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संख्या १]
पुजारी
को ही सँभालना न था, बल्कि छोटे भाई और दो बहनों पटवारियों के पास बैठकर पैमाइश का हिसाब भी सीख की शादी भी करनी थी। भाई-बंधु इच्छा रहते भी सहा- लिया। यता न कर सकते थे, क्योंकि पुजारी की मा के स्वभाव से पुजारी की धर्म में बड़ी श्रद्धा थी, इसी से अठारह वे परिचित थे। कहावत थी, पुजारी की मा के मारे कुत्ते वर्ष की उम्र में ही वे पुजारी कहे जाने लगे थे। वे बिना भी दरवाज़े पर फटकने न पाते थे ।
स्नान-पूजा के पानी भी नहीं पीते थे। उनके पाठ में गाँव के आस-पास पढ़ने का कहीं इन्तज़ाम न था, यद्यपि पहले हनूमान-चलीसा था, किन्तु धीरे धीरे हनूमानयह कह आये हैं। किन्तु पिता के जीते समय जब पुजारी बाहुक और रामायण भी शामिल हो गये । रामायण के तेरह-चौदह वर्ष के थे, तभी कहीं से भूलते-भटकते एक उन्होंने बहुत पाठ किये थे, और उसके ज्ञानदीपक जैसे मुंशी जी उस झारखंड के गाँव में पहुँच गये थे । यद्यपि स्थलों का उनका किया अर्थ बहुत बुरा न होता था। पीढ़ियों से उस गाँव के ब्राह्मणों ने विद्या से नाता तोड़ हर एक धर्मभीरु ब्राह्मण को अच्छी-बुरी साइत का ज्ञान रक्खा था, तो भी उनमें अभी कुछ श्रद्धा बाकी थी, और रखना ज़रूरी ठहरा । पुजारी के सारे गाँव के ब्राह्मणों के भुंशी जी के पास आधा दर्जन से ऊपर लड़कों ने पढ़ाई लिए कुल मिलाकर सिर्फ एक घर यजमान था । यदि शुरू कर दी। किन्तु दो-ढाई सप्ताह के भीतर ही अधिकांश यजमानी बड़ी होती, तो कौन जानता है, उसके कारण घर बैठ गये । डेढ़ महीने में मुंशी जी भी समझ गये- पुजारी को कुछ और पढ़ने का अवसर मिला होता । जब "धोबी बसि के का करे, दीगंबर के गाँव ।” मुंशी जी के उनकी स्त्री बीमार पड़ी उस समय तो उन्होंने 'रसराजचेलों में पुजारी ही थे, जो अन्त तक डटे रहे । कोदो देकर महोदधि' भी मँगा लिया, और यदि लोग कच्चीअोषधि पढ़ने की कहावत बहुत मशहूर है। पुजारी ने कोदो तो की भयंकरता का डर न दिखलाते तो शायद वे अपने नहीं दिया, किन्तु कहते हैं, दक्षिणा में मुंशी जी को कुछ बनाये मंडूर से ही पत्नी की चिकित्सा करते। उस समय धान ही मिलता था।
अखबार अभी गाँवों तक नहीं पहुंचे थे, तो भी जिन इस प्रकार अठारह वर्ष की उम्र, डेढ़ महीने की पुस्तकों का गाँवों में प्रवेश था, पुजारी उन्हें पढ़-समझ पढ़ाई और नीम से भी कड़वी ज़बानवाली मा-इन तीन सकते थे। साधनों के साथ पुजारी गृहस्थी सँभालने के काम में लगाये एक ओर पुजारी कट्टर पुजारी थे, दूसरी ओर नई
बातों के सीखने के लिए उनका दिमाग़ बिलकुल बंद न
था । पुजारी की बस्ती के भीतर सिर्फ एक कुआँ था, पुजारी असाधारण मेधावी थे । बत्तीस वर्ष की उम्र जिसके लम्बे-चौड़े आकार और टूटी-फूटी हालत को देखकर में उनका जो ज्ञान था उसे देखकर कोई नहीं कह सकता लोग उसे सतयुग के आस-पास का बना कहते थे । उसकी था कि उनकी पढ़ाई सिर्फ डेढ़ महीने की है। उनमें ज्ञान ईंटें एक ओर से पहले ही गिर चुकी थीं। एक दिन वह की बड़ी प्यास थी। अथवा ज्ञान कौन कौन हैं, यह भी सारा ही कुआँ बैठ गया। अब लोगों को दूर के कुएँ से तो उन्हें मालूम नहीं था। फिर प्यास कहाँ से होती ? हाँ, पानी भरकर लाना पड़ता था। पुजारी उस समय ३०-३१ काम में जब जब जिस ज्ञान की आवश्यकता होती, वे वर्ष के हो चुके थे। उनके पास धन भी था। उन्होंने उसके पीछे पड़ जाते, और न जाने कहाँ और किसके , अपने द्वार पर एक कुआँ बनवाना चाहा। अपने दिल में पास से सीखकर ही छोड़ते । उन्हें जोड़, बाकी, गुणा, भाग कुएँ का नक्शा खींचा-कुआँ ऐसा हो, जिसकी दीवार ही नहीं मालूम हो गया था, बल्कि भिन्न, त्रैराशिक और से घड़ा न टकराये। यदि नीचे की अपेक्षा कुएँ का ऊपरी पंचराशिक भी वे लगा लेते थे। एक समय गाँव में सर- भाग संकीर्ण कर दिया जाय तो यह हो सकता है। ईंटों कारी पैमाइश शुरू हुई । उस समय उन्होंने अमीनों और के भी प्रचलित आकार को छोड़कर उन्होंने अपने मन
गये।
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