकादेः परिष्ठापनिक कल्पते ?, अत आह- न.५९५ विहिगाहों विहिभुतं अइरेग भत्तपाण भोत्तछ । विहिगहिए विहिभुत्ते एस्थ य चउरो भवे भंगा ॥१९॥
५९३ भा
२९५-३०० उग्गमदोसाइजई अहवा बीअंजहिं जहापडिआइय एसो गहणविही अमुद्धपच्छायणे अविही ॥२९॥ (भा०)
कागसियालक्खइयं दविअरसं सबओ परामडं। एसो उ भवे अविही जगहि भोयणमि(भुजओ य) विही ॥ ५९३ ॥ उचिणइ व विट्ठाओ कागो अहवावि विक्खिरह सर्व ।।
विपेक्खइ य दिसाओ सियालो अन्नोन्नहिं गिण्हे ॥ २१६ ॥ (भा०) सुरहीदोचंगट्ठा छोटूण दवं तु पियइ दवियरसं । हेट्ठोबरि आमहूँ इय एसो भुंजणे अविही ॥२९७ ॥ (भा०) जह गहिअंतह नीयं गहणविही भोयणे विही इणमो । उक्कोसमणुकोसं समकयरसं तु भुंजेजा ॥२९८॥ (भा)
दीप अनुक्रम [९१३]
॥१९१
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९१५] → “नियुक्ति: [१९३] + भाष्यं [२९९] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||५९३||
तइएवि अविहिगहि विहिभुत्तं तं गुरूहिऽणुन्नायं । सेसा नाणुन्नाया गहणे दत्ते य निजुहणा ॥२९९।। (भा) अहवावि अकरणाए उवडियं जाणिऊण कल्लाणं । घट्टेउं दिति गुरू पसंगविणिवारणट्ठाए ॥ ३०॥ (भा०)।
विधिनोद्गमदोषादिरहितं सारासारविभागेन च यन्न कृतं पात्रके तद्विधिगृहीतं, तथा 'विधिभुक्तं' कटकच्छेदेन प्रतरच्छेदादिना वा यद्धतं तद्विधिभुक्तमुच्यते, तदेवंविधं विधिगृहीतं विधिभुक्तं च यद्यदतिरिक्त संजातं भक्तं पानकं वा तद्भोक्तव्यं-परिष्ठापनकं कल्पते, अत आह प्रकारान्तरेण-अत्र च विधिगृहीते विधिभुक्ते चास्मिन् पदद्वये चत्वारो भङ्गका भवन्ति, तद्यथा-विहिगहिरं विहिभुत्तं एगो भंगो, विगिहि अविहिभुत्तं बिइओ, अविहिगहि विहिभुतं तहओ, अविहिगहि अविहिभुत्तं चउत्थो ॥ इदानीं भाष्यकारो विधिगृहीताविधिगृहीतयोः स्वरूपं प्रतिपादयन्नाहउन्नमदोषादिभिर्जत-त्यक्तं यत्तद्विधिगृहीतं, अथवा यद्वस्तु मण्डकादि यथैव यस्मिन् स्थाने पतितं भवति तत्तथैवास्ते नत। समारयति इत्येष ग्रहणविधिः । 'असुद्धपच्छायणे अविहीं' अशुद्धस्य-उद्गमादिदोषान्यितस्य यद्रहणं इदमविधिग्रहणं, अथवा गुडादेव्यस्य मण्डकादिना प्रच्छाद्य यदेकत्र पात्रकदेशे स्थापनं तदविधिग्रहणमुच्यते । इदानीमविधिविधिभोजनयोः स्वरूपं प्रतिपादयन्नाह काकभुक्तं शृगालभुक्तं द्रावितरसमित्यर्थः 'सर्वतः परामृष्टम्' उत्थलपत्थल्लणेण भुक्तं 'एसो उ भवे अविही' इदं पूर्वोक्तमविधिना भुक्तमुच्यते, यथैव गृहीतं पात्रके तथैव भुञ्जतो विधिभुक्तमुच्यते । अधुना|| भाष्यकृद् व्याख्यानयति, तत्राद्यावयवप्रतिपादनायाह-यथा काक उञ्चित्योञ्चित्य विष्ठादेमध्यावल्लादि भक्षयति एवमसावपि, अथवा विकिरति काकवदेव सर्व, तथा काकवदेव कवलं प्रक्षिप्य मुखे दिशो विप्रेक्षते, तथा शृगाल इवान्य-15
दीप अनुक्रम [९१५]
AAAAACCCCCCCCE
)
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९२०] → "नियुक्ति: [१९३] + भाष्यं [२९९] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२९९||
श्रीओष- बान्यत्र प्रदेशे भक्षयति । सुरभि यद् 'दोचंगे'तीमनं ओदनादिना सह यन्मिश्रीभूतं तत्र द्रवं प्रक्षिप्य यो निर्यासःपारिष्ठापनियुक्तिः संजातस्तत्पिवनं यत्तद् द्रवितरसमुच्यते । तथाऽधस्तादुपरि च यद् 'आमटुं' विपर्यासीकृतं भुङ्क्ते तदेतत्परामह, अयमेष निकावि
भोजनेऽविधिः । कः पुनम्रहणभोजनयोविधिः? इत्यत आह-यथैव गृहीतं-गृहस्थेन दत्तं सत्तत्तथैवानीतं यदयं ग्रहणविधिः, धिः भा.
भोजने पुनरयं विधिः-यदुतोत्कृष्टद्रव्यमनुत्कृष्टद्रव्यं च समीकृतरसं भुञ्जीतेत्ययं प्रथमो भङ्गका शुद्ध इति । तृतीयेऽपि ३०१-३०३ ॥१९॥ भङ्गकेऽविधिना असामाचार्या गृहीतं विधिना भुत-समीकृतरसं सत् भुक्तं तच्च गुरुणाऽनुज्ञातं, शेषी तुद्वी भङ्गको नानु-IN
भङ्गकेऽविधिना असामाचार BIज्ञाती, यस्तु विधिगृहीतमविधिभुक्तं काकशृगालादिरूपं भक्तं ददाति योऽपि गृह्णाति तयोर्द्वयोरपि 'निजहणा' निर्धारण18 क्रियते, तथाऽविधिगृहीतमविधिभुक्तं च यो ददाति गृह्णाति वा तयोर्द्धयोरपि निर्धारणं क्रियत इति । अथवा एतद्दोषाकरणतया-अनासेवनया उपस्थितं दातारं ग्रहीतारं च ज्ञात्वा संगोपायनं क्रियते, कल्याणकं च गुरवो ददति, तब ददति| 'घट्टयित्वा' तिरस्कृत्य, यदुत त्वया पुनरेवं न कर्त्तव्यं, स चैवं गुरुः किंनिमित्तं करोतीत्यत आह–'पसंगविणिवारणहाए' प्रसङ्गस्य-पुनरासेवनस्य निवारणार्थमेवं करोतीति ।। घासेसणा य एसा कहिया भे! धीरपुरिसपन्नत्ता । संजमतवडगाणं निग्गंधाणं महरिसीणं ॥ ३०१॥(भा०) एयं घासेसणविहिं जुजंता चरणकरणमाउत्ता । साहू खवंति कम अणेगभवसंचियमणंतं ॥३०२॥ (भा०) ॥१९२
एतो परिवणविहिं बोच्छामि धीरपुरिसपन्नतं । जं नाऊण सुविहिया करेंति दुक्खक्खयं धीरा ॥ ३०३ ॥ (भा०)
दीप अनुक्रम [९२०
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Dihasurary.com
| अथ पारिष्ठापनिका विधि: वर्णयते
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९२४] → “नियुक्ति : [१९३...] + भाष्यं [३०३] + प्रक्षेपं [२७...]" .. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३०३||
सुगमाः॥ इदानी उपरिएत्ति द्वारं भण्यते, अथवा स्वयमेव भाष्यकारः संबन्ध प्रतिपादयन्नाहभत्तद्विअ उबरि अहव अभत्तट्टियाण जं सेसं । संबंघेणाणेण उ परिठावणिआ मुणेयबा ॥ ३०४ ॥ (भा०)
भक्ताधिकानां च भुक्तानामुद्वरितं यद् अथवा अभक्काथिकानां भुक्तानां पारिष्ठापनिकभोक्तृणां यदुद्वरितं यच्छेषं | तत्परिष्ठापनीयमितिकृत्वा अनेन सम्बन्धेन परिष्ठापनिका विज्ञेया भवतीत्यर्थः।
सा पुण जायमजाया जाया मूलोत्तरेहि उ असुद्धा । लोभातिरेगगहिया अभिओगकया विसकया था ।।५९४॥ or सा पुनः परिष्ठापनिका जाताऽजाता भवति, तत्र जाता ग्रहणकाल एव प्राणातिपातादिदोषेण युक्का अथवा
आधाकमादिदोषेण 'जाता' उत्पन्ना, अजाता पुन:-आधाकर्मादिदोषेण न दूपिता या साऽजातेत्युच्यते, तत्र जातास्वरूपप्रतिपादनायाह-मूलगुणैः-प्राणातिपातादिभिरशुद्धा, तथोचरगुणैश्च आधाकर्मादिभिरशुद्धा, तथा लोभातिरेकेण-लोभाभिप्रायेण साधुना गृहीता साऽप्यशुद्धा लोभदोषदूषिता सती जातेत्युच्यते, तथा अभियोगकृता, अभियोगो द्विविध:-वशी-| करणचूणों मन्त्रश्च, तत्र सा भिक्षा कदाचित् संयोजिता भवति मन्त्राभिमन्त्रिता वा साऽप्यशुद्धा, अतो जाता सा पारिष्ठापनिकेत्युच्यते, विषेण वा व्यामिश्र भक्त केनचिद् द्विष्टेन दत्तं भवति तस्य यत् परिष्ठापनिका सा जातापरिष्ठापनिकेति । इदानी भाष्यकृदेनामेव गाथा व्याख्यानयति, तत्र जातापरिष्ठापनिकीस्वरूपाभिधानायाह
मूलगुणेहिं असुद्धं जं गहि भत्तपाण साहहिं।। एसा उ होइ जाता वुच्छं सि विहीऍ वोसिरणं ॥ ३०५॥ (भा०)
दीप अनुक्रम [९२४]
-
૩
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||३६३||
दीप
अनुक्रम
[ ९२९]
श्री ओघ
निर्युक्तिः द्रोणीया वृत्तिः
॥ १९३॥
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) “निर्युक्तिः [ ५९५ ] + भाष्यं [ ३०६ ] + प्रक्षेपं [२७...]" आगमसूत्र - [४१/१], मूल सूत्र - २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
८०
मूलं [ ९२९] • → मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
एगंतमणावाए अचिते थंडिले गुरुवइट्टे । आलोए एगपुंजं तिद्वाणं सावणं कुजा ।। ५९५ ॥ लोभातिरेगगहि अं अहब असुडं तु उत्तरगुणेहिं । एसावि होति जाया वोच्छं सि विहीऍ वोसिरणं ॥ ३०६ ॥ ( भा०) एगंतमणाचाए अचित्ते थंडिले गुरुवइडे । आलोए दुन्नि पुंजा तिद्वाणं सावर्ण कुजा ।। ५९६ ।।
मूलगुणैः प्राणातिपातादिभिरशुद्धं यद्गृहीतं भक्तं पानकं वा साधुभिरियं जाताऽभिधीयते, वक्ष्ये 'अस्याः' जाताया विधिना 'व्युत्सर्जनं' परित्यागं । सा च जाता एवंविधे स्थण्डिले परिष्ठापनीया - एकान्ते 'अनापाते' लोकापातरहिते अचित्ते स्थण्डिले गुरूपदिष्टे “अणावायमसंलोए” इत्येवमादिके 'आलोगे' समे भूभागे न गर्त्तादौ यत्र प्राघूर्णकादयः सुखेन पश्यन्ति, तत्र च तस्य भक्तस्य एकः 'पुंज:' राशिः क्रियते, पुनश्च 'त्रिस्थानं' तिस्रो वाराः श्रावणं करोति-व्युत्सृष्टं व्युत्सृष्टं व्युत्सृष्टमिति, तच्च त्रिस्थानं श्रावणं करोति त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन व्युत्सृष्टमित्यस्य ज्ञापनार्थमिति । यत्पुनः साधुना लोभातिरेकेण गुडादिद्रव्यं मूर्च्छया गृहीतं अथवा यदशुद्धमुत्तरगुणैः-आधाकर्मादिभिः, इयमपि भिक्षा जातेत्युच्यते वक्ष्ये अस्या विधिना व्युत्सर्जनं परित्यागम् । पूर्वार्द्ध सुगमं, केवलमत्र द्वौ पुझौ क्रियेते- द्वौ राशीक्रियेते आलोके साधूनाम् । इदानीम् " अभिओगे"त्ति व्याख्यानयन्नाह -
दुविहो खलु अभिओगो दवे भावे य होइ नायो । दबंमि होइ जोगो विज्जा मंता य भाव॑मि ॥ ५९७ ॥ द्विविधोऽभियोगो-द्रव्याभियोगो भावाभियोगश्च ज्ञातव्यः, तत्र द्रव्याभियोगो द्रव्यसंयोगजचूर्णस्तन्मिश्रः पिण्डोऽभियोगपिण्डः, स च परित्यजनीयः, भावाभियोगश्च विद्यया मन्त्रेणाभिमन्त्रय पिण्डं ददाति स तादृशौ भावाभियोगपिण्डः,
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जातापारिष्ठापनिका
नि. ५९४५९७ भा. ३०४-३०६
॥१९३॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९३१] → “नियुक्ति : [१९७] + भाष्यं [३०६...] + प्रक्षेपं [२७...]" .. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||५९७||
NCES
स च परिष्ठापनीय इति । अत्र चागार्या दृष्टान्तः, एगा अविरइया सा अणिट्ठा पतिणो, ताए परिवाइया अभत्थिया। जहा किंचि मंतेण अहिमंतऊण मे देहि जेण पई मे वसे होइ, ताहे ताए अभिमंतेऊण कूरो दिण्णो, अविरइयाए चिंतियं, मा एसो दिण्णण मरिज्ला ततो ताए अणुकंपाए उकुरुडियाए छड्डिओ, सो गद्दहेण खइओ, सो रत्तिं घरदारं खोडेउमारतो, ताणि णिग्गयाणि जाव पेच्छंति गद्दहेण खोहिजत, सो अविरओ भणइ-किं एयंति ?, ताए सम्भावो कहिओ, तेणवि |सा परिवाइगा दंडाविआ, एस दोसो। एवं जदि तिरियाण एरिसा अवस्था होइ माणुसस्स पुण सुट्टयर होइ, अओ, 17 एरिसो पिंडोन घेत्तघो । अमुमेवाथै गाथाभिरुपसंहरन्नाहविजाए होअगारी अचियत्ता साय पुच्छए चरिजाअभिमंतणोदणस्स उ अणुकंपणमुज्झणं च खरे॥५९८॥ बारस्स पिट्टणंमि अ पुच्छण कहणं च होअगारीए। सिढे चरियादंडो एवं दोसा इहंपि सिया ॥ ५९९ ॥
विद्याभिमन्त्रिते पिण्डेऽगारी दृष्टान्तः, सा च भर्तुरचियत्ता-न रोचते, सा च चरिकां-परिव्राजिकां पृच्छति पत्युर्व-18 शीकरणार्थ, तयाऽप्यभिमन्त्रणमोदनस्य कृत्वा दत्तं, तयाऽपि अगार्या पत्युमरणानुकम्पया न दत्तं, 'उज्झनं' परित्यागः कृतः, स चोज्झितः खरेण भक्षित इति । स च गर्दभ आगत्य द्वार पिट्टयति मन्त्रवशीकृतः सन् , शेषं सुगमम् । एवं भावा-12 भियोगदृष्टान्त उक्तः, इदानीं द्रव्याभियोगचूर्ण वशीकरणपिण्ड उच्यते-एगा अविरइया, सा य सरुवस्स भिक्खुणो अज्झो-18 |वण्णा अणुरत्ता, ताहे सा तं पेच्छति अणिच्छंतस्स चुण्णाभिओगेण संजोएडं भिक्खं पाडिवेसिअघरे काऊण दवावि ताहे जत्थेव तस्स साहुस्स पडिग्गहगे पडिअं तत्थेव तस्स साहुस्स तओ मणो हीरह, तेण य नायं ताहे नियत्तइ, आय-11
दीप अनुक्रम [९३१]
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९३३] → “नियुक्ति : [५९९] + भाष्यं [३०६...] + प्रक्षेपं [२७...]" .. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
नि.
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५९९||
श्रीओष-18| रियाणं पडिग्गहर्ग दाउं काइयभूमि वच्चा जाव आयरियाणपि तत्तोहुत्तो भावो हीरइ, ताहे सो सीसो आगंतुं आलोएइ जातापारिनियुक्ति आयरिया भणंति-ममवि अत्थि भावो, ते एत्थं संजोगचुण्णेण कओ पिंडो अस्थि, ताहे परिठविजइ, जो विही परिछावणे छापनिका द्रोणीयासो उपरि भणिहिति । एवमेव विसकयंपि, एगा अगारी साहुणो अज्झोववण्णा, सो य नेच्छइ, ताहे रुहाए विसेण मिस्सा वृत्तिः भिक्खा दिग्णा, तस्स य दिण्णमेत्तेणं चेव सिरोवेयणा जाया, पडिणियत्तो य गुरुणो समप्पेऊण काइयं वोसिरह जाव ५९८-६०४ ॥१९॥
गुरुणोवि सीसवेयणा जाया, तं च गुरुणा गंधेण णायं जहा इमं विसमिस, अहवा तत्थ लवणकया भिक्खा पडिया ताहे हात विसं उप्पिसति, एवं नाए विहीए परिदृविजति सा य भणीहामि ॥ इदानीममुमेवार्थं गाथाभिरुपसंहरनाह
जोगंमि उ अविरइया अगुववन्ना सरूवभिक्खुमि | कडजोगमणिच्छंतस्स देह भिक्खं असुभभावे ॥३०॥ संकाए स नियट्टो दाऊण गुरुस्स काइयं निसिरे । तेसिपि असुभभावो पच्छा उ ममापि उज्झयणा ॥१०॥ एमेव विसकर्यमिबि दाऊण गुरुस्स काइयं निसिरे । गंधाई विनाए उज्झगमविही सियालबहे ।। ६०२॥
एवं विजाजोए विससंजुत्तस्स वावि गहियस्स । पाणचएवि नियमुज्झणा उ चोच्छ परिवणं । ६०३ ॥ टाएगतमणावाए अचिसे थंडिले गुरुवाइढे । छारेण अकमित्ता तिढाणं सावर्ण कुजा ॥ ६०४ ॥
जोगे अविरश्या-गृहस्थी दृष्टान्तः, अज्झोचवण्णा सरूपे भिक्षी, अनिच्छतस्तत्कर्म कर्तुं कृतयोगो भिक्षापिण्डो दत्ता, पुनश्च तस्य साधोग्रहणानन्तरमेवाशुभभावो जातः-तदभिमुखं चित्तमिति । तया च 'शङ्कया' योगकृतभिक्षाशङ्कया सा निवृत्तो भिक्षापरिश्रमणात् । शेष सुगमम् ॥ एवमेव विषकृतेऽपि दृष्टान्तः, गुरोः 'दत्वा' समर्पयित्वा कायिका व्युत्स-1
दीप अनुक्रम [९३३]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९३८] . "नियुक्ति: [६०४] + भाष्यं [३०६...] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६०४||
जति, तेन च गुरुणा गन्धादिना विज्ञाते, आदिग्रहणाद् भत्तस्स उप्फंसणेण वा, 'उज्झन' परित्यागः क्रियते तत्र विधिना, || अविधिपरिष्ठापने सति शृगालादिवधो भवति । एवं विद्याभिमन्त्रितस्य योगचूर्णकृतस्य तथा विषसंयुक्तस्य गृहीतस्य सतः|
'प्राणात्ययेऽपि' अत्यर्थं क्षुत्पीडायामपि सत्यां नियमेन-अवश्यम्तयोग्झनीयं (ना कार्या) तस्य च परिष्ठापनविधि कश्वर पूर्वार्द्ध पूर्ववत् , तद्विषादिकृतं भोजनं 'छारेण' भूत्या 'आक्रम्य' मिश्रीकृत्य चैव परिठापनीयं, सुगमम् । इदानीं 'तिष्ठाण सावणं ति व्याख्यायते
दोसेण जेण दुई तु भोयणं तस्स सावणं कुंज्जा । एवं विहवोसढे वेराओ मुच्चई साहू ॥ ६०५ ॥ है दोषेण येन-मूलकर्मादिना आधाकर्मादिना वा दुष्टं भोजनं भवति तस्य तिस्रो वाराः श्रावणं कर्त्तव्यं, यदुत मूलककादिदोषैर्दुष्टमिति, एवमुत्तरगुणयोगमन्त्रविषकृतदुष्टानामपि तिम्रो वाराः श्रावणं करोति, एवं विधिना व्युत्सृष्टे सति | 'वैरात्' कर्मणो मुच्यते साधुः, अथवा 'वैरात्' जीववधजनितान्मुच्यते साधुरिति ॥ आह-इदमुक्तं शुद्धाया भिक्षाया यत्परिष्ठापनं साऽजातापरिष्ठापनिकीत्युच्यते, ततश्च| जावइयं उवउज्जइ तत्तिअमिसे बिगिचणा नस्थि । तम्हा पमाणगहणं अइरेगं होज उ इमेहिं ।। ६०६॥
यावन्मात्रकमेयोपयुज्यते तावन्मात्रमेव भिक्षाग्रहणं कर्त्तव्यं, यदा चैवं तदा तावन्मानकमहणे 'विगिंचन' परिष्ठापन 'नास्ति' न भवति तस्मात्प्रमाणग्रहणमेव कर्त्तव्यं, ततश्च कुतोऽजातायाः संभवति परिष्ठापनम् १, अतिरेकग्रहणाभावा
दीप अनुक्रम [९३८]
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९४०] → “नियुक्ति : [६०६] + भाष्यं [३०६...] + प्रक्षेपं [२७...]" .. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६०६||
श्रीओप- दिति, एवमुक्ते परेण आह सूरि:-'अइरेग होज उ इमेहिं' 'अतिरिक्त' शुद्धमपि भक्तं 'एभिः' वक्ष्यमाणकारणैर्भवेत् , जातापारि
ष्ठापनिकानियुक्तिः कानि च तानि वक्ष्यमाणकारणानीत्यत आह
यांत्रिस्थान द्रोणीया आयरिए य गिलाणे पाहुणए दुल्लभे सहसदाणे । एवं होइ अजाया इमा उ गहणे विही होई ॥६०७॥ वृत्तिः
श्रावणं नि. कदाचित्कस्मिंश्चित्क्षेत्रे आचार्यप्रायोग्यं दुर्लभं भवति ततश्च सर्व एव सङ्घाटका आचार्यप्रायोग्यस्य ग्रहणं कुर्वन्ति ततश्च
(६०५ अजा १९५॥ तद् घृतादि कदाचित्सर्व एव लभन्ते ततस्तदुद्धरति, ततोऽन्येषां च साधूनां पर्याप्त, एवमाचार्यार्थ गृहीतस्य शुद्धस्यापि
तापारिष्ठाप अपरिष्ठापना भवति । तथा ग्लानार्थमप्येवमेव गृहीतं सदुद्धरति, प्राघूर्णकानामप्येवमेव, तथा दुर्लभलाभे सति सर्वैरेव सङ्घाटकैनिका नि.
गृहीतमुद्धरति, तथा 'सहसदाणे' अप्रतर्कितदाने सति प्रचुरमुद्धरति, तत एवं भवति अजातापरिष्ठापनिका । तत्र चाचा- ६०६-६०९ &ार्यादीनां ग्रहणेऽयं विधिः-वक्ष्यमाणः, कश्चासावित्यत आह
जह तरुणो निरुवहओ भुंजइ तो मंडलीइ आयरिओ । असहुस्स वीमुगहणं एमेव य होइ पाहुणए॥६०८॥ । केचनैवं भणति-यद्यसावाचार्यस्तरुणो निरुपहतपञ्चेन्द्रियश्च ततोऽसौ मण्डल्यामेव भुतेसामान्यं, अथ असह-असमर्थस्ततस्तस्य विष्वक्-पृथग् ग्रहणं प्रायोग्यस्य कर्तव्यं, एवमेव माघूर्णकेऽपि विधिद्रष्टव्यः, यदि प्राघूर्णकः समर्थस्ततो नैव तत्प्रायोग्यग्रहणं क्रियते, अथासमर्थस्ततः क्रियत इति, केचित्पुनरेवं भणन्ति-यदुत समर्थस्याप्याचार्यस्य प्रायोग्यग्रहणं कर्त्तव्यं, यत एते गुणा भवन्ति
॥१९५॥ सुत्तस्थथिरीकरणं विणओ गुरुपूय सेहवहुमाणो । दाणवतिसद्धबुढी बुद्धिबलबजणं चेव ॥ ५०९॥
दीप अनुक्रम [९४०]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९४३] → “नियुक्ति: [६०९] + भाष्यं [३०६...] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६०९||
CAMERASACSC
आचार्यस्य प्रायोग्यग्रहणे क्रियमाणे सूत्रार्थयोः स्थिरीकरणं कृतं भवति, यतो मनोज्ञाहारेण सूत्राी सुखेनैव चिन्त-| यति, अत आचार्यस्य प्रायोग्यग्रहणं कर्त्तव्यं, तथा विनयश्चानेन प्रकारेण प्रदर्शितो भवति, गुरुपूजा च कृता भवति, का सेहस्य चाचार्य प्रति बहुमानः प्रदर्शितो भवति, अन्यथा सेह इदं चिन्तयति, यदुत न कश्चिदत्र गुरु पि लघुरिति, अतो विपरिणामो भवति, तथा प्रायोग्यदानपतेश्च श्रद्धावृद्धिः कृता भवति, तथा वुद्धेर्बलस्य चाचार्यसत्कस्य बर्द्धनं भवति. तत्र च महती निर्जरा भवति । एएहि कारणेहि उ केइ सहुस्सवि वयंति अणुकंपा । गुरुअणुकंपाए पुण गच्छे तित्थे य अणुकंपा ॥१०॥
'एभिः' पूर्वोक्त कारणैः केचित्समर्थस्याप्याचार्यस्यानुकम्पा कर्त्तव्येत्येवं वदन्ति, यतो गुरोरनुकम्पया गच्छे तीर्थे चानुकम्पा कृता भवति । यतश्चैवमतः प्रायोग्यग्रहणं ग्राह्यमिति ।। अत आह
सत्ति लाभे पुण दबे खेत्ते काले य भावओ चेव । महणं तिसु उकोसं भावे जं जस्स अणुकंप ॥ ११ ॥ 'सति' विद्यमाने लाभे द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्चोत्कृष्ट ग्राह्यं । इदानीं नियुक्तिकारो व्याख्यानयन्नाहगहणं तिसु उकोसं' ग्रहणं त्रिषु द्रध्यक्षेत्रकालेषु उत्कृष्टं कर्त्तव्यं, भावे तु यद्वस्तु यस्थाचार्यस्यानुकूलं तद्गृह्यते । इदानीं टू भाष्यकृयाख्यानयति, तत्र द्रव्ये उत्कृष्टतां प्रदर्शयन्नाह- . कलमोतणो ख पयसा उफोसो हाणि कोदबुम्भज्जी। तत्थवि मिउतुप्पतरयं जत्थ व जं अचियं दोसु।।३०७॥ (भा०)
कलमशाल्योदनः पयसा सह द्रव्यमुत्कृष्टं ग्राह्य, तदलाभे हान्या तावत् गृह्यते यावत् 'कोद्दवोभग्झी' कोद्दवजाउ
दीप अनुक्रम [९४३]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९४६] .→ "नियुक्ति: [६११] + भाष्यं [३०७] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
अजाता पारिष्ठाप
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६११||
श्रीओप- लयं, तत्राप्ययं विशेषः क्रियते यदुत तदेव जाउलयं मृदु गृह्यते, तथा 'तुष्पतरय'ति स्निग्धतरं तदेव जाउलयं गृह्यते, उक्त नियुक्तिद्रव्योत्कृष्ट, इदानी क्षेत्रकालोत्कृष्टप्रतिपादनायाह-'जत्थ व जं अच्चियं दोसु' द्वयोरिति-क्षेत्रकालयोर्यद्वस्तु यत्र पूजितं
दतत्तत्र गृह्यते, एतदुक्तं भवति-यद्यत्र क्षेत्रे बहुमतं द्रव्यं तत्तस्मिन् क्षेत्रे उत्कृष्टमुच्यते, तच ग्राह्य, तथा यद्वस्तु यस्मिन् वृत्ति काले बहुमतं तत्तस्मिन् काले उत्कृष्टमुच्यते, भावोत्कृष्टं पुनर्नियुक्तिकारेणैव व्याख्यातं । उक्त प्रसङ्गागतम्, इदानीं ॥१९॥
X| यदुक्तं आचार्यादीनां गृहीतं सद्यथोद्धरति तथा प्रतिपादयन्नाहना लाभे सति संघाडो गेण्हइ एगो उ इहरहा सधे । तस्सप्पणो य पजत्त गेण्हणा होइ अतिरेगं ॥ ६१२॥ AI यदि तत्र क्षेत्रे घृतादीनां स्वभावेनैव लाभोऽस्ति ततस्तत्र लाभे सति आचार्यस्यैक एव सङ्घाटकः प्रायोग्यं गृह्णाति, इहरह'त्ति
यदा तत्र क्षेत्रे न मायोवृत्त्या प्रयोगस्य लाभः तदा सर्व एव सङ्घाटकास्तस्याचार्यस्य प्रायोग्य पर्यास्या गृहन्ति, ततश्च तस्याचायस्यात्मनश्चार्थाय पर्याप्तग्रहणे सत्यतिरिक्तं भवति, ततश्च तत्परिष्ठाप्यत इति । इदानीं 'गिलाणे'त्तिव्याख्यानयनाह
गेलन्ननियमगहणं नाणत्तोभासियंपि तत्थ भवे । ओभासियमुबरिअं विगिंचए सेसगं भुंजे ॥ ६१३ ॥ ग्लानस्य नियमेन प्रायोग्यग्रहण कर्तव्यं, यदि परं नानात्वं 'ओभासियंपि' प्रार्थितमपि तत्र ग्लाने भवति, ग्लानार्थे | प्रायोग्यस्य च प्रार्थनमपि क्रियते, ततश्च ओभासित-प्रार्थितं सद् ग्लानार्थ पुनश्च यदुद्धरति ततस्तद् 'विगिच्यते' परित्य-| ज्यते, 'सेसयं भुजेत्ति शेष यदनवभासिअं-अप्रार्थितमुरितं तद्भुजीत कश्चित्साधुरिति । माघूर्णकोऽप्याचार्यचयाख्यात एव द्रष्टव्यः । इदानी दुर्लभत्ति व्याख्यानयनाह
दीप अनुक्रम [९४६]
ॐ4%25345%25%
॥१९॥
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||६१४||
दीप
अनुक्रम [९४९ ]
मूलं [ ९४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
● →
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) “निर्युक्तिः [६१४] + भाष्यं [ ३०७ ] + प्रक्षेपं [२७...]" ८० आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र -[ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
दुल्लभदबं व सिआ घयाइ घेतूण सेस भुअंति । श्रोषं देमि व गेण्हामि यत्ति सहसा भवे भरियं ॥ ६१४ ॥
दुर्लभद्रव्यं वा स्याद्भवेत् घृतादि तद्गृहीत्वा उपभुज्य च यत् शेषं तद् उज्झति, एवं वा पारिष्ठापनिकं भवति । इदानीं सहसदाणत्ति व्याख्यानयन्नाह 'धोवं देमी' त्यादि, स्तोकं दास्यामीत्येवं चिन्तयन्त्या गृहस्थया सहसा अतर्कितमेव तत् साधुभाजनं भृतं साधुर्वा चिन्तयति स्तोकं ग्रहीष्यामीति, पुनश्चातर्कितमेव भाजनं भृतं, ततश्चैवमतिरिक्तं भवति, पुनश्च परिष्ठाप्यत इति । एएहिं कारणेहिं गहियमजाया उसा विचिणया । आलोगंमि तिपुंजी अद्धाणे निग्गयातीणं ॥ ६१५ ॥ एभिः पूर्वोक्तकारणैर्यद्गृहीतं भक्तं सा 'अजातविगिंचणय'त्ति अजाता परिष्ठापनोच्यते, तस्याश्चाजातायाः साध्वालोके त्रयः पुञ्जाः क्रियन्ते, किमर्थमित्याह - 'अद्धाणे निग्गयाईणं' अध्वाने निर्गतास्तदर्थं त्रयः पुजाः क्रियन्ते, आदिग्रहणात्कदाचित्त एव कारणे उत्पन्ने गृहन्तीति । आह
एक व दो व तिन व पुंजा कीरति किं पुण निमित्तं ? । विहमाइनिग्गयाणं सुद्धयरजाणणट्ठाए ॥ ६१६ ॥ एको वा द्वौ या त्रयो वा पुञ्जाः किं पुनर्निमित्तं क्रियन्ते ?, उच्यते, 'विमादि' विहः पन्थास्तदर्थं निर्गतानां साधूनां शुद्धेतरभक्तपरिज्ञानार्थं त्रयः पुञ्जकाः क्रियन्ते, आदिग्रहणाद्वास्तव्यानामेव कदाचिदुपयुज्यते इतिकृत्वा परिज्ञानार्थं त्रयः पुञ्जकाः क्रियन्त इति । इयं च गाथाऽनन्तरातीतगाथाया व्याख्यानभूता द्रष्टव्येति ।
एवं विfiचिडं निम्गयस्स सन्ना हवेज तं तु कहं ?| निसिरेज्जा अहव धुवं आहारा होइ नीहारो ।। ६१७ ।। ' एवं ' उक्तेन प्रक्रमेण परिष्ठापनार्थं विनिर्गतस्य यदि 'सम्झा' पुरीषोत्सर्जने बुद्धिर्भवेत् 'तत्कर्ष ?' किं तत्र कर्त्तव्य
For Pale Only
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९५४] → "नियुक्ति: [६१८] + भाष्यं [३०८] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६१८||
श्रीओप- मिति, अत आह-निसिरेज' ब्युत्सृजेत् , अथवा किमत्र प्रष्टव्यं ?, धुवमाहारानीहारो भवति, ततश्च स्थण्डिले व्युत्सृजनं अजाता पा नियुफिः कर्त्तव्यं, तत्र स्थण्डिलं पूर्वभणितमेव, तथाऽऽह
रिष्ठापनिद्रोणीया डिल्ल पुषभणियं पढम निहोस दोस जयणाए । नवरं पुण णाणत्तं भावासनाए वोसिरणं ।। ६१८॥ का नि.. वृत्तिः II स्थण्डिलं पूर्वभणितमेव, यदुत अनापातं असंलोकं १ अनापातं ससंलोकं २ सापातमसंलोकं ३ सापातं ससंलोकं १४-६१६
अत्र प्रथमो भङ्गको निर्दोषः, द्वयोश्च द्वितीयतृतीयभङ्गकयोर्यतनया व्युत्सृजति, एतत्पूर्वोक्तस्थण्डिलस्य सामान्यमेव, 'नवरं पुण णाणतंति नवरं-केवलमिदं नानात्वं, यदुतात्र भावासन्ने-अतिपीडायां व्युत्सृजनमनुज्ञातं, तत्र चानुज्ञा नैव
दर्जन नि. ।
१७.६२० कृताऽऽसीदिह च कृताऽतो नानात्वं, ततश्चतुर्थभङ्गकासेवनमप्यनुज्ञातमेव द्रष्टव्यमिति । इदानीं भाष्यकारः पूर्वोत्कस्थाण्डि-
G e लानि प्रदर्शयन्नाहअणावायमसंलोयं अणावायालोय ततिय विवरीयं । आवातं संलोग पुच्चुत्ता थंडिला चउरो॥३०८॥(भा०)
अनापातमसंलोकं च प्रथमो भङ्ग उक्तस्तथाऽन्यदनापातमालोकं च द्वितीयं तृतीयं पुनर्विपरीतं स्थण्डिलं-सापातमसंलोकमित्यर्थः, तथाऽन्यदापातं संलोकं च चतुर्थो भङ्गका, एतानि पूर्वोक्तस्थण्डिलानि चत्वारि ।।
अणावायमसंलोगं निहोसं वितियचरिम जयणाए । पउरदवकुरुकुयादी पत्तेयं मत्तगा चेव ।। ६१९॥ ॥१९७॥ तइएवि य जयणाए नाणत्तं नवरि सद्दकरणंमि । भावासनाए पुण नाणत्तमिणं सुणसु वोच्छ ॥ ६२०॥ अत्रानापातमसंलोकं च स्थण्डिलं निर्दोष, द्वितीयतृतीयचरमेषु भङ्गकेषु यतनया व्युत्सर्जनं कर्त्तव्यं, का चासौ यतना?,
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दीप अनुक्रम [९५४]
444
अथ संज्ञा(स्थण्डिल) व्युत्सर्जनं विधि: वर्णयते
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९५६] . "नियुक्ति: [६२०] + भाष्यं [३०८...] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||६२०||
प्रचुरद्भवेण कुरुकुचादिकं कर्त्तव्यं प्रत्येकं प्रत्येकं च मात्रकाणि सपानकानि भवन्तीति । किं सर्वेष्वेव स्थण्डिलेषु कुरु-IN कुचैव यतना कर्तव्या उत कश्चिद्विशेषः?, उच्यते, अस्ति विशेषः, तृतीयेऽपि स्थण्डिले यतनाया नानात्वमेतावद्यदि पर। | यदुत शब्दकरणं, एतदुक्तं भवति-तृतीये स्थण्डिले आपातासंलोके शब्दं कुर्वद्भिर्गन्तव्यं, भावासन्ने पुनर्यतनायां यन्नानात्वं | तच्छृणुत वक्ष्ये । तत्र प्रथमस्थण्डिले गन्तव्यं, अथ तन्नास्ति, ४ा जदि पढमं न तरेजा तो वितियं तस्स असइए तइयं । तस्स असई चउत्थे गामे दारे य रत्थाए । ६२१॥
यदि प्रथम स्थण्डिले गन्तुं न शक्नुयात्ततो द्वितीयं ब्रजेत् , 'तस्य' द्वितीयस्यासति तृतीयं ब्रजेत्, 'तस्य' तृतीयस्य स्थण्डिलस्यासति चतुर्थ स्थण्डिलं ब्रजेत् , यदा चतुर्थमपि स्थण्डिलं गन्तुं न शक्नोति तदा ग्रामद्वारे गत्वा व्युत्सृजति, 81यदा ग्रामद्वारमपि गन्तुं न शक्नोति तदा रथ्यायामेव व्युत्सृजति ॥
साही पुरोहडे वा उवस्सए मत्तगंमि वा णिसिरे । अचुकडंमि वेगे मंडलिपासंमि योसिरह ॥ ६२२ ॥ - यदा रथ्यायामपि गन्तुं न शक्नोति तदा साहीए' खडकिकायां गत्वा ब्युत्सृजति, यदा खडकिकायां गन्तुं न समर्थस्तदा 'पुरोहडे' अग्रद्वारे व्युसृजेत् , यदा पुरोहडमपि गन्तुं नालं तदोपाश्रये मात्रके वा व्युत्सृजेत् , सर्वधा 'अचुक्कडंमि वेगे मंडलीपासंमि वोसिरति' सुगमम् । इदं च लोकेऽपि प्रसिद्धं, यदुत प्राप्तपुरीपादेर्वेगो नधार्यते । अत्र च कथानकम्एगो राया तस्स य वेज्जो पहाणो सो मतो, तंमि मए राइणा गवेसावियं एयस्स पुत्तो अत्थि वा न वा?, तस्स य कहियंअत्थि एगा सुया, ताए य सयलं वेजयं अहीयं, हक्कारिया आयाया, राइणा भणिया य-किं ते भणियं ?, सा भणइ
दीप अनुक्रम [९५६]
Saintairatonish
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९५८] .→ “नियुक्ति: [६२२] + भाष्यं [३०८...] + प्रक्षेपं [२७...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र
श्रीओघ- नियुक्तिः द्रोणीया वृत्तिः ॥१९८॥
||६२२||
दीप अनुक्रम [९५८]
अहियं विजयं, ततो एयस्संतरे ताए वायकम्मं कयं, ततो इयरेहिं विजेहिं हसियं, ततो तीए ताणं विजाणं राइणो य संज्ञाव्युत्स परिकहणा कया, जहा
जेनं नि. तिणि सल्ला महाराय, अस्सि देहे पइट्ठिया । वायमुत्तपुरीसाणं पत्तवेगं न धारए ॥ ६२३ ॥
४.६२१-६२८ |सिलोगो सुगमो । एवं साहुणावि वेजाईणं परिकहणा कायचा । एतदेव गाथयोपसंहरन्नाह
राया विजंमि मए विजसुयं भणइ किं च ते अहियं ?।अहियंति वायकम्मे विजे हसणा य परिकहणा ॥२४॥ 81 सुगमा ॥ एसा परिढवणविही कहिया भे धीरपुरिसपन्नत्ता । सामायारी एसो वुच्छं अप्पक्खरमहत्धं ॥ ६२५ ॥
सुगमा । उपरिएत्ति दारं गयं, इदानीं सामाचारी व्याख्यायतेमा सन्नालो आगतो चरमपोरिसिं जाणिऊण ओगाढं । पडिले हणमप्पत्तं नाऊण करेह सज्झायं ।। ६२६ ॥
एवं च साधुः सज्ञा व्युत्सृज्यागतः पुनः 'चरमपौरुषी चतुर्थप्रहरं ज्ञात्वा 'अवगाढा' अवतीर्ण, ततः किं करोतीत्यत आह-प्रत्युपेक्षणां करोति, अधासी चरमपौरुषी नाद्यापि भवति ततोऽप्राप्तां चरमपौरुषी मत्वा स्वाध्यायं तावत्क-IX॥१९८॥ रोति यावच्चरमपौरुषी प्राप्ता। पुषदिहो य विही इहंपि पडिलेहणाइ सो चेव । जं एत्वं नाणतं तमहं बुच्छं समासेणं ।। ६२७ ॥ पडिलेहगा उ दुविहा भत्तट्ठियएयरा य नायवा । दोण्हवि य आइपडिलेहणा उ मुहर्णतगसकायं ॥६२८।।
| अथ प्रत्युप्रेक्षणा विधि: वर्णयते
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९६५] → “नियुक्ति : [६२९] + भाष्यं [३०८...] + प्रक्षेपं [२७...]" .. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||६२९||
तत्तो गुरू परिन्ना गिलाणसेहाति जे अभत्तट्ठी । संदिसह पायमत्ते य अपणो पगं चरिमं ॥ १२९॥ पट्टग मत्तय संपमोग्गहो य गुरुमाइया अणुनवणा । तो सेस पायवत्धे पाउंछणगं च भत्तट्ठी ॥३०॥
अत्र च प्रत्युपेक्षणायां पूर्वोद्दिष्ट एव विधिः, 'मुखबस्त्रिकादिका प्रत्युपेक्षणा' एवमादिः, तथा पात्रस्यापि "सोत्ताइओ-6 वउत्तो तल्लेसो"इत्येवमादिः इहापि स एव प्रत्युपेक्षणायां विधिद्रष्टव्यः, यदत्र नानात्वं-योऽतिरिक्तो विधिर्भवति तं
विधिमहं वक्ष्ये 'समासेन' सझेपेण, तत्र ये ते प्रत्युपेक्षकास्ते द्विविधाः-भक्तार्थिका-भुक्ताः 'इयरा य इतरे च 6 उपवासिकाच ज्ञातव्याः, 'योरपि भक्तार्थिकाभकार्थिकयोः 'आदी' प्रथमं प्रत्युपेक्षणा तुल्या इयं वेदितव्या, 'मुहणंमातगसकार्य प्रथमं मुखवखिको प्रत्युपेक्षन्ते ततः 'खकायं निजदेहं प्रत्युपेक्षन्ते मुखवस्त्रिकया, इयं तावद्भक्ताभक्ताआर्थिकयोस्तुल्या प्रत्युपेक्षणा, इदानीमभक्तार्थिकानां प्रत्युपेक्षणायां विधि प्रदर्शयति, तत्र 'ततः' मुखवत्रिकाकायप्रत्युपेक्षणानन्तरं 'गुरु'त्ति गुरोः संघन्धिनीमुपधिं प्रत्युपेक्षन्ते, 'परिण'त्ति परिज्ञा-प्रत्याख्यानम् , एतदुक्तं भवति-अनशनस्थस्य संवन्धिनीमुपधिं प्रत्युपेक्षन्ते तथा शैक्षकः-अभिनवप्रवजितः शिक्षणार्थ अर्पितः तदीयामुपधिं तस्यैवाग्रतः प्रत्युपेक्षते, आदिग्रहणात् वृद्धादिसंबंधिनीमुपधि प्रत्युपेक्षते, येऽभक्तार्थिनस्ते एवमनेन क्रमेण कुर्वन्ति प्रत्युपेक्षणां, ततो गुरुं संदिशापयित्वा 'संदिसह इच्छाकारेणं ओहियं पडिलेहेमि एवं भणित्वा 'पानं' पतद्भहं प्रत्युपेक्षन्ते, मात्रकं चात्मीयं प्रत्युपेक्षन्ते, ततश्च सकलमुपधिं प्रत्युपेक्षन्ते तावद्यावच्चोलपट्टकश्चरममपि प्रत्युपेक्षन्ते । एसो ताव अभत्तट्ठियाण पडिलेहणविही । इदानीं भुक्तानां विधि प्रतिपादयन्नाह --मुखवत्रिका प्रत्युपेक्ष्य तयैव कार्य प्रत्युपेक्ष्य ततः 'पगं'ति चोलपट्टगं प्रत्युपेक्षन्ते,
दीप अनुक्रम [९६५]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९६६] → “नियुक्ति : [६३०] + भाष्यं [३०८...] + प्रक्षेपं [२७...]" .. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र
वस्त्रादिप्र. त्युपेक्षणा नि.६२९ पठनादि नि.६३० भूमित्रयप्रत्युपंक्षणा
||६३०||
श्रीओघ- पुनश गोच्छको या पात्रकस्योपरि दीयते पछी पष्टिलहणीर्य पत्तीबंधों पडलाई रयत्ताण पत्तय वैव, यदि मत्तो रिको नियुक्ति
तो एवं, अह रिकी सो चैव परम निक्खिप्पई, पुनश्च मात्रकै निक्षिप्य स्वकीयमवग्रह-पतह प्रत्युपेक्षते, ततो गुरुमद्रोणीया
तीनो सत्का उपधयः प्रत्युपेक्ष्यन्तै मक्ताधिकः, 'अणुण्णवण'त्ति ततो गुरुममुज्ञापयति, यदुत 'सैदिसह ओहियं पडि-1 वृत्तिः
लेहेमोसि ततः शेषाणि-गग्छसाधारणानि पात्राणि वखाणि च अपरिभोग्यानि यानि तानि प्रत्युपेक्षम्ते, ततः स्वकीर्य ॥१९९॥
४ पायपुंछणगं-रजोहरणं च प्रत्युपेक्षन्ते, भक्तार्थिम एवमनेन क्रमेण प्रत्युपेक्षण कुर्वम्ति ।।
जस्स जहा पडिलेहा होए कया सो तहा पढाई साहू । परियडे व पयओ करेइ वा अनवावारं ॥ ॥३१॥ पुनश्च यस्य साधोयेंधैव प्रत्युपेक्षणा भषति 'कृता' परिनिष्ठिता से सथैव पठति परिवर्सयति वा-गुणयति वा पूर्वपठित प्रयत:-प्रयलेन करोति चान्यसाधुना समभ्यर्थितः सन् व्यापारं-किश्चिदिप्तिकर्मयोग, यदिवाय व्यापार तूर्णनादि करोति। दाउभागवसेसाए परिमाए पडिकमि कालस्स | उच्चारे पासवणे ठाणे चवीसई पहे।। १३९॥
अहियासिया उ अंतो आसने मज्झि तह य दरेय । तिन्नेव अणहियासी अंतो सच बाहिरओ ॥ ६३.३ ।।। एमेव ये पासवणे वारस चउवीसई तु पेहिती । कालस्सवि सिन्नि भवे अहसूरो अस्थमुथयाई ।। ६३४॥
एवं स्वाध्यायादि कृत्वा पुनश्चतुभांगावशेषोयां चरमपौरुष्या प्रतिक्रम्य कालस्यं ततः स्थण्डिलानि प्रत्युपेक्ष्यन्त, किम- थेम, उच्चारार्थ तथा प्रश्रवणार्थं च स्थानानि चतुर्विंशतिपरिमाणानि प्रत्युपेक्षन्ते । इदानी क ताः स्थण्डिलभूमयः प्रत्युपेक्षणीयाः इत्यत आह अधिकासिका भूमयो याः सजावेगेनापीडितः सुखेनैव गन्तु शक्तीति ता एवैविधाः अन्त:'
६३४
दीप अनुक्रम [९६६]
१९९॥
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९७०] → “नियुक्ति: [६३४] + भाष्यं [३०८...] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६३४||
मध्ये गणस्य तिस्त्र प्रत्युपेक्षणीयाः, कधम् ।, एका खण्डिलभूमिवसतेरीसन्ना मध्ये या अन्या दूर, एषमतास्तिक्षा स्थति।
लभूमयो भवन्ति, तथाऽन्यास्तिन एव तस्मिन्नेवाङ्गणे आसन्नतरे भवन्ति अनधिकासिका:-सम्ज्ञावेगोत्पीडितः सन् है या याति तीः तिन एवं भवन्ति, एका वसंतेरासनतर प्रदेशेऽन्या मध्येऽम्या दूरे, एवमेती अन्तः-मध्येऽङ्गणस्य पद भवम्ति
तवा पट् च बाह्यत इति-अङ्गणस्य बहिः पंडेवमेवं भवन्ति । एवमेव प्रश्रवणे' कायिकायों द्वदिश भूमयः प्रत्युपक्ष्यन्ते टू षडङ्गणमध्ये पँट् चाङ्गणवाह्यत एव, एताः सवर्वी एवं उच्चारकायिकाभूमीश्चतुर्विशतिं प्रत्युपेक्ष्य पुनश्च कालस्वापि ग्रहणे तिन एवं भूमयः प्रत्युपेक्षणीया भवन्ति, ताश्च कालभूमयो जघन्येन हस्तान्तरिताः प्रत्युपेक्ष्वन्ते, एवमनेन प्रकारेण कृतेन अब सूर्यो यथाऽस्समुपयाति तथा कर्तव्ये ।
जह पुणे निबाधाओ आवासं तो करेंति सवधि । सहाइकहणवाधायताए पछा गुरू ठति ॥ ६३५॥ एवं सूर्यास्तमयानन्तरं यदि निर्व्याघातो गुरु:-क्षणिक आस्ते ततः सर्व एवाऽऽवश्य-प्रतिक्रमणं कुर्वन्ति, अथ श्राद्धधर्मकथादिना व्याघातो गुरोजात:-अक्षणिकरवं तप्तः पश्चाद्गुरुरावश्यकभूमौ संतिष्ठन्ते ।
सेसी जहासती आपुहिसाण टति सहाणे । सुसत्वशरणहार आयरि" ठियमि देवसिय ॥३॥
शेषास्तु साधवी यथाशयाऽऽपृच्छय गुरु स्वस्थाने स्वस्थाने यथारलाधिकतयाऽऽवश्यकभूमौ तिष्ठन्ति, किमर्थ !, 'सूत्रार्थक्षरणहेतोः' सूत्रार्थगुणमानिमित्त तस्यामावश्यकभूमौ कायोत्सर्गेण तिष्ठस्ति, तत्र केचिदेव मणग्याचा यदुत ते साधवः सामायिकसूत्र पठित्वा कायोत्सर्गेण तिष्ठन्ति, कायोत्सर्गस्थिताश्च प्रन्यार्थीन् चिन्तयन्तस्तिष्ठन्ति ताव
दीप अनुक्रम [९७०]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९७२] .→ "नियुक्ति: [६३६] + भाष्यं [३०८...] + प्रक्षेपं [२७...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६३६||
नियुक्तिः दोणीया वृत्तिः
॥२०॥
द्यावद्गुरुरागतः, ततो गुरुः सामायिकसूत्रमाकृष्य दैवसिकमतिचारं चिन्तयति, तेऽपि गुरौ तथास्थिते तूष्णीभावेन आवश्यक कायोत्सर्गस्था एव देवसिकमतिचारं चितयन्ति । अन्ये त्वाचार्या एवं बुघते, यदुत ते साधवः सूत्रा) क्षरन्तस्तावत् नि. ६३५| तिष्ठन्ति यावद्गुरुरागतः, ततो गुरुः सामायिकसूत्रं पठति, तेऽपि कायोत्सर्गस्था एवं सामायिकसूत्रं समकं मनसा पठन्ति, ६३७ कालततः सामायिकं पठित्वाऽतिचारं चिन्तयंति, आयरिओ अप्पणो अतियारं द्विगुणं चिंतइ, किंनिमित्तं, ते साहुणो बहुगंद्रग्रहणविधिः हिंडिया ततो तत्तिएण कालेण चिंति न सकति ।।
नि.६३९ जो होज उ असमत्थो बालो बुडो गिलाणपरितंतो। सो आवस्सगजुत्तो अच्छेज्जा निज्जरापेही ॥ ६३७॥
यस्तु साधुरनागतकायोत्सर्गकरणेऽसमर्थो भवेद्बालो वृद्धो रोगात्ततॊ ज्वरादिना स आवश्यकयुक्तस्तस्यामेव प्रतिक्रमणभूमौ उपविष्टः कायोत्सर्ग करोति, एवं निर्जरापेक्षी तिष्ठेत् ।।
- आवासगं तु काउंजिणोचदि गुरूवएसेणं । तिन्निथुई पडिलेहा कालस्स विही इमो तस्थ ॥ ६३८॥ ठा एवमनेन क्रमेणावश्यकं कृत्वा परिसमाप्य जिनोपदिष्टं गुरूपदेशेन पुनश्च स्तुतित्रयं पठन्ति स्वरेण प्रवर्द्धमानमक्षरैर्वा,प्रथमा श्लोकेन स्तुतिद्धितीया बृहच्छन्दोजात्या बृहत्तरा तृतीया बृहत्तमा एवं प्रबर्द्धमानाः स्तुतीः पठन्ति मङ्गलार्थमिति, ततः कालस्य प्रत्युपेक्षणार्थ निर्गच्छन्ति, किं कालस्य ग्रहणवेला वर्ततेन वा? इति, तत्र च-कालबेलानिरूपणे एष विधिरिति वक्ष्यमाणः।। दुविहो य होइ कालो वाघातिम एयरो य नायचो । वाघाओ घंघसालाएँ घट्टणं सहकहर्ण वा ॥ ६३९॥ ४ ॥२०॥ द्विविधो भवति कालो-व्याघातकाल इतरश्च-अव्याघातकालः, तत्र व्याघातकालं प्रतिपादयन्नाह-व्याघातः 'घड-1
दीप अनुक्रम [९७२]
अथ कालग्रहण-विधि: वर्णयते
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९७५] → “नियुक्ति : [६३९] + भाष्यं [३०८...] + प्रक्षेपं [२७...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६३९||
शालायाम्' अनाथमण्डपे दीर्घ 'घटना' परस्परेण वैदेशिकैर्वा स्तम्भ, सह निर्गच्छतः प्रविशतो वा तादृशो व्याघात
कालः, तथा श्राद्धकादीनां यत्राचार्यो धर्मकथां करोति सोऽपि व्याघातकालः, न तत्र कालग्रहणं भवति नापि कालहै वेलानिरूपणाथै प्रच्छनं भवति ।
वाधाते तइओ सिं दिज्जा तस्सेय ते निवेयंति । निधाघाते दुन्नि उ पुच्छंती काल घेच्छामो ॥ ६४०॥ द्र एवं पङ्कशालायां व्यापाते सति तृतीयस्तयो:-कालग्राहिणोः उपाध्यायादिदीयते येन तस्यैवाग्रतो बाह्यत एव निवेहै दयन्ति सन्दिशापयन्ति च । अथ निर्व्याघातं भवति-नकश्चिद् घडशालायां धर्मकथादिर्वा कालव्याघातः वैदेशिकादिव्या-ट पातो वा, ततश्च निर्व्याघाते सति द्वावेव निर्गच्छतः एकः कालग्राहकः अपरो दण्डधारी, पुनश्च तौ पृच्छतः, यदुत कालं गृह्णीव' वेलां निरूपयाव इत्यर्थः, तेषां च निर्गच्छतां यद्येते व्याघाता भवन्ति ततश्च निवर्तन्ते-न गृह्णन्ति काल के च ते व्याघाताः,
आपुच्छण किइकम्मं आवस्सियखलियपडियवाघाओ। इंदिय दिसा य तारा बासमसज्झाइयं चेव ॥ ६४१॥ पूजा पुण बच्चताणं छीयं जोई च तो नियति । निवाधाते दोन्नि उ अच्छति दिसा निरिक्खंता॥ ६४२॥ । है गोणादि कालभूमीऍ होज्ज संसप्पगा व उडेजा । कविहसियचासविजुकगज्जिए वावि उवघातो॥ ६४३ ॥
आपृच्छनानाम आपुच्छित्ता गच्छन्ति दंडगं गहाय मत्थएण वंदामि खमासमणो कालस्स वेलं निरूवेमो, एवं च यदि न पृच्छन्ति ततो व्याघातो भवति-न ग्राह्यः कालः, अधाविनयेन वा पृच्छन्ति तथाऽपि व्याघात एव, कृतिकर्म
दीप अनुक्रम [९७५]
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९७९] → “नियुक्ति : [६४३] + भाष्यं [३०८...] + प्रक्षेपं [२७...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||६४३||
पीओप-8-चन्दनं यदि म कुर्वन्ति अविनयेन वा कुर्वन्ति आवस्सिकां च यदि न करोति अविनयेन वा करोति स्खलन का नियुकिः गच्छंती यदि सम्मादी भवति पत वा सेपामन्यतमस्य यदि भवति, पवमेमियाघाती भवति । तथा 'इदिय त्ति अव-४ विधिः नि. द्रोणीया जानेन्द्रियादीनोमिन्द्रियाणां ये विषयास्ते अननुकूली भवन्ति ततीन गृह्यते, एतदुक्त भवति- यदि छिन्धि मिन्धीत्येवमादि६४०.६४४
ऋण्वन्ति शब्द तती निवर्तते, एवं गन्धश्चाशुमो यदि भवति, यत्रं गन्धसत्र रस इति, विरूप पश्यन्ति रूप किश्चिद्, एवं सर्वत्र योजनीयं ततो निर्गच्छन्ति । संथा दिग्मोहश्च यदि भवति तती नगृह्यते, तारकांश्च यदि पतम्ति वर्षणं था यदि मवति तत एभिरनन्तरोक्तैर्व्याघातैः कालो न गृह्यते, अस्वाध्यायिकं च यदि भवति, तथा यदि पुनर्जजतां भुत ज्योतिवा-अधिः उदधीती वा भवति ततो निवसन्तै, यथा तु पुनरुक्कलक्षणी व्यापाती न भवति तदा निव्यायात सति द्वाविव तिष्ठतो दिशी मिरुपयन्सी क्षणमात्र । तथा एभिश्च कालभूमी गैतानामुपधाती भवति यदि तत्र कालमण्डलकै गौरुपविष्टा, आदिग्रहणान्महिपादिवी उपविष्टी मवति ततो व्यापाता, कदापिता तस्या कालमूमौ संसर्पगा। पिपीलिकादय उत्तिरन् सतश्च व्यापाता, दाचिद्वा कपिहसित-विरलबानरमुखहसितं मवति, अथवा कपिहसितउदितयं वा दोसर जले पो विद्युत् वा भवति, उल्कापातो वा भवति, गजितध्वमिवी श्रूयते, एभिः सर्वव्यापात: कालस्य,
दीप अनुक्रम [९७९]
॥२०॥
सज्झायमतिता कणगे वहणतो मियतीत लाए दंडधारी मा घोल गडए क्षमा ।। १४४॥ एवं ते कालपेलानिरूपणा निर्गतास्वाध्यायमकुणा एकामा कालबैलां निरूपयन्ति, अब तत्र न पश्यन्ति
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९८०] → “नियुक्ति : [६४४] + भाष्यं [३०८...] + प्रक्षेपं [२७...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||६४४||
ति प्रतिनिवर्तन्ते, कणगपरिमाण च वक्ष्यति "तिपचसत्तेव बिसिसिरवास इत्येवमादिना, अथ तन वर्त्तते तदा कालग्रहणवेलाया जातायो दण्डधारी प्रविश्य गुरुसमापे कथयति, येदुत कालग्रहणवेली वर्तते भी बील कुरुत अल्पसदेरवाहितश्चल भवितव्य, अब च गण्डकदृष्टान्तः, यथा हिगण्डक कस्मिंश्चित्कारणे आपले स्कुरुटिकायामारुह्य धापयति ग्राम- प्रत्वपति कर्तव्य, एधमसावपि दण्डधारी भणति यदुत कालग्रहणवली वैर्तते ततश्च भवद्भिरपि गजितादिषूपयुक्तर्भवितव्यमिति । | आघोसिप बहहि सुमि सेसेसु निवडद दंडों। अहं ते बाहहिं में सुयं दैडिज्जइ गैडओ ताई ।। ६४५॥
एवमापोषिते सति दण्डधारिणा बहुभिश्च श्रुत, शेषाश्च स्तोकास्तैन श्रुतं ततश्च तेषामुपरि दण्डो निपतति-सूत्रार्थकरणं नानुज्ञायते, अधेदृर्श तदा घोषितं यद्बहुभिर्न श्रुतं स्तोकः श्रुतं ततश्च तस्यैव दण्डधारिणो निपतति-तस्यैव स्वाध्यायनिरोधः क्रियते, कथं गण्डकस्यैव !, यथा गण्डकेनाधौषिते बहुभिमणीकैः श्रुते सति यैः स्तोकन श्रुतं ते दण्ज्यन्ते, अथाघोषिते स्तोकः श्रुतं बहुभिर्न श्रुतं ततो गण्डके एव दण्डो मिपततीति ।। काली सम्झी य तही दोवि समप्पति जह सम चैव । तह तं तुलंति कालं चरिमदिसंवा असमागं ॥ ६४६॥ | तौ च प्रत्युपेक्षको कालः सन्ध्या च यथा वे अपि समकमैव समाप्ति बजतस्तथी ते काल तुलयतः, एतदुक्तं भवति
यथा कालसमाप्तिर्भवति सन्ध्या च समाप्तिं वाति तथा तुलयतः प्रत्युपक्षको, 'चरिमंदिस वो असन्मार्ग ति चरिमा-* ६ पश्चिमा दिग् 'असन्ध्या' विगतसन्ध्या भवति यथा कालश्च समाप्यते तथा गृह्णन्ति । इदानी किविशिष्टेने पुनः कालः
प्रतिजागरणीयः इत्येत आह.
दीप अनुक्रम [९८०]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९८३] → “नियुक्ति : [६४७] + भाष्यं [३०८...] + प्रक्षेपं [२७...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
श्रीओघ
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६४७||
नियुक्तिः बृत्तिः ॥२०२॥
पियधम्मो दधम्मो संविग्गो चेवऽवज्जभीरू य । खेयन्नो य अभीरू कालं पडिलेहए साहू ॥ ६४७॥ कालग्रहणप्रियः-इष्टो धर्मोऽस्येति प्रियधर्मा, तथा दृढः-स्थिरो निश्चलो धर्मो यस्य स तथा, 'संविग्गों' मोक्षसुखाभिलाषी,
विधिः नि.
६४५-६४८ 'अवद्यभीरु' पापभीरुः, 'खेदज्ञः' गीतार्थः तथा 'अभीरुः' सत्त्वसंपन्नः एवंविधः 'कालं' कालग्रहणवेलां प्रत्युपेक्षते साधुः, एवंविधः कालवेलायाः प्रतिजागरणं करोति । इदानीं दण्डधारिणि घोषयित्या निर्गते पुनश्च स द्वितीयः कालग्राही कालसंदिशनार्थं गुरोः समीपं प्रविशति, कथम् -
आउत्तपुषभणिए अणपुच्छा खलियपडिय बाघाते । घोसंतमूढसंकियइंदियविसएवि अमणुन्ने ॥ ६४८॥ सच प्रविशन् 'आयुक्ता' उपयुक्तः सन् प्रविशति, एतस्मिंश्च प्रवेशने पूर्वोक्तमेव द्रष्टव्यं यतो निर्गच्छतो यो विधिःप्रविशतोऽपि स एव विधिरित्यत आह-पूर्वभणितमेतत्, अथ त्वनापृच्छयैव गुरुं कालं गृह्णाति ततश्चानापृच्छय गृहीतस्य | कालस्य, एतदुक्तं भवति-गृहीतोऽप्यसौ न भवति, तथा स्खलितस्य सतः कालव्याधाता, पतितस्य व्याधातः कालस्य, एवं संजाते सति कालो न गृह्यते, तथा प्रविष्टस्य गुरुवन्दनकाले केनचित्सह जल्पतः कालो व्याहन्यते, तथा मूढो यदि भवति आवर्तान विधिविपर्यासेन ददाति तथाऽपि व्याहन्यते कालः, तथा शङ्कया न जानाति किमावत्तों दत्ता|5|| नवेत्यस्यामवस्थायां व्याहन्यते कालः, इन्द्रियविषयाश्च यद्यमनोज्ञा भवन्ति तथाऽपि कालो व्याहन्यते, छिन्धि भिन्धीत्येवंविधान् शब्दान् शृणोति, गन्धोऽनिष्टो यदि भवति, यत्र गन्धस्तत्र रसोऽपि, विकराल रूपं पश्यति, स्पर्शन लेष्वभिघा- २०२॥ तोऽकस्माद्भवति, एवं विधे सत्यामपि वेलायां न गृह्णाति कालं । प्रविष्टश्चासौ किं करोतीत्यत आह
दीप अनुक्रम [९८३]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९८५] → "नियुक्ति : [६४९] + भाष्यं [३०८...] + प्रक्षेपं [२७...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||६४९||
निसीहिया नमोकारे काउस्सग्गे य पंचमंगलए। पुवाउत्ता सवे पट्टवणचउकनाणत्तं ॥ ६४९॥ प्रविशंश्च गुरुसमीपे कालसन्दिशनार्थं यदि निषेधिकां न करोति ततः कालो व्याहन्यते, नमस्कारं करोति नमो खमा-12 |समणाणं, अथैवं न भणति ततः कालव्याघातो भवति, प्राप्तश्चेर्यापथिकाप्रत्ययं 'कायोत्सर्गम्' अष्टोच्छ्वासं करोति, नमस्कार |च चिन्तयति, ईरियावहियं च अवस्सं पडिकमतिजइ दूराओ जदि आसन्नओ वा आगतो, पुनरसी नमस्कारेणोत्सारयतिपञ्चमङ्गालकेनेत्यर्थः, पुनश्च संदिशापयित्वा कालग्रहणार्थं निर्गच्छति, निर्गच्छंश्च जदि आवस्सियं न करेइ खलति पडति वा | जीवो वा अंतरे हवेजा एवमादीहिं उवहम्मइ । इदानीं कालग्रहणवेलायां किं कर्त्तव्यं साधुभिः । इत्याह-'पुवाउत्ता' पूर्व-131 | मेव दण्डधारिघोषणानन्तरमुपयुक्ताः सर्वे गर्जितादौ भवन्ति, उपयुक्ताश्च सन्तः कालग्रहणोत्तरकालं सर्वे स्वाध्यायप्रस्थापनं कुर्वन्ति । 'चउपनाणत्तंति कालचतुष्कस्य यथा नानात्वं भवति तथा वक्ष्यामः, कालचतुष्कं एका प्रादोषिक: अपरोऽर्द्धरात्रिका अपरो बैरात्रिकः अपरः प्राभातिकः, एतच्च भाष्यकारो वक्ष्यति । इदानीं कालं गृह्णतः को विधिरित्यत आह
थोवावसेसियाए सञ्झाए ठाइ उत्तराहुत्तो । चउबीसगदुमपुफियपुबग एकेकयदिसाए ॥ ६५०॥ स्तोकावशेषायां सन्ध्यायां पुणो कालमंडलयं पमज्जित्ता निषीधिकां कृत्वा कालमण्डलके प्रविशति, ततश्चोत्तराभिमुखः | कायोत्सर्ग करोति, तस्मिंश्च पञ्चनमस्कारमष्टोच्यासं चिन्तयति, पुनश्च नमस्कारेणोत्सार्य मूक एवं चतुर्विंशतिस्तवं लोगस्सुजोयकरं पठति मुखमध्ये, तथा 'दुमपुफियपुधगं ति दुमपुष्पिका-धम्मो मंगलं पुतगति-श्रामण्यपूर्वक 'कह नु कुज्जा सामन्न
दीप अनुक्रम [९८५]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९८६] . "नियुक्ति : [६५०] + भाष्यं [३०८...] + प्रक्षेपं [२७...]" .. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
द्रोणीया
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६५०||
मित्यर्थः, एतच एकैकस्यां दिशि चतुर्विंशतिस्तवादि सामन्नपुषगपजत कढई, देडधारीवि उत्तराभिमुहस्स सठियस्स वामपास कालग्रहणनियुकि पुर्दिसाहुसो जग्गओं सेरिच्छ देडग धरैइ उद्धद्वियी, पुणी तस्स पुबाईसु दिसासु चलतस्स दंडधारावि तहेव ममतिविधिः नि. इदानी स गृहन् कालं यद्येवं गृह्णाति ततो व्याहन्यते, कथमित्यत आहे
४९४९.६५१ वृश्चिः
भासतमूढसैकियईदियविसए ये होइ अमणुन्ने । बिदू य छीय परिणय सगणे वा सकिय तिषह ॥ ६५१॥ ॥२०॥ भाषमाणः-औष्ठसञ्चारेण पठन् यदि कालं गृह्णाति ततो व्याहन्यते कालः, मूढो दिशि अध्ययने वा यदि भवति ततो
४ व्याहम्यते कालः, शकिती वा-ने जानाति किं मया द्रुमपुष्पिका पठिता न वेत्येवंविधायां शङ्कायाँ ब्याहन्यते कॉलः,8
इन्द्रियविषयाश्च 'अमनोज्ञाः' अशीभनाः अब्दादयो यदि भवन्ति ततो व्याहन्यते कालः, सोईदिए छिंद भिद मारह 8 विस्सर बालाईणे रोवणं वा रुवं वा पेच्छसि विसायाई बीहविणयं, गंधे य दुरभिगंधे, रसीवि तथैव, जत्य गंधी तत्थ है रसी, फासी बिदुलिदुपहाराई, एषमेतेष्वमनोज्ञेषु विषयेषु सत्सु व्याघातो भवति, तथा विन्दुर्यधुपार पतति शरीरस्योंपधेर्वा कालमण्डलके वा ततो व्याहन्यते, तथा भुतं यदि भवति ततो व्याहन्यते, अपरिणत' इति कालग्रहणभावाड-16 पगतोऽन्यचित्तो या जातस्ततश्च ब्याहन्यते कालः, तथा शङ्कितेनापि गर्जितादिनी व्याहत्यते कॉला, कथं, यद्यकल साधोगर्जितादिशङ्का भवति ततो न व्याहन्यते कालः, द्यौरपि शङ्कित भज्यते कालः, त्रयाणां तु यदिशा गाज-15
२०३॥ दातादिनिता भवति ततो व्याहम्यते, तेच 'स्वगणे वगच्छै योणी यदि शङ्कितं भवति, नै परगण, ततौ व्यहिन्यते ।
इदानीमस्वा एवं गाथाया भाष्यकारः किञ्चिव्याख्यानयनीह
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दीप अनुक्रम [९८६]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९८८] .→ “नियुक्ति: [६५१] + भाष्यं [३०९] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||६५१||
मूढो व दिसऽज्यणे भासतो वावि गिण्हई ने सुज्झे । अन्ने च दिसायण संकेतोऽणिविस वा॥३०॥ (माला
मूढो यदा दिशि भवति अध्ययने वा तदा व्याहम्यते, भाषमाणो वा ओष्ठसञ्चारेण यदि गृहाति काल तती म शुवति, अन्यां वा दिशं संक्रान्तो मोहात् , अध्ययन वाऽन्यत् सङ्क्रांतं दुमपुष्पिकां मुक्त्वा सामनपुषए गओ उत्तराए| वा दिसाए दक्षिण गती, यद्वाऽन्या दिशं शङ्कमानः अन्वद्वाऽध्ययन शङ्कमानो यदा भवति तदा न शुवति, 'अमिष्टे अशोभने वा शब्दादिविषयसमिधाने व्योहम्यते कालः, ततो आवस्सिर्व काऊण नीसरति कालमंडलाओ, एवं गृहीतेऽपि काले यदि कालमण्डलकानिर्गच्छन्नावश्यकादि में करोति ततो व्याहन्यत एवं काल इति । किश्च
जो वर्चतमि बिही आगच्छंतंमि होइ सो चेव । जे एत्थं नाणसं तमहं बुच्छ समासेणं ॥१५॥ य एव प्रथमं बसतेर्बजतो विधिरुक्तस्तद्यथा-यदि कविहसियं वा उक्का वा पडति गजति वा, एषमाईहिं उवधाओगहियस्सवि कालस्स होइ आगच्छंतस्स वसहिं. ततश्च यो विधिव्रजतः कालभूमावुक्तः आगच्छतोऽपि पुनर्वसती स एवं विधिर्भवति, यत्पुनरत्र वसतौ प्रविशतो नानात्व-भेदस्तदहं नानात्वं वक्ष्ये 'समासतः संक्षेपेण । इदानी नानात्वं प्रतिपादयन्नाह
निसीहिया नमुक्कारं आसज्जावडपडणजोइक्खे । अपमजियभीए वा छीए छिन्नेव कालबहो ॥ ६५३ ॥ ___कालं गृहीत्वा गुरुसकाशे प्रविशन् यदि निषेधिकां न करोति ततः कालव्याघातः, तथा 'नमोकारं' नमो खमासमगाणं इत्येवं यदि न प्रविशन् भणति ततो गृहीतोऽपि काली व्याहम्बते, तथा भासज्जासज्जत्वैव तु यदि में करोति सतो पाहन्यते गृहीतोऽपि, तथा साधो कखचिदावडणे-आभिडणे कालो ध्याहन्वते, पत्तन लेष्वादेरात्मनो वा, वोतिक
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दीप अनुक्रम [९८८]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९९०] → “नियुक्ति : [६५३] + भाष्यं [३०९...] + प्रक्षेपं [२७...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
A
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६५३||
श्रीओष- स्पर्श वा व्याहन्यते, तथा यदि प्रमार्जयन् न प्रविशति ततश्च न्याहन्यते कालः, 'भीत:' त्रस्तो वा यदि भवति कालग्रहणनियुक्तिः
तथाऽपि ग्याहन्यते, क्षुते वा ब्याहन्यते, छिनत्ति वा-यदि मार्जारश्वादिस्तिर्यक छिन्दन् ब्रजति, ततश्चैभिरनन्तरोदितैःविधिः भा. द्रोणीया कालस्य वधो-भङ्गो भवतीति ।।
|३०९नि. वृत्तिः
आगम इरियावहिया मंगल आवेयणं तु मरुनायं । सवेहिवि पट्टविएहि पच्छा करणं अकरणं वा ॥ ६५४॥ ५६ २०४॥ आगत्य च गुरुसमीपमीर्यापथिको प्रतिक्रामति, कायोत्सर्ग चाष्टोच्छास पश्चनमस्कारं चिन्तयति, तेनैव चोत्सारयति.
मङ्गलमिति पश्चनमस्कार उच्यते, तत ईयोपथिको प्रतिक्रम्य गुरोः 'आवेदयति' निवेदयति कालमित्यर्थः । अत्र मरुओबंभणो तेनैव ज्ञातं दृष्टान्तः, तंजहा-कम्हिइ पट्टणे धिजायाणं राइणा दिन्नं, तेसिं च घोसावियं-जो सामन्नो सो गेण्हन आगंतूर्ण भागं एत्थ, एवं हकारिए जो आगतो तेण लद्धो भागो, जो पुण गामाईसु गतो सो चुको, एवं साहवि दंड
धारिणा घोसिए जे उवउत्ता ठिया णिवेदिए य काले जेहिं. सज्झाओ पट्टविओ ताणं सज्झाओ दिजइ, जे पुण विकहादिदिणा ठिया ताणं सज्झायकरणं न दिजइ । एतदेवाह-सर्वैः साधुभिः स्वाध्याये प्रस्थापिते सति पश्चात्तेभ्यः स्वाध्याय
करणं दीयते, ये पुनः कालग्रहणवेलायामुपयुक्ता न स्थिताः न स्वाध्यायप्रस्थापनवेलायां सन्निहिता भूतास्तेभ्य स्वाध्याय- | करणं न दीयते । इदानीं मरुककथानकमुपसंहरन्नाह
॥२०४॥ सन्निहियाण वडारो पट्टविय पमाय नो दए कालं । बाहिठिए पडियरए पविसह ताहेव दंडधरो ।। ६५५ ॥ सन्निहितानां विद्यब्राह्मणानां 'घडारो' वण्टकः आकरणं-आह्वानं यथासन्निहितानां, ये तु नागतास्तेषां न वण्टको
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९९२] .→ “नियुक्ति : [६५५] + भाष्यं [३०९...] + प्रक्षेपं [२७...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||६५५||
विभागो जातः, एवमत्रापि 'पट्ठवियत्ति स्वाध्यायप्रस्थापनं यैः कृतं तेभ्यो दीयते स्वाध्यायः, ये पुनः प्रमादिनस्तेम्यो न दीयते काल इति, काले गृहीते स्वाध्यायो भवति, पुनश्च निवेदिते सति काले पुनर्बहिरन्यः प्रतिजागरक- प्रेष्यते, पुनश्च तब बहिःस्थिते प्रतिजागरके सति ततो दण्डधारी प्रविशतीति। पट्टविय वंदिए या ताहे पुच्छेद किं सुर्य भंते ! तेवि य कहति स ज जेण सुर्य व दिलु वा ॥ ३५६ ॥
पुनश्चासौ प्रस्थापितस्वाध्यायो वन्दितगुरुश्च सन् तदा साधून पृच्छति दण्डधारी, यदुत हे भदन्त भवतां मध्ये केन किं श्रुतं, तेऽपि च साधवः कथयन्ति सर्वं यद्येन श्रुतं गर्जितादि दृष्टं वा कपिमुखादि । पुनश्च तत्र केषाश्चिद्गर्जितादि-13 शङ्का भवति ततश्च को विधिरित्यत आहएकस्स दोण्ह व संकियंमि कीरइन कीरए तिण्हं । सगणमि संकिए परगणमि गंतुंन पुच्छति ॥ ६५७ ॥ 12
एकस्य गर्जितादिशङ्किते क्रियते स्वाध्यायः, द्वयोर्वा, त्रयाणां पुनर्गजिंताद्याशङ्का न क्रियते स्वाध्यायः, एवं यदि स्वगणे शङ्का भवति ततश्चैवंविधायां स्वगणे शङ्कायां सत्यां 'परगणे अभ्यगच्छे गत्वा न पृच्छन्ति, किं कारणं !, यत इह कदाचित्स कालग्राहकः साधू रुधिरादिनाऽनायुक्त आसीत् ततश्च देवता कालं शोधयितुं न ददाति, तत्र तु परगणे* नैवं, अथवा परगण एव कदाचिदनायुक्तः कश्चिद्भवति इह तु नैवं, तस्मात्परगणो न प्रमाणमिति । इदानीं यदुक्तमा-1 सीत् 'कालचतुष्के नानात्वं वक्ष्यामः' तत्प्रदर्शयज्ञाह
कालचउको नाणसयं तु पादोसियंमि सबेवि । समयं पट्टवयंती सेसेसु समं व विसम वा ॥ ६५८॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९९५] → “नियुक्ति : [६५८] + भाष्यं [३०९...] + प्रक्षेपं [२७...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
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प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६५८||
श्रीओष
कालानां चतुष्कं कालचतुष्कं तत्रैकः प्रादोपिकः द्वितीयोऽर्द्धरात्रिकः तृतीयो वैरात्रिकः चतुर्थः प्राभातिकः कालकालग्रहण18| इति, एतस्मिन् कालचतुष्के नानात्वं प्रदाते, तत्र प्रादोषिककाले सर्व एव समकं स्वाध्यायं प्रस्थापयन्ति, शेषेषु तु त्रिषु
विधिःनि. द्रोणीया दि कालेषु समक-एककालं स्वाध्याय प्रस्थापयन्ति विषमं वा-न युगपद्धा स्वाध्यायं प्रस्थापयन्तीति । इदानीं चतुणोमपि
६५६-६५९ वृत्तिः कालादीनां कनकपतने सति यथा व्याघातो भवति तथा प्रदर्शयन्नाह- ..
भा.३१० ॥२०५॥ इंदियमाउत्ताणं हणति कणगा उ सत्त उक्कोसं । वासामु य तिनि दिसा उपबद्ध तारगा तिन्नि ॥ ६५९॥
इन्द्रियैः-श्रवणादिभिरुपयुक्तानां 'मन्ति' व्याघातं कुर्वन्ति कालस्य कनका उत्कृष्टेन सप्त, एतच्च वक्ष्यति, 'वासासु भय तिनि दिसति 'वर्षासु' वर्षाकाले प्राभातिके काले गृह्यमाणे तिसृषु दिक्ष यद्यालोकः शुद्ध्यति चक्षुपो न कुख्यादि
भिरन्तरितस्ततो गृह्यत एव कालः, अन्यथा व्याघात इति, एतद्विशेषविषयं द्रष्टव्यं, शेषेषु त्रिष्यायेषु कालेषु चतसृष्यपि ट्रादिक्षु चक्षुष आलोको यदि शुद्ध्यति ततो गृह्यते वर्षाकाले नान्यथा, एतच्च प्रकटीकरिष्यति । 'उउबद्धे तारगा तिषिण'-15
त्ति ऋतुबद्धे-शीतोष्णकालयोरायेषु त्रिषु कालेषु यदि मेघच्छन्नेऽपि तारकात्रयं दृश्यते ततः शुपति कालग्रहण, यदि [पुनस्तिस्रोऽपि न रश्यन्ते ततो न ग्राह्यः, प्राभातिकस्तु कालः ऋतुबद्धे मेधैरदृश्यमानायामप्येकस्यामपि तारकायां | गृह्यते काला, वर्षाकाले खेकस्यामपि तारकायामहश्यमानायां चत्वारोऽपि काला गृह्यन्ते । इदानीमेनामेव गाथा भाष्य-18|
२०५॥ कृझ्याख्यानयतिकणगा हणंति कालं तिपंचसत्तेव धिंसिसिरवासे । उका उ सरेहागा रेहारहितो भवे कणतो ॥३१०॥(भा)।
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९९७] .→ “नियुक्ति: [६५९] + भाष्यं [३१०] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
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गाथांक नि/भा/प्र ||६५९||
कनकाः प्रन्ति कालं त्रयः पत्र सप्त यथासङ्ख्येन 'प्रिंसिसिरवासे' ग्रीष्मकाले प्रयः कनकाः काल च्यानन्ति शिशिरकाले दीपच प्रन्ति काल वर्षाकाले सप्त प्रन्ति कालम् । इदानीमुल्काकनकयोर्लक्षण प्रतिपादयन्नाह-उल्का सरेखा भवति, पतदुक्तं
भवति-निपततो ज्योतिष्पिण्डस्य रेखायुक्तस्य उल्केल्याख्या, स एव च रेखारहितो ज्योतिष्पिण्डः कनकोऽभिधीयते ।। सवेवि पदमजामे दोन्नि उ बसभा उ आइमा जामा । तइओ होह गुरूणं चउत्थओ होई सवेसि ॥ ६६०॥
तस्मिंश्च प्रादोषिके काले गृहीते सति सर्व एव साधवः प्रथमयाम यावत्स्वाध्यायं कुर्वन्ति, द्वौ त्वाची यामी वृषभाणां भवतो गीतार्थानां, ते हि सूत्रार्थं चिन्तयंतस्तावत्तिष्ठन्ति यावत्प्रहरद्वयमतिक्रान्तं भवति, तृतीया च पौरुष्यवतरति, ततस्ते चैव कालं गृह्णन्ति अड्डरत्तियं, उवज्झायाईणं संदिसावेत्ता ततो कालं घेत्तूर्ण आयरियं उद्यति, बंदणयं दाऊण | भणन्ति-सुद्धो कालो, आयरिया भणंति-तहत्ति, पच्छा ते वसभा सुयंति, आयरिओवि बितियं उट्ठावेत्ता कालं पडिय-15 रावेइ, ताहे एगचित्तो मुत्तत्थं चिंतेइ जाव वेरत्तियस्स कालस्स बहुदेसकालो, ताहे तइयपहरे अतिकाते सो कालपडि-14 लेहगो आयरियस्स पडिसंदेसावेत्ता बेरत्तियं कालं गेहइ, आयरिओवि कालस्स पडिफमित्ता सोवति, ताहे जे सोइय-IN |लया साहू आसी ते उट्ठेऊण वेरत्तियं सज्झायं करेंति जाव पाभाइयकालगहणवेला जाया, ततो एगो साहू उवज्झायस्स वा अण्णस्स वा संदिसावेत्ता पाभाइयं कालं गेण्हइ, जहा नवण्हं कालगहणाणं वेला पहुच्चति सम्झाए आरतो चेव पुणो ताहे साहुणो सबे उद्वेति, किह पुण नव काला पडिलेहिजति, पढमो उवडिओ कालग्गाहो तस्स तिन्नि वारा कालो उवहओ एकमि मंडलए,तओ पुणो बितिओ उद्वेद सो वितिए मंडलए तिन्नि वारा लेह,लिंतस्स जदिन सुज्झति ततो तइओ
दीप अनुक्रम [९९७]
SSSSC469
Thirasurary.org
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||३११||
दीप
अनुक्रम [ ९९९ ]
श्रीओषनिर्युक्तिः द्रोणीया
वृत्तिः
॥२०६॥
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [ ९९९ ] --> मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
“निर्युक्तिः [६५९] + भाष्यं [ ३११] + प्रक्षेपं [ २७...]" ८० आगमसूत्र - [४१/१] मूल सूत्र -[२/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
साहू उडेइ, सोवि ततिए मंडलए तिष्णि चारा लेइ, लिंतस्स आदि न मुज्झति ताहे भग्गो कालो, एत्थ लंताण साहूण नव धारावसाणे पभा फुट्टति, ततो तीए बेखाए पडिक्कमन्ति, अह तिष्णि कालगाहिणो नस्थि किं तु दुवे चैव, तसो इको पढमं पढमकालमंडलए तिष्णि बारा उ लेऊण ततो चितिए दो वारे गिण्हइ, ततो वितिओ साहू वीयर चेव कालमंडउए एवं वारं लेऊण ततो तइए मंडले तिन्नि बारातो गेण्हर, एवं चैव नव वारा हवंति, अहवा पढमे चैव कालमंडलए * एगो चत्तारि वाराओ छेइ, वितिओ पुण वितिए कालमंडलए दो बाराओ ढेइ, ततिए तिनि वाराज लेइ सो चैव बितिओ, एवं वा दोन्हं साहूणं नव वाराओ भवंति, अह एक्को चेव कालग्गाही ततो अववारण सो चैव पढने तिनि वारा इ पुणो सो चैव बितिए मंडले तिनि बारा लेइ, पुणो सो चैत्र ततिए मंडलए तिनि चैव वाराओ छेइ। एसो पाभाइका* लस्स विही। एवं च सति कालस्स पडिकमिचा सुवंति, एगो न पडिक्कमति, सो अववापण काळं निवेदिस्सइ ॥ इदानीं यदुक्तं "वासासु य तिण्णि दिस" चि तयाख्यानयन्नाह
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वासासु यतिणि दिसा हवंति पाभाइयम्मि कालंमि। सेसेसु तीसु चउरो उडंमि चउरो चउदि संपि॥ ३११॥ (भा०)
वर्षासु तिम्रो दिशो यदि कुब्वादिभिस्तिरोहिता न भवन्ति ततः प्राभातिककालग्रहणं क्रियते, शेषेषु त्रिषु कालेषु चतत्रोऽपि दिशो यदि कुव्यादिभिस्तिरोहिता न भवन्ति ततो गृह्यन्ते कालाः १, नान्यथा, 'उउंमि चउरो चदिसंपत्ति ऋतुबद्धे काले चत्वारोऽपि काला गृह्यन्ते यदि चतस्रोऽपि दिशोऽतिरोहिता भवन्ति नान्यथा, एतदुक्तं भवति - चतसृष्वपि दिक्षु यथालोको भवति ततश्चत्वारोऽपि काला गृह्यन्ते । इदानीम् "उउबद्धे तारका तिणि" ति व्याख्याते
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कालग्रहण
विधिः
नि. ६६०
भा. ३११
| ॥२०६ ॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१०००] .. "नियुक्ति: [६५९] + भाष्यं [३१२] + प्रक्षेपं [२७...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
A
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३१२||
AAS
जतिसु तिषिण तारगा उ उर्दुमि पाभाइए अदिडेवि।वासासु अतारागा चउरो छन्ने निविहोमि॥३१॥ (भा) 4 'त्रिषु' आयेषु कालेषु धनसंछादितेऽपि ऋतुबद्धे काले यदि तारकास्तिस्रो दृश्यन्ते ततखषः काला आधा गृह्यन्त * इति, 'पाभाइए अदिद्वेवित्ति प्राभातिके काले गृह्यमाणे ऋतुबद्धे घनाच्छादिते यदि तारकत्रितयमपिन दृश्यते तथाऽपि गृह्यते काल इति । वर्षाकाले पुनर्धनाच्छादितेऽपि अदृष्टतारा एव चत्वारोऽपि काला गृह्यन्ते । उन्ने न सावकाशे एते। चत्वारोऽपि काळा गृह्यन्ते । 'निचिट्ठोवि'त्ति प्राभातिके त्वयं विशेषः-उपविष्टोऽपि छन्ने स्थाने जईस्थानस्यासति गृहाति । एतदेव व्याख्यानयन्नाह
ठामासति बिंदूसु गेण्हइ बिट्ठोचि पच्छिमं कालं । पडियरह बाहि एको एक्को अंतहिओ गिण्हे ॥ ६५१ ॥ स्थानस्यासति, एतदुक्तं भवति-यद्यूईस्थितो न शक्नोति महीतुं कालं ततः स्थानाभावे सति तोयविन्दुषु या पतत्सु सत्सु गृहात्युपविष्टः पश्चिम-प्राभातिकं कालं, तथा प्रतिजागरणं करोति द्वारि एको स्थितः ओलिकापातादेरधस्तास्थितः साधुः,
एकश्च साधुरन्तः-मध्ये स्थितो गृह्णाति कालमिति । इदानीं कः कालः कस्यां दिशि प्रथमं गृह्यते , एतत्प्रदर्शयन्नाह६ पाओसियअड्डरसे उत्तरदिसि पुष पेहए कालं । बेरलियंमि भयणा पुबदिसा पच्छिमे काले ॥ ६६२॥ | | प्रादोषिकः अर्द्धरात्रिकश्च कालः द्वावष्येतावुत्तरस्यां दिशि पूर्व प्रथमं प्रत्युपेक्षते-गृह्णाति ततः पूर्वादिदिक्षु, वैरात्रिकेतृतीयकाले भजना-विकल्पः कदाचित् उत्तरस्या पूर्व पूर्वस्यां वा, पुनः पश्चिमे-प्राभातिके काले पूर्वखो दिशि प्रथमं करोति कायोत्सर्ग ततः पुनर्दक्षिणादाविति ।
दीप अनुक्रम [१०००
LY
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SARELatun international
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१००३] → “नियुक्ति: [६६३] + भाष्यं [३१२...] + प्रक्षेपं [२७...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
M
प्रत गाथांक नि/भा/प्र
श्रीओष
सज्झाय काऊर्ण पढमथितियासु दोसु जागरणं । अन्नं वावि गुणंती सुगंति झायंति वाऽसुद्धे ॥ ६६३॥ कालग्रहणनियुकि:
एवं यदि शुद्ध्यति प्रादोषिकः कालस्ततः स्वाध्यायं कृत्वा प्रथमद्वितीयपौरुष्योर्जागरणं कुर्वन्ति साधवः । अथासौदा विधिः भा. द्रोणीया प्रादोपिकः कालो न शुद्धस्ततः 'अन्यत्' उत्कालिकं गुणयन्ति शृण्वन्ति ध्यायन्ति तथाऽशुद्धे सति, एहि अववाओ वृत्तिः
६६१-६६५ भण्णइ-जति पाओसिओ सुद्धो ततो अडरत्तिओ जइविन सुज्झइ तहवितं चेव पवेयइत्ता सज्झायं कुणंति, एवं जइ वेर-
उपधिनिरूत्तिओ न सुज्झइ ततो अणुग्गहत्थं जइ अहरत्तिओ सुद्धो तओ तं चेव पचेयइत्ता सज्झायं कुणति, एवं जइ न पाभाइओ ॥२०॥
पर्ण नि तओ तं चेव पवेयइत्ता सज्झायं कुणंति, एवं द्रब्यक्षेत्रकालभावा ज्ञातव्या इति । |जो चेव अ सयणविही गाणं वनिओ वसहिदारे । सो चेव इहपि भवे नाणसं उवरि सज्झाए ॥ ६६४॥ माय एव शयितव्ये विधिः पूर्वमेकानेकानां प्रत्युपेक्षकाणां व्यावर्णितो वसतिद्वारे स एवात्रापि द्रष्टव्यः, नानात्वं यदि परमिदं, यदुत स्वाध्यायं कृत्वा स्वपन्तीति । एसा सामायारी कहिया भे! धीरपुरिसपन्नत्ता । एत्तो उवहिपमाणं चुच्छ सुद्धस्स जह धरणा ॥ ६६५ ॥
सुगमा । उक्त पिण्डद्वारं, इदानीमुपधिद्वारप्रतिपादनायाह-नवरं शुद्धस्य वखादेर्यथा धरणं भवति तथा वक्ष्ये । 'तत्त्वभेदपर्यायैाख्ये'ति न्यायात् पर्यायान्प्रतिपादयन्नाह - उवही उवग्गहे संगहे य तह पग्गहग्गहे चेव । भंडग उवगरणे या करणेवि य हुंति एगट्ठा ॥ ६६६॥
॥२०७॥ 3 उपदधातीत्युपधिः, किमुपदधाति , द्रव्यं भावं च, द्रव्यतः शरीरं भावतो ज्ञानदर्शनचारित्राणि उपदधाति, उपगृहादातीत्युपग्रहः, संगृह्णातीति सङ्कहः, प्रकर्षण गृहातीति प्रग्रहः, अवगृह्णातीत्यवग्रहः, तथा भण्डकमुच्यते उपधिः, तथा 'उप
।
||६६३||
दीप अनुक्रम [१००३]
SHERamNena
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१००९] → “नियुक्ति: [६६६] + भाष्यं [३१२...] + प्रक्षेपं [२७...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||६६६||
करणं' उपकरोतीत्युपकरणं, तथा करणमुच्यत उपधिरिति, एते एकार्थाः । इदानीं भेदतः प्रतिपादयन्नाहओहे उवग्गहमि य दुविहो उवही उ होइ नायचो । एक्ककोवि य दुविहो गणणाएँ पमाणतो चेव ॥ ६६७ ॥
उपधिद्विविधः-ओघोपधिः उपग्रहोपधिश्चेति, एवं द्विविधो विज्ञेयः, इदानीं स एवैकैको द्विविधः, कथं ?, गणणाप्रमाणेन प्रमाणप्रमाणतश्च, एतदुक्तं भवति-ओघोपधेर्गणणाप्रमाणेन प्रमाणप्रमाणेन च द्वैविध्यं, अवग्रहोपधेरपि गणणाप्रमाणेन प्रमाणप्रमाणेन च दैविध्य, तत्र ओघोपधिनित्यमेव यो गृह्यते, अवग्रहावधिस्तु कारणे आपने संयमा यो गृह्यते सः | अवग्रहावधिरिति, ओघोषधेः गणणाप्रमाणेन प्रमाणमेकट्यादिभेदं वक्तव्यं प्रमाणप्रमाणं च कर्त्तव्यं दीर्घपृथुतया, तथाऽवग्रहोपधेरपि एकस्यादिगणणाप्रमाणं प्रमाणप्रमाणं च दीर्घपृथुत्वद्वारेण वक्तव्यमिति । तत्र ओघोपधिर्जिनकल्पिकानां
प्रतिपायते, तत्रापि गणणाप्रमाणतः प्रतिपादयशाहलापत्तं पत्ताबंधो पायट्ठवणं च पायकेसरिया। पडलाई रयत्ताणं च गुच्छो पायनिजोगो ॥ ६६८॥ तिनेच य पच्छागा रपहरणं व होइ मुहपत्ती। एसो दुवालसविहो उवही जिणकप्पियाणं तु ॥ ६६९ ॥ पए चेव दुवालस मत्तग अइरेगचोलपट्टो य । एसो चउद्दसविहो उवही पुण थेरकप्पम्मि ॥ ६७० ॥ l पात्रक पात्रकबन्धस्तथा पात्रकस्थापनं 'पात्रकेसरिका' पात्रकमुखवत्रिका तथा पडलानि रजस्वाणं गोच्छकः अयं |
'पात्रनिर्योगः' पात्रपरिकर इत्यर्थः । त्रयः 'प्रच्छादकाः कल्या इत्यर्थः, तथा रजोहरणं मुखवत्रिका चेति, एष द्वाद*शविध उपधिर्जिनकल्पिकानां भवति । इदानीं स्थविरोपधि गणणाप्रमाणतः प्रतिपादयन्नाह-एत एव द्वादश जिनक- |
-SEARCASEAS
दीप अनुक्रम [१००९]
Maitaram.org
अथ उपधि संबंधी निरूपणं क्रियते
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१०१०] → “नियुक्ति: [६७०] + भाष्यं [३१२...] + प्रक्षेपं [२७...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
44
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||६७०||
|ल्पिकसत्काः पात्रकाद्या मुखवखिकापर्यन्ता उपध्यवयवा भवन्ति स्थविराणां स्थविरकल्पे अतिरिक्तस्तु मात्रकचोलपट्टकच उपधिनिरूभवति, एष चतुर्दशविध उपधिः स्थघिरकल्पे भवति । इदानीं सनहगाधया सर्वमेतदुपसङ्गहनाह
पर्ण नि. द्रोणीया जिणा बारसरूवाई, घेरा घउद्दसरूविणो। अजाणे पन्नवीसं तु, अओ उहूं उबग्गहो ।। ५७१॥
६६७-६७३ वृत्तिः
| जिनानां-जिनकल्पिकानां 'द्वादश रूपाणि' उक्तलक्षणानि भवन्ति, स्थविराणां 'चतुर्दश रूपाणि' उक्तलक्षणानि भव॥२०॥18|न्ति, 'आर्याणां' भिक्षुणीनां पञ्चविंशत्यवयवः ओषतः, स च वक्ष्यमाणलक्षणः, 'अत ऊ. उक्तप्रमाणात् सर्वेषामेव य8
उपधिर्भवति स उपग्रहो वेदितव्यः । इदानीं स जिनकल्पिकोपधिः स्थविरकल्पिकोपधिश्च सर्व एव त्रिविधो भवति, तस्योपधेर्मध्ये कानिचिदुत्तमान्यतानि कानिचिजघन्यानि कानिचिन्मध्यमानि, तत्र जिनकल्पिकानां तावत्प्रतिपादयन्नाहतिनेष प पच्छागा पडिग्गहो चेव होइ उक्कोसो । गुच्छगपत्तगठवणं मुहणंतगकेसरि जहन्नो ॥ १७२॥
तत्र ये प्रच्छादकाः कल्पा इत्यर्थः पतदहश्चेत्येप जिनकल्पिकावधेमध्ये उत्कृष्ट उपधिः प्रधानश्चतुर्विधोऽपि, अनामूनिट प्रधानान्यगानीत्यर्थः, गोच्छकः पात्रकस्थापनं मुखानन्तक-मुखपत्रिका पात्रकेसरिका-पात्रमुखबखिका चेति, एष जिनक-IN ल्पावधेमध्ये जघन्यः-अप्रधानचतुर्विध उपधिरिति, पात्रकबन्धः पटलानि रजस्खाणं रजोहरणमित्येष चतुर्षियोऽप्युपधि-18|| जिनकल्पिकावधेमध्ये मध्य उपधिन्न प्रधानो नाप्यप्रधान इति । उक्तो जिनकल्पिकानामुत्कृष्टजघन्यमध्यम उपधिरिति । इदानी स्थविरकल्पिकानां प्रतिपादयति, तत्रापि प्रथम मध्यमोपधिप्रतिपादनायाह
॥२०८ पडलाई रयत्साणं पत्ताबंधो प पोलपोय । रयहरण मत्तोऽवि य धेराणं छबिहो मझो। ५७ ॥
दीप अनुक्रम [१०१०]
Alinesturary.com
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक नि/भा/प्र
||६७३ ||
दीप
अनुक्रम
[१०१३]
Education
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) “निर्युक्तिः [६७३] + भाष्यं [ ३१२... ] + प्रक्षेपं [२७...]" ८० आगमसूत्र [४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
मूलं [ १०१३ ] • → मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
पलानि रजस्त्राणं पात्रकबन्धश्च चोलपट्टकश्च रजोहरणं मात्रकं चेत्येष स्थविरावधिमध्ये पडूविधो मध्यमोपधिः नोत्कृष्टो नापि जघन्य इति । पात्रकं प्रच्छादककल्पप्रयं, एष चतुर्विधोऽप्युत्कृष्टः- प्रधानः स्थविरकल्पिकावधिमध्ये, पात्रस्थापनकं पात्रकेसरिका गोच्छको मुखवस्त्रिक्रेत्येष जघन्योपधिः स्थविरकल्पिकावधिमध्ये चतुर्विधोऽपि । इदानीं आर्यि काणामोघोपधिं गणणाप्रमाणतः प्रतिपादयति-
पत्तं पत्ताबंधी पायवणं च पायकेसरिया । पडलाई रत्ताणं च गोच्छओ पायनिजोगो ॥ ६७४ ॥ |तिभेव य पच्छागा रयहरणं चैव होह मुहपती । तत्तो य मसगो खलु चउदसमो कमडगो चेव ।। ६७५ ॥ उम्महणंतगपट्टो अद्धोरुग चलणिया य बोद्धषा। अभिंतर बाहिरियं सणियं तह कंषुगे चेवं ।। ६७६ ।। उच्छिय बेकच्छी संघाडी चेव स्वधकरणी य । ओहोबहिंमि एए अजाणं पद्मवीसं तु ॥ ६७७ ॥
तत्र गाधाद्वयं पूर्वव (वैताव ) द्व्याख्यातं, नवरम् आर्यिकाणां कमठकमेतदर्थं भवति यतस्तासां प्रतिग्राहको न भ्रमति तुच्छस्वभावत्वात्, कमठक एव भोजनक्रियां कुर्वन्तीति । इदानीं भाष्यकारो गाथाद्वयं व्याख्यानयन्नाह - नावानिभो उगहणंतगो उ सो गुज्झदेसरकखट्टा । सो उ पमाणेणेगो घणमसिणो देहमासज्जा ॥ ३१३॥ भा०) पट्टोषि होइ एको देहपमाणेन सो उ भइयो । छायंतोग्गहणतं कडिबंधो मल्लकच्छा वा ॥ ३१४ ॥ भा० ) अहोरुगो उ ते दोवि गेव्हिडं छायए कडिविभागं । जाणुपमाणा चळणी असीविया लंखियाएव ॥ ३१५ ॥ (भा०) अंतो नियंसणी पुण लीणतरा जाव अद्धजंघाओ। बाहिरखालुपमाणा कडी य दोरेण परिबद्धा ॥ ३२६ ॥ ( भा० )
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१०२२] .→ “नियुक्ति: [६७७] + भाष्यं [३१७] + प्रक्षेपं [२७R-३०]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६७७||
श्रीओषनियुक्तिः द्रोणीया वृत्तिः
॥२०९॥
छाएइ अणुकमा उरोरुहे कंचुओय असीविओय । एमेष य ओकच्छिय सा नवरं दाहिणे पासे ॥३१७॥ (भा० | वेकच्छिया उ पट्टो कंचुयमुकच्छियं व छाएइ । संघाडीओ चउरो तत्थ दुहत्था उघसयंमि ॥ ३१८॥ (भा०)
उपधिनिरू
पणं नि. दोणि तिहत्थायामा भिक्खट्ठा एग एग उचारे । ओसरणा चउहत्था णिसन्नपच्छायणी मसिणा॥३१९॥(भा०)/१६७४-६७८ खंधकरणी य चउहत्थवित्थडा वायबिटुयरक्खट्ठा । खुज्जकरणी उ कीरह रूवबईणं कुडहहे ।। ३२०॥(भा०) भा.३१३| तत्थ जा सा दुहस्थिया पिहु तेणं सा खोमिया होइ, एयाओ संघाडीओ पडियागारेण होति, अद्धोरगो पीडएहिं कीरइ ३२० तालुगागारोत्ति।
अयं चार्यिकाणां संबन्धी अवधिस्त्रिप्रकारो भवति, एकोऽपि सन् उत्तममध्यमजघन्यभेदेन, तत्र तस्यार्यिकावधिमध्ये उत्कृष्टः-प्रधानोऽष्टविधः, एतदेवाहउकोसो अट्ठविहो मज्झिमओ होइ तेरसविहो उ । जहन्नो चरविहोवि य तेण परमुबग्गहं जाण ॥ ६७८ ॥ | उत्कृष्टोऽष्टविधस्तद्यथा-पात्रक संघाडीओ चउरो खंधकरणी अंतोनियंसणी बाहिणियंसणी य, अयमष्टविध उत्कृष्टःप्रधानः । पत्ताबंधो १ पडलाई २ रयत्ताणं ३ रयहरण ४ मत्तयं ५ उवग्गहणतयं ६ पट्टओ ७ अद्धोरुगं ८ चलणि ९कंचुगो |१० उकच्छिया ११ वेकरिछया १२ कमढगा १३, अयमार्यिकावधेमध्ये त्रयोदशभेदो मध्यमोपधिरिति । पायट्ठवणं ११४
IMI||२०९| है पायकेसरिया २ गोच्छओ ३ मुहपत्तिया ४ चेति अयमार्यिकावधेमध्ये जघन्यः-अशोभनश्चतुष्प्रकार इति । अतः परं यः
कारणे सति संयमाई गृह्यते सोऽवग्रहावधिरित्येवं जानीहि ।।
दीप अनुक्रम [१०२२]
SECASS
अत्र चत्वारः प्रक्षेप-गाथा: वर्तते, तत् मया संपादित: "आगमसुत्ताणि" मूलं वा सटीकं पुस्तके मुद्रितं सन्ति |
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१०३१] .. "नियुक्ति: [६७९] + भाष्यं [३२०] + प्रक्षेपं [३०...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
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गाथांक नि/भा/प्र ||६७९||
ONGCCAN
एग पायं जिणकप्पियाण राण मत्तओ विइओ। एयं गणणपमाणं पमाणमाणं अओ बुच्छं ॥ ६७९ ॥
एकमेव पात्रकं जिनकल्पिकानां भवति, स्थविरकल्पिकानां तु मात्रको द्वितीयो भवति, इदं तावदेकद्व्यादिक गणणाप्रमाणम्, इत ऊर्दू प्रमाणप्रमाणं वक्ष्ये, तत्र पात्रकस्य प्रमाणप्रमाणप्रतिपादनायाह| तिणि विहत्थी चउरंगुलं च भाणस्स मज्झिमपमाणं । इत्तो हीण जहन्नं अइरेगतरं तु उकोसं ॥ ६८॥ इणमण्णं तु पमाणं नियगाहाराउ होइ निष्फन्नं । कालपमाणपसिद्धं उदरपमाणेण य वयंति ॥ ६८१ ।। उकोस तिसामासे दुगाउअद्धाणमागओ साहू । चउरंगुलूणभरियं जं पजत्तं तु साहस्स ॥ ६८२॥
एयं चेव पमाणं सबिसेसपरं अणुग्गहपवत्तं । कंतारे दुन्भिववे रोहगमाईसु भइयर्ष ॥ ६८३ ॥ का समचउरंस वट्ट दोरएण मविजइ तिरिच्छय उड्डमहो य, सो य दोरओ तिण्णि विहत्थीओ चत्तार अंगुलाई जति
होइ ततो भाणस्स एवं मज्झिमं पमाणं, 'इतः' अस्मात्प्रमाणाद्यद्धीनं तज्जघन्यं प्रमाणं भवति, अथातिरिक्तप्रमाणं मध्यमप्रमाणाद्भवति ततस्तदुत्कृष्टप्रमाणमित्यर्थः, तथेदमपरं प्रमाणान्तरं प्रकारान्तरेण वा पात्रकस्य भवति-इदमन्यत्प्रमाणं निजेनाहारेण निष्पन्नं वेदितव्यं, एतदुक्तं भवति-काञ्जिकादिद्रवोपेतस्य भक्तस्य चतुर्भिरङ्गलैरूनं पात्रकं तत्साधो क्षयतो यत्सरिनिष्ठितं याति तत्तारम्विधं मध्यमप्रमाणं पात्रक, तच्चैवंविधं कालप्रमाणेन ग्रीष्मकाले प्रमाणसिद्धं पात्रकं भणन्ति, उदरप्रमाणेन सिद्धं च 'बदन्ति' प्रतिपादयन्ति । कालप्रमाणसिद्धं पात्रकमुदरप्रमाणसिद्धं च पात्रक प्रतिपादयन्नाह-उत्कृष्टा तृड् मासयोः-ज्येष्ठापाढयोर्यस्मिन् काले स उत्कृष्टतृण्मासः कालस्तस्मिन्नुत्कृष्टतृण्मासकाले द्विगव्यूतावानमात्रादागतो
दीप अनुक्रम [१०३१]
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ASSANSACCOCK
FarPurwanaBNamunoonm
अथ पात्रस्य प्रमाण, लक्षण, अपलक्षण, गुण इत्यादीनां वर्णनं क्रियते
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१०३५] → “नियुक्ति: [६८३] + भाष्यं [३२०...] + प्रक्षेपं [३०...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
A
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६८३||
श्रीओप- यो भिक्षुश्चतुर्भिरङ्गलैन्यूनं भृतं सद् यत्पर्याप्या साधोर्भवति तदित्थंभूतं कालप्रमाणोदरप्रमाणसिद्धं पात्रक मध्यमं भवति । उपधिनिरूनियुक्तिः एतदेव' पूर्वोक्तं प्रमाणं यदा 'सविशेषतरम्' अतिरिक्ततरं भवति तदा तदनुग्रहार्थं प्रवृत्तं भवति, एतदुक्तं भवति- पणं नि. द्रोणीया
४ बृहत्तरेण पात्रकेणान्येभ्यो दानेनानुग्रह आत्मनः क्रियते, तच कान्तारे महतीमटवीमुत्तीर्यान्येभ्योऽप्यर्थं गृहीत्वा ब्रजति६७९-६८४ वृत्ति
कायेन बहूनां भवति, तथा दुर्भिक्षेऽलभ्यमानायां भिक्षायां बहटित्वा बालादिभ्यो ददाति, तच्चातिमात्रे भाजने सति भवति लाभा. ३२१ ॥२१०॥
दानं, तथा रोधके कोट्टस्य जाते सति कश्चिद्भोजनं श्रद्धया दद्यात्तत्र तत् नीयते येन बहूनां भवति, एतेषु 'भजनीयं सेवनीयं तदतिमात्रं पात्रकम् । इदानीमेतदेव भाष्यकारो ब्याख्यानयनाह
वेयावच्चगरो वा नंदीभाणं धरे उबग्गहियं । सो खलु तस्स विसेसो पमाणसं तु सेसाणं ॥३२१ ॥ (भा०) Pा वैयावृत्त्यकरो वा नन्दीपात्रं धारयत्यौपग्रहिकमाचार्येण समर्पित निजं वा, स खलु तस्यैव वैयावृत्त्यकरस्य विशेषः,
एतदुक्तं भवति-यदतिरिक्तमात्रपात्रधारणमयं तस्यैवैकस्य वैयावृत्त्यकरस्य विशेषः क्रियते, शेषाणां तु साधूनां प्रमाणहैयुक्तमेव पात्रं भवति, उदरप्रमाणयुक्तमित्यर्थः ।,
दिजाहि भाणपूरंति रिद्धिम कोवि रोहमाईसु । तत्थवि तस्वओगो सेसं कालं तु पडिकुट्ठो ॥ ६८४ ॥ | एसच्च तेन प्रमाणातिरिकेन पात्रकेण प्रयोजनं भवति, दद्याद्भाजनपूरक कश्चिदृद्धिमान् पात्रभरणं कश्चिदीश्वरः कुर्यात्,13२१०॥ कदा, पत्तनरोधकादी, तत्र-पात्रकभरणे तस्य नन्दीपात्रकस्योपयोगः शेषकालमुपयोगस्तस्य 'प्रतिकुष्टः' प्रतिपिद्धः कारणमन्तरेणेत्यर्थः। तच्च पावक लक्षणोपेतं ग्राह्यं नालक्षणोपेतम्, एतदेवाह
RCASSOCIA
दीप अनुक्रम [१०३५
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
||६८५||
दीप
अनुक्रम [१०३८]
Jain Education
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः)
मूलं [ १०३८ ] ● → मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
“निर्युक्तिः [ ६८५] + भाष्यं [ ३२१ ] + प्रक्षेपं [३०...]" ८० आगमसूत्र -[ ४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
पायस्स लक्खणमलक्खणं च भुजो इमं वियाणित्ता । लक्खणजुत्तस्स गुणा दोसा य अलक्खणस्स इमे ॥ ६८५ ॥ वहं समचउरंसं होइ थिरं धावरं च वण्णं च । हुंडं वायाइडं भिन्नं च अधारणिजाई ॥ ६८६ ॥ संडियंमि भवे लाभो, पतिट्ठा सुपतिद्धिते । निवणे कित्तिमारोगं, वन्नट्टे नाणसंपया ॥ ६८७ ॥ हुंडे परिसभेदो सथलंमि य चित्तविन्भमं जाणे । दुप्पते खीलसठाणे गणे च चरणे च नो ठाणं ॥ ६८८ ॥ पउमुप्पले अकुसलं, सङ्घणे वणमादिसे । अंतो बर्हि च दमि, मरणं तत्थ निद्दिसे ॥ ६८९ ॥ अकरंडगम्मि भाणे हत्थो उटुं जहा न घट्टेह। एयं जहन्नयमुहं वत्युं पप्पा विसालं तु ।। ६९० ।।
पुत्रकस्य लक्षणं 'ज्ञात्वा' विज्ञाय अपलक्षणं च बुद्धा 'भूयः' पुनर्लक्षणोपेतं ग्राह्यं यतो लक्षणोपेतस्यामी गुणाः, अपलक्षणस्य चैते दोषाः - वक्ष्यमाणा भवन्ति तस्मालक्षणोपेतमेव ग्राह्यं नालक्षणोपेतं ॥ तच्चेदम्- 'वृत्तं' वर्तुलं तत्र वृत्तमपि कदाचित्समचतुरस्रं न भवत्यत आह- समचतुरस्रं सर्वतस्तथा स्थिरं च यद्भवति सुप्रतिष्ठानं तद्गृह्यते नान्यत्, तथा स्थावरं च यद्भवति न परकीयोपस्करवद् याचितं कतिपयदिनस्थायि, तथा 'वर्ण्य' स्निग्धवर्णोपेतं यद्भवति तद् ग्राह्ये, नेतरत् । उक्तं लक्षणोपेतम् इदानीमपलक्षणोपेतमुच्यते-'हुण्डं' कचिनिम्नं कचिदशतं यत्तदधारणीयं, 'वायाइद्धति अकालेनैव शुष्कं सङ्कुचितं वलीभृतं तदधरणीयं, तथा 'भिन्न' राजियुक्तं सछिद्रं वा, एतानि न धार्यन्ते परित्यज्यन्त इत्यर्थः । इदानीं लक्षणयुक्तस्य फलदर्शनायाह -- संस्थिते पात्रके - वृत्तचतुरस्रे प्रियमाणे लाभो भवति, प्रतिष्ठा गच्छे भवति सुप्रतिष्ठिते स्थिरे पात्रके, 'निर्व्रणे' नखक्षतादिरहिते कीर्तिरारोग्यं च भवति, वर्णाक्ये ज्ञानसंपद्भवति । इदानीमलक्षणयु
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१०४३] → “नियुक्ति: [६९०] + भाष्यं [३२१...] + प्रक्षेपं [३०...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
द्रोणीया
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६९०||
श्रीओघ- तफलं प्रदर्शयन्नाह-हुण्डे' निनोन्नते चारित्रस्य भेदो भवति विनाश इत्यर्थः, 'शवले' चित्तले 'चित्तविभ्रमः' चित्त-टपात्रकलक्षनियुक्ति विलुप्तिर्भवति, 'दुप्पए' अधोभागाप्रतिष्ठिते-प्रतिष्ठानरहिते, तथा 'कीलसंस्थाने' कीलवदीर्घमुच्चं गतं तस्मिंश्च एवंविधे णापलक्ष
'गणे' गच्छे च 'चरणे' चारित्रे वा न प्रतिष्ठानं भवति । पद्मोसले-हेड़े धासगागारे पात्रेऽकुशलं भवति, सत्रणे पात्रके सतिपूणानि नि. वृत्ति
वो भवति पात्रकस्वामिनः, तथा अन्तः-अभ्यन्तरे बहिर्वा दग्धे सति मरणं तत्र निर्दिशेत् । इदानीं मुखलक्षणप्रतिपाद॥२१॥ नायाह-करण्डको-वंशग्रथितः समतलकः, करण्डकस्येवाकारो यस्य तत्करण्डक न करण्डकम् अकरण्डक वृत्तसमचतुरनमि
नि.६९१पौत्यर्थः तस्मिन्नेवंविधे "भाजने' पात्रके मुखं कियन्मानं क्रियते? अत आह-हस्तः प्रविशन् ओष्ठ-कर्ण यथा 'न घट्टयति' न
६९२ स्पृशति एतजघन्यमुखं पात्रकं भवति, 'वस्तु प्राप्य' वस्त्वाश्रित्य सुखेनैव गृहस्थो ददातीति एवमाद्याश्रित्य विशालतरं मुर्ख क्रियत इति । आह-कस्मादाजनग्रहणं क्रियते !, आचार्यस्त्वाहछकायरक्खणवा पायग्गहणं जिणेहिं पन्नत्तं । जे य गुणा संभोए हवंति ते पायगहणेधि ॥ ६९१ ॥ अतरतबालबुहासेहाएसा गुरू असहवग्गे । साहारणोग्गहाऽलद्धिकारणा पादगहणं तु॥ ६९२॥ । षट्कायरक्षणार्थ पात्रकरहितः साधुर्भोजनार्थी पडपि कायान् व्यापादयति यस्मात्तस्मात्पात्रग्रहणं जिनः 'प्रज्ञप्त' प्ररू-10 पितं, य एष गुणा मण्डलीसंभोगे व्यावर्णिता त एव गुणाः पात्रग्रहणेऽपि भवन्ति, अतो ग्राह्यं पात्रमपि । के च ते गुणाः' इत्यत आह-लानकारणात् वालकारणात् वृद्धकारणात् शिक्षककारणात् प्राघूर्णककारणात् असहिष्णु:-राजपुत्रः कश्चित् प्रबजितस्ततः कारणात् साधारणोऽवग्रहः-अवष्टम्भोऽनेन पात्रकेण क्रियते एतेषां सर्वेषामतः साधारणावग्रहा
दीप अनुक्रम [१०४३]
॥२१॥
Inirasarary.org
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१०४५] → “नियुक्ति: [६९२] + भाष्यं [३२१...] + प्रक्षेपं [३०...] . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||६९२||
देतोः अलब्धिमांश्च कश्चिद्भवति तस्यानीय दीयते तच्च पात्रकेण विना दातुं न शक्यतेऽतः कारणात् पात्रकग्रहणं भवति ।। || उकं पात्रकप्रमाणप्रमाणम् , इदानीं पात्रबन्धप्रमाणप्रमाणं प्रतिपादयन्नाह
. पत्तापंधपमाणं भाणपमाणेण होइ कायचं । जह गठिमि कयंमि कोणा चउरंगुला हुंति ॥ ६९३ ।।
पात्रबन्धप्रमाणं भाजनप्रमाणेन भवति विज्ञेयं सर्वथा, यथा ग्रन्थौ 'कृते' दत्ते सति कोणी चतुरङ्गलप्रमाणौ भवतxस्तथा कर्तव्यं । इदानीं पात्रकस्थापनकगोच्छकपात्रकप्रत्युपेक्षणिकानां प्रमाणप्रमाणप्रतिपादनायाह
पत्तवर्ण तह गुच्छओ य पायपडिलहणीआ य । तिण्हपि यप्पमाणं विहस्थि चउरंगुलं चेव ॥ ६९४ ॥ | पात्रकस्थापनकं गोच्छकः 'पात्रकप्रत्युपेक्षणिका' पात्रकमुखवस्त्रिका एतेषां त्रयाणामपि वितस्तिश्चत्वारि चाङ्गुलानि प्रमाणं चतुरस्त्रं द्रष्टव्यं, अत्र च पात्रस्थापनकं गोच्छकश्च एते द्वे अपि ऊर्णामये वेदितव्ये, मुखवस्त्रिका खोमिया ।। इदानीमेषामेव प्रयोजनप्रतिपादनायाह| रयमादिरक्खणड्डा पत्तट्ठवणं जिणेहिं पन्नतं । होइ पमजणहे तु गोच्छओ भाणवस्थाणं ।। ६९५ ॥ पायपमजणहेज केसरिया पाएँ पाएँ एकेका । गोच्छगपत्तहवणं एक गणणमाणेणं ॥ ६९६ ।।
रजआदिरक्षणार्थ पात्रस्थापनकं भवति एवं विद्वांसो व्यपदिशन्ति, भवति प्रमार्जननिमित्तं गोच्छको भाजनवस्त्राणां, एतदुक्तं भवति-गोच्छकेन हि पटलानि प्रमृज्यन्ते । तथा 'केसरिकाऽपि' पात्रकमुखवखिकाऽपि पात्रकप्रमार्जननिमित्त
दीप अनुक्रम [१०४५]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१०४९] → “नियुक्ति: [६९६] + भाष्यं [३२१...] + प्रक्षेपं [३०...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६९६||
दीप अनुक्रम [१०४९]
श्रीओघ- भवति पात्रे पात्रे एकका पात्रकेसरिका भवति गणनया, तथा गोच्छकः पात्रस्थापनं च एकैक गणनामानेनेति । इदानी पात्रबन्धानियुकिपिटलानां गणनाप्रमाणप्रतिपादनायाह
दिप्रमाणप द्रोणीया जेहिं सविया नदीसह अंतरिओ तारिसा भवे पडला। तिनि व पंच व सत्सव कयलीगन्मोवमा मसिणा ॥६९७
योजने नि. वृत्तिः गेम्हासु तिन्नि पडला चउरो हेमंत पंच थासासु । उकोसगाउ एए एसो पुण मज्झिमे चुच्छ॥ ६९८॥
६९३-६९६
पटलमान ॥२१॥ गिम्हामु हुँति चउरो पंच य मंति छच्च वासासु । एए खलु मज्झिमया एत्तो उ जहन्नओ बुच्छ ॥ ६९९॥
नि. १९७. गिम्हासु पंच पडला छप्पुण हेमंति सत्सवासासु। सिविहंमि कालछेए पायावरणा भवे पडला ।। ७००। ७०० | वैः पटलैस्त्रिभिरेकीकृतैः सद्भिः सविता न दृश्यते तिरोहितः सन् , पञ्चभिः सप्तभिर्वा पटलैरेकीकृतैः सविता भोपल-18 सभ्यत इति, किमुक्तं भवति !-रवेः संबन्धिनो रश्मयो नोपलभ्यन्ते तारशानि पटलानि भवन्ति, किंविशिष्टानि !-कदली
गर्भोपमानि क्षौमाणि श्लक्ष्णानि मसणानि धनानि चेति, तन्न यदुक्तं त्रीणि पटलानि पञ्च सप्त वा पटलानि भवन्तीत्येतदेव । कालभेदेन विशेषेण दर्शयबाह-प्रीष्मे' उष्णकाले त्रीणि पटलानि गृह्यन्ते यानि तानि दानि मसणानि च भवन्ति उत्कृष्टानीत्यर्थः, 'हेमन्ते' शिशिरे च चत्वारि गृह्यन्ते धनानि मसृणानि च शोभनानि यदि भवन्ति, स हि मनाला स्निग्धः काला, पश्च पटलानि वर्षासु गृह्यन्ते यद्युत्कृष्टानि धनानि मसणानि च भवन्ति, स हत्यन्तस्निग्धकालो यता
H ॥२१२॥ उस्कृष्टान्येतानि उक्तलक्षणानि प्रधानान्येतानि । इत उर्दू 'मध्यमानि' न शोभनानि नाप्यशोभनानि वक्ष्ये इति । दामीम्मे' उष्णकाले चत्वारि मध्यमानि पटलानि गृह्यन्ते, तानि मनागू जीर्णानि, हेमन्ते पश्च गृह्यन्ते मध्यमानि, वर्षासु
अथ पटलक, रजस्त्राण, रजोहरण आदि संबंधी वर्णनं क्रियते
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||७०० ||
दीप
अनुक्रम
[१०५३]
Educator
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) “निर्युक्तिः [ ७००] + भाष्यं [ ३२१... ] + प्रक्षेपं [३०...]" ८० आगमसूत्र [४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
मूलं [ १०५३ ] • → मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
पडू, एतानि 'मध्यमानि' न प्रधानानि नाप्यप्रधानानि, तंत्र ग्रीष्मो रूक्षः कालः हेमन्तो मध्यमः वर्षा स्निग्धस्तेन पटलानां वृद्धिरुक्ता, इत ऊर्द्ध जघन्यानि वक्ष्य इति । ग्रीष्मे पश्च पटलानि जघन्यानि जीर्णप्रायाणि गृह्यन्ते, षड् पुनः हेमन्ते जघन्यानि जीर्णप्रायाणि, वर्षाकाले सप्त जघन्यानि संगृह्यन्ते जीर्णप्रायाणि, एवमुक्तेन प्रकारेण त्रिविधेऽपि 'कालच्छेदे' कालपर्यन्ते अन्यानि चान्यानि च 'पात्रावरणानि' स्थगनानि पटलानि भवन्ति । इदानीमेषामेव प्रमाणप्रतिपादनायाह
अहाहा हत्था दीहा छत्तीस अंगुले रुषा । वितियं पडिग्महाओ ससरीराओ य निष्पन्नं ॥ ७०१ ॥ अर्द्धतृतीयहस्तदीर्घाणि भवन्ति, पत्रिंशदङ्गुलानि विस्तीर्णानि भवन्ति, द्वितीयमेषां प्रमाणं पतङ्ग्रहाच्छादनेन शरीरस्कन्धाच्छादनेन च निष्पन्नं भवति, एतदुक्तं भवति- भिक्षाटनकाले स्कन्धः पात्रकं चाच्छाद्यते यावता तत्प्रमाणं पटलानामिति । इदानीं किं तैः प्रयोजनमित्यस्यार्थस्य प्रदर्शनायाह
पुष्पफलोदयर रेणुसडणपरिहारपाय रक्खट्टा । लिंगस्स य संवरणे वेदोदयरक्खणे पडला ॥ ७०२ ॥ अस्थगित पात्र पुष्पं निपतति तत्संरक्षणार्थे पटलानि गृह्यन्ते, तथा फलपातरक्षणार्थमुदकपातसंरक्षणार्थं च पटलग्रहण| तथा रजः - सचित्तपृथिवीकायस्तत्संपातरक्षणार्थं च, रेणु:-धूलिस्तत्संपातरक्षणार्थं, शकुनपरिहारः- शकुनपुरीषं तत् कदाचि | दाकाशानिपतति तत्पातसंरक्षणार्थ, लिङ्गसंवरणार्थं लिङ्गस्थगनं च तैर्भवति, तथा पुरुषवेदोदये सति तस्यैव स्तब्धता भवति तत्संरक्षणं स्थगनं तदर्थं च पटलानि भवन्तीति । इदानीं रजस्त्राणप्रमाणप्रतिपादनायाह
माणं तु रत्ताणे भाणपमाणेण होइ निष्पन्नं । पायाहिणं करें मज्झे चउरंगुलं कमः | ७०३ ॥
For Penal Pyssa Lise Only
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१०५६] → “नियुक्ति: [७०३] + भाष्यं [३२१...] + प्रक्षेपं [३०...] . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||७०३||
श्रीओंघनियुक्तिः द्रोणीया वृत्तिः
। २१३॥
'मान' प्रमाणं रजत्राणस्य 'भाजनप्रमाणेन' पात्रकमानेन भवति, एतदुक्तं भवति-पात्रकानुरूप रजखाणं भवति, तच्च पटलरजरजस्त्राणं पात्रकस्य कथं दीयते ? अत आह-प्रदक्षिणां कुर्वाण सत्तिर्यग् दीयते, 'मध्ये' पृथुत्वेन चत्वार्यङ्गलानि 'कामति खाणकल्प गच्छति प्रदक्षिणां कुर्वाणमिति । इदानीमस्यैव प्रयोजनप्रतिपादनायाह
प्रमाणप्रयो मूसयरजउकेरे वासे सिण्डा रए प रक्खट्ठा । होति गुणा रयताणे पादे पादे य एफेकं ॥७०४॥
जने नि. तच रजखाणं दीयते मूषिकरजउत्केरसंरक्षणार्थ, वर्षोदकसंरक्षणार्थ, सिहा-अवश्यायस्तत्संरक्षणार्थ, भवन्ति गुणा,
भ
७०१-७०६ रजस्त्राणस्यैते, तब पाने पात्रे चकैकं भवतीति । इदानी कल्पप्रमाणप्रमाणप्रतिपादनायाहकप्पा आयपमाणा अड्डाइजा उ वित्थडा हत्या। दो चेव सोत्तिया उन्निओ य तइओ मुणेयचो ॥ ७०५ ॥
कल्पा आत्मप्रमाणाः, एतदुक्तं भवति-यावन्मात्राः प्रावृताः स्कन्धस्योपरि प्रक्षिप्तास्तिष्ठन्ति एतावदात्मप्रमाणमीततीयांस्तु विस्तृता हस्तान् , तत्र ही सूत्रिकी भवतः ऊर्णिकश्च तृतीयो विज्ञेयः । इदानी तत्प्रयोजनप्रतिपादनायाह
तणगहणानलसेवा निवारणा धम्मसुमाझाणहा। दिलु कप्पग्गहणं गिलाणमरणट्ठया चेव ।। ७०६॥ तृणग्रहणनिवारणार्थ गृह्यन्ते, अनल:-अग्निस्तत्सेवानिवारणार्थ च, एतदुक्तं भवति-कल्याग्रहणे तृणग्रहणमग्निसेवनं च भवति, तन्निवारणार्थ कल्पग्रहणं क्रियते, तथा धर्मशुक्लध्यानार्थ कल्पग्रहणं भवति, एतदुक्तं भवति-शीतादिना बाध्यमानो ॥१३॥ धर्मशुक्ले ध्याने ध्यातुमसमर्थों भवति यदि कल्पान्न गृह्णाति, अत एवम दृष्टं कल्पग्रहणं, तथा ग्लानसंरक्षणार्थ मरणार्थ मृतस्योपरि दीयते कल्पः एतदर्थं च ग्रहणमिति । इदानी रजोहरणस्वरूपप्रतिपादनायाह
दीप अनुक्रम [१०५६]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१०६०] → “नियुक्ति: [७०७] + भाष्यं [३२१...] + प्रक्षेपं [३०...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||७०७||
CASSROSAGAR
घणं मूले चिरं मज्झे, अग्गे महवजुत्तया। एगंगियं अज्झुसिरं, पोरायाम तिपासियं ।। ७०७॥ मूलदण्डपर्यन्ते 'घन' निबिडं भवति 'मध्ये मध्यप्रदेशे स्थिर कर्तव्यम् 'अग्गे दसिकापर्यन्ते 'मार्दवयुक्तं' मृदु कर्त्तव्यम् , 'एकानिक' तज्जातदसि सदसिकाकम्बलीखण्डनिष्पादितमित्यर्थः । 'अझुसिरं' अगंथिला दशिका है निषद्या च यस्य तदशुषिरम् , 'पोरायाम'ति अङ्गष्टपर्वणि प्रतिष्ठितायाः प्रदेशिन्या यावन्मात्रं शुषिरं भवति तदापूरक
कर्त्तव्यं, दण्डिकायुक्ता निषद्या यथा तावन्मानं पूरयति तथा कर्त्तव्यम्, 'त्रिपासितं त्रीणि वेष्टनानि दवरकेन दत्त्वा पासितं पाशबन्धनेन । किञ्च,
अप्पोल्लं मिउ पम्हंच, पडिपुत्र हत्थपूरिमं । रयणीपमाणमित्तं, कुज्जा पोरपरिग्गहं ।। ३२२ ॥ (भा०), अमुमेव श्लोकं भाष्यकारो व्याचष्टे-'अप्पोल्लं' दृढवेष्टना घनवेष्टनात् कारणात्, मृदु पक्ष्म च कर्त्तव्यं-मृदूनि दशिकापक्ष्माणि क्रियन्ते । 'प्रतिपूर्ण' सदू बाह्येन निषद्याद्वयेन युक्तं सत् हस्तं पूरयति यथा तथा कर्त्तव्यम् । तथा 'रनिप्र-16 माणमात्रं' यथा दण्डो हस्तप्रमाणो भवति तथा कर्त्तव्यम् । 'कुज्जा पोरपरिग्गह'ति पोरम्-अङ्गठपर्व तस्मिन्नष्ठपर्वणि लग्नया प्रदेशिन्या यद्भवति छिद्रं तद्यथा पूर्यते तेन दण्डकेन बाह्यनिषद्याद्वयरहितेन तथा कर्त्तव्यं, एवंविधं 'पोरपरि-IN ग्गह' अङ्गुष्ठपर्वपदेशिनीकुण्डलिकापूरणं कर्त्तव्यमिति । इदानी समुदायरूपस्यैव प्रमाणं प्रतिपादयन्नाह
बत्तीसंगुलदीई चचीसं अंगुलाई दंडो से । अटुंगुला दसाओ एगयरं हीणमहियं वा ।। ७०८ ॥ द्वात्रिंशदङ्गलानि सर्वमेव दीर्घत्वेन प्रमाणतो भवति, तत्र च 'अस्य रजोहरणस्य चतुर्विशत्यहुलानि दण्डका, अष्टा-1
दीप अनुक्रम [१०६०]
CARRACANCE
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१०६२] .. "नियुक्ति: [७०८] + भाष्यं [३२२] + प्रक्षेपं [३०...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||७०८||
श्रीओघ- नियुक्तिः द्रोणीया वृत्तिः
RE
॥२१॥
अलप्रमाणकाश्च दशिका भवन्ति, 'एगतरे हीणमहिय वा एकतरं दण्डकस्य दशिकानां वा कदाचिद्धीनं प्रमाणतो भवति रजोहरणकदाचिच्चाधिक भवति, सर्वथा समुदायतस्तद्वात्रिंशदङ्गुलं कर्त्तव्यम् । तच्च किम्मयं भवति ? इत्यत आह
स्वरूपप्रमाउपिणयं उट्टियं वावि, कंधलं पायपुंच्छणं । तिपरीयल्लमणिस्सई, रयहरणं धारए एगं ॥ ७०९॥
णप्रयोज|
नानि नि. तद्रजोहरणं कदाचिदूर्णामयं भवति कदाचिच्चोष्ट्रौर्णामयं भवति कदाचित्कम्बलमयं भवति, पादपुञ्छनशब्देन रजो- ७०७७१० हरणमेव गृह्यते, तदेवंगुणं भवति, 'तिपरियहं ति त्रि-परिवर्त-त्रयः परावर्तकाः-वेष्टनानि यथा भवन्ति तथा कर्त्तव्यम् , |भा.३२२ 'अणिसि? ति मृदु कर्तव्यं, तदेवंगुणं रजोहरणं धारयेदेकमेवेति । तेन च किं प्रयोजनमित्यत आह
मुखानन्त
कमाने आयाणे निक्खेवे ठाणनिसीयण तुयसंकोए । पुर्व पमजणट्ठा लिंगहा चेव रयहरणं ।। ७१० ।।
8.नि.७११ आदान-प्रहणं तत्र प्रमार्जनार्थ रजोहरणं गृह्यते निक्षेपो-न्यासः स्थान-कायोत्सर्गः निपीदनम्-उपवेशनं तुयट्टणंशयनं सङ्कोचनं-जानुसंदंशकादेः, एतानि पूर्व प्रमृन्य क्रियन्ते अतः पूर्व प्रमार्जनार्थ रजोहरणग्रहणं क्रियते । लिङ्गमिति च कृत्वा रजोहरणधारणं क्रियत इति । इदानी मुखवत्रिकाप्रमाणप्रतिपादनायाह
चउरंगुलं विहस्थी एवं मुहर्णतगस्स उ पमाणं । वितियं मुहप्पमाणं गणणपमाणेण एकेकं ॥७११॥
चत्वार्यकलानि वितस्तिश्चेति, एतच्चतुरनं मुखानन्तकस्य प्रमाणम् , अथवा इदं द्वितीय प्रमाण, यवुत मुलप्रमाणे ॥२१॥ 8 कर्त्तव्यं मुहणंतयं, एतदुक्तं भवति-वसतिप्रमार्जनादौ यथा मुखं प्रच्छाद्यते कृकाटिकापृष्ठतश्च यथा प्रन्धिर्दातुं शक्यते
दीप अनुक्रम [१०६२]]
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
||७११||
दीप
अनुक्रम [१०६५ ]
मूलं [ १०६५ ] • → मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) “निर्युक्तिः [ ७११] + भाष्यं [ ३२२... ] + प्रक्षेपं [३०...]" ८० आगमसूत्र [४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
तथा कर्त्तव्यं, त्र्यखं कोणद्वये गृहीत्वा यथा कृकाटिकायां ग्रन्थिर्दातुं शक्यते तथा कर्त्तव्यमिति, एतद्वितीय प्रमार्ण, गणणाप्रमाणेन पुनस्तदेकैकमेव मुखानन्तकं भवतीति । इदानीं तत्प्रयोजनप्रतिपादनायाह
संपातिमरपरेणूपमज्जणट्टा वयंति मुहपतिं । नासं मुहं व बंध तीए वसहिं पनतो ।। ७१२ । संपातिमसत्त्वरक्षणार्थं जल्पद्भिर्मुखे दीयते, तथा रजः - सचित्तपृथिवीकायस्तत्प्रमार्जनार्थ मुखवस्त्रिका गृह्यते, तथा रेणुप्रमार्जनार्थ मुखवत्रिकाग्रहणं प्रतिपादयन्ति पूर्वर्षयः । तथा नासिकामुखं बभाति तथा मुखवस्त्रिकया वसतिं प्रमार्जयन् येन न मुखादौ रजः प्रविशतीति । इदानीं मात्रकप्रमाणप्रतिपादनायाह
जो मागहओ पत्थ सविसेसतरं तु मत्तयपमाणं । दोस्रुवि दवरगहणं वासावासासु अहिगारो ॥ ७१३ ॥ यो मागधकः प्रस्थस्तत्सविशेषतरं मात्रकं भवति, स च मागधिकप्रस्थः दो असईओ पसई दो पसतिओ सेतिया चढइयाहिं मागो पत्थे सो जारिसो पमाणेण तारिखं सविसेसतरं मत्तयं हवति । तेन किं प्रयोजनमित्यत आह- 'दोस्रुवि' द्वयोरपि वर्षावर्षयोः वर्षाकालऋतुबद्धकालयोर्यदाचार्यादिप्रायोग्यद्रव्यग्रहणं क्रियते अयमधिकारस्तस्य मात्रकस्येति, इदं प्रयोजनमित्यर्थः । अथवेदमन्यत्प्रमाणमुच्यते
स्वोदणस्स भरिडं दुगा अद्वाणमागओ साहू । भुंजइ एगट्ठाणे एवं किर मलयपमाणं ॥ ७१४ ॥ सूपस्य च ओदनस्य च भृतं द्विगव्यूताध्वानादागतः साधुर्भुङ्गे यदेकस्मिन् स्थाने तदेतत् किल मात्रकस्य द्वितीयं प्रमाणमुक्त । आह-कस्मादुक्तप्रमाणाल्लघुतरं न क्रियते ?, उच्यते, लघुतरे दोषा भवन्ति
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१०६९] → “नियुक्ति: [७१५] + भाष्यं [३२२...] + प्रक्षेपं [३०...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||७१५||
श्रीओष- संपाइमतसपाणा धूलिसरिक्खे य परिगलंतमि । पुढविद्गअगणिमारुयउद्धंसणखिसणाडहरे ॥ ७१५ ॥ मुखानन्तनियुक्ति अतिलघुनि मात्रके च आहारेण भृते सति यदि तदाच्छादनमुत्क्षिप्यते ततः शुषिरण संपातिमत्रसप्राणा धूलिश्च
कप्रयोजन द्रोणीयाट
मात्रकमान. सरजस्कः-चा(क्षा)र: एते प्रविशन्ति, तथा परिगलमाने च तद्रव्यसंपातेन पृथिव्युदकाग्निमारुतानां वधः संभाव्यते, उद्धंस- वृत्तिः
प्रयोजने नि. णो-वधो भवति, तथा 'खिंसणा' परिभवो भवतीति, यदुतानेन प्रव्रजितेन अतृप्तेनैतावद्गृहीतं येनैतद्भक्तमितश्चेतच
७१२-७१७ ॥२१५||
विक्षिपन् प्रयातीति, ततश्च डहरके एते दोषा यतो भवन्तीति ततः पूर्वोक्तप्रमाणयुक्तमेव ग्राह्यमिति । इदानीमाचार्यादिप्रायोग्यग्रहणनिमित्तं मात्रकस्यानुज्ञाप्रतिपादनायाह
आयरिए यगिलाणे पाहुणए दुल्लभे सहसदाणे । संसत्तभत्तपाणे मत्तगपरिभोग अणुनाओ ॥ ७१६॥ । आचार्यप्रायोग्यग्रहणे तथा ग्लानप्राघूर्णकप्रायोग्यग्रहणे तथा दुर्लभघृतादिद्रव्यग्रहणे सहसादानग्रहणे तथा संसक्तभतपानग्रहणे च मात्रकस्य परिभोगोऽनुज्ञातो नान्यदेति, तस्य च मात्रकस्यानेन क्रमेण परिभोगः कर्त्तव्यः, यद्याचार्यस्य तस्मिन् क्षेत्रे ध्रुवलम्भः प्रायोग्यस्य तदा एक एव सङ्काटकः प्रायोग्यं गृह्णाति न सर्वे । तत्र चैकस्य सङ्काटकस्याचार्यप्रायोग्यं गृह्णतः को विधिरित्यत आह
एकमि उ पाउम्गं गुरुणो वितिओग्गहे य पडिकुटुं । गिपहइ संघाडेगो धुवलंभे सेस उभयपि ॥ ७१७ ॥ एकस्मिन् प्रतिग्रहके प्रायोग्यं गरोगहाति वितिजग्गहे यत्ति द्वितीयप्रतिग्रहके पडिकुट्ट ति प्रतिषिद्धं यत्संसक्तादि।
॥२१५|| तद्हाति, अथवा 'पडिकुहूं' विरुद्धं यत्काञ्जिकाअम्बिलादि तद्वितीयप्रतिग्रहके गृह्णाति एक एव सहाटकः । कदा पुनरयं।
दीप अनुक्रम [१०६९]
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
॥७१७||
दीप
अनुक्रम [१०७१]
मूलं [१०७१] ● → मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) “निर्युक्तिः [ ७१७] + भाष्यं [ ३२२... ] + प्रक्षेपं [३०...]" ८० आगमसूत्र [४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
विधिरित्यत आह-'ध्रुवलम्भे' धुवे - अवश्यम्भाविनि प्रायोग्यलाभे सत्ययं विधिः, 'सेस उभयंपित्ति शेषा - येऽन्ये सङ्घाट - कास्ते आत्मार्थमुभयमपि भक्तं पानकं च गृह्णन्ति, एकः पानकमेकस्मिन् प्रतिग्रहके गृह्णाति द्वितीयस्तु भक्तं गृह्णाति एवं | सर्वेऽपि सङ्घाटका भिक्षामटन्तीति, ततश्चैत्रं मात्रकग्रहणं न संजातमिति । अथ ध्रुवलम्भः प्रायोग्यस्य न तस्मिन् क्षेत्रे ततः को विधिरित्यत आह
असई लाने पुणमतए य सधे गुरूण गेण्हंति । एसेव कमो नियमा गिलाणसे हाइएसुंपि ॥ ७१८ ॥ असति लम्भे पुनः प्रायोग्यस्य सर्व एव सङ्घाटका मात्रकेषु गुरोः प्रायोग्यं गृह्णन्ति, यतो न ज्ञायते कः किंचिल्लप्स्यते आहोश्चिनेत्यतो गृहन्ति, एष एव क्रमो 'नियमात्' नियमत एव ग्लानशिष्यकादिष्वपीति । अथवा
दुल्लभदवं व सिया घयाह तं मत्तएसु गेव्हंति । लद्धेवि उ पज्जन्ते असंधरे से सगट्टाए ।। ७१९ ॥ दुर्लभं वा द्रव्यं स्याद् घृतादि तन्मात्रकेषु गृह्णन्ति । तथा उन्धेऽपि भक्ते पर्याप्त आत्मार्थं तथाऽपि यदि न संस्तरति न सरति ग्लानवृद्धादीनां ततोऽसंस्तरणे सति ग्लानवृद्धादिशेषार्थं तावत्पर्यटन्ति यावत्पर्याप्तं भक्तं ग्लानादीनां भवतीति । अथवाऽनेन प्रकारेण मात्रकग्रहणं संभवति
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संसत्तभक्त्तपाणे वावि देसेसु मत्तए गहणं । पुत्रं तु भत्तपाणं सोहेउ छुर्हति इयरेसु ॥ ७२० ॥ यत्र प्रदेशेषु स्वभावेनैव संसक्तभक्तपानं सम्भाव्यते, तेषु संसक्तभक्तपानेषु देशेषु सत्सु प्रथमं मात्रके ग्रहणं क्रियते,
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१०७४] → “नियुक्ति: [७२०] + भाष्यं [३२२...] + प्रक्षेपं [३०...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र
श्रीओघनियुक्तिः द्रोणीया
वृत्तिः
॥२१६॥
||७२०||
पुनश्च तत्पूर्वमेव भक्तपानं शोधयित्वा प्रक्षिपन्ति इतरेषु प्रतिग्रहकेषु, ततश्चैवं वा मात्रकमहर्ण संभवति । इदानी चोल- मात्रकप्रयो पट्टकप्रमाणप्रतिपादनायाह
जनं चोलप दुगुणो चउपगुणो वा हत्था चउरंस चोलपट्टो उ । थेरजुवाणाणट्ठा सण्हे थुलंमि य विभासा ॥ ७२१ ।। हमानप्रयो द्विगुणश्चतुर्गुणो वा कृतः सन् यथा हस्तप्रमाणश्चतुरस्रश्च भवति तथा चोलपट्टकः कर्त्तव्यः, कस्यार्थमित्यत आह- जने संस्तार थेरजुवाणाणहा' स्थविराणां यूनां चाय कर्तव्यः, स्थविराणां द्विहस्तो यूनां च चतुर्हस्त इति भावना, 'सपहे थुल्लंमिय
काद्यौपग्रविभास'त्ति, यदि परमयं विशेषः, यदुत स्थविराणां श्लक्ष्णोऽसावेव चोलपट्टकः क्रियते यूनां पुनः स्थूल इति । किमर्थं 5
हिकः नि.
७१८-७२२ पुनरसौ चोलपट्टकः क्रियते?, आह
बेउविवाउडे वातिए हिए खरपजणणे चेव । तेसिं अणुग्गहत्था लिंगुदयट्ठा यपट्टोउ ॥ ७२२ ॥ यस्य साधोः प्रजननं वैक्रियं भवति विकृतमित्यर्थः, यथा दाक्षिणात्यपुरुषाणां वेण्टा) विध्यते प्रजननं तच विकृतं भवति ततश्च तत्पच्छादनार्थमनुग्रहाय चोलपट्टः क्रियते, तथाऽप्रावृते कश्चिद् वातिको भवति वातेन तत्प्रजनन-15 मूच्नं भवति ततश्च तदनुग्रहायानुज्ञातः, तथा 'हीकः' लज्जालुः कश्चिद् भवति तदर्थ, तथा 'खद्धंति बृहत्प्रमाणे | स्वभावेनैव कस्यचित्प्रजननं भवति ततश्चैतेषामनुग्रहार्थ, तथा लिङ्गोदयार्थं च, कदाचिस्त्रियं दृष्ट्वा लिङ्गस्योदयो भवति,31॥२१॥ अथवा तस्या एव स्त्रिया लिङ्ग दृष्ट्वा उदयः स्वलिङ्गस्य भवति-तं प्रत्यभिलापो भवतीत्यर्थः, ततश्चैतेषामनुग्रहार्थ चोलपट्टकमहणमुपदिष्टमिति । उक्त ओघोपधिः, इदानीमौपग्रहिकोपधिप्रतिपादनायाह
दीप अनुक्रम [१०७४]
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र
||७२३ ||
दीप
अनुक्रम [१०७७]
ओ० ३७
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“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) "निर्युक्तिः [७२३] + भाष्यं [ ३२२... ] + प्रक्षेपं [३०...]" ८० आगमसूत्र [४१/१], मूल सूत्र -[ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
मूलं [ १०७७] • मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
संथारुत्तरपट्टो अढाइबा य आपया हत्था । दोहंपि य वित्थारो हत्थो चउरंगुलं चैव ॥ ७२३ ॥ संस्तारकस्तथोत्तरपट्टकश्च, एतौ द्वावप्येकेकोऽर्द्धतृतीयहस्तौ देर्येण प्रमाणतो भवति, तथा द्वयोरप्यनयोर्विस्तारो हस्तचत्वारि चाङ्गुखानि भवतीति । आह-किं पुनरेभिः प्रयोजनं संस्तारकादिभिः पट्टकैः १, उच्यते-पाणादिरेणुसारवणया होंति पट्टगा चउरो । छप्पइयरक्खणट्ठा तस्थुवरिं खोमियं कुज्जा ।। ७२४ ॥ प्राणिरे संरक्षणार्थी पट्टका गृह्यन्ते, प्राणिनः पृथिव्यादयः रेणुश्च-स्वपतः शरीरे लगति अतस्तद्रक्षणार्थं पट्टकग्रहणं, ते चत्वारो भवन्ति, द्वौ संस्तारको तरपट्टकायुक्तावेव तृतीयो रजोहरणबाह्यनिषद्यापदृकः पूर्वोक्त एव चतुर्थः क्षौमिक एवाभ्यन्तरनिषद्यापट्टको वक्ष्यमाणकः, एते चत्वारोऽपि प्राणिसंरक्षणार्थं गृह्यन्ते तत्र षट्पदीरक्षणार्थं तस्य कम्बली संस्तारकस्योपरि खोमियं संस्तार के पट्टकं कुर्याद् येन शरीर कम्बलीमयसंस्तार कसंघर्षेण न षट्पद्यो विराध्यन्त इति । इदानीमभ्यन्तरक्षौमनिषद्याप्रमाणप्रतिपादनायाह
| रयहरणपहमेत्ता अदसागा किंचि वा समतिरेगा। एकगुणा उ निसेजा हत्थपमाणा सपच्छागा ॥ ७२५ ॥ रजोहरणकोऽभिधीयते यत्र दशिका लग्नाः तत्प्रमाणा 'अदशा' दशिकारहिता क्षौमा रजोहरणाभ्यन्तरनिषद्या भवति, 'किंचि वा समतिरेग'त्ति किञ्चिन्मात्रेण वा समधिका तस्य रजोहरणपट्टकस्य भवतीति, 'एकगुण'त्ति एकैव सा निषद्या भवतीति, हस्तप्रमाणा च पृथुत्वेन भवति, 'सपच्छाग ति सह बाह्यया हस्तप्रमाणया भवतीति एतदुक्तं भवतिबाह्याऽपि निषद्या हस्तमात्रैव ।
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१०८०] → “नियुक्ति: [७२६] + भाष्यं [३२२...] + प्रक्षेपं [३०...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
S
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||७२६||
कृत्तिः
श्रीमोघ- चासोबग्गहिओ पुण दुगुणा अवही उ बासकप्पाई । आयासंजमहे एकगुणा सेसओ होइ ॥ ७२६ ॥ | तपट्टकचतुनियुक्ति
के नि. वर्षासु-वर्षाकाले औपग्रहिकः अवधिद्धिगुणो भवति, कश्चासौ ?-वर्षाकल्पादिः, आदिग्रहणात् पटलानि, जो बाहिरे द्रोणीया
७२३-७२५ हिंडंतस्स तिम्मति सो सो दुगुणो होइ, एक्कोत्ति पुणो अन्नो घेप्पइ, स च वर्षाकल्पादिदिगुणो भवति, आत्मरक्षणार्थ
वर्षासुद्विगुसंयमरक्षणार्थं च, तत्रात्मसंरक्षणार्थ यद्येकगुणा एव कल्पादयो भवन्ति ततश्च तेहिं तिक्षेहिं पोहसूलेणं मरति, संयमरक्ख-द
णिकगुणः ॥२१७॥ णत्थं जइ एक चेव कप अइमइल ओढेऊणं नीहरइ तो तस्स कप्पस्स जं पाणियं पडइ तिनस्स तेणं आउकाओ विण- यधाकृताद हिस्सइ, शेषस्त्ववधिरेकगुण एव भवति न द्विगुण इति । किश्च
Bण्डादिःनि.
७२६-७२८ जं पुण सपमाणाओ ईसिं हीणाहियं व लंभेजा । उभयपि अहाकडयं न संधणा तस्स छेदो वा ॥ ७२७॥ ।
यत्पुनः कल्पादिरुपकरण स्वप्रमाणादीषद्धीनमधिकं वा लभ्येत तदुभयमिति-ओहियस्स उवग्गहियस्स वा यदिवा उभयं लातदेव हीनमधिकं या लब्धं सत् 'अहाकर्ड' यथाकृतमल्पपरिकर्म यलभ्यते तस्य न सन्धना क्रियते हीनस्य तथा न छेदः ६ क्रियतेऽधिकस्य । किञ्च,दंडए लट्ठिया चेव, चम्मए चम्मकोसए । चम्मच्छेदण पद्धेवि चिलिमिली धारए गुरू ॥ ७२८ ॥
२१७॥ अयमपर औपग्रहिको भवति साधो, साधोश्चावधिदण्डको भवति, दण्डकश्च यष्टिश्च चेवग्रहणाद्वियष्टिश्चेति, अर्थ || सर्वेषामेव पृथक पृथगौपग्रहिकः, अयमपरो गुरोरेवौपग्रहिका, कश्चासौ ?-'चम्मए'त्ति वर्मकृतिछवडिया चर्मकोशका
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दीप अनुक्रम [१०८०]
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आगम
(४१ / १)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
||७२६||
दीप
अनुक्रम [१०८० ]
मूलं [१०८२] • मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) "निर्युक्तिः [७२८] + भाष्यं [ ३२२... ] + प्रक्षेपं [३०...]" ८० आगमसूत्र [४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
जत्थ नहरणाई छुम्भति, तथा 'चर्मच्छेदः' वर्द्धपट्टिका, यदिवा 'धर्मच्छेदनकं' पिप्पलकादि, तथा 'पट्टे'त्ति योगपट्टकः चिलिमिली चेति एतानि धर्मादीनि गुरोरौपग्रहिकोऽवधिर्भवतीति ।
जं चण्ण एवमादी तवसंजमसाहगं जइजणस्स । ओहाइरेगगहियं ओवग्गहियं वियाणाहि ॥ ७२९ ॥ यच्चान्यद्वस्तु एवमादि उपानहादि, तपः संयमयोः साधकं यतिजनस्य ओघोपधेरतिरिक्तं गृहीतमौपग्रहिकं तद्विजानीहि । इदानीं यदुक्तं 'यष्यादि औपग्रहिकं भवति साधूनां' तत्स्वरूपं प्रतिपादयन्नाह
लही आपपमाणा विलहि चडरंगुलेण परिहीणा । दंडो बाहुपमाणो विदंडओ कक्खमेत्तो उ ॥ ७३० ॥ यष्टिरात्मप्रमाणा, वियष्टिरात्मप्रमाणाच्चतुर्भिरङ्गलैर्म्यूना भवति, दण्डको 'बाहुप्रमाण:' स्कन्धप्रमाणः, विदण्डकः कक्षाप्रमाणोऽन्या नालिका भवति आत्मप्रमाणाच्चतुर्भिरङ्गलैरतिरिक्ता, तत्थ नालियाए जलधाओ मिज्झइ, लट्ठीए जबणिया बज्झइ, विलडी कहंचि उवस्सयवारघट्टणी होइ, दंडओ रिजवद्धे घेप्पति भिक्खं भमंतेहिं विदंडओ वरिसाकाले घेण्पइ, जं सो लहुयरओ होइ कप्परस अभिंतरे कयओ निजइ जेण आउकाएण न फुसिज्जइति । इदानीं यष्टिलक्षणप्रतिपादनायाह
एकपर्व पसंसंति, दुपञ्चा कलहकारिया । तिपदा लाभसंपन्ना, चउपवा मारणंतिया । ७३१ ॥ पंचपदा उ जा लट्ठी, पंथे कलह निवारणी । छचपचा य आर्यको सत्तपञ्चा अरोगिया ॥ ७३२ ॥ चउरंगुलपइडाणा, अहंगुलसमूसिया । सप्तपदा उ जा लट्ठी, मसागयनिवारिणी ॥ ७३३ ॥
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१०८८] → “नियुक्ति: [७३४] + भाष्यं [३२२...] + प्रक्षेपं [३०...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||७३४||
वृत्तिः
दीप अनुक्रम [१०८८]
दीपग्रहिक श्रीओघ-18 अट्ठपवा असंपत्ती, नवपच्चा जसकारिया । दसपवा उ जा लट्ठी, तहियं सचसंपया ॥ ७३४ ॥
लक्षणं नि. नियुक्तिः वंका कीडक्खहया चित्तलया पोलडा य दहा य । लट्ठी य उम्भसुका वजेयवा पयत्तेणं ॥ ७३५ ॥ द्रोणीया विसमेमु य पचेसुं, अनिष्फनेसु अच्छिम् । फुडिया फरुसवन्ना य, निस्सारा चेव निंदिया ।। ७३६ ॥
७२९ दण्डतणूई पबमोसु, धूला पोरेसुगंठिला । अथिरा असारजरदा, साणपाया य निंदिया ॥ ७३७ ॥
लक्षणालक्ष
णानि नि. घणवद्धमाणपया निद्धा बन्नेण एगवना य । घणमसिणवट्टपोरा लट्ठि पसत्था जइजणस्स ।। ७३८॥ । ॥२१॥
C७३०-७३८ ____ चत्वार्यङ्गलान्यधः प्रतिष्ठानं यस्या यष्टेः सा तथोच्यते, अष्टी अङ्गुलानि सर्वोपरि उच्छ्रिता या सा अष्टाङ्गलोच्छ्रिता ।। दण्डप्रयो|शेष सुगमम् । विषमेषु पर्वसु सत्सु यष्टिर्न ग्राह्या, एतदुक्तं भवति-एक पर्व लघु पुनर्वृहत्प्रमाणं पुनर्खघु पुनर्वृहत्प्रमाण- जनं ७३९ मित्येवं या विषमपर्वा सा न शस्ता, तथाऽनिष्पन्नानि चाक्षीणि-बीजप्रदेशस्थानानि यस्याः सा निंदिता, तथा स्फुटिता 'परुषवर्णा रुक्षवणेत्यर्थः, तथा 'निःसारा' प्रधानगर्भरहितेत्यर्थः, सर्वविधा निन्दितेति । तथेयं निन्दिता-तन्वी पर्वमध्ये च 'स्थूला' ग्रन्थियुक्ता, तथा 'अस्थिरा' अदृढा, तथा 'असारजरढा' अकालवृद्धत्यर्थः, तथा 'श्वपादा' च अधः श्वपादरूपा वर्नुला या यष्टिः सा निन्दितेति । धनानि वर्द्धमानानि च पर्याणि यस्याः सा तथोच्यते, तथा स्निग्धा वर्णन एकवर्णा च, तथा धनानि-निबिडानि मसणानि वर्तुलानि च पोराणि यस्याः सा तथोच्यते । एवंविधा यष्टियतिजनस्य २१८॥ प्रशस्तेति । आह-किं पुनरनया करणम् ?, उच्यते,दुद्दपसुसाणसावयचिक्खलविसमेसु उद्गमसु । लट्ठी सरीररक्खा तवसंजमसाहिया भणिया ॥७३९ ।।
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१०९३] → “नियुक्ति: [७३९] + भाष्यं [३२२...] + प्रक्षेपं [३०...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||७३९||
दुष्टाश्च ते पशवश्च श्वानुश्च श्वापदाश्च तेषां संरक्षणार्थ यष्टिगुह्यते, तथा 'चिक्खलः' सकर्दमः प्रदेश तथा विषमेष रक्षणार्थ, तथोदकमध्येषु च रक्षणार्थं यष्टिग्रहणं क्रियते, तथा तपसः संयमस्य च साधिका यष्टिभणितेति । कथं तपःसंयमसाधिका ? इत्यत आह
मोक्खवा नाणाई तणू तयट्ठा तयडिया लट्ठी। दिहो जहोवयारो कारणतकारणेसुतहा ॥ ७४०॥ | मोक्षार्थ ज्ञानादीनि इष्यन्ते, ज्ञानादीनां चार्थाय तनुः-शरीरमिष्यते, तदर्था च यष्टिः शरीरार्धेत्यर्थः शरीरं यतः यध्यायपकरणेन प्रतिपाल्यते, अत्र च कारणतत्कारणेखूपचारो दृष्टो यथा घृतं वर्षति अन्तरिक्षमिति, एवं मोक्षस्य ज्ञानादीनि कारणानि ज्ञानादीनां च तनुः कारणं शरीरस्य च यष्टिरिति । किञ्च-न केवलं ज्ञानादीनां यष्टिरुपकरणं वर्तते, अन्यदपि यज्ज्ञानादीनामुपकरोति तदेवोपकरणमुच्यते, एतदेवाह
जं जुज्जइ उबकरणे उवगरणं तं सि होइ उवगरणं । अतिरेगं अहिगरणं अजतो अजयं परिहरतो ॥ ७४१॥ __यदुपकरणं पात्रकादि उपकारे ज्ञानादीनामुपयुज्यते तदेवोपकरणं 'से' तस्य साधोर्भवति, यत्पुनरतिरेक-ज्ञानादीनामुपकारे न भवति तत्सर्वमधिकरणं भवति, किंविशिष्टस्य सतः ?-'अयतः' अयत्नवान् 'अयत' अयतनया 'परिहरन्
प्रतिसेवमानस्तदुपकरणं भवतीति, 'परिहरंतो'त्ति इयं सामयिकी परिभाषा प्रतिसेवनार्थे वर्त्तत इति । किनका जग्गमउप्पायणासुज, एसणादोसवजियं । उवहिं धारए भिक्खू, पगासपडिलेहणं ॥ ७४२॥
उग्गमउप्पायणासुद्ध, एसणादोसवज्जियं । उवहिं धारए भिक्खू, जोगाणं साहणवया ॥ ७४३ ॥
दीप अनुक्रम [१०९३]
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आगम
(४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१०९८] → “नियुक्ति: [७४४] + भाष्यं [३२२...] + प्रक्षेपं [३०...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
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प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||७४४||
श्रीओघनियुक्ति द्रोणीया वृत्तिः
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॥२१९
उगमपुष्पायणासुर्ज, एसणादोसवज्जियं । उवहिं धारए भिक्खू, अध्पदुट्ठो अमुच्छिओ ।। ७४४ ॥
दण्डस्योप
करणताअअज्झत्थविसोहीए उवगरणं बाहिरं परिहरंतो । अपरिग्गहीत्ति भणिओ जिणेहिं तेलुकदंसीहि ७४५ ॥
[धिकस्याधि | उग्गमउपायणासुद्धं, एसणादोसवज्जियं । उवहिं धारण भिक्खू, सदा अज्झस्थसोहिए ॥ ७४६ ॥
करणताउएवंगुणविशिष्टामुपधि धारयेभिक्षुः, किंविशिष्टामित्यत आह-'पगासपडिलेहण' प्रकाशे-प्रकटप्रदेशे प्रत्युपेक्षणं क्रियते|
पधिधारणे यस्या उपधेस्तामेवंगुणविशिष्टामुपधिं धारयेत् , एतदुक्तं भवति-यस्याः प्रकटमेव कल्पाद्युपधेः प्रत्युपेक्षणा क्रियते न तु
उपरिग्रह
|ता नि. महार्घमौल्याचारभयादभ्यन्तरे या क्रियते सा तादृशी उपधिर्धारणीयेति । सुगमा, नवरं योगाः-संयमात्मका गृह्यन्ते७४६-७४७ तेषां साधनार्थमिति । सुगमा, नवरं अप्रद्विष्टः अमूच्छितः साधुरिति । सुगमा, नवरम्-अध्यात्मविशुद्ध्या हेतुभूतया धारयेत् । किंच-उपकरणं बाह्य-पात्रकादि 'परिहरंतो' प्रतिसेवयनपरिग्रहो भणितो जिनैस्त्रैलोक्यदर्शिभिः अतो यत्किचिद्धर्मोपकरणं तत्परिग्रहो न भवति । अत्राह कश्चिद् बोटिकपक्षपाती-यधुपकरणसहिता अपि निर्गन्था उच्यन्ते एवं तर्हि टू गृहस्था अपि निर्गन्धाः, यतस्तेऽप्युपकरणसहिता वर्तन्ते, अत्रोच्यतेअजाप्पविसोहीए जीवनिकाएहिं संथडे लोए। देसियमहिंसगतं जिणेहिं तेलोकदंसीहिं ॥ ७४७॥
16 ॥२१९॥ नन्विदमुक्तमेव यदुताध्यात्मविशुद्ध्या सत्युपकरणे निम्रन्थाः साधवः, किना-यद्यध्यात्मविशुद्धिर्नेष्यते ततः 'जीप-151 |निकाएहि संधडे लोए'त्ति"जीवनिकायैः' जीवसङ्कातैरय लोकः संस्तृतो वर्तते, ततश्च जीवनिकायसंस्तृते-च्याप्ते लोके ।
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दीप अनुक्रम [१०९८]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [११०१] → “नियुक्ति: [७४७] + भाष्यं [३२२...] + प्रक्षेपं [३०...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||७४७||
कथं नग्नकश्चकमन् वधको न भवति यद्यध्यात्मविशुद्धिर्नेष्यते, तस्मादध्यात्मविशुध्या देशितमहिंसकत्वं जिनखेलोक्यहै दर्शिभिरिति । क प्रदर्शितं तदित्यत आहउचालियमि पाए ईरियासमियस्स संकमहाए । वावजेज कुलिंगी मरिज तं जोगमासज्जा ॥ ७४८॥ न य तस्स तन्निमित्तो बंधो सुहमोवि देसिओ समए । अणवजो उ पओगेण सबभावेण सो जम्हा ॥ ७४९ ॥
'उच्चालिते' उत्पाटिते पादे सति ईर्यासमितस्य साधोः सङ्कमार्थमुत्पाटिते पादे इत्यत्र संबन्धः, व्यापद्येत संघटनपरितापनैः, कः-'कुलिङ्गी' कुत्सितानि लिङ्गानि-इन्द्रियाणि यस्यासौ कुलिङ्गी-द्वीन्द्रियादिः, स परिताप्येत उत्पाटिते पादे |
सति,नियते चासौ कुलिङ्गी, 'त' व्यापादनयोगम् 'आसाद्य प्राप्य । न च तस्य तन्निमित्तो बन्धः सूक्ष्मोऽपि देशितः है 'समय सिद्धान्ते, किं कारण ?, यतोऽनवद्योऽसौ साधुस्तेन 'व्यापादनप्रयोगेण' व्यापादनव्यापारेण, कथं ?-'सर्व
भावेन' सर्वात्मना, मनोवाक्कायकर्मभिरनवद्योऽसौ यस्मात्तस्मान्न सूक्ष्मोऽपि बन्धस्तस्येति । किंचनाणी कम्मरस खयहमुडिओऽणुट्टितो य हिंसाए । जयइ असदं अहिंसत्यमुडिओ अवहओ सोउ ॥७५० ॥ तस्स असंचेअयओ संचेययतो य जाइं सत्ताई। जोगं पप्प विणस्संति नत्थि हिंसाफलं तस्स ॥ ७५१ ॥ जोय पमत्तो पुरिसो तस्स यजोगं पहुंच जे सत्ता । वावज्जते नियमा तेर्सि सोहिंसओ होइ ॥ ७५२॥ जेवि न वावजती नियमा तेसिं पहिंसओ सो उ । सावज्जो उ पओगेण सषभावेण सो जम्हा ॥ ७५३ ॥ | ज्ञानमस्यास्तीति ज्ञानी-सम्यगज्ञानयुक्त इत्यर्थः, कर्मणः क्षयार्थ चोत्थित उद्यत इत्यर्थः, तथा हिंसायामनवस्थितः
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दीप अनुक्रम [११०१]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [११०७] → “नियुक्ति: [७५३] + भाष्यं [३२२...] + प्रक्षेपं [३०...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||७५३||
श्रीओष- प्राणिव्यपरोपणे न व्यवस्थित इत्यर्थः, तथा जयति कर्मक्षपणे प्रयत्न करोतीत्यर्थः, 'असति शठभावरहितो यलं करोति अध्यात्मशु नियुक्तिःन पुनर्मिध्याभावेन सम्यगज्ञानयुक्त इत्यर्थः, तथा 'अहिंसत्यमुहिओं त्ति अहिंसार्थ 'उस्थिता' उद्युक्तः किन्तु सहसा वावहिंसद्रोणीया कथमपि यलं कुर्वतोऽपि प्राणिवधः संजातः स एवंविधः अवधक एव साधुरिति । तत्रानया गाथया भङ्गका अष्टौ सूचिता- कता नि. वृत्तिः स्तद्यथा-नाणी कम्मस्स खयटुं उडिओ हिंसाए अणुडिओ १, नाणी कम्मखयहमुडिओ हिंसाए य ठिओ २ नाणी कम्मस्स।
७४८-७४९
प्रमत्ताप्रम॥२२०॥
खयहूँ नवि ठिओ हिंसाए पुण पमत्तोऽवि नवि ठिओ, देवजोगेण कहवि तप्पएसे पाणिणो नासी, एस तइमो असुद्धो यSTREET ३ नाणी कम्मस्स खयटुं नो ठिओ हिंसाए य ठिओ ४ तथा अज्ञानी मिथ्याज्ञानयुक्त इत्यर्थः कम्मस्स खयट्ठमुडिओ हिंसाए हिंसे नि. न ठिओ ५ अन्नाणी कम्मखयट्ठमुदिओ हिंसाए य ठिओ ६ अन्नाणी कम्मस्स खयह नोटिओ हिंसाए य णोदिओ एस सत्तमो, ७५०.७५३ अन्नाणी कम्मस्स खयट्ठ णोडिओ हिंसाए य ठिओ एस अट्ठमो, तत्र गाथाप्रथमार्डेन शुद्धः प्रथमो भङ्गकः कथितः, पश्चा-18 न च द्वितीयभङ्गका सूचितः, कथं ?, जयतित्ति कर्मक्षपण उद्यतः, 'असहति सम्यगज्ञानसंपन्नः 'अहिंसत्थमुडिओ'त्ति अहिंसायां 'उत्थितः' अभ्युद्यतः, किन्तु सहसा प्रयत्नं कुर्वतः प्राणिषधः संजातः स चैवंविधोऽवधकः शुद्धभावत्वात् ।। |'तस्य' एवंप्रकारस्य ज्ञानिनः कर्मक्षयार्थमभ्युद्यतस्य 'असंचेतयतः' अजानानस्य, किं , सत्त्वानि, कथं -प्रयत्न-18 वतोऽपि कथमपि न दृष्टः प्राणी व्यापादितश्च, तथा 'संचेतयतः जानानस्य कथमस्त्यत्र प्राणी ज्ञातो दृष्टश्च न च ॥२२०॥ प्रयत्नं कुर्वताऽपि रक्षितुं पारितः, ततश्च तस्यैवंविधस्य यानि सत्त्वानि 'योग' कायादि प्राप्य विनश्यन्ति तत्र नास्ति | तस्य साधोहिंसाफल-साम्परायिक संसारजननं दुःखजननमित्यर्थः, यदि परमीर्याप्रत्ययं कर्म भवति, तवैकस्मिन् समये|
दीप अनुक्रम [११०७]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [११०७] → “नियुक्ति: [७५३] + भाष्यं [३२२...] + प्रक्षेपं [३०...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
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गाथांक नि/भा/प्र ||७५३||
बद्धमन्यस्मिन् समये क्षपयति । यश्च प्रमत्तः पुरुषस्तस्यैवंविधस्य संवन्धिनं 'योग' कायादि 'प्रतीत्य' प्राप्य ये सत्या व्यापाद्यन्ते 'तेषां सत्त्वानां 'नियमादू' अवश्य 'सः पुरुषो हिंसको भवति तस्मात्प्रमत्तताभाजि कर्मबन्धकारणानि।। येऽपि सत्त्वा न व्यापाद्यन्ते तेषामष्यसी नियमाद्धिंसकः, कर्थ ?, 'सावज्जो उपयोगेण' सहापद्येन वर्तत इति सावद्य:सपाप इत्यर्थः, ततश्च सावद्यो यतः 'प्रयोगेण' कायादिना 'सर्वभावेन' सर्वैः कायवाडमनोभिः, अतः अव्यापादयन्नपि व्यापादक एवासी पुरुषः सपापयोगत्वादिति । यतबैवमतः
आया चेव अहिंसा आया हिंसत्ति निच्छओ एसो।जो होइ अप्पमत्तो अहिंसओ हिंसओ इयरो ॥७५४॥ | आत्मैवाहिंसा आत्मैव हिंसा इत्ययं निश्चय इत्यर्थः । कथमसावहिंसकः कथं वा हिंसकः ? इत्यत आह-'जो होई इत्यादि, यो भवति 'अप्रमत्तः' प्रयलवानित्यर्थः स खल्वेवंविधोऽहिंसको भवति, 'हिंसओ इयरो'त्ति 'इतर' प्रमत्तो
यः स हिंसको भवतीत्ययं परमार्थः । अथवाऽनेनाभिप्रायेणेयं गाधा व्याख्यायते, तत्र नैगमस्य जीवेष्वजीवेषु च हिंसा, है तथा च वक्तारो लोके दृष्टाः, यदुत जीवोऽनेन हिंसितो-विनाशितः, तथा घटोऽनेन हिंसितो-विनाशितः, ततश्च सर्वत्र हिंसाशब्दानुगमात् जीवेष्वजीवेषु च हिंसा नैगमस्य, अहिंसाऽप्येवमेवेति, सनव्यवहारयोः षट्सु जीवनिकायेषु हिंसा, स-| वहश्चात्र देशमाही द्रष्टव्यः सामान्यरूपश्च नैगमान्तर्भावी, व्यवहारश्च स्थूलविशेषग्राही लोकव्यवहरणशीलश्चार्य, तथा चाह-लोको बाहुल्येन षट्स्वेव जीवनिकायेषु हिंसामिच्छतीति, ऋजुसूत्रश्च प्रत्येक प्रत्येकं जीवे जीवे हिंसा व्यतिरिक्तामिच्छतीति, शब्दसमभिरूडैवंभूताश्च नया आत्मैवाहिंसा आत्मैव हिंसेति, एतदभिप्रायेणवाह-'आया चेव' इत्यादि, आत्मैवा
दीप अनुक्रम [११०७]
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आगम
(४१ / १)
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गाथांक
नि/भा/प्र
||७५४||
दीप
अनुक्रम
[११०८]
श्रीश्रोषनिर्युतिः
द्रोणीया
वृति:
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“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) "निर्युक्तिः [७५४] + भाष्यं [ ३२२...] + प्रक्षेपं [३०...]"
मूलं [११०८ ] • मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
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आगमसूत्र [४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
हिंसा आत्मैव हिंसा इत्ययं निश्चयनयाभिप्रायः कुतः १, यो भवत्यप्रमत्ती जीवः स खल्वंहिंसकः, इतरश्च प्रमत्तः, ततश्च स एव हिंसको भवति, तस्मादात्मैवाहिंसा आत्मैव हिंसा अयं निश्चयः - परमार्थ इति । इदानीं प्रकारान्तरेण तथाविधपरिणामविशेषात् हिंसाविशेषं दर्शयन्नाह -
जो य पओगं जुंजह हिंसत्थं जो य अन्नभावेणं । अमणो उ जो पडंजर इत्थ विसेसो महं वृत्तो ॥ ७५५ ।। हिंसत्थं जुंजतो सुमहं दोसो अनंतरं इयरो । अमणो य अप्पदोसो जोगनिमित्तं च विन्नेओ ।। ७५६ ।। रतो वा दुट्ठो वा मूढो वा जं पउंजइ पओगं । हिंसावि तत्थ जाय तम्हा सो हिंसओ होइ ॥ ७५७ ।। न य हिंसामितेणं सावज्रेणावि हिंसओ होइ । सुद्धस्स उ संपत्ती अफला भणिया जिणवरेहिं ॥ ७५८ ॥ यश्च जीवप्रयोगं मनोवाक्कायकर्मभिहिंसार्थं युनक्ति प्रयुङ्क्ते यश्चान्यभावेन, एतदुक्तं भवति-लक्ष्यवेधनार्थं काण्डं क्षिप्तं यावताऽन्यस्य मृगादेर्लग्नं, ततश्चान्यभावेन यः प्रयोगं प्रयुङ्क्ते तस्यानन्तरोक्तेन पुरुषविशेषेण सह महान् विशेषः । तथा 'अमनस्कश्च' मनोरहितः - संमूर्च्छज इत्यर्थः, स च यं प्रयोगं कायादिकं प्रयुङ्क्ते, अत्र विशेषो महानुक्तः, एतदुक्तं भवति-यो जीवो मनोवाक्कायैहिंसार्थं प्रयोगं प्रयुङ्क्ते तस्य महान कर्मबन्धो भवति, यश्चान्यभावेन प्रयुङ्क्ते तस्याल्पतरः कर्मबन्धः यश्चामनस्कः प्रयोगं प्रयुङ्क्ते तस्याल्पतमः कर्मबन्धः, ततश्चात्र विशेषो महान् दृष्ट इति । एतदेव व्याख्यानयन्नाह - हिंसार्थ प्रयोगं प्रयुञ्जन् सुमहान् दोषो भवति, इतरश्च योऽन्यभावेन प्रयुङ्क्ते तस्य मन्दतरो दोषो भवत्यल्पतर इत्यर्थः, तथा 'अमन| स्कश्च' संमूर्च्छनजः प्रयोगं प्रयुञ्जन् अल्पतरतमदोषो भवति । अतो 'योगनिमित्तं' योगकारणिकः कर्मबन्धो विज्ञेय
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आत्महिचा हिंसे नि.
७५४ज्ञाना दिभिहिंसा
यां तारत
ज्यं नि.
७५५-७५८
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१११२] → “नियुक्ति: [७५८] + भाष्यं [३२२...] + प्रक्षेपं [३०...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
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गाथांक नि/भा/प्र ||७५८||
इति । किश-रक्ता' आहारार्थ सिंहादिः, 'विष्टः' सर्पादिः, 'मूढः' वैदिकादिः, स एवंविधो रक्तो वा द्विष्टो वा| मूढो वा ये 'प्रयोग' कायादिक प्रयुक्ने तत्र हिंसाऽपि जायते, अपिशब्दावनृतादि चोपजायते, अथवा हिंसाऽप्येवं रक्तादिभावेनोपजायते न तु हिंसामात्रेणेति वक्ष्यति, तस्मात्स हिंसको भवति यो रक्तादिभावयुक्त इति, न च हिंसयैव हिंसको। भवति, तथा चाहन च हिंसामात्रेण सावधेनापि हिंसको भवति, कुतः, शुद्धस्य पुरुषस्य कर्मसंप्राप्तिरफला भणिता जिनवरैरिति । किञ्च|जा जयमाणस्स भये घिराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स । सा होइ निजरफला अज्झस्थविसोहिजत्तस्स ।।७५९॥ परमरहस्समिसीणं समत्तगणिपिंडगझरितसाराणं । परिणामियं पमाणं निच्छयमवलंबमाणाणं ॥७६०॥ निच्छयमवलंयंता निच्छयओ निच्छयं अयाणंता । नासंति चरणकरणं वाहिरकरणालसा केइ ॥ ७६१॥
या विराधना यतमानस्य भवेत् , किंविशिष्टस्य सतः १-सूत्रविधिना समप्रस्य-युक्तस्य गीतार्थस्येत्यर्थः, तस्यैवं विधस्य या भवति विराधना सा निर्जराफला भवति, एतदुक्तं भवति-एकस्मिन् समये बद्धं कर्मान्यस्मिन् समये क्षपयतीति, किंविशिष्टस्य :-'अध्यात्मविशोधियुक्तस्य' विशुद्धभावस्थेत्यर्थः । किच,-परम-प्रधानमिदं रहस्य-तत्त्वं, केषाम् ?-'ऋषीणां' सुविहितानां, किंविशिष्टानां -समर्म च तद् गणिपिटगं च समप्रगणिपिटकं तस्य क्षरितः-पतितः सार:-प्राधान्यं यैस्ते समग्रगणिपिटकक्षरितसारास्सेषामिदं रहस्य, यदुत 'पारिणामिकं प्रमाणं' परिणामे भवं पारिणामिकं, शुद्धोऽशुद्धश्च चित्तपरिणाम इत्यर्थः, किंविशिष्टानां सतां पारिणामिकं प्रमाणं ?-निश्चयनयमवलम्बमानानां, यतः शन्दादिनिश्चयनयानामिद
दीप अनुक्रम [१११२]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१११५] → “नियुक्ति: [७६१] + भाष्यं [३२२...] + प्रक्षेपं [३०...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
श्रीओघ
द्रोणीया
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||७६१||
द मेव दर्शनं, यदुत-पारिणामिकमिच्छन्तीति । आह-यद्ययं निश्चयस्ततोऽयमेवावलम्ब्यतां किमन्येनेति , उच्यते- यतनयानि
निश्चयमवलम्बमानाः पुरुषा 'निश्चयतः' परमार्थतो निश्चयमजानानाः सन्तो नाशयन्ति चरणकरणं, कथं -'बाह्यकर- जरा निश्च
पणालसाः' बाह्य-पैयावृत्त्यादि करणं तत्र अलसाः-प्रयलरहिताः सन्तश्चरणकरणं नाशयन्ति, केचिदिदं चाङ्गीकुर्वन्ति यव्यवहारी वृत्तिः यदुत परिशुद्धपरिणाम एव प्रधानो नतु बाह्यक्रिया, एतच्च नाङ्गीकर्तव्यं, यतः परिणाम एर बाह्यक्रियारहितः शुद्धो न
नि. ७५९
७६१माय भवतीति, ततश्च निश्चयव्यवहारमतमुभयरूपमेवाङ्गीकर्तव्यमिति । उक्तमुपधिद्वारम् , इदानीमायतनद्वारव्याचिख्यासया ॥२२२॥
तनेतरेनि. |संबन्ध प्रतिपादयन्नाह
७६२.७६३ एवमिणं उवगरणं धारेमाणो विहीसुपरिसुद्धं । हवति गुणाणायतणं अविहि असुद्धे अणाययणं ॥७६२॥
"एवम्' उक्तन्यायेन उपकरणं धारयन् विधिना 'परिशुद्धं' सर्वदोषवर्जित, किं भवति ?-गुणानामायतनं-स्थानं । भवति । अथ पूर्वोक्तविपरीतं क्रियते यदुताविधिना धारयति अविशुद्धं च तदुपकरणं, ततोऽविधिनाऽशुद्धं प्रियमाणं तदे| वोपकरणम् 'अनायतमम्' अस्थानं भवतीति । इदानीमनायतनस्यैव पर्यायशब्दान् प्रतिपादयन्नाह--
सावजमणायतणं असोहिठाणं कुसीलसंसग्गी। एगट्ठा होति पदा एते विवरीय आयपणा ॥ ७६३ ॥ सावद्यमनायतनमशोधिस्थानं कुसीलसंसग्गी, एतान्येकार्थिकानि पदानि भवन्ति, एतान्येव च विपरीतानि आयतने ॥२२२॥ भवन्ति, कथम् -असावद्यमायतनं शोधिस्थानं सुसीलसंसग्गीति । अत्र चानायतनं वर्जयित्वाऽऽयतनं गवेषणीयम् , एतदेवाह--
दीप अनुक्रम [१११५
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१११७] → “नियुक्ति: [७६३] + भाष्यं [३२२...] + प्रक्षेपं [३०...] .
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-[२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||७६३||
बजेत्तु अणायतणं आयतणगवेसणं सया कुजा । तं तु पुण अणाययणं नायई दवभावेणं ॥ ७६४ ॥ दवे रुहाइधरा अणायतणं भावओ दुविहमेव । लोइयलोगुत्तरियं तहियं पुण लोइयं इणमो ॥ ७६५॥ खरिया तिरिक्खजोणी तालयर समण माहण सुसाणे। बग्गुरिय वाह गुम्मिय हरिएस पुलिंद मच्छंधा ॥७६६॥ खणमविन खमं गंतुं अणायतणसेवणा मुविहियाणं । जंगंध होइ वर्ण तंगधं मारुओ वाइ ॥७६७ ॥ जे अन्ने एवमादी लोगंमि दुगुंछिया गरहिया य । समणाण व समणीण व न कप्पई तारिसे वासो ॥ ७६८॥ अह लोउत्तरियं पुण अणायतणं भावतो मुणेयवं । जे संजमजोगाणं करेंति हाणि समत्थावि ।। ७६९ ॥ अंबस्स य निंबस्स य दुहंपि समागयाई मूलाई। संसग्गीऍ विणट्ठो अंयो निबत्तणं पत्तो॥ ७७०॥ सुचिरंपि अच्छमाणो नलथंघो उच्छुवाडमझमि । कीस न जायइ महुरो जइ संसग्गी पमाणं ते ? ॥७७१ ॥ सुचिरंपि अच्छमाणो वेरुलिओ कायमणियओमीसे । न उवेइ कायभावं पाहन्नगुणेण नियएण ॥ ७७२ ।। भावुगअभावुगाणि य लोए दुविहाई हुंति दबाई। वेरुलिओ तत्थ मणी अभावुगो अन्नदवेणं ॥ ७७३ ॥ ऊणगसयभागेणं चिंबाई परिणमति तब्भाचं । लवणागराइसु जहा बजेह कुसीलसंसग्गी ॥ ७७४ ।।
वर्जयित्वाऽनायतनमायतनस्य गवेषणं 'सदा' सर्वकालं कुर्यात् , तत्पुनरनायतनं द्रव्यतो भावतश्च ज्ञेयम् । तत्र द्रव्यानायतनं प्रतिपादयन्नाह 'द्रव्ये द्रव्यविषयमनायतनं रुद्रादीनां गृहम् । इदानीं भावतोऽनायतनमुच्यते, तत्र भावतो| है द्विविधमेव-लौकिकं लोकोत्तरं च, तत्रापि लौकिकमनायतनमिदं वर्त्तते-खरिए'त्ति यक्षरिका यत्रास्ते तदनायतनं,
दीप अनुक्रम [१११७]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [११२८] → “नियुक्ति: [७७४] + भाष्यं [३२२...] + प्रक्षेपं [३०...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
श्रीओघ-
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||७७४||
द्रोणीया वृत्तिः
॥२२॥
तथा तिर्यग्योनयश्च यत्र तदयनायतनं, तालायरा-चारणास्ते यत्र तदनायतन, श्रमणाः-शाक्यादयते यत्र, तथा प्राह्मणा अनायतनयत्र तदनायतनं , श्मशानं चानायतनं, तथा वागुरिका-थ्याधा गुल्मिका-गोत्तिपाला हरिएसा पुलिन्दा मत्स्यबन्धाश्च यत्र वर्जनं नि. तदनायतनमिति, एतेषु चानायतनेषु क्षणमपि न गन्तव्यम्, तथा चाह-क्षणमपिन क्षम' योग्यमनायतनं गन्तुं, तथा सेवना
७६४-७७४ चानायतनस्य सुविहितानां कर्नु 'न क्षमं' न युक्तं, यतोऽयं दोषो भवति-'जंगं, होइ वणं तंगधं मारुओ वातित्ति सुगमम् । येऽन्ये एवमादयो लोके जुगुप्सिता गर्हिताश्च ब्यक्षरिकाद्यनायतनविशेषास्तत्र श्रमणानां श्रमणीनां वा न कल्पते तादृशे वास इति । उक्तं लौकिक भावानायतनम् , इदानीं लोकोत्तरं भावानायतनं प्रतिपादयन्नाह-अथ लोकोत्तरं पुनर-14 नायतनं भावत इदं ज्ञातव्यं, ये प्रबजिताः संयमयोगानां कुर्वन्ति हानि समर्धा अपि सन्तस्तल्लोकोत्तरमनायतनम् । तैश्चैव-18 विधैः संसर्गी न कर्त्तव्या, यत आह-अवेत्यादि सुगमा ॥ पर आह-सुइर' मित्यादि सुगमा ॥ तथा पर 8 एवाह-'सुइर'मित्यादि सुगमा । आचार्य आह-द्रव्याणि द्विविधानि भवन्ति-भावुकानि अभाबुकानि च, तत्रामवृक्षो| भावुको वर्त्तते नलस्तम्बश्चाभावुकः, ततश्चाभावुकमङ्गीकृत्यैतद् द्रष्टव्यमिति, यानि पुनर्भावुकानि द्रव्याणि तेषां न्यूनो यः शततमो भागः स यदि लवणादिना व्याप्यते ततस्तद्रव्यं चर्मादि लवणभावेन परिणमति । एतदेवाह-न्यूनश्वासी शत|तमभागश्च न्यूनशततमभागस्तेन न्यूनशततमभागेन लवणादिव्याप्तेन 'विम्यानि' चर्मकाष्ठादीनि तानि लवणेन-न्यून
॥२२॥ | शततमभागस्पृष्टेन 'तद्भावं लवणभावं परिणमन्ति लवणाकरादिषु यथा, एतदुक्तं भवति-काष्ठादिबिम्बस्य शततमो यो ।
दीप अनुक्रम [११२८]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [११२८] → “नियुक्ति: [७७४] + भाष्यं [३२२...] + प्रक्षेपं [३०...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||७७४||
विभागोऽसावपि न्यूनः स एवंविधो लवणाकरादिषु यदि स्पर्श प्राप्नोति ततस्तत्काष्ठं सर्व लवणरूपं भवति, तस्मात्स्तो
काऽपि कुशीलसंसर्गिबहुमपि साधुसङ्घात दूषयति यस्मात्तस्माद्वर्जयेत् कुशीलसंसर्गमिति । तथा,माजीचो अणाइनिहणो सम्भावणभाविओ य संसारे । खिप्पं सो भाविजइ मेलणदोसाणभावेणं ।। ७७५॥
जह नाम महरसलिलं सागरसलिलं कमेण संपत्तं । पावर लोणियभावं मेलणदोसाणुभावेणं ॥७७६ ।।
एवं खु सीलमंतो असीलमंतेहि मेलिओ संतो। पावइ गुणपरिहाणी मेलणदोसाणुभावेणं ।। ७७७॥ 18 सुगमाः॥ यस्मादेवं तस्मात्, दणाणस्स दंसणस्स य चरणस्स य जत्थ होइ उवघातो। बज्जेजचजभीरू अणाययणवजओ खिप्पं ॥ ७७८ ॥
ज्ञानस्य दर्शनस्य चारित्रस्य च 'यन्त्र' अनायतने भवत्युपघातस्तद्वर्जयेदवद्यभीरु:-साधुः, किंविशिष्टः -अनायतनं वर्जयतीति अनायतनवर्जकः, स एवंविधः क्षिप्रमनायतनमुपघात इति मत्वा वर्जयेदिति । इदानीं विशेषतोऽनायतनं प्रदर्शयन्नाहजत्थ साहम्मिया वहवे, भिन्नचित्ता अणारिया । मूलगुणपडिसेवी, अणायतणं तं चियाणाहि ॥७७१ ॥ जत्थ साहम्मिया बहवे, भिन्नचित्ता अणारिया । उत्सरगुणपडिसेवी, अणायतणं तं चियाणाहि ॥ ७८० ॥
जत्य साहम्मिया बहवे, भिन्नचित्ता अणारिया । लिंगवेसपडिच्छन्ना, अणायतणं तं चियाणाहि ॥ ७८१ ॥ PL सुगमा, नवरं-मूलगुणाः प्राणातिपातादयस्तान् प्रतिसेवन्त इति मूलगुणप्रतिसेविनस्ते यत्र निषसन्ति तदनायतन
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [११३६] → “नियुक्ति: [७८१] + भाष्यं [३२२...] + प्रक्षेपं [३०...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र
||७८१||
श्रीओप- मिति । सुगमा, नवरम्-उत्तरगुणाः "पिंण्डस्स जा विसोही" इत्यादि, तत्प्रतिसेविनो ये । सुगमा, नवरं लिङ्गवेपमात्रेण अनायतना नियुकिः प्रतिच्छन्ना बाह्यतोऽभ्यन्तरतः पुनर्मूलगुणप्रतिसेविन उत्तरगुणप्रतिसेविनश्च ते यत्र तदनायतनमिति । उक्तं लोकोत्तर- यतने नि. द्रोणीया भावानायतनं, तत्प्रतिपादनाञ्चोक्तमनायतनस्वरूपम् , इदानीमायतनप्रतिपादनायाह
७७५-७८४ वृत्तिः
आययणपि य दुविहं दचे भावे य होइ नायवं । दमि जिणघराई भावंमि य होइ तिविहं तु ॥ ७८२॥ प्रतिषेवणा. जत्थ साहम्मिया बहवे, सीलमंता बहुस्सुया । चरित्तायारसंपन्ना, आययणं तं वियाणाहि ॥ ७८३ ॥
| भेदाः नि. ॥२२४ा
आयतनमपि द्विविध-द्रव्यविषये भावविषये च भवति, तत्र द्रव्ये जिनगृहादि, भावे भवति त्रिविधं ज्ञानदर्शनचारि-IN सत्ररूपमायतनमिति । 'जत्थे त्यादि सुगमा ।
सुंदरजणसंसगी सीलदरिदपि कुणइ सीलहूं । जह मेरुगिरीजायं तणपि कणगत्तणमुवेइ ।। ७८४ ॥ सुगमा । उक्तमायतनद्वारम् , इदानीं प्रतिसेवनाद्वारव्याचिख्यासया सम्बन्धप्रतिपादनायाहएवं खलु आययणं निसेवमाणस्स हुज्ज साहुस्स । कंटगपहे व छलणा रागहोसे समासन।। ७८५ ।। दारं ।
'एवम्' उक्तेन न्यायेन आयतनं सेवमानस्यापि साधोर्भवेत् कण्टकपथ इव छलना, किमासाथ, अत आह-रागद्वेपी समाश्रित्य । सा च रागद्वेषाभ्यां प्रतिसेवना द्विविधा भवति, एतदेवाह• पडिसेवणा य दुविहा मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य । मूलगुणे छट्ठाणा उत्तरगुणि होइ तिगमाई ॥ ७८६॥
॥२२४॥ प्रतिसेवनाऽपि द्विविधा-मूलगुणे उत्तरगुणे च, तत्र गूलगुणविषये प्रतिसेवना 'पदस्थाना' प्राणातिपातादिलक्षणा
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“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [११४०] → “नियुक्ति: [७८६] + भाष्यं [३२२...] + प्रक्षेपं [३०...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||७८६||
वक्ष्यति च, उत्तरगुणविषया च प्रतिसेवना भवप्ति निकादिका, तच्चेदं त्रिकम्-उद्गम उत्पादना एषणा च, एतदेव त्रिकमादिर्यस्या उत्तरगुणप्रतिसेवनायाः सा तथाविधा, आदिग्रहणात्समितयो भावना तपो द्विविधमित्येवमादीनि गृह्यन्ते । इदानीं मूलगुणान् व्याख्यानयनाह
हिंसालियचोरिके मेहुन्नपरिग्गहे य निसिभत्ते । इय छट्ठाणा मूले उग्गमदोसा य इयरंमि ॥ ७८७ ॥ हिंसाऽलीक चौर्य मैथुनं परिग्रहः तथा निशिभक्कं चेति, एवं षट्स्थाना मूलगुणप्रतिसेवना द्रष्टव्या, उद्गमदोषादिका चेतरा उत्तरगुणप्रतिसेवना द्रष्टव्या आदिग्रहणादुत्पादनैषणादयः परिगृह्यन्ते । इदानीं प्रतिसेवनाया एव एकाथिकानां है प्रतिपादनायाहपडिसेवणा महलणा भंगो य विराहणा य खलणा य । उवघाओ य असोही सवलीकरणं च एगट्ठा।।७८८॥
प्रतिसेवणा मइलणा भङ्गो विराधना खलना उपघातः अशोधिः शबलीकरणं चेत्येकार्थिकाः शब्दा इति । उक्तं प्रतिहै सेवनाद्वारम् , इदानीमालोचनाद्वारसंबन्धप्रतिपादनायाह| छट्ठाणा तिगठाणा एगतरे दोसु वावि छलिएणं । कायवा उ विसोही सुहा दुक्खक्खयहाए ॥ ७८९ ॥ - 'षट्रस्थाने' प्राणातिपातादिके उद्गमादिके च त्रिके, अनयोरेकतरे द्वयोर्वा 'छलितेन' स्खलितेन सता साधुना कर्तव्या विशुद्धिः, किंविशिष्टा ?-'शुद्धा' निष्कलङ्का दुःखक्षयार्थं कर्तव्येति । सा च विशुद्धिरालोचनापूर्विका भवतीतिकृत्वाडलोचना प्रतिपादयन्नाह
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [११४४] → “नियुक्ति: [७९०] + भाष्यं [३२२...] + प्रक्षेपं [३०...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||७९०||
आलोयणा उ दुविहा मूलगुणे चेच उत्तरगुणे य । एक्कका चउकन्ना दुवग्ग सिद्धावसाणा य ॥ ७९ ॥ मूलोत्तरप्र
आलोचना च द्विविधा-मूलगुणालोचना उत्तरगुणालोचना चेति, सा द्विविधाऽप्येकैका-मूलगुणालोचना उत्तरगुणा-18/तिषेवा नि. द्रोणीयालोचना च चतुष्कर्णा भवति 'दुवग्गत्ति द्वयोरपि साधुसाध्वीवर्गयोरेकैकस्य चतुष्कर्णा भवति, एक आचार्यों द्वितीयश्चा-७८७ प्रतिवृत्ति लोचकः साधुः एवं साधुवर्गे चतुष्कर्णा भवति, साध्वीवर्गेऽपि चतुष्कर्णा भवति, एका प्रवर्तिनी द्वितीया तस्या एव या आलो- पेवणका
४ चयति साध्वी, एवं साधुवर्गे साध्वीवर्गे च चतुष्कर्णा भवति, अथवा एकैका मूलगुणे उत्तरगुणे च चतुष्कर्णाद्वयोश्च साधुसाध्वी- थका नि. ॥२२५॥ वर्गयोर्मिलितयोरष्टकर्णा भवति, कधम् ?, आचार्य आत्मद्वितीयः प्रवर्तिनी चात्मद्वितीया आलोचयति यदा तदाऽष्टकर्णाट
७८८आलो
चनातदेका भवति, सामान्यसाध्वी वा यद्यालोचयति तदाऽप्यष्टकणैवेति, अहवा छकन्ना होजा यदा वुहो आयरिओ हवह तदा VIRTH एगस्सवि साहुणीदुगं आलोएइ एवं छकन्ना हवति, सबहा साहुणीए अप्पबितियाए आलोएअब न उएगागिणीएत्ति । एवं 8७९-७९१ तावदुत्सर्गत आचार्याय आलोचयति, तदभावे सर्वदेशेषु निरूपयित्वा गीतार्थायालोचयितव्यं, एवं तावद्यावत्सिद्धानाम-18 विशुद्धि प्यालोच्यते साधूनामभावे, ततश्चैवं सिद्धावसाना आलोचना दातव्येति । इदानीमालोचनाया एकार्थिकानि प्रतिपादयन्नाह- नि.७९२ | आलोयणा वियडणा सोही सम्भावदायणा चेव । निंदण गरिह विउदृण सलुद्धरणंति एगट्ठा ।। ७९१ ॥ आलोचना विकटना शुद्धिः सद्भावदायणा जिंदणा गरहणा विउदृर्ण सल्लुद्धरणं चेत्येकाथिकानीति । आलोचनाद्वारं समातम् , इदानीं विशुद्धिद्वारव्याचिख्यासयाऽऽहएत्तो सद्धरणं बुच्छामी धीरपुरिसपन्नत्तं । जं नाऊण सुविहिया करेंति दुक्खक्खयं धीरा ॥ ७९२ ।।
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आगम
(४१ / १)
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र
||७९३ ||
दीप
अनुक्रम
[११४६]
Educator
“ओघनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) "निर्युक्तिः [ ७९३] + भाष्यं [ ३२२... ] + प्रक्षेपं [३०...]"
मूलं [११४६ ] • मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
८०
आगमसूत्र [४१/१], मूल सूत्र- [ २/१] “ओघनिर्युक्ति” मूलं एवं द्रोणाचार्य विरचिता वृत्तिः
दुविहा य होइ सोही दवसोही य भावसोही य । दमि बस्थमाई भावे मूलत्तरगुणे ॥ ७९३ ॥ छत्तीसगुणसमन्नागएण तेणवि अवस्स कायवा । परसक्खिया विसोही सुवि ववहारकुसलेणं ॥ ७९४ ॥ जह सुकुसलोऽवि विज्जो अन्नरस कहेइ अप्पणो वाही। सोऊण तस्स विजभ्स सोवि परिकम्ममारभइ ।। ७९५ ।। | एवं जाणंतेणवि पायच्छित्तविहिमप्पणो सम्मं । तहवि य पागडतरयं आलोएतवयं होइ ॥ ७९६ ॥ गंतॄण गुरुसकासं काऊण य अंजलिं विणयमूलं । सवेण अत्तसोही कार्यवा एस उवएसो ॥ ७९७ ॥ नहु सुज्झई समल्लो जह भणियं सासणे धुवरयाणं । उद्धरियससल्लो मुज्झइ जीवो युयकिलेसो ॥ ७९८ ॥ सहसा अण्णाणेण व भीएण व पिलिएण व परेण । वसणेणायंकेण व मूढेण व रागदोसेहिं ॥ ७९९ ।। जं किंचि कयमक न हु तं लब्भा पुणो समायरिडं । तस्स पडिक्कमियां न हु तं हियएण वोट ॥ ८०० ॥ जह बालो जंपतो कज्जमकज्जं व उज्जुधं भणइ । तं तह आलोएजा मायामयविप्पमुको उ ॥ ८०१ ॥ तस्स य पायच्छितं जं मग्गविक गुरू उवइति । तं तह आयरियां अणवज्जपसंग भीएणं ॥ ८०२ ॥ नवि तं सत्यं व विसं व दुप्पउतो व कुणइ वेथालो । जंतं व दुप्पउत्तं सप्पो व पमाइणो कुद्धो ॥ ८०३ ॥ जं कुणइ भावसलं अणुद्धियं उत्तमद्वकालंमि । दुल्लभषोहीयसं अनंत संसारियतं च ॥ ८०४ ॥
अत ऊई शल्योद्धरणं वक्ष्ये धीरपुरुषप्रज्ञप्तं, 'यत्' शस्योद्धरणं ज्ञात्वा सुविहिताः कुर्वन्ति दुःखक्षयं धीरा इति । द्विविधा भवति शुद्धि:- द्रव्यशुद्धिश्च भावशुद्धिश्च तत्र 'द्रव्ये' द्रव्यविषया शुद्धिर्वस्त्रादीनामवगन्तव्या, भावे तु मूलोत्तरगुणेषु शुद्धि
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [११५८] → “नियुक्ति: [८०४] + भाष्यं [३२२...] + प्रक्षेपं [३०...] . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत
श्रीओघनियुक्तिः द्रोणीया वृत्तिः
गाथांक नि/भा/प्र ||८०४||
॥२२६॥
तिच्या, एतदुक्तं भवति-मूलगुणोत्तरगुणालोचनया भावशुद्धिर्भवतीति । एवं तावन्मूलगुणोत्तरगुणेषु छलितेनालोचना, विशुद्धिः दातव्या । इदानीं यस्मै आलोचना दीयते तेनाप्यालोचयितव्यमिति, एतदेव प्रदर्शयन्नाह-जातिकुलबलरूपादिषट्त्रिंशद्गुण- नि. ७९३समन्वितेनाप्यवश्य परसाक्षिकी शुद्धिः कर्त्तव्या सुष्टुपि ज्ञानक्रियाव्यवहारकुशलेन-सुविहितेनेति । अत्रोदाहरणं दीयते
८०४ यथा कुशलोऽपि वैद्योऽन्यस्मै वैद्याय कथयति आत्मच्याधि, श्रुत्वा च तस्य वैद्यस्य सोऽपि वैद्यो यस्मै कथितं स प्रतिकर्म आरभते । एवं जानताऽपि प्रायश्चित्तविधिमात्मनः सम्यकरणेन तथाऽपि प्रकटतरमालोचयितव्यमवश्यमिति। किञ्च-सुगमा। 'नहु' नैव शुद्ध्यति सशल्यः पुरुषः, कथं पुनः शुद्धयति ?, यथा भणितं धुतरजसो शासने तथा शुद्धयति, कथं पुनः शुध्यति अत आह-उदृतसर्वशल्यो जीवः शुद्ध्यति धुतक्लेश इति, तस्माद्यद्यपि कथमपि किश्चिदकार्य कृतं तथाऽप्यालोचयितव्यम् । कथं पुनस्तस्कृतं भवतीत्यत आह-'सहसा' अप्रतर्कितमेव प्राणिवधादिकमकार्य यदि कृतं ततस्तस्मात्प्रतिक्रमितच्या मित्येतत् द्वितीयगाथायां वक्ष्यते, अज्ञानेन च कृतं न तत्र प्राणी ज्ञातो व्यापादितश्च, भीतेन-आत्मभयात् मा भूदय मां मारयिष्यतीत्यतः प्राणव्यपरोपणं यदि कृतं, प्रेरितेन वा परेण यदि कृतं, व्यसनेन वा आपदा यदि कृतं आतङ्केन वाग्चराद्युपसर्गेण यदि कृतं मूढेन वा-रागद्वेषैर्यत्कृतं किश्चिदकार्य ततः यत्किश्चित्कृतमकार्य तत्पुनः 'नहु' नैव समाचरितुं। लब्भा-उपलभ्येत यथा तथा प्रतिक्रमितव्यं, एतदुक्तं भवति-किश्चिदकार्यं कृत्वा पुनर्यथा नैव क्रियते तथा तस्य प्रति
२२६॥ क्रमितव्यं, न पुनस्तदकार्य हृदयेन वोढव्यं, सर्वमालोचयितव्यमित्यर्थः । कथं पुनस्तदालोचयितव्यमित्यत आह-तस्य | PIच साधोयत्प्रायश्चित्तं मार्गविदो गुरव उपदिशन्ति तत्प्रायश्चित्तं 'तथा' तेनैव विधिनाऽऽचरितव्यं, कथम् ?, अनवस्था
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दीप अनुक्रम [११५८]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [११५८] → “नियुक्ति: [८०४] + भाष्यं [३२२...] + प्रक्षेपं [३०...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||८०४||
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प्रसङ्गभीतेन सताssलोचयितव्यम् , अनवस्था नाम यद्यकार्यसमाचरणात्प्रायश्चित्तं न दीयते क्रियते वा ततोऽन्योऽपि! एवमेव समाचरति यदुत प्राणिव्यपरोपणादी न किश्चित्प्रायश्चितं भवति ततश्च समाचरणे न कश्चिद्दोष इति, एवमनव-14 स्थाप्रसङ्गभीतेन साधुना प्रायश्चित्तं समाचरितव्यमिति । इतश्चालोचयितव्यम्-न तत्करोति दुःखं शखं नापि विष नापि 'दुष्पयुक्ता दुसाधितो वेतालः यन्त्रं वा दुष्पयुक्तं सर्पो वा क्रुद्धः प्रमादिनः पुरुषस्य दुवं करोति यत्करोति भावशल्यमनुवृतम् 'उत्तमार्थकाले अनशनकाले, किं करोतीत्यत आह-'दुर्लभबोधिकत्वं अनन्तसंसारित्वं चेति, एतन्महादुःखं करोति भावशल्यं अनुद्धृतं, शस्त्रादिदुःखानि पुनरेकभव एव भवन्ति, अतः संयतेन सर्वमालोचयितव्यम् । तो उद्धरति गारवरहिता मूलं पुणभवलयाणं । मिच्छादसणसल्लं मायासलं नियाणं च ॥ ८०५॥ उद्धरियसबसल्लो आलोइयनिंदिओ गुरुसगासे । होइ अतिरेगलहुओ ओहरियभरो व भारवहो ॥८०६॥ उद्धरियसबसल्लो भत्तपरिन्नाऍ धणियमाउत्तो। मरणाराहणजुत्तो चंदगवेझ समाणेइ ।। ८०७॥
आराहणाइ जुत्तो सम्म काऊण सुविहिओ कालं । उक्कोसं तिन्नि भवे गंतूण लभेज निवाणं ॥ ८०८॥ | - तत एवमालोच्य गारवरहिता मुनयः 'उहरन्ति' उत्पाटयन्ति मूलं पुनर्भवलतानां येन मिथ्यादर्शनशल्यं मायाशल्यं । निदानशल्यं चोद्धरन्तीति । सुगमा, नवरम्-अतिरेकम्-अत्यर्थ लघुर्भवति, 'ओहरितभारों' उत्तारितभारः 'भारवहः गर्दभादिः स यथा लघुर्भवति एषमालोचिते सति कर्मलघुत्वं भवतीति । यश्चैवंविधः स उद्धृतसर्वशल्यः 'भत्तपरिणाए। भक्तपत्याख्याने 'धनिकम्' अत्यर्थम् 'आयुक्तः' प्रयत्नपरो मरणाराधनयुक्तः, स एवंविधश्चन्द्रकवेधं 'समानयति' करो
दीप अनुक्रम [११५८]
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आगम (४१/१)
“ओघनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [११६२] → “नियुक्ति: [८०८] + भाष्यं [३२२...] + प्रक्षेपं [३०...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४१/१], मूल सूत्र-२/१] “ओघनियुक्ति" मूलं एवं द्रोणाचार्य-विरचिता वृत्ति:
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श्रीओषनियुक्तिः द्रोणीया
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||८०८||
॥२२७॥
तीत्यर्थः । अत्र च कथानक राधावेधे आवश्यकादवसेयमिति । किञ्च-आराधनया युक्तः प्रयलपरः सम्यक् कृत्वा सुवि-1
| विशुद्धिगुहितः काल पुनश्च 'उत्कृष्टतः' अतिशयेन सम्यगाराधनां कृत्वा श्रीन् भवान् गत्वा 'निर्वाणं' मोक्षमवश्यं प्रामोतीति, णा: नि. एतदुक्तं भवति-यदि परमसमाधानेन सम्यक् कालं करोति ततस्तृतीये भवेऽवश्य सिद्ध्यतीति । आह परः-उत्कृष्टतोऽष्टभ
८०५-८०८ वाभ्यन्तरे सामायिकं प्राप्य नियमात्सित्यतीति, जघन्यतः पुनरेकस्मिन्नेव भवे सामायिकं प्राप्य सिद्बतीत्युक्तं ग्रन्थान्तरे, उपसंहार
नि.८०९ततश्च यदुक्तं त्रीन् भवानतीत्य सिद्ध्यतीति तदेतत्राप्युत्कृष्टं नापि जघन्यं ततश्च विरोध इति, उच्यते, अनालीढसिद्धान्त
८११ सद्भावेन यत्किञ्चिदुच्यते, यत्तदुक्तं जघन्यत एकेनैव भवेन सिक्ष्यतीति तद्ववर्षभनाराचसंहननमङ्गीकृत्योकं, एतच्च 5 छेवट्टिकासंहननमङ्गीकृत्योच्यते, छेवद्विकासंहननो हि यद्यतिशयेनाराधनं करोति ततस्तृतीये भवे मोक्ष प्रामोति, उत्कृष्टशब्दश्चात्रातिशया) दृष्टव्यो न तु भवमङ्गीकृत्य, भवाङ्गीकरणे पुनरष्टभिरेवोत्कृष्टतो भवे छेवट्टिकासंहननो सिद्धरतीति ।। एसा सामायारी कहिया भे धीरपुरिसपन्नत्ता । संजमतवडगाणं निग्गंथाणं महरिसीणं ॥ ८०९॥ एवं सामायारिं जुजंता चरणकरणमाउत्ता । साह खवंति कम्म अणेगभवसंचियमणतं ।। ८१०॥ एसा अणुग्गहत्था फुडवियडविसुद्धवंजणाइन्ना । इक्कारसहि सएहिं एगुणवन्नेहि सम्मत्ता ॥८११॥ सुगमाः॥
(८१२).
दीप अनुक्रम [११६२]
॥ इति श्रीमद्रोणाचार्यविरचिता श्रीओघनियुक्तिटीका मूलसूत्रालङ्कृता समाप्ता॥ ॥ श्रीरस
)
मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र ४१/१)
"ओघनियुक्ति” परिसमाप्त: ।
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________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम: / | 41/1 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च। "ओघनियुक्ति: मूलसूत्र” [मूलं + भाष्यं + द्रोणाचार्य-रचिता वृत्तिः] | (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: “ओघनियुक्ति” मूलं एवं वृत्ति: नामेण परिसमाप्ता Remember it's a Net Publications of 'jain_e_library's' ~ 458~