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सरस्वती
[भाग ३६
सम्बन्ध में वहाँ के एक स्थानीय पत्र में बिहारी लेखकों के के भीतर अपने संघ-बल से उच्च वर्णवालों को सम्बन्ध में जो प्रान्तीयतापरक चर्चा छिड़ी थी उस सिल- अपने आगे घुटने टिकवा सकते हैं । परंतु खेद के साथ सिले में यह भी कहा गया था कि 'बिहार-प्रान्तीय हिन्दी- कहना पड़ता है, उनके नेताओं का ध्यान इस महत्त्व की साहित्य-सम्मेलन' का नाम केवल 'बिहार-हिन्दी-साहित्य- बात की ओर नहीं जाता है, वे कष्ट-साध्य संगठन जैसे सम्मेलन' रखना चाहिए । इधर हाल में मौरावाँ में 'अवध- महत्त्व का कार्य करने का उद्यत नहीं दिखाई देते हैं, किन्तु मण्डल' की स्थापना की जा चुकी है । गुजरात में हिन्दी- वे अपने पददलित भाइयों को धर्म-परिवर्तन-द्वारा किसी प्रचार के लिए 'हिन्दुस्तानी-मण्डल' की स्थापना सरदार दूसरे धर्म की अनुयायिनी जाति का आश्रय लेकर अपना पटेल के आदेश से हो ही गई है। यह सब निःसन्देह अस्तित्व मिटाना चाहते हैं। हरिजनों के नेताओं को हिन्दी की शुभ कामना को ही सामने रखकर हो रहा है, जानना चाहिए कि भारत उनका देश है और वे अपने परन्तु यदि इन्होंने किसी कारण प्रान्तीय भावना का देश में सभी क्षेत्रों में समान व्यवहार के अधिकारी हैं । आश्रय दिया तो वह हिन्दी के लिए विघातक सिद्ध होगी। परंतु अपनी अज्ञता और साधनहीनता के कारण वे अतएव हिन्दी के महारथियों को चाहिए कि वे इन अपने सारे नैसर्गिक अधिकार गँवा बैठे हैं; और वह सब संस्थाओं की गति-विधि की ओर ध्यान दें, अन्यथा इनसे उन्हें तभी प्राप्त हो सकेगा जब वे उसे प्राप्त करने एवं हिन्दी की हानि होने की सम्भावना है जैसा कि पटना के उसे अपने हाथ में रखने की क्षमता का अर्जन करने में पिछले साहित्यिक समारोह-सम्बन्धी 'योगी' और 'अभ्युदय' समर्थ हो सकेंगे। परन्तु वह क्षमता उन्हें धर्म-परिवर्तनके वाद-विवाद से प्रकट हो चुका है।
द्वारा नहीं प्राप्त हो सकेगी। अपनी वर्तमान दीन-हीन
अवस्था में वे जहाँ जायेंगे, अाज जैसे अछूत ही बने हरिजन-समस्या
रहेंगे। हरिजनों के प्रमुख नेता डाक्टर अम्बेदकर ने यह घोषणा निकाली है कि हरिजनों को हिन्दूधर्म को छोड़कर
कुमारी अमला नन्दी दूसरा धर्म ग्रहण कर लेना चाहिए। यही नहीं, वे अपने भारत की प्राचीन नृत्यकला में कुमारी अमला नन्दी दल-बल के साथ धर्म-परिवर्तन करने की तैयारी भी कर रहे ने बहुत थोड़े समय में अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर ली हैं । डाक्टर अम्बेदकर यह साहसपूर्ण कार्य इसलिए कर रहे है। ये कलकत्ते के इकानमिक ज्वेलरी वर्क्स के अध्यक्ष हैं कि उच्च जाति के हिन्दू हरिजनों को अछूत समझते श्रीयुत अक्षयकुमार नन्दी की पुत्री हैं । १६३१ के अप्रैल हैं और उनके साथ समानता का व्यवहार नहीं करते। में नन्दी महोदय पेरिस के इन्टर्नेशनल कालोनियल
इसमें सन्देह नहीं कि हरिजनों के साथ ऊँची जाति एक्सपोज़ीशन में भारत के रत्नाभूषणों तथा ललितकला का के हिन्दुओं का जो व्यवहार है वह सर्वथा निन्द्य है प्रदर्शन करने के लिए योरप गये थे। पिता के साथ ही
और इस बीसवीं सदी के युग में वह असहनीय भी है। कमारी नन्दी भी वहाँ गई थीं। पेरिस में इन्होंने फ्रेंच परन्तु यह बात कि इसके लिए हरिजन हिन्दू-धर्म ही छोड़ पढ़ना प्रारम्भ किया और तीन मास में ही इतनी योग्यता देंगे, यदि वे सच्चे हिन्दू हैं तो उनके पौरुष का द्योतक प्राप्त कर ली कि फरासीसियों से ये धड़ल्ले से फ्रेंच में नहीं है। हरिजनों के पास न तो अर्थ-बल है, न विद्या- बातचीत करने लगीं। कुमारी श्रमला नन्दी ने उक्त बल है, परन्तु उनमें संख्या तथा मनुष्यता का पूरा बल प्रदर्शिनी के मनोविनोद-विभाग में प्राचीन भारतीय है। फिर उनका ऊँची जाति के अनेक समर्थ लोगों की नृत्यकला का प्रदर्शन किया । दर्शकों को इनका नृत्य बहुत काफ़ी सहायता भी प्राप्त है। ऐसी दशा में वे यदि ही पसन्द आया और उन लोगों ने इनकी भूरि-भूरि अपना संगठन करने को तैयार हो जायँ तो कुछ ही समय प्रशंसा की। नृत्यकला के इस असाधारण प्रदर्शन की
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