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सामायक साहित्य
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भारतवर्ष का परिवर्तनकाल महत्त्वपूर्ण बात यह देखना है कि किस भावना से हम
का ग्लंड में ईस्ट इंडिया असो- भारतीयों को नवीन शासन-विधान देते हैं और किस
सिएशन' नाम की एक भावना से वे उसका स्वागत करते हैं।" परन्तु जिस परिसंस्था है। यह एक प्रकार वर्तन की बात मैं कहने जा रहा हूँ वह राजनैतिक उतना का साहित्यिक संस्था है। नहीं है जितना कि सामाजिक है । इसमें शिक्षित अंगरेज़ और उदाहरण के लिए पर्दा को लीजिए। हैदराबाद में विलायत में जाकर रहन- मैंने एक अभूतपूर्व दृश्य देखा । सड़क पर सफ़ेद वस्त्र से
वाले भारतीय परस्पर ढंकी हुई मुझे एक भूत-सी कोई चीज़ चलती दिखाई विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। इस संस्था की पड़ी। उसमें आगे आँखों के दो जालीदार निशान बने कार्यवाही लन्दन से प्रकाशित होनेवाले मासिक पत्र थे। पूछने पर मालूम हुआ कि यह भूत नहीं, 'एशियाटिक रिव्यू' में छपा करती है । गत आक्टोबर हम जैसी ही हाड़-मांस की मानव-प्राकृति है, जिसे सारी के अंक में श्रीयुत फ़िलिप मोरेल का जो पार्लियामेंट ज़िन्दगी कैदखाने में बितानी पड़ेगी। इससे यह सिद्ध के मेम्बर हैं और जो हाल में दो महीने के होता है कि भारतवर्ष में अभी पर्दा है। इसमें सन्देह नहीं लिए भारत का भ्रमण करने आये थे, एक लेक्चर कि हज़ारों औरतें पर्दे के भीतर दुःख का जीवन व्यतीत छपा है। इसे इन्होंने 'भारतवर्ष का परिवतनकाल' कर रही होंगी । परन्तु इस प्रथा के विरुद्ध आन्दोलन शुरू शीर्षक में उक्त संस्था में पढ़ा था। लेक्चर के है और यह मर रही है । १८७५ में बड़ौदा में एक भी अन्त में उपस्थित सदस्यों की टिप्पणियाँ भी छापी लड़कियों का स्कूल नहीं था । परन्तु अब वहाँ ६८,००० गई हैं। यहाँ हम उनके लेक्चर का मार देते हैं लड़कियाँ शिक्षा पा रही हैं । जो हाल बड़ौदा का है वही ___भारतवर्ष से मेरा प्रेम बचपन से ही है। मेरी बुया समस्त भारत का समझिए । एनी ने भारतीयों की सेवा में अपनी ज़िन्दगी ही गुज़ार जात-पात के सम्बन्ध में भी बहुत बड़ा परिवर्तन हो दी। वे मुझे अपने पत्रों में भारत की बातें लिखकर और रहा है। अछूत अब वे पहलेवाले अछूत नहीं रहे । यहाँ के चित्र भी भेजा करती थीं। उन सब बातों से मैसूर में वे सिविल सर्विस में भर्ती किये जा रहे हैं और भारत के बारे में मेरा प्रेम बढ़ता गया। फिर भारत से बड़ौदा में महाराज के महल में उन्हें प्रतिवर्ष प्रीतिभोज मेरा इतना ही लगाव नहीं है । मेरी पत्नी भारत के एक दिया जाता है । ये नई प्रवृत्तियाँ बड़े बड़े शहरों में ही भूतपूर्व गवर्नर-जनरल की पोती हैं और दूसरे की भतीजी। नहीं, देहातों में भी देखी जा रही हैं। इसलिए मैं भारत की यात्रा करने यों ही नहीं निकल पड़ा धर्म का ज़ोर अभी कम नहीं हुआ है। यह देखना था. बल्कि उसके स्नेह के बन्धन ने हमें प्राकृष्ट किया था। हो तो बनारस जाइए ! कलकत्ता-हाईकोर्ट का एक मुकद्दमा
भारतवर्ष में बड़े बड़े परिवर्तन हो रहे हैं । नये विधान मेरे देखने में आया। बङ्गाल के एक गाँव के एक के विषय में मुझे कुछ नहीं कहना है। इस सम्बन्ध में देवमंदिर को ग़रीब किसानों की जेब से प्रतिदिन ३० पौंड लार्ड हालीफ़ाक्स का एक वाक्य काफ़ी होगा-"सबसे की आमदनी होती है । सैकड़ों अछूत ऐसे हैं जो जीवन
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