Book Title: Saraswati 1935 07
Author(s): Devidutta Shukla, Shreenath Sinh
Publisher: Indian Press Limited

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Page 613
________________ संख्या ६] सामयिक साहित्य ५५९ रहते हुए भी मानो प्रभु ने इन्हें अत्यधिक सुखी बनाया खाकर मज़बूत रहते हो, परन्तु हम क्या खाकर मेहनत हो । इनको न सुख न दुख । मज़दूरी करें ? हमारा मिष्टान्न, मेथीपाक जो गिनो, मुर्गी, ___इस प्रजा को वस्त्र पहनते हुए भी यदि नग्न ही मछली, बकरा ही हैं। कहा जाय तो भी अत्युक्ति नहीं। सर्दी, गर्मी और बरसात अनाज में जुार का रोटला मुख्य भोजन है । भात इस शरीर पर ही सहन करनी पड़ती है । प्रजा अाकाश बहुत कम मात्रा में खाते हैं। अतिथि-सत्कार या पर्व, और ज़मीन के सहारे दिन पूरा करती है । पृथ्वी शय्या त्योहार पर भात को ही मिष्टान्न और इसी में ही आनन्द तथा अाकाश परिधान है। तथा अादर मानते हैं। दैनिक भोजन में जुयार और ___पहाड़ी प्रदेश में रहती हुई यह प्रजा सिर्फ एक लँगोटी मकई ही मुख्य हैं। गेहूँ का ऊँचे आदमियों का खाना ही पहनती है । उच्च वर्ण के सहयोग से इस जाति ने कपड़ा समझते हैं। पहनना सीखा है। परन्तु कपड़ों के लिए भी साधन नहीं खाने, पीने तथा अन्य आवश्यक सभी बर्तन मिट्टी हैं । स्त्रियाँ एक कापडु (चोली), घाँघरा और एक अोढ़नी के ही होते हैं । यदि कभी मेहनत-मजदूरी कर पैसा बचा पहनती हैं। घाँघरा पहनने का दंग ऐसा है कि घाँघरा और धातु के पात्र ले भी आये तो दारू के व्यसन में लम्बा-चौड़ा होते हुए भी ये स्त्रियाँ अर्धनग्न मालूम पड़ती उसको कलाल के यहाँ गिरवी रख पाते हैं। हैं। स्त्रियाँ घाँघरा को धोती की तरह घुटने से ऊपर घर में यदि कोई बीमारी फैले तो दवा नहीं करते, ऊपर ही पहनती हैं। इस प्रकार कपड़े के उपयोग से भी परन्तु मूठ, भूत, प्रेत या डाकिनी का उपद्रव मानते हैं । यह प्रजा अनभिज्ञ है। माता के नाम पर मुर्गी, बकरा, बकरी, भैंसे की बलि दी ___ खास कर स्त्रियाँ आभूषणों की शौकीन हैं । गले में जाती है । बीमार श्रादमी अच्छा होने पर माता को बलि काच के मनके, कौड़ियाँ और सीपियों का हार विविध चढ़ाता है और नैवेद्य के रूप में दारू चढ़ाकर पी जाते प्रकार का पहनती हैं। हाथ में पीतल के मोटे मोटे दो हैं। इस अज्ञानता से पाखण्डी, धूर्त लोग खूब लाभ कङ्गन, कहीं कहीं हाथ में एक एक और कहीं कहीं उठाते हैं और बहुत-से बीमार अकाल मौत से ही मर सारी बाँह में मोटे मोटे कङ्कन मारवाड़ियों की तरह जाते हैं। पहनती हैं। यदि आप किसी भील से पूछिए कि तुम कौन हो___ दुर्भाग्य से ही कोई दुर्व्यसन ऐसा न होगा जिसने हिन्दू हो या मुसलमान तो जवाब मिलेगा कि मैं तो इस जाति में घर न किया हो। दारू-ताड़ी में चूर रहना भील हूँ या नायक इत्यादि। यह उत्तर इनकी धार्मिक इनका नैतिक कर्म है। इस दुर्व्यसन ने इस वीर जाति अज्ञानता का परिचायक है। का नाश किया है। इसको घर-बार तथा ज़मीन-जागीर भील स्त्री-पुरुष बहुत प्रेमपूर्वक रहते हैं। अानन्द से से रहित कर दिया है। साथ ही वैयक्तिक गुलामी के दिन व्यतीत करते हैं। पर गाँव जाते समय काम या शिकंजे में जकड़ दिया है। मेहनत-मज़दूरी के समय दोनों साथ ही जायँगे। गृह-कार्य __ इनका बूमला (सूखी मछलियाँ), मुर्गे, बकरे, अण्डे भी दोनों साथ मिल कर करेंगे। यह रवाज प्रशंसनीय और मांस ही भोजन है। है । अाज-कल जितना प्रेम पढ़े-लिखों में देखने में नहीं त्योहार, मरण, पर्व आदि प्रसंगों पर पाड़ा आता उससे अधिक प्रेम भील स्त्री-पुरुषों में दिखाई और भैंस के मांस का प्रयोग करते हैं। विवाह, अतिथि- देता है। सत्कार सब मांस और दारू से ही करते हैं। भीलों में तलाक का बहुत रवाज है। विवाह होने पर जब भील स्त्री-पुरुषों से पूछिए कि मांस क्यों खाते यदि स्त्री की आदमी से न पटे तो स्त्री अमुक रकम हो तब जवाब मिलेगा कि तुम तो घी, दूध, शाक-भाजी आदमी को देकर दूसरा पति कर सकती है। इसी प्रकार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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