________________
फारसी में भागवत
लेखक, श्रीयुत महेशप्रसाद मौलवी आलिम फ़ाज़िल श्रीमद्भागवत हिन्दुओं का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। जिस समय भारत में फारसी का जोर बढ़ा, संस्कृत के अन्य ग्रन्थों की भाँति श्रीमद्भागवत के भी उसके प्रेमियों ने फारसी में अनुवाद कर डाले। इनमें से कई अनुवाद अब भी मिलते हैं। फारसी और अरवी के सुप्रसिद्ध पंडित श्रीयुत महेशप्रमाद जी ने इस लेख में ऐसी ही भागवतों का परिचय दिया है।
ज रत में जिस समय फ़ारसी का माहब ने पहले रचा था, क्योंकि दशम स्कन्ध के पहले
ज़ोर था उस समय संस्कृत जो पद्य हैं * उनसे स्पष्ट है कि लाला साहब लालपुर के अनेक अपूर्व ग्रन्थों का नामक स्थान के निवासी थे। इनके बाल्य-काल में ही अनुवाद फ़ारसी में हुआ जब यह स्थान पानी की बाढ़ से नष्ट हो गया तब ये दिल्ली था अथवा यह कि संस्कृत- में अपने पिता के यहाँ जाकर रहने लगे। वहाँ इन्होंने ग्रन्थों के असली भावों को पढ़ा-लिखा और सन् ११४५ हिजरी अर्थात् सन् १७४२
दर्शाया गया था। पुराणों ईसवी में पहले अन्तिम तीनों स्कन्धों को लिखा । प्रथम नौ की महत्ता कुछ कम नहीं। यही कारण है कि अनेक स्कन्धों के रचे जाने की समाप्ति का समय नवम स्कन्ध के पुराण फ़ारसी में मिलते हैं । समस्त पुराणों में सबसे अधिक अन्त में श्रावण सुदी चतुर्थी संवत् १८०७ विक्रम अर्थात् प्रसिद्ध 'श्रीमद्भागवत' है। यही कारण है कि गद्य तथा (सन् १७५० ईसवी) लिखा हुआ है। । इसी भाग के अन्तिम पद्य में इसकी कई प्रतियाँ प्रकाशित तथा हस्तलिखित पृष्ठ पर प्रेम के मैनेजर की ओर से एक विज्ञापन प्रकाशित (फ़ारसी में) सम्पूर्ण अथवा अपूर्ण मिलती हैं। फ़ारसी है। उससे स्पष्ट होता है कि प्रेस की ओर से अन्तिम तीन भागवत की ये प्रतियाँ मेरी दृष्टि में पाई हैं।
स्कन्ध प्रथम प्रकाशित हुए थे, क्योंकि लाला साहब ने
उन्हें पहले रचा था । और आदि के नौ स्कन्ध बाद को 'श्रीमद्भागवत' के नाम से सम्पूर्ण बारह स्कन्ध फारसी प्रकाशित हुए, क्योंकि ये स्कन्ध अन्तिम तीनों स्कन्धों के पद्य में हैं। इसके रचयिता का नाम लाला अमानत राय बाद रचे गये थे। नवलकिशोरी संस्करण के सिवा लाला
और उपनाम 'अमानत' लिखा हुआ है। यह सम्पूर्ण साहब के प्रथम नौ स्कन्धों का कोई अन्य संस्करण मेरी ग्रन्थ मुंशी नवलकिशोर साहब के प्रेस कानपुर से सन् दृष्टि में अभी तक नहीं आया और न किसी लेख से ही १८७० ईसवी में प्रकाशित हो चुका है। मँझले आकार के मुझे यह मालूम हो सका कि कहीं यह दुबारा छपा है, १,७४८ पृष्ठों में है। दो भागों में विभक्त है। एक भाग किन्तु अन्तिम तीनों स्कन्धों का एक और संस्करण मेरी में प्रथम ८ स्कन्ध हैं और दूसरे में बाकी तीन स्कन्ध हैं। दृष्टि में अवश्य पाया है जो 'सुदर्शन-चक्र-प्रेस' से परन्तु यह ज्ञात रहे कि अन्तिम तीन स्कन्धों को लाला जमादी-उल-औवल सन् १२७२ हिजरी (जनवरी सन्
* लखनऊ के सिवा मुंशी जी का एक छापाखाना * देखो पृष्ठ २-८॥ पहले कानपुर में भी था ।
। देखो पृष्ठ ६६५। ५३३
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com