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सरस्वती
[भाग ३६
जाती है, जिसमें पाँच-छः गुना संस्था की ओर से खर्च किया जाता है। पर इसी बौद्ध-संस्था की योर से तोक्यो में तीन और बस्तियाँ बसाई गई हैं। __इस संस्था को देखकर मुझे खयाल हुआ। कि ऐसा काम तो भारतीय म्युनिस्पल्टियों की थोड़ी सहायता होने पर भारत में भी किया जा सकता है। भारतीय कारखानेवाले भी अपने कारखानों में | ऐसा कर सकते हैं। किन्तु उन्हें अपनी मौज के सामने इधर खयाल करने की फुर्सत कब मिलने लगी। और हमारे राजनीतिज्ञ तो सभी बातों को स्वराज्य हो लेने के बाद के लिए छोड़ । रखना चाहते हैं।
२३ जुलाई को इंडो-जापानी-एसोसियेशन । के श्री सकाई मिलने आये। उनका कहना था, । ४० येन (३० रुपया) मासिक से यहाँ विद्यार्थी का काम चल सकता है। कल, उद्योग-धन्धा, कृषि, रेशम | सभी की शिक्षा का श्रासानी से प्रबन्ध हो सकता | है। हाँ, यदि विद्यार्थी मेट्रिक के अतिरिक्त | अपने पाठ्य विषय का कुछ मामूली-सा ज्ञान | भारत से ही सीख कर आये तो और आसानी । होगी। वैसे इन चीज़ों की शिक्षा जिन टेक निकल कालेजों, या कृषि-कालेजों में होती है उनका कोर्स तीन वर्ष का है, किन्तु भारतीय विद्यार्थी को भाषा | सीखने के लिए भी कुछ समय लगेगा।
[वीर सेनापति साइगा
बीता वैभव
लेखक, श्रीयुत छेलविहारी दोक्षित 'कण्टक' वह नन्दन-वन कहाँ ? आज जग उन सुमनों से सूना; वह पराग-अनुराग आग अब तो हैं,...उसे न छूना। | बिखरी वह अभिलाषा, आशा देती दुख दिन दूना। ललित-लता सरिता-तट सूनी-गत-यौवना चमेली ! रस की छलकन, हिय की ललकन-झलकन-भरा नमूना; करती मस्त न अब, रस पूरी–अङ्गरी अलबेली !!