Book Title: Saraswati 1935 07
Author(s): Devidutta Shukla, Shreenath Sinh
Publisher: Indian Press Limited

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Page 583
________________ संख्या ६] कुण्ठव स्वरलहरी का अनुसरण करती हुई वहाँ पहुँची और देखकर विस्मित हो गई। उसने पहचाना कि यह वही बन्दी चालुक्यराज है जिसकी दुर्दशा देखकर मेरे नेत्रों से दो बूँद आँसू उस दिन गिरे थे । एकाएक कुण्ठवि को देखकर विमलादित्य चौंक उठा। सावधानी के साथ वीणा को रखकर वह खड़ा होगया। उस समय भी वीणा का स्वर बाबु मेरी री करके हुत हो रहा था। विस्मित और स्तम्भित बन्दी ने पूछा आप कौन हैं? कुण्डलि ने अकुण्हित कण्ठ से गौरव के साथ कहा- मैं राजाधिराज राजराजा की कन्या कुण्ठवि हूँ और सङ्कचित होकर विमलादित्य ने कहा- देवि में बन्दा हूँ कौन-सा अपराध किया है? मोतियों के समान दांत विकसित हँसती हुई राजकुमारी ने कहा - इधर से ही होकर मैं प्रतिदिन देवाराधन के लिए जाया करती हूँ। मुझे यह नहीं मालूम था कि आप इस बाग़वाले मकान में ही बन्दी हैं। आज आपकी वीणा का सुमधुर स्वर सुनकर मुझे कौतूहल हुआ। उसी की निवृत्ति के लिए यहाँ आई हूँ । 1 प्राणदण्ड भांत मैंने करके X X X राजकुमारी उस दिन से देवमन्दिर में जाते समय प्रतिदिन हो उस तरुण बंदी राजा की वीणा की तान सुनने लगी। वीणा के प्रत्येक स्वर में मानो विमलादित्य के बन्दी जीवन की कथा उच्चरित हुआ करती थी। धीरे धीरे विमलादित्य और कुण्ठवि परस्पर एक दूसरे से प्रेम करने लगे । इसी तरह कई महीने बीत गये। एक दिन विमलादित्य ने कहा- देवि, मैं बन्दी हूँ तुमने मुझसे प्रेम करने की गुलता क्यों की? मालूम नहीं कि किस दिन मेरे प्राणदण्ड की निष्ठुर आशा सुनाई जाय राजकुमारी यह तो असम्भव है कि हम तुम प्रेम का जीवन बितायें, सर्वथा असम्भव है। कुण्ठव ने दर्पमय स्वर में कहा - विमलादित्य, तुम किसी भी बात के लिए मत डरो। मैं तुम्हें मुक्त कर लूँगी। यदि ऐसा न कर सकी तो यह जीवन ही विसर्जित कर दूंगी। राजकुमारी के मुख में बिजली की चमक के समान हँसी विकसित हो उठी । उसकी दृढ़ता से मुग्ध होकर बन्दी ने कहा- देवि, तुम अवश्य राजाधिराज की सुयोग्य कन्या हो । (१०) युवराज राजेन्द्र अपनी इस मातृदांना भगिनी को प्राणों से भी अधिक प्रिय समझता था । छुटपन में उसका कितना ही आग्रहपूर्ण किन्तु अनुचित प्रार्थनाओं को भी उसने स्वीकार किया था। ये दोनों ही भाई-बहन एक साथ ही माता-पिता के स्नेहमय अञ्चल में रहकर बड़े हुए. थे A Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat राजेन्द्र एकान्त कमरे में बैठा था। वह यही सोच रहा था कि सिंहल विजय की यात्रा किस प्रकार करूँ। नौवाहिनी को सुसज्जित करने ५३१ तथा सेना को सुसङ्गठित करने के लिए उसका मन अधीर हो रहा था । उसी समय कुण्ठवि उसके कमरे में पहुँचा । राजेन्द्र ने स्नेह-पूर्वक कुण्ठवि को सम्बोधित करके कहा- तुम यहां एकाएक कैसे आई हो बहन ? कुण्ठवि ने कहा- भैया, तुमसे मुझे एक बात कहनी है । राजेन्द्र ने विस्मित होकर कहा- तुमको ? बतलाओ । क्या किसी नये देश का कोई नई ची उपहार देना होगा ? कुण्ठवि गम्भीर होकर विमलादित्य की मुलाक़ात तथा उसके प्रेम की कथा कह गई और उसने उस प्रेम-रक्षा के लिए कोई उपाय करने का आग्रह किया। इस आकस्मिक संवाद से राजेन्द्र विस्मित हो उठा। उसका चेहरा उत्तर गया वह सोचने लगा कि राजराजा जैसे दुर्धर्ष राजा से मैं यह बात कैसे कहूँगा । वह समझ गया कि इसका परिणाम बहुत ही भयङ्कर हो सकता है। किन्तु कुण्ठवि ने जब अपनी जेब से मणिमुक्ता से खचित एक छोटी-सी छुरी निकाल कर कहा - भैया, यदि तुम पिता जी से कहकर हमारे विवाह की व्यवस्था न कर सकोगे तो मैं यही बुरी हृदय में भीक कर प्राण त्याग कर दूँगी। राजेन्द्र का स्नेह से दुर्बल हृदय कांप उठा। यह क्या? यह तो बड़ी आश्चर्यजनक घटना है ! कुण्ठत्रि बन्दी राजा के प्रेम में पड़ गई ! डर के मारे राजेन्द्र का हृदय थरथर कांपने लगा। वह सोचने लगा कि किस तरह किस साहस से में सम्राट् से कहूँगा कि विमलादित्य तथा कुण्ठत्रि परस्पर एक-दूसरे से प्रेम करते हैं, अतएव आप विमलादित्य को मुक्त करके उन दोनों का विवाह कर दीजिए । ऐसा कहने का फल क्या होगा, यह राजेन्द्र को अज्ञात नहीं था। परन्तु फिर मां फिर भी बहन का मुँह ताककर राजेन्द्र राजराजा के समीप गया । X X X में राजराजा मंत्रियों तथा अन्यान्य सभासदों से परिवेष्टित राजसभा विराजमान था। ऐसे ही समय में राजेन्द्र वहाँ पहुँचा। पुत्र के देखकर राजराजा ने पूछा- क्या तुम्हें कुछ कहना है ? "हां सम्राट् !" "कह सकते हो।" सम्राट् की आज्ञा पाकर राजेन्द्र ने कुण्ठवि और विमलादित्य का हाल कह सुनाया । श्रावण के मेघ के समान राजराजा का मुख गम्भीर हो गया । सभास्थल नीरव था । सहसा एक उच्च हास्य के अट्टहास से चारों दिशाओं को मुखरित करके राजराजा ने कहा- इतनी बड़ी स्पर्द्धा इस हतभाग्य बन्दी चालुक्यराज की इतना घोर अपमान ! असह्य है । इतने दिनों तक इसके मामले का निपटारा न करके मैंने बहुत अनुचित किया है। कल ही इसका फैसला करूँगा, उचित दण्ड दिये बिना न रहूँगा । सेनापति, कल सवेरे विमलादित्य को हमारे सम्मुख उपस्थित करो । • www.umaragyanbhandar.com

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