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सरस्वती
[को गोसान्-धार पर पुल ]
होगी। यह गाँव छोटा-सा है। लेकिन दो-तीन दूकानें तथा दो-तीन कोरियन होटल हैं। दस बजे हम चले | १|| मील तक तो रास्ता ठीक मिला। उसके बाद चढ़ाई शुरू हुई, और खूब जोर-शोर से । बारह बजे थे, जब हम जोत् पर पहुँचे। वहाँ से दूर तक के पहाड़ियों को ही नहीं, दिगन्त विस्तृत नीले समुद्र को भी देख रहे थे।
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थोड़ा उतरकर दो-चार घरों का एक गाँव मिला। हमारा मध्याह्नभोजन का समय हो रहा था, और होटलवालों का भात भाजी का पाथेय प्रतीक्षा कर रहा था। हमारी बाईं ओर ठंडी जल की धारा बह रही थी । जल के तट पर छाया में बैठ गये। वहाँ हमने भोजन किया।
उतराई साधारण थी, और वह भी हरे वृक्षों की छाया से । कुछ दूर उतरकर दूसरी ओर से आनेवाली बड़ी धार के तट से ऊपर को चढ़ने लगे। कुछ दूर चलकर एक लीक मिली। फिर एक चौड़ी सड़क आ गई । मोटर की नहीं, पैदल की। अनुमान हो गया, अब हम यु-देन् जी मठ से बहुत दूर नहीं हैं। वृक्षों के बीच से चलते हुए हम एक छोटे गाँव में पहुँचे । यह होटलों का गाँव था। चंद क़दमों के बाद ही मठ का प्रथम दरवाज़ा था। इसके भीतर स्त्रियों का रहना नहीं हो
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[ भाग ३६
सकता था, इसलिए सारे होटल बाहर बने हुए थे। दरवाज़े से मठ दो फर्लांग पर होगा। एक हाल में का बना सुन्दर काठ का पुल मिला, जिसके पार मठ था। इस जगह भूमि अधिक विस्तृत और पर्वतपंक्ति दूर हट जाती है। चारों ओर देवदार ही देवदार दिखाई पड़ते हैं। नदी, देवदार, पर्वतावली देखकर मैं तो समझने लगा, हिमालय में पहुँच गया हूँ । युतेन जी को गो- सान् का सबसे बड़ा मठ है। इसमें १०६ भिक्षु रहते हैं, इसलिए बहुत-से मकान होने ही चाहिए। इस मठ की स्थापना चौथी सदी में हुई थी। और उसी जगह पर जहाँ भारत से आये हुए भिक्षुओं को एक कथा के अनुसार नौ-नागों ने डरा धमकाकर भगाना चाहा था !
भारतीय भिक्षु का नाम सुनते ही लोगों के कान खड़े हो गये, और संकेजी के प्रधान की चिट्ठी पर तो और भी प्रभाव बढ़ा। मठ के प्रधान ने स्वागत किया । जापानियों के आने के समय संकेजी के प्रधान काफ़ी उम्र के हो गये इसलिए वे जापानी भाषा बोल- समझ नहीं सकते थे, किन्तु यहाँ अब सभी उसे धड़ल्ले से बोल रहे थे। दो भिक्षु कुछ अँगरेजी वाक्य भी बोल लेते थे । १ बजे हम पहुँचे थे और तीन बजे ही लौटना था, इसलिए झटपट मन्दिर देखना था। बूट छोड़ कोरियन जूता पहना । इसकी शकल बिलकुल भारतीय जूतों की होती है, और आज-कल रबड़ के जूतों के सस्तेपन के कारण चमड़ेवाले जूते ढूँढ़े भी नहीं मिलते। प्रधान मन्दिर में गये। एक वृक्ष की शाखाओं पर बहुत-से बुद्ध खड़े हैं। कहा तो गया, छः सौ बुद्ध हैं, किन्तु उतने मालूम नहीं पड़ते। विहार की स्थापना के समय का बाहर का चतुष्कोणपाषाण स्तूपमात्र है। स्तूप में नौ तल्ले हैं, और वे चतुष्कोण हैं। संकेजी की अपेक्षा यह स्तूप अधिक सुरक्षित है, इसी लिए भ्रम होता है, शायद पीछे का हो। विहार की सबसे पुरानी इमारत प्रधान द्वारमंडप है, जो नदी के तट के क़रीब है। आजकल इसमें सैकड़ों नामांकित काठ की पट्टियाँ लटक रही हैं। हर एक नाम अमर करनेवाले स्त्री-पुरुष कुछ पैसे खर्च कर उन्हें यहाँ लगवा देते हैं। यह मंडप तेरहवीं सदी में बना था। प्रधान मन्दिर के एक ओर चार सौ वर्षों का पुराना एक विशाल घंटा है। उसी की बगल में मन्दिर का म्यूज़ियम है। इसमें कुछ पुरानी पुस्तकें, चित्र- फलक, कपड़े और बर्तन रक्खे हैं। इनमें एक सात सौ वर्ष की पुरानी पुस्तक है । छः सौ वर्ष के पुराने दो-तीन जापानी चित्र फलक हैं। एक में हरे बॉस के सामने नरमादा सारस को चित्रित करने में बड़े कौशल का परिचय दिया गया है। छः सौ वर्षों का एक भिक्षु वस्त्र (चीवर केसा -कषाय) भी है। मठ का हाता खूब साफ़ है, और मकान भी साफ़ रक्खे गये हैं, इससे जान पड़ता है कि युतेन् जी मठ अच्छी अवस्था में है। मठ के भिक्षुओं के पढ़ने के लिए पाठशाला है, जिसमें ६० विद्यार्थी पढ़ते हैं।
आते ही को-गो- सानू के दूध जैसे सफ़ेद मधु से स्वागत किया गया था। चलते वक्त हस्तलेख देने के लिए आग्रह हुआ। दो-तीन
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